अरावली के ऑर्किड

अरावली के ऑर्किड

राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में कई ऑर्किड प्रजातियां पायी जाती हैं . राजस्थान कांटेदार और छोटी पत्तीदार पौधों से भरपूर हैं परन्तु २० से कुछ अधिक ऑर्किड प्रजातियां भी अरावली और विन्ध्यांचल के शुष्क वातावरण में अपने लायक उपयुक्त स्थान बना पाए हैं . यह संख्या कोई अधिक नहीं हैं परन्तु फिर भी शुष्क प्रदेश में इनको देखना एक अनोखा अनुभव हैं .  विश्व में ऑर्किड के 25000 से अधिक प्रजातियां देखे गए हैं . भारत में 1250 से अधिक प्रजातियां अब तक दर्ज की गयी हैं, इनमें से 388 प्रजातियां विश्व में मात्र भारत में ही मिलती हैं . राजस्थान में ऑर्किड को प्रकृति में स्वतंत्र रूप से लगे हुए देखना हैं तो – फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य,  एवं सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य आदि राज्य में सबसे अधिक मुफीद स्थान हैं .
राजस्थान के ऑर्किड पर डॉ. सतीश शर्मा ने एक पुस्तक का लेखन भी किया हैं और कई ऑर्किड प्रजातियों को पहली बार राज्य में पहली बार दर्ज भी किया हैं .

इस वर्षा काल में डॉ. सतीश शर्मा के सानिध्य में कई ऑर्किड देखने का मौका मिला. यह पौधे अत्यंत खूबसूरत और नाजुक थे . एक छोटे समय काल में यह अपने जीवन के सबसे सुन्दर क्षण जब पुष्पित हो को जीवंतता के साथ पूरा करते हैं . यह समय काल मानसून के समय होता हैं अतः थोड़ा कठिन भी होता हैं, इस अवधारणा के विपरीत की  राजस्थान एक शुष्क प्रदेश हैं परन्तु वर्षा काल में यह किसी अन्य प्रदेश से इतर नहीं लगता हैं . यह समय अवधि असल में इतनी छोटी होती हैं की इनको देख पाना आसान नहीं होता हैं. मेरे लिए यह सम्भव बनाया डॉ. सतीश शर्मा ने और उनके सानिध्य में राज्य के २ दर्जन ऑर्किड मे से १ दर्जन ऑर्किड में देख पाया .

राजस्थान में तीन प्रकार के ऑर्किड पाए जाते हैं, एपिफैटिक जो पेड़ की शाखा पर उगते हैं, लिथोफाइट जो चट्टानी सतह पर उगते हैं, टेरेस्ट्रियल पौधे जमीन पर उगते हैं

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1. यूलोफिया हर्बेशिया (Eulophia herbacea) यह राजस्थान में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल-फुलवारी अभयारण्य में मिलता हैं .

2. यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata) घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि में मिलता हैं .

3. एपीपैक्टिस वेराट्रीफोलिए (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र- चित्तौडग़ढ़ में मिलता है .

4. हैबेनेरिया फर्सीफेरा (Habenaria furcifera)फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि

5. हैबेनेरिया लॉन्गीकार्नीकुलेटा (Habenaria longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य आदि .

6. हैबेनेरिया गिब्सनई (Habenaria gibsonii) माउन्ट आबू अभयारण्य एवं उदयपुर के आस पास के क्षेत्र में मिलता हैं .

7. पैरीस्टाइलिस गुडयेरोइड्स (Peristylus goodyeroides) मात्र फुलवारी की नाल अभयारण्य क्षेत्र में मिला है .

8. पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य आदि में मिलता है .

9. पैरीस्टाइलिस लवी (Peristylus lawiI): फुलवारी की नाल अभयारण्य  में मिलता है .

10. वैन्डा टैसीलाटा (Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय  प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि .

11. एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

 

क्या कोई यह  विश्‍वास करेगा की राजस्थान के एक किसान ने  आम की एक ऐसी नई किस्म विकसित की हैं जो वर्ष में तीन बार फल देती है।   राजस्थान के  कोटा शहर के पास गिरधरपुरा गांव के  रहने वाले किसान श्री किशन सुमन ने 20 वर्ष की कड़ी मेहनत कर आमों यह एक अनूठी किस्म  विकसित की है  जिसे “सदाबहार” नाम दिया गया है।

वह बड़े गर्व से कहते है की ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतुओ में हमारी आम की यह किस्म  फल देती है।  श्री किशन अतीत  के मुश्किल समय को याद करते है | पहले हमारा परिवार मात्र पारम्परिक कृषि पर आधारित था | जिसमें गेहू एवं चावल आदि की फसले उगाकर जीवन यापन करते थे | परन्तु जितनी मेहनत उसमे लगायी जाती थी उतना लाभ प्राप्त नहीं होता था ।  अत: पारम्परिक खेती को छोड़ कर उनका परिवार सब्ज़ियों की खेती करने लगा परन्तु इसके लिए जितनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता था | उससे मन को बहुत ख़राब लगता था एवं एक अपराध भाव पैदा होता था की हम लोगों को मानो जहर ही खिला रहे है । अत: उन्होंने फूलों की खेती शुरू कर दी।  जिनमें गुलाब के फूलों की  खेती भी शामिल थी  और यहाँ से श्री किशन की शोध यात्रा आरम्भ होती है । गुलाब पर कई प्रकार की कलमें  चढ़ा कर उन्होंने एक पौधें पर कई रंग के पुष्प प्राप्त किये |

 

अब उन्हें लगने लगा की फलदार वृक्षों पर भी मेहनत की जा सकती है फिर उन्होंने बाजार से कई प्रकार के आमों के फल लाना शुरू किया और उगाकर के उनके पौधें लगाने शुरू किये ।  उन्होंने पाया की आमों की अलग – अलग  किस्म के स्वाद में तो अंतर है  ही परन्तु इनमें एक और अंतर है  वह हैं उनके  पुष्प एवं फलो के लगने के समय में भी । श्री किशन ने पाया की जब विभिन्न आमों  के पौधों की किस्मों की कलमों को एक साथ लगाया गया तो पाया की एक आम के पेड़ के एक हिस्से में कुछ फल बड़े हो चुके है, और किसी हिस्से में अभी भी छोटे है और किसी हिस्से में अभी बोर भी आये हुए थे ।

