सुनहरी रोशनी से दमकते जालोर के एक पहाड़ का नाम है स्वर्णगिरि जिस पर बना है एक विशाल किला – जालोर फोर्टउतना ही पुराना जितना शायद रणथम्भोर (१ हजार साल)। आज कल किले मुझे अच्छे लगते है, क्योंकि इनमें रहती है कहानियां और चमगादड़ें। कहानियां सभी को अच्छी लगती है और चमगादड़ें शायद सबसे कम पसंद किये जाने वाला प्राणी है। खैर अपनी अपनी पसंद है, मुझे वहां मिले Leschenault’s rousette (Rousettus leschenaultii) का एक बड़ा समूह- लगभग 250, वह भी एक ही कमरे में। पता नहीं जालोर के आस पास कोनसा फल होता है जिसके कारण वो वहां है? आस पास जानकारी के नाम पर ASI का जाना पहचाना नीला बोर्ड लगा था, जिस पर शायद यही लिखा होगा “यह बड़ा सुरक्षित स्मारक है औकात में रहना वर्ना घर आकर मारेंगे”। कहानी मुझे नहीं मिली सो आप इस बेतरतीब बात से काम चलाए।
दुर्ग :- 2
खीदरपुर डाँगरी- गंगापुर कस्बे का एक छोटी चौकी नुमा किला है, बिना प्लास्टर के करीने से रखे पत्थरों से बना यह छोटा फोर्ट जिस प्रकार के एक पहाड़ के खुले मैदानी हिस्से में है, उसे स्थानीय लोग डांग कहते है, खुला स्थान विशाल नहीं है, अतः उसे डांगरी कर दिया गया होगा। रणथम्भौर से भटका एक बाघ पूरी मानसून सत्र इसके आस पास आनंद से रह कर जाने कहाँ कहाँ होते हुए मुरैना (मध्य प्रदेश) चला गया। आज कल यह कभी मध्यप्रदेश के मुरैना और कभी राजस्थान के धौलपुर में घूमता है -शायद इन दिनों का सबसे शानदार यायावर है। चीता वाले भी इसी बाघ से चिंतित थे कि कहीं कुनो नहीं आ जाए, बघेरे पहले ही उन्हें परेशान कर रहे है। बकरी चराने वाले युवक ने आस पास पहाड़ के कोने में कुछ रॉक पेंटिंग भी दिखा दी तो लगा कभी कोई और भी घुमक्कड़ लोग इस जगह से अपना नाता रखते होंगे। मेरे लिए एक दोपहर बाघ के चले जाने के बाद, चुपचाप इस स्थान को देखना अत्यंत आनंद दायक था। यहाँ बाघ की कहानी अभी भी सबके जुबान पर थी, पर इस बार चमगादड़ नहीं थी।
दुर्ग :- 3
उटगिर का किला (करौली)- यह किला कुछ वर्षों पहले तक था डकैतों का घर (कभी कभार आज भी) और शिकारियों की छुपने की जगह (कभी कभार आज भी) हुआ करता था। चारों तरफ जंगल, चम्बल नदी से मात्र 3 किलोमीटर दूर, एकल पहाड़ी पर बना यह किला, एक अत्यंत रहस्यमय स्थान पर है। किले तक जाने के लिए जिस तरह के रास्ते का इस्तेमाल करना पड़ता है, वह है चम्बल के बीहड़ और दर्रे।
किले के अंदर जाते ही आपको अहसास होगा की किला आपको देख कर चौंक जाता है, और कह उठता हो, अरे आप कैसे आये?
साँस की गति में नियंत्रण के बाद नजर आता है विशाल जंगल का खूबसूरत फैलाव और चांदी सी चमकती सर्पीली बलखाती चम्बल नदी का अद्भुत दृश्य। भालू, बघेरे और सेही के निशानों से भरे इस किले में बाघ भी कभी कभी आ जाता है। कुछ अबाबील पक्षी अपनी हलकी फुलकी आवाजों से यहाँ की चुप्पी भगाते रहते है।
इस किले को देख कर लगता है की काश वन विभाग (या कोई और विभाग) इतना सक्षम होता की जंगल के साथ साथ इतिहास के इन खास पन्नों को भी बचा पाता। राजस्थान के वनों में सैकड़ों की संख्या में किले है, कितना बचाए कोई? कैसे बचाये कोई ? क्या तरीके हो की इन छतनार बरगदों की छाँव से ढके और कठफड़ीयो की लहराती जड़ों से जकड़े अद्भुत किलों की हालत ठीक हो सके ?
मुट्ठी में प्रश्न रख कर घूमना बेकार है अतः इन्हें फेसबुक की दिवार पर उड़ेल देना ही ठीक होगा, इसलिए यह सब आपको समर्पित। यहाँ की कहानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा और बाघ के शिकारियों से जुड़ी है, कभी फिर लिखूंगा, हाँ चमगादड़ यहाँ खूब मिलती है – अधिकतर चूहे जैसे दिखने वाली Lesser mouse-tailed bat (Rhinopoma hardwickii)।
शाम तक नीचे उतरना जरुरी था सो किले को बोल दिया अच्छा भाई किले राम -राम !
दुर्ग :- 4
Karauli old palace
आधे रास्ते से पहले मन करेगा वापस चलो, तंग गलीयों में लहराते बाइकर सामने आकर कट मारकर निकल जायेगा इस से पहले के रुकी साँस चले, एक बड़े सींगों का सांड आपके सामने आजाता है, आप ठिठक कर खड़े रह जाते हो। आप सोचोगे की आज यहां कोई अनर्थ अवश्य होगा, सांड का ख्याल आगे बढे, इससे पहले चप्पल में एक अम्मा, अपनी छड़ी फटकारती, बाप की गाली देती और अनायास ही आपकी हिम्मत बढ़ा देती है और निकल जाती है, असल में इसी दुःख से, वर्षों बाद में इस किले नुमा महल तक पहुंचा, परन्तु तंग गली के आगे इस महल में जिंदगी रुक सी गयीं है, यहाँ आकर ही पता लगेगा करौली के महल क्या है। यहाँ के राजा बड़े सज्जन व्यक्ति है, वन्य जीवों के जानकर और उनसे प्रेम रखने वाले। पर जीवों ने कभी उनके प्रेम की कदर नहीं की, कबूतर और रीसस बंदरों से यहां के महल के गुंबद, छतरियां, मेहराबें, कंगूरे, झरोखे, बुर्जे, खम्भे, चौखटे, टोडे, सीढियाँ, रोशनदान, खिड़कियां, दरवाजे आदि सब डरते है। लाल बलुआ पत्थर से बना यह महल दर्शाता है यहाँ के कारीगरों के पास कंप्यूटर से चलने वाले लेजर कटर पहले से ही थे।यहाँ कहानियों के अम्बार लगे है इन सब ने मुझे चमगादड़ों को भूला दिया। यह महल आपको कहेगा बेटा पूरा तो देख कर जाते।
दुर्ग :- 5
रामगढ़ किला (बारां):
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हर किला इतिहास का अहम् हिस्सा होता है और इस से जुड़ी कोई कहानी आपकी उंगली पकड़ कर, आपको वहां तक लेकर जाती है। यह बहुत कम ही होता है, जब कोई किला अचानकआपके सामने आ जाये। परन्तु रामगढ़ का किला मुझे एक बाघ ने दिखाया। एक नया नया जवान बाघ रणथम्भोर से निकला और मुँह किया कोटा की तरफ, उसे ढूंढने निकली टाइगर वॉच की टीम ने पहला पगमार्क का फोटो भेजा, जिसके साथ GPS लोकेशन भी थी। में नदी के किनारे चलते बाघ की स्थिति गूगल मैप पर देखते हुए, उसके आगामी रास्ते का अंदाज लगाने का प्रयास कर रहा था, ताकि वहां उसका पीछा करती हमारी टीम को बाघ के आगे बढ़ने के संभावित मार्ग पर कोई टिप्स मिल सके। बस इसी क्रम में खोजते- खोजते पार्वती नदी से थोड़ा छिटका हुआ- एक अनोखा गोला दिखा, पहले लगा यह कोई प्राकृतिक संरचना नहीं है
, परन्तु फिर पता लगा यह तो कोई एक क्रेटर है, जिसे रामगढ़ के नाम से जाना जाता है, अब तक लूनर सुना था बस।मेरे घर से 100 किलोमीटर दूर एक इम्पैक्ट क्रेटर है, और मुझे 10 वर्षो में कभी खबर नहीं लगी।
खैर दूसरे दिन सूरज देर से उठा और में पहले, समय से क्रेटर के पास पहुँच चूका था और यह अनुभव अद्भुत था, जिसके बीच में है 2 झील है और अंदर वाली के आस पास एक महादेव का एक 10 वीं शताब्दी का खंडित मंदिर है, बहुत ही खूबसूरत और सलाउद्दीन अहमद साहिब ने व्यक्तिगत रूचि लेकर ठीक करवाया था इसे, यह बात एक स्थानिक पुजारी ने बताई, और क्रेटर के गोलाकार पहाड़ का एक तरफ मुँह खुला है और एक भुजा पर था प्राचीन किला- रामगढ़ किला। यहाँ भी किला? शायद सबसे अनोखी जगह बना राजस्थान का एक किला होगा। फूटा टुटा है पर किसी भी और किले से अनोखी जगह पर स्थित है। आप इसे क्रेटर जा कर भी आसानी से नहीं देख सकते, थोड़ी पूछताछ तो लगती है और यही मजा है।
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क्या चम्बल किनारे बचा खुचा खण्डर देवगिर कोई किला था या जैन देवालय? मुझे पता नहीं। जो भी रहा हो, आज कल यहाँ के लोग इसे किला ही कहते है। अब यह इमारत धीरे धीरे से मर रही है और परन्तु ख़ुशी इस बात की है कि यह शांत मौत मर रही है, किसी ने सीमेंट के प्लास्टर या चमक दार टाइल लगा कर बचाने की कोशिश की होती तो यह शर्म से मर रही होती। कितनी ही ऐसी पुरानी इमारते है जिनका पुनरुद्धार के नाम पर क्या क्या हुआ है।
