मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन  छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।

उनके लिए कहते हैं की

आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II

जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।

यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे।  जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा।  मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।

वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।

पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।

सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट  की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।

कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ  (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल,  लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।

a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।

छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula),  इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।

मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |

नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं।  शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी  के धोरो  पर मिल जाती है।

बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।

इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं।  अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।

पाना – पाना में पानरवा  !! “फुलवारी अभ्यारण की एक रोमांचक यात्रा”

पाना – पाना में पानरवा !! “फुलवारी अभ्यारण की एक रोमांचक यात्रा”

अगस्त 1986 में एक दिन कमलनाथ पर्वत और फिर जाडापीपला गांव से जंगलों की पैदल यात्रा करता हुआ मैं ढाला गाँव पहुँचा | यहाँ से पानरवा पहुँचने के लिये एक ऊँचा पर्वत चढकर और फिर एक दूसरे पहाड के बीच से एक दर्रे को पार करना पडता है। पानरवा पहुँचने के बाद फुलवारी अभयारण्य के जंगल भी दिखने लग जाते है। ढाला गाँव में  एक बुजुर्ग अनुभवी भील को साथ लिया जो पहले पहाड की चोटी  तक मुझे रास्ता दिखाने के लिये आगे आया। चढाई कठिन थी लेकिन चढना ही था। पहाड की चोटी पर पहुँचते ही बुजुर्ग ने अपनी उंगली पश्चिम दिशा में करते हुऐ उत्साह से कहा – लो साब ये देखो पाना – पाना में पानरवा !! यानी वह कहना चाह रहा था कि यहाँ से आगे हर पत्ते – पत्ते में पानरवा है। यानी अब आपको रास्ते भर पानरवा का एहसास होता रहेगा। पहाड की चोटी से अभी भी पानरवा कोई 7-8 किमी. दूर था। लेकिन पहाडों पर हरियाली आन्नदित करने वाली थी जो किसी भी दूरी को  थकान रहित करने में सक्षम थी। इस नजारे को बाद में मैनें सेकड़ो बार पैदल चल -चल कर देखा है। पानरवा सुंदर गाँव है जिसका जिक्र कर्नल टाॅड ने भी किया है।

गर्मी में जब तनस ( Ougeinia oogeinsis ) वृक्ष सफ़ेद फूलो से लद जाते है तो पहाड़ो के ढाल जगह – जगह ` फुलवारी ` नाम को साकार कर देते है |

प्राचीन काल में पानरवा एक छोटा ठिकाना रहा है जो तत्कालीन मेवाड़ राज्य के दक्षिणी छोर पर गुजरात सीमा पर स्थित भोमट भूखंड है। तत्कालीन काल में  मेवाड राज्य के अन्तर्गत होते हुये भी यह ठिकाना सदैव स्वायत्तशासी रहा। इस भूखंड की वैद्यानिक स्थिति भूतकाल में अन्य जागीरों से भिन्न रही। यह क्षेत्र भूतकाल में भौगोलिक रूप से अगम्य रहा जिससे वह स्वतंत्र सा रहा। यहाँ सोलंकी शासकों का राज्य रहा जिनका मेवाड की बजाय गुजरात के जागीरदारों से ज्यादा संबंध रहा। पानरवा ठिकाना पूर्ण दीवानी, फौजदारी, माली एवं पुलिस अधिकारों का प्रयोग करता था। यहाँ के ठिकानेदार सोलंकी राजवंश के हैं जो पहले रावत तथा बाद में राणा की उपाधि धारण करने लगे। वर्ष 1478 ई. में अक्षयराज सोलंकी ने पानरवा पर अधिकार किया। तब से आगामी 470 वर्षों तक यह ठिकाना उनके वंशजों के पास बना रहा। 1948 ई. में राजस्थान राज्य निर्माण के बाद जब जागीरी व्यवस्था समाप्त हुई, तब इस सोलंकी ठिकाने का भी राजस्थान के नये एकीकृत राज्य में विलय हो गया। यहाँ सोलंकियों की अभी तक 22 पीढियाँ रही हैं। वर्तमान में 22 वी पीढी का प्रतिनिधित्व राणा मनोहरसिंह सोलंकी करते हैं।

दुर्लभ पीला पलाश ( Butea monosperma var.lutea ) फुलवारी में कहीं – कहीं विघमान है | लाल फूलों के पलाशों के बीच इस उपप्रजाति का पुष्पन दूर से ही नजर आ जाता है |

पानरवा एवं आस-पास के जंगल देखने लायक हैं। ये जंगल जूडा, ओगणा, कोटडा, अम्बासा, डैया, मामेर आदि जगहों तक फैले हैं जो गुजरात के खेडब्रह्म, आन्तरसुंबा व वणज तक फैले हैं। पानरवा के जंगल जैव विविधता, सघनता एवं सुन्दरता के लिये जाने जाते हैं। अक्टूबर 6, 1983, को पानरवा के जंगलों को फुलवाडी की नाल अभयारण्य नाम से एक अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया। वाकल नदी यहाँ के सघन वनों के बीच से निकल कर गऊपीपला गाँव के पास गुजरात में प्रवेश कर जाती है। एक समय था जब यह पश्चिम प्रवाह वाली नदी वर्ष पर्यन्त बहती रहती थी लेकिन अब यह 8-9 माह ही बह पाती है। भले ही कुछ दिनों इसका बहाव रूकता हो लेकिन इसके पाट में जगह- जगह गहरे पानी के दर्रे सालभर भरे रहते हैं। बीरोठी गाँव के पास वाकल नदी में मानसी नदी भी मिल जाती है। इस संगम से गऊपीपला गाँव तक नदी में 34 पानी के दर्रे हैं जो नदी का प्रवाह रूकने के बाद भी वन्यजीवों को पेयजल उपलब्ध कराते हैं।

गर्मी के प्रारंभ में पतझड़ के बाद जब पर्ण विहीन टहनियों पर सफ़ेद – नीले – ललाई मिश्रण वाले रंगों से रंगे कचनार ( Bauhinia ariegata ) पुष्पन करते है तो घाटियों की फिजा ही बदल जाती है |

फुलवाडी की नाल अभयारण्य दक्षिण अरावली क्षेत्र में विद्यमान है। यह अभयारण्य ’’नालों’’ का अभयारण्य कहलाता है। दो पहाडों के बीच गलीनुमा घाटी स्थानीय भाषा में ’’नाल’’ नाम से जानी जाती है। इस अभयारण्य में फुलवाडी की नाल, गामडी की नाल, खाँचन की नाल, ढेढरी की नाल, गुरादरा की नाल, हुकेरी की नाल, बडली की नाल, केवा की नाल आदि प्रसिद्व नाल हैं। अरावली की नाल,  विंद्याचल के खोहों  ( Gorges ) की बनावट में अलग होते हैं। विंद्याचल के खोह ’’U’ आकार के खडे तटों वाले होते हैं लेकिन अरावली की नाल कुछ-कुछ ’’V’’ आकार के होते हैं तथा ढालू तट वाले होते हैं।

 

आदिवासी अपने देवालयों में मनोती पूर्ण होने पर टेराकोटा का बना घोडा अपर्ण करते है आस्था के प्रतिक “ भडेर बावसी” के “ थान “ पर धर्मावाल्म्भियो द्वारा अर्पित घोड़ो का हुजूम |

फुलवारी की नाल एक अद्भुत अभयारण्य है। यह राजस्थान में अरावली का एकमात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ काले धौंक (Anogeisus pendula) का एक भी वृक्ष नहीं है बल्कि काले धौंक का स्थान सफेद धौंक  (Anogeissus latifolia) ने ले लिया। राजस्थान के श्रेष्ठतम बाँस वन इस अभयारण्य में विद्यमान हैं। गामडी की नाल जैसे क्षेत्र में बाँस की ऊँचाई 24 फुट से ऊपर चली गई है। याद रहें वन विभाग के मापदण्ड अनुसार राजस्थान में 24 फुट बाँस को प्रथम श्रेणी बाँस माना जाता है। यह अभयारण्य जंगली केलों (Ensete superbum) की भी शरणस्थली है। केलों के झुरमुट रामकुण्डा वन से लेकर जूडा तक पहाडों पर इस कदर फैले है कि एक बार तो पश्चिमघाट के जंगल भी फीके पड जाते हैं। इस क्षेत्र में जंगली केला, जंगली हल्दी, जंगली अदरक (Costus peciosa),भौमिक ऑर्किड व पश्चिमी घाट तथा प्रायःद्विपीय प्रजातियों का बाँस एवं अन्य वनों में बाहुल्य है जिससे इन्हें ’’दक्षिण भारतीय शुष्क पतझडी वन’’ के रूप में जाना गया है।

फुलवारी अभयारण्य में कटावली जेर, अम्बावी, कवेल, महाद, अम्बामा एवं आम्बा (लुहारी गाँव के पास) क्षेत्र में महुआ वृक्ष राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ महुआकुंज बनाते हैं। इन पर वृक्षीय आर्किडों का नजारा देखने लायक होता है। वर्षा में जब आर्किडों में फूल आते हैं तो वह नजारा अविस्मरणीय होता है। शीशम बेल, सफेद फूलों  का बाँदा (Dendrophthoe falcata), हिरोई बेल (Porana paniculata), श्योनख, पाडल, काली शीशम, बीजा, सादड, मोजाल, उम्बिया, जंगली मीठा करौंदा, कार्वी, हस्तीकर्ण (लीया मैक्रोफिल्ला), उडनगिलहरी, वृक्षीय मकडियाँ, वृक्षीय चीटियाँ, चैसिंगा, वृक्षीय साँपों की चार प्रजातियाँ, चट्टानों पर लगने वाली मधुमक्खी ’’राॅक बी’’ जैसी जैव विविधता की बहुलता इस अभयारण्य को विशिष्ठ बनाती है। वर्षा के बाद एवं सर्दी के आगमन से पूर्व दो ऋतुओं की संधी पर जब यहाँ हिरोई बेल पुष्पन करती है तो लगता हैं मानों जगह – जगह रूई के छोटे – बडे बादल भूमी पर गिर गये हों। यह वह नजारा है जो इस अभयारण्य के नाम को सार्थक करता हैं। यहाँ दुनियाँ का सबसे छोटा हिरण ’’माउस डियर’’ भी पूर्व में देखा जा चुका है लेकिन अभी उसकी स्थिति के बारे में ज्यादा सूचनायें उपलब्ध नहीं हैं। राजस्थान की फल खाने वाली चमगादड ’बागल’ भी सबसे अधिक इसी अभयारण्य में विद्यमान है। एक समय था जब यहाँ बाघों  का बाहुल्य था लेकिन अब वे नहीं रहे।मेवाड के रियासतकालीन शिकारगाहों में जहाँ शिकार होदियों (औदियों) का बाहुल्य है उसके विपरीत यहाँ कोई शिकार औदी नहीं है। यहाँबाघ का शिकार शिकार होदियों की बजाय दूसरी विधियों से किया जाता था। इस अभयारण्य में जुडलीगढ, देवलीगढ एवं भागागढ नामक छोटे- छोटे किले महाराणा प्रताप से संबंधित रहें है जिनमें भागागढ ज्यादा प्रसिद्ध है जो केवल  गाँव के पास सघन वन में स्थित है। मुगलकालीन हमलों में  महाराणा प्रताप यहाँ के जंगलों में रहे थे। उस समय इन किलों का उपयोग विभिन्न कार्यो में किया गया था। अभयारण्य में ’’बीज फाडिया’’ नामक ’फटा’ हुआ पहाड भी देखने लायक है जहाँ भालूओं व भमर नामक मधुमक्खियों का बडा बसेरा हैं।

