भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

जंगल में दीमक की संख्या को नियंत्रित करने वाला पेस्ट कंट्रोल सर्विस देने वाला प्राणी होता है – भालू। असल में अधिकांश लोग मानते है की दीमक नुकसान के अलावा कुछ नहीं करता। भालू ऐसे नहीं सोचता, वह इसे अपने जीवन का आधार मानता है। स्लॉथ भालू जैसे विशाल जीव के आहार का आधा हिस्सा दीमक होता है। उसे वर्ष भर फल आदि मिले ना मिले परन्तु वर्ष के अधिकांश महीने कीट अवश्य मिलते हैं जिनमें दीमक प्रमुख है। स्लॉथ भालू ने तो अपने उद्विकास को भी दीमक के अनुरूप ही विकसित किया है।

इसका लम्बा थूथन एवं प्रथम मैक्सिलरी कृन्तकों की अनुपस्थिति, उभरे हुए तालू, उभरे हुए गतिशील होंठ, और लंबे और घुमावदार अग्र पंजे, लंबे झबरीले कोट और नासिका छिद्रों को बंद करने वाली झिल्ली के कारण यह कीड़ों एवं उसमें भी दीमक को खाने के लिए अत्यधिक विशिष्ट रूप से अनुकूल है। स्लॉथ बेयर अपना जीवन अनेक तरह के भोजन पर आधारित रखता है। फल, जिसमें बेर और तेन्दु मुख्य हैं, वहीँ कीटकों में दीमक और चींटी प्रमुख है। प्रत्येक महीनों में इनकी विष्ठा में अलग-अलग तरह के भोजन के अवशेष देखने को मिलते है। इस तरह के भोजन को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार के जतन करने पड़ते है। फिर इसे स्लॉथ (आलसी) भालू के रूप में क्यों जाना जाता है।

क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी (स्लॉथ) है?

भालू को अंग्रेजी में स्लॉथ बेयर के नाम से जाना जाता है। स्लॉथ शब्द का मतलब होता है – आलसी। तो क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी है?

अगर देखे तो पुरे विश्व में भालुओं की आठ प्रजातियां मिलती हैं जिनमें से स्लोथ बेयर ही मात्र एक ऐसी प्रजाति है जो शीत निद्रा (hibernation) में नहीं जाती है। अन्य सभी भालू प्रजातियां लम्बे समय के लिए सोने चले जाते है – भालुओं के लिए हाइबरनेशन का सीधा सा मतलब है कि उन्हें खाने या पीने की ज़रूरत नहीं है, और वे शायद ही कभी पेशाब या शौच करते हैं (या बिल्कुल नहीं)। यदि भोजन बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है, तो सर्दियों के दौरान भालू अपनी मांद में सोते रहते है। शीतनिद्रा के दौरान, जानवर के शरीर का तापमान गिर जाता है, हृदय गति धीमी हो जाती है और साँस लेना कम हो जाता है। जानवर ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं जहां वे बमुश्किल सचेत होते हैं और बहुत कम हिलते-डुलते हैं। हाइबरनेशन कई महीनों तक रह सकता है, और जानवर जीवित रहने के लिए संग्रहीत वसा भंडार पर निर्भर रहते हैं।

भालुओं की निगरानी के दौरान डॉ धर्मेन्द्र खांडल द्वारा भालू के माँद के अंदर से लिया गया चित्र

तो जब स्लॉथ बेयर 12 महीने सक्रिय रहता है और अन्य भालुओं की भांति शीतनिन्द्रा में नहीं जाता तो फिर स्लॉथ क्यों कहा जाता है ?

