रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

हमेशा से बाघों के अनुकूल रहा, राजस्थान का एक ऐसा क्षेत्र जो बाघ पर्यावास बनने को तैयार है लेकिन सरकारी अटकलों और तैयारियों  कि कमी के कारण आधिकारिक तौर पर बाघों से वंचित है।

रामगढ़ विषधारी अभयारण्य राज्य के बूंदी जिले में 304 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत एक जलपूर्ण वन क्षेत्र है। राज्य ने इसे 20 मई 1982 को राजस्थान वन्य प्राणी और पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1951 की धारा 5 के अंतर्गत अभयारण्य घोषित किया। रामगढ़, रणथंभोर टाइगर रिजर्व के दक्षिण कि ओर एक पहाड़ों से घिरा वन क्षेत्र है जो कि मेज नदी द्वारा दो असमान भागों में विभाजित होता है। मेज नदी इस वन क्षेत्र के कई जलश्रोत को जलपूर्ण कर इस वन क्षेत्र कि जीवन रेखा के रूप में काम करती है। रणथंभोर से जुड़ा होने के कारण यह बफर ज़ोन का भी काम करता है जिसकी वजह से रणथंभोर से निकले हुए बाघ अक्सर यहाँ पहुँच जाते है।

रामगढ़ का इतिहास:

रामगढ़ का इतिहास, वन्यजीवों से लेकर इंसानों के खूनी गाथाओं से भरा हुआ है।अधिकांश राजपूत शासक एक दूसरे के राज्यों में मेहमान के तौर पर शिकार, विशेष रूप से स्वयं के राज्यों में अनुपलब्ध जीवों के शिकार के लिए आमंत्रित करते रहते थे। अक्सर ये शिकार यात्राएँ उनके बीच घनिष्ठ संबंधों, विवाह, दोस्ती और साझा हित से जुड़ी रियासतों, के अस्तित्व को प्रतिबिंबित और प्रबलित करते थे।

बाघों की बड़ी आबादी कि वजह से, बूंदी बाघों के शिकार के लिए एक लोकप्रिय स्थान था। जबकि आम तौर पर बाघों का  शिकार राज्यों द्वारा अपने आपसी संबंधों को मजबूत करने में मददगार साबित होता था, बूंदी के मामले में यह उसके विपरीत साबित हुआ है। ब्रिटिश एजेंट जेम्स टोड के ऐनल्ज़ एण्ड एंटीकुईटीस के अनुसार यहाँ अहेरिया (वसंत के समय का शिकार) का त्यौहार मेवाड़ के महारनाओं के लिए तीन बार घातक साबित हुआ (Hughes, 2013)। 1531 में एक शिकार के दौरान बूंदी के राव सूरजमल और मेवाड़ के महाराणा रतन सिंह के बीच एक झगड़े का उल्लेख है जिसमें दोनों महाराज एक दूसरे को मार डालते हैं। टोड के अनुसार महाराणा रतन सिंह द्वारा चोरी से हाड़ा महाराज सुरजमल कि बहन से विवाह करने के कारण बदले कि भावना में शिकार के दौरान झगड़े में एक दूसरे को मार डालते हैं। ऐसी ही एक घटना 1773 में दोहराई गई जब बूंदी के राव राजा अजीत सिंह ने मेवाड़ के महाराणा अरसी सिंह को शिकार के दौरान ही मार डाला। टोड के अनुसार महाराणा कि मौत मेवाड़ के रईसों द्वारा प्रभावित था जिन्हें महाराज अरसी स्वीकार नहीं थे (Crooke, 2018)।

Ramgarh Hunting Lodge: बूंदी के महाराज रामसिंह द्वारा मेज नदी के किनारे शिकार के महल का निर्माण करवाया गया था।ब्रिटिश एजेंट जेम्सटोड के अनुसार राजा राम को शिकार का जुनून उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला, और यहां तक कि इस ग्यारह वर्ष कि उम्र में उन्हें अपने पहले शिकार करने पर बूंदी के रईसों से नजर और बधाई मिली। (फोटो: प्रवीण कुमार)

महारजाओं के शिकार के साथ ही यहाँ बेहिसाब वन्यजीवों का भी शिकार हुआ है। जेम्स टॉड ने अपने ऐनल्ज़ में ही बताया है कि बूंदी के शासक राव राजा बिशन सिंह (मृत्यु 1821) ने 100 से अधिक शेर और कई बाघ मारे थे। बेशक शिकार के लिए ऐसा जुनून उस एक शेर के जितना ही खतरनाक साबित हो सकता है जिसका शिकार किया जाता था, और ऐसा हुआ भी जब अपने किसी शिकार अभियानों में से एक के दौरानएक शेर द्वारा राजा पर हमला किया गया जिसके परिणामस्वरूप महाराज ने एक अंग को खो दिया और जीवन भर के लिए अपंग होकर रह गए (Crooke, 2018)। इन बेहिसाब शिकारों के कारण 1830 तक यहाँ से शेर विलुप्त हो चुके थे (Singh & Reddy, 2016)I

रुडयार्ड किपलिंग अपने 1890 के दशक के बूंदी दौरे के बारे में बताते हैं कि जब अंग्रेज बूंदी आए तो उन्हे सुख महल में ठहराया गया जहां उन्होंने अपनी पुस्तक “किम” के कुछ अंश पूरा किया। उसी दौरान उन्होंने बूंदी के डिस्पेंसरी का दौरा किया, तो उन्होंने एक रजिस्टर पाया (ऑपरेशन बुक) जिसमें अस्पताल में आने वाले लोगों की बीमारियों को अंग्रेजी में सूचीबद्ध किया गया था। उनमें से एक सप्ताह में अक्सर तीन-चार मामले, शेर के काटने के होते थे, जिसे सूची में “लायन बाइट” के तौर पर सूचित किया गया था। जुलोजिकल सटीकता देखने पर उन्होंने इसमें बाघ के काटने की संभावना पाई (Kipling,1899)।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। लेकिन, 1920 से बूंदी ने बाघों के शिकार के आगंतुकों का स्वागत करना शुरू किया जिससे राज्य ने शिकार का उच्च स्तर अनुभव किया। इस समय तक तत्कालीन शासक, महराओ राजा रघुबीर सिंह, पहले ही लगभग 100 बाघों को मार चुके थे। इस छोटे से राज्य में हर साल औसतन सात बाघ मारे जाते थे। हालांकि पूर्व नियमों के अनुसार बाघिनों के शिकार को हतोत्साहित किया गया था, लेकिन कुछ निजी रिकॉर्डों को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि या तो नियम 1930 के दशक से बदल गए थे या उनका पालन नहीं हो रहा था। हालांकि, शिकार और पर्यावास में परिवर्तन के बावजूद यहाँ 1941 में 75 बाघ थे (Playne, et al.,1922)I

1945 में बाघ शिकार के नियमों में ढील दी गई और कई लोग शिकार के शाही खेल में भाग लेने के लिए शामिल होने लगे। 1950 के दशक में, एक बाघिन ने फूल सागर के आसपास के जंगल में दो शावकों को जन्म दिया। उसी अवधि के आसपास फूल सागर पैलेस में आमंत्रित लोगों के साथ क्रिसमस की शिकार पार्टियां लोकप्रिय हो गईं और 1950 के दशक के अंत से बाघों का अवैध शिकार भी शुरू हुआ। 1952 में, लॉर्ड माउंटबेटन ने बूंदी में दो बाघों का शिकार किया; एक फूल सागर में और दूसरा रामगढ़ में। 1955 और 1965 के बीच, महाराव राजा बहादुर सिंह ने अकेले बूंदी के जंगलों में 27 बाघों का शिकार किया। यहाँ के जंगलों में 1957 से 1967 के बीच नौ बाघों का शिकार अवैध शिकारियों द्वारा किया गया। 1960 के दशक तक बाघ काफी सीमित क्षेत्रों तक ही पाए जाते थे। हालांकि, ये बाघ और बाघ-शिकारियों के लिए बदलते समय थे क्यूँकि वन विभाग ने बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था (Singh & Reddy, 2016)I

1982 में अभयारण्य घोषित होने के साथ इस क्षेत्र कि सुरक्षा और बढ़ी। इस क्षेत्र के बाघों में विशेष रुचि रखने वाले वन रक्षक लड्डू राम के अनुसार, 1983 में रामगढ़ और शिकार्बुरज ब्लॉक के बीच तीन बाघ थे, और 1986 में छह। 1990 में, उनका मानना है कि पूरे इलाके में 11 बाघ थे, जो बिजोलिया, बांद्रा पोल, मांडू और झारपीर में फैले थे- ये सभी रामगढ़ रेंज में हैं (Singh & Reddy, 2016)I

1985 में, लोहारपुरा घाटी में एक बाघ को अवैध रूप से मार दिया गया था। इसके बाद 1991 को एक और ऐसी घटना हुई जब पिपलिया मणिकचौथ में गोरधन की पहाड़ी पर एक और बाघ की मौत हो गई। तत्कालीन उप वन संरक्षक के एल सैनी और रेंज ऑफिसर पूरण मल जाट द्वारा, 23 – 24 जनवरी को शिकारी रंगलाल मीणा को बाघ के शिकार के संदेह में गिरफ्तार किया गया। हालांकि रंगलाल मीणा मोतीपुरा गाँव का एक माना हुआ शिकारी था, लेकिन उक्त शिकार में वह शामिल ना था। उस रेंज के तत्कालीन गार्ड भूरा मीणा कि रंगलाल से आपसी मतभेद के कारण अत्यधिक प्रतारणा के कारण मौत हो गई। हिरासत में मौत होने के कारण इस क्षेत्र में एक उग्र आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व किया वहाँ के विधायक राम नारायण मीणा ने। आंदोलन में लोगों ने रेंज ऑफिस जला दिया, गार्ड्स को बाहर निकाल दिया, और लगभग डेढ़ साल तक फॉरेस्ट गार्ड्स को अभयारण्य में प्रवेश न करने दिया। अभयारण्य अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण और सक्रिय प्रबंधन के अभाव में वन्यजीवों की सुरक्षा बुरी तरह से विफल रही।

अभयारण्य कि सुरक्षा में वर्ष 2000 में सहायक वन संरक्षक मुकेश सैनी के नेतृत्व में बढ़ी। प्रारम्भिक अड़चनों के बाद उन्होंने अपनी सूज-बूझ से विधायक राम नारायण मीणा का समर्थन हासिल किया और अभयारण्य में  कोयला बनाने पर रोक लगवाई। इनके बाद उप वन संरक्षक श्रुति शर्मा ने अभयारण्य में कैम्प करके स्वयं कि निगरानी में कई विकास कार्य करवाए।

रामगढ़ के वन:

यहाँ के जंगलों को चैंपियन और सेठ वन वर्गीकरण 1968 के अनुसार उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। जलवायु स्थिति से परे, एडैफिक और बायोटिक कारक मुख्य रूप से इन वनों की संरचना, वितरण और गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। यहाँ के वन खंडों को पूर्णतया धोक (Anogeissus pendula) के वन, धोक के मिश्रित वन, धोक कि झाड़ियाँ, खैर (Acacia catechu) के वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क मिश्रित वन, उष्णकटिबंधीय नम मिश्रित वन,घास के मैदान, आदि के रूप में पहचाना जा सकता है (Nawar, 2015)I