खाँचन क्षेत्र में वाकल नदी में लंगोटिया भाटा नामक ’’द्वीपीय चट्टान ( Island Rock ) देखने लायक है। आदिवासियों का कहना है कि यह भगवान हनुमान का ’लंगोट’ है जो लक्ष्मण की मूर्छा के समय संजीवनी बूँटी के पहाड को परीवहन के समय हनुमान जी के तन से खुलकर यहाँ गिर गई था। लोग इस चट्टान के प्रति आपार सम्मान का भाव रखते हैं। परिस्थतिकी पर्यटकों हेतु यह लोकप्रिय सैल्फीपोईन्ट भी है।

पफ – थ्रोटेड बैबलर ( Pellorneum ruficeps ) जैसे अनेक दुर्लभ पक्षी फुलवारी के “ नाल – आवासो” में जब – तब देखने को मिल जाते है |

 

पानरवा में ब्रिटिशकाल का एक विश्राम गृह भी है जो वर्षा में ठहरने व सामने वाकल की बहती जलराशी को निहारने का अद्भुत मौका देता है। इस विश्राम ग्रह में रूक कर प्रकृति व स्थिानिय संस्कृति को पास से देखा व समझा जा सकता है।

हो सके तो आप वर्षा से सर्दी तक पानरवा अवश्य जाईऐ और वहाँ के ’पाने-पाने’ से जुुडिऐ। वहाँ ’पाने – पाने’ में पानरवा बसता है! हरा- भरा पानरवा!!

कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य कितने करोड़ों की सेवाएं देता है ?

कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य कितने करोड़ों की सेवाएं देता है ?

“जंगल असीम प्रेम के स्रोत हैं। यह सभी को सुरक्षा देते हैं ये उस कुल्हाड़ी को भी लकड़ी का हत्था देते है, जो जंगल को काटने के काम आती है। ”  (भगवन बुद्ध)

राजस्थान के करौली जिले की अर्ध-शुष्क विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य” गहरी घाटियों और चट्टानी पठारों का एक शानदार भूभाग है। शुष्क पर्णपाती धोक वन से आच्छादित इन पठारों को स्थानीय भाषा में “डांग” कहा जाता है। यहाँ की गहरी घाटियां जल की अधिक उपलब्धता के कारण मिश्रित पर्णपाती वनस्पति प्रजातियों और विभिन्न जीव-जंतुओं का घर है जो स्थानीय भाषा में “खोह” कहलायी जाती हैं।

परन्तु सालों से चारकोल, चारे, जलाऊ लकड़ी और अन्य कई चीजों के लिए पेड़ों की कटाई के कारण आज अधिकांश जंगल घास के मैदानों और धोक के पेड़ छोटी झाड़ियों में तब्दील हो गए हैं। हालांकि यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व के आधे से अधिक हिस्से को बनाता है, लेकिन रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान की तुलना में यह काफी सूखा, बंजर और मानवीय दबाव वाला क्षेत्र है।

कैलादेवी में रहने वाले परिवार (फोटो: डॉ विशाल रसाल)

कैलादेवी अभयारण्य के अंदर लगभग 66 गाँव स्थित हैं जिनमें लगभग 5000 परिवार (कुल 19,179 लोग) और लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े रहती हैं और वे निरंतर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पूरी तरह से अभयारण्य पर ही निर्भर रहते हैं। हालाँकि अभयारण्य मात्र इन्ही गाँवों की जरूरतों को पूरा नहीं करता बल्कि बारिश के मौसम में यहाँ आसपास के क्षेत्र से लगभग 35,000 से भी अधिक मवेशी चराई के लिए लाये जाते हैं। इसके अलावा 75 से अधिक गांव अभयारण्य के परीक्षेत्र पर स्थित हैं और यहाँ के लोग निरंतर जलाऊ लकड़ी और मवेशियों के लिए चारा लेने के लिए अभयारण्य का उपयोग कर रहे हैं।

इतनी बड़ी मात्रा में मानवीय आवश्यताओं को पूरा करने के बाद भी यह अभयारण्य कई ऐसी सेवाओं का खज़ाना हैं जिसकी हम न तो कल्पना कर सकते हैं और न ही मूल्यांकन। परन्तु एक कोशिश तो की जा सकती है।

इसी क्रम में, हाल ही में रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच और रणथंभौर बाघ संरक्षण प्राधिकरण (Ranthambhore tiger conservation authority) द्वारा “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य द्वारा दी जाने वाली पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन” करने के लिए एक अध्ययन करवाया गया, जिसका कार्य मेरे नितृत्व में किया गया।

यह अध्ययन दस लोगों की टीम (4 शोधकर्ता एवं 6 फील्ड कर्मचारी) द्वारा एक साल तक किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों और जांचों का परिणाम है जो अभयारण्य की विभिन्न सेवाओं पर प्रकाश डालता है।

अध्ययन के लिए आंकड़े संग्रहित करती टीम (फोटो: डॉ विशाल रसाल)

अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि, प्रतिवर्ष कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य 36,730 करोड़ रुपए की सेवाएं देता है। हालांकि शायद ही कोई पर्यटक इस अभयारण्य का दौरा करता है, परन्तु अगर आप यहां पहुंचते हैं तो आपको विश्वास नहीं होगा कि, इस बंजर खाली प्रतीत होने वाले अभयारण्य से हमें इतनी बड़ी कीमत की सेवाएं मिलती हैं।

आखिर क्या होती हैं पारिस्थितिक तंत्र सेवाएं ?

हमारी प्रकृति में वन और अन्य सभी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र अविश्वसनीय रूप से मूल्यवान संसाधनों का खज़ाना हैं। ये शुद्ध पानी और हवा का श्रोत होने के साथ-साथ लकड़ी, चारा, दवा आदि के रूप में लाखों लोगों को आजीविका भी प्रदान करते हैं। यदि सरल भाषा में कहा जाए तो ये सभी पारिस्थितिक तंत्र कुदरत के खज़ाने हैं, जिसे हम “प्राकृतिक पूंजी (Natural capital)” कहते हैं और हम जो लाभ प्राप्त करते हैं, उन्हें पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ (Ecosystem Services) कहते हैं।

पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है:

1 उत्पाद सेवाएँ (Provisioning services) : इन सेवाओं में सीधे उपयोग किए जाने वाले उत्पाद शामिल हैं जैसे भोजन, लकड़ी, चारा, दवाइयां आदि।

2 विनियमित सेवाएँ (Regulating Services) : इस श्रेणी में ऐसी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन को नियंत्रित करती हैं जैसे वनों द्वारा हवा की शुद्धता बनाए रखना, कार्बन स्ववियोजन (Carbon sequestration), नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation), जल चक्र, जल शुद्धिकरण और मिट्टी के कटाव को रोकना आदि।

3 सहायक सेवाएँ (Supporting services) : वन पारिस्थितिक तंत्र के समुचित कार्यों को सही से चलाने के लिए सहायक सेवाएं आवश्यक होती हैं। ये ऐसा कोई उत्पाद प्रदान नहीं करती हैं जो सीधे मनुष्यों को लाभ देते हैं परन्तु पारिस्थितिक तंत्र के अन्य महत्व पहलु जैसे जीन पूल एवं जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये इतनी महत्वपूर्ण हैं कि, सभी पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में, अकेले सहायक सेवाओं का योगदान लगभग 50% है।

4 सांस्कृतिक सेवाएँ (Cultural services) : इन सेवाओं में वनों से प्राप्त गैर-भौतिक लाभ शामिल हैं जैसे, मनोरंजन, सौंदर्य, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक लाभ आदि। यह मुख्यरूप से पर्यटन ही है जिसमें, अधिकांश प्राकृतिक क्षेत्रों जैसे कि, वन, पहाड़, गुफाएं, सांस्कृतिक और कलात्मक उद्देश्यों के लिए एक स्थान के रूप में उपयोग किए जाते हैं।

प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और उनकी बहुमूल्य सेवाओं की कीमत का अनुमान लगाना निश्चित ही एक कठिन कार्य है।

पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का इतिहास एवं विषय उत्पत्ति :

1970 के दशक तक शोधकर्ताओं को एक ऐसी विधि की आवश्यकता महसूस होने लगी जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के लाभों का मूल्यांकन किया जा सके और वनों को काटने के बजाय उनके संरक्षण के लिए ठोस सबूत सामने रखे। इसी आवश्यकता ने, पारिस्थितिक तंत्र की भूमिका को दर्ज करने के उद्देश्य से ‘पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं’ के विचार को जन्म दिया।

हम सभी ने बचपन में कहानी सुनी है जिसमें, एक लालची आदमी सोने सारे अंडे एक साथ पाने के लालच में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार डालता है। इसी प्रकार हम मनुष्य भी छोटे फायदों के लिए प्राकृतिक वनों का दोहन कर रहे हैं।

ऐसे में हमें पारिस्थितिक तंत्र सेवा और उनके महत्त्व के दृष्टिकोण का उपयोग करके लोगों को जंगल या किसी अन्य पारिस्थितिक तंत्र के ‘वास्तविक मूल्य’ को समझा सकते हैं।

अब हम सबसे दिलचस्प भाग पर आते हैं। हम पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को मूल्य कैसे प्रदान करते हैं?

कुछ पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में कई मापने योग्य वस्तुएं शामिल हैं, जैसे जंगली फल, चारा, लकड़ी, प्राकृतिक फाइबर, दवाएं। तो हम उन सेवाओं का एक मूल्य लगा सकते हैं। फिर कुछ सेवाएं ऐसी हैं जैसे स्वच्छ पानी, ऑक्सीजन और परागण जिनका मूल्य लगा पाना कठिन है। इसलिए यहां हम उनके मूल्य का आकलन करने के लिए अप्रत्यक्ष तरीकों का उपयोग करते हैं। जैसे कि, वन द्वारा मिलने वाले मिलने वाले जल की कीमत का आकलन करने के लिए कैलादेवी वन और गैर वन क्षेत्र से जल गुणवत्ता की जांच की गई। जांच में पाया गया कि, वनों से निकलने वाला पानी गैर वन क्षेत्रों की तुलना में बेहतर और शुद्ध था। फिर कुछ ज्ञात सूत्रों का उपयोग करके हमने कैलादेवी अभयारण्य से निकलने वाले पानी की मात्रा की गणना की और नगरपालिका जल विभाग की दरों के अनुसार हमने इस शुद्ध जल सेवा के लिए एक मूल्य ज्ञात किया।

जल गुणवत्ता की जांचने के लिए पानी के सैंपल लेते हुए टीम के सदस्य (फोटो: डॉ विशाल रसाल)

फिर कई ऐसी सेवाएँ भी हैं जिनकी कीमत का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। जैसे कुड़का खोह से सूर्यास्त का मनमोहक दृश्य, खोह के प्राचीन जल में तैरने का आनंद। ये अनुभव वाकई अनमोल हैं। कैलादेवी में लगभग तीन हजार साल पुराने रॉक पेंटिंग हैं। अब बताइये हम इन अमूल्य सांस्कृतिक विरासत पर मूल्य टैग कैसे लगा सकते हैं?

ऐसी सेवाओं का मूल्यांकन करने के लिए हमने “मूल्य+” दृष्टिकोण का प्रयोग किया। यहां ‘+’ अतिरिक्त मूल्यों को दर्शाता है जो रुपए के संदर्भ में अमूल्य हैं। इस अध्ययन में ऐसी सभी अमूल्य पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को सूचीबद्ध किया और उनके लिए कोई मूल्य टैग नहीं लगाया गया।

हम 21 विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का आकलन निम्नानुसार करते हैं

इस विषय को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें ये समझना होगा कि, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को व्यापक रूप से प्रवाह लाभ (Flow benefits) और भंडार लाभ (stock benefits) के रूप में बांटा जाता है। प्रवाह लाभ वे होते हैं जिनका मनुष्यों द्वारा नियमित रूप से शोषण किया जाता है जैसे मछली पकड़ना, चराई और ईंधन की लकड़ी आदि। भंडार लाभ वे लाभ हैं जो एक पारिस्थितिक तंत्र में मौजूद तो होते हैं लेकिन विभिन्न कारणों से उपयोग नहीं किए जाते हैं जैसे कैलादेवी में मौजूद लकड़ी के भंडार का बाजार मूल्य तो बहुत है लेकिन भविष्य में इसका दोहन नहीं किया जा सकता है। सरल भाषा में समझे तो “भंडार लाभ” बैंक में जमा हमारी पूंजी की तरह है और “प्रवाह लाभ” प्रति वर्ष मिलने वाला ब्याज

गहरी घाटियों को स्थानीय भाषा में खोह कहते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

अध्ययन में सभी प्रवाह लाभों का कुल 84.41 अरब रुपए प्रति वर्ष मूल्यांकन किया गया है; जिसमें सबसे अधिक मूल्य जीन पूल का 6124.01 मिलियन रुपए प्रति वर्ष पाया गया। इसके बाद भूजल सेवा (823 मिलियन/वर्ष), अपशिष्ट निपटारा (484.43 मिलियन/वर्ष), चारा (415 मिलियन/वर्ष), आवास सेवा (157.44 मिलियन/वर्ष), परागण (121.10 मिलियन/वर्ष), कार्बन स्ववियोजन (86.943 मिलियन/वर्ष), मिट्टी के पोषक तत्व (85.92 मिलियन/वर्ष), जलाऊ लकड़ी (38.08 मिलियन/वर्ष) रही। इसके अलावा अन्य सेवाएं जैसे मिट्टी कटाव का बचाव, संग्रहित जल, मछली, जैविक नियंत्रण, वायु शुद्धिकरण और धार्मिक पर्यटन आदि मिलकर कुल 105.42 मिलियन रुपए प्रति वर्ष रही।

वहीँ दूसरी ओर भंडार लाभों को कुल 36.6 अरब रुपए प्रति वर्ष देखा गया जिसमें मुख्यरूप से कार्बन और लड़की भडार को पाया गया जिनका मूल्य क्रमशः 2.570 और 34.1 मिलियन रुपए प्रति वर्ष था।

और इस प्रकार कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य कुल 36.6 अरब रुपए की पूंजी है जिसपर हमें हर वर्ष 84.41 अरब रुपए का सेवाओं के रूप में ब्याज प्राप्त होता है।

इस अध्ययन में संसाधन उपयोग की स्थिरता और निरंतरता को भी समझा गया और पाया कि, कैलादेवी अभयारण्य में कई पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का अत्यधिक दोहन किया गया है और वे सेवाएं आज गंभीर खतरे में हैं। जिसका सबसे मुख्य कारण है ईंधन की लकड़ी के लिए वन का कटाव और भारी मात्रा में चराई।

अध्ययन में बाघों को एक सुरक्षित क्षेत्र प्रदान करने, अन्य वन्यजीवों के संरक्षण और मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम करने के लिए पर्यटन जैसी कुछ सेवाओं को बढ़ाने के संभावित लाभों की पहचान की है। तथा बाघ पर्यटन को बढ़ावा देकर करौली जिले में स्थानीय लोगों के लिए अतिरिक्त रोजगार और राजस्व उत्पन्न करने की अपार संभावनाएं हैं।

वर्ष ऋतू में कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मानव समाज कई तरह से प्रकृति द्वारा लाभान्वित और उस पर निर्भर है। पहले समय में वनों को अपार संसाधनों का भण्डार माना जाता था और आर्थिक लाभ के लिए उनका दोहन भी किया जाता था। जैसे उदाहरण के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा को लकड़ी, मसाले, दवाइयाँ और सबसे महत्वपूर्ण हाथियों जैसी वस्तुओं के लिए जंगलों की रक्षा करने के लिए कहा था!

अधिकांश वन वस्तुओं और सेवाओं की पुनःपूर्ति की भी एक सीमित क्षमता होती है। जैसे, यदि एक लकड़हारा लकड़ी के लिए बहुत सारे पेड़ काटता है, तो जंगल में कोई पेड़ नहीं बचेगा। संक्षेप में कहें तो, कोई जंगल नहीं बचेगा। और पेड़ों के साथ-साथ अन्य संबंधित सेवाएं जैसे मिट्टी और जल संरक्षण भी खत्म हो जायेगी। ऐसे में वह लकड़हारा कई लोगों के नुकसान के लिए जिम्मेदार है जो जंगल पर निर्भर हैं जैसे कि, किसान खेती में पानी की आपूर्ति के लिए जंगल पर निर्भर हैं, आदिवासी समुदाय शहद, दवा और अन्य उत्पादों के लिए जंगल पर निर्भर हैं। अंततः लकड़हारे का लालच जंगल को नष्ट करके उसकी नौकरी भी खा जायेगा। यदि बड़े पैमाने पर देखें तो सरकारें भी लालची लकड़हारे के रूप में कार्य कर रही हैं और अल्पकालिक छोटे आर्थिक फायदों जैसे बांध, खदान आदि के लिए जंगलों का व्यापार कर रही हैं।

अभयारण्य में भारतीय भेड़ियों की एक अच्छी आबादी पायी जाती है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसीलिए हमें सभी प्राकृतिक संसाधनों का ध्यानपूर्वक उपयोग करना चाइये ताकि प्ररिस्थितक तंत्र की पूंजी समाप्त न हो।

हमें यकीन है कि, इस आलेख और अध्ययन ने आर्थिक दृष्टि से कैलादेवी वन के संरक्षण के पक्ष में एक ठोस सबूत प्रस्तुत किए है। हालांकि, यह पारिस्थितिक तंत्र द्वारा दिए जाने वाले बहुत सारे लाभों में से केवल कुछ लाभों का ही मूल्यांकन है, परन्तु प्रकृति की सभी सेवाओं का मूल्य लगा पाना असंभव है।

इसी के साथ मैं इस आलेख को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के एक सुविचार के साथ समाप्त करता हूं !

“A nation that destroys its soils destroys itself. Forests are the lungs of our land, purifying the air and giving fresh strength to our people.”
राजस्थान के संरक्षित क्षेत्र

राजस्थान के संरक्षित क्षेत्र

मनुष्यों द्वारा मुख्यतः खेती और वनों के लिए भूमि उपयोग से भूमि का परिदृश्य बदल रहा है। आज, समस्त भूमि का एक तिहाई हिस्सा अपना मूल स्वरूप या तो खो चुका है या खोना जारी है, जिसके परिणामस्वरूप जैव विविधता को नुकसान पहुंचा है और कार्बन भंडारण जैसी आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को भी क्षति पहुंची है।

संरक्षित क्षेत्र इस समस्या का एक समाधान हो सकते हैं। यदि प्रभावी ढंग से प्रबंधित और निष्पक्ष रूप से शासित किया जाए, तो ऐसे क्षेत्र प्रकृति और सांस्कृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकते हैं, स्थायी आजीविका प्रदान कर सकते हैं और इस प्रकार सतत विकास का समर्थन कर सकते हैं।

संरक्षित क्षेत्र एक स्पष्ट रूप से परिभाषित भौगोलिक स्थान है, जिसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ प्रकृति के संरक्षण हेतु कानूनी या अन्य प्रभावी माध्यमों से प्रबंधित किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में मानव दखल कम से कम एवं प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सीमित या नियंत्रित होता है।

संरक्षित क्षेत्रों की व्यापक रूप से स्वीकृत परिभाषा इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के वर्गीकरण दिशानिर्देशों में प्रदान की गई है। जिसके अनुसार “संरक्षित क्षेत्र कानूनी या अन्य प्रभावी साधनों के माध्यम से मान्यता प्राप्त एक स्पष्ट रूप से परिभाषित भौगोलिक स्थान होता है जो प्रकृति के दीर्घकालिक संरक्षण के साथ पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने के लिए समर्पित और प्रबंधित है”

सुरक्षा के अलग-अलग स्तर, देश के कानूनों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नियमों के आधार पर संरक्षित क्षेत्र कई प्रकार के होते हैं।

भारत के संरक्षित क्षेत्रों में वन्यजीव अभयारण्य, राष्ट्रीय उपवन, कंजर्वेशन / कम्यूनिटी रिजर्व और टाइगर रिजर्व शामिल हैं। आरक्षित वन इसमें शामिल नहीं हैं।

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 2 (24A) में संरक्षित क्षेत्रों (PA) को परिभाषित किया गया है। धारा के अनुसार “संरक्षित क्षेत्र” का अर्थ है राष्ट्रीय उपवन, अभयारण्य, संरक्षण / सामुदायिक अभयारण्य। इन्हें “संरक्षित क्षेत्र” नामक अध्याय IV के तहत अधिसूचित किया गया है।

टाइगर रिजर्व को “राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण” (NTCA) नामक अध्याय IV B के तहत अधिसूचित किया गया है।

राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के क्षेत्रों को शामिल करके टाइगर रिज़र्व का गठन किया जाता है। यह धारा 38 V (4) (i) द्वारा अनिवार्य है। चूंकि, टाइगर रिजर्व के सभी अधिसूचित कोर या क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट या तो अभयारण्य हैं या बाघों की आबादी वाले राष्ट्रीय उपवन हैं इसलिए इन्हें भी PA माना जाता है। यहाँ आपको बात दें कि धारा 38 V (4) (ii) के अनुसार टाइगर रिजर्व में अधिसूचित बफ़र या परिधीय क्षेत्रों को संरक्षण की कमतर आवश्यकता होती है इसलिए इन्हें PA कि श्रेणी से बाहर रखा गया है। इनमें पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) भी शामिल हैं जो PA को घेरते हैं।

राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों को दर्शाता मानचित्र (सौ. प्रवीण )

वन्यजीव अभयारण्य

राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर किसी आरक्षित वन में शामिल किसी क्षेत्र से अलग किसी क्षेत्र या राज्यक्षेत्रीय जल खंड को अभयारण्य घोषित कर सकती है यदि वह समझती है कि ऐसा क्षेत्र वन्य जीव या उसके पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन या विकास के प्रयोजन के लिए पर्याप्त रूप से पारिस्थितिक, प्राणी-जात, वनस्पति-जात, भू-आकृति विज्ञान-जात, प्रकृति या प्राणी विज्ञान-जात महत्तव का है।  अधिसूचना में यथासंभव निकटतम रूप से ऐसे क्षेत्र की स्थिति और सीमाएँ निर्धारित की जाएंगी।

फुलवारी की नाल अभयारण्य में मौजूद बरगद के जंगल (फ़ोटो: प्रवीण)

राष्ट्रीय उपवन

जब कभी राज्य सरकार को यह प्रतीत होता है कि कोई क्षेत्र जो किसी अभयारण्य के भीतर हो या नहीं, अपने पारिस्थितिक, प्राणी-जात, वनस्पति-जात, भू-आकृति विज्ञान जात या प्राणी विज्ञान-जात महत्तव के कारण उसमें वन्य जीवों के और उसके पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन या विकास के प्रयोजन के लिए राष्ट्रीय उपवन के रूप में गठित किया जाना आवश्यक है, तो वह अधिसूचना द्वारा ऐसे क्षेत्र को राष्ट्रीय उपवन के रूप में गठित कर सकती है। राष्ट्रीय उपवन के अंदर किसी भी मानवीय गतिविधि की अनुमति नहीं होती सिवाय राज्य के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक द्वारा अध्याय 4 में दी गई शर्तों के तहत स्वीकृत गतिविधियों के।

आमतौर पर लोग यहाँ तक की वन विभाग भी राष्ट्रीय उपवन को राष्ट्रीय उद्यान कहकर संबोधित करते हैं, परंतु वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के अनुसार इस वर्ग के क्षेत्रों को राष्ट्रीय उपवन कहना उचित होगा। 

कंजर्वेशन / कम्यूनिटी रिजर्व

संरक्षित क्षेत्रों को चिह्नित करने वाले शब्द हैं जो आम तौर पर स्थापित राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों और आरक्षित और संरक्षित जंगलों के बीच बफर जोन के रूप में कार्य करते हैं। ऐसे क्षेत्र यदि निर्जन और पूरी तरह से भारत सरकार के स्वामित्व में हों, लेकिन समुदायों और सामुदायिक क्षेत्रों द्वारा निर्वाह के लिए उपयोग किये जाते हों या भूमि के छोटे हिस्से का निजी स्वामित्व होने कि स्थिति में संरक्षण क्षेत्रों के रूप में नामित किया जा सकता है।

संरक्षित क्षेत्रों में इन श्रेणियों  को पहली बार 2002 के वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम में पेश किया गया था। भूमि के निजी स्वामित्व और भूमि उपयोग के कारण मौजूदा या प्रस्तावित संरक्षित क्षेत्रों में कम सुरक्षा के कारण इन श्रेणियों को जोड़ा गया था।

जोड़ बीड गधवाला कंजर्वेशन रिजर्व, बीकानेर (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

राजस्थान में संरक्षित क्षेत्रों कि स्थिति:

राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों के बारे में यहाँ के लोगों को कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मालूम पड़ती। अक्सर यहाँ लोगों द्वारा अलग-अलग जानकारियाँ उपलब्ध कराई जाती है। यहाँ तक कि भिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा भी अलग – अलग जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। WII-ENVIS के वेब पोर्टल के अनुसार राजस्थान में 4 राष्ट्रीय उपवन और 25 वन्यजीव अभयारण्य हैं। राजस्थान सरकार के एनवायरनमेंट पोर्टल के अनुसार यहाँ 3 राष्ट्रीय उपवन और 26 अभयारण्य हैं।

वन विभाग की वेबसाईट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार राजस्थान में तीन राष्ट्रीय उपवन, 26 वन्यजीव अभयारण्य, 21 कंजर्वेशन रिजर्व, और 4 टाइगर रिजर्व हैं। यहाँ अभी तक एक भी कम्यूनिटी रिजर्व घोषित नहीं किया गया है, लेकिन इस संबंध में सरकार के प्रयास जारी हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि डेसर्ट नैशनल पार्क और सरिस्का नैशनल पार्क को राजस्थान सरकार कि अधिसूचना के अनुसार राष्ट्रीय उपवन घोषित किया गया है लेकिन वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अधिसूचना के अनुसार ये अभयारण्य ही हैं जिनके नाम में नैशनल पार्क शब्द जोड़ा गया है, और राजस्थान में सिर्फ राष्ट्रीय उपवन ही हैं।

क्रम. सं. संरक्षित क्षेत्र संख्या क्षेत्रफल (वर्ग किमी) कवरेज % (राज्य में)
1 राष्ट्रीय उपवन 3 510.31 0.15
2 वन्यजीव अभयारण्य 26 9015.78 2.63
3 कंजर्वेशन रिजर्व 21 1155.97 0.38
4 टाइगर रिजर्व 4 4886.54 1.42
योग 54 15568.6* 4.58

* योग, संरक्षित क्षेत्रों के एरिया के ओवरलैप को छोड़कर

भैंसरोडगढ़ अभयारण्य का एक दृश्य (फोटो: प्रवीण)

राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों की सूची (जुलाई, 2023)  
क्रमांक संरक्षित क्षेत्र का नाम ज़िला क्षेत्रफल

(वर्ग किमी)

अधिसूचना एवं दिनांक
A टाइगर रिजर्व      
1 रणथम्भौर टाइगर रिजर्व सवाई माधोपुर, करौली, बूंदी, टोंक 1411.32 F3(34)FOREST/2007 dated 28.12.2007 (CTH Notification) and F3(34)FOREST/2007 dated 06.07.2012 (Buffer Notification)
2 सरिस्का टाइगर रिजर्व अलवर, जयपुर 1213.34 F3(34)FOREST/2007 dated 28.12.2007 (CTH Notification) and F3(34)FOREST/2007 dated 06.07.2012 (Buffer Notification)
3 मुकुंदरा हिल्स टाइगर रिजर्व कोटा, बूंदी, झालावाड़, चित्तौड़गढ़ 759.99 F3(8)FOREST/2012 dated 09.04.2013 (CTH Notification) and F3(8)FOREST/2012 dated 09.04.2013 (Buffer Notification)
4 रामगढ़ विषधारी टाइगर रिजर्व कोटा, बूंदी 1501.89 F3(12)FOREST/2019 Dated 30.05.2022
टाइगर रिजर्व का कुल क्षेत्रफल   4886.54  
B राष्ट्रीय उद्यान      
1 रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान सवाई माधोपुर 282.03 F11(26)Raj-8/88/Dated 01.11.1980
2 केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान भरतपुर 28.73 F3(5)(9)/8/72/Dated 27.08.1981
3 मुकुंदरा हिल्स राष्ट्रीय उद्यान कोटा, चित्तौड़गढ़ 199.55 F11(56)Van/2011/Part Dated 09.01.2012
राष्ट्रीय उद्यान का कुल क्षेत्रफल   510.31  
C वन्यजीव अभयारण्य      
1 सरिस्का अभयारण्य अलवर 491.99 F39(2)Forest/55/Dated 01.11.1955
2 दर्रा अभयारण्य कोटा, झालावाड़ 227.64 F39(2)Forest/55/ Dated 01.11.1955
Overlap with Mukundara Hills National Park.
Area based on MHTR notifications
3 वन विहार अभयारण्य धौलपुर 25.6 F39(2)Forest/55/Dated 01.11.1955
4 जयसमंद अभयारण्य उदयपुर 52.34 F39(2)Forest/55/ Dated 01.11.1955
5 माउंट आबू अभयारण्य सिरोही 326.1 P.11(40)Van/97/ Dated 15.04.2008
6 कुंभलगढ़ अभयारण्य राजसमंद, उदयपुर, पाली 610.528 F10(26)Revenue/A/71/ Dated 13.07.1971
7 ताल छाप्पर अभयारण्य चूरू 7.19 F379/Revenue/8/59/ Dated 04.10.1962
8 सीतामाता अभयारण्य उदयपुर, चित्तौड़गढ़ 422.94 F11(9)Revenue/8/78/ Dated 02.01.1979
9 राष्ट्रीय घड़ियाल अभयारण्य कोटा, बूंदी, सवाई माधोपुर, करोली, धौलपुर 564.03 F11(39)Revenue/8/78/ Dated 07.12.1979
Overlap with Mukundara Hills National Park
Area as per DGPS survey
10 नाहरगढ़ अभयारण्य जयपुर 52.4 F11(39)Revenue/8/80 Dated 22.09.1980
11 जमवा रामगढ़ अभयारण्य जयपुर 300 F11(12)Revenue/8/80/ Dated 31.05.1982
12 जवाहर सागर अभयारण्य कोटा, बूंदी, चित्तौड़गढ़ 194.59951 F11(5)13/Revenue/8/73/ Dated 09.10.1975 Overlap with Mukundara Hills National Park
Area based on MHTR notifications
13 डेसर्ट नैशनल पार्क अभयारण्य जैसलमेर, बाड़मेर 3162 F3(1)73/Revenue/8/79/ Dated 04.08.1980
14 रामगढ़ विषधारी अभयारण्य बूंदी 303.05 F11(1)/Revenue/8/79/ Dated 20.05.1982
After de-notification
15 भेन्सरोडगढ़ अभयारण्य चित्तौड़गढ़ 201.4 F11(44)/Revenue/8/81/ Dated 05.02.1983
16 केलादेवी अभयारण्य करोली, सवाई माधोपुर 676.82 F11(28)/Revenue/8/83/ Dated 19.07.1983
17 शेरगढ़ अभयारण्य बारां 81.67 F11(35)/Revenue/8/83/ Dated 30.07.1983
18 टॉडगढ़ रावली अभयारण्य राजसमंद, अजमेर, पाली 495.27 F11(56)/Revenue/8/82/ Dated 28.09.1983
19 फुलवारी की नाल अभयारण्य उदयपुर 511.41 F11(1)/Revenue/8/83/ Dated 06.10.1983
20 सवाई माधोपुर अभयारण्य सवाई माधोपुर 131.3 F/39/(2)For/55 dated 07.11.1955
Overlap with Ranthambhore National Park
21 सवाईमान सिंह अभयारण्य सवाई माधोपुर 113.07 F11(28)/Revenue/8/84/ Dated 30.11.1984
22 बाँध बरेठा अभयारण्य भरतपुर 199.24 F11(1)/Enviorment/ Dated 07.10.1985
23 सज्जनगढ़ अभयारण्य उदयपुर 5.19 F11(64)/Revenue/8/86/ Dated 17.02.1987
24 बस्सी अभयारण्य चित्तौड़गढ़ 138.69 F11(41)/Revenue/8/86/ Dated 29.08.1988
25 रामसागर अभयारण्य धौलपुर 34.4 F39(2)FOR/55/ Dated 07.11.1955
26 केसरबाग अभयारण्य धौलपुर 14.76 F39(26)FOR/55/ Dated 07.11.1955
कुल अभयारण्य क्षेत्र   9015.78  
D संरक्षण रिजर्व      
1 बीसलपुर संरक्षण रिजर्व टोंक 48.31 P.3(19)Van/2006/ Dated 13.10.2008
2 जोडबीड गढ़वाला बीकानेर संरक्षण रिजर्व बीकानेर 56.4662 P.3(22)Van/2008/ Dated 25.11.2008
3 सुंधामाता संरक्षण रिजर्व जालोर, सिरोही 117.4892 P.3(22)Van/2008/ Dated 25.11.2008
4 गुढ़ा विश्नोईयन संरक्षण रिजर्व जोधपुर 2.3187 P.3(2)Van/2011/ Dated 15.12.2011
5 शाकंभरी संरक्षण रिजर्व सीकर, जुंझुनू 131 P.3(16)Van/2009/ Dated 09.02.2012
6 गोगेलाव संरक्षण रिजर्व नागौर 3.58 P.3(17)Van/2011/ Dated 09.03.2012
7 बीड झुंजुनू संरक्षण रिजर्व जुंझुनू 10.4748 P.3(47)Van/2008/ Dated 09.03.2012
8 रोटू संरक्षण रिजर्व नागौर 0.7286 P.3(8)Van/2011/ Dated 29.05.2012
9 उम्मेदगंज पक्ष विहार संरक्षण रिजर्व कोटा 2.7247 F3(1) FOREST/ 2012 dated 5.11.2012
10 जवाईबंध तेंदुआ संरक्षण रिजर्व पाली 19.79 F3(1) FOREST/ 2012 dated 27.02.2013
11 बंसियाल खेतड़ी संरक्षण रिजर्व जुंझुनू 70.1834 F3(13) FOREST/ 2016 dated 01.03.2017
12 बंसियाल – खेतड़ी बागोर संरक्षण रिजर्व जुंझुनू 39.66 F3(13) FOREST/ 2016 dated 10.04.2018
13 जवाई बांध तेंदुआ संरक्षण रिजर्व-2 पाली 61.98 F3(4) FOREST/ 2012 PT dated 15.06.2018
14 मनसा माता संरक्षण रिजर्व झुंझुनू 102.31 F3(9) FOREST/ 2013 Jaipur dated 18.11.2019
15 रंखार संरक्षण रिजर्व जालोर 72.88 PFN3(3)Forest/2022/Dated 23.05.2022
16 शाहबाद संरक्षण रिजर्व बारा 189.39 PFN 4(12) Forest /2017 Date  24.01.2022
17 शाहबाद तलाहती संरक्षण रिजर्व बारा 178.84 F4(12)FOREST/2017 Dated 01.09.2022
18 बीड घास फुलियाखुर्द संरक्षण रिजर्व भीलवाड़ा 0.8579 F4(3)FOREST/2022 Dated 27.09.2022
19 बाघदरा मगरमच्छ संरक्षण रिजर्व उदयपुर 3.6871 P.3(22)Van/2022
20 वाडाखेड़ा संरक्षण रिजर्व सिरोही 43.31 P.3(20)Van/2022 Dated 27.12.2022
21 झालाना–अमागढ़ संरक्षण रिजर्व जयपुर 35.07169 F3(23)FOREST/2022 Dated 27.02.2023
कुल संरक्षण आरक्षित क्षेत्र   1155.97  
E प्रक्रियाधीन      
1 सरिस्का (A) अभयारण्य अलवर 3.01 P1(24)Van/08/Dated 20.06.2012
2 डेजर्ट नेशनल पार्क जैसलमेर, बाड़मेर 3162
3 सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान अलवर
4 कुंभलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान राजसमंद
5 बाँध बरेठा अभयारण्य (विस्तार) भरतपुर

Source: Wildlife (Planning) Wing, Department of Forests and Wildlife, Government of Rajasthan.

Cover Photo: Dr. Dharmendra Khandal

Original article updated on July 12, 2023

कैलादेवी अभ्यारण्य बाघों के लिए संभावनाओं की भूमि

कैलादेवी अभ्यारण्य बाघों के लिए संभावनाओं की भूमि

कैलादेवी अभ्यारण्य वर्षों से विश्व प्रसिद्ध रणथम्भोर टाइगर रिज़र्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है परन्तु सभी ने संरक्षण की दृष्टि से इसे नजरअंदाज किया है, इसी कारण हाल तक यह किसी बाघ का स्थायी हैबिटैट नहीं बन पाया था। मानवीय गतिविधियों के दबाव और कुप्रबंधन से यह भू भाग बाघ विहीन ही रहा है। यहाँ एक ज़माने पहले अच्छी संख्या में बाघ हुआ करते थे। यद्दपि यह अभ्यारण्य आज भी भारतीय भेड़ियों (Indian Gray Wolf) के लिए एक उत्तम पर्यावास है, परन्तु इन्हें बाघ के बराबर हम दर्जा ही नहीं देते, हालाँकि इनकी स्थिति बाघों से भी बदतर है। परन्तु यह एक अलग बहस का मुद्दा है। कालांतर में कभी कभार घूमते फिरते नर बाघ, इस क्षेत्र में कुछ समय के लिए आते जाते रहे है, लेकिन मादा बाघ आते भी कम हैं और वह यहाँ लम्बे समय तक रुककर, इसे अपना आशियाना बना के अपना परिवार भी बसा लेते हैं। यह इस सवेदनशील प्राणी के लिए और भी दुस्कर कार्य है।

बाघ जहाँ मानवीय दबाव से नहीं पनप रहे वहीँ मानव इसलिए दुखी है, क्योंकि इस स्थान में संरक्षण के अत्यंत कड़े कानून लागु है। जिस प्रकार बाघ तनाव में है, उसी प्रकार यहाँ कमोबेश इंसान भी कम मुश्किल में नहीं है, इस दुविधा को कैलादेवी के एक गांव सांकड़ा में आठ गुर्जर भाइयों की जिंदगी में झाँकने से समझा जा सकता हैं, इन आठों में से मात्र एक ही भाई – बद्री गुर्जर की शादी हो पायी है, एवं बद्री के भी आठ लड़के हुए, उनमें से भी मात्र एक बेटे – जगदीश गुर्जर ही की शादी हो पायी है। यानि कुल सोलह व्यक्तियों में से मात्र दो लोगों की ही शादी हो पायी है। इस तरह के मसले कैलादेवी के सभी गाँवो में एक सामान्य बात है, इस क्षेत्र में लड़को की शादियां अत्यंत ही मुश्किल काम है, क्योंकि कैलादेवी के वन प्रबंधन से पैदा हुए माहौल में, यह इलाका अभावग्रस्त और कष्टप्रद होता जा रहा है, जहाँ लोग अपनी लड़कियों की अभ्यारण्य के गाँवो में शादियां ही नहीं कराते है। वहीँ दूसरी तरफ लोगों के संसाधनों के बेतरतीब दोहन के कारण बाघ भी भारी दबाव में है।
निष्कर्ष यह है की यहाँ न तो नर बाघों को आसानी से बाघिनों का साथ मिलता है, न ही लड़कों को आसानी से शादी के लिए लड़कियां मिलती हैं।

सांकड़ा गांव के बद्री के छः कंवारे भाई (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

परन्तु पांच वर्षों से यहाँ एक शुरुआत हुई है, जब कुछ बाघों ने इस कठिन अभ्यारण्य को अपनाया एवं कुछ प्रतिबद्ध लोगों ने उनकी मुश्किलों को आसान किया। इन लोगों में कुछ नए ज़माने के वन अधिकारी एवं वन रक्षक कर्मचारी हैं तो साथ ही इस कार्य में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई टाइगर वाच के टाइगर ट्रैकर टीम के सदस्यों ने ।

लगभग पांच साल (14 अगस्त 2015) पहले टाइगर वॉच का एक टाइगर ट्रैकर बाघ का एक फोटो लेकर आया, असल में यह टाइगर की पीठ के एक थोड़े से हिस्से का फोटो था, क्योंकि बाघ कैमरा ट्रैप के एकदम नजदीक से होकर निकला था। कैलादेवी अभ्यारण्य में बाघ का होना ही एक बड़ी घटना था। परन्तु आधे अधूरे फोटो से भी बाघ की पहचान हो गयी, यह बाघ कुछ समय से रणथम्भोर में से लापता हुए एक ‘सुल्तान’ नामक बाघ की थी। चिंतातुर वन अधिकारी भी आस्वस्त हुए की चलो ‘सुल्तान बाघ’ कैलादेवी में सुरक्षित है।

सुल्तान बाघ की कैलादेवी में आई प्रथम फोटो (फोटो: टाइगर वॉच)

कैलादेवी अभ्यारण्य एक विशाल भूभाग है, जहाँ रणथम्भोर के बाघों को विस्तार के लिए अपार सम्भावनाये हैं। कैलादेवी के पास का करौली सामाजिक वन क्षेत्र भी अत्यंत खूबसूरत एवं तुलनात्मक रूप से ठीक ठाक वन क्षेत्र है। इन दोनों वन क्षेत्रों से भी कहीं अच्छा वन पास के धौलपुर जिले का है। यह तमाम वन अभी तक भी उपेक्षित एवं कुप्रबंधन के शिकार है। लाल सैंडस्टोन के अनियंत्रित खनन एवं हज़ारों की संख्या में पालतू एवं आवारा पशुओं की चराई से बर्बाद हो रहे हैं। यह लाल सैंडस्टोन वही है जिस से लाल किला या दिल्ली की अधिकतर ऐतिहासिक इमारते बनी हैं।

सुल्तान बाघ की रणथम्भोर में अपनी वयस्कता हासिल करने से पहले (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इन वनों की सुरक्षा से मानो सभी ने वर्षों से पल्लाझाड़ रखा हैं। अब तो लोग कोटा, बूंदी, अलवर एवं राजसमंद के वनों में बाघ स्थापित करने की बात करने लगे हैं, परन्तु करौली एवं धौलपुर को मानो ऐसी फेहरिस्त में डाल दिया है, जिनमें कोई सुधार की गुंजाईश नहीं हैं। जबकि यह वन मध्य प्रदेश के विशाल वनों से जुड़े हुए हैं।

कैलादेवी में मानवीय दखल को कम करने एवं संरक्षण की रणनीति बनाने के लिए मेरे आग्रह पर पहली बार रणथम्भोर के मानद वन्यजीव पालक श्री बालेंदु सिंह ने तत्कालीन वनमंत्री श्रीमती बीना काक को कैलादेवी जाने का सुझाव दिया एवं उन्होंने तय किया की कैलादेवी के लिए एक कंज़र्वेशन प्लान बनाया जाये, जिसमें एक रणनीति के तहत कार्य किया जाये एवं उसमें बसे हुए गाँवो का विस्थापन मुख्य मुद्दा था, परन्तु इतने गाँवो और लोगों को किस तरह विस्थापित किया जाये ? यह एक सबसे बड़ी समस्या थी। इसके लिए टाइगर वॉच द्वारा संकलित डाटा के आधार पर एक प्लान बनाया गया, 3 कोर एरिया बनाये जाने का प्रस्ताव दिया गया। यह प्रस्ताव का मुख्य उदेस्य था, कम से कम लोगों का विस्थापन किया जाये एवं अधिक से अधिक भू भाग को बाघों के लिए उपयोगी बनाया जाये।

कैलादेवी का सांकड़ा गांव जिसे YK साहू ने अपने ड्रोन से फोटोग्राफ किया

कैलादेवी के 66 गाँवो में लगभग 5000 परिवारों में 19,179 लोग रहते है। हालाँकि अभ्यारण्य मात्र इन्ही गाँवों के दबाव में नहीं है बल्कि पशु पालकों के 50 से अधिक अस्थायी कैंप भी लगते हैं जिन्हे स्थानीय भाषा में “खिर्काडी” कहा जाता हैं, इनमें लगभग 35,000 से अधिक भैंस आदि अभ्यारण्य में बारिश के 3 – 4 माह चराई के लिए आते हैं। इनके अलावा 75 से अधिक गांव अभ्यारण्य के परीक्षेत्र पर भी हैं। यह इतना प्रचंड मानवीय दबाव हैं के इसे कम किये बिना बाघों का संवर्धन संभव ही नहीं है। आज लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े कैलादेवी में रहती है एवं इसी तरह लगभग इतने ही और पशुओं का दबाव बाहरी गाँवों से अभ्यारण्य पर बना रहता है। खैर जहाँ रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान में 110 से अधिक जंगली प्राणी प्रत्येक वर्ग किलोमीटर में बाघ के लिए उपलब्ध हैं, वहीँ कैलादेवी में इसके विरुद्ध 110 से अधिक पालतू पशु पर्यवास पर अपना दबाव डाल रहे है। यदि कोई बाघ या बघेरा इन्हे मार दे तो उनके प्रति और अधिक कटुता पैदा होती जाती है। और उनको बदले में जहर देकर मारना एक सामान्य बात रही हैं।

स्वास्थ्य,शिक्षा, मूलभूत एवं आधारभूत संसाधनों से वंचित लोग अभी तक अपंने पारम्परिक व्यवसायों से अपना पालन करते हैं, परन्तु इनकी नई पीढ़ियां नए ज़माने की चकाचोंध में अपने पारम्परिक कार्यों से भी दूर जा रही है एवं इस द्वन्द में है की किस प्रकार वह अपना भविष्य बनाये। यह द्वन्द उन्हें वन्यजीवों के संरक्षण के प्रति और अधिक नकारात्मक बना रहा है। जंगल के नियम कायदे इस नई पीढ़ी को और भी कठोर लगते हैं।

कैलादेवी अभ्यारण्य में रहने वाले लोगों का पारम्परिक कार्य हैं “पशुपालन” (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

संरक्षण एक महंगा काम है, धनाभाव में वन विभाग कैलादेवी में मात्र अपनी उपस्थिति ही रख पाया है, धरातल पर कोई अधिक संरक्षण कार्य सम्पादित नहीं कर पाये। सुझाये गए तीन कोर के पीछे मुख्य आधार दो बिंदु रहे – कम आबादी वाले क्षेत्र का विस्थापन के लिए चयन ताकि कम से कम लोगों को विस्थापित किया जाये एवं अधिक से अधिक भूमि बाघों के लिए बचायी जाये एवं ऐसे भौगोलिक स्थानों का चयन जो प्राकृतिक रूप से स्वयं संरक्षित हो तथा जिन्हे बचाना आसान हो।

इन प्रस्तावित तीन कोर क्षेत्रों का क्षेत्रफल लगभग कुल मिला कर 450 वर्ग किलोमीटर बनता है। यह लगभग रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान से अधिक बनता है एवं इसके विकसित होने पर इस क्षेत्र में 50 अतिरिक्त बाघ रह सकते हैं।

इस रणनीति पर बनी योजना पर कार्य प्रारम्भ भी हुआ इसे गति मिली जब वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार राजस्थान में थी। परन्तु अभी और कार्य बाकि हैं। कैलादेवी के संरक्षण के लिए जाने माने बाघ विशेषज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने अथक प्रयास किये। मेरे कैलादेवी के भेड़ियों पर किये गए काम से प्रभावित श्री वाल्मीक थापर एवं पुलिस प्रमुख श्री अजित सिंह ने कैलादेवी में कुछ भृमण किये और तय किया की क्यों न हम इस अभ्यारण्य को संसाधनों से संपन्न करें।
वाल्मीक थापर के सुझाव पर रणथम्भोर टाइगर कंज़र्वेशन फाउंडेशन से 5 करोड़ की निधि कैलादेवी के विकास के लिए दी गयी। इस धन से अभ्यारण्य और अधिक सक्षम बना एवं सरकार की इस मनसा को स्थापित किया के अब रणथम्भोर की तर्ज पर यहाँ भी काम होगा ।

नए काबिल अधिकारी लगाए गए इसी क्रम में सबसे बड़े भागीदार बने उस समय के उपवन संरक्षक श्री कपिल चंद्रवाल जिन्होंने पहली बार कैलादेवी को गंभीरता से लिया । कुछ समय पश्च्यात कैलादेवी को एक और नए उपवन संरक्षक मिल गए श्री हेमंत शेखावत, इन्होने अभ्यारण्य के स्टाफ को जिम्मेदार बनाया और टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम को और अधिक सशक्त बनाया और उनको संरक्षण के कार्य के लिए प्रेरित किया। श्री शेखावत वन प्रबंधन में इच्छा रखने वाले काबिल अधिकारी हैं। परन्तु कुछ कुण्ठित अधिकारियों ने श्री हेमंत शेखावत का तबादला बेवजहऐसे स्थान पर किया जहाँ वन्यजीव दूर-दूर तक नहीं हो। एक ऊर्जावान अफसर की इस प्रकार की उपेक्षा वन विभाग की छवि को धूमिल करती है। खैर कैलादेवी को फिर तीसरा कर्मठ उपवन संरक्षक मिला श्री नन्दलाल प्रजापत। यह अतयंत ईमानदार एवं प्रतिबद्ध अफसर रहे।
टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम असल में स्थानीय ग्रामीणों से बनी एक अनोखी टीम है। जिसे “विलेज वाइल्डलाइफ वालंटियर्स” कहा जाता हैं। यह टीम 2013 से कार्यरत हैं जिसे देश भर में सरहा गया हैं। इसके बारे में यहाँ अधिक विस्तार में जाना जा सकता हैं – Wildlife Warriors -The Village Wildlife Volunteers Programme by Ishan Dhar & Meenu Dhakad (https://tigerwatch.net/wp-content/uploads/2019/10/Book-Wildlife-Warriors.pdf)

जहाँ एक तरफ विभाग और स्वतंत्र लोग सक्रीय हुए वहीँ बाघों ने भी अपने प्रयास बढ़ा दिए:

सुल्तान के बाद एक और बाघ कैलादेवी पहुँच गया नाम था तूफान (T80) जिसे भी टाइगर वॉच टीम ने कैलादेवी में आते ही कैमरा ट्रैप में कैद कर लिया, यह प्रथम बार 17 जनवरी 2017 को देखा गया। परन्तु इसके वहां पहुँचते ही उसके दबाव से सुल्तान (T72) अपने क्षेत्र को छोड़ ना जाने कहीं और निकल गया। टाइगर वॉच टीम पुनः गहनता से T72 ढूंढ़ने लगी और एक अनोखी सफता मिली के T72 के साथ एक और बाघिन T92 कैमरा ट्रैप में कैद हो गयी। यह स्थान था, मंडरायल कस्बे के पास निदर का तालाब क्षेत्र में। यह कई वर्षों बाद हुआ, जब कोई मादा कैलादेवी में पायी गयी। T92 एक अल्प वयस्क बाघिन थी जो 2 वर्ष पुरे होते ही, अपनी माँ T11 को छोड़ नए स्थान को ढूंढ़ने निकल गयी। T92 को नाम दिया गया सुंदरी। मेरे पिछले 18 वर्ष के रणथम्भोर अनुभव बताते है, की इतने वर्षों में सात नर बाघ – T47, T07, T89, T38, T72 , T80 & T116 कैलादेवी पहुंचे परन्तु इतने ही वर्षों में मादा बाघ मात्र एक ही गयी और वह थी यही T92।

तूफान टाइगर की रणथम्भोर और कैलादेवी में घूमने वाला बाघ (फोटो: टाइगर वॉच)

बाघों का कुनबा बढ़ने लगा:

लगभग एक वर्ष के पश्च्यात टाइगर वॉच टाइगर ट्रैकिंग टीम के सदस्य बिहारी सिंह के मोबाइल से एक अजीबो गरीब सन्देश मेरे पास आया की एक बाघ गहरी खो (gorge) में दो सियारों के साथ घूम रहा है, और दोनों सियार उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। यह स्थान मेरे से 140 किलोमीटर दूर था, परन्तु मैंने ऑफिस के मुख्य स्टाफ को अपने साथ ले लिया के चलो आज कुछ खास देखने चलते है। मुझे पता था, के यह सियार नहीं हो सकते, यदपि यह ट्रैकिंग टीम का कोई कोड मैसेज भी नहीं था, परन्तु यह उनका अवांछनीय सावधानी का एक हास्यास्पद नमूना भर था। मेरी समझ में आ चूका था, के यह बाघिन T92 के साथ उसके शावक के अलावा कुछ और नहीं हो सकता । सुचना आने के लगभग 3 घंटे बाद मध्य अप्रैल (14 /04 /2018) के गर्म दिन में दोपहर चार बजे करौली- मंडरायल सड़क के किनारे की एक गहरी खो में बाघिन (T92) बैठी थी, कुछ ही पल बाद वहां दो छोटे (3 -4) माह के शावक उसके पास बैठ के उसका दूध पिने लगे। यह सब नजारा हम 7 लोग 200 मीटर दूर खो के ऊपरी किनारे से देख रहे थे। यह एक बेहद शानदार पल था, जिसके पीछे अनेक लोगों की कड़ी मेहनत थी। मादा सुंदरी (T92) के इन दोनों शावकों का पिता नर सुल्तान (T72) भी अपनी जिम्मेदारी गंभीरता से ले रहा था। उसी दिन अप्रत्यक्ष प्रमाण मिले के सुल्तान T72 ने गाय का शिकार किया था एवं उसे वह लगभग एक किलोमीटर घसीट कर उस तरफ ले आया जहाँ T92 भी उसे आसानी से खा सके।

बाघिन T92 सुंदरी एवं उसके दो शावक की कैलादेवी में ली गई फोटो (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शावक बड़े होने लगे और दोनों शावक माँ से अलग हो गये एवं इनको नए कोड नाम दिए गए T117 (श्री देवी) एवं T118 (देवी) एवं अचानक से एक और बाघ के रणथम्भोर से कैलादेवी आने की खबर आयी। DFO श्री प्रजापत जी के विशेष आदेश पर टाइगर वॉच की टीम को उसकी मॉनिटरिंग के लिए लगाया गया और कुछ दिनों में टाइगर वॉच के टाइगर ट्रैकिंग टीम के केमरा ट्रैप में इस नए मेहमान की फोटो ट्रैप हुई जिसकी पहचान हुई की बाघ T116 के रूप में, जो रणथम्भोर के कवालजी वन क्षेत्र से निकल कर आया है, और 100 किलोमीटर से अधिक दुरी तय कर यह बाघ धौलपुर पहुँच गया। इस दौरान टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम ने अपने तय कार्य को छोड़ T116 को धौलपुर आदि क्षेत्र में ढूढ़ने में लगी रही क्योंकि वन विभाग के नव नियुक्त बायोलॉजिस्ट ने मंडरायल को पूरी तरह सँभालने का दावा करने लगा। अनुभवहीन व्यक्ति को नेतृत्व देने का फल अत्यंत कष्ट दायक रहा। अचानक से एक दिन फरवरी 2020 में बाघिन T92 कहीं गायब हो गयी। महीनों की तलाश के बाद तय हुआ की वह नहीं मिलेगी। स्थानीय वाइल्ड लाइफ बायोलॉजिस्ट फिर अपनी अकर्मण्यता को छुपाते हुए, मन बहलाने के लिए बोलने लगा की बाघिन मध्य प्रदेश चली गयी और शायद यही सब को सुनना था, सो महकमा संतोष करके बैठ गया।

घटनाक्रम (Chronology)

14 अगस्त 2015: सुल्तान टाइगर T72 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।

17 जनवरी 2017:  तूफान टाइगर T80 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी – कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।

30 जनवरी 2017:  सुंदरी बाघिन T92 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा निदर की डांग- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप कि गयी ।

14 अप्रैल 2018:  बाघिन सुंदरी के शावक प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा जाखौदा की खो – कैलादेवी में कैमरा से फोटो लिया गया।

04 जनवरी 2020: बाघ T116 को गिरौनिया खो -धौलपुर में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा कैमरा ट्रैप किया गया।

09 जनवरी 2021: बाघिन T117 को पहली बार दो शावकों के साथ देखा गया एवं एक सप्ताह में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा रींछड़ा गिरौनिया -धौलपुर में कैमरा ट्रैप किया गया।

23 जनवरी 2021: बाघिन T118 को पहली बार दो शावकों के साथ  प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा घोड़ी खो कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।

उधर धौलपुर में T116 के क्षेत्र में कई गायों के शिकार मिले, तो लगने लगा, यहाँ एक से अधिक बाघ विचरण कर रहे हैं, और यही हुआ इसी वन क्षेत्र में एक बाघिन शावक T117 का विचरण भी मिल गया एवं उसकी फोटो भी कैद हो गयी। अत्यंत शर्मीली बाघिन वर्ष 2020 में धौलपुर में मात्र 18 बार कैमरा ट्रैप में कैद हुई, परन्तु नर T116 इसके बजाय 69 बार कैमरे में कैद हुआ। यानि 4 गुना अधिक बार हम उसके रिकॉर्ड प्राप्त कर पाए। यह हर बार आवश्यक नहीं की वह कैमरे में कैद हो, परन्तु उसके पगमार्क आदि सप्ताह में 3-4 बार मिलना यह सुनिश्चित करता है की बाघ सुरक्षित है। इसी विधि से टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम निरंतर कार्य करती है। कुछ दिनों में बाघिन T117 भी मिल गई एवं इसको ढूंढ़ते हुए तूफान (T80) भी मिल गया। यह दोनों करौली के सामाजिक वानिकी क्षेत्र में मिले।

बाघिन T117 धौलपुर के वन में विचरण (फोटो: टाइगर वॉच)

 

बाघ T116 का धौलपुर के वन में विचरण (फोटो: टाइगर वॉच)

पहली बार घुमंतू बाघों को बाघिन मिल गई एवं यह नर बाघ इन्ही के क्षेत्र में बस गए। जहाँ तूफान बाघ रणथम्भोर के भदलाव, खण्डार, बालेर, महाराजपुरा एवं नैनियाकि रेंज के 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को घूमा करता था, वहीँ आज वह मात्र T118 के नजदीक रहने लगा। उधर बाघों के धौलपुर पहुँचते ही पूर्व मुख्यमंत्री महोदया श्रीमती वसुंधरा राजे ने मुझे फ़ोन कर ताकीद किया के “इन बाघों पर कड़ी नजर रखो एवं यदि किसी प्रकार की आवस्यकता हो तो उन्हें सीधे सूचित किया जाये”। बाद में उनके खास सलाहकार रहे वन अधिकारी श्री अरिजीत बनर्जी भी समय-समय पर खोज खबर लेते रहे। इन दोनों की व्यक्तिगत रूचि ने हमें और हमारी टीम को और अधिक सतर्क बना दिया। उनकी बाघों के प्रति गंभीरता अत्यंत प्रभावित करने वाली थी। अचानक से वह दिन आया जिसका इंतजार था, बाघिन T117 एवं T118 दोनों के ही जनवरी 2021 के एक सप्ताह में शावकों की फोटो टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम के केमरे में दर्ज हो गयी। यह अत्यंत खुशी का पल था, सभी टीम सदस्य खुश और उत्साहित थे की इस बार भी टाइगर वॉच की टीम ने इनको सबसे पहले दर्ज किया। आज मंडरायल-करौली एवं सरमथुरा-धौलपुर में नो बाघ पल रहे है, इन्होने स्वयं यह जगह तलाशी और स्थापित किया के बाघों के लिए इस इलाके में संभावनाएं हैं।

बाघिन T117 एवं उसके दो शावक धौलपुर वन क्षेत्र में (फोटो: टाइगर वॉच)

कैलादेवी में पैदा हुए T118 के शावक एवं स्वयं T118 (फोटो: टाइगर वॉच)

यह टाइगर वॉच की इस टाइगर ट्रैकिंग टीम जिसे विलेज वाइल्ड लाइफ वालंटियर्स के नाम से जाना जाता हैं को श्री योगेश कुमार साहु ने स्थापित किया हैं, एवं उनकी प्रेरणा से 2013 में इस टीम को स्थापित किया गया एवं फिर जाने माने बाघ विषेशज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने इसे और अधिक संवर्धित किया। वन्यजीव मंडल के सदस्य श्री जैसल सिंह ने इसे वित्तीय सहायता देकर पोषित किया एवं आगे बढ़ाया। यदपि इसके पीछे अनेकोनेक लोगों ने संसाधनों को जुटाया है। वनविभाग भी कुछ वर्षो से इसे वित्तीय सहायता दे रहा है। यह आज विभाग के एक अंग की तरह कार्य कर रहा है।

कैलादेवी में कार्यरत टाइगर वॉच की टीम एवं लेखक

विभाग के कुछ कुण्ठित अफसर ने इस कार्यक्रम को कमजोर करने एवं इसके टुकड़े कर एक अलग संगठन खड़ा करने का प्रयास भी किया परन्तु उन्हें अधिक सफलता नहीं मिल पाई। आज यह टीम मजबूती से अपने कार्य को सम्पादित कर रही है।

कैलादेवी को वन विभाग ने दो हिस्सों में बांटा था, क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट (CTH) एवं बफर। बाघों के मामलों पर नियंत्रण रख ने वाली केंद्रीय संस्था NTCA ने अस्वीकार कर दिया के प्रस्तावित बफर को भी CTH ही बनाओ, क्योंकि यह अभ्यारण्य का हिस्सा है। खैर यह मसला आज तक हल नहीं हुआ। परन्तु बाघों ने यह स्थापित कर दिया के कैलादेवी के CTH से अधिक अच्छा क्षेत्र प्रस्तावित बफर वाला रहा है। यह एक नमूना है विभाग के कागजी प्लान का जो टेबल पर ही बना है। यद्दपि वन विभाग के अनेक वनरक्षक आज सीमा पर प्रहरी की भांति डटे है एवं उन्ही की बदौलत कैलादेवी जैसे विशाल भूखंड संभावनाओं से भरे हैं।

बाघ के लिए अपार सम्भावनाओ की भूमि (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

सुंदरी बाघिन T92 की तलाश के लिए करौली पुलिस के एक नए IPS अफसर – श्री मृदुल कछावा ने कई प्रयास किये भी थे, परन्तु शायद नियति को कुछ ज्यादा मंजूर नहीं था। उन्होंने कुछ शिकारी गिरफ्तार भी किये परन्तु अधिक कुछ स्थापित नहीं हो पाया।
परन्तु उसका बैचेन साथी सुल्तान आज भी अपनी प्रेयसी की तलाश में इधर-उधर घूमता है, और शायद हम सभी को कोसता होगा के हम सब मिलकर एक लक्ष्य के लिए कब कार्य करेंगे और कब स्थानीय लोग बाघों को उनका पूरा हक़ लेने देंगे ?

 

 

 

जोड़बीड़: एक गिद्ध आवास

जोड़बीड़: एक गिद्ध आवास

जोड़बीड़, एशिया का सबसे बड़ा गिद्ध स्थल, जो राजस्थान में प्रवासी पक्षियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान भी है, गिद्धों की घटती आबादी के लिए प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था का श्रोत है…

जोड़बीड़ गिद्ध आवास को लेकर पुरे दक्षिणी एशिया में अपना एक अलग ही स्थान रखता है । 1990 के दशक मे जहाँ पूरी दुनिया से गिद्ध समाप्त हो रहे थे वहीँ दूसरी ओर राजस्थान वो प्रदेश था जिसने उनके प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था को बनाये रखा। वैज्ञानिक अनुसंधानों ने गिद्धों की गिरती हुई आबादी का प्रमुख कारण मवेशियों में उपयोग होने वाली दर्दनिवारक दवाई डिक्लोफेनाक (Diclofenac) को माना। एक तरफ गिद्धों की संख्या निरंतर गिरती गयी तो वहीँ जोड़बीड़ गिद्ध आवास बीकानेर में उनकी संख्या वर्ष 2006 के बाद निरंतर बढती गयी और इसका प्रमुख कारण था भोजन की प्रचुर मात्रा। जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है।

यह संरक्षण रिजर्व 56.26 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है और गिद्ध दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थल है। घास और रेगिस्तानी पौधे यहाँ की मुख्य वनस्पति है जो यहाँ और वहाँ बहुत दुर्लभ पेड़ों से लाभान्वित है। जोड़बीड़ मृत पशु निस्तारण स्थल के एक तरफ ऊंट अनुसंधान केंद्र, अश्व अनुसंधान केंद्र और दूसरी तरफ बीकानेर शहर है।

जोड़बीड़ में एक साथ लगभग 5000 गिद्ध व शिकारी पक्षियों को देखा जा सकता है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

बीकानेर का इतिहास 1486 ई. का है, जब जोधपुर के संस्थापक राव रावजी ने अपने पुत्र को अपना राज्य स्थापित करने की चुनौती दी। राजकुमार राव बीकाजी के लिए, राव जोधाजी के पांच बेटों में से एक पुत्र जंगलवासी जांगल, ध्यान बिंदु बन गया और उन्होंने इसे एक प्रभावशाली शहर में बदल दिया। उन्होंने 100 अश्वारोही घोड़ों और 500 सैनिकों के साथ अपना काम पूरा किया और शंखलास द्वारा छोड़े गए 84 गाँवों पर अपना राज्य स्थापित किया। अपनी प्रभावशाली सेना के लिए उंट, घोड़े व मवेशी रखने के लिए बीकानेर शहर के पास गाड़वाला के बीड (जोड़बीड़) में स्थान निर्धारित किया जिसे रसाला नाम से भी जाना गया।

आधुनिक बीकानेर के सबसे प्रतिष्ठित शासक, महाराजा गंगा सिंह (1887-1943) की दूरदर्शिता का परिणाम रहा की जोड़बीड़ में  भेड़ पालन का कार्य भेड़ अनुसंधान केंद्र, अविकानगर जयपुर की सहायता से शुरु हो पाया। जोड़बीड़ का एक बड़ा भाग ऊंढ़ व अश्व अनुसंधान के पास रहा जो बाद में वन अधिनियम बनने के बाद चारागाह भूमि (जो उंट के लिए होती थी) वन का भाग बन गयी। वर्तमान मे जोड़बीड़ गिद्ध स्थल पिछले 30 वर्षों में 6 बार विस्थापित हुआ परन्तु 2007 में स्थानीय कलेक्टर महोदय के द्वारा जोड़बीड़ संरक्षण स्थान बनने से पहले मृत पशुओं के लिए निर्धारित कर दिया गया। चूंकि जोड़बीड़ में मृत पशुओं के रूप में पर्याप्त भोजन है और जैसा कि यह स्थान गिद्धों के प्रवास मार्ग में स्थित है, यह उनके लिए स्वर्ग से कम नहीं है। बिल्डरों और ग्रामीणों द्वारा किसी भी अतिक्रमण को रोका जा सके इसको सुनिश्चित करने के लिए वन विभाग ने इस क्षेत्र को एक जोड़बीड़ अभयारण्य के रूप में घोषित कर दिया है। जिले के शहरी भाग, गंगाशहर, भीनाशहर, दूध डेरियों से मृत शव पार्क के पश्चिमी  भाग (बीकानेर पश्चिम रेल्वे स्टेशन) में डाले जाते हैं। आसपास के गाँवों व शहरों से गर्मियों में लगभग 100-120 शव व सर्दियों में 170-200 शव (छोटे व बड़े पशु ) निस्तारित किये जाते हैं।

जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

गिद्ध, जिनका उद्देश्य पर्यावरण से मृत शवों को साफ करना है, इस काम के लिए प्रकृति की सबसे अच्छी रचना हैं। यद्यपि ऐसे अन्य जानवर भी हैं जो समान कार्य करते हैं पर गिद्ध इसे अधिक कुशलता से करते हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों में गिद्धों की नौ प्रजातियां पायी जाती हैं। ये प्रजातियां Long-billed Vulture, Egyptian Vulture, Bearded Vulture, White-rumped Vulture, Slender-billed Vulture, Himalayan griffon Vulture, Eurasian griffon Vulture, Cinereous Vulture, Red-headed Vulture हैं। डिक्लोफेनाक, जो मवेशियों में दर्द निवारक के रूप में प्रयोग की जाती है से मृत्यु के कारण इनकी आबादी में 90-99% की कमी देखी गई है। गिद्धों द्वारा खाए जाने पर, इन जानवरों का शव गुर्दे की विफलता के कारण उनकी मृत्यु का कारण बनता है। व्यापक शिक्षा और पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध के कारण, गिद्ध आबादी एक छोटे से विकास को देख रही है, लेकिन कुल मिलाकर स्थिति अभी भी लुप्तप्राय स्तर पर ही है।

Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया से प्रवास कर भारत में आते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

जोड़बीड़ अभ्यारण्य Black kite, steppe eagle, Greater spotted eagle, Indian spotted eagle, Imperial eagle, White tailed eagle आदि जैसे विभिन्न प्रकार के रैप्टर्स (शिकारी पक्षियों) को भी आकर्षित करता है। लगभग 5000 गिद्ध व रेप्टर यहां पाए जा सकते हैं, प्रवासी प्रजातियां Eurasian griffon Vulture स्पेन और टर्की, Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया तथा Himalayan griffon Vulture तिब्बत और मंगोलिया से आते हैं।

Himalayan Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

Eurasian Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है। अगर प्रकृति में ये पक्षी किसी भी प्रकार से प्रभावित होते हैं तो उसके परिणाम स्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में अन्य जानवर भी खतरे में हो जाता हैं। जोड़बीड़ न केवल गिद्धों बल्कि अन्य शिकारी पक्षियों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान है। अभ्यारण्य के आसपास का क्षेत्र जो खेजरी और बेर के पेड़ों के साथ एक खुली भूमि है तथा यहाँ डेजर्ट जर्ड नामक छोटा कृंतक देखा जा सकता है जो बाज का भोजन है तथा बाज को इसका शिकार करते हुए देखा भी जा सकता है।

Egyptian Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

Long-legged buzzard (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षियों के अलावा अभ्यारण्य में Ashy Prinia, Black winged Stilt, Citrine Wagtail, Common Pochard, Common Redshank, Eurasian Coot, European Starling, Ferruginous Pochard, Gadwall, Great Cormorant, Isabelline Shrike, Isabelline Wheatear, Kentish Plover, Little Grebe, Ruff, Shikra, Variable Wheatear आदि भी सर्दियों में आसानी से देखे जाते हैं। यहाँ Yellow eyed Pigeon (Columba eversmanni) कज़ाकिस्तान से अपने प्रवास के दौरान आते हैं तथा यहाँ मरू लोमड़िया, भेड़िया, जंगली बिल्ली, जंगली सूअर इत्यादी भी आसानी से देखे जा सकते है।

गिद्ध हमारे पारिस्थितिक तंत्र का अभिन्न अंग है ये मृत जीवों को खाकर पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

स्थानीय रूप से वन विभाग द्वारा आने वाले प्रवासी पक्षियों के लिए अनुकूल व्यवस्था की गयी है परन्तु जल स्त्रोत की कमी, मृत पशुओ के शरीर से निकलने वाली प्लास्टिक, शहरों से आने वाले आवारा पशु व कुत्ते व्यवस्था प्रबंधन मे बाधक सिद्ध हो रहे हैं। इनके अलावा मृत पशु निस्तारण स्थल के पास निकलने वाली रेल्वे लाइन व गावों मे जाने वाली बिजली के तार गिद्धों व शिकारी पक्षियों को मौत के घाट उतार रहे है। आवारा कुत्तों की उपस्थिति पक्षियों और पर्यटकों दोनों के लिए खतरा पैदा करती है। ये कुत्तों इतने क्रूर होते है की वे भोजन करते समय गिद्धों को परेशान करते हैं। इसके अलावा अभ्यारण्य में खेजड़ी, साल्वाडोरा, बेर, केर और नीम के वृक्षों का बहुत सीमित रोपण है।

Credits:

Cover Photo- Mr. Nirav Bhatt