इस तरह धीरे – धीरे कई वर्षो के प्रयोगों के बाद  सदाबहार किस्म का विकास हुआ।  यह विकसित किस्म वर्ष में तीन बार फसल देती है। यानी इस पर वर्ष भर आम के फल लगे रहते है।  श्री किशन ने कोटा के कृषि अनुसन्धान केंद्र  को अपनी बात बताई परन्तु उन्होंने इस प्रयास के प्रति उदासीनता का भाव रखा ।

परन्तु राष्ट्रीय नव प्रवर्तन प्रतिष्ठान भारत ( National Innovation Foundation  – India – NIF) के सुंडा राम जी ( सीकर निवासी ) ने श्री किशन   को एक अनोखा अवसर दिलाने में मदद की उन्होंने NIF की मदद से इस किस्म को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित करने के लिए उन्हें वहां भेजा । उन्हें वहां अत्यंत सम्मान एवं पहचान मिली ।  इस “सदाबहार” आम एवं श्री किशन को देश विदेश के लोग जानने लगे। देश के विभिन्न हिस्सों से श्री किशन को इस किस्म के पौधों के लिए आर्डर आ ने लगे । साथ ही   भा . कृ . अनु . प . केंद्रीय उपोषण बागवानी संसथान ( ICAR- Central Institute for subtropical Horticulture) के वैज्ञानिको के साथ संपर्क किया गया एवं इस नस्ल को एक नई नेसल होने का दर्जा मिला साथ ही उन्होंने ही इसे एक नाम दिया  – ‘सदाबहार’ है।  यह आम अत्यंत स्वादिष्ट है एवं  इनमें में  पूर्णतः घुले हुए ठोस पदार्थ (Total dissolved solids – TSS ) 16 % मानी गयी है , TSS का मतलब होता है, इसके  मीठास कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल , प्रोटीन , वसा एवं खनिज  की मात्रा कितनी है | सदाबहार आमों की TSS मात्रा अच्छी मानी गयी है |

श्री किशन जी मुस्कुराते हुए कहते है की कृषि अनुसन्धान केंद्र का सहयोग न सही, परन्तु मेरी पत्नी सुगना देवी और ईश्वर साथ देने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी है। आज श्री किशन आशान्वित हैं की इस आम को जनता ने पहचान लिया हैं एवं इस की सफलता को अब कोई रोक नहीं पायेगा।  आप भी श्री किशन से आम का पौधा मंगवा सकते हैं।

राज्यों  की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

राज्यों की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

 

सन 1453 में , एक दूसरे के धुर विरोधी, मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मारवाड़ के राव जोधा को एक जाजम पर बैठा कर बात तो करा दी गई, परन्तु तय होना बाकि था, कि मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा कहाँ तक होगी। इन दोनों राज्यों के मध्य पिछले दो दशक से अधिक समय से शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध कायम थे जिससे दोनों पक्षों को जन-धन की भारी हानी हो रही थी व प्रजा त्रस्त थी|

इस मध्यस्तता की जिम्मेदारी दोनों राजघरानों से सम्बन्ध रखने वाली महारानी हंसाबाई पर थी, जो राणा कुम्भा की दादी थी एवं राव जोधा की बुआ थी। दोनों राजघरानों में विवाद का कारण मण्डोर (मारवाड़) के राव रणमल (हंसाबाई के भाई जो राव जोधा के पिता) द्वारा मेवाड़ की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप था जिसकी परिणती राव रणमल की हत्या व मारवाड़ की राजधानी मण्डोर पर मेवाड़ द्वारा कब्जा करने के रूप में होती है।

आंवल (Cassia auriculata)                               फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

खैर नई पीढ़ी ने गिले-शिकवे बिसार कर तय किया की और मनमुटाव अब किसी के हक़ में नहीं है।सोजत- पाली में यह संधि हुई थी जिसे आंवल-बांवल की संधि कहा जाता है। दादी हंसाबाई ने परामर्श दिया कि अब मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा, यहाँ की भूमि स्वयं तय करेगी। यह वाक्य किसी को समझ नहीं आया परन्तु वो बोली – जिधर आंवल के पौधे है वह मेवाड़ होगा और जिधर बांवल के पेड़ है, वह मारवाड़ होगा। पेड़-पौघों का वितरण वहां की जलवायु स्थितियां और भूगर्भिक विशेषताएं से जुड़ा होता हैं एवं इनमें समान जीवन रणनीतियां और अनुकूलन देखने को मिलता है।

यानि जमीन की तासीर यह तय करती है की वहां कौनसे पेड़-पौधे उगेंगे और पेड़-पौधे तय करते है की वहां कोनसे पशु-पक्षी रहेंगे। भौगोलिक परिस्थिति, स्थानीय जलवायु, पेड़-पौधे आदि सभी मिलकर यह प्रभाव डालते है, की वहां के लोग किस प्रकार के पेशे को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाएंगे जैसे शिकार आधारित समाज बनेगे, या कृषक अथवा पशुपालन पर जीवन यापन करेगा।

आंवल (Cassia auriculata)        फोटो :- राकेश वर्मा

यह बंटवारा मारवाड एवं मेवाड (गोडवाड़ परगना) के मध्य परम्परागत सीमा रेखा के रूप में करीब 400 वर्षों तक कायम रहा। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराज विजय सिंह (मारवाङ) ने गोडवाड़ परगने का मारवाङ में विलय करके, मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा को वानस्पतिक आधार के अतिरिक भू-आकृतिक आधार ( प्राकृतिक सीमा रेखा मे अरावली पर्वतमाला) प्रदान किया।
इस आंवल – बांवल की संधि में वर्णित आंवल व बांवल शब्द किन दो वनस्पति प्रजातियों को इंगित करते हैं. यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसमे भी आंवल शब्द से अधिक कठिन बांवल शब्द की लक्षित प्रजाति को चिन्हित करना है।
सामान्यतः जो लोग स्वयं गोडवाड परगने के भूगोल व जैव विविधता से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नही है वे आंवल शब्द का अर्थ आंवले के पेड़ से लेते है जोकि भ्रामक है। क्यों की गोडवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति में आँवला (Emblica officinalis) शामिल नहीं है गोडवाड परगने में आंवल नामक एक झाड़ी बहुतायत में पायी जाती है। इस झाड़ी पर पीले रंग के फूल खिलते है व इसका वानस्पतिक नाम ‘केसिया ओरिकुलाटा’ (Cassia auriculata) है |