धोक के वन में लगभग 80%, Anogeissus pendula पाया जाता है जो कि यहाँ के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक है, Grewia flavescens यहाँ धोक का एक सामान्य सहयोगी है। धोक के मिश्रित वनों में धोक, अन्य पर्णपाती प्रजातियों, जैसे कडाया (Sterculia urens), सालर (Boswellia serrata), पलाश (Butea monosperma), खैर (Acacia catechu), आदि के साथ पाया जाता है। धोक इन वनों कि भी प्रमुख प्रजाति है, सालर और कडाया ढलानों पर मौजूद हैं, जबकि पलाश घाटी क्षेत्रों में आता है। इन जंगलों में Grewia flavescens, Capparis decidua, Cassia tora, Calotropis procera आदि जैसी झाड़ी प्रजातियां भी शामिल है।

यहाँ शुष्क मिश्रित वनों के कुछ पैच भी मौजूद है जिसमें चुरेल (Holoptelea integrifolia), गुर्जन (Lannea coromandelica), पलाश, कड़ाया, धोक के साथ शामिल हैं। बबूल (Acacia nilotica) अवस्था परिवर्तन कालिक क्षेत्रों में और असमान सतहों पर पाया जाता है। नम मिश्रित वनों में Syzygium cumini, Ficus racemosa, Diospyros melanoxylon, Phoenix sylvestris,Flacourtia indica, Mallotus philippensis, Terminalia bellirica and Mangifera indica आदि पाए जाते हैं।  इस तरह के जंगल पानी की धाराओं, झीलों और जलाशयों के आसपास के घाटी क्षेत्रों में आम हैं। जलीय वनस्पतियों में नेलुम्बो न्यूसीफेरा, निमफेया नौचली, अजोला पिनाटा, ट्रापा नटंस, इपोमिया एक्वाटिक, यूट्रीकुलरिया औरिया आदि शामिल हैं।

रामगढ़ के वन्यजीव:

रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व के लिए सॅटॅलाइट क्षेत्र के रूप में विस्तारित होने की क्षमता रखता है। यह अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व से निकले हुए बाघों का पसंदीदा क्षेत्र है। बाघ के अलावा यहाँ मांसाहारी जीवों में बघेरा, भेड़िया, लकड़बग्धा, सियार, लोमड़ी, सियागोश, रस्टी स्पॉटेड कैट, और जंगल कैट आदि पाए जाते हैं।

मानसून के दौरान, अभ्यारण्य में पानी व्यापक होता है जिसके कारण वन्यजीव असुविधाजनक आर्द्रभूमि से बचने हेतु ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पलायन करते हैं। अक्टूबर और नवंबर के बाद वे नीचे घाटियों की ओर बढ़ना शुरू करते हैं और बाद में नदियों और नालों वाले क्षेत्रों में। मई और जून के शुष्क और गर्म महीनों के दौरान लगभग सभी जानवर सीमित वाटर हॉलस के पास ही पाए जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शाकाहारी जीवों में हनुमान लंगूर, चीतल, सांभर, चिंकारा, नीलगाय, और खरगोश अच्छी संख्या में हैं और सभी मौसमों में आसानी से देखे जा सकते हैं। सर्वाहारी स्थानपाई जीवों में यहाँ भालू, जंगली सूअर, और इंडियन सॅमाल सिविट पाए जाते हैं। यहाँ नेवले की दो प्रजातियाँ इंडियन ग्रे मोंगूस एवं रडी मोंगूस, चींटीखोर, और साही भी पाए जाते हैं।

वन्यजीव गणना के दौरान रामगढ़ महल के पास जलश्रोतों पर भालू, बघेरा हनुमान लंगूर इत्यादि आसानी से एवं अच्छी संख्या में देखने को मील जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अभयारण्य में स्थितः रामगढ़ गाँव कई प्रजातियों के सांपों के लिए जाना जाता है, संभवतः इसी कारण इसको विषधारी अभयारण्य कहा जाता है। है। यहाँ पक्षियों किभी काफी विविधता मौजूद हैं जिनमें कई प्रकार के शिकारी पक्षी जैसे भारतीय गिद्ध, बोनेलीज़ ईगल,आदि, विभिन्न प्रजातियों के पैराकीट, ओरिएण्टल व्हाइट आई, गोल्डन ओरिओल, पर्पल सनबर्ड, हरियल, पपीहा, नवरंग, कोयल, येलो थ्रोटेड स्पैरो, सरकीर मालकोहा, बुलबुल, फ्लाई कैचर्स इत्यादि शामिल हैं।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

रामगढ़, रणथंभोर और बाघ:

रामगढ़-विषधारी और रणथंभौर के बीच मौजूदा वन कनेक्टिविटी, हालांकि कमजोर है, लेकिन फिर भी बाघों को इस पारंपरिक मार्ग से पलायन करने में काफी हद तक सहायक है। यह मार्ग बूंदी के उत्तरी हिस्सों में तलवास और अंतर्दा के जंगलों से गुजरता है। 2007 के आसपास, एक युवा क्षणस्थायी बाघ, युवराज, द्वारा रणथंभौर से बूंदी की दिशा में जाने का प्रयास किया गया लेकिन अपने गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही सखावडा के पास बच्चू, मूल्या और सक्रमा नाम के तीन शिकारी भाइयों द्वारा उसका शिकार कर दिया गया। अगस्त 2013 में, एक और युवा क्षणस्थायी बाघ, T-62 कि मौजूदगी को तलवास के पास कैमरा ट्रैप द्वारा स्थापित किया गया था। अटकलें यह है कि बाघ रामगढ़-विषधारी वन्यजीव अभयारण्य में पशुधन शिकार पर 2015 की शुरुआत तक रहा और फिर रणथंभौर की दिशा में वापस यात्रा किया।

2017 में भी  एक बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकल कर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। इसके बाद भी यहाँ 2 बाघों की उपस्थिति दर्ज हुई जिनमें से एक युवा नर T-115 चम्बल के किनारे व दूसरा बाघ T-110 जो कि पहले भी यहाँ अपना इलाका बना चुका है।

बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकलकर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

बाघों द्वारा इस पारंपरिक मार्ग के उपयोग को देखते हुए, जब रणथंभोर में बाघों कि आबादी बड़ी तो बाघ विशेषज्ञ वाल्मीक थापर और वर्तमान प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन सेना प्रमुख) डॉ जी.वी रेड्डी ने रामगढ़ विषधारी अभयारण्य को रणथंभोर के तीसरे डिवीजन के रूप में विकसित करने कि परियोजना पर विचार किया। जिसका प्रस्ताव वाई के साहू के निर्देशन में धर्मेन्द्र खांडल ने तैयार किया।

रणथंभोर के बफर एरिया को, जो कि इन्दरगढ़ के वनों से लेकर रामगढ़ अभ्यारण्य तक को पहले टाइगर रिजर्व के खंड के रूप विकसित करने पर बल दिया गया। प्रस्तावित किया गया कि पूर्ण रूप से विकसित होने के पश्चात रामगढ़ को स्वतंत्र टाइगर रिजर्व घोषित किया जाए। इस प्रस्ताव के पीछे का तर्क था कि रणथंभोर के हिस्सा होने पर विभाग द्वारा संचालित रणथंभौर बाघ संरक्षण फाउंडेशन (RTCF) कि धनराशि को रामगढ़ के विकास के लिए उपयोग किया जा सकेगा।

रामगढ़ का रणथंभोर के तीसरे खंड के रूप में विकसित होने से, डॉ धर्मेन्द्र खांडल के अनुसार, सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बाघों के स्थानांतरण में आने वाली वैधानिक अड़चनें समाप्त हो जाएंगी। आमतौर पर बाघों को एक रिजर्व से दूसरे तक पहुंचाने में कई वैधानिक समस्याएं आती हैं जैसे कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा स्वीकृति लेना आदि। रणथंभोर का हिस्सा होने से बाघों को आसानी से बिना किसी विलंब के बाघों कि बढ़ती आबादी को रामगढ़ स्थानांतरित किया जा सकेगा।

आज रामगढ़ पुन: अपने गौरवशाली अतीत की ओर अग्रसर हो रहा है। NTCA द्वारा यहाँ रणथम्भौर से 2 बाघों को पुनर्वासित करने की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। शिफ्टिंग के प्रथम चरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए यहाँ सुरक्षा की दृष्टी से वन्यजीव विभाग ने अतिरिक्त वनकर्मियों को तैनात करने के साथ ही जिन विचरण मार्गो से पूर्व में ‘युवराज’ नाम का बाघ, T-62, T-91 रणथम्भौर से निकलकर रामगढ़ तक पहुंचे थे, को भी दुरुस्त करने का कार्य किया गया है।वन्यजीव संरक्षण में वर्षों से प्रयासरत बूंदी जिले के विट्ठल सनाढ्य,  पृथ्वी सिंह राजावत, ओम प्रकाश “कुकी” आदि जैसे वरिष्ठ संरक्षणवादी, एन.टी.सी.ए. की मन्जूरी के बाद आशा में हैं कि फिर से रामगढ़ में बाघों की दहाड़ गुंजायमान होगी।

 

सन्दर्भ:
  1. Hughes, J. (2013). Animal Kingdoms: Hunting, the Environment, and Power in the Indian Princely States. Permanent Black, Ranikhet.
  2. Crooke, William. (Ed.). (2018). Annals and Antiquities of Rajasthan, v. 3 of 3 by James Tod. eBook, Public domain in the USA. http://www.gutenberg.org/ebooks/57376
  3. Singh, P., Reddy, G.V. (2016). Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present), WWF-India, New Delhi.
  4. Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
  5. Playne, S., Solomon, R.V., Bond, J.V. and Wright, A. (1922). Indian States: A Biographical, Historical and Administrative Survey. Asian Educational Services, New Delhi.
  6. Nawar, K. (2015). Floristic and Ethnobotanical Studies ofRamgarh Vishdhari Wild Life Sanctuary ofBundi (Rajasthan). A THESISSubmitted for The Award of Ph.D. Degreein The Faculty of Science ofUNIVERSITY OF KOTA, KOTA., pg. 64.