खैर दो दशको से देख रहा हूँ, लगता है इन पर उगे गुर्जन के पेड़ अब इसे जल्द ही गिरा देंगे, परन्तु देख कर लगता है उनकी खुद की सांस अटकी है, कितनों ने तो दीवारों से फिसल कर खुद जान गवां दी।
यहाँ मिले चरचरी गांव के मियांजी से जब उनके हाल-चाल पूछा तो बोले, यहाँ कोंच की फली से भरे जंगल में कौन आता है, कभी कोई मूर्ति चोर या कोई बकरियों का रखवाला, वह भी खुद के हाल से ज्यादा किले के हाल बयां कर रहे थे।
इधर उधर 10-11वीं शताब्दी के उत्कीर्ण शिलाखंड बिखरे पड़े है, जो हर साल कम होते जा रहे है। किले की और क्या बात करे अब यह चम्बल का किनारा भर रह गया है। इस किले की जड़ों में चम्बल बहती है और इसी के किनारे पर 4 -5 मादा घड़ियालों के अंडे देने का स्थान भी है। यही तो वह जगह है जहाँ घड़ियाल के अंडो को मात्र सियार ही नहीं बघेरा भी खाने आता है। यह वह जगह है, जहां मैंने देखा की एक नर घड़ियाल ने नदी में जाने कौन सी आवाजों और तरंगों का मिश्रण पैदा किया की उसके बच्चों की और बढ़ता एक बड़ा मगर वापस घूम गया।
इस किले के आस पास गोहटा का थाक (स्थानीय भाषा में उथले पानी का स्थान) है, जो चम्बल को आसानी से पार कर राजस्थान से मध्यप्रदेश आने जाने का एक सुगम स्थान है।
मैंने चम्बल को इस जगह जीप से तो पार कर लिया पर, यह नदी के किनारे को शायद बर्दाश्त नहीं हुआ और मेरी गाड़ी नदी से निकल कर किनारे के दलदल में फंस गयी। छोटी गाडी में सोने की बजाय जमीं पर नीचे ही सोना पड़ा और यहाँ एक साफ जगह में सिर के नीचे लगाने के लिए एक छोटी हांड़ी का सहारा भी मिल गया था, सुबह पता लगा वह एक शमशान घाट भी था और हांड़ी किसी कर्मकांड का हिस्सा रही होगी और हद तो तब थी जब रात में साफ दिखने वाली जगह पुरानी चित्ता की राख थी।
इसके बाद हर यात्रा में टोर्च ले जाना आवश्यक हो गया, लम्बी यात्रा में मोबाइल तो अक्सर पहले ही प्राण त्याग देते है । दलदल इतना भयानक था की सुबह एक गाय भी फंस गयी। गाय और गाड़ी कैसे निकली होगी आप कल्पना नहीं कर सकते। खैर उस दिन राख में लिपटे शैव भेष में घड़ियालों के साथ चम्बल स्नान के अलावा कोई उपाय न था। डुबकी के साथ अनायास ही हर हर गंगे ही निकल रहा था और चम्बल का साथी किनारा बेवजह शायद और नाराज हो रहा होगा, उसे क्या पता चम्बल कहाँ जाएगी। किला तो कुछ खास बचा नहीं, पर यहां का किनारा बड़ा सुन्दर है, पर मेरे से थोड़ा नाराज है, शायद आप जा कर कभी मना लो।
दुर्ग :- 7
शेखावाटी की हवेलियां :
लगभग पचास वर्ष पूर्व एक अंग्रेज व्यक्ति- आइला कूपर (Ilay Cooper) राजस्थान के एक कस्बे- चूरू में आया, जिसके पिता ने ब्रिटिश फ़ौज के लिए भारत में काम किया था, वह उन दिनों चूरू के भित्ति चित्र वाली इमारतें देख कर आश्चर्यचकित था। दस वर्ष पश्चात 1985 में उसने चूरू कस्बे के एक सरकारी अध्यापक के साथ मिलकर दो वर्ष तक INTACH के लिए 2260 हवेलियां, छतरियां, कुँए, धर्मशाला आदि के स्थापत्य कला और भित्ति चित्र का एक गहन सर्वे किया। पहली बार इन इमारतों में बनी कई वर्ग किलोमीटर (वर्ग फुट में नहीं) भीति चित्रों (फ्रेस्को) का एक अनोखा विश्लेषण किया गया। यह अध्यापक श्री रविंद्र शर्मा (Ravindra Sharma) मेरे परिवार के संजीदा लोगों मे से एक है। उनका यह विशाल सर्वे INTACH के संग्रहालय में बंद पड़ा है, परन्तु इन सब प्रयासों ने शेखावाटी को पर्यटन के नक़्शे पर लाने में मदद की।
राजस्थान ही नहीं बल्कि भारत का सबसे अलग किस्म का हिस्सा है “शेखावाटी” जहां राजा से प्रभावी और समृद्ध वहां की प्रजा थी। यहाँ राजा के महल जर्जर और इन व्यापारियों की हवेलियां अधिक भव्य हुआ करती थी। यहाँ की प्रजा का रसूख अधिक और राजा साधारण थे। यह उस काल में राज तंत्र ने कैसे होने दिया होगा ? यह क्षेत्र है, उन साहसी व्यापारियों का क्षेत्र रहा जिन्होंने सम्पूर्ण भारत (विश्व कहो तो अतिशयोक्ति नहीं) में अपना व्यापार फैलाया। इस जगह से सम्बन्ध रखने वाले व्यापारी लोग थे -बिरला, सिंघानिया, बजाज, रुइया, लोहिया, गोयनका, पीरामल, और न जाने कौन कौन से बिज़नेस टाइकून।
राजस्थान के तीन जिलों में शेखावाटीऔर लगभग उसी तरह का क्षेत्र फैला है- सीकर, झुंझुनू एवं चूरू, जो मुख्यतया जयपुर एवं बीकानेर प्रिंसली स्टेट का हिस्सा हुआ करता था।
शेखावाटी में प्रमुखता से छोटी, बड़ी और बहुत बड़ी आकार की सैंकड़ों सूंदर सूंदर हवेलियां और अन्य इमारतें है। हवेली एक तरह का घर है जिस के बीच में कोर्टयार्ड होता है और चारो तरफ कमरे ही कमरे। इन हवेलियों पर सुंदर चित्रकारी है और उनके विषय है -राम, कृष्ण और सामान्य जन जीवन। यह इतनी अधिक मात्रा में है की आप इन्हें देख कर विस्मित रह जाते हो। इन के मालिकों के पास इतने पैसे कहाँ से आये की उन्होंने महलों के अंदर की जाने वाली चित्रकारी हवेली के बाहरी हिस्से में भी करवा दी थी। यदि आपने राजस्थान के महलों में चित्रकारी देखी है तो आप जानकर चौंक जायेंगे की राजस्थान के इस छोटे हिस्से में ही पुरे राजस्थान की 95 % भित्ति चित्रकारी मिलती है।
इस क्षेत्र के व्यापारियों ने अंग्रेज व्यापारियों में एक विश्वास पैदा किया की वह उनके लिए इस अनजाने देश में सबसे महत्वपूर्ण व्यापार सहयोगी बन कर उभरे, भारत के कच्चे माल को ढूंढना और बिना गफलत किये समय पर उपलब्ध करवाना, पैसे के लेन देन को दुरुस्त रखना, आदि उनका मुख्य काम हुआ करता था। इसमें इस सहयोग को देश भक्ति और गद्दारी के तराजू पर नहीं तौले, यह शुद्ध व्यापारिक समझौतों पर आधारित सम्बन्ध थे। यदि इस व्यापारी वर्ग को गहनता से देखे तो उनके व्यक्तिगत जीवन में धर्मपरायणता, समाज सेवा और सहज जीवन जीने की कला अपना एक खास महत्व रखती थी।
अंग्रेजों ने भी इन लोगों को महत्व दिया, उनकी सुरक्षा को पुख्ता किया और इस क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए 1835 में अंग्रेजों ने एक शेखावाटी ब्रिगेड बनाई जिसका नेतृत्व एक ब्रिटिश ऑफिसर -मेजर फोरेस्टर ने किया और उसने बलपूर्वक स्थानीय छोटे राजाओं को लगभग शक्तिहीन कर दिया, जो शासन की बजाय लूट खसोट में लग चुके थे। उनके किले ध्वस्त कर दिए और सभी व्यापारियों को इतनी ताकत दी के वे अपने वैभव का बिना भय के प्रदर्शन करने लगे। और यही वह एक कारण था, कि कहते है अधिकांश हवेलियां और अन्य भव्य इमारत 1835 के बाद ही निर्मित हुई।
मेरे अध्यापक भाई आज समाप्त होती इस विरासत पर चिंता जाहिर करते है और जाने कितनी कहानियां कहते है, जो उस सर्वे के दौरान उनके साथ हुई , उन सब पर चर्चा अगले सीजन में करते है।
श्री रविंद्र शर्मा के भाई श्री अरविन्द शर्मा Arvind Sharma अब यही ज्ञान तीन दशकों से अधिक समय से लोगों तक लेकर जा रहे है। यहाँ उनके संग्रह से कुछ चित्र बिना आज्ञा अधिकारपूर्वक इस्तेमाल कर रहा हूँ।
दुर्ग :- 8
बयाना किला (भरतपुर) :
खजाने की चर्चा भर भी एक बेहद रोमांच दिलाने वाला अहसास कराती है। क्या आप जानते है भारत के एक सबसे दुर्लभ खजाने की खोज के बारे में , जो राजस्थान के बयाना किले के पास एक गांव में सन् 1946 में की गयी थी ?