बांवल ( Vachellia jacquemontii )           फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

पहले इस झाड़ी का प्रयोग चमड़ा साफ करने (टेनिन नामक तत्त्व होने के कारण) हेतु चमड़ा उद्योग मे बहुतायत में होता था व इसकी सहज उपलब्धता ने गोडवाड क्षेत्र में चर्म शोधन को कुटिर उद्योग के रूप में स्थापित होने में सहायता दी थी। इस उपयोग के कारण अंग्रेजी भाषा में आंवल की झाड़ी को Tanner’s cassia भी कहते हैं। (चर्मकार की झाड़ी) | अत: स्पष्ट है आंवल-बांवल की संधि में वर्णित आंवल, ‘आंवल की झाड़ी’ (Cassia auriculata) ही है नाकि आँवला (Emblica officinalis).
अब हम इस संधि में वर्णित दूसरी प्रजाति यानि कि ‘बांवल’ की सटीक पहचान पर चर्चा करते है चूंकि संधि के द्वारा जिस क्षेत्रों में बांवल प्रजाती पायी जाती थी वह क्षेत्र मारवाड को आवण्टित किया गया था अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘बांवल’ उस समय मारवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति (बिना मानवीय हस्तक्षेप के पनपने वाली) का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। वर्तमान में इस क्षेत्र (पाली जिले का शुष्क भाग) बांवल नाम से तीन प्रजातियों को संबोधित किया जाता है, प्रथम अंग्रेजी बावलियों (prosopis juliflora), द्वितीय देशी बावलियों / बबूल (Acacia nilotice) व तीसरी भू बावली ( Acacia jacquemontii)
चूंकि अंग्रेजी बबूल (जूलीफ्लोरा) सर्वप्रथम 20 वी शताब्दी में ही राजस्थान में लाया गया था अत: आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित ‘बांवल’ से इसका निश्चित ही साम्य नहीं है। इसी प्रकार देशी बबूल\कीकर का प्रयोग स्पष्ट सीमा रेखा के रूप में किया जाना इस लिए उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान में यह पाली जिले के मारवाड़ व गोडवाङ दोनों अंचलों में समान रूप से पाया जाता है व सम्भवतया इसका वितरण प्रारूप उस समय (1433ई.) मे भी लगभग यही रहा होगा।
अत: अब बचता है, भू – बावल| भू बावल का वितरण प्रारूप वर्तमान में गोड़वाङ व मारवाड़ को सीमा विभाजन से पूरी तरह से मेल खाता है। जिस प्रकार आंवल की झाड़ी गोड़वाड़ परगने के बाहर मारवाड़ में नहीं पायी जाती है उसी प्रकार भू – बावल भी गोड़वाड़ में नही पायी जाती जबकि मारवाड़ में बहुतायत में उपलब्ध है। उपर्युक्त कारणों से लेखकराणों का यह मानना है कि आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित आंवल व बांवल शब्द का संकेत Cassia auriculata ( आंवल की झाड़ी) व Vachellia jacquemontii (भू- बावल) की ओर हैं|
इस चर्चा से जुड़ा हुआ एक अन्य रोचक प्रसंग यह भी है कि जिन फ्रेंच वनस्पति अन्वेषणकर्ता विक्टर जेकमोण्ट (Victor Jacquemont) के नाम पर भू- बावल का वानस्पतिक(jacquemontii) नाम रखा गया है उन्हें उनकी मात्र चार दिवसीय” (1-4 मार्च 1832) राजस्थान यात्रा के दौरान मेवाड राज्य की राजधानी उदयपुर में प्रवेश की अनुमति महाराणा द्वारा प्रदान नहीं की गयी थी। जेकमोण्ट व महारणा’ दोनों ही भविष्य में होने वाले घटनाक्रम (जेकमोण्ट के नाम पर भू-बावल का नामकरण) से निश्चित रूप से अनभिज्ञ रहे होंगे। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि विक्टर जेकमोण्ट को राजस्थान का प्रथम आधुनिक वनस्पति अन्वेषण कर्ता माना जाता है।

यह संधि दर्शाती हैं कि किस प्रकार लोगों को अपने परिवेश कि गहरी समझ थी जो उन्हें उचित निर्णय लेने में सहयोग करती थी।

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कर्वी (Storbilanthescallosa) दक्षिणी अरावली की कम ज्ञात झाड़ीदार पौधों की प्रजाति है। यह पश्चिमी घाट और सतपुड़ा पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध प्रजाति है, लेकिन राजस्थान के मूल निवासियों से ज्यादा परिचित नहीं है। यह अद्भुत प्रजाति आठ साल में एक बार खिलती है। पश्चिमी घाट में, इसका अंतिम फूल 2016 में देखा गया था और अगला फूल आठ साल के अंतराल के बाद 2024 में होगा।

दक्षिणी अरावली के सिरोही जिले में माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य कर्वी स्क्रब के लिए प्रसिद्ध है। यह अद्भुत झाड़ीदार प्रजाति माउंट आबू की ऊपरी पहुंच के पहाड़ी ढलानों तक ही सीमित है। यह इस खूबसूरत पहाड़ी के निचले क्षेत्र और निचली ढलानों में अनुपस्थित है। माउंट आबू के अलावा जोधपुर से भी कर्वी की खबर है। लेकिन यह बहुत ही असामान्य है कि जोधपुर में उच्च वर्षा क्षेत्र की एक प्रजाति देखी जाती है। दक्षिणी राजस्थान के फुलवारी-की-नल और सीतामाता वन्यजीव अभयारण्यों के कई हिस्सों में कर्वी के बड़े और निरंतर पैच देखे जा सकते हैं। यह प्रजाति उदयपुर और राजसमंद जिलों के संगम पर जरगा पहाड़ियों और कुभलगढ़ पहाड़ियों में भी पाई जाती है। कर्वी के छोटे-छोटे पैच जर्गा हिल्स में नया जरगा और जूना जर्ग मंदिरों के आसपास देखे जा सकते हैं। माउंट आबू के बाद, जरगा हिल्स राजस्थान की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी है।