 

 

 

अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली, थार रेगिस्तान को उत्तरी राजस्थान तक सीमित रखे और विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है। इसके 800 किलोमीटर के विस्तार क्षेत्र में 20 वन्यजीव अभयारण्य समाये हुए हैं, आइए इसकी विविधता कि एक छोटी यात्रा पर चलते है…

संसार की सबसे प्राचीनतम पर्वत श्रखलाओ में से एक अरावली, भारत के चार राज्यों गुजरात, राजस्थान, हरियाणा एवं  दिल्ली तक प्रसारित है। अरावली का अधिकतम विस्तार राजस्थान में ही है। तो इसके प्राकृतिक वैभव को जानने के लिए, आइये चलते है दक्षिणी राजस्थान के मामेर से उत्तर दिशा के आमेर तक।

मामेर, गुजरात राज्य की उत्तरी सीमा के पास बसे धार्मिक नगरों खेड़ब्रम्हा एवं अम्बाजी के पास स्थित है। यहाँ अरावली की वन सम्पदा देखते ही बनती है। प्रसिद्ध फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य यहाँ से शुरू होकर उत्तर दिशा तक विस्तारित है। तो वहीँ मामेर की पश्चिमी दिशा की ओर से माउन्ट आबू अभयारण्य पहुंचा जा सकता है, जो राजस्थान का एकमात्र “हिल स्टेशन” है। फुलवारी, अरावली का एक मात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ धोकडा यानि एनोजीसस पेंडुला (Anogeissus pendula)  प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता। अभयारण्यों में यही अकेला ऐसा अभयारण्य है जहाँ राजस्थान के सुन्दर बांस वन पाए जाते हैं।

अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़ (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इस क्षेत्र में आगे चलते है तो रास्ते में वाकल नदी आती है, यह नदी कोटड़ा के बाद गुजरात में प्रवेश कर साबरमती से मिल जाती है। वाकल नदी को पार कर डेढ़मारिया व लादन वनखंडो के सघन वनों को देखते हुए रामकुंडा पंहुचा जा सकता है। यहाँ एक सूंदर मंदिर एवं एक झरना भी है जो वर्षा ऋतु में दर्शनीय हो जाता है। यहीं एक कुंड में संरक्षित बड़ी-बड़ी मछलिया भी देखने को मिलती है।

इसी क्षेत्र में पानरवा नामक स्थान के पास सोमघाटा स्थित है जिस से होकर किसी समय में अंग्रेज़ रेजीडेंट, खैरवाड़ा, बावलवाड़ा होकर पानरवा के विश्राम स्थल में ठहरकर कोटड़ा छावनी पहुंचते थे। पानरवा से मानपुर होकर कोल्यारी के रास्ते कमलनाथ के पास से झाड़ोल पंहुचा जा सकता है। यह क्षेत्र “भोमट” के नाम से जाना जाता है। झाड़ोल के बहुत पास का क्षेत्र ” झालावाड़ ” कहलाता है। अरावली के इस क्षेत्र में चट्टानों पर केले की वन्य प्रजाति (Ensete superbum) उगती है। झाड़ोल के पास स्थित मादडी नामक गांव में राज्य का सबसे विशाल बरगद का पेड़ स्थित है तथा यहीं मादडी वनखंड में राज्य का सबसे बड़ा ” बॉहिनिया  वेहलाई ” (Bauhinia vahlii) कुञ्ज भी विध्यमान है।

उत्तर की तरफ बढ़ने पर जूड़ा, देवला, गोगुंदा आदि गांव आते हैं। फुलवारी की तरह, यहां भी मिश्रित सघन वन पाए जाते हैं तथा इस क्षेत्र में अरावली की पहाड़ियों पर मिट्टी की परत उपस्थित होने के कारण उत्तर व मध्य अरावली के मुकाबले यहाँ अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के “नाल वन” जो दो सामानांतर पर्वत श्रंखला के बीच नमी वाले क्षेत्र में बनते हैं दर्शनीय होते हैं। नाल सांडोल, केवड़ा की नाल, खोखरिया की नाल, फुलवारी की नाल, सरली की नाल, गुजरी की नाल आदि इस क्षेत्र की प्रसिद्ध नाल हैं। जिनके “रिपेरियन वन” (नदी या नालों के किनारे के वन) सदाबहार प्रजातियों जैसे आम, Syzygium heyneanum (जंगली जामुन), चमेली, मोगरा, लता शीशम, Toona ciliata, salix, Ficus racemosa, Ficus hispida, Hiptage benghalensis (अमेती), कंदीय पौधे, ऑर्किड, फर्न, ब्रयोफिट्स आदि से भरे रहते हैं।

अरावली, विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

अरावली के दक्षिणी भाग में Flying squirrel, Three-striped palm squirrel, Green whip snake, Laudankia vine snake, Forsten’s cat snake, Black headed snake, Slender racer, Red spurfowl, Grey jungle fowl (जंगली मुर्गा), Red whiskered bubul, Scimitar babbler (माऊंट आबू), White throated babbler आदि जैसे विशिष्ट प्राणी निवास करते है। राज्य की सबसे बड़ी मकड़ी “जायन्ट वुड स्पाइडर” यहाँ फुलवारी, कमलनाथ, कुम्भलगढ़ व सीतामाता में देखने को मिलती है तथा राज्य का सबसे बड़ा शलभ “मून मॉथ ” वर्षा में यहाँ जगह-जगह देखने को मिलता है। कभी बार्किंग डीयर भी यहाँ पाए जाते थे। सज्जनगढ़ व इसके आसपास भारत की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” भी देखने को मिलती है।

देवला के बहुत पास पिंडवाडा रोड पर सेई नामक बाँध पड़ता है, जिसे “इम्पोटेंड बर्ड एरिया” होने का गौरव प्राप्त है। राजस्थान के 31 मान्य आई.बी.ए में से 12 स्थान; जयसमंद झील व अभयारण्य, कुंभलगढ़, माऊंट आबू, फुलवारी, सरेसी बाँध, सेई बाँध, उदयपुर झील संकुल एवं बाघदड़ा आदि, दक्षिण राजस्थान में अरावली क्षेत्र व उसके आसपास विध्यमान हैं।

आइये देश के सागवान वनों की उत्तर व पश्चिम की अंतिम सीमा, सागेटी, चित्रवास व रीछवाडा की ओर बढ़ते हैं। इस क्षेत्र से पश्चिम में जाने पर पाली जिले की सीमा आ जाती है। यहाँ सुमेरपुर से होकर सादडी, घाणेराव आदि जगह का भू – भाग “गोडवाड़” के नाम से जाना जाता है। गोडवाड़  में अरावली व थार का मिलन होने से एक मेगा इकोटोन बनता है जो अरावली के पश्चिम ढाल से समान्तर आगे बढ़ता चलता है।

कुंभलगढ़ अभयारण्य, सागवान वितरण क्षेत्र के अंतिम बिंदु से प्रारम्भ होता है जो देसूरी की नाल को लांघते ही रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य के जंगलों से मिल जाता है। इस क्षेत्र में जरगा व कुम्भलगढ़ के ऊंचे पर्वत शिखर देखने को मिलते हैं। जरगा, माउंट आबू के बाद सबसे ऊंचा स्थल है। इस क्षेत्र की आबोहवा गर्मी में सुहानी बनी रहती है। गोगुन्दा व आसपास के क्षेत्र में गर्मी की रातें काफी शीतल व सुहावनी रहती है। इस क्षेत्र में दीवारों, चट्टानों व वृक्षों पर लाइकेन मिलती हैं। जरगा में नया जरगा नामक स्थान पश्चिमी ढाल पर व जूना जरगा पूर्वी ढाल पर दर्शनीय मंदिर है एवं पवित्र वृक्ष कुज भी है। कुंभलगढ़ व जरगा में ऊंचाई के कारण अनेकों विशिष्ट पौधे पाए जाते हैं। यहाँ Toona ciliate, Salix, Salix tetrandra, Trema orientalis, Trema politoria, Ceasalpinia decapetala, Sauromatum pedatum आदि देखने को मिलते हैं। जरगा पहाड़ियों को पूर्वी बनास का उद्गम स्थल माना जाता है। जरगा के आसपास बनास के किनारे विशिष्ट फर्नो का अच्छा जमाव देखा जाता है। वेरो का मठ के आस पास मार्केंशिआ नामक ब्रायोफाइट देखा गया है। कुंभलगढ़ में ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के अनेकों स्थान है तथा कुछ स्थान जैसे कुंभलगढ़ किला, रणकपुर मंदिर , मुछाला महावीर, पशुराम महादेव आदि मुख्य दर्शनीय स्थान है।

आगे चलते है रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य की ओर। इतिहासकार कर्नल टॉड के नाम से जुडी रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य वन्यजीवों से भरपूर है। यहाँ आते-आते वन शुष्क पर्णपाती हो जाते है तथा पहाड़ पथरीले नजर आते है। यहाँ धोकड़ की क्लाइमैक्स आबादी को देखा जा सकता है। यह अभयारण्य ग्रे जंगल फ़ाउल की उतरी वितरण सीमा का अंतिम छोर है।

उतर दिशा में आगे बढ़ने पर राजसमन्द एवं अजमेर के बीच पहाड़ियां शुष्क होने लगती है। धोकड़े के जंगलो में डांसर व थूर का मिश्रण साफ़ दीखता है और सघनता विरलता में बदल जाती है। इसी भाग में सौखालिया क्षेत्र विद्यमान है जो गोडवान (Great Indian bustard) के लिए विख्यात है। कभी – कभार खड़मोर (Lesser florican) भी यहाँ देखने को मिलता है। यहाँ छितरे हुए गूगल के पेड़ मिलते हैं जो एक रेड डेटा प्रजाति है। इस भाग में आगे बढ़ने पर नाग पहाड़ आता है जो की काफी ऊँचा है, जहाँ कभी सघन वन एवं अच्छी जैव विविधता पायी जाती थी।

हमारी यात्रा के अंतिम पड़ाव में जयपुर के पहाड़ आते हैं और यहीं पर स्थित है, आमेर।  झालाना व नाहरगढ़ अभयारण्य में अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन हैं। कभी यहाँ बाघ तथा अन्य खूंखार प्राणियों की बहुतायत हुआ करती थी। यहाँ White-naped tit और Northern goshawk जैसे विशिष्ट पक्षियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहाँ से पास ही में स्थित है सांभर झील। सांभर झील, घना के बाद दूसरा रामसर स्थल है तथा हर वर्ष बहुत प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं । रामसागर और मानसागर इस क्षेत्र के प्रसिद्ध जलाशय हैं जो जलीय जीव सम्पदा के खजाने हैं। कभी रामगढ भी यहाँ का प्रसिद्ध जलाशय हुआ करता था परन्तु मानवीय हस्तक्षेपों के चलते वह सूख गया।

हम रुकते हैं, अभी आमेर में लेकिन अरावली को तो और आगे जाना है, आगे दिल्ली तक!!

अनोखी भौगोलिक संरचना: रामगढ़ क्रेटर

अनोखी भौगोलिक संरचना: रामगढ़ क्रेटर

क्या आप जाने है राजस्थान में एक क्रेटर है जो एक विशालकाय उल्कापिंड के पृथ्वी से टकराने से बना है, रामगढ़ क्रेटर के नाम से प्रसिद्ध बाराँ जिले की मंगरोल तहसील से 12 किलोमीटर पूर्व दिशा में रामगढ़ गाँव में स्थित इम्पैक्ट क्रेटर होने के साथ यह एक अद्भुत पुरातत्व महत्व का स्थल भी है।इस वर्ष होने वाले 36वें विश्व भूवैज्ञानिक संगोष्ठी में अर्थ इम्पैक्ट डेटाबेस” (EID) द्वारा इसको विश्व का 191वां इम्पैक्ट क्रेटर होने कि मान्यता दिए जाने कि उम्मीद है।

भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (GSI) के अनुसार यह क्रेटर विंध्यानचल श्रृंखला क्षेत्र में एक वृत्ताकार गड्डे के समान है जो विंध्यन उपसमूह के भांडेर समूह का एक अंश है। यह अपने चारों ओर लगभग 200 मीटर ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ पठारी क्षेत्र है जिसकी समुद्र तल से उँचाई 260 मीटर है। इस क्रेटर में चट्टानों व मिट्टी के कटाव से बनी हुई अनेक छोटी नदियां व गड्डे है जो लगभग पूरे वर्ष जल पूरित रहते है। क्रेटर परिक्षेत्र में दो नदियां है। दक्षिण-पश्चिम मे पार्वती नदी तथा दक्षिण–पूर्व मे बारबती नदी है। यह दोनों नदियां दक्षिण से उत्तर की ओर बहती हुई चंबल नदी मे मिलती है।

रामगढ क्रेटर मानचित्र

रामगढ क्रेटर का दृश्य

कैसे हुआ रामगढ़ क्रेटर का निर्माण?

भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के सदस्य प्रोफेसर विनोद अग्रवाल बताते है कि रामगढ़ क्रेटर का निर्माण कुछ अरब वर्ष पूर्व उस समय हुआ जब लगभग 3 किमी. व्यास का एक विशाल उल्का पिंड यहां गिरा, जिससे यहाँ करीब 3.2 किलोमीटर व्यास का एक विशाल गड्ढा बन गया। इसी प्रकार का क्रेटर भारत मे रामगढ़ के अतिरिक्त महाराष्ट्र के बुलढाना जिले मे लोनार झील के रूप में जिसका व्यास1.8 किलोमीटर है तथा मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में ढाला के नाम से दृष्टिगत है जिसका व्यास 14 किलोमीटर है।

क्रेटर में उल्का पिंड के साक्ष्य:

प्रो. विनोद अग्रवाल (2018) के अनुसार रामगढ़ क्रेटर के केंद्र मे एक उभरा हुआ क्षेत्र है जो उल्कीय प्रभाव का ज्वलंत सैद्धांतिक भौगोलिक प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करता है। इसे समझने के लिए भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभागके भू-वैज्ञानिक ओर समन्वयक प्रो. पुष्पेन्द्र सिंह राणावत (2018) ने बताया की जब किसी सतह पर किसी वस्तु का आपतन होता है तब सतह द्वारा समान किन्तु विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया संपन्न होती है। इसी प्रकार रामगढ़ संरचना के केंद्र में उभरा हुआ भाग इसी उल्कापिंड के प्रति धरातलीय सतह की प्रतिक्रिया का परिणाम है। इस क्रेटर में काँच युक्त पत्थर पाये जाते है जो उल्का पिंड के प्रहार से उत्पन्न होने वाले अति उच्च-तापमान के कारण रेत केद्रवित होकर शीशे में परिवर्तित होने से निर्मित हुए। इसी के साथ इस भाग मे लोह, निकल व कोबाल्ट की साधारण से अधिक मात्रा भी पाई जाती है, जो इस स्थान को विशिष्ट बनाती है।

रामगढ क्रेटर का बाहरी दृश्य

रामगढ़ क्रेटर की खोज का इतिहास:

सर्वप्रथम भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के सदस्य फ़्रेडरिक रिचर्ड मलेट ने वर्ष 1869 में रामगढ़ क्रेटर को देखा। 1882-83 मे भारतीय खोजकर्ता व नक्शाकार राय बहादुर किशन सिंह राणाने भू-वैज्ञानिक दृष्टि से इसका मानचित्र तैयार किया। 1960 मे जिओलोजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन ने इसे “ क्रेटर ”की संज्ञा दी। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा वर्तमान मे इस क्रेटर को रामगढ़ संरचना /रामगढ़ मेटेओरिटिक संरचना /रामगढ़ वलय संरचना /रामगढ़ डोम संरचना /रामगढ़ अस्ट्रोब्लेम आदि नामसे संबोधित किया जाता है।

रामगढ़ रिंग संरचना को क्रेटर कि संज्ञा मिलने से पूर्व और इसके खोज के बाद काफी लंबे समय तक विवाद का विषय बना रहा। इसके निर्माण के पीछे कई अपार्थिव (extra-terrestrial) और पार्थिव (intra-terrestrial) बलों के होने के कयास लगाए गए जिनमें किम्बर्लाइट, कार्बोनाइट या डायपिर केइन्ट्रूशन (अधिक गतिशील और विकृत सामग्री भंगुर या नाजुक चट्टानों में बल पूर्वक प्रवेश कर जाती है) और संबंधित अवतलन (subsidence), टेक्टोनिज्म, चीनी मिट्टी से समृद्ध शीस्ट (kaolin-rich shales) का केन्द्रगामी प्रवाह, मैग्माटिज्म और टेक्टोनिज्म का संयोजन, उल्का पिंड का प्रभाव (impact crater), आदि शामिल हैं।

संभवत या क्रॉफर्ड (1972) पहले व्यक्ति थे जिन्होंने को लुवियम के केंद्र में टूटे हुए शंकु जैसी संरचना की उपस्थिति को दर्ज करते हुए रामगढ़ रिंग संरचना के क्रेटर होने का सुझाव दिया। रक्षित (1973) ने इसके उत्पत्ति के लिए कई संभावित सिद्धांतों पर चर्चा की। (i) गहराई पर इन्ट्रूसिव रॉक्स की उपस्थिति, (ii) ज्वालामुखी क्रेटर, (iii) फोल्डिंग / फॉल्टिंग, (iv) सबसिडेंस, (v) गहराई पर डायपरिक इन्ट्रूशन और (vi) उल्कापिंड प्रभाव सिद्धांत। अनुकूल प्रमाणों के अभाव में उन्होंने स्वयं रामगढ़ संरचना की उत्पत्ति के लिए पहले पाँच सिद्धांतों की अवहेलना की; और यह माना कि रामगढ़ संरचना एक उल्कापिंड प्रभाव से बना ‘इम्पैक्ट क्रेटर’ के समान है।

2018 में जीएसआई, इंटक और मोहन लाल सुखाड़िया विश्व विद्यालय कि एक टीम, प्रोफेसर विनोद अग्रवाल और भूगर्भ विज्ञानी पुष्पेन्द्र सिंह राणावत कि अगुवाई में रामगढ़ के इम्पैक्ट क्रेटर होने के साक्ष्य एकत्रित किए हैं। लेकिन फिर भी “द अर्थ इम्पैक्ट डेटाबेस” (EID) से रामगढ़ के इम्पैक्ट क्रेटर होने कि पुष्टि फिलहाल लंबित है जिसको 36वें विश्व भूवैज्ञानिक संगोष्ठी (36th International Geological Congress, 2020) में ईआईडी द्वारा मान्यता दिए जाने कि उम्मीद है। कनाडा के न्यूब्रुंस्विक विश्व-विद्यालय द्वारा अनुरक्षित “द अर्थ इम्पैक्ट डेटाबेस” (EID) का उपयोग दुनिया के क्रेटरों की पुष्टि के लिए आधिकारिक तौर पर किया जाता है।

क्रेटर में स्थित पुरा सम्पदा:

रामगढ़ गाव के बुजुर्गों के अनुसार रामगढ़ क्रेटर की पहाड़ी पर रामगढ़ का प्राचीन किला स्थित है जो वर्तमान में पुरातत्व विभाग के रख रखाओ के अभाव मे यह अपना अस्तित्व लगभग खो चुका है । रामगढ़ किला 10वीं शताब्दी में मालवा के नागवंशी राजा मलय वर्मा ने बनवाया। तथा 13वीं शताब्दी मे इस पर खींचियों, गौड़ वंश का आधिपत्य रहा बाद में इस पर बूंदी के हाड़ाओं का वर्चस्व हुआ। फिर पर गना कोटा के आधिपत्य में चला गया।

रामगढ़ क्रेटर की पहाड़ी पर स्थित एक प्राक्रतिक गुफा मे कृष्णोई माता तथा अन्नपूर्णा देवी का प्राचीन मंदिर है। जिनका निर्माण 16वीं शताब्दी मे कोटा रियासत के झाला जालिम सिंह ने करवाया था। मंदिर तक पहुचने के लिए 750 सिड्डियों है। मंदिर की विशेष बात यह है कि इनमे से कृष्णोई माता को मांस व मदिरा का जबकि अन्नपूर्णा देवी को मिष्ठानों को भोग लगाया जाता है। तथा कार्तिक मास में यहाँ मेले का आयोजन होता है जिसमे हजारों श्रद्धालु आते है।

रामगढ क्रेटर के केंद्र में स्थित प्राचीन मंदिर

क्रेटर के मध्य भाग मे पुष्कर सरोवर, माला की तलाई, बड़ा व नोलखा तालाब स्थित है। जिसका आधिकांश भाग कमल पुष्पो से आच्छादित रहता है। पुष्कर तालाब के किनारे पर भंडदेवरा का प्राचीन शिव मंदिर है, वर्तमान मे इसका अधिकांश भाग क्षतिग्रस्त हो गया है। इस मंदिर के बाहर स्थित शिलापट्ट पर लिखे लेख के अनुसार पूर्व मध्य कालीन वास्तुकला का प्रतीक व नागर शैली में निर्मित यह उत्क्रस्ट व कलात्मक पूर्वा भिमुख पंचायतन मंदिर स्थापत्य व शिल्पकला की अमूल्य धरोवर है यहाँ पर मिले शिला लेखो के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 10वीं शताब्दी में मालवा के नागवंशी राजा मलय वर्मा ने अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के पश्चात करवाया था। एवं कालांतर मे मेड वंशीय क्षत्रिय राजा त्रिश वर्मा ने 1162 ई. मे इसका जीर्णोद्धार करवाया । इस देवालय मे स्थित गर्भग्रह, सभामंडप, अंतराल शिखर व जागती है। गर्भगृह में में प्राचीन शिव लिंग तथा सभामंडप मे आठ विशाल कलात्मक स्तम्भ है। इन स्तम्भों पर यक्ष, किन्नर, कीचक, विधाचर, देवी–देवता, अप्सराओं व मिथुन आकृतियाँ उत्कीर्णित है जिनके कारण इन मंदिरो को “भंड देवरा”कहा गया। इसी प्रकार की विशिष्ट आकृतियाँ मध्यप्रदेश के छत्रपुर जिले में स्थित हिन्दू व जैन मंदिरो मे उपस्थित है, जिन्हे “खजुराहो ” कहा जाता है। इस आधार पर भंड देवरा को“ राजस्थान का मिनी खजुराहो ” कहा जाता है। प्राचीन समय मे यहाँ 108 मंदिरो का समूह हुआ करता था किन्तु वर्तमान मे केवल शिव व पार्वती मंदिर ही शेष बचे हुये है जिनके जीर्णोद्धार का कार्य वर्तमान मे पुरातत्व विभाग के अन्तर्गत किया जा रहा है।

रामगढ क्रेटर से दो छोटी नदियां निकलती है

क्रेटर की पहाड़ी पर एक प्राचीन ब्रम्ह मंदिर है। इस मदिर के समीप ही एकब्रम्ह कुंड है कहा जाता है की पहाड़ी के ऊपर होने पर भी इस कुंड का जल कभी नहीं सुकता तथा इस कुंड मे अनेक श्रद्धालु श्रद्धा की डुबकी लगाने आते है।

क्रेटर के मध्य भाग मे स्थित तालाब का आधिकांश भाग कमल पुष्पो से आच्छादित रहता है

रामगढ़ क्रेटर की वन व वन्यजीव सम्पदा:

रामगढ़ क्रेटर,वन विभाग बाराँ की किशनगंज रेंज के रामगढ़ ब्लॉक के अन्तर्गत 14.405 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत संरक्षित क्षेत्र है। यह वन खंड उष्ण-कटिबंधीय शुष्क मिश्रित पर्णपाती वनों (tropical dry mixed deciduous) की श्रेणी में आते हैं। पलाश (Butea monosperma) और बेर (Zizyphus jujuba) इस क्षेत्र प्रमुख वनस्पति प्रजातियाँ हैं जो इस संरचना को घनी बनाती हैं। इस क्षेत्र में खैर (Acacia catechu), महुआ (Madhuca indica), आंवला (Emblica officinalis), गुरजन (Lannea coromandelica),धावड़ा (Anogeissus latifolia),सालर (Boswellia serrata),खिरनी (Manilkara hexandra), करंज (Pongamia pinnata),बहेड़ा (Terminalia bellirica), अर्जुन (Terminalia arjuna), आम (Mangifera indica), बरगद (Ficus religiosa) व बांस (Dendrocalamus strictus) भी अच्छी तादाद में पाए जाते है। इनके अतिरिक्त अनेक औषधीय महत्व के पादप भी यहाँ पाये जाते है।