असल में इन्हें यह गलत पहचान एक यूरोपीय जीवविज्ञानी जॉर्ज शॉ ने उसके लंबे, मोटे पंजे और असामान्य दांतों के लिए दे दी। उसने सोचा कि इन विशेषताओं के कारण भालू – दक्षिण अमेरिका में मिलने वाले स्लॉथ से संबंधित है। स्लॉथ बेयर भी कभी-कभी पेड़ की शाखाओं पर उल्टा लटक जाते हैं, जैसे स्लॉथ भी करते है। इसी गफलत में इसे गलत वैज्ञानिक नाम भी दे दिया गया और जॉर्ज शॉ द्वारा इसे स्लॉथ के जीनस में स्थापित कर दिया गया था।

स्लॉथ भालू:

स्लॉथ भालू भारत में पाई जाने वाली भालू की चार प्रजातियों में से एक है। यह एक मध्यम आकार का भालू है जिसके पास एक विशिष्ट रूप से बड़ा झबरा काला कोट और चौड़ी यू-आकार की छाती है। बाल विशेष रूप से गर्दन के आसपास और पीछे लंबे होते हैं। वयस्क नर का वजन आम तौर पर 80-145 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन लगभग 60-100 किलोग्राम होता है।

स्लॉथ भालू की उत्पति: स्लॉथ भालू संभवतः मध्य प्लियोसीन के दौरान उत्पन्न हुए और भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुए। प्रारंभिक प्लीस्टोसीन या प्रारम्भिक प्लियोसीन के शिवालिक की पहाड़ियों में पाए जाने वाले मेलर्सस थियोबाल्डी नामक भालू की एक जीवाश्म खोपड़ी को कुछ लेखकों ने स्लॉथ भालू और पूर्वज भूरे भालू के बीच एक मध्य की कड़ी माना है। एम. थियोबाल्डी के दांतों का आकार स्लॉथ भालू और अन्य भालू प्रजातियों के बीच का था।

स्लॉथ भालू, भालू परिवार उर्सिडे में आठ मौजूदा प्रजातियों में से एक है और उपपरिवार उर्सिनाई में छह मौजूदा प्रजातियों में से एक है।

स्लॉथ भालू प्रजनन: स्लॉथ भालू के लिए प्रजनन का मौसम स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है: भारत में, वे अप्रैल, मई और जून में सहवास करते हैं, और दिसंबर और जनवरी की शुरुआत में बच्चे पैदा करते हैं, जबकि श्रीलंका में, यह पूरे वर्ष होता है। मादाएं 210 दिनों तक गर्भधारण करती हैं और आम तौर पर गुफाओं में या पत्थरों के नीचे आश्रयों में बच्चे को जन्म देती हैं।

एक मादा भालू, अपने शावकों के साथ रणथंभोर के जंगल में (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

एक बार में आमतौर पर एक या दो शावक होते हैं, या शायद ही कभी तीन होते हैं। शावक अंधे पैदा होते हैं, और चार सप्ताह के बाद अपनी आँखें खोलते हैं। अधिकांश अन्य भालू प्रजातियों की तुलना में स्लॉथ भालू के शावक तेजी से विकसित होते हैं: वे जन्म के एक महीने बाद चलना शुरू करते हैं, 24-36 महीने में स्वतंत्र हो जाते हैं, और तीन साल की उम्र में यौन रूप से परिपक्व हो जाते हैं। युवा शावक अपनी माँ की पीठ पर तब तक सवारी करते हैं। बच्चों के बीच का अंतराल दो से तीन साल तक रह सकता है।

वयस्क स्लॉथ भालू दौड़ने वाले इंसानों से भी तेज़ दौड़ने में सक्षम हैं। यद्यपि वे धीमे दिखाई देते हैं, युवा और वयस्क स्लॉथ भालू दोनों ही उत्कृष्ट पर्वतारोही होते हैं।

स्लॉथ बेयर – भालू का राजस्थान में वितरण :

स्लॉथ भालू भारतीय उप महाद्वीप के लिए स्थानिक है और भारत, श्रीलंका, नेपाल और भूटान में पाया जाता है। भारत में, यह पश्चिमी घाट के पहाड़ों के दक्षिणी सिरे से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैली हुई है। राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र पश्चिमी वितरण को सीमित करता है।