यहाँ लगभग 1500 वर्ष पुरानी, गुप्त काल की 2150 दुर्लभ स्वर्ण मुद्राएं मिली थी, जिसे ‘सिक्कों का अम्बार’ ”Hoard of Bayana” कहा जाता है। यह एक गांव के कुछ बच्चों को मिले और उन्होंने गांव में वितरित कर दिए, गांव वालों ने तुरंत 300 के लगभग स्वर्ण मुद्राओं को पिघला कर उनके प्रमाण नष्ट कर दिये। इसकी भनक भरतपुर के राजा को लग गयी, उस समय भरतपुर के महाराज थे श्री बृजेन्द्र सिंह, उन्होंने इस खजाने की 1821 स्वर्ण मुद्राओं को संग्रहित कर पिघलने से बचा लिया।
यह किसी दूसरे का खजाना छीनने की बात नहीं थी, यह इतिहास को बचाने की कहानी थी। उन्होंने इस खजाने को ठीक से एक नुमिस्मैटिस्ट से अध्ययन करवा कर संग्रहालय को भेंट कर दिया।कितनी कहाँ भेजी मुझे ठीक से पता नहीं, पर चाहो तो आप को यह खजाना नेशनल म्यूजियम दिल्ली और शायद भरतपुर के म्यूजियम में देखने को मिल सकता है। इसके बारे में और अधिक यहाँ पढ़े https://www.livehistoryindia.com/…/the-bayana-hoard-of… )
खैर मेरा विषय था बयाना का किला और देखो माया ने मुझे अपनी और खींच लिया। बयाना का किला एक उत्तंग और विशाल पहाड़ पर है। यह किला मेरे लिए रोचक इसलिए था, की यहाँ से खिलजी का एक भाई उलुघ खान रणथम्भौर युद्ध के लिए आया था। रणथम्भोर अभियान को बीच में छोड़ उसे मंगोलों से युद्ध करने काबुल जाना पड़ा परन्तु मेरे लिए यह बेहद रोचक था कि बयाना कैसा किला है। जहाँ मेरे सबसे पसंदीदा राजा महाराणा सांगा ने युद्ध लड़े। सांगा कम चर्चित महाराणा है परन्तु वे स्वाभिमानी होने के साथ कुशल रणनीतिज्ञ भी थे।
सो बयाना का किला कितना बड़ा है ? अब आप यह जानकर हैरान होंगे की जहाँ रणथम्भौर का विशाल किला 1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और चित्तौड़गढ़ का किला 3 वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं, वहीँ बयाना का किला 15-16 वर्ग किलोमीटर में फैला है, मुझे ठीक से पता नहीं कुम्भलगढ़ कितना बड़ा है, उसकी दीवारें 36 किलोमीटर की है जो चीन के बाद सबसे लम्बी ऐतिहासिक दीवार कहते है। बयाना किले में जहां लम्बी दीवारें बनी है और कहीं कहीं भौगोलिक अवरोधों का बेहद खूबी से इस्तेमाल किया गया है।
यहाँ की दो और बेहद रोचक बाते है, एक है एक कुतुब मीनार जैसी मीनार जिस पर फारसी में कुरान की आयतें लिखी है। इसमें अनेक चमगादड़ प्रेम से रहती है। दूसरा है यहाँ एक स्तम्भ है जो 20 फ़ीट से अधिक लम्बा एक पत्थर से बना है, जिसे भीम की लाट कहते है, उस पर देवनागरी में किसी राजा की विजय गाथा लिखी है। यह लाट 1650 वर्ष पुरानी बताई जाती है और जिसने भी इस पर जो कुछ भी लिखा है वह बेहद खूबसूरती से लिखा है। बयाना का किला आपको मुंबई दिल्ली रेल मार्ग पर भरतपुर से पहले दिखता है। अक्सर लोग इसके नीचे से निकल जाते है पर ऊंचाई पर होने के कारण इसे देखने की हिम्मत नहीं करते।
दुर्ग :- 9
शाहबाद किला (बारां)
खबर आई की टमाटर मोग्या का भाई बारां, कुनो और शिवपुरी के जंगलों से बघेरे की खाले इकट्ठी कर रहा है। उसके राजस्थान में पारिवारिक सम्बन्ध है और रणथम्भौर के आस पास भी आता रहता है। तय हुआ उसे पकड़वाना है और फलां शख्स इसमें मदद करेगा, परन्तु पकड़ना कहाँ है? जगह तय करनी है और पुलिस के आला अफसर से बात करनी है , और तभी यह काम ठीक से होगा। खैर पूरी तारीफ के साथ कहूंगा ऐसे कामों के लिए राजस्थान पुलिस तो हर दम जूते बांध के तैयार रहती है। कहा गया इस काम के लिए शाहबाद किला सबसे उपयुक्त जगह है, पुलिस पहले से छुप कर बैठ सकती है। अतः इसे देखना था। किले की रेकी एक सहज यात्रा थी सो साथ में दिव्या (पत्नी) और घर का कुत्ता भी गए थे।
किला बेहद शानदार है, एक दम मंदिरों, मकबरों और दीवारों की दुनिया; बुर्जों, चौबारों और छतरियों की दुनिया, विशाल पहाड़ों, दरख्तों और दर्रों की दुनिया।इतिहास में रूचि रखने वाले मुझे अक्सर पूछते रहते थे, कभी शाहबाद गए हो ? चलो अब यह कलंक भी दूर हुआ। शायद यह उनके लिए सबसे दूर स्थित किला हैं। यहाँ मैंने पाया की में अकेला नहीं यहां आने वाला, यहाँ की हर दीवारों पर कोयले और चुने से आधी दुनिया के तो नाम लिखे थे, कुछ के तो एड्रेस और फ़ोन नंबर भी थे।
एक बुर्ज पर रखी तोप उसी तेवर से तनी है जैसे पहले कभी हुआ करती होगी, उसे देखो तो लगता है, कह रही हो “बस एक बार मेरे पिछवाड़े में दियासलाई लगा दे, उन नामकुलों के घर पर मौत बन के बरसूँगी, जिसने मेरे इस किले की दीवारों पर अपने नाम पोते है”। भाइयों इतिहास की कालिख अब न मिटनी हमसे, इस तरह की कालिख ना पोते वही सबसे अच्छा है।
असल में मुझे इस किले की दीवारों से बाहर झाँकने में और भी अधिक आनंद आया, और इस किले के बाहर देख कर लगता है इस जंगल को हम अभ्यारण्य क्यों नहीं बना पाए, हालांकि अभी भी देर नहीं हुई, आएगा कोई इन्हें बचाने वाला भी कभी। विंध्यन पहाड़ी में बहते कुंडा खो के झरने के पास के खड़े किनारों पर आज भी कई गिद्ध अपने घर बना कर रहते है।
तब तक दिव्या ने यहाँ टमाटर काट कर सैंडविच बनाया और कुछ दिनों बाद में उस टमाटर के भाई को पुलिस ने डबल रोटी बनाया, हाँ उसके साथ एक बघेरे की खाल भी पकड़ी थी। (पुलिस के शांतनु सिंह जी कोटा वाले और अंशुमान भोमिया जी को धन्यवाद)
दुर्ग :- 10
खण्डार किला (Sawai Madhopur)
आज कल इतिहास एक चर्चा नहीं बहस का विषय है, हर चौराहे पर बॉलीवुड की कोई फिल्म की चर्चा से शुरू होता है और एक छोटे द्वन्द तक बमुश्किल रुक पता है। एक बोला मराठे अफगानिस्तान में कंधार तक अपना परचम लहरा रहे थे, यह सुनते ही राजस्थान के दौसा जिले के एक राजपूत की आँखों से अंगारे फूटे पड़े, बोले कोई लूट के लिए इधर उधर भागना परचम नहीं था। यह लोग मुगलों से बुरे थे, इन्होंने उस ज़माने में हमारे परिवार के दुधमुहे बच्चे तक नहीं छोड़े। इन लूट कर भागने वालों पर आज बॉलीवुड के लोग फिल्में बना कर हमें इतिहास पढ़ा रहे है और कह रहे है, यह हिन्दू राष्ट्र रक्षक थे ? अब लगने लगा मेरे से यह विवाद यहाँ तक नहीं रुकना। खैर बीच में ही चाय आ गई और विषयान्तर करने में मदद मिल गई।
इतिहास ने लोगों को व्यक्तिगत, समाज और देश स्तर पर अलग अलग रूप से एक साथ प्रभावित किया है, कोई व्यक्तिगत नुकसान, समाज और देश स्तर पर फायदे का हो सकता है अतः इसे अलग अलग तरह से देखा भी जा सकता है।