कर्वी एक सीधा झाड़ी है, ऊंचाई में 1.75 मीटर तक बढ़ता है। इस प्रजाति की पत्तियाँ अण्डाकार, बड़े आकार की, दाँतेदार किनारों वाली होती हैं। पत्तियों में 8-16 जोड़ी नसें होती हैं जो दूर से स्पष्ट दिखाई देती हैं। चमकीले नीले फूल पत्तियों की धुरी में विकसित होते हैं जो न केवल तितलियों और मधुमक्खियों को बल्कि मनुष्यों को भी आकर्षित करते हैं।

कर्वी स्ट्रोबिलैन्थेस से संबंधित है, फूल वाले पौधे परिवार एसेंथेसी के जीनस से संबंधित है। इस जीनस की लगभग 350 प्रजातियाँ विश्व में पाई जाती हैं और लगभग 46 प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। राजस्थान में, इस जीनस की केवल दो प्रजातियों को जाना जाता है, अर्थात् स्ट्रोबिलेंथेस्कैलोसा और स्ट्रोबिलेंथेशालबर्गि। इनमें से अधिकांश प्रजातियां एक असामान्य फूल व्यवहार दिखाती हैं, जो 1 से 16 साल के खिलने वाले चक्रों में भिन्न होती हैं। स्ट्रोबिलांथेसकुंथियाना या नीलकुरिंजी, जिसका 12 साल का फूल चक्र होता है, दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट, विशेष रूप से नीलगिरी पहाड़ियों का प्रसिद्ध पौधा है। हर 12 साल में एक बार नीलकुरिंजी खिलता है। पिछले 182 वर्षों की अवधि के दौरान, यह केवल 16 बार ही खिल पाया है। यह वर्ष 1838, 1850, 1862, 1874, 1886, 1898, 1910, 1922, 1934, 1946, 1958, 1970, 1982, 1994, 2006 और 2018 में खिल चुका है। अगला फूल 2030 में दिखाई देगा। रंग का फूल इसलिए नाम नीलकुरिंजी। जब यह बड़े पैमाने पर खिलता है, तो नीलगिरि पहाड़ियाँ ‘नीले रंग’ की हो जाती हैं, इसलिए नीलगिरि पहाड़ियों को उनका नाम ‘नीलगिरी’ (नील = नीला, गिरि = पहाड़ी) मिला। नीलगिरी में जब नीलकुरिंजी खिलता है, तो इस फूल वाले कुंभ को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक वहां पहुंचते हैं। इस प्रकार, नीलकुरिंजी-केंद्रित पर्यावरण-पर्यटन नीलगिरी में रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है।

कर्वी (स्ट्रोबिलांथेस्कलोसा) को “राजस्थान का नीलकुरिंजी” कहा जा सकता है। इसका आठ साल का खिलने वाला चक्र है। यह आठ साल में एक बार खिलता है। यानी इस प्रजाति में एक सदी में सिर्फ 12 बार ही फूल आते हैं। एक साथ बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, सभी पौधे एक साथ मर जाते हैं जैसे ‘सामूहिक आत्महत्या’ फैशन में। इस प्रकार, कर्वी हमारे राज्य का एक मोनोकार्पिक पौधा है। कर्वी लंबे अंतराल में खिलने वाला फूल है, इसलिए इसके फूलों को प्लीटेसियल कहा जाता है, यानी वे लंबे अंतराल में एक बार खिलते हैं। अपने जीवन के पहले वर्ष के दौरान बीज के अंकुरण के बाद, कर्वी को आम तौर पर विकसित होने में सात साल लगते हैं और अपने आठ साल में खिल जाते हैं; इसके बाद जीवन में एक बार बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, झाड़ियाँ अंततः मर जाती हैं। गर्मियों के दौरान, कर्वी झाड़ियाँ सूखी, पत्ती रहित और बेजान जैसी दिखती हैं, लेकिन मानसून की शुरुआत के बाद उनमें हरे पत्ते आ जाते हैं। इनकी पत्तियाँ बड़े आकार की होती हैं और पौधे बहुत कम दूरी पर बहुत निकट से उगते हैं और वन तल पर घना झुरमुट बनाते हैं। उनके जीवन के बीज अंकुरण वर्ष से लेकर सातवें वर्ष तक वर्षा ऋतु में केवल टहनियों के बढ़ने से पत्ते बनते हैं लेकिन आठवें वर्ष के मानसून के दौरान उनके व्यवहार में एक शक्ति परिवर्तन देखा जाता है। पत्तियों के अलावा, वे फूल भी पैदा करना शुरू कर देते हैं। अब बड़े पैमाने पर फूल अगस्त के मध्य से सितंबर के अंत तक देखे जा सकते हैं, लेकिन ढलानों के विभिन्न ऊंचाई पर मार्च तक छोटे पॉकेट में फूल देखे जा सकते हैं। पत्तियों के निर्वासन में स्पाइक्स में बड़े आकार के, दिखावटी, नीले फूल विकसित होते हैं। फूल परागकणों और अमृत से भरपूर होते हैं जो बड़ी संख्या में तितलियों, मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य जीवों की प्रजातियों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करते हैं।

आमतौर पर एक एकल कर्वी फूल का जीवनकाल 15 से 20 दिनों के बीच रहता है। फूल आने के बाद बड़े पैमाने पर फल लगते हैं। फल ठंड और गर्म मौसम में पकते हैं और अगले साल तक सूख जाते हैं। कर्वी के पौधों में बड़े पैमाने पर बुवाई देखी जाती है। इस व्यवहार को मास्टिंग कहा जाता है। पिछले सात वर्षों की पूरी संग्रहीत खाद्य सामग्री का उपयोग फूल, फल और बीज पैदा करने के लिए किया जाता है। अब पौधे पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। बीजों के परिपक्व होने के बाद, उनके अंदर के फल उन्हें बनाए रखते हैं। चूंकि, फलों में अभी भी बीज मौजूद होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति की अनियमितताओं से अधिकतम सुरक्षा मिलती है। सूखे मेवे अपने मृत पौधों पर अगले मानसून की प्रतीक्षा करते हैं। अगले साल के मानसून की शुरुआत के साथ, फलों की पहली बारिश होती है और सूखे मेवे नमी को अवशोषित करते हैं और एक पॉप के साथ खुलते हैं। पहाड़ी, जहां कर्वी उगते हैं, सूखे बीज की फली के फटने की तेज आवाज से भर जाते हैं, जो विस्फोटक रूप से उनके बीजों को बिखरने के लिए खोलते हैं। अब जल्द ही नए पौधे अंकुरित होते हैं और जंगल के गीले फर्श में अपनी जड़ें जमा लेते हैं। इस प्रकार, कर्वी की पूरी मृत पीढ़ी को नई पीढ़ी द्वारा तुरंत बदल दिया जाता है। नमी और तापमान के कारण पुरानी पीढ़ी के मृत पौधे सड़ने लगते हैं। जल्द ही वे अपने ‘बच्चों’ के लिए खाद बन जाते हैं।