राजस्थान में स्लॉथ भालू का वितरण इस प्रकार है – यह बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौरगढ़, उदयपुर, जालोर, प्रतापगढ़, करौली, अजमेर, पाली, राजसमंद में पाया जाता है। निम्न दो जिलों – बाड़मेर के सिवाना और नागौर के डेगाना, थांवला क्षेत्र में कभी कभार दिख जाता है। अलवर में यद्यपि वर्षों से भालू गायब है परन्तु हाल ही में वन विभाग ने माउंट आबू से भालू को लाकर छोड़ा, परन्तु लगता है यह प्रयास उतना सफल नहीं रहा। कुछ जिले ऐसे है जहाँ भालू होने चाहिए जैसे भरतपुर, जयपुर, सीकर एवं झुंझुनू, यहाँ उपयुक्त आवास होते हुए भी बिलकुल नहीं मिलता। निम्न जिले ऐसे है जहाँ भालू नहीं मिलता जिनमें जोधपुर, चूरू, जैलसमेर, बीकानेर, गंगानगर एवं हनुमानगढ़ शामिल है।

भालुओं के जीवन को खतरा: आवास नष्ट होना सभी के लिए खतरा है, परन्तु भालुओं के लिए भोजन प्राप्त करना आसान नहीं। इसके लिए तेन्दु के फल, बेर के फल, दीमक और मधु के छतों से भरा जंगल होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही अभी भी इनके शिकार होने की घटनाओं से पीछा नहीं छूटा है। अनेक स्थानों पर मानव गतिविधियों के कारण संघर्ष की घटना बढ़ी है।

राजस्थान का सुंधा माता, माउंट आबू और उसका तलहटी क्षेत्र भालुओं की घनी आबादी के लिए जाना जाता है। कहते हैं माउंट आबू के तलहटी के पास, जसवंतपुरा क्षेत्र में रात में कई बार अटैक हो जाता है। इसी प्रकार सुंधा माता, रेवदर, जीरावला आदि क्षेत्र में भालुओं का अत्यंत प्रभाव रहता है। प्रत्येक वर्ष कई अटैक रिकॉर्ड किए जाते हैं। इसके अलावा, स्लॉथ भालू द्वारा मानव पर हमलों और फसल क्षति के कारण इनके क्षेत्र के कई हिस्सों में जनता के बीच भय और दुश्मनी पैदा कर दी है। जैसे रणथम्भोर के आस पास स्लॉथ भालू अक्सर अमरूद आदि की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।

डांसिंग बेयर: हाल ही के वर्षों तक मदारी लोग भालू को पालते और लोगों को उसका खेल दिखाते थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में एक लोकप्रिय मनोरंजन था, जो 13वीं शताब्दी और मुगल-पूर्व काल से चले आ रहे हैं। कलंदर, जो मनोरंजन प्रयोजनों के लिए सुस्त भालू को पकड़ने की परंपरा का पालन करते थे, अक्सर मुगल सम्राटों के दरबार में प्रशिक्षित भालुओं के साथ तमाशा करने के लिए नियुक्त किए जाते थे। 1972 में लागू इस प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद, 20वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान भारत की सड़कों पर लगभग 800 नाचते भालू थे, खासकर दिल्ली, आगरा और जयपुर के बीच राजमार्ग पर। सुस्त भालू के शावक, जिन्हें आम तौर पर छह महीने की उम्र में व्यापारियों और शिकारियों से खरीदा जाता था, उन्हें जबरदस्ती उत्तेजना और भुखमरी के माध्यम से नृत्य करने और आदेशों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। नरों को कम उम्र में ही बधिया कर दिया जाता था और एक साल की उम्र में उनके दांत तोड़ दिए जाते थे ताकि वे अपने संचालकों को गंभीर रूप से घायल न कर सकें। भालुओं को आम तौर पर चार फुट के पट्टे से जुड़ी नाक की नकेल डाली जाती थी।

मोग्या शिकारियों द्वारा स्लॉथ भालू को उनके पंजों के लिए निशाना बनाया जाता और अंधविश्वासी लोगों को आकर्षण के रूप में बेचा जाता था, कभी कभी अनुभवहीन खरीदारों को बाघ के पंजे के रूप में बेच दिया जाता था (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

Wildlife SOS नामक संस्था के अथक प्रयास से इस परंपरा को कानून के दम और मदारियों की भलाई के जरिये ख़त्म कर दिया गया है। Wildlife SOS और उत्तर प्रदेश वन विभाग के साझा प्रयासों से मदारियों के पास से रेस्क्यू कर लाये गए अनेक भालुओं को रेस्क्यू सेंटर्स में अपने जीवन यापन के लिए रखा जाता है। इनके सेंटर्स में सेंकडों की संख्या में भालुओं को रखा गया है। आने वाले समय में यह प्रथा से जुड़े सभी भालू अपना जीवन यहाँ पूर्ण कर हम इंसानों के जीवन के बड़े कलंक को समाप्त कर देंगे।