हालाँकि सदियों से भारत सांस्कृतिक रूप से एक था, परन्तु तब राजनीतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह विखंडित था। उस ज़माने में गाय, गंगा, गीता, और गणेश सबके साझे थे बाकी सभी विखंडित था। मुझे लगता है चाय आज सांस्कृतिक जुड़ाव का क्विक फिक्स साधन है।
खण्डार एक अत्यंत प्राचीन किला है, परन्तु बाद में मराठा-राजपूत संघर्ष में राजपूतों की एक महत्वपूर्ण छावनी जो दक्षिण से होने वाले आक्रमण को झेलती थी। मराठो से बचने के लिए राजस्थान ने चम्बल के किनारे बने पुराने किलों को सुधरवाया गया जैसे – मंडरायल, ऊटगिर, खण्डार आदि और उनके पीछे नए किलों की क़तार बनायीं गयी। शायद बरवाड़ा, बोंली, भरतून, ककोड़ और शिवाड़ आदि उनके उदाहरण है।
सवाई माधोपुर में दो किले है एक रणथम्भौर और दूसरा खण्डार। रणथम्भौर चन्द्रमा का वह हिस्सा है जो चमकदार है और खण्डार वह जो हरदम अंधकार में रहता है। दोनों के मध्य 13-14 किलोमीटर की दूरी है। इसके बाद भी खण्डार की चर्चा लगभग नगण्य। इतना पास एक और विशाल किला क्यों है ? क्या आपस में साझेदारी थी ? एक जानकार बोले जैसे दुधारी तलवार के दोनों तरफ धार होती है और उसे खांडा कहते है वैसे ही यह किला है, एक धार रणथम्भौर तो खांडे के दूसरी तरफ खण्डार, पता नहीं यह शब्द जाल था या खण्डार नाम की व्युत्पत्ति का कारण।
किले का द्वार किसी तिलिस्मी दुनिया का लगता है। यहाँ का हवामहल किसी विलासी राजा का महल लगता है। शिवालय के देव को खजाने ढूंढने वालों ने खोदकर किनारे कर दिया, जिसे कभी कोई रानी, एक बूढ़े पुजारी के अलावा किसी को छूने नहीं देती होगी। आज तालाब में बस शैवाल जिन्दा है और बाकि सब निष्प्राण, परन्तु निस्तेज नहीं। किसी एकल योद्धा की तरह खुले में खड़ा है, यह खण्डार का किला, रणथंभौर की तरह पहाड़ियों की गोद में छिपकर नहीं बैठा। तोपे लोगों ने कुल्हाड़ी और गंडे- ताबीज बनाने के लिए चुरा ली और लोग कहते है यहाँ कुरान लिखे पत्थर थे, जो एक मियाँजी ने ही बेच दिए। कोई ऐसा कोना नहीं बचा जो धन की लालसा में खोदा नहीं गया और कोई ऐसे कोने में पड़ा पत्थर नहीं जो किसी धन से कम हो, परन्तु उसे कौन जाने।
खण्डार देखने कभी कभी कोई जाता है, परन्तु जयंती माता का मंदिर आज भी यहाँ का सबसे अधिक आस्था का बिंदु है और सेंकडो लोग उन्हें सहाय माता के रूप में सहायता मांगने आते है। पीछे के दरवाज़े पर हनुमान जी की प्रतिमा है जो बाघ के आने जाने के रास्ते में है, महीने में 2 -3 बार बाघ भी आता है और बघेरे और भालू यहाँ हर दम रहते है। सांभर हिरण के सींग बिखरे मिल जाते है। नेचर ट्रेल के साथ किला दर्शन यहाँ संभव है जिसमें सभी जानवरों के चिन्ह मिल जाते है। आप किला देखे और मुझे किसी बहस का हिस्सा न बनाले।
दुर्ग :- 11
तिमनगढ़ (मासलपुर – करौली):
राजस्थान पुलिस द्वारा अपने नए ऑफिसर्स को ट्रेनिंग के दौरान एक केस स्टडी पढ़ाई जाती है, और वह है- जयपुर निवासी मूर्ति तस्कर वामन नारायण घीया के संघटित मूर्ति चोरी गैंग के पर्दाफाश करने और उसे जेल भेजने की। पुलिस के वरिष्ठ अफसर श्री आनंद श्रीवास्तव की अगुआई में इस बड़े केस को अंजाम दिया गया था। इस तस्कर के लिए कहा जाता है की उसने- राजस्थान के अनेक जिलों से मुख्यतया- चित्तौड़गढ़ के मंदिरों, चम्बल के बीहड़ों और इनके अलावा देश के कोने कोने से 700 से अधिक दुर्लभ और प्राचीन मूर्तियों को देसी – विदेशी संग्रहकर्ताओं को ऊँचे दामों में बेच दिया था। इसके बारे में देश विदेश में खूब छपा है।
कहते है, मूर्ति चोरों का राजस्थान में सबसे अधिक प्रिय स्थान रहा है – तिमनगढ़ का किला। यह करौली के मासलपुर क्षेत्र में स्थित है जो एक खास तरह के पान की पैदावार के लिए प्रसिद्ध है। पता नहीं उस मुलायम पान की मानिंद ही करौली के लाल बलुआ पत्थर भी है की उन्हें यहाँ चाहे जैसा रूप दे दिया गया है। कहते है, 1100 ईस्वी में बने तिमनगढ़ दुर्ग का यह नाम वहां के यदुवंशी राजा तिमनपाल के नाम से दिया गया था। यहां के सब राज परिवार के लोग अपने नाम के आगे पाल लगते है, जो कृष्ण वंशज गौ पालक होने के कारण पड़ा।यहाँ के राजा हिन्दू थे, परन्तु तिमनगढ़ के टूटे फूटे अवशेषों में जैन मंदिरों के अवशेष भी बहुतायत में मिलते है।
आज इसकी हालत देखकर लगता है किसी ने एक कांच के फूलदान को कई सो फ़ीट ऊपर उठा कर पटक दिया हो। इस किले के अंदर की इमारतों का मलबा किसी भयानक भूकंप के बाद का दृश्य लगता है। शुरू में मोहमद गौरी की फ़ौज ने इसका यह हाल किया था, परन्तु इस किले को फिर बना दिया गया, और फिर किसी ने तोड़ दिया। अवशेषों से पता लगा है, इस किले में कभी ५० मंदिर थे, जिनमें १० तो विशाल श्रेणी के थे। परन्तु जो कुछ खंडित मूर्तियां और पत्थरों में उकेरे कला के आयाम बचे थे, उन्हें हमारे ही देश के घीया जैसे लोगों ने लूट कर बेच दिया। अब भी कुछ बचा था। यहाँ के गांव वाले अक्सर कहते है, विदेशी राजनयिक लोग आकर मूर्ति ले जाते थे। खैर यह बात कितनी सत्य है पता नहीं, परन्तु इस तरह के लोग अवश्य शामिल रहे होंगे। एक स्थानीय व्यक्ति बोला, पहले आस पास के कुछ लोग अपने बिस्तर, भूसे एवं मिट्टी के नीचे मूर्तियां छिपा कर रखते थे, ताकि मौका मिलने पर उसे बेच सके। आज इस किले की बाहरी दीवार भर बची है और यह वैसे ही लगता है, जैसे किसी पुस्तक का बाहरी कवर पेज बचा हो और अंदर से सारे पन्ने किसी ने फाड़ दिए हो।
आप जब इस लुटे तिमनगढ़ को देखोगे तो दिल बैठ सा जायेगा। हर पत्थर, हर ज़र्रा कराह रहा है। कभी हो सके तो अपने पाषाण मन से जाओ और इस मृतपाय किले को सांत्वना दे आओ।
जल के महत्व को समझते हुए राजस्थान में झीलों और तालाबों के अलावा जल संचय के और अनेक प्रयोग हुए है, जिनमें मुख्य थे – नाड़ी, बावड़ी, झालरा, खडीन, कुंड, केवडिया (यह आपने नहीं सुना होगा), टांके, टोबे और जोहड़े आदि। जल बहुतायत वाले दक्षिण राजस्थान में जहाँ खूबसूरत झीले अधिक है, वहीं पश्चिम में शानदार बावड़ियां, तो उतर राजस्थान में हर घर में कुंड थे, शेखावाटी और आस पास क्षेत्रों के जोहड़े दर्शनीय है। इन सभी का उपयोग धीरे धीरे सांकेतिक या नाम मात्र का बचा है, परन्तु इसका अफ़सोस सभी राजस्थान वासियों को है। कुछ लोग उन्हें पर्यटन के महत्व से विकसित करना चाहते है और इसी जोश में सरकार के प्रतिनिधि इतना अधिक धन व्यय कर देते है, की मूल स्वरूप ही नष्ट हो जाता है।
