राजस्थान के माहिर बाघ शिकारी कर्नल केसरी सिंह लिखते हैं कि, जब दतिया महाराज श्री गोबिंद सिंह शिकार करने ग्वालियर आये तो उन्हें तैयारी का बहुत कम समय मिला और आनन-फानन में केसरी सिंह जी ने अपने शिकारख़ानों के कर्मचारियों से बाघ के बारे में जानकारी ली। बाघ ने एक गांव के पास एक गाय का शिकार किया था। स्थिति का जायजा लेने वह स्वयं वहां गये, उन्होंने पाया कि, शिकार खुले में पड़ा था और आस पास मचान बांधने की उचित जगह ही नहीं थी। उन्होंने तय किया की उस से 500 गज दूर एक बरगद के पेड़ पर मचान बांधा जाए साथ ही एक घरेलु सूअर को उसके लिए प्रलोभन के रूप में बांधा गया। परन्तु केसरी सिंह जी ने बाघ को उस सूअर तक लाने के लिए एक अनोखी वनस्पति की गंध का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि, इस वनस्पति की सुगंध बाघों को लुभाती है। यह वनस्पति है – जटामासी (Indian Spikenard) जिसे वनस्पति शास्त्र की भाषा में Nardostachys jatamansi के नाम से जाना जाता है। यह आज बाघों से भी अधिक एवं घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered या CR) श्रेणी में राखी गयी पादप प्रजाति है।
बाघ को अपनी और लुभाने के लिए उन्होंने दो बोरों में जटामासी को भर कर पहले उसे गिला किया एवं दो अलग-अलग सहयोगियों को उन बोरों के रस्सी बांध के दे दिया। उन्हें कहा गया कि, इनको दो दिशाओ में 500 मीटर जमीन पर घसीटते हुए मचान की और लाये ताकि जमीं पर इसकी सुगंध फ़ैल जाये। केसरी सिंह मानते थे कि, इस वनस्पति में मादा बाघिन के समान गंध आती है।
यह तरीका काम कर गया एवं रात्रि 9 बजे बाघ उनके मचान के पास गंध के पीछे-पीछे आ गया था, जिसका सफलता पूर्वक शिकार किया।
जब महाराष्ट्र में एक बाघिन जो दर्जन भर लोगो को मारने के लिए उत्तरदायी मानी जा रही थी, तो कुछ वन अधिकारी जंगल में उसे ढूंढने के लिए एक खास प्रकार का परफ्यूम छिड़क रहे थे। आप सोच रहे होंगे यह बड़ा विचित्र तरीका है, बाघिन को ढूंढने का, परन्तु कई जगह इसक तरीके को इस्तेमाल किया गया है जैसे दक्षिण अमेरिका में परफ्यूम से जैगुआर को आकर्षित किया जाता रहा है, ताकि बायोलॉजिस्ट उसका कैमरा ट्रैप में फोटो ले सके। शोधकर्ता यह तरीका खास परिस्थिति में इस्तेमाल करते है जब कोई बाघ जंगल से भटक कर कहीं बाहर निकल जाता है। यह परफ्यूम अधिकांश तय कैल्विन क्लेइन नामक ब्रांड का होता है और इसमें एक खास तरह का फेरोमेन है, जो सीवेटोन कहलाता है। यह एक खास तरह की बिज्जू या सिवेट प्रजाति के स्तनधारी की विशेष ग्रंथियों में मिलता है। यह फेरोमेन आज कल कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है। परन्तु कृत्रिम रूप से प्राप्त बिज्जू की ग्रंथि का स्त्राव प्राचीन समय में इत्र का मुख्य घटक था।
ब्रोंक्स ज़ू ने कई प्रकार के इत्रों पर बाघों की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में आंकड़े जुटाए और बताया कि, सबसे अधिक ‘कैल्विन क्लेइन’स ओबसेशन फॉर मेन’ को बाघों ने 11.1 मिनट तक सूंघते रहा, वहीँ ‘रिक्की’स ल’एयर दू टेम्प्स’ को 10.4 मिनट तक सुंघा वहीँ अन्य कुछ परफ्यूम को मुश्किल से 2-15 सेकंड ही दिये।
बाघ अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए अपने मूत्र और अंगो की विभिन्न ग्रंथियों से पेड़ो और पत्थरों पर अपनी गंध छोड़ते है। यह गंध इतनी हल्की होती है, परन्तु तेलिये पदार्थ (लिपिड) में घुली हुई यह गंध कई दिनों तक अन्य बाघों को सन्देश देती है, कि यह किसका इलाका है या गंध छोड़ने वाला बाघ किस प्रकार की स्थिति में है।
मूत्र की बौछार उस स्थान पर छोड़ी जाती है जहाँ वह कई दिनों तक रहे एवं बारिश से धुले नहीं। अक्सर बाघ रास्ते के सबसे मुख्य पेड़ के तने पर मूत्र की बौछार करता है, एवं अक्सर उस पेड़ को चयन करता है जो रास्ते की और झुका हुआ हो। झुके हुए पेड़ पर बारिश की बुँदे गंध युक्त मूत्र को जल्दी से बहा नहीं पाती है एवं झुके होने के कारण मूत्र का छिड़काव भी अधिक बड़ी सतह पर भी हो पाता है। यदि आप इंटरनेट पर टाइगर सेंट मार्किंग की फोटो ढूंढेगे तो अधिकांश फोटो रास्ते की और झुके हुए पेड़ों की ही मिलेगी जिन पर बाघ मूत्र कर रहा होता है। इसके अलावा जिन पेड़ो में गंध युक्त रेसिन होती है, उनपर बाघ अपनी गंध नहीं छोड़ते है, क्योंकि उनकी गंध पेड़ो के रेसिन की तेज गंध में खो जाती है।
टाइगर के मूत्र में 2 acetyl-1-pyrroline (2AP) नामक रसायन मिलता है, जो बासमती चावल या ब्रेड या रोटी जब आग में भून कर भूरे रंग में परिवर्तित होती है, यही रसायन उस समय भी बनता है। प्रकर्ति में वनस्पति एवं जीव जंतुओं में की अनेक क्रिया मिलती जुलती है एवं उसी प्रकार कई रसायन भी समान होते है।
कई बार अमेरिका में मिलने वाली बॉब कैट के प्लेसेंटा के द्वारा तैयार किये गये घोल से भी बाघ एवं अन्य बिल्लियों को आकर्षित किया जाता है।
वर्ष 2017 में सरिस्का में वरिष्ठ वन अधिकारी श्री गोबिंद सागर भरद्वाज एवं उनके सहायक अधिकारियो ने बड़ी सूझबूझ दिखाते हुए एक नर अल्पवयस्क बाघ को मादा के मूत्र से इच्छित स्थान पर आकर्षित किया और पुनः सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। यह अनूठा प्रयोग चिड़ियाघर की एक मादा के मूत्र का इस्तेमाल कर के किया गया।
इस प्रकार कई तरीके इस्तेमाल कर बाघों को खतरे में डाला गया है अथवा निकला गया है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover Photo Credit: Dr. Dharmendra Khandal
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