आगरा स्थित Wildlife SOS के रेस्क्यू सेंटर में भालू (फ़ोटो: कार्तिक, Wildlife SOS)

संरक्षण स्थिति: स्लॉथ बियर को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 की अनुसूची I, CITES के परिशिष्ट I और IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची (2012) में “वल्नरेबल” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

 

 

 

 

 

आदित्य ‘डिक्की’ सिंह

आदित्य ‘डिक्की’ सिंह

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आदित्य ‘डिक्की’ सिंह- वह नाम जो पर्याय है- एक आउटडोर मैन, एक वाइल्ड लाईफर, एक ग्रेट फोटोग्राफर, एक अत्यंत कुशाग्र बुद्धि का धनी, एक मित्र  जिसका दिल और घर दोनों सबके लिए खुले रहे, टाइगर को अपना भगवान मानने वाला,  सभी जीवों के प्रति दया रखने वाला,  हंसमुख, और एक उत्कृष्ट इंसान जो जाती धर्म के बोझ से आज़ाद था।

आदित्य को यह सब उसके अनोखे परिवार से मिली तालीम और लम्बी विरासत का नतीजा है।  उनका जन्म दिनांक 24 मई 1966 इलाहाबाद में हुआ। आदित्य के पिता नरेश बहादुर सिंह भदौरिया एवं माता अरुणा सिंह आज हमारे बीच आशीर्वाद देने के लिए विद्यमान है । यह परिवार मूलतः मध्यप्रदेश के भिंड क्षेत्र से सम्बन्ध रखते थे,  जो बाद में उत्तरप्रदेश के कानपुर क्षेत्र में रहने लगे। आदित्य ने भी पुनः इस चम्बल क्षेत्र को चयन किया और रणथम्भोर को अपना घर बना लिया। हालांकि पिता के सैन्य सेवा में होने के कारण उनका बचपन देश के विभिन्न हिस्सों -दिल्ली, बेंगलुरु, प्रयागराज (इलाहाबाद), जयपुर एवं बीकानेर आदि में बीता।

Aditya 'Dicky' Singh

आदित्य के पिता के पिता यानी आदित्य के दादा मेजर मोहन सिंह, एक महान वॉर वेट्रन थे, उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया और नॉर्थ अफ्रीका में पांच देश में जर्मन एवं इटालियन फोर्सेज के खिलाफ युद्ध लड़े। इनके दादा उस ज़माने में अंग्रेजी जानने वाले सिपाही थे। दादा मेजर मोहन सिंह ने इंडियन बटालियन का हिस्सा बन कर जापानी सेना के विरुद्ध बर्मा में भी युद्ध किया। सूबेदार मोहन सिंह ने 1965 में नॉन कॉम्बैट के होते हुए, कॉम्बैट मेंबर बनाकर इंडो पाक वॉर में शामिल किये गए और मेजर बना कर लगाया गया। इस युद्ध में उन्होंने अखनूर सेक्टर एवं जम्मू एवं कश्मीर की लड़ाई में अदम्य  साहस के साथ भाग लिया, परन्तु एक भयंकर टैंक मुकाबले में वह देश के लिए 1965 में शहीद हो गए।  मेजर मोहन सिंह के सभी पुत्र एवं दामाद सेना में उच्च अफसर रहे है।    मेजर मोहन सिंह का नाम आज भी नेशनल वॉर मेमोरियल में दर्ज है। आदित्य उन्हें बड़े गर्व से याद करते थे।

आदित्य के पिता श्री नरेश बहादुर राजपूताना राइफल में ब्रिगेडियर पद पर रहे एवं रेजिमेंटल सेंटर के कमांडेंट के पद से सेवानिवृत्त हुए। आपने भी देश के लिए कई युद्धों में भाग लिया जैसे 1962, 1965 एवं 1971 और देश की अनोखी सेवा की, आपको विशिष्ट सेवा मेडल से विभूषित किया गया ।