चुने पत्थर से बने चौड़े जल संचयन के वर्गाकार संरचना को जोहड़ों कहते है। इन जोहड़ों पर भी अन्य इमारतों की तरह, चूना, दही, दूध, संगमरमर की धूल से बने अराइश की एक चमकदार परावर्तक सतह लगाई जाती थी, जो न केवल आंखों को बल्कि आपके स्पर्श को एक मुलायम अहसास देती है। यह विधा शायद राजस्थान में सर्वाधिक उत्कर्ष तक विकसित हुई। यह एक तरह का कैनवास था, जिन पर राजस्थान के उत्कृष्ट चित्रकारों से मिनिएचर पेंटिंग भी बनवाई गयी।
जोहड़े का निर्माण अक्सर खेतों, गोचर या ओरण में होता था, जहाँ मिट्टी में जिप्सम की अधिकता हो जो जल को लम्बे समय तक जमीन में रोके रखे एवं रिसाव हो जाने से रोके रखने में सक्षम हो। बलुई टीलों के मध्य जिप्सम के इन मैदानों के मध्य में बनाए गए हल्के गहरे गड्ढे में बारिश की हर बूंद को करीने से सुरक्षित किया जाता रहा है।
चूरू स्थित सेठानी का जोहड़ा सबसे सुंदर माना गया है। कहते है छप्पन के अकाल में राहत कार्य चलने के लिए एक वणिक वर्ग की महिला ने अपने परिवार को इस जोहड़ निर्माण के लिए प्रेरित किया। चूरू के निवासी इसे अत्यंत आदर से देखते और दिखाते है। कुछ अलग अलग जोहड़ों की तस्वीरें आपके लिए यहाँ है, जरूर देखे।
कन्हैया लाल सेठिया जी राजस्थान के एक बड़े कवि थे और उन्होंने महाराणा प्रताप पर एक मार्मिक कविता लिखी थी।जो पढ़ते वक्त आपके दिल को छू जाती है और राणा प्रताप के जीवन संघर्षों का दर्शन कराती है। वह कविता यह की महाराणा जंगलों की खाक छान रहे है, और अपने पुत्र के लिए एक हरे घास रोटी की इंतजाम भी बमुश्किल ही कर पाए और वह भी एक “बन बिलावडो ले भाग्यो”। जब बचपन में इस पढ़ा तो लगा, महाराणा बड़े बेचारे, मोहताज और लाचार राजा मात्र ही रह गए थे। हल्दीघाटी के बाद उन्होंने सब कुछ खो दिया था, इस राजा ने फिर आगे के युद्ध कैसे किये होंगे। ऐसी दयनीय हालत में वह कैसे मुगलों की जयपुर राज्य के राजपूतों से समर्थित सेना से मुकाबले की सोच पाए होंगे। असल में सेठिया जी की उस सुंदर कविता को अपना एक गहन मतलब है, परन्तु उसे इतिहास भी न मान बैठे।उनकी सेना के लोग भील थे जो बन बिलाव क्या वन व्याघ्र को कुछ न समझे।
असल में महाराणा हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी 30 और वर्षों तक और जिन्दा रहे। और तो और मात्र दस वर्ष पश्चात उन्होंने एक भीषण युद्ध किया, जिसे आज हम दिवेर का युद्ध के रूप में जानते है, इसमें उन्होंने मुगलों को हरा कर अपने राज्य का अधिकांश हिस्सा वापस भी ले लिया था।
इस विजय के पीछे उनकी एक सतत रणनीति अवश्य रही होगी और जनता का अटूट साथ रहा होगा। असल में वे सभी समाजों को साथ लेकर चलने वाले अद्भुत रक्षक और पराक्रमी राजा थे। वह कोई जिद्दी शासक भर नहीं थे, न ही वह कोई अव्यवहारिक योद्धा थे, जो ढाई मण का भाला और अकल्पनीय भारी तलवार लेकर युद्ध में अकुशल तरह का प्रदर्शन करें। कुछ लोग उनका इस तरह से लार्जर देन लाइफ छवि घड़ने के चक्कर में उनके असली संघर्षों को कमतर कर देते है। उनका साथ प्रकृति और सामान्य जनता दोनों ने दिया था। उस ज़माने में अक्सर राजा, उसका परिवार और मात्र राजपूत जाति के लोग ही युद्ध लड़ते थे। और यह सब किले में बंद होकर प्रजा से अलग-थलग पड़ जाते थे, परन्तु महाराणा के साथ थी बहु संख्यक प्रजा और उन्होंने मेवाड़ की प्रजा के बल पर युद्ध लड़ा और दूसरा साथ दिया दक्षिण राजस्थान की प्राकृतिक विरासत ने।
कई बार कुछ युद्ध एक लड़ाई से समाप्त नहीं होता, इसके कई दौर हो सकते है, जैसे कुस्ती में कई बाउट के बाद निर्णय होता है। इसी तरह महाराणा अपने इरादों पर कायम रहे और अनिर्णीत फैसले के साथ इस धरा से विदा हुए, और विदा होने से पहले अधिकांश राज्य उन्होंने प्राप्त कर लिया था।
उनका एक किला भागागढ़, मुझे कोटड़ा के जंगलों में मिला, जो राजस्थान के सबसे अधिक घने जंगल का क्षेत्र है। यहाँ बिना चुने के पत्थरों को जमा कर रखा गया है। जिसके आस पास का क्षेत्र फुलवारी वन अभ्यारण्य का हिस्सा है। यह किला नीचे से नहीं दिखता है, यहाँ का भील समुदाय उनके के लिए मुख्य सहयोगी बना। उनका यह किला रणनीति के तौर पर इतना छुपा हुआ था, की कुछ हिस्से में तो पेड़ों ने सूरज के आने पर भी रोक लगा रखी थी, क्योंकि उनपर छद्म रूप से अनेक हमले हुए थे।इसी तरह के दो और किले यहाँ स्थित है – जुड़लीगढ़ और देवलीगढ़। यहाँ भागागाढ़ के निचे स्थित दीवार आदि की एक झलक दिखा रहा हूँ। यह राजस्थान के दैया वन खंड का हिस्सा है और गुजरात की सीमा पर स्थित है। यहाँ के एक ऊंचाई पर एक गांव माल श्रवण है, जो भालुओं से भरा है और ऊँचा और दूर है, पता नहीं कैसे लोग अपना जीवन यापन करते है।आप इस तीर्थ पर अनावश्यक रूप से पर्यटन के लिए नहीं जाए। फुलवारी अवश्य जाए यह राजस्थान की सबसे सुंदर सैंक्चुअरी है।
दुर्ग :- 14
मंडरायल किला (करौली)
मंडरायल एक पुराने कस्बे सा कस्बा है, इसके पीछे एक पहाड़ी और जिसके सिर पर एक किला है। हाँ, राजस्थान में कस्बे और शहर किलों के आस पास ही तो बनते थे, अन्य प्रदेशों की तरह इस सूखे प्रदेश में नदियां तो है नहीं। माना जाता है, इस कस्बे का यह विचित्र नाम ‘मंडरायल’ एक ऋषि माण्डव्य के नाम से पड़ा था।
पुराणों में कहानी है की माण्डव्य ऋषि एक बार किसी झूठे चोरी के आरोप में फंस गए थे और उन्हें सूली पर चढ़ाने का दंड मिला। सूली पर चढ़ा दिए गए। परन्तु सूली पूरी तरह उनको भेद नहीं पायी, फिर भी उसकी तीक्ष्ण नोक, उनके जिस भी हिस्से (इसका अंदाजा आप लगाए कहाँ ?) में गयी, वह निकल नहीं पायी, और उसे अंततः काट कर अलग कर दिया गया, और नोक वहीं चुभी रह गयी। मानते है यह इसलिए हुआ की उन्होंने बचपन में एक पक्षी को कुछ इसी तरह सताया था। वह उसी नोक के साथ विचित्र तरह से चलते रहे, और तबसे उनका नाम बदल के अणि माण्डव्य रख दिया गया था।
खैर मंडरायल नाम के पीछे एक और कहानी है की बयाना के प्रसिद्ध महाराजा विजयपाल के एक पुत्र मदनपाल या मण्डपाल ने मंडरायल को बसाया था और वहां एक किले का निर्माण संवत 1184 के लगभग कराया था।
खैर, यह किला उसी माण्डव्य ऋषि को चुभी तीक्ष्ण नोक के समान ग्वालियर को भी सतत चुभता रहा था। इतिहासकार इसे ग्वालियर के किले की चाबी कहते है। ग्वालियर मध्य प्रदेश का सबसे विशाल राज्य था और इसकी ताकत लगभग आगरा या दिल्ली के समान ही थी। इसलिए ग्वालियर को जितने के लिए मंडरायल को हासिल किये बिना यह मुश्किल था।