रामगढ़ क्रेटर में दशकों पूर्व अनेक बड़े शिकारी जीवों जैसे–शेर, बाघ, बघेरा,भेड़िया आदि का अस्तित्व भी था। वर्तमान में अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेपों के कारण ये सभी वन्यजीव यहाँ की खाद्य श्रृंखला से लुप्त हो गए। किन्तु आज भी यह स्थान विभिन्न वन्य प्राणियों की आश्रय स्थली है। जिनमें लकड़बग्घा, सियार, जंगली बिल्ली, स्माल इंडियन सीवेट, लोमड़ी, वाइल्ड बोर, चिंकारा और चीतल, नेवला, सेही व खरहा,बंदर इत्यादि मुख्य वनचर है। क्रेटर के समीप उपस्थित पार्वती नदी मगरमच्छों एवं अन्य जलीय जीवों का उपयुक्त प्राकृतवास है।

क्रेटर से लगभग 50-60 किलोमीटर पूर्व दिशा में मध्यप्रदेश की सीमा में कुनो वन्य जीव अभयारण्य है जहाँ के वन्यजीव भी क्रेटर मे विचरण करते हुये देखे जाते है।

पुष्कर सरोवर

क्रेटर के मध्य में स्थित पुष्कर सरोवर तालाब वर्षभर जलपूरित रहता है। इसमे प्रतिवर्ष अनेक प्रवासी पक्षियो को विचरण करते देखा जा सकता है।इस तालाब में पक्षियों की 200 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है। शीतऋतु मे करीब 80 प्रजाति के पक्षी भोजन, आवास व प्रजनन के लिए प्रवास पर पहुंचते हैं नॉर्थर्न पिनटेल, नॉर्थर्न सावलर, कॉमन पोचार्ड, रेड क्रेस्टेड पोचार्ड, फेरुजिनस पोचार्ड, कॉमन टील,गडवाल, लिटिल ग्रीब, रूडी शेलडक, कॉमन कूट, पेंटेड स्टार्क, जलमुर्गी, ब्लैक टेल्ड गोडविट, रिवर टर्न आदि प्रजातियां देखी जाती हैं। विभिन्न सरीसृप जेसे कोबरा,अजगर,रेट स्नेक,चेकर कील बेक,बोआ आदि यहाँ पाये जाते है।

राजपूताना मरुभूमि का स्वर्ग: माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य

राजपूताना मरुभूमि का स्वर्ग: माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य

माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक, अरावली पर गुरु शिखर चोटी सहित एक बड़े पठार को आच्छादित करता हुआ रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के सबसे अधिक देखे जाने वाले हिल स्टेशनों में से एक है…

राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित “आबू क्षेत्र” की जैव विविधता की विश्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग ही पहचान है। सन् 1960 में आबू क्षेत्र के लगभग 114 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को अभयारण्य के रूप में चिह्नित् किया गया था। आबू के नगरीय क्षेत्र की बढ़ती हुई मानव आबादी तथा पर्यटक संख्या की चुनौती से निपटने के लिए सन् 2008 में नये क्षेत्रों को भी आधिकारिक रूप से अभयारण्य में शामिल किया गया तथा ईको-सेन्सिटिव जोन (पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र) की अधिसूचना जारी की गई। वर्तमान में माउण्ट आबू वन्यजीव अभयारण्य का कुल क्षेत्रफल 326 वर्ग कि.मी. के लगभग है। आगामी कुछ वर्षों में मुख्य अभयारण्य क्षेत्र को सुरक्षित करने की दृष्टि से आबू पर्वत के चारों ओर के तलहटी क्षेत्र के कुछ भाग को हरित पट्टिका के रूप में विकसित किया जाने का लक्ष्य भी है।

आबू पर्वत की स्थलाकृति

आबू पर्वत 24°31″-24°43″ उत्तरी अक्षांश व 72°38″-72°53″ पूर्वी देशांतर के मध्य, अरावली के दक्षिण-पश्चिमी भाग में मध्य भारत के उच्चतम शिखर (गुरु शिखर, 1,722 मी.) युक्त पृथक पहाड़ी के रूप में स्थित है। आबू की व्युत्पत्ति संस्कृत व वैदिक नीत अर्बुद अर्थात् उबाल शब्द से हुई है। इसका  उल्लेख बुद्धि प्रदाता पर्वत के रूप में भी किया गया है। समुद्र तल से 1219 मी. पर स्थित यह पर्वत लगभग 19 कि.मी. लम्बाई व 5-8 कि.मी. चौड़ाई वाला मनोरम पठारी विस्तार है।

माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र

आबू पर्वत का इतिहास

विष्णु पुराण में मरुभूमि के रुप में वर्णित अर्बुद प्रदेश अर्थात् अर्बुदांचल या आबू पर्वत (माउण्ट आबू), राजस्थान के हृदय-हार अरावली के दक्षिण-पश्चिम में मुख्य पर्वतमाला से पृथक, मरूधरा में स्वर्ग का आभास देता भू-भाग है। यह देवी-देवताओं एवं ऋषि-मुनियों के पावन व दिव्य चरित्रों से सुवासित, तथा देवासुर संग्राम व् साधु-संतों के कई चमत्कारों के किस्से-कहानियों से भरपूर दिव्य क्षेत्र है। इसे कर्नल जेम्स टॉड ने ‘‘भारत का ओलम्पस” कह कर भी सम्बोधित किया। अनेक सन्दर्भ लेखों में अर्बुदांचल क्षेत्र की पौराणिक व वैज्ञानिक महत्ता का विवरण भी मिलता है। अपनी प्राकृतिक व ऐतिहासिक समृद्धि के लिए विख्यात यह स्थान सभी प्रकृति प्रेमी व जिज्ञासु जनमानस के लिए आकर्षण का केन्द्र है।

सन् 1940 बॉम्बे से छुट्टियां बिताने आए तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी प्रकृतिविद् चार्ल्स मेक्कान ने अपने लेख में अर्बुदांचल का ‘‘मरुभूमि का शाद्वल प्रदेश” के रूप में उल्लेख करते हुए इसकी महत्वता का विवरण इस प्रकार किया “प्रकृतिविद् हेतु यह भूमि अनेक प्रकार के पेङ-पौधों व जीव-जंतुओं से समृद्ध है, पुरातत्ववेत्ताओं के लिए यह क्षेत्र अनेक शोध विषयों का स्रोत है, फोटोग्राफर व कलाकारों के लिए मनोरम स्थल है, बाहर से आने वाले पर्वतारोहियों हेतु अनेक सपाट चट्टानें तथा चट्टानों की कन्दराऐं है।

सिरोही राज्य के गजट (1906) में मेजर के. डी. इरस्कीन ने आबू पर्वत की प्राकृतिक स्वरूप एवं भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन करते हुए यहाँ लिखा की “इसकी पश्चिम व उत्तर दिशाएं अत्यन्त ढलाव युक्त है तथा पूर्वी व दक्षिण दिशाओं के बाहरी छोर में गहरी घाटियों युक्त पर्वत-स्कंध को देखा जा सकता है। कोई भी यात्री ऊपर की और चढते हुए इसकी मनमोहक छँटाओ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, विशेषकर आबू पर्वत की चोटियों का निर्माण करती हुई सायनिटिक पत्थरों के विशालकाय शिलाखण्ड”

टोल्मी के भारतीय मानचित्र (सन् 150) me इस क्षेत्र को ‘‘एपोकोपी माउण्ट”अर्थात् पृथक पहाङी के रूप में दर्शाया। मेगस्थनीज ने भी 300 ई.पू. आबू पर्वत का उल्लेख किया जिसका उद्धरण प्लीनी (सन् 23-79) के प्राकृतिक इतिहास में ‘‘मोन्स केपिटेलिया” अर्थात् मृत्यु दंड का पर्वत के रूप में किया गया।

आबू पर्वत का मनोरम दृश्य

आबू पर्वत की जलवायु

आबू पर्वत पर तुलनात्मक रूप से तलहटी की अपेक्षा ऊँचाई वाले क्षेत्र में मौसम ठण्डा व मनभावन रहता है। यहाँ औसत वार्षिक तापमान 20℃ तथा सबसे शुष्क माह का औसत तापमान 26℃ रहता है। ग्रीष्म ऋतु में तापमान 24℃ से 34℃ के मध्य रहता है, मई माह में औसतन 31℃ तापमान देखा गया हैं जब कि शीत ऋतु में तापमान 18℃ से -2℃ रहता है, जनवरी माह में न्यूनतम तापमान 9℃ रहता है। वर्षाकाल जून के तीसरे सप्ताह से सितम्बर माह के अन्त तक रहता है। सामान्यतः अक्तूबर से मई माह तक मौसम सूखा रहता है। आबू पर्वत पर औसत वर्षा 1,639 मि.मी. होती है। यहाँ सबसे अधिकतम वर्षा सन् 1944 में 4,017 मि.मी तथा सबसे न्यूनतम वर्षा सन् 1939 में मात्र 502 मि.मी. रिकार्ड की गयी। वर्ष 1898, 1900-02 व 1938-39 में इस पर्वतीय क्षेत्र को गम्भीर अकाल का भी सामना करना पड़ा। यहाँ में औसतन 8.6 कि.मी. प्रति घण्टे की गति से हवाएँ चलती है जिसकी अधिकतम गति जून-जुलाई माह में 12.8 कि.मी. प्रति घण्टा हो जाती है। शीत ऋतु में हवाएँ सामान्यतः शांत रहती है।

आबू पर्वत का पठारी क्षेत्र

आबू पर्वत के वन

आबू पर्वत अपनी प्राकृतिक, भौगोलिक स्थलाकृति एवं जलवायु विशिष्टताओं के कारण राजस्थान में वनस्पतिक विविधता से समृद्ध क्षेत्र है। आबू  पर्वत के वनों को सन 1936 में एच जी  चैम्पियन द्वारा दक्षिण उप-उष्णकटीबन्धीय नम पहाड़ी वन समूह (7 अ ) में बॉम्बे उप-उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (C 3) में वर्गीकृत किया गया। तत्पश्चात अनेक विशेषज्ञों द्वारा इसके वनों  का विस्तृत अध्ययन किया गया। आई. यू. सी. एन. के आवासीय वर्गीकरण (संस्करण 3.1) के अनुसार आबू पर्वत पर मुख्यतः आठ प्रकार के आवासों को देखा जा सकता है। इनमें काष्ठ वन, झाड़ वन, नम भूमि/जलीय, पथरीली भूमि, कंदराएं व भूमिगत आवास, कृत्रिम स्थलीय, कृत्रिम जलीय, पुरःस्थापित वनस्पति सम्मिलित है।

आबू क्षेत्र में पाए जाने वाला सिल्वर फ़र्न

यहाँ गहरी घाटियों तथा सघन वनस्पति युक्त ठंडे क्षेत्रों में अर्द्ध सदाबहार वन के खण्ड भी दिखाई देते हैं। शुष्क तथा पूर्णतः वनस्पति रहित व उजड़े क्षेत्रों में कटीले झाड़ वन दिखाई देते हैं। सड़क किनारे छायादार क्षेत्र, नम घास के मैदान, खेत व पोखरों के आस-पास झाड़ियों की अधिकता है। आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग एक हजार वनस्पति प्रजातियां पाई जाती हैं जिनकी 40 प्रतिशत समानता पश्चिमी हिमालयी और 30 प्रतिशत समानता पश्चिमी घाट की वनस्पति प्रजातियों से मिलती है। कुछ मुख्य वनस्पति प्रजातियां जो ध्यानाकर्षण करती है – आर्किड, बकाइन, बिच्छु बूटी, सफेद और गुलाबी गुलाब, करौंदा, चम्पा, चमेली की प्रजातियाँ और सात वर्ष में खिलने वाले नीले फूलों से युक्त कारा बहुतायत में पाये जाते हैं। आम, जामुन, कचनार, ऑक, विलोज और यूकेलिप्ट यहाँ स्थापित प्रजातियों में शामिल है।

यूफोर्बिआ (Euphorbia) की झाड़ियां

आबू पर्वत की जन्तु विविधता

आबू पर्वत के सन्दर्भ में कई लेख संकेत करते हैं कि यहाँ कभी शेर (सन् 1872) और बाघ (1970 के दशक) की उपस्थिति हुआ करती थी। वर्तमान में आबू क्षेत्र में 35 स्तनधारी से अधिक प्रजातियां मिलती है जिनमें तेंदुआ, भालू खाद्य श्रृंखला की उच्चतम प्रजातियां है। सम्पूर्ण आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग 290 पक्षी प्रजातियां है जिनमें हरी मुनिया, सिलेटी मुर्गा, लाल चौखरी, भारतीय हंसियाचोंच-चरखी, सिपाही बुलबुल, ललछौंह-पेट चरखी आदि आकर्षण की  केन्द्र हैं। आबू क्षेत्र में लगभग 40 हर्पेटोफोना की प्रजातियां तथा 50 से अधिक तितली प्रजातियों की उपस्थिति देखी गई है।

ग्रीन मुनिया (Green Avadavat)

आबू पर्वत क्षेत्र की जैवविविधता के संरक्षण में स्थानीय भागीदारी

पर्यटन मानचित्र पर आबू पर्वत की पहचान इसके ऐतिहासिक तथा धार्मिक धरोहर की महत्ता के कारण है। मुख्यतः आबू के पठारी भाग तक सिमित पर्यटन अनेक मायनों में उचित भी है क्योंकी हरे-भरे वन में मानवीय हस्तक्षेप न्यूनतम है। प्राकृतिक पर्यटन की असीमित क्षमताओं से युक्त इस वन्यजीव अभयारण्य का स्थानीय  रोज़गार की सम्भावना व अर्थव्यवस्था में अनुपातिक योगदान यहां की जनता के सहयोग से बढ़ाई जा सकती है। इस हेतु स्थानीय जनता का प्रकृति से जुड़ाव एवं संवर्धन के ज्ञान अत्यावश्यक है। वर्तमान में अनेक जागृत जन समूह वन विभाग के सहयोग में तत्पर रहते हैं, परन्तु संरक्षण के अल्पज्ञान के कारण वे अपना पूर्ण योगदान नहीं दे पाते है। कुछ व्यक्ति स्थानीय वानस्पतिक धरोहर का ज्ञान रखतें हैं परन्तु वन विभाग के अतिरिक्त उनके ज्ञान का लाभ सामान्य जन को नहीं मिल पाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मत्वपूर्ण पक्षी प्रजाति हरी मुनिया के संरक्षण तथा इसके आवासों की सुरक्षा स्थानीय लोगों के कारण से ही संभव हो पायी। लेखकों द्वारा चयनित स्थलों के वैज्ञानिक अधययन के अनुसार सन 2004 में संख्या चार सौ से भी कम थी जो सन 2020 में दो हज़ार से अधिक हो गयी है। इस पक्षी की महत्वता व स्थानीय जनता में इसके प्रति बढती लोकप्रियता के कारण ज़िला प्रशासन ने इसे सन 2019 के लोकसभा चुनाव में ज़िले का शुभंकर भी बनाया था। अब समय है कि प्रशासन व वन विभाग एक सुनियोजित प्रकार से प्राकृतिक पर्यटन की दिशा में कार्य कर क्षेत्र की सतत विकास की कल्पना को मूर्तरूप दे। इस विकास को पूर्णतः नियंत्रित रूप से विकसित किया जाये जिससे की भारत के प्रकृति पुरुष के सिद्धांत को चरितार्थ कर स्थानीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में अपना योगदान दिया जा सके।

लेखक:

Dr. Sarita Mehra & Dr. Satya Prakash Mehra (1 & 3) (L to R): Drs. Mehra Couple is the Conservation Biologist involved in the conservation programs in Rajasthan. Both Drs. Mehra restarted their activities at Abu in 2002 which continued with their extensive explorations from 2003-2007 to produce a document on behalf of WWF-India.

Mr. Balaji Kari (2): He is IFS and the present DCF of Mount Abu WLS. He has undertaken several conservation and management measures to overcome the challenges of the Mt Abu WLS. He is actively engaged in the conservation planning of the flagship species along with revising the biodiversity documentation of the Abu Hills.

Mrs. Preeti Sharma (4): Academician by profession, she is involved in the writing of the popular articles on the aspects of eco-cultural aspects and the conservation issues for the common mass. She is compiling the references from the epics and mythological documents which directly deal with the conservation of biodiversity and environmental protection in Indian, in general, and Rajasthan, in specific. Presently, she is Assoc. Professor (Sanskrit) at Shree Vardhman Girls College, Beawar.

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य: ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक धरोहर

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य: ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक धरोहर

राजस्थान में विंध्यन पर्वतमाला कि वन पट्टिका के अंतिम वन खंड के रूप में स्थित शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य ऐतिहासिक घटनाओं और प्राकृतिक सौन्दर्य को संजोये बारां जिले  का एक मात्र और राजस्थान का एक अनन्वेषित अभयारण्य है।

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य “वराह नगरी” अर्थात् बारां जिले की अटरू तहसील के शेरगढ़ क़स्बे कि परिधि पर स्थित 98.8 वर्ग किमी. का वन क्षेत्र है; जो राजस्थान की वन पट्टिका का अंतिम विशालतम वन खंड है तथा यह पारिस्थिकीय दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस वन भूमि की भौगोलिक स्थिति, सदावाही परवन नदी, बरसाती नाले और जैव विविधता अनायास ही आकर्षित करते है। इस क्षेत्र की जैव विविधता को देखते हुए 30 जुलाई 1983 को इसे अभयारण्य घोषित किया गया। इसी सन्दर्भ में 25 मई 1992 को राज्य सरकार द्वारा पुन: संशोधित अधिसूचना जारी की गयी जिसमें इसके वन क्षेत्र का विस्तार किया गया। शेरगढ़ गाँव के ऐतिहासिक महत्तव के मद्देनज़र अभयारण्य का नाम भी शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य रखा गया।

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य विंध्यन पर्वतमाला और उसकी एक अद्भुत घाटी पर स्थित है जिसकी भौगोलिक संरचना घोड़े की नाल के समान दिखाई देती है। इसकी सीमा उत्तरी सिरे से प्रारंभ होकर अभयारण्य के मध्य भाग में समाप्त होती है; जबकि दक्षिण में परवन का ढाल दिखाई देता है। इस प्रकार बनी हुई घाटी के दो भाग है। प्रथम आधा भाग मिट्टी के बने अन्चोली बांध में डूबा हुआ है और दूसरे आधे भाग में सुरपा गाँव के लोगों के खेत है। खास बात है कि इस अभयारण्य की परिधि के अन्दर एक भी गाँव का निवास नहीं है। जिसके चलते जंगल में वन्य जीव बेखौफ होकर विचरण करते है।

अभयारण्य का मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

अभयारण्य का मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

शेरगढ़ किला

हाड़ौती प्रान्त में स्थित बारां जिला सुरमय पहाड़ियों और घाटियों की भूमि है जहाँ के पुराने खंडहर ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे हैं। बारां का इतिहास 14वीं शताब्दी के उस समय का बोध कराता है जब इस क्षेत्र पर सोलंकी राजपूतों का शासन था। 1949 में राजस्थान का पुनर्गठन होने पर बारां, कोटा का प्रमुख मंडल बन गया। और 1991 में राजस्थान राज्य का स्थापित जिला घोषित हुआ। यह जिला अपनी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों, राम-सीता मंदिरों, जीवंत आदिवासी मेलों, त्योहारों और शक्तिशाली किलों की प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है।

बारां से लगभग 65 किमी. दूर शेरगढ़ गाँव परवन नदी के किनारे स्थित है, जिसे शासकों के लिए रणनीति का महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय स्थान माना जाता था। वर्षों तक विभिन्न राजवंशों द्वारा शासित शेरगढ़ किले के एक बुर्ज के आलय की नई तिबारी में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में लिखे हुए एक शिलालेख द्वारा प्रमाणित होता है कि 790 ईस्वी में यहाँ सामंत देवदत्त का शासन रहा, जिन्होंने इस स्थान पर कई जैन व ब्राह्मण मंदिरों तथा बौद्ध मंदिर एवं मठ का निर्माण करवाया। 8वीं शताब्दी में यह स्थान कृषि, व्यापारिक, आर्थिकदृष्टि से संपन्न एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था अतःराजा कोषवर्धन ने इसका नाम “कोषवर्धनपुर” रखा, जिसका तात्पर्य है: “निरंतर धन में वृद्धि करने वाला”।

बाद में 15वीं शताब्दी में सूरी वंश के मुग़ल शासक शेरशाह ने आक्रमण कर दुर्ग पर आधिपत्य कर लिया तब से इसका नाम शेरगढ़ रखा गया। इतिहास में इसे शेरपुर एवं शेरकोट इत्यादि नाम से भी उच्चारित किया गया है। उसने यहाँ पूर्व-निर्मित मंदिरों, भवनों और इमारतों को ध्वस्त करके नए सिरे से निर्माण करवाया। यहाँ स्थित खंडहरों में आज भी बेगम व नवाब की मेहराबदार झरोखे युक्त हवेलियाँ है, जो मुस्लिम शैली की परिचायक है। शेरशाह ने पूर्व स्थापित गढ़ के बाहर एक ओर किले का निर्माण भी करवाया। वर्तमान में इस किले और आसपास के वन क्षेत्र में रख-रखाव कि कमी के कारण सत्यानाशी (lantana) का लंघन बढ़ता जा रहा है। किले के ऊपर से देखने पर दूर-दूर तक सत्यानाशी कि सदाबहार पुष्पजनक झाड़ियों का आक्रामक फैलाव अन्य वनस्पतियों को पनपने नहीं देता। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ पांच हज़ार पुराने प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है, जो मनुष्य के प्रारंभिक पाषाण युग के माने गए है। पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र में सिन्धु घाटी सभ्यता की उपस्थिति व्यक्त की गई है। (Source: Jain,K.C (1972). Ancient cities and Towns of Rajasthan: A study of Culture and Civilization. Motilal Banarsidass,Delhi)

परवन नदी से शेरगढ़ किले का दृश्य (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

अभयारण्य के अरण्य

प्रशासनिक रूप से यह अभयारण्य बारापाती ‘A’, छोटा डूंगर, बड़ा डूंगर, नहारिया और टीकली नामक वनों के 5 ब्लॉक्स में बंटा हुआ है। इस जंगल में खैर (Acacia catechu), धौंक (Anogeissus pendula), करौंदा (Carrisa congesta) एवं बांस (Dendrocalamus strictus) के घने वितानधारी वृक्ष है। शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट्स, टेरिडोफाइट्स और आवर्तबीजीय पादपों की विभिन्न प्रजातियाँ यहाँ की विविधता का आभास कराती है। यही नहीं यह अभयारण्य कंदील पौधों व लताओं का भंडार है। इस जंगल की सुरपा घाटी एवं आर्द्र नालों को औषधीय महत्व के पौधों का अजायबघर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