जब कर्वी फूल, सीतामाता अभयारण्य में भागीबाउरी से सीतामाता मंदिर तक और फुलवारी-की-नल अभयारण्य में लुहारी से सोनाघाटी तक, ट्रेकिंग को गुस्सा आता है। माउंट आबू अभयारण्य की ऊपरी पहुंच के सभी ट्रेकिंग मार्ग कर्वी के खिलने पर सुरम्य हो जाते हैं। कर्वी के फूलों के वर्षों के दौरान विशेष रूप से नया जरगा और जूना जर्गटेम्पल्स के पास जरगा पहाड़ियों की यात्रा एक जीवन भर की उपलब्धि है।

राज्य में कर्वी के खिलने के प्रामाणिक रिकॉर्ड गायब हैं। राज्य के विभिन्न हिस्सों में कर्वी के खिलने के रिकॉर्ड को बनाए रखना स्थानीय विश्वविद्यालयों और वन विभाग का कर्तव्य है। वन अधिकारियों को सलाह दी जाती है कि जब वे मैदान में हों तो प्रकृति की इस अद्भुत घटना का अनुभव करें। एक वन अधिकारी अपनी सेवा अवधि में मुश्किल से चार खिलते चक्र देख सकता है। कृपया कर्वी के अगले खिलने वाले मौसम की उपेक्षा न करें।

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी, राजस्थान का एक झाड़ीदार पौधा जिसकी फितरत है आठ साल में एक बार फूल देना और फिर मर जाना…

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है जिसे विज्ञान जगत में “स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा (strobilanthes callosa)” कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर इसे मरुआदोना नाम से भी जाना जाता है। एकेंथेंसी (Acantheceae) कुल के इस पौधे का कुछ वर्ष पहले तक “कार्वीया कैलोसा (Carvia Callosa)” नाम रहा है। यह उधर्व बढ़ने वाला एक झाड़ीदार पौधा है जो पास-पास उगकर एक घना झाड़ीदार जंगल सा बना देता है। इसकी ऊंचाई 1.0 से 1.75 मीटर तक पाई जाती है और पत्तियां 8-20 सेंटीमीटर लंबी एवं 5-10 सेंटीमीटर चौड़ी व् कुछ दीर्घवृत्ताकार सी होती हैं जिनके किनारे दांतेदार होते हैं। पत्तियों में नाड़ियों के 8-16 जोड़े होते हैं जो स्पष्ट नज़र आते हैं। कार्वी में अगस्त से मार्च तक फूल व फल आते हैं। इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं और फूलों के गुच्छे पत्तियों की कक्ष में पैदा होते हैं तथा दूर से ही नजर आते हैं।

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है और इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

भारतीय वनस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित “फ्लोरा ऑफ राजस्थान” के खण्ड-2 के अनुसार राजस्थान में यह पौधा आबू पर्वत एवं जोधपुर में पाया जाता है। इसके अलावा यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा मध्यप्रदेश में सतपुड़ा बाघ परियोजना क्षेत्र में इसका अच्छा फैलाव है।

आलेख के लेखक ने अपनी वन विभाग में राजकीय सेवा के दौरान इसे “फुलवारी की नाल, सीता माता एवं कुंभलगढ़ अभयारण्य” में जगह-जगह अच्छी संख्या में देखा है। सीता माता अभयारण्य में भागी बावड़ी से वाल्मीकि आश्रम तक यह खूब नज़र आता है और फुलवारी की नाल में खांचन से लोहारी की तरफ जाने पर “सोना घाटी क्षेत्र में दिखता है। दक्षिणी अरावली में यह प्रजाति अच्छे वन क्षेत्रों में कई जगह विद्यमान है। कमलनाथ, राम कुंडा, लादन, जरगा आदि वन खंडों में यह पायी जाती है। जरगा पर्वत पर बनास नदी के उस पार से नया जरगा मंदिर की तरफ यह झाडी जगह-जगह वितरित है। जब इसमें फूल आ रहे हो उस समय इसको ढूंढना है पहचानना बहुत सरल हो जाता है।

माउंट आबू अभयारण्य में कार्वी के फूलों को देखते हुए पर्यटक (फोटो: श्री महेंद्र दान)

फूल देना और फिर मर जाना है फितरत इसकी…

स्ट्रोबाइलैंथस वंश के पौधों का फूल देने का तरीका सबसे अनूठा है। इनमें 1 से 16 वर्षों के अंतराल पर फूल देने वाली भिन्न-भिन्न प्रजातियां ज्ञात हैं। इस वंश में “कुरंजी या नील कुरंजी (strobilanthes kunthiana)” सबसे प्रसिद्ध है जो हर 12 वर्ष के अंतराल पर सामुहिक पुष्पन करते हैं और फिर सामूहिक ही मृत्यु का वरण कर लेते हैं।

इस प्रजाति में नीलगिरी के पश्चिमी घाट के अन्य भागों में वर्ष 1838,1850,1862,1874,1886,1898,1910,1922,1934,1946,1958,1970,1982,1994, 2006 एवं 2018 में पुष्पन हुआ है अगला पुष्पन अब 2030 में होगा। स्ट्रोबाइलैंथस वेलिचाई में हर साल, स्ट्रोबाइलैंथस क्सपीडेट्स में हर सातवे साल तो राजस्थान में उगने वाले स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा अथवा कार्वी में हर आठवे साल फूल आते हैं।