प्रारंभिक मुगल काल के दौरान, जयपुर राज्य के आंतरिक झगड़ों से परेशान होकर वहां के राजा पूरणमल ने मुगलों का सहारा लिया। हुमायूँ के कहने पर पूरणमल ने बयाना के युद्ध में उन्हें सहयोग दिया। इसके बाद जब वह मंडरायल की और मुड़े तो यह जगह उन पर भारी पड़ गयी और वह इस युद्ध में खेत हुए, यह जयपुर के लिए भी शूल के समान ही रहा।
मंडरायल करौली जिले में स्थित है, परन्तु करौली को मंडरायल के राजा ने ही बसाया था और पहले उसका नाम कल्याणपुरी था।
खैर मंडरायल वन और चम्बल नदी से घिरा क्षेत्र है, यह रणथम्भौर वन विभाग के कैला देवी हिस्से में ही आता है, जब सरकार ने कहा की क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट का क्षेत्र निर्धारित कीजिये, जो बाघों के लिए कैला देवी में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगा तो, रणथम्भौर वन विभाग ने कैलादेवी की इस मंडरायल रेंज को पूरी तरह नकार दिया था बाकि सारे क्षेत्र को CTH बना दिया था। बाघ भी इज्जत लेने पर उतारू थे, जैसे ही रणथम्भोर में बाघ बढे वे कैला देवी की और रुखसत हुए और पूरे कैला देवी के CTH जंगल को छोड़, यहीं मंडरायल आकर बसे और पनपे, जिसे शुरुआत में वन विभाग ने बाघ के दृष्टिकोण से कम महत्व का माना था। यह हमारे बाघों के लायक स्थान चयन के ज्ञान को दर्शाता है। खैर यहाँ से बाघों के सिलसिलेवार तरीके से गायब होने ने विभाग की हालत अणि माण्डव्य जैसी बना रखी है। सुल्तान, सुंदरी नामक बाघों के यहाँ से गायब हो ने बाद भी यह सिलसिला अभी तक रुका नहीं है।
यह किला गहरे लाल बलुई पत्थरों से बना है, किले के अंदर एक और बाला किला जैसा स्थान है जो अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता था। बघेरे इस पूरे किले का बढ़िया इस्तेमाल करते है। हालांकि यहां इंसानी दखल बहुत है और दिन में अक्सर मंडरायल कस्बे की औरते लकड़ी चुनने और बकरिया चराने जाते रहती है। यहाँ कांटे वाली जाल झाड़ी की बहुतायत है जो सावधानी नहीं बरती तो यह किला किसी की भी हालत भी अणि माण्डव्य के समान कर सकता है।
दुर्ग :- 15
Shergarh Fort (Baran)
एक नदी है परवन, जो चम्बल की छोटी बहन है, उसका आधार कार्ड पर नाम है पार्वती, पर इसके किनारे के सभी लोग इसे प्यार से परवन ही बोलते है। परवन नदी का चम्बल के जीवन में बड़ा योगदान है। एक ज़माने तक उसकी बड़ी बहन चम्बल, एक दस्यु की तरह हुआ करती थी, जो निर्बाध जंगलों में बहती थी, परन्तु अब कोटा से पहले पहले ही इंसानो ने इसे चार बड़े बांधों में कैद कर लिया है। इन बांधो ने लगभग इसका प्रवाह पूरी तरह ही खत्म कर दिया है। परवन नदी अवश्य चम्बल के इस हालात से दुखी है, और उसे अपना पूरा पानी दे देती है, पानी पहले भी देती थी, तब इसका कोई मायना नहीं था, परन्तु अब यह चम्बल के पानी में आधे से अधिक इजाफा करता है, बस इसीलिए चम्बल आज जिन्दा है। सो चम्बल के लिए परवन बचानी है क्योंकि चम्बल तो हमने पहले ही कैद में डाल रखी है।
परवन के किनारे पर एक किला है, जिसका पहले नाम था कोषवर्धन जिसे शेरशाह सूरी ने काबिज कर जोरी से नाम रख दिया शेरगढ़। न जाने कितनी बार किले का मालिक बदला, किले का नाम भी बदला, परन्तु परवन का इस किले प्रति प्रेम नहीं बदला, यह आज भी इसकी पीठ पर लहरों से होले होले थापी मार इसे दिलासा देती रहती है। इस किले को वाकई दिलासा देने की ज़रूरत है, क्योंकि आज कल इसके सभी पीछे पड़े है।
किले में प्रवेश करते ही मिलता है एक दाढ़ी वाले मियां जी, जो आप को आदर से कहते है में यहाँ का किलेदार हूँ बेटा, और आप सीधे जाओ और खूब किला देखो। फिर पता लगता है आप किले में नहीं अभी तक तो खाली शेरगढ़ के दीवारों से बंद गांव में आये थे, फिर लगभग १ किलोमीटर आगे चलने के बाद किला आता है, जहाँ एक और शख्स मिलता है, जो कहता है में हूँ यहाँ का असली किलेदार ASI की तरफ से और फिर आपको एक सरकार का फरमान पकड़ा देता है जिस पर लिखा है, आप आगे कैमरा नहीं ले जा सकते। कारण वह बताते नहीं और फीस वह लेते नहीं और आसपास गांव वालों की भीड़ में सेटिंग वो कर पाते नहीं । छोडो जी, फ़ोन से काम चलाएंगे। जैसे किला तो हम कैमरे वालों ने ही बर्बाद किया है।अंदर जाते ही मिलेंगे आपको दो घनघोर गंदे सूचना पट्ट जो इस किले का इतिहास बताते है। हालाँकि कहानी अच्छे से लिखी है, किसने कब कैसे बनवाया आदि, परन्तु यह पट्ट बेहद ही अटपटे लगते है।
आजकल इसकी काली दीवारों पर किया जा रहा है, चुना प्लास्टर और पीला रंग जो इसे चमका देगा। कहते है लाल कप्तान नामक फिल्म ने भी इस किले को आस पास के लोगों के मध्य चमका दिया है, तबसे ASI को भी यह जगह महत्वपूर्ण लगने लगी है।
किले के बाहर एक खूबसूरत जंगल है उसका नाम है शेरगढ़ वन्य जीव अभ्यारण्य और यह शायद अपने अच्छे दिनों की और जा रहा है। इन दिनों वन विभाग इसके संरक्षण के लिए कुछ संजीदा हुआ है, कभी कभी उन्हें इस जंगल को भी चीता घर बनाने की हुक उठती है। जो शायद मेरे हिसाब से उचित नहीं।
यहाँ सबके लायक कुछ है, मुस्लिम मजारे, जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म के देवालय है, और प्रकृति प्रेमियों के लिए जंगल, नदी और पहाड़ है। एक मंदिर में तो गज़ब काले पत्थर की मूर्ति है, जो एक बार चोर उठा ले गए थे, पर पुलिस की मुस्तैदी से वापिस आगयी थी।इस मूर्ति के बारे में ज्यादा पूछने पर मंदिर का पुजारी आप पर भी शक करने लगता है। इसी जगह के आस पास मिले एक ठेकेदार जी, जो अन्य मंदिरों और इमारतों को ASI के तरीके से ठीक कर रहे है, नाम है कोई तो मीणा जी, जो वजीरपुर- सवाई माधोपुर के रहने वाले थे, वे बोले चुना, पीसी ईंट, गुड़ का घोल, और बेल फल की सुखी गिरी को मिलाकर प्लास्टर तैयार करते है। यह सर्दी में किसी मिठाई की रेसिपी अधिक लग रही थी।
परवन एक जीवित नदी है हमने एक ज़माने पहले इसका हमने एक सर्वे किया था और पाया की इसमें जगह जगह घड़ियाल मिलते है l हमने एक अमेरिका के मगरमच्छ विशेषज्ञ के साथ इस के सम्बन्ध में लम्बा शोध पत्र भी छापा था। एक नदी में ठीक ठाक मात्रा में अति संकटापन्न प्राणी का मिलना सुखद है, यह उसके जिंदा होने के प्रमाण है। इस नदी पर अब एक नया और बड़ा बांध बनेगा। इसलिए आज कल भारतीय वन्यजीव शोध संस्थान (WII) इस पर शोध कर रहा है की, एक नए बांध बनाने से क्या होगा। आप भी जानते है क्या होगा, WII वाले भी जानते है क्या होगा, बस अभी परवन को पता नहीं, उसका क्या होगा। आप भी मत बताना क्या होगा, उसे दिलासा देने वाला उधर कोई नहीं है।