शेरगढ़ के जंगल उत्तरी ऊष्ण कटिबंधीय शुष्क मिश्रित पर्णपाती वनों की श्रेणी में आते है यहाँ की मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ खैर (Acacia catechu), महुआ (Madhuca indica), आंवला (Emblica officinalis), गुरजन (Lannea coromandelica), धावड़ा (Anogeissus latifolia), सालर (Boswellia serrata), खिरनी (Manilkara hexandra), करंज (Pongamia pinnata), बहेड़ा (Terminalia bellirica), अर्जुन (Terminalia arjuna), आम (Mangifera indica), बरगद (Ficus religiosa) व बांस(Dendrocalamus strictus) है। चिरौंजी (Buchanania lanzan) के दुर्लभ वृक्ष भी यहाँ पाए जाते है। पीले फूलों वाली पलाश की किस्म (Butea monosperma var. lutea), गम्हड़ (Gmelina arborea) और गधा पलाश (Erythrina suberosa) यहाँ के विशिष्ट आकर्षण है।

वन्यजीवों का जल श्रोत सूरपा माला (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

अभयारण्य के वन्यजीव

शेरगढ़ अभयारण्य हमेशा से अपने वन्यजीवों के लिए जाना जाता रहा है। तात्कालिक शेरगढ़, कोटा रियासत के महारावों द्वारा बाघों का शिकार करने के लिए पसंदीदा आखेट स्थल रहा, जिसके प्रमाण यहाँ स्थित शिकार माले है। 19 अप्रैल 1920 को महाराज गंगा सिंह द्वारा हस्तलिखित डायरी में शेरगढ़ के आस-पास के क्षेत्रों से 11 बाघों के शिकार से सम्बन्धित वृतांत का उल्लेख किया गया है जो संभवतः कोटा रियासत के किसी भी अन्य मेहमान की तुलना में सर्वाधिक है। 70 के दशक के अंत तक शेरगढ़में बाघ पाए जाते थे, किन्तु अवैध शिकार के चलते प्रारंभिक 80 के दशक में ये यहाँ से विलुप्त हो गए। इसके बाद पैंथर यहाँ की खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर रहे जो लगभग एक दशक पूर्व तक खासी तादाद में यहाँ पाए जाते थे, परन्तु किन्ही अज्ञात कारणों से विलुप्त हो गए। यह जंगल पैंथर के लिए एक मुफ़ीद प्राकृतवास है। अतः यह क्षेत्र पैंथर पुनर्वास के लिए पूर्णतः उपयुक्त है। हाल ही में इस क्षेत्र में भेड़िये की उपस्थिति दर्ज की गयी, जिसे भी यहाँ से विलुप्त मान लिया गया था।

आज यह विभिन्न वन्य प्राणियों की संरक्षण एवं आश्रय स्थली है। हायना, जैकाल, जंगली बिल्ली, स्माल इंडियन सीवेट, लोमड़ी, वाइल्ड बोर, चिंकारा और चीतल, नेवला, सेही व खरहा इत्यादि शेरगढ़ के मुख्य वनचर है।

अभयारण्य को दो असमान भागों में विभाजित करती परवन नदी की कन्दराएँ मगरमच्छों एवं अन्य जलीय जीवों के लिए आदर्श पर्यावास उपलब्ध करती कराती है जबकि नदी में मिलने वाले नालों के रेतीले किनारे इन मगरों के उत्तम प्रजनन स्थान है।

शेरगढ़ अभयारण्य में विचरण करता भेड़िया (फोटो: श्री बनवारी यदुवांशी)

शेरगढ़ अभयारण्य में पक्षियों की 200 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है। जिनमें से कुछ आइ.यू.सी.एन. की लाल आंकड़ों की किताब (Red data book) की विशिष्ट श्रेणियों में रखा गया है। जैसे- व्हाइट-बेलीड मिनिवेट, इंडियन ब्लैक आइबीस Near Threatened श्रेणी में; पेंटेड स्टोर्क, व्हाइट-विंगड ब्लेक टिट, एशियन ओपन-बिल्ड स्टोर्क, व्हाइट-वल्चर, किंग वल्चर, रेड-नेक्ड फाल्कन Vulnerable श्रेणी में; स्पूनबिल, ओस्प्रे, इंडियन पीफाउल Threatened श्रेणी में रखे गए है। साथ ही नदी की ओर अभिमुख शेरगढ़ दुर्ग की पहाड़ी की कराइयों में संकटग्रस्त लॉन्ग-बिल्ड वल्चर की कॉलोनी है। मानसून ऋतु में नवरंग पक्षी (Indian Pitta) एवं शाह बुलबुल (Paradise Flycatcher) को देखने के लिए शेरगढ़ संभवतः हाड़ौती का सबसे अच्छा स्थान है।

विभिन्न सरीसृप प्रजातियाँ शेरगढ़ की विशेषता मानी जाती है, जिनके रहते यहाँ स्नेक पार्क के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया है। विशाल अज़गर से लेकर अत्यंत विषैले कोबरा व करैत जैसे सांप यहाँ सरलता से देखे जा सकते है।

अभयारण्य के अन्य आकर्षण

परि-पर्यटन की दृष्टि से शेरगढ़ को हाड़ौती का सर्वोत्तम स्थान माना जा सकता है। राजस्थान में परि-पर्यटन (eco-tourism) के उत्थान के लिए सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। जिसमें शेरगढ़ किले का जीर्णोद्धार भी शामिल है। शेरगढ़ किले के साथ यहाँ स्थित पाड़ा खोह, पांच तलाई अन्चोली डैम, नहारिया, अमलावाड़ा, टीकली जैसे वाच टावर व व्यू पॉइंट दर्शनीय है। इको-ट्रेल्स जंगल का निकट व सहज अनुभव प्रदान करती है।

कुंडा खोह जल प्रपात (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

इनके साथ-2 तपस्वियों की बगिची,भंड-देवरा मंदिर, काकूनी मंदिर श्रृंखला, सूरज कुण्ड, सोरसन संरक्षित क्षेत्र, नाहरगढ़ किला, कन्या देह– बिलास गढ़, कपिल धारा व गूगोर का किला भी ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक धरोहरों के रूप में प्रमुख आकषर्ण के केंद्र है, जो शेरगढ़ की खूबसूरती में चार चाँद लगाते है।

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य – राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य – राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन

कांठल प्रदेश में सागवान वनों से आच्छादित, तीन विभिन्न भूमि संरचनाओं (अरावली, विंध्यन और मालवा) के संगम पर भव्य हरी-भरी घाटियों, नदियों और विशिष्ट वन्यजीवों को संरक्षित करता सीतामाता शुष्क राजस्थान का एक अन्वेषित अभयारण्य है…

वागड़, मेवाड और मालवा की प्राकृतिक सुंदरता और जीवन शैली से आच्छादित कांठलप्रदेश आज प्रतापगढ़ के नाम से जाना जाता है। अरावली और विंध्यन पर्वतमालाओं के मध्य मालवा के पठार पर सागवान वनों की उत्तर पश्चिमी सीमा बनाता यह जैव विविधताओं से समृद्ध एक विशिष्ट स्थान है। राजस्थान सरकार ने यहाँ 422.95 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र कि जैव विविधता एवं भू संरचना के महत्व को ध्यान में रखते हुए 2 जनवरी 1979 को सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया। इस अभयारण्य में रियासत कालीन “भेनवा शिकारागह” शामिल है, यहाँ प्रतापगढ़ के महाराज शिकार के लिए आया करते थे। इसी तरह अभयारण्य का आरामपुरा-कुंठारिया इलाका धरियावद के जागीरदारों के लिए और रानिगढ़-धार वनक्षेत्र, बांसी के जागीरदारों के लिए शिकारगाह था। यह क्षेत्र उन दिनों वन्यजीवों से समृद्ध था और बाघ, सांभर और चीतल के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन बाद में इनकी संख्या में भारी कमी आई और बाघ विलुप्त हो गए लेकिन आज भी यह अभयारण्य असाधारण विविधता और आवासों के प्रतिच्छेदन के लिए जाना जाता है, जिसमें सागवान के वन, आर्द्र भूमि, बारहमासी जल धाराएं, सौम्य अविरल पहाड़, प्राकृतिक गहरे घाटियां और सागवान के मिश्रित वन शामिल हैं।

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

सीतामाता कहलाने का कारण

लोगों का मानना है कि रामायण काल के दौरान जब राम ने सीता को वनवास दिया तो देवी सीता ने अपने वनवास के दिनों को इस जंगल में स्थित ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में व्यतीत किया। इस वनवास के दौरान माता सीता ने लव और कुश को जन्म दिया। आज भी वाल्मीकि आश्रम के बाहर विशाल बरगद के अवशेष साक्ष्य के रूप में देखे जा सकते हैं, जो कभी 12 बीघा के क्षेत्र फैला हुआ था। राज-पुरोहित बताते हैं कि इसी स्थान पर लव और कुश ने अश्वमेध के घोड़ों को पकड़ा था और राम को युद्ध के लिए ललकारा था। ये अवधारणा है कि वह पेड़ जिस पर हनुमान जी को बांधा गया था, आज भी यहां पर मौजूद हैं। यहां पहाड़ी पर स्थित सीता मंदिर उस प्राचीन मान्यता का द्योतक है जिस समय माता सीता धरती में समाई तब यह पहाड़ दो हिस्सों में फट गया। लोग इस स्थान को युगों से पवित्र मानते आ रहे हैं और यहाँ मंदिर परिसर (सीता बाड़ी) में प्रतिवर्ष ‘ज्येष्ठ माह की अमावस्या’ को मेला आयोजित होता है। यहां पर स्थित वाल्मीकि आश्रम में आज भी लोग लव-कुश पालने को झूला झुलाते हुए देखे जा सकते हैं। सीता बाड़ी दुनिया का एकमात्र मंदिर है जिसमें हिंदू देवी सीता माता की एकल प्रतिमा है। इतने सारे पौराणिक स्थानों के होने के कारण इस इलाके का नाम सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य रखा गया है।

सीतामाता के जंगल में स्थित एक शैल आरेख (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अभयारण्य के वन

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य के वन को पांच प्रमुख वन प्रकारों, सघन शुष्क पर्णपाती वन (dense dry deciduous), छितराए हुए शुष्क पर्णपाती वन (sparse dry deciduous forest), नम पर्णपाती वन (moist deciduous forest), बांस के मिश्रित वन (Bamboo Mixed Forest) और घास के मैदान (grasslands) में वर्गीकृत किया गया है। तटवर्ती वनस्पतियों के साथ बारहमासी नदियों ने अभयारण्य में कई सूक्ष्म और समष्टि पर्यावास बनाए हैं। इस अभयारण्य की मुख्य विशेषता सागवान (Tectona grandis) और बांस (Dendrocalamus strictus) के वनों के बेहतरीन हिस्से हैं। सागवान वनों की नायाब संपदा से धनी इस अभयारण्य में ऐसे स्थान भी है जहां सूरज की किरण आज तक जमीन पर नहीं पड़ी।

सागवान और बांस के अलावा यहाँ आम (Mangifera indica), महुआ (Madhuca indica), सफेद धोंक (Anogeissus latifolia) और चिरौंजी (Buchanania lanzan) के वृक्ष यहाँ घने वन बनाते हैं। इस वन की विशेषता यह है इसको देवता का निवास स्थान माना जाता है और इसकी पवित्रता को गाँव के लोगों द्वारा संरक्षित किया जाता है।