आदित्य ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के मॉडर्न स्कूल -बाराखंबा से प्राप्त की।  आदित्य जब पेपर देते थे तो उनके उत्तरों को कुंजी माना जाता था, एक बार तो उनके पेपर स्कूल के टॉयलेट में मिले क्योंकि उनके बदमाश दोस्तों उन्हें चुरा कर कॉपी करने ले गए थे। आज भी उनकी फोटो स्टाइल ही नहीं वरन उनके द्वारा ली गयी टाइगर की फोटो चुरा कर इस्तेमाल की जाती है। आप शुरुआती  दौर में 100 मीटर दौड़ के धावक हुआ करते थे। उन्हें कहा गया की आपके पांव की बनावट और लम्बाई को इस्तेमाल करो तो आप एक बहुत अच्छे धावक बन सकते हो। उन्होंने दिल्ली स्टेट को रेसिंग के लिए रिप्रेजेंट किया।


आपने बिएमएस  कॉलेज बैंगलोर से इंजीनियरिंग की जब डिक्की पास होने को थे और भाई विक्की ने भी वही कॉलेज ज्वाइन किया। आदित्य सिविल इंजीनियरिंग बनकर ब्रिज बनाने की विशेषज्ञता हासिल की। परन्तु उन्होंने आई ए एस अफसर बनने का निर्णय लिया और बिना अधिक समय गवाए वह दिल्ली काडर का आई ए एस  बन भी गए। परन्तु उन्हें जल्द ही लगने लगा की यह काम उनके दिल के करीब नहीं, उनका मानना था इस दिशा में वह अपना जीवन नहीं बिता सकते। और आई ए एस पद से अपना इस्तीफा दे दिया। इस सब के दौरान उनके जीवन में पूनम आई और उन्हें एक और परिवार मिल गया गया। संदीप और मोती लाल जी उनके ससुर हमारे साथ है।

आदित्य और पूनम ने 1998 में रणथम्भौर को अपना घर बनाने लिया और तत्पश्च्यात रणथम्भौर बाघ बन गया। सोशल मीडिया तब नहीं था, कम लोग ही बाघों के बारे में जानते थे, परन्तु आदित्य की उँगलियों पर बाघों की पीढ़ियां हुआ करती थी।  उनके लिखे ब्लॉग का इंतज़ार हुआ करता था। आदित्य वन विभाग का एक भरोसेमंद साथी था। न नाम की लालसा, न काम की शर्म, और लोगों का अनोखा जुड़ाव और नए आइडिया की भरमार। आदित्य के विश्व में हर जगह दोस्त बन गए।


रणथम्भोर बाघ एक होटल से अधिक एक स्कूल था जहाँ लोग नेचर फोटोग्राफी सिखते थे और बाघों की बात करते थे। आदित्य ने रणथम्भोर बाघ को एक जिवंत केंद्र बना कर उसे एक ऐसा हब बना दिया की यहाँ आने वाले लोग नए आईडिया, नई टेक्नोलॉजी, फोटोग्राफी के नए तरीके साझा करते थे। बाघों के ज्ञान का जो प्रसार यहाँ से साधारण लोगों में हुआ शायद अन्य स्थान से नहीं हो पाया।

आदित्य सिंह के इसी अन्दाज के कारण वह बिबिसी  के कॉलिन की रिसर्च टीम का हिस्सा बन कर सूर्योदय से सूर्यास्त तक पार्क जाने लगे। बाघों के  जीवन के छिपे हुए रहस्य जानने लगे। पिछले २० वर्षों में वाल्मीक थापर ने शायद ही कोई किताब उनकी फोटो के बिना पूरी की हो, बाघ भालू की लड़ाई , बाघ बाघ का संघर्ष , उनका कब्स का पालन आदि सभी जीवन को उन्होंने छायांकन बखूबी किया। बिबिसी  ने उनके चित्रों के साथ कई आर्टिकल लिखे।

प्रकृति और वन्य जीवन के फोटोग्राफी तक उनका जुड़ाव नहीं था वह किड्स फॉर टाइगर के सवाई माधोपुर चैप्टर के कोऑर्डिनेटर भी थे। वह एनजीओ  टाइगर वाच के साथ मिलकर अनेक कंजर्वेशन  कार्यों में एक मूक सलाहकार और सहयोगी के रूप में भूमिका निभाई।

बिबिसी  की फिल्म सफलता के बाद रणथम्भौर का कोई बिरला ही फिल्म प्रोजेक्ट उनके बिना सम्पन्न हुआ होगा।  दुनिया के नाम चिन फिल्म मेकर बाघों पर उनके साथ सलाह करके फिल्मिंग आदि का काम करने लगे जैसे Nat Geo, Animal Planet, डिस्कवरी, डिज्नी आदि।

वन और बाघों से जुड़े वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बेपरवाह बात करते जो उचित था वह बोले, जो कटु था वह बोले, हरदम खरे बोले, बिना लाग लपेट और स्वार्थ के बोले।  वह बाघ की एक सच्ची और असली आवाज थे।

उन्होंने हर दम उस प्राणी की चिंता की भदलाव गांव में पूनम और आदित्य ने कई टुकड़े टुकड़े खेत खरीदें और उन्हें जंगल बनाया और आज वह एक अद्भुत जगह बन गया। जहाँ हजारों धोक के पेड़ लगे है और बाघ और सांभर उसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे है।

2012 उनके जीवन में नायरा आई, पिता आदित्य अब नायरा के साथ फोटोग्राफी करते, सफारी जाते और सफर एक दिन  (6th September 2023) अचानक रुक गया।   परन्तु वह आज रणथम्भौर के हर जर्रे में समाये हमारे साथ है।

आदित्य ‘डिक्की’ सिंह

Aditya ‘Dicky’ Singh (1966-2023): A Legacy of Conservation, Photography, and Fearless Advocacy for Tigers and Wildlife

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Aditya ‘Dicky’ Singh, a name known for many things, I shall list some of them here – from being an outdoor enthusiast, a wildlife lover, an incredible photographer, a highly intelligent individual, a friend with an open heart and a home for everyone, a devoted worshiper of tigers, a compassionate soul towards all living beings, a cheerful personality whose joie de vivre was contagious, and to an exceptional human being who was free from the shackles of societal norms. All of this was a result of the unique upbringing and rich heritage that Aditya received from his family. He was born on May 24, 1966, in Allahabad (now Prayagraj).

Aditya’s father, Brigadier Naresh Bahadur Singh Bhadauria, and mother Aruna Singh remained constant blessings throughout his life. His family originally had roots in the Bhind region of Madhya Pradesh, but later shifted to the Kanpur region of Uttar Pradesh. In an ironic twist, Aditya eventually returned to the Chambal region in adulthood, albeit this time on the other side of the Chambal river, by making Ranthambhore in Rajasthan his home. Despite a childhood that was spent constantly on the move due to his father’s military service, living in Delhi, Bangalore, Allahabad (now Prayagraj), Jaipur, and Bikaner, Aditya’s family nevertheless maintained their connections to the Chambal region.

Aditya 'Dicky' Singh

Aditya in his own way, followed in the footsteps of his courageous father and grandfather, both of whom were military veterans. His grandfather, Major Mohan Singh, was a distinguished war veteran who participated in the Second World War and fought against the Axis forces in five different countries in North Africa, and then against Pakistani irregulars in Jammu & Kashmir scarcely three years later. It was precisely because of this extensive experience, that despite being a Special List Quartermaster (non-combat role), he was appointed a Company Commander of an Infantry Battalion and given command of a Rifle Company in the Chhamb-Jaurian sector of Jammu & Kashmir during the 1965 Indo-Pak war! He made the supreme sacrifice for the nation in a fierce battle in 1965, becoming the only Quartermaster to ever fight and be martyred for the nation in the history of the Indian Armed Forces. Major Mohan Singh’s name is commemorated at the National War Memorial, and Aditya always said with great pride that he was the ‘bravest man I have never met’, having been born just one year after the war in 1966. Aditya’s father, Brigadier Naresh Bahadur, served as a Brigadier in the Rajputana Rifles and retired as the Commandant of the Regimental Center. He also saw action in various wars, such as the India-China war of 1962, the Indo-Pak wars of 1965 (in the same sector as Major Mohan Singh), and 1971. His dedication to the nation was recognized with the Vishisht Seva Medal. Aditya received his early education at Modern School, Barakhamba Road, Delhi.

Aditya was known for acing exams, and on one occasion his exam papers were stolen, leading to a hilarious incident where his friends resorted to copying his answers in the school bathroom. Even today, his photographic style has its never-ending share of mimics, and his tiger photographs are widely used by all and sundry. In his early years, Aditya excelled in 100-meter sprints. He was advised to utilize the structure and height of his legs to become a proficient sprinter and went on to represent Delhi state. Aditya first pursued engineering at BMS College, Bangalore. His brother Vikram also joined the same college. Aditya specialized in civil engineering with a focus on building bridges. He eventually decided to become an IAS officer, but soon realized that this line of work was not his true calling. He quit the IAS without wasting much time and gave up his bureaucratic career, which even today, is quite unthinkable in the Indian context. During this period, Poonam entered his life, and he thus found another family.

Aditya and Poonam chose Ranthambhore as their new home in 1998, and eventually, Ranthambhore became their tiger abode. Social media was not prevalent at the time, and few people knew anything about tigers, but Aditya’s fingers were always on the pulse of Ranthambhore’s successive tiger generations, and a steadily growing section of enthusiasts eagerly awaited his blog posts on the subject. Aditya was also a trusted partner of the Ranthambhore Forest Department. For them, Aditya brought it all to the table- a complete disinterest in fame, a lack of shame in hard work, and a unique connection with people, along with a wealth of new ideas.

After the success of the first BBC documentary he worked on, hardly any film project related to Ranthambhore could have been completed without Aditya’s inputs. He collaborated with world-renowned wildlife filmmakers, offering advice and support on filming tigers, and working with organizations like National Geographic, Animal Planet, Discovery, Disney, and more.

Often speaking fearlessly and candidly on the scientific aspects related to nature and wildlife, Aditya spoke appropriately when needed, harshly when required, yet always truthfully. He spoke without pretence, and without any selfishness, it was never about him. He was a true and authentic voice for the tigers of Ranthambhore. Aditya and Poonam’s constant concern for the well-being of Ranthambhore’s wildlife eventually led them to buy 35 acres of barren land outside Ranthambhore and over 21 years, convert it into a jungle.

Today, it has become a magnificent place where thousands of trees thrive, and both the tiger and multiple prey species benefit from it. On September 6th 2023, Aditya left for his final abode, leaving those of us who had the privilege of knowing him devastated and mourning his loss. However, we can perhaps take comfort in the fact that Aditya leaves behind a rich legacy that is truly matchless and will undoubtedly continue to be a source of inspiration for scores of future wildlife conservationists, photographers, enthusiasts and free thinkers for many years to come.

This is especially true for his young daughter Nyra, who has already begun demonstrating that she has inherited her father’s innate proficiency with the camera.

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।

गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)

राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।

1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |

2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |

3. नाचना :- यह   तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |

4. जैसलमेरी :-यह  नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |

5. कच्छी :- यह  नस्ल  मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |

6. जालोरी :- यह  नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |

7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |

8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |

9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |

10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |

11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |

भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह

इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।

राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।

 

 

Portia Jumping Spiders

Portia Jumping Spiders

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Portia spiders are small jumping spiders that belong to the Salticidae family. They are among the most intelligent arthropods because they hunt other hunters. This is possible because Portia spiders are skilled at creating and executing complex hunting strategies. While some spiders wait for prey in their silk webs, Portia spiders are active hunters. They stalk their prey and then pounce on them.

It has been observed that when this spider needs to kill another spider that builds webs, it tricks it by creating vibrations that mimic the struggles of trapped prey. The web-building spider thinks that something is caught in its web and comes out to investigate, giving Portia the opportunity to attack. Moreover, Portia spiders are known to exhibit social behaviors, which is not common among Salticidae spider species. I encountered this spider at Sawai Madhopur (Rajasthan).

Portia Jumping Spider

Portia spiders are active hunters. They stalk their prey and then pounce on them.

 

Portia

The most intelligent arthropods