किले तो बनते बिगड़ते रहते है, नदियाँ और पहाड़ हमसे नहीं बनेंगे, अतः मैंने फैसला किया है यह सीरीज यही समाप्त करूँ और नदी, पहाड़ और प्रकृति पर ही कुछ लिखूं पढू। भूल-चूक, लेन -देन माफ़ करें।
यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।
टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य
इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।
भील बेरी झरना
इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जिसके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा । वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया। टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।
टेल्ड जे तितली।
पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ। यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।
थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।
स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।
मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma), कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है। इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius) ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य धूसर जंगली मुर्गों -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।
वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है
यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए निसंदेह अभिशाप होगी।
वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।
टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep Singh Sandu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.
जटिल और सुंदर आवाज अथवा मुश्किल नृत्य के माध्यम से पक्षियों में अपने संगी को रिझाना एक अत्यंत सामान्य प्रक्रिया है। परन्तु क्या आप जानते है ‘प्रेम उपहार’ (नुपिटल गिफ्ट) भी एक तरीका है, जिसमें पक्षी अपने संगी को किसी भोजन का उपहार, उसके साथ परिवार बसाने के लिए देते है। अक्सर नर पक्षी मादा को उपहार में खाने के लिए कीड़े आदि उपहार में देते है इसे नुपिटल गिफ्ट (Nuptial gift) कहा जाता है।
इसी प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन वाइट बेलिड मिनिवेट (white-bellied minivet) नामक पक्षी अत्यंत शानदार एवं नाज़ुक तरीके से करता है। White-bellied Minivet (Pericrocotus erythropygius) भारत में मिलने वाला एक स्थानिक पक्षी है, जो शायद किसी अन्य देश में नहीं मिलता (कुछ लोग मानते है की यह नेपाल में भी मिलता है)। झाड़ीदार और सवाना वनों में रहने वाला यह एक सुंदर मिनीवेट है। जिसमें नर का ऊपरी शरीर, चेहरा और गर्दन का हिस्सा चमकदार काला होता है। छाती पर एक गोल नारंगी पैच होता है, बाकी के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। पूंछ काली है, जिसके ऊपर का हिस्सा नारंगी होता है और पंखों पर सफेद निशान हैं। परन्तु मादा इतनी प्रभावी नहीं दिखती है, उसके पीठ का ऊपरी भाग गहरे भूरे रंग का, हल्के काले पंख, एक काली पूंछ होती है। पंखों में नर के समान सफेद निशान होते हैं, और पूंछ का ऊपरी हिस्सा हल्का नारंगी होता है।
वर्षा ऋतु में अक्सर मादा उपहार ग्रहण करने के समय 3-5 फीट ऊंची झाड़ी के एक किनारे की शाखा पर बैठ कर नर को देखती है एवं नर इधर उधर घूम कर कीड़े ढूंढ कर मादा को उड़ते उड़ते उसकी चोंच में अपनी चोंच से एक कीड़ा (अक्सर एक कैटरपिलर) उसको उपहार में दे देता है। यह उपहार देने का एक अत्यंत अनोखा तरीका है। हालांकि नर, मादा की शाखा पर बैठ कर यह उपहार आसानी से दे सकता है परन्तु उड़ते उड़ते उपहार देने का दृश्य को अत्यंत रोचक बन जाता है। देखा गया है की यह 15 -20 मिनट में 5 -7 बार इस प्रक्रिया को दर्शाता है। यह आवृति और सततता नर के मादा के प्रति समर्पण के साथ उसकी योग्यता को दर्शाता है। इस दौरान कभी कभी मादा, नर के द्वारा कीड़े पकड़ लिए जाने पर उसके नज़दीक जाने का कष्ट करती है।
प्रकृति में विभिन्न जीवों का अद्भुत व्यवहार देखने लायक है बस उन्हें रुक कर समय देने की आवश्यकता है।
विज्ञान से सरोकार रखने वाले लोग प्रकृति में जब भी घूमते हैं या अवलोकन करते हैं तो वे प्रेक्षण लेते रहते हैं। ये प्रेक्षण वीडियों, सेल्फी, फोटो, आंकडों, संस्मरण, नोट, चित्र या आरेख के रूप में या किसी भी अन्य रूप में हो सकते हैं।
जो लोग गंभीर अध्ययन – अनुसंधान करना चाहते हैं, वे गिने-चुने कुछ प्रेक्षणों तक सिमित नहीं रहते बल्कि प्रयास कर एक ही विषय पर पर्याप्त प्रेक्षण लेने की कोशिश करते हैं। जितने प्रेक्षण अधिक होते हैं, निष्कर्ष उतने ही सही निकलते हैं। कम प्रेक्षणों का भी अपना एक महत्तव है। कई बार तो एक प्रेक्षण भी महत्वपूर्ण हो जाता है लेकिन जहाँ तक संभव हो पर्याप्त प्रेक्षण लेने का प्रयास करना चाहिये। कई बार घटनायें इतनी दुर्लभ रहती हैं कि हमें एक ही विषय पर अधिक प्रेक्षण नहीं मिल पाते । ऐसी स्थिति में एक प्रेक्षण भी महत्तवपूर्ण हो जाता है।
प्रेक्षण अलिखित या लिखित हो सकते हैं। अच्छा रहे प्रेक्षण लिखित ही रहने ताकि उनकी सत्यता पर आँच न आये। प्रकृति प्रेमियों के पास एक छोटी डायरी व एक पैन हमेशा पास रहना चाहिये ताकि प्रेक्षण को संपूर्णता में सही-सही अंकित किया जा सके। जब प्रेक्षण अच्छी संख्या में उपलब्घ जावें तो, उन्हें एक लेख के रूप में किसी न्यूजलेटर या जर्नल में प्रकाशित करना चाहिये। यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो उत्तम। पीयर व्यू प्रकृति का नहीं होने वाले जर्नलों में लेखक या अनुसंधानकर्ता (प्रेक्षण संग्रहकर्ता) द्वारा की गई गलतियों का निवाराण ढंग से नहीं हो पाता है । यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो प्रकाशन से पूर्व लेख रिव्यू करने वाले 1-3 विषय विशेषज्ञों के पास जाता हैं तथा लेख की तकनीकी गलतियों से लेकर व्याकरण तक की त्रुटियाँ ठीक की जाती हैं तब जाकर लेख प्रकाशित होता है। पीयर व्यू नहीं करने वाले जर्नल में अध्ययनकर्ता की गलती को हांलाकि संम्पादक ठीक करने का प्रयास करते हैं फिर भी कई बार आपेक्षित सुधार नहीं हो पाता है तथा कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं।