राजस्थान कि जैव विविधता के विशेषज्ञ डॉ सतीश शर्मा बताते है कि,दक्षिण भारत मूल कि कई वनस्पतियाँ सीतामाता अभयारण्य में पाई जाती हैं। राजस्थान में बीज धारी केलों कि दो वन्य प्रजातियों में सेएकजंगली केला (Musa rosacea) यहाँ पाया जाता है। यहाँ मरुआदोना (Carvia callosal) भी अच्छी संख्या में पाया जाता है जो कि मूलतः दक्षिण भारत के नीलगिरी पहाड़ियों पर पाया जाता है, राजस्थान में यह माउंटआबू और फुलवारी कि नाल अभयारण्य में ही अभी तक देखा गया है। यहाँ जंगली काली मिर्च (peperomia pellucida) भी अच्छी संख्या में पाई जाती है जिसकी राजस्थान में अन्यत्र उपस्थिति केवल झुंझुनू जिले के लोहार्गल धाम पर ज्ञात है। डॉ शर्मा के अनुसार लीया (Leea macrophylla) नामक एक कंदीये पौधा, जो उपेक्षाकृत बहुत कम ही देखने को मिलता है, सीतामाता के जंगलों में नमी एवं गहरी मिट्टी वाली घाटियों में वर्ष में आसानी से जगह-जगह देखा जा सकता है। इसको यहाँ सामान्य भाषा में हस्तिकर्ण (हाथी के कानों जैसा) नाम से जाना जाता है। अपने नाम को चरितार्थ करती इसकी बड़ी पत्तियों का फैलाव 45 सेमीx60 सेमी तक पहुच जाता है।

सीतामाता औषधीय पौधों के लिए भी जाना जाता है। मुख्य औषधीय पौधों में चिरौंजी (Buchanania lanzan), अर्जुन (Terminalia arjuna), बहेड़ा (Terminalia bellirica), जामुन (Syzygium cumini), ज्योतिष्मति (Celastrus paniculate), इन्द्रजौ/दूधी (Wrightia tinctorial), मूसली (Chlorophytum tuberosum), कड़ाया (Sterculia urens), और झारवाद (Lagascea mollis) यहाँ पाए जाते हैं। राजस्थान सरकार ने चिरौंजी के पेड़ों को बचाने के लिए अभयारण्य को मेडीसिनल प्लांट्स कान्सर्वैशन एरिया (MPCA) घोषित किया हुआ है।

अभयारण्य के अन्य पेड़ों में (Anogeissus pendulla), खैर (Acacia catechu), सालर (Boswellia serrata), असान (Terminalia tomentosa), तेंदू (Diospyros melanoxylon), गुर्जन (Lanneacoro mandelica), गूलर (Ficus glomerata), बरगद (Ficus benghalensis), कदम (Mitragyna parvifolia), बिल (Aegle marmelos), आंवला (Emblica officinalis), लसोड़ा (Cordia dichotoma), बीजपत्ता (Pterocarpus marsupium), खिरनी (Wrightia tinctoria), इमली (Tamarindus indica), बैर (Zizyphus spp.), आदि शामिल हैं।

अभयारण्य में उपरारोही (epiphytes) भी अच्छी संख्या में पाए जाते हैं जिनमें कई सारे फर्नस और ऑरकिड्स शामिल हैं। यहाँ सिलेजिनेला (Selaginella) कि 3 प्रजातियाँ पाई जाती है,आद्रता के कारण कई ब्रायोफाइट्स भी यहाँ पाए जाते हैं।

अभयारण्य के वन्यजीव

सीतामाता वन्यजीवों के दृष्टिकोण से एक महत्त्वपूर्ण अभयारण्यों में से एक है, यहाँ स्तनधारियों की लगभग 50 प्रजातियाँ, पक्षियों की 325 से अधिक प्रजातियाँ, सरीसृपों (reptiles) की 40 प्रजातियाँ, उभयचरों (amphibians) की 9 प्रजातियाँ, और मछलियों की 30 प्रजातियाँ को सूचीबद्ध किया गया है। यहाँ खाद्य श्रृंखला में तेंदुआ सबसे ऊपर है, अन्य जीवों में यहाँ रैटल, लोमड़ी, पंगोलीन आदि मौजूद हैं।

यह अभयारण्य उड़न गिलहरी (Petaurista philippensis) और चौसिंघा (Tetracerus quadricornis) के लिए जाना जाता है। उड़न गिलहरियों को स्थानीय भाषा में “आशोवा” नाम से जाना जाता है जिसको आरामपुरा के जंगल में सूर्यास्त के आसपास महुआ के एक पेड़ से दूसरे पर जाते हुए देखा जा सकता है। दिन के समय यह पेड़ों के खोखले हिस्सों के अंदर अपने स्थायी घरों में आराम करता है। इनको देखने का सबसे अच्छा समय फरवरी और मार्च के बीच का होता है जब अधिकांश पेड़ों के पत्ते झड़ चुके होते हैं जिससे इनका शाखाओं में छिपना आसान नहीं होता।

पेड़ के कोटर से बाहर झांकती हुई भारतीय विशालकाय उड़न गिलहरी (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
महुआ के पेड़ पर भारतीय विशालकाय उड़न गिलहरी (फोटो: श्री संग्राम सिंह कटियार)

चौसिंघा, जिसे स्थानीय भाषा में “भेडल” भी कहा जाता है, सीतामाता के पंचगुड़ा, अद्यघाटा, अंबारेठी, और पाल वन खंडों में देखने को मिलता है। इन वन खंडों में बांस के घने समूह अच्छी संख्या में हैं जो चौसिंगा के पक्षधर हैं। चौसिंगा खतरे में होने पर बांस की मोटी झाड़ियों के पीछे छिप सकता है।

अभयारण्य में उड़न गिलहरी के अलावा और दो प्रकार कि गिलहरियाँ पाई जाती हैं, इंडियन पाल्म स्क्वरल / तीन-धारीदार पाल्म गिलहरी (Funambulus palmarum) और पाँच-धारीदार गिलहरी। इंडियन पाल्म स्क्वरल अभयारण्य के घने जंगल में पाई जाती है।

सरीसृपों में मगर, वृक्षारोही मेंढक (tree frog), पैनटेड फ्राग (painted frog), बिल खोदने वाले मेंढक (Burrowing frog), वृक्षारोही सर्प (tree snake) और ग्रीन कीलबैक का मिलना उल्लेखनीय है।

गिरी हुई पत्तियों व् नम चट्टानों के नीचे पाए जाने वाला एक मेढक- Sphaerotheca breviceps (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल )

जंगल आउलेट, क्रेस्टेड हॉक ईगल, हरियल, गागरोनी तोता, स्टॉर्क-बिल किंगफिशर, पिट्टा, ब्लैक हेडेड ओरियोल, इंडियन पैराडाइज फ्लाईकैचर, ब्लैक लोरड टिट,पर्पल सनबर्ड, मोनार्क, सारस हंस,अल्ट्रा-मरीन वर्डाइटर फ्लाईकैचर आदि जैसे पक्षी सीतामाता के जंगलों में देखे जा सकते हैं। लेसर फ्लोरिकंस अभयारण्य के पूर्वी इलाके में मानसून के दौरान देखने लायक हैं। यहाँ तीन प्रकार के फेयसेन्ट पाए जाते हैं, ग्रे जंगल फाउल, अरावली रेड स्पर फाउल,पैनटेड स्पर फाउल। जाखम बांध के पास गिद्धा मगरा नाम कि पहाड़ी पर लॉंग बिल्ड वल्चर के घोंसले पाए जाते हैं।

सीतामाता के हरेभरे जंगल में मिलने वाला एक जंगली मुर्गा (Grey  Jungle  Fowl ) (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

सदावाही नदियों और झरनों का अभयारण्य

अभयारण्य कि तीन प्रमुख नदियां हैं कर्ममोई, जाखम और सीतामाता। कर्ममोई (कर्म मोचनी) नदी का उद्गम सीता बाड़ी से होता है जो कि अभयारण्य का कोर क्षेत्र है। कर्ममोई नदी धारियावाद में जाखम नदी से मिलती है। जाखम नदी छोटी सादड़ी के जखामिया गाँव की पहाड़ियों के दक्षिण-पश्चिम में निकलती है। जाखम सीतामाता अभयारण्य कि जीवनरेखा है। अभयारण्य के अंदर जाखम, लव और कुश नाम के नालों में विभाजित होकर अपना पानी वितरित करता है और अभयारण्य से गुजरने के बाद फिर से मिलकर जाखम नदी में परिवर्तित हो जाता है। यह नदी अभयारण्य के अंदर तेरह मोड़ बनाती है। पूरे वर्ष इन नालों के प्रवाह से अभयारण्य के मैदानी क्षेत्रों में जंगल हरे-भरे रहते हैं। इस नदी पर जाखम परियोजना के अंतर्गत बांध निर्माण किया गया जो कि एक बड़े वन क्षेत्र के जलमग्न होने का कारण बना। जलमग्न क्षेत्र में शामिल उधरी माता के आसपास घने जंगल मीणाओं के लिए पवित्र उपवन थे। भेनवाएक अन्य स्थान था, जो अपने वनों के लिए जाना जाता था, हालाँकि जब ये बाँध का निर्माण हुआ तो ये जंगल जाखम बांध के पानी में डूब गए।

जाखम बांध के बाद 12 किलोमीटर आगे नदी पर नांगलिया बांध बनाया गया है जहाँ से नहर प्रणाली की उत्पत्ति होती है। नांगलिया बांध अभयारण्य कि परिधि पर बना हुआ अप्रवासी पक्षियों, धूप सेकते मगर और कछुओ को देखने के लिए उत्तम जगह है। सीतामाता अभयारण्य में टांकिया भूदो, सुखली तथा नालेश्वर नामक नदियां भी बहती है। नदियों के अलावा यहाँ जगह जगह कई झरने देखने को मिलते हैं।

अभयारण्य के अन्य आकर्षण

आरामपुरा अतिथि गृह – बंसी और धरियावद कस्बों के मध्य में स्थित वन विभाग द्वारा संचालित यह स्थान अभयारण्य के प्रवेश द्वारों में से एक है, यह उड़न गिलहरी को देखने के लिए राजस्थान के सबसे अच्छे स्थानों में से एक है। यह विशाल महुआ, सागवान और विभिन्न प्रकार के बड़े वृक्षों से ढाका हुआ क्षेत्र है जहां उड़न गिलहरी का एक सुनिश्चित दृश्य शाम 7 बजे से सुबह 5:30 बजे के दौरान हो सकता है।

कुन्थरिया हिल साइड–यह एक पहाड़ी क्षेत्र का नाम जहां कर्मोचिनी नदी ऊंचाई से गिरते हुए एक झरने का एहसास देती है। अभयारण्य में विभिन्न रैप्टर और पक्षियों को देखने के लिए बहुत अच्छे स्थानों में से एक है।

भौगोलिक स्थिति

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य समुद्र तल से औसतन 280 से 600 मीटर कि ऊँचाई पर स्थित है। इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 756 मिमी होती है। सर्दियों के दौरान तापमान 6 से 14 डिग्री सेल्सियस और गर्मियों में 32 से 45 डिग्री के बीच होती है। सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। यह अभयारण्य उदयपुर-प्रतापगढ़ राज्य राजमार्ग पर उदयपुर और चित्तौड़गढ़ से क्रमशः 100 और 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन चित्तौड़गढ़ है, जबकि निकटतम हवाई अड्डा 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाराणा प्रताप (डबोक) हवाई अड्डा उदयपुर है। इन सभी स्थानों से अभयारण्य तक सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है।

मातासीता से जुड़ी आस्था, उड़न गिलहरी और चौसिंघा जैसे विशिष्ट वन्य जीवों के पर्यावास होने के कारण सीतामाता अभयारण्य को राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी I