Faunal Diversity of Rajasthan – Book Review

“Faunal Diversity of Rajasthan” by Dr. Satish Kumar Sharma is a comprehensive and invaluable resource on the rich faunal biodiversity of Rajasthan. Published by Himanshu Publications Udaipur and New Delhi in 2024, this extensive work spans 305 pages and is priced at Rs. 2995/-. Dr. Sharma, a well-known Forest Officer and naturalist, brings his deep expertise and passion for wildlife to this meticulously researched volume.

The book features a foreword by Sh. Arijit Banerjee, PCCF and Head of Forest Force Rajasthan, Jaipur, underscoring its significance. Dr. Sharma documents an impressive 3761 faunal species from Rajasthan, categorized into 1963 genera across 14 phyla, including 9 Non-Chordata and 5 Chordata phyla such as Protozoa, Porifera, Platyhelminthes, Nemathelminthes, Trochelminthes, Bryozoa, Annelida, Arthropoda, Mollusca, Fishes, Amphibia, Reptilia, Aves, and Mammalia. The species are systematically arranged by families and orders, enhancing the book’s utility for taxonomical reference.

Enhanced with 54 tables, 52 sketches/photographs, including 40 colored images, 6 maps, 1 box, 381 references, and 8 appendices, the book is a visual and informational treasure trove. Titles and subtitles are color-coded, aiding in navigation. Notably, the inclusion of over 1300 local names alongside Hindi and Latin names makes the book accessible to a broader audience, enabling even laypersons to identify and understand various species.

A particularly fascinating section of the book is the synopsis of each bird family and the detailed descriptions of all phyla. Dr. Sharma’s exploration of bird migratory habits, categorizing them into 13 families, is a valuable asset for bird watchers.

The book also presents a comparative analysis of faunal diversity between Assam and Rajasthan, highlighting the stark differences due to climatic conditions. While Assam boasts 2168 species across major animal groups, Rajasthan, despite its arid and semi-arid conditions, supports 1511 species, showcasing its unique and resilient biodiversity.

“Faunal Diversity of Rajasthan” serves as an indispensable reference for