भारत के हर एक हिस्से से अंग्रेज अपना लाभ उठा रहे थे, कहीं से कॉफी, कहीं से चाय और कहीं से मसाले, राजस्थान से उन्हें आज्ञाकारी सैनिक और बुद्धिमान व्यापारी तो मिले ही साथ ही उन्हें मिला सांभर झील का नमक। नमक की एक चुटकी हम सब के लिए किसी जादू से कम नहीं है, खाने में इसके इधर उधर होने पर बेहतरीन से बेहतरीन ख़ानसामा की इज्जत दाव पर लग जाती है। परन्तु नमक मात्र स्वाद का मसला नहीं है, बल्कि नमक हमारे शरीर की एक महत्ती जरूरत है, शायद इसी कारण यह हमारे भोजन का एक अहम् हिस्सा भी बन गया है। नमक मानव शरीर की तंत्रिका आवेगों को संचालित करने, मांसपेशियों को अनुबंधित करने और शरीर में पानी एवं खनिजों के उचित संतुलन को बनाए रखने के लिए एक अत्यंत आवश्यक अवयव है।
सांभर झील का एक दृश्य (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
नमक को शुरुआती खाद्य प्रसंस्करण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। यदि मछली को नमकीन बनाने की कला न होती, तो यूरोपीय लोगों ने अपनी मछली पकड़ने को यूरोप के तटों तक ही सीमित कर दिया होता और नई दुनिया की खोज में देरी की होती।
आज भी नमक का इतिहास हमारे दैनिक जीवन को छूता है। महीने के अंत में मिलने वाली सैलरी (वेतन) शब्द की उत्पत्ति साल्ट (नमक) शब्द से ही हुई है। प्रारंभिक रोमन सैनिकों को दिए जाने वाले विशेष नमक राशन को सलारियम अर्जेंटम के नाम से जाना जाता था, जो अंग्रेजी शब्द सैलरी का जनक है। इसी जरूरत को ध्यान में रख इस के उत्पादन स्थलों पर शासकों ने अधिकार बनाये रखा और लोगों की ज़िन्दगी को अपनी मुट्ठी में बंद रखा। जरुरत के हिसाब से उनके हलक से टैक्स निकालते रहे।
वर्तमान समय में भारत में तीन मुख्य नमक उत्पादक राज्य है – गुजरात, तमिलनाडु और राजस्थान। यह देश के उत्पादन का लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा उत्पादित करते हैं। कुल उत्पादन में गुजरात का योगदान 76.7 प्रतिशत है, इसके बाद तमिलनाडु (11.16%) और राजस्थान (9.86%) का स्थान है। शेष 2.28% उत्पादन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, दीव और दमन से आता है।
राजस्थान के थार रेगिस्तान में कई नमक की झीलें हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं – सांभर, कुचामन, डीडवाना आदि। सांभर झील असल में एक प्रसिद्ध वेटलैंड है जहाँ कई प्रकार के प्रवासी पक्षी आते है, यह झील किसी भी प्रकृतिवादी के लिए स्वर्ग के समान है। चारों ओर से अरावली से घिरी यह झील राजस्थान के नागौर, अजमेर और जयपुर जिलों में फैली हुई है। इसे मेंधा, रूपनगढ़, खंडेल और करियन नदियों से पानी मिलता है। झील की गहराई गर्मियों के दौरान 60 सेमी से लेकर मानसून के दौरान लगभग 3 मीटर तक होती है। जैसे शिकारी पक्षी पेरीग्रीन और लग्गर फाल्कन तो अक्सर यहाँ मिल ही जाते है, परन्तु कम नजर आने वाले शिकारी पक्षी जैसे मर्लिन और साकेर फाल्कन आदि भी सांभर झील में गाहे बगाहे नजर आ जाते है। यह अद्भुत लैंडस्केप पक्षी दर्शन के अलावा आजकल प्री-वेडिंग शूट का प्रमुख स्थल बन गया है। यहाँ हुए दो विवाह भी अत्यंत प्रचलित रहे है। महाभारत में सांभर झील का उल्लेख राक्षस राजा वृषपर्वा के राज्य के एक हिस्से के रूप में किया गया है। सांभर में उनके पुजारी शुक्राचार्य रहा करते थे, उनकी बेटी देवयानी और राजा ययाति के मध्य यहाँ विवाह हुआ था। आज भी झील के पास देवयानी का मंदिर है। हालांकि कालान्तर में भी सांभर झील मुगल बादशाह अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधाबाई के विवाह के लिए विख्यात हुआ था।
पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
1884 में, सांभर झील में उत्खनन कार्य किया गया और उस खुदाई के दौरान मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला कला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियां, पत्थर के बर्तन और सजाए गए डिस्क पाए गए। सांभर से प्राप्त कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।
कैसे बनी सांभर झील और कैसे बनता है नमक ? :
मिथकों के अनुसार जब एक राक्षस दुर्गामासुर ने धरती पर सूखा और अकाल फैला दिया, तो पृथ्वी पर रहने वालों को सो वर्षों तक इसकी पीड़ा सहनी पड़ी। तब ऋषियों ने देवी लक्ष्मी को याद किया, वह प्रसन्न होकर दुनिया में नीले रंग का रूप लिए अवतरित हुई। देवी ने भी धरती पर दुःख देख उन्होंने अपनी आंखों से लगातार आंसू बहाए और लोगों को पुनः जीवन योग्य सुविधा प्रदान की। परन्तु उसके आँखों के आंसुओं से बहने वाली धाराओं ने एक लवणीय झील का निर्माण किया।
नमक के ढेर और क्यारियां (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
इस देवी का नाम शाकम्भरी था जो शाक-सब्जी की देवी है। इस देवी का एक मंदिर सांभर झील में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। जो एक महान राजा पृथ्वीराज चौहान के समय बनाया गया था। एक अन्य दंतकथा के अनुसार मां शाकंभरी की कृपा से यहां चांदी की भूमि उत्पन्न हुई। चांदी को लेकर लोगों में झगड़े शुरू हो गए। इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए मां ने चांदी को नमक में बदल दिया। इस तरह से सांभर झील की उत्पत्ति हुई।
परन्तु अब तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार इस झील की उत्पत्ति के संबंध में कई परिकल्पना हैं। उनमें से एक यह है कि ये झीलें टेथिस सागर के अवशेष के रूप में विद्यमान हैं, जो लगभग 70 mya वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने से पहले इस क्षेत्र में मौजूद था। हालांकि हाल ही में हुए कई अध्ययनों के अनुसार इस झील की समुद्री द्वारा उत्पत्ति की उपरोक्त परिकल्पना के लिए कोई सबूत नहीं मिले हैं।
इसके विपरीत नए अध्ययन की परिकल्पना के अनुसार इस झील का पानी उल्कापिंड मूल का है और नमक स्थानीय रूप से इस क्षेत्र में चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होताहै। ये झील टर्मिनल झील के रूप में व्यवहार करती हैं; यह मानसून के मौसम (जून-सितंबर) के दौरान पानी प्राप्त करते हैं और शेष वर्ष के दौरान वाष्पित हो जाते हैं (कोई बहिर्प्रवाह नहीं होता है और वाष्पीकरण प्रवाह के बराबर होता है)। यानी यह झील स्थानीय वर्षा द्वारा पोषित संचय और वाष्पीकरण चक्रों द्वारा बनाई गई हैं।यानी इसमें आने वाले नदी नाले यहीं पर समाप्त हो जाते है और आगे नहीं बहते है। वैसे राजस्थान में मुझे एक भी प्राकृतिक रूप से बनी मीठे पानी की झील नहीं मिली जितनी भी प्राकृतिक झीलें है वह खारे पानी की ही है।
सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
नमक निर्माण और इस पर लगने वाले टैक्स का इतिहास :
नमक उत्पादन का सर्वप्रथम प्रमाण लगभग 6,000 ईसा पूर्व का है जो रोमानिया के पोयाना स्लैटिनी-लुनका में एक उत्खनन में मिला है। भारतीय उपमहाद्वीप में, नमक उत्पादन का प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व विकसित हुई थी। गुजरात में लोथल जैसे स्थलों की खुदाई में नमक के बर्तनों और नमक निकालने के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरणों की मौजूदगी का पता चला है, जो प्राचीन काल में भी नमक के महत्व को दर्शाता है। साथ ही भारत में नमक पर कराधान भी प्राचीन काल से होता आया है। सभी कालों में यह राजस्व एकत्रित करने का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम रहा है।
कहते है एक समय नमक टैक्स चीन के राजस्व के आधे से अधिक था और इसी धन से चीन की महान दीवार के निर्माण में योगदान दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भी नमक पर कर प्रचलित रहा है। अर्थशास्त्र, जो लोगों के विभिन्न कर्तव्यों का वर्णन करता है, कहता है कि नमक कर इकट्ठा करने के लिए लवणनाध्यक्ष नामक एक विशेष अधिकारी को नियुक्त किया गया था।बंगाल में, मुग़ल साम्राज्य के काल में नमक कर लागू था, जो हिंदुओं के लिए 5% और मुसलमानों के लिए 2.5% था।
हालाँकि, मुगल सम्राट अकबर (1542-16051) के शासनकाल तक झील के संचालन की एक व्यवस्थित प्रणाली शुरू नहीं की गई थी। उनके समय में झील से लगभग 250,000 रुपये प्रति वर्ष की आय होती थी। जब औरंगजेब गद्दी पर बैठा (16582) तो आय धीरे-धीरे बढ़कर 15 लाख रुपये हो गई।, मुगलों के पतन के साथ राजस्व में गिरावट आई और लगभग 1770 में, जयपुर और जोधपुर के लोगों ने बिना किसी संघर्ष के झील पर कब्ज़ा कर लिया। अगले युग के दौरान झील का प्रबंधन राजपूतों और मराठों के बीच आगे और पीछे चला गया। इतिहास इस बारे में मौन है कि उन दिनों (1770-1834) जब तक 1835 में अंग्रेजों ने झील पर कब्ज़ा नहीं कर लिया, तब तक कितना राजस्व प्राप्त हुआ था। जयपुर और जोधपुर की संयुक्त सरकार, शामलात ने 1844 से झील पर काम किया (गोपाल और शर्मा 1994)।
उस समय नावा और गुढ़ा नगण्य बस्तियाँ थीं, लेकिन धीरे-धीरे नमक बाजार के रूप में विकसित हो गईं। जब जोधपुर ने नावा और गुढ़ा में नमक का काम विकसित करना शुरू किया, तो जयपुर को ईर्ष्या होने लगी। इससे दोनों राज्यों के बीच निरंतर कलह बनी रही।
यह तब तक चलता रहा जब तक कि 1870 में नावा और गुढ़ा सहित झीलों पर अंग्रेजों ने कब्जा नहीं कर लिया – परन्तु अंग्रेजों ने इसे नमक उत्पादन के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित किया। वर्ष 1870 से 1873 के मध्य सांभर झील के नमक उत्पादन के प्रबंधक रहे सहायक साल्ट कमिश्नर आर एम एडम लिखते है की ” सांभर और नावा गुढ़ा झील से नमक का औसत उत्पादन लगभग 1,400,000 मन या 51,429 टन है। अकेले सांभर में पिछले 17 वर्षों का औसत उत्पादन 690,000 मन था। उपरोक्त अवधि के दौरान सबसे बड़ा उत्पादन, यानी 1,360,000 मन, 1869 में हुआ था, और 1868 की अल्प वर्षा और अकाल के कारण श्रमिकों की प्रचुर आपूर्ति के कारण यह हो पाया ; जबकि 1863 में सबसे कम उत्पादन, यानी 1,504 मन, पिछले वर्ष की अत्यधिक वर्षा के कारण हुआ था, जिसने झील को इतना ऊंचा उठा दिया था कि शहर के कुछ निचले हिस्सों में भी बाढ़ आ गई थी” परन्तु सबसे अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नमक ढुलाई को लेकर थे की – 150 वर्ष पूर्व नमक निर्यात के लिए आवश्यक गाड़ी में 300,000 बैल, 66,000 ऊंट, 18,000 गाड़ियां और 5,000 गधे थे। यदि आप उस दृश्य को एक बार अपने मन में जिवंत कर देखे तो विचार करे की सांभर का क्या माहौल रहा होगा, शायद कोई अंतहीन मेले जैसा माहौल होगा।
एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा (नक्शा सार्वजनिक डोमेन से)
सांभर झील के आस पास के क्षेत्र की वर्तमान स्तिथि (बिंग सॅटॅलाइट व्यू)
आधुनिक समय में, महात्मा गांधी ने भारत में स्वशासन के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने के साधन के रूप में ब्रिटिश नमक कानूनों की अवहेलना की। हालांकि, नमक कर लागू रहा और इसे तभी निरस्त किया गया जब जवाहरलाल नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों के एकीकरण पर 1950 में झील का स्वामित्व राजस्थान राज्य सरकार को दे दिया गया। आज इसकी भूमि का पट्टा राजस्थान सरकार के साथ हिंदुस्तान साल्ट्स के संयुक्त उद्यम सांभर साल्ट्स को दे दिया गया है।
स्वतंत्रता के बाद, नमक कर को बाद में नमक उपकर अधिनियम, 1953 के माध्यम से भारत में फिर से लागू किया गया। 2017 में वस्तु एवं सेवा कर को खत्म कर दिया गया और सफल बनाया गया, जिसमें नमक पर कर नहीं लगता है।
भारत में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई ग्रेट साल्ट हेज :
भारत के नमक निर्माण करने वाले हिस्से को एक लम्बी बाड़ द्वारा अलग किया गया और नमक के व्यापार पर नियंत्रण किया गया। क्या कभी आपने सोचा है यह बाड़ से क्या मतलब है ? ग्रेट इंडियन सॉल्ट हेज असल में कांटो की एक घनी बाड़ थी जिसने भारत को दो भागो में बाँट दिया था i वैसे ही जैसे आप अपने खेत को दो भागों में विभाजित करते हो। इसमें मुख्य रूप से कांटेदार पेड़ों और झाड़ियों की एक विशाल क़तार थी, जो पत्थर की दीवार और खाइयों से पूरक थी, जिसके पार कोई भी इंसान या बोझ वाला जानवर या वाहन बिना गुजर नहीं सकता था, इसकी लम्बाई 3700 किलोमीटर थी। यानी यह एक तरह की इनलैंड कस्टम लाइन थी, जो भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा तटीय क्षेत्रों से नमक की तस्करी को रोकने के लिए बनायी गयी थी। यह ऐ ओ ह्यूम 1870 ने बनायीं थी। उन्होंने यह नमक की आवाजाही को नियंत्रित करने वाले सीमा शुल्क विभाग के खर्च को कम करने के लिए किया था। इसे ग्रेट हेज के नाम से जाना जाता है। इसके माध्यम से देश वासी लगभग दो महीने की आय के बराबर नमक कर देने के लिए मजबूर होते थे। इस बाड़ की सुरक्षा लगभग 12,000 पुरुषों और छोटे अधिकारियों द्वारा की जाती थी। इसी तरह पूरे इतिहास में, नमक सरकारी एकाधिकार और विशेष करों के अधीन रहा है।
1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग (सौ: विकिपिडिया)
नमक व्यापार की वर्तमान स्थिति और सांभर के बिगड़ते हालात:
कहते है सांभर के पानी में सोडियम क्लोराइड की उच्च मौजूदगी के कारण यहां के नमक की बहुत अधिक मांग है। झील के नमक उत्पादन का प्रबंधन सांभर साल्ट्स लिमिटेड (एसएसएल) द्वारा किया जाता है, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड और राजस्थान सरकार का संयुक्त उद्यम है। परन्तु एक अनुमान के अनुसार सांभर झील से हर साल 32 लाख टन स्वच्छ नमक का उत्पादन होता है, जिसमें से 30 लाख टन का उत्पादन अवैध रूप से होता है।
सांभर झील के उत्तरी और पश्चिमी तट विशेष रूप से अवैध नमक उत्पादन के लिए कुख्यात हैं। इस गतिविधि से क्षेत्र की पारिस्थितिकी बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले कुछ वर्षों में झील में सर्दियों में रहने वाले फ्लेमिंगो की संख्या में भारी गिरावट आई है। नावा में, निजी नमक उत्पादकों द्वारा बोरवेल खोदने, अवैध पंप द्वारा पानी निकालने और बिजली के केबल बिछाने के लिए कई अर्थमूविंग मशीनें, हेवी ड्यूटी कंप्रेसर और ड्रिल मशीनें देखी जा सकती हैं।
बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
अवैध भूजल निकासी के लिए बिजली चोरी से निपटने के लिए, सांभर साल्ट्स लिमिटेड द्वारा राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष राजस्थान राज्य बिजली वितरण कंपनी (डिस्कॉम) के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की गई थी। जनता के दबाव में राज्य सरकार को विनोद कपूर समिति का गठन करना पड़ा। अपनी 2010 की रिपोर्ट में, समिति ने “झील में नमकीन पानी निकालने के अवैध कारोबार” पर प्रकाश डाला। रिपोर्ट में कहा गया है कि वेटलैंड क्षेत्र में 13,000 से अधिक अवैध ट्यूबवेल हैं। अब हालात और भी बदतर हुए है। यह हजारों करोड़ रुपये का अवैध कारोबार है। इस रिपोर्ट में इसे रोकने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए परन्तु क्षेत्र में व्यापार और राजनीतिक हितों के बीच सांठगांठ इतनी अधिक है कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान को रोक पाना असंभव लगता है।
सांभर झील की इकोलॉजी :
भारत के थार रेगिस्तान में सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारी झीलों में से एक है, इसके जैविक महत्व के कारण 1990 में इसे रामसर साइट घोषित किया गया था। यह जयपुर, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। यह नमक की झील एक विशाल खारे आर्द्रभूमि का निर्माण करती है, जो कच्छ के रण के बाहर राजहंस (flamingo) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सांभर साल्ट झील एक शीतोष्ण अति लवणीय पारिस्थितिकी तंत्र है।
फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
झील की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। वर्ष को अलग-अलग गर्मी, बारिश और सर्दी के मौसम के साथ चिह्नित किया जाता है। गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस (113 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुँच जाता है और सर्दियों में 5 डिग्री सेल्सियस (41 डिग्री फारेनहाइट) तक नीचे चला जाता है।
झील के आसपास 38 गांव हैं जिस कारण इस पर अत्यंत मानवीय दबाव है – प्रमुख बस्तियों में सांभर, गुढ़ा, जब्दीनगर, नवा, झाक, कोर्सिना, झापोक, कांसेडा, कुनी, त्योड़ा, गोविंदी, नंधा, सिनोदिया, अरविक की ढाणी, खानदजा, खाखड़की, केरवा की ढाणी, राजास, जालवाली की ढाणी आदि शामिल हैं।
यहाँ आर्द्रभूमि उत्तरी एशिया से प्रवास करने वाले हजारों पक्षियों के लिए एक प्रमुख शीतकालीन क्षेत्र है। झील में उगने वाले विशेष शैवाल और बैक्टीरिया आकर्षक जल रंग प्रदान करते हैं और यह झील की पारिस्थितिकी के मुख्य घटक है। इस झील के पानी में नमक (NaCl) की सांद्रता हर मौसम में अलग-अलग होती है। पैन (क्यार) में नमक की मात्रा अलग-अलग होती है और तदनुसार, haloalkaliphilic सूक्ष्मजीवों के कारण नमकीन पानी का रंग हरा, नारंगी, गुलाबी, बैंगनी, गुलाबी और लाल होता है। जो प्रवासी पक्षियों को भोजन देते है। आसपास के जंगलों में अन्य जंगली सूअर, नीलगाय और लोमड़ियों स्वतंत्र रूप से विचरण करती हैं।
ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांभर लेक में मछलीया नहीं मिलती परन्तु कई प्रकार के क्रस्टेसियन यहाँ मिलते है- यानी झींगा और क्रिल्ल समूह से सम्बन्ध रखने वाले जीव, जो कई प्राणियों का भोजन है। पक्षी विज्ञानी आर. एम. एडम, जो सांभर में सहायक आयुक्त थे, कुचामन और नवा सहित झील और इसके आसपास के क्षेत्रों के पक्षीविज्ञान संबंधी रिकॉर्ड प्रकाशित करने वाले पहले व्यक्ति थे (एडम 1873, 1874 ए-बी)। झील के पक्षी जीवन पर उनके विस्तृत नोट्स अभी भी जानकारी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत बने हुए हैं और इसे एक बेंचमार्क अध्ययन माना जाता है। एडम ने 244 पक्षी प्रजातियां दर्ज की थी। एडम के पेपर को वर्तमान संदर्भ में एक पक्षिविद श्री हरकीरत सांघा ने विश्लेषण किया है। सांघा के फ्लेमिंगो की दोनों प्रजातियों पर लिखे नोट्स का ज्यों का त्यों उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ – “ग्रेटर फ्लेमिंगो नियमित और आम शीतकालीन आगंतुक। वे आम तौर पर अगस्त के दूसरे सप्ताह तक पहुंचते हैं और झील पर उनका रहना काफी हद तक पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सामान्य वर्षा वाले वर्षों में वे फरवरी तक झील छोड़ देते हैं, जब उच्च स्तर के वाष्पीकरण और नमक उत्पादन के लिए पानी के उपयोग के कारण झील सूखने लगती है। हालाँकि, ‘बाढ़’ के वर्षों के दौरान (उदाहरण के लिए, जुलाई 1977-जून 1978), जब झील गर्मियों में भी गीली रहती है, ग्रेटर और लेसर फ्लेमिंगो दोनों को पूरे वर्ष में दर्ज किया गया था (सांघा 1998)। आगमन और प्रस्थान की अंतिम तिथियां क्रमशः 10 अगस्त 1996 और 6 अप्रैल 1996 हैं। 1991 और 2009 के बीच आर्द्रभूमि की कई यात्राओं के दौरान राजहंस की पूरी गणना की गई और दो प्रजातियों के वितरण की योजना बनाई गई। हाल ही में प्रकाशित साहित्य (गोपाल और शर्मा 1994) के विपरीत, ग्रेटर फ्लेमिंगो हमेशा लेसर फ्लेमिंगो की तुलना में कम संख्या में थे। 25 जनवरी 1998 को 10,000 से अधिक की गिनती की गई। हालांकि 2 नवंबर 2001 को झील के किनारे तटबंध के पास एक अंडा पाया गया था, लेकिन इस प्रजाति ने सांभर में कभी भी सफलतापूर्वक प्रजनन नहीं किया, क्योंकि आदर्श जल परिस्थितियाँ उनके लिए उपलब्ध नहीं हैं।
सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांघा लिखते है की लेसर फ्लेमिंगो बहुत आम है और झील पर सबसे प्रचुर प्रजाति है। परन्तु वे आगे लिखते है की अजीब बात है, एडम ने सांभर में अपने निवास के “पहले दो वर्षों के दौरान” इसका अवलोकन नहीं किया। वह कहते हैं कि “एक स्थानीय निवासी ने उन्हें बताया कि उन्होंने कमोबेश छोटे राजहंस देखे हैं, जिनके बारे में उनका कहना है कि वे छह या सात साल बाद झील पर आते हैं।” सांघा लिखते है की 1990 से मैं नियमित रूप से लेसर फ्लेमिंगो को देखता रहा हूं। झुंड बारिश की पहली भारी बारिश के बाद दिखाई देते हैं और उनके रहने की अवधि झील में पानी की मात्रा पर निर्भर करती है। सबसे प्रारंभिक आगमन तिथि 7 अगस्त 1998 दर्ज की गई थी जब 7,000 से अधिक देखे गए थे। वे आमतौर पर मार्च के अंत तक चले जाते हैं, लेकिन अंतिम तिथि 6 अप्रैल 1996 दर्ज की गई है। रिकॉर्ड संख्या 23 सितंबर 1995 को देखी गई थी जब 20,000 से अधिक का अनुमान लगाया गया था। जनवरी की शुरुआत से मार्च 1996 के अंत तक लगभग 18,000 फ्लेमिंगो देखे गए। 4 जनवरी 2009 को सी. 15,000 थे।
इस तरह यह लवणीय झील कई प्रकार के जीवों का अनोखा पर्यावास है।
सांभर झील की इकोलॉजी में बदलाव :
अब फिजा बदल रही है ।इस झील के बारे में एडम ने कभी लिखा था की – “बारिश में अत्यंत वीरान झील एक अत्यंत सुंदर दृश्य में बदल जाता है। साफ वातावरण जगमगा उठता है और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों की निचली श्रृंखला बैंगनी रंग में रंग जाती है, रेतीले टीले हरे रंग से ढक जाते हैं, और झील का तल 20 मील लंबाई और लगभग 5 इंच चौड़ाई में पानी के विस्तृत विस्तार में परिवर्तित हो जाता है। इस सब को बढ़ाने के लिए, छोटी-छोटी कलगीदार लहरें लहरा रही हैं, और पूरी सतह पक्षी-जीवन से भरी हुई है। राजहंसों के घने समूह को हर जगह तैरते या झील के तल में बहते, ऊपर की ओर उड़ते हुए, “सभी शानदार चीजों की समृद्ध छटा” के साथ, या भोजन की तलाश में किनारे पर चुपचाप घूमते हुए देखा जा सकता है। बड़े और छोटे पक्षियों की लंबी कतारें, सभी प्रकार के पंखों के, भव्य गुलाबी रंग के वयस्क फ्लेमिंगो से लेकर मटमैले भूरे और सफेद युवा फ्लेमिंगो तक, पश्चिम से पूर्व तक यहां मार्च करते हैं, और सभी अपने सिर नीचे झुकाते खाना खोजते हुए”
साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
वे आगे लिखते है की सिंचाई के लिए सांभर के आसपास उपयोग में आने वाले खुले कुएं लगभग 30 या 40 फीट व्यास और 20 फीट गहरे खेतों में खोदे गए हैं। इनके किनारे विलो, बाघ और सरपत घास (प्रजातियों का वर्णन स्पष्ट नहीं है ) आदि की प्रजातियों से घने रूप से ढके हुए हैं, और कई पक्षियों का पसंदीदा निवास स्थान हैं। वर्तमान में पानी का लेवल लगभग 100 फ़ीट से भी गहरा चला गया है।
वर्तमान में यहाँ वर्षा के आंकड़े पैटर्न में किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं देते हैं, लेकिन झील में जल की आवक में भारी कमी आई है दूसरी और शैवाल में उल्लेखनीय वृद्धि झील के अस्तित्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह आसपास की मानवजनित गतिविधियों और झील के जलग्रहण क्षेत्र में चेक बांधों और एनीकटों के निर्माण के कारण हो सकता है जो झील में अपवाह को रोकते हैं और शैवाल की अनुकूल वृद्धि प्रदान करते हैं। सांभर झील को पानी लाने वाली अधिकांश नदियाँ रेत से भर गई हैं। जिस कारण ताजे पानी का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। दूसरी और आस पास अनियमित वर्षा और अत्यधिक दोहन के कारण सरकार ने खेती को बचाने के लिए इधर उधर चेक्ड बाँध एवं एनीकट बनाकर जल प्रवाह को रोकने अथवा जल संचय हेतु जल स्तर में सुधार करने की नीति बनाई। इसके कारण स्थिति और भी विकट हो गयी है, जलग्रहण क्षेत्र से झील में पानी का प्रवाह बंद होता जा रहा है।
कम ताज़ा पानी के कारण उपमृदा पानी और अधिक लवणीय हो गया है और एक अध्ययन के अनुसार इसकी सांद्रता 18 to 24°Be तक पहुंच गई है। वर्तमान स्थिति को पुनर्जीवित करने के लिए, वर्षा जल जलग्रहण क्षेत्र से झील तक पहुंचना चाहिए।नहीं तो बढ़ते सूखे दिनों के कारण हवा -आँधी और तूफ़ान के माध्यम से नमक पास के क्षेत्र में ले जाएँगी और वह क्षेत्र भी खारा होता जाएगा।
एक अध्ययन के अनुसार सांभर झील की फाइटोप्लांकटन प्रजातियों की संरचना पहले बताई गई 20 जेनेरा से घटकर केवल 11 (नोस्टॉक, माइक्रोसिस्टिस, स्पिरुलिना, अपानोकैप्सा, ऑसिलेटोरिया, मेरिस्मोपेडिया, नित्ज़स्चिया, नेविकुला, सिनेड्रा, कोस्मेरियम और क्लॉस्टेरियम) रह गई है। (Jakher, Bhargava & Sinha,1990)
नवंबर 2019 में, झील क्षेत्र में लगभग 20,000 प्रवासी पक्षी रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए थे। बोटुलिस्म को इसका कारण माना गया और अनेक लोग इस से सहमत नहीं लगते है। परन्तु अभी तक बोटुलिस्म ही प्रामाणिक कारण माना जाता है। झील के उत्तरी किनारे बिजली की तारों से पटा हुआ है। लोगों ने झील के पेट में हजारों की संख्या में बोरवेल खुदा दिए है ताकि १-२-३ किलोमीटर दूर तक अपने खेत में खारा पानी लेजा कर नमक बनाया जा सके। तीन और के किनारे नमक की क्यारियों से अटे पड़े है, झील के माता मंदिर वाले किनारे में भी मानवीय गतिविधियां जोरो पर है।
2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांभर झील संरक्षण के प्रयास :
अनेक लोग आज कल झील की चिंता करने लगे है। परन्तु PIL और मुखर मीडिया रिपोर्ट्स के बाद भी नतीजा सिफर रहा है। मात्र वर्ष 2014 में, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड सहित छह सार्वजनिक उपक्रमों ने कंपनी के तहत भूमि पर दुनिया की सबसे बड़ी 4,000 मेगावाट की अल्ट्रा-मेगा सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन राज्य में एक अत्यंत बुद्धिमान वन अधिकारी की चौकस निगाहों के कारण इस परियोजना को रोक दिया गया और गुजरात में स्थानांतरित कर दिया गया, नहीं तो यह झील पूरी तरह बरबाद हो जाती। इस अधिकारी का नाम उजागर करना ठीक नहीं है। वरना इसके पैरोकार कम और गाली देने वाले ज्यादा लोग मिल जायेंगे।
यह झील धीरे धीरे अपने गुणों के कारण मारी जा रही है। इसे बचाना अब असंभव लगता है।
References
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यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।
टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य
इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।
भील बेरी झरना
इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जिसके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा । वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया। टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।
टेल्ड जे तितली।
पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ। यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।
थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।
स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।
मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma), कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है। इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius) ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य धूसर जंगली मुर्गों -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।
वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है
यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए निसंदेह अभिशाप होगी।
वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।
टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep Singh Sandu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.
Since ancient times, the cow has held a special place in Hindu culture, yet expounding on the virtues of this sanctity is often interpreted as a sign of rigid orthodoxy today. However, if you have even the slightest understanding of how ecosystems function, a gaushala in the district of Karauli named the Thekra Gaushala Dham might give you some ideas that might be deemed “out of the box”. For instance, I discovered how a jungle once ravaged by mining could be restored without plantation drives and the like.
Caption 1: Day-long struggles between vultures and jackals make this place unique.
The grazing area of this gaushala is 1790 bighas in size , and it was once decreasing on account of encroachment and of course being heavily damaged as a consequence of illegal mining. Thus complete chaos ensued in the gaushala’s name. Eventually, one fine day a gentleman named Sh. Munna Singh reversed the encroachment on the land with the support of local communities, and also had the illegal mining stopped for good.
2000 cows were given shelter in the Gaushala and due to the untiring efforts of this gentleman, arrangements for sufficient fodder and water were also made.Just as an ecosystem is nourished with manure and earthworms, in almost the same way, 2000 cows continued to fertilize the mining-afflicted soil with nutrients day and night in this vast area.
Caption 2: Migratory Eurasian Griffons
This area is now a safe ecosystem. I first had the opportunity to visit this area when a man-eating tiger from Ranthambhore called T-104 moved towards human habitation and stayed at this gaushala for a week from where the Forest Department moved it to a safer location with the help of the Village Wildlife Volunteers of Tiger Watch. The Village Wildlife Volunteers used to monitor the tiger in this area.
This ecosystem has improved even further with time, and today it is home to over 35 individuals of endemic vulture species and over 200 migratory vultures have been sighted this year. The interactions between these vultures and jackals is worth observing. There is very slight anthropogenic manipulation in the sense that the dead cows of the gaushala become an easy source of food for the vultures and jackals living here.
Caption 3: All the vultures give the jackals a tough fight.
Caption 4: Morning and evening sunlight is very important for the vultures in autumn. Perhaps the light falls straight on the inner wings.
If the Forest Department wishes, it can declare this place a protected area for vultures, so that this endangered group may have another safe haven. For this move, intense attention will have to be paid to the veterinary medicines used in the gaushala and the surrounding areas. Such a campaign can only be taken forward with the cooperation of local people.
Caption 5 : Limitations of food exacerbate conflict.
You can visit this place yourself with the consent of the gaushala management . It is 30 kms from Karauli on the Dholpur road. The gaushala managers are very sensitive towards the vultures, so you must observe the rules set by them.
Caption 6: Sh. Munna Singh, the gentleman responsible for this restored ecosystem.
प्राचीन काल से गाय का हिन्दू संस्कृति में अपना एक विशेष स्थान है परन्तु आज के समय इनकी बात करना आधुनिकता के खिलाफ और प्राचीन मानसिकता का द्योतकमान लिया जाता है। यदि आप पारिस्थितिक तंत्र की हलकी सी भी समझ रखते है तो ठेकरा गौशाला धाम नामक करौली की यह गौशाला आपके लिए एक नए विचार का संचार करेगी। मैंने पाया की किस तरह एक खनन से बर्बाद भू क्षेत्र जिसमें बिना वृक्षारोपण के और अतिरिक्त प्रयासों के किस प्रकार उसे पुनर्स्थापित किया जा सका है।
१ गिद्ध के साथ पूरे दिन चलने वाला सियार के साथ संघर्ष इस स्थान को विशेष बनाते हैं।
यह प्राचीन गौशाला का चरागाह क्षेत्र जो 1790 बीघा का है, एक ज़माने में अतिक्रमण से घटता गया एवं अवैध खनन से बर्बाद पारिस्थितिक तंत्र उजड़े बयार के सामान था। गौशाला के नाम पर अव्यवस्था का आलम था। खैर समय पलटा और एक सज्जन श्री मुन्ना सिंह ने इसमें अनेक समाज के लोगों की मदद से अतिक्रमण हटाया और खनन पर रोक लगायी। गौशाला में २००० गायों को शरण दी गयी एवं इन्ही सज्जन के अथक प्रयासों से पर्याप्त चारे पानी की समुचित व्यवस्था की गयी। जिस प्रकार केंचुए द्वारा खाद बनाकर इकोसिस्टम को पोषित किया जाता है लगभग उसी प्रकार इस विशाल भू भाग में यह २ हजार गाये रात दिन इस खनन प्रभावित क्षेत्र को पोषक तत्वों से उर्वरक बनाती रही।
२ प्रवासी यूरेशियन ग्रिफ्फॉन आपस में विभिन्न तरह की क्रियाएं करते रहते हैं।
यह क्षेत्र आज एक सुरक्षित इकोसिस्टम बन चुका है। यह क्षेत्र मुझे तब देखने का मौका मिला जब रणथम्भौर से एक नरभक्षी बाघ T104 मानव बस्ती की और निकल पड़ा जो इस गौशाला में एक सप्ताह रुक गया जहाँ से वन विभाग ने इसे टाइगर वाच की टीम की मदद से उसे सुरक्षित जगह पहुँचाया। टाइगर वॉच की टीम इस क्षेत्र में बाघ की मॉनिटरिंग करती थी।
खैर समय के साथ इसके पारिस्थितिक तंत्र में सुधार हुआ और आज यह ३५ से अधिक स्थानिक गिद्धों की प्रजाति के लिए आवास बन चुका है एवं २०० से अधिक विदेशी गिद्ध इस साल दिखाई दिए है। इन गिद्धों का सियारों के साथ आपस में व्यवहार देखने लायक होता है। यह एक तरह का छोटा जोड़बीड़ है जहाँ गौशाला की मृत गायें यहाँ रहने वाले गिद्धों और सियारों के लिए आसान भोजन मिल जाता है।
३ सभी गिद्ध सियारों से मजबूती से टक्कर लेते हैं।
४ शरद ऋतु में सुबह और शाम की धुप इनके लिए अत्यंत आवश्यक हैं। शायद वह अंदरूनी पंखो पर सीधी पड़ती हैं।
५ अक्सर १०-१५ सियारों के समूह में भी अकेला गिद्ध डटा रहता है, और सियार उन्हें अपना शिकार बनाने का प्रयास नहीं करते, परन्तु भोजन के लिए संघर्ष करते अवश्य नजर आते हैं।
वन विभाग चाहे तो इसे गिद्धों के लिए इस स्थान को गिद्धों के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित करवा सकती हैं, जिस से यह संकटग्रस्त समूह को एक और स्थान मिल सके। इसके लिए गौशाला और आस पास के क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली पशु दवाओं पर गहन ध्यान देना होगा लोगों के सहयोग से इस मुहीम को और आगे बढ़ाना होगा।
६ अक्सर खाने की कमी संघर्ष को बढ़ा देती हैं।
७ अत्यंत क्रोधित सियार से भी गिद्ध घबराते नहीं हैं।
आप इस जगह को गौशाला प्रबंधको की सहमति के साथ स्वयं देख सकते हो जो करौली से ३० किलोमीटर दूर धौलपुर मार्ग पर हैं। गौशाला प्रबंधक गिद्धों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं अतः आप उनके द्वारा तय मानको का अवश्य ध्यान रखे।
८ श्री मुन्ना सिंह जी जिन्होंने इस नए आश्रय स्थल को विकसित किया है
गिद्ध और गीदड़
सुनी गायें मरे जहाँ भी सड़े वहां ही,
क्यों न इन्हें खाये भूखे गिद्ध,
क्यों न इन्हें डाले एक जगह जहाँ हो छोटा बाड़ा शहर के किनारे ,
राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।
उनके लिए कहते हैं की
आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II
जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।
यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे। जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा। मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।
वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।
पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।
सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।
कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल, लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।
a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।
छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula), इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।
मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |
नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं। शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी के धोरो पर मिल जाती है।
बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।
इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं। अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।
अगस्त 1986 में एक दिन कमलनाथ पर्वत और फिर जाडापीपला गांव से जंगलों की पैदल यात्रा करता हुआ मैं ढाला गाँव पहुँचा | यहाँ से पानरवा पहुँचने के लिये एक ऊँचा पर्वत चढकर और फिर एक दूसरे पहाड के बीच से एक दर्रे को पार करना पडता है। पानरवा पहुँचने के बाद फुलवारी अभयारण्य के जंगल भी दिखने लग जाते है। ढाला गाँव में एक बुजुर्ग अनुभवी भील को साथ लिया जो पहले पहाड की चोटी तक मुझे रास्ता दिखाने के लिये आगे आया। चढाई कठिन थी लेकिन चढना ही था। पहाड की चोटी पर पहुँचते ही बुजुर्ग ने अपनी उंगली पश्चिम दिशा में करते हुऐ उत्साह से कहा – लो साब ये देखो पाना – पाना में पानरवा !! यानी वह कहना चाह रहा था कि यहाँ से आगे हर पत्ते – पत्ते में पानरवा है। यानी अब आपको रास्ते भर पानरवा का एहसास होता रहेगा। पहाड की चोटी से अभी भी पानरवा कोई 7-8 किमी. दूर था। लेकिन पहाडों पर हरियाली आन्नदित करने वाली थी जो किसी भी दूरी को थकान रहित करने में सक्षम थी। इस नजारे को बाद में मैनें सेकड़ो बार पैदल चल -चल कर देखा है। पानरवा सुंदर गाँव है जिसका जिक्र कर्नल टाॅड ने भी किया है।
गर्मी में जब तनस ( Ougeinia oogeinsis ) वृक्ष सफ़ेद फूलो से लद जाते है तो पहाड़ो के ढाल जगह – जगह ` फुलवारी ` नाम को साकार कर देते है |
प्राचीन काल में पानरवा एक छोटा ठिकाना रहा है जो तत्कालीन मेवाड़ राज्य के दक्षिणी छोर पर गुजरात सीमा पर स्थित भोमट भूखंड है। तत्कालीन काल में मेवाड राज्य के अन्तर्गत होते हुये भी यह ठिकाना सदैव स्वायत्तशासी रहा। इस भूखंड की वैद्यानिक स्थिति भूतकाल में अन्य जागीरों से भिन्न रही। यह क्षेत्र भूतकाल में भौगोलिक रूप से अगम्य रहा जिससे वह स्वतंत्र सा रहा। यहाँ सोलंकी शासकों का राज्य रहा जिनका मेवाड की बजाय गुजरात के जागीरदारों से ज्यादा संबंध रहा। पानरवा ठिकाना पूर्ण दीवानी, फौजदारी, माली एवं पुलिस अधिकारों का प्रयोग करता था। यहाँ के ठिकानेदार सोलंकी राजवंश के हैं जो पहले रावत तथा बाद में राणा की उपाधि धारण करने लगे। वर्ष 1478 ई. में अक्षयराज सोलंकी ने पानरवा पर अधिकार किया। तब से आगामी 470 वर्षों तक यह ठिकाना उनके वंशजों के पास बना रहा। 1948 ई. में राजस्थान राज्य निर्माण के बाद जब जागीरी व्यवस्था समाप्त हुई, तब इस सोलंकी ठिकाने का भी राजस्थान के नये एकीकृत राज्य में विलय हो गया। यहाँ सोलंकियों की अभी तक 22 पीढियाँ रही हैं। वर्तमान में 22 वी पीढी का प्रतिनिधित्व राणा मनोहरसिंह सोलंकी करते हैं।
दुर्लभ पीला पलाश ( Butea monosperma var.lutea ) फुलवारी में कहीं – कहीं विघमान है | लाल फूलों के पलाशों के बीच इस उपप्रजाति का पुष्पन दूर से ही नजर आ जाता है |
पानरवा एवं आस-पास के जंगल देखने लायक हैं। ये जंगल जूडा, ओगणा, कोटडा, अम्बासा, डैया, मामेर आदि जगहों तक फैले हैं जो गुजरात के खेडब्रह्म, आन्तरसुंबा व वणज तक फैले हैं। पानरवा के जंगल जैव विविधता, सघनता एवं सुन्दरता के लिये जाने जाते हैं। अक्टूबर 6, 1983, को पानरवा के जंगलों को फुलवाडी की नाल अभयारण्य नाम से एक अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया। वाकल नदी यहाँ के सघन वनों के बीच से निकल कर गऊपीपला गाँव के पास गुजरात में प्रवेश कर जाती है। एक समय था जब यह पश्चिम प्रवाह वाली नदी वर्ष पर्यन्त बहती रहती थी लेकिन अब यह 8-9 माह ही बह पाती है। भले ही कुछ दिनों इसका बहाव रूकता हो लेकिन इसके पाट में जगह- जगह गहरे पानी के दर्रे सालभर भरे रहते हैं। बीरोठी गाँव के पास वाकल नदी में मानसी नदी भी मिल जाती है। इस संगम से गऊपीपला गाँव तक नदी में 34 पानी के दर्रे हैं जो नदी का प्रवाह रूकने के बाद भी वन्यजीवों को पेयजल उपलब्ध कराते हैं।
गर्मी के प्रारंभ में पतझड़ के बाद जब पर्ण विहीन टहनियों पर सफ़ेद – नीले – ललाई मिश्रण वाले रंगों से रंगे कचनार ( Bauhinia ariegata ) पुष्पन करते है तो घाटियों की फिजा ही बदल जाती है |
फुलवाडी की नाल अभयारण्य दक्षिण अरावली क्षेत्र में विद्यमान है। यह अभयारण्य ’’नालों’’ का अभयारण्य कहलाता है। दो पहाडों के बीच गलीनुमा घाटी स्थानीय भाषा में ’’नाल’’ नाम से जानी जाती है। इस अभयारण्य में फुलवाडी की नाल, गामडी की नाल, खाँचन की नाल, ढेढरी की नाल, गुरादरा की नाल, हुकेरी की नाल, बडली की नाल, केवा की नाल आदि प्रसिद्व नाल हैं। अरावली की नाल, विंद्याचल के खोहों ( Gorges ) की बनावट में अलग होते हैं। विंद्याचल के खोह ’’U’ आकार के खडे तटों वाले होते हैं लेकिन अरावली की नाल कुछ-कुछ ’’V’’ आकार के होते हैं तथा ढालू तट वाले होते हैं।
आदिवासी अपने देवालयों में मनोती पूर्ण होने पर टेराकोटा का बना घोडा अपर्ण करते है आस्था के प्रतिक “ भडेर बावसी” के “ थान “ पर धर्मावाल्म्भियो द्वारा अर्पित घोड़ो का हुजूम |
फुलवारी की नाल एक अद्भुत अभयारण्य है। यह राजस्थान में अरावली का एकमात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ काले धौंक (Anogeisus pendula) का एक भी वृक्ष नहीं है बल्कि काले धौंक का स्थान सफेद धौंक (Anogeissus latifolia) ने ले लिया। राजस्थान के श्रेष्ठतम बाँस वन इस अभयारण्य में विद्यमान हैं। गामडी की नाल जैसे क्षेत्र में बाँस की ऊँचाई 24 फुट से ऊपर चली गई है। याद रहें वन विभाग के मापदण्ड अनुसार राजस्थान में 24 फुट बाँस को प्रथम श्रेणी बाँस माना जाता है। यह अभयारण्य जंगली केलों (Ensete superbum) की भी शरणस्थली है। केलों के झुरमुट रामकुण्डा वन से लेकर जूडा तक पहाडों पर इस कदर फैले है कि एक बार तो पश्चिमघाट के जंगल भी फीके पड जाते हैं। इस क्षेत्र में जंगली केला, जंगली हल्दी, जंगली अदरक (Costus peciosa),भौमिक ऑर्किड व पश्चिमी घाट तथा प्रायःद्विपीय प्रजातियों का बाँस एवं अन्य वनों में बाहुल्य है जिससे इन्हें ’’दक्षिण भारतीय शुष्क पतझडी वन’’ के रूप में जाना गया है।
फुलवारी अभयारण्य में कटावली जेर, अम्बावी, कवेल, महाद, अम्बामा एवं आम्बा (लुहारी गाँव के पास) क्षेत्र में महुआ वृक्ष राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ महुआकुंज बनाते हैं। इन पर वृक्षीय आर्किडों का नजारा देखने लायक होता है। वर्षा में जब आर्किडों में फूल आते हैं तो वह नजारा अविस्मरणीय होता है। शीशम बेल, सफेद फूलों का बाँदा (Dendrophthoe falcata), हिरोई बेल (Porana paniculata), श्योनख, पाडल, काली शीशम, बीजा, सादड, मोजाल, उम्बिया, जंगली मीठा करौंदा, कार्वी, हस्तीकर्ण (लीया मैक्रोफिल्ला), उडनगिलहरी, वृक्षीय मकडियाँ, वृक्षीय चीटियाँ, चैसिंगा, वृक्षीय साँपों की चार प्रजातियाँ, चट्टानों पर लगने वाली मधुमक्खी ’’राॅक बी’’ जैसी जैव विविधता की बहुलता इस अभयारण्य को विशिष्ठ बनाती है। वर्षा के बाद एवं सर्दी के आगमन से पूर्व दो ऋतुओं की संधी पर जब यहाँ हिरोई बेल पुष्पन करती है तो लगता हैं मानों जगह – जगह रूई के छोटे – बडे बादल भूमी पर गिर गये हों। यह वह नजारा है जो इस अभयारण्य के नाम को सार्थक करता हैं। यहाँ दुनियाँ का सबसे छोटा हिरण ’’माउस डियर’’ भी पूर्व में देखा जा चुका है लेकिन अभी उसकी स्थिति के बारे में ज्यादा सूचनायें उपलब्ध नहीं हैं। राजस्थान की फल खाने वाली चमगादड ’बागल’ भी सबसे अधिक इसी अभयारण्य में विद्यमान है। एक समय था जब यहाँ बाघों का बाहुल्य था लेकिन अब वे नहीं रहे।मेवाड के रियासतकालीन शिकारगाहों में जहाँ शिकार होदियों (औदियों) का बाहुल्य है उसके विपरीत यहाँ कोई शिकार औदी नहीं है। यहाँबाघ का शिकार शिकार होदियों की बजाय दूसरी विधियों से किया जाता था। इस अभयारण्य में जुडलीगढ, देवलीगढ एवं भागागढ नामक छोटे- छोटे किले महाराणा प्रताप से संबंधित रहें है जिनमें भागागढ ज्यादा प्रसिद्ध है जो केवल गाँव के पास सघन वन में स्थित है। मुगलकालीन हमलों में महाराणा प्रताप यहाँ के जंगलों में रहे थे। उस समय इन किलों का उपयोग विभिन्न कार्यो में किया गया था। अभयारण्य में ’’बीज फाडिया’’ नामक ’फटा’ हुआ पहाड भी देखने लायक है जहाँ भालूओं व भमर नामक मधुमक्खियों का बडा बसेरा हैं।
खाँचन क्षेत्र में वाकल नदी में लंगोटिया भाटा नामक ’’द्वीपीय चट्टान ( Island Rock ) देखने लायक है। आदिवासियों का कहना है कि यह भगवान हनुमान का ’लंगोट’ है जो लक्ष्मण की मूर्छा के समय संजीवनी बूँटी के पहाड को परीवहन के समय हनुमान जी के तन से खुलकर यहाँ गिर गई था। लोग इस चट्टान के प्रति आपार सम्मान का भाव रखते हैं। परिस्थतिकी पर्यटकों हेतु यह लोकप्रिय सैल्फीपोईन्ट भी है।
पफ – थ्रोटेड बैबलर ( Pellorneum ruficeps ) जैसे अनेक दुर्लभ पक्षी फुलवारी के “ नाल – आवासो” में जब – तब देखने को मिल जाते है |
पानरवा में ब्रिटिशकाल का एक विश्राम गृह भी है जो वर्षा में ठहरने व सामने वाकल की बहती जलराशी को निहारने का अद्भुत मौका देता है। इस विश्राम ग्रह में रूक कर प्रकृति व स्थिानिय संस्कृति को पास से देखा व समझा जा सकता है।
हो सके तो आप वर्षा से सर्दी तक पानरवा अवश्य जाईऐ और वहाँ के ’पाने-पाने’ से जुुडिऐ। वहाँ ’पाने – पाने’ में पानरवा बसता है! हरा- भरा पानरवा!!