राजस्थानी कार्वी करता है एक शताब्दी में बारह बार पुष्पन

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा आठ साल के अंतराल पर पुष्पन करती है इसके पौधे 7 साल तक बिना फूल पैदा किए बढ़ते रहते है और आठवां वर्ष इनके जीवन चक्र के लिए एक अहम वर्ष होता है। वर्षा प्रारंभ होते ही गर्मी का मारा सूखा-सूखा सा पौधा हरा भरा हो जाता है तथा अगस्त से पुष्पन प्रारंभ करता है। पुष्पन इतनी भारी मात्रा में दूर-दूर तक होता है कि, आप दिनभर झाड़ियों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। चारों तरफ बड़े-बड़े फूलों का चटक नीला रंग अद्भुत नजारा पेश करता है ऐसे समय में मधुमक्खियां, तितलियां,भँवरे व अन्य तरह-तरह के कीट-पतंगे व पक्षी फूलों पर मंडराते नजर आते हैं।

पुष्पन का यह क्रम 15-20 दिन तक चलता है तत्पश्चात फल बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। वर्षा समाप्ति के बाद भूमि व पौधे के शरीर की नमी  का उपयोग कर फल बढ़ते व पकते रहते हैं और मार्च के आते-आते फल पक कर तैयार हो जाते हैं लेकिन बीज नीचे भूमि पर न गिरकर फलों में ही फंसे रह जाते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

इधर राजस्थान में अप्रैल से गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है और 8 साल का जीवन पूर्ण कर कार्वी खड़ा-खड़ा सूख जाता है यानी पौधे का जीवन समाप्त हो जाता है। इस तरह के पौधे को प्लाइटेशियल (plietesials) कहा जाता है। ऐसे पौधे कई साल बढ़वार करते हैं तथा फिर एक साल फूल देकर मर जाते हैं। अरावली में यही व्यवहार बांस का है जो 40 साल के अंतराल पर फूल व बीज देकर दम तोड़ देता है। प्लाइटेशियल पौधे की एक विशेषता और है कि, यह पौधे अधिक मात्रा में बीज पैदा करते हैं यह व्यवहार मास्टिंग (Masting) कहलाता है।

मानसून काल प्रारंभ होने पर वर्षा जल एवं हवा में मौजूद नमी को कार्वी का आद्रताग्राही फल सोख लेता है तथा फूलकर फटता हुआ कैद बीजों को बाहर उड़ेल देता है। बीज बिना इंतजार किए सामूहिक अंकुरण करते हैं और वनतल से विदा हुए बुजुर्ग कार्वी पौधों का स्थान उनके “बच्चे” यानी नए पौधे ले लेते हैं। अब यह नन्हे पौधे अगले 7 साल बढ़ते रहेंगे और अपने पूर्वजों की तरह आठवे साल पुष्पन करेंगे। इस तरह दो शताब्दीयो में कोई 25 बार यानी एक शताब्दी में 12 बार (या तेरह बार) पुष्पन करते हैं।

राजस्थान में सीता माता, फुलवारी, आबू पर्वत एवं कुंभलगढ़ में इस प्रजाति के पुष्पन पर अध्ययन की जरूरत है। इसके 8 साल के चक्रीय पुष्पन को ईको-टूरिज्म से जोड़कर स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

पौधशालाओं में पौध तैयार करके दक्षिण राजस्थान में इस प्रजाति का विस्तार भी संभव है। कार्वी क्षेत्रों में तैनात वनकर्मी भी इसपर निगरानी रखे तथा पुष्पन वर्ष की जानकारी आमजन को भी दे। वे स्वयं भी इसका आनंद लें क्योंकि राजकीय सेवाकाल में वे चार बार से अधिक इस घटना को नही देख पाएंगे।

 

Cover photo credit : Shri Mahendra Dan

पार्थीनियम: शुष्क प्रदेश के लिए एक अभिश्राप

पार्थीनियम: शुष्क प्रदेश के लिए एक अभिश्राप

पार्थीनियम आज राजस्थान की दूसरी सबसे अधिक आक्रामक तरीके से फैलने वाली एक खरपतवार है जो यहाँ के आवासों, स्थानीय वनस्पत्तियों और वन्यजीवों के लिए मुश्किल का सबब बनती जा रही है

जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कभी तेज गर्मी तो कभी सर्दी और इसके द्वारा न जाने कितनी अन्य मुसीबतों से आज पूरा विश्व गुजर रहा है। ऐसे में राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश लगातार जलसंकट का सामना कर रहे है कई खरपतवार वनस्पतियाँ इस संकट की घडी में पर्यावरण की मुश्किलों को और बढ़ा रही है जैसे की “पार्थीनियम “।

पार्थीनियम, राजस्थान की दूसरी सबसे खराब खरपतवार है जो की राज्य के अधिकांश इलाकों में आक्रामक तरीके से फैल चुकी है। यह राजस्थान के पारिस्थितिक तंत्र की मूल निवासी नहीं हैं तथा राजस्थान तो क्या पूरे भारत में इसके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे एवं प्राणी नहीं है क्योंकि यह एक आक्रामक प्रजाति (Invasive species) है। आक्रामक प्रजाति वे पौधे, प्राणी एवं सूक्ष्मजीव होते है जो जाने-अनजाने में मानव गतिविधियों द्वारा अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र से बाहर के क्षेत्र में पहुंच जाते है और फिर बहुत ही आक्रामक तरीके से फैलते है क्योंकि उनको नियंत्रित रखने वाली प्रजातियां वहां नहीं होती है।

Parthenium hysterophorus (Photo: Dr. Ravikiran Kulloli)

आज सिर्फ राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का लगभग 65 प्रतिशत भू-भाग पार्थीनियम की चपेट में है। परन्तु प्रश्न ये उठता है कि, अगर ये यहाँ की मूल निवासी नहीं हैं तो यहाँ आयी कैसे?

तो बात है सन 1945 की जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इस हमले के बाद दुनिया के तमाम देशों ने अमेरिका की आलोचना की तथा दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने के लिए सन 1956 में अमेरिका ने पब्लिक लॉ 480 (PL-480) स्कीम की शुरुआत की। इस स्कीम के अंतर्गत अमेरिका ने विश्व के आर्थिक रूप से गरीब व जरूरतमंद देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने का वादा किया तथा भारत भी उन देशों में से एक था। परन्तु इस स्कीम के तहत जो गेंहू आयात हुआ उसके साथ कई प्रकार की अनचाही वनस्पतिक प्रजातियां भी भारत में आ गयी और उनमें से एक थी “पार्थीनियम “। आज देखते ही देखते यह खरपतवार पूरे भारत सहित 40 अन्य देशों में फ़ैल चुकी है तथा इसके प्रकोप और प्रभावों को देखते हुए IUCN द्वारा इसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक माना गया है।

पार्थीनियम को “गाजर घास” एवं “कांग्रेस घास” भी कहा जाता है तथा इसका वैज्ञानिक नाम “Parthenium hysterophorus” है। उत्तरी अमेरिका मूल का यह पौधा Asteraceae परिवार का सदस्य है। एक से डेढ़ मीटर लम्बे इस पौधे पर गाजर जैसी पत्तियां और सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे फूल आते है।

जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पार्थीनियम  एक ऐसी खरपतवार है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र ख़ासतौर से राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है। राजस्थान में लगभग सभी इलाके 236 ब्लॉक में से 190 ब्लॉक डार्क ज़ोन में है तथा जलसंकट से ग्रसित है। यहाँ के ज्यादातर क्षेत्र शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, बीहड़, पर्णपाती वन और रेगिस्तान हैं तथा इन सभी आवासों की एक खास बात यह है कि, ये कभी भी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते हैं क्योंकि हरीयाली यहाँ वर्षा जल पर निर्भर करती है ऐसे में पार्थीनियम का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है।

इस खरपतवार से निम्न नुकसान होते हैं

  • स्थानीय वनस्पतियों के हैबिटैट में प्रसार : राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले प्रदेश में स्थानीय वनस्पतिक अपेक्षाकृत कम घनत्व वाली वनस्पति आवरण पायी जाती है ऐसे में पार्थीनियम विभिन्न तरीकों से स्थानीय वनस्पतियों को आच्छादित कर लेता है एवं उसके स्थान पर स्वयं फैलने लगता है  जैसे कि, यह एक शाकीय पौधा है और पास-पास उग कर यह सघन झाड़ियों (Thickets) के रूप में वृद्धि करता है जिसके द्वारा इससे छोटे पौधों को पूरी तरह से प्रकाश नहीं मिल पाता, उनकी वृद्धि नहीं हो पाती और न ही उनके बीज बनने की क्रिया पूरी हो पाती है। फिर धीरे-धीरे वो खत्म हो जाते हैं। इस प्रतिस्पर्धा  में छोटे पौधे और विभिन्न घास प्रजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। साथ ही इसमें पाए जाने वाले रसायन भी फसलों तथा अन्य वनस्पतियों पर एलेलोपैथिक प्रभाव डाल बीज अंकुरण व वृद्धि को रोकते है।

कृषि क्षेत्र में पार्थीनियम (फोटो: मीनू धाकड़)

  • संरक्षित वन क्षेत्रों में नुकसान: राजस्थान में पाए जाने वाले सभी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र शुष्क पहाड़ी क्षेत्र है जो न सिर्फ वन्यजीव संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि इस शुष्क प्रदेश के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में इनसे कई छोटी-छोटी जलधाराएं निकलती है जो आगे जाकर नदियों, तालाबों और बांधों का जल स्तर भी बढ़ाती है। परन्तु अब पार्थीनियम  इन संरक्षित क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है तथा बाकि वनस्पतियों को हटा कर दुर्लभ वन्यजीवों के आवास व भोजन को नुकसान पंहुचा रहा है।
  • मवेशियों व वन्यजीवों पर प्रभाव: राजस्थान में पानी की कमी के कारण चरागाह भूमि और घास के मैदान भी बहुत सिमित है जिनपर बहुत से मवेशियों के साथ-साथ शाकाहारी वन्यजीव जैसे सांभर, चीतल, चिंकारा, काला हिरन आदि भी निर्भर है और इन भूमियों के अधिकतर हिस्सों में अब पार्थीनियम  फैल गया है जिससे न सिर्फ चरागाह भूमियों की उत्पादकता में कमी आ रही बल्कि यह आवास धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव उन जीवों पर पड़ रहा है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं। साथ ही मवेशियों और अन्य जानवरों के लिए विषैला होता है और यदि कोई प्राणी इसकी हरियाली के प्रति आकर्षित होकर इसे खा ले तो वह बीमार हो जाता है या मर सकता है।
  • नमभूमियों को नुकसान: सिर्फ यही नहीं पार्थीनियम अपने पैर हर मुमकिन जगहों पर फैला रहा है जैसे की नमभूमियों के किनारे। राजस्थान में भीषण गर्मी के दिनों में छोटे जल स्रोत सूख जाया करते है और ऐसे में वर्षभर पानी उपलब्ध कराने वाले जल स्रोतों की महत्वता बहुत ही बढ़ जाती है। क्योंकि ये जल स्रोत न सिर्फ जानवरों को पानी उपलब्ध कराते है बल्कि वर्ष के सबसे भीषण गर्मी वाले दिनों में जब कहीं भी कोई घास व हरा चारा नहीं बचता है उस समय इनके किनारे उगने वाले हरे चारे पर कई जीव निर्भर करते है। परन्तु आज पार्थीनियम  इन जल स्रोतों के किनारों पर भी उग गया है तथा जानवरों के लिए गर्मी के दिनों में मुश्किल का सबब बन रहा है। राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश जहाँ पहले से ही पानी की कमी के कारण मनुष्य, मवेशी और वन्यजीव मुश्किल में है वहां पार्थीनियम  जैसी खरपतवार मुश्किलों को और भी ज्यादा बढ़ा रही है।
  • छोटी जैव विविधता को नुकसान: प्रकृति में घास और अन्य पौधों की झाड़ियों में चिड़ियाँ, मकड़ी, शलभ (moth) और कई प्रकार के छोटी जीव रहते हैं परन्तु पार्थेनियम के विस्तार के साथ एक ही प्रकार का आवास बनता जा रहा है जिसके कारण यह कम जैव विविधता को समर्थन करता है।
  • आग की घटनाओ को बढ़ाना: क्योंकि यह एक साथ लगातार बड़े-बड़े हिस्सों में फैलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में नमी की कमी से यह सूख जाता है और सूखने पर यह एक आसानी से जलनेवाला पदार्थ (Combustible) है तथा जंगल में आग की घटनाओं को बढ़ाता है।
  • फसलों और आय पर प्रभाव: आज अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी यह फ़ैल चुका है और जिसके करण खेतों की उत्पादकता और फसलों की पैदावार कम हो रही है क्योंकि यह जरुरी पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।
  • मनुष्यों पर प्रभाव: न सिर्फ वनस्पत्तियों और जीवों के लिए यह हानिकारक है बल्कि यह मनुष्यों के लिए भी बहुत नुकसान दायक है क्योंकि इस पौधे के संपर्क में आने से मनुष्यों में खाज, खुजली, चर्म रोग, दमा, हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं।
फैलने के कारण व तरीके:
  • इसके तेजी से फैलने के पीछे कई कारण है जिसमें सबसे मुख्य है कि, इसका जीवनचक्र 3-4 माह का ही होता है और इसका एक पौधा एक बार में लगभग 10,000 से 25,000 बीज पैदा करता है। यह बीज हल्के होते हैं जो आसानी से हवा और पानी से आसपास के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं तथा यह वर्षभर प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उगने व फलने फूलने की क्षमता रखता है।

पार्थीनियम, एक बारी में ही बड़ी तादाद में बीज पैदा करता है। (फोटो: मीनू धाकड़)

  • वन क्षेत्रों को जब भी सड़क, रेल लाइन और नहरों के निर्माण के लिए खंडित किया जाता है अर्थात जंगल को काटा जाता है तो जंगल का कैनोपी कवर हटने से भूमि खाली होती है और जिसपर प्रकाश भी भरपूर होता है। बस प्रकाश और खाली स्थान मिलते ही ऐसे खरपतवार वहां उग जाते है। साथ ही निर्माण कार्य के दौरान आसपास बने गड्ढों में पानी भर जाने पर भी ये उग जाता है।
  • अगर ये नदी या पानी के किनारे पर मौजूद होता है तो बहते हुए पानी के साथ आते-आते इसके बीज पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाते है और धीरे-धीरे यह खेतों में भी पहुंच जाता है।
  • स्वास्थ्य के ऊपर कई नुकसान होने के कारण कोई भी प्राणी इसे नहीं खाता है जिसके कारण यह बचा हुआ है और तेजी से फ़ैल रहा है।
  • हालांकि प्राणी इसे नहीं खाते हैं परन्तु ऐसा देखा गया है कि, गधा इसे बड़े चाव से खाता है और फिर उसके गोबर के साथ इसके बीजों का बिखराव आसपास के सभी क्षेत्र में हो जाता है।
वनस्पति विशेषज्ञ डॉ सतीश कुमार शर्मा के अनुसार इसे निम्न तरीकों से हटाया जा सकता है:

पार्थीनियम अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी फ़ैल चूका है और इसे उन्मूलन, पुनः रोपण और जांच इन तीन चरणों से ही हटाया जा सकता है। (फोटो: मीनू धाकड़)

  • इस खरपतवार को हटाने का सबसे पहला और बड़ा तरीका यह है कि, इसे छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने से सफलता नहीं मिलेगी। यानी अगर हम इसे छोटे क्षेत्र से ही हटाते हैं जैसे किसी किसान ने सिर्फ अपने खेत से हटाया या फिर वन विभाग ने सिर्फ एक रेंज से हटाया और आसपास यह मौजूद है तो आसपास के क्षेत्रों से यह वापिस आ जाएगा। इसीलिए इसे छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बल्कि “लैंडस्केप स्तर” पर हटाना होगा। यानी की इसे विस्तृत रूप से हटाना होगा जैसे वन विभाग वाले वनों से हटाए, चरागाह वाले चरागाह से हटाए और नगरपालिका वाले शहरों से हटाए। यानी एक साथ सब जगह से हटाने से ही इसका नियंत्रण होगा।
  • इसे हमेशा फूल और फल बनने से पहले हटाना चाहिए नहीं तो बीज सब तरफ फ़ैल जाएगें। इसे हटाते समय काटो या जलाओ मत, नहीं तो यह फिर से उग जाएगा। इसको पूरी जड़ सहित उखाड़ा जाना चाहिए और यह करने का सबसे सही समय होता है बारिश का मौसम।
  • इसे पूर्णरूप से हटाने के तीन चरण है; उन्मूलन (Eradication), पुनः रोपण (Regeneration) और जांच (Followup) अर्थात जैसे ही एक क्षेत्र से इसे हटाया जाए साथ के साथ स्थानीय वनस्पति का पुनः रोपण (Regeneration) भी किया जाए ताकि खाली ज़मीन से मिट्टी का कटाव न हो। साथ ही हटाए गए क्षेत्र का समय-समय पर सर्वेक्षण कर जांचना चाहिए कि, कहीं कोई नए पौधे तो नहीं उग गए क्योंकि जो बीज मिट्टी में पड़े रह गए होंगे बारिश में नया पौधा बन सकते हैं। ऐसे में उन नए पौधों को भी हटा देना चाहिए। इन तीन चरण को लगभग चार से पांच वर्ष तक किये जाने पर इसे हटाया जा सकता है।
  • पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ऊपर से नीचे की तरफ और समतल क्षेत्रों में बीच से बाहरी सीमा की तरफ हटाया जाना चाइये।
  • विभिन्न विकास कार्यों के दौरान जंगलों के कटाव के कारण भी यह वन क्षेत्रों में आ जाता है। इसीलिए हमें सबसे पहली कोशिश यही रखनी चाहिए की वनों का खंडन न करें और अन्य विकल्प खोजने की पूरी कोशिश करें। और यदि काटे भी तो स्थानीय पौधों का रोपण कर खाली स्थानों को भर दिया जाए।

राजस्थान में पानी की बढ़ती कमी के इस दौर में पार्थीनियम जैसी खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए सभी विभागों को मिलकर कार्य करना होगा। विशेषरूप से संरक्षित क्षेत्रों से इसे हटाने के लिए विभाग को एक मुहीम चलानी चाहिए तथा राज्य सरकार को भी नरेगा जैसी स्कीम के तहत जल स्रोतों और चारागाह भूमियो से इसे हटाने के प्रयास करने चाइये।

साथ ही वन विभाग के सभी कर्मियों को उनके क्षेत्र में पायी जाने वाली खरपतवार की पहचान, उनकी वानिकी और नियंत्रण के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे ऐसी खरपतवार को सफलतापूर्वक तरीके से हटा सके।

Cover photo credit : Dr. Ravikiran Kulloli