वैसे देखा जाये तो जो प्रेक्षण एक लेख के रूप में वैज्ञानिक साहित्य में प्रकाशित हो जाते हैं वे ही वैज्ञानिक रेकार्ड बनते हैं तथा आगे अनुसंधानकर्ता या लेखक उनको सन्दर्भ के रूप में अपने लेखों में जगह देते हैं। लेकिन जो प्रेक्षण, तथ्य, फोटो आदि जर्नलों में प्रकाशित नहीं हो पाते, वे वैज्ञानिक साहित्य का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। यदि कोई प्रेक्षण, तथ्य या फोटो किसी स्थानीय अखबार में भी प्रकाशित होते हैं तो भी वे विज्ञान का सन्दर्भ नहीं बन पाते हैं।
आजकल कई अच्छे एवं होनहार प्रकृति प्रेमी छायाकार, प्रकृति प्रेक्षक, प्रकृति अन्वेषक तरह-तरह की वनस्पति व प्राणि प्रजातियों को ढूंढते रहते हैं तथा उनसे हम सभी से अवगत कराने हेतु अखबारों में समाचार प्रकाशित करते हैं व कुछ फेसबुक पर व विभिन्न ग्रुपों में अपनी सामग्री साझा करते रहते हैं। कभी-कभी तो बहुत ही अचरज जनक चीजे व बिल्कुल नये तथ्य भी सामने आते है। चूँकि इनमें उचित ढंग से वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण का अभाव रहता है अतः ये अद्भुत चीजे समय के साथ अक्सर खो जाती हैं तथा स्थानीय कुछ लोगों के अलावा बाहरी दुनियाँ को उन अचरज जनक चीजों का कुछ पता ही नहीं चलता । वैज्ञानिक अन्वेषण – लेखन कार्य करने वाले अद्येताओं के लिए ये अद्भुत तथ्य सन्दर्भ भी नहीं बन पाते हैं। ऐसे ही तथ्य जब कोई दूसरा व्यक्ति ढूंढ कर उचित वैज्ञानिक प्रक्रिया का पालन कर दस्तावेजीकरण कर उन्हें रेकार्ड पर लाता है तो प्रथम व्यक्ति असहज हो जाता है तथा अपने कार्य की ‘‘चोरी’’ होने तक का आरोप लगाता है तथा वह कई बार अपनी असहजता को अनेक माध्यमों पर प्रकट भी करता है। यह असहजता कई बार मोबाईल ग्रुपों में देखने को मिलती है। कई बार तो कटु शब्दों का उपयोग भी लोग कर डालते हैं। इससे ग्रुप सदस्यों का सौहार्द बिगडने की भी नौबत बन जाती है।
वे लोग जो अपने नवीन वैज्ञानिक तथ्यों को अखबार या फसेबुक तक सीमित रखते हैं उनको चाहिये की वे अपनी सामग्री को उचित ढंग से दस्तावेजीकरण कर सर्वप्रथम किसी न्यूजलेटर, अनुसंधान जर्नल, रिसर्च प्रोजेक्ट, वैज्ञानिक पुस्तक आदि का हिस्सा बनायें ताकि वह आमजन से लेकर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन से जुडी संस्थाओं एवं व्यक्तियों तक पहुंच जाये। निसंदेह अब किसी भी सृजनकर्ता की सामग्री एक वैज्ञानिक रेकार्ड के रूप में दर्ज रहेगी तथा उनका लेख भी उनके नाम से ही दर्ज रहेगा। उचित वैज्ञानिक प्रारूप में प्रकाशित हो जाने के बाद किसी भी जानकारी को यदि मौखिक वार्तालाप, अखबार, फेसबुक आदि का हिस्सा बनाया जाये तो उनके लेख/श्रेय के चोरी होने का खतरा नहीं रहता। ऐसा करने से विज्ञान साहित्य तो सजृन होगा ही, सृजनकर्ता भी ंआंनदित एंव गौरवान्वित अनुभव करेंगे। साथ ही उनके श्रम, समय व धन का सदुपयोग हो सकेगा। मैं यहां यह भी सलाह देना चाहूंगा कि लिखने से पहले उस विषय पर पूर्व प्रकाशित वैज्ञानिक साहित्य को अच्छी तरह पढना व समझना चाहिए ताकि बात-बात में यह कहना की ‘‘यह पहली-पहली बार’’ देखा गया है या इससे पहले ‘‘किसी ने नहीं देखा’’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो ।
राजस्थान में एक विचित्र नाम का कीट हैं -हिचड़कावा, यह असल में एक विशाल झींगुर हैं, जो रेतीली सतह- धोरों, नदियों के किनारे आदि पर मिलता हैं। हिचाड़कावा क्या नाम हुआ ? असल में इस विचित्र दिखने वाले कीट के लिए शायद एक विचित्र नाम दे दिया गया हैं। इसका वैज्ञानिक नाम हैं – स्किज़ोडाक्टील्युस मोनस्ट्रोसुस (Schizodactylus monstrosus) हैं। यह उड़ नहीं पता हैं और मेंढक की भांति फुदक फुदक कर चलता हैं। भारत में कई स्थानों पर मिलता हैं – जिसमें नॉर्थ ईस्ट भी शामिल हैं। पूरी तरह रात्रिचर कीट के पंख पीछे से मुड़ कर उसके शरीर की रक्षा के काम आते हैं वहीँ इनके पांवो में विचित्र प्रकार की संरचना बनती हैं जो मिट्टी को खोदने और पीछे धकेलने के लिए उपयुक्त होती हैं। यह इतनी जल्दी जमीन खोदते हैं की देखते देखते जमीन में समा जाते हैं।
पिले रंग के इन झींगुरों पर कई प्रकार के काले धब्बे और निशान होते हैं, साथ ही इनके पांव में हलके हरे रंग की आभा होती हैं। इनके एंटेना की लम्बाई शरीर से लगभग ढाई-तीन गुना तक बड़ी होती हैं, जो कई प्रकार की सूचना एकत्रित करने में सक्षम होती हैं। इनके मुँह के लैब्रम का आकर बड़ा होता हैं जो मेंडिबल्स को ढक लेता हैं। जो टीलों की जमीन को खोदने के लिए उपयुक्त होते हैं।
यह एक मांसभक्षी कीट हैं जो बीटल, अन्य कीट एवं खुद की प्रजाति को भी खाते हैं। यह स्वयं मरू लोमड़ी, मरू बिल्ली आदि के लिए एक महत्वपूर्ण भोजन का स्रोत बनता हैं।
यह नौ इनस्टार के माध्यम से अपना जीवन पूर्ण करता हैं। इंस्टार आर्थ्रोपोड्स का एक विकासात्मक चरण है, जैसे कि कीटक वर्ग को यौन परिपक्वता तक पहुंचने तक कई रूप ग्रहण करने के लिए बाहरी खोल को (एक्सोस्केलेटन) छोड़ना होगा जिसे निर्मोचन (मोल्टिंग) कहते हैं ।
इंस्टार के बीच अक्सर शरीर के बदलते अनुपात, रंग, पैटर्न, शरीर के खंडों की संख्या में परिवर्तन या सिर की चौड़ाई में अंतर देखा जा सकता है। कुछ आर्थ्रोपोड यौन परिपक्वता के बाद भी निर्मोचन करना जारी रख सकते हैं, लेकिन इन बाद के मौल्टों के बीच के चरणों को आम तौर पर इंस्टार नहीं कहा जाता है।
अध्ययन में पाया गया हैं की यह आधा फुट नीचे खड़ा खोद कर यह अंडे डालते हैं जो 20-25 तक हो सकते हैं। कई देशो में लोग इन्हें पालते भी हैं जैसे हमारे देश में घरों में मछलियां पाली जाती हैं।
श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है . इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .
पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50 दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को भी सहज बनाये रखा .
इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी, श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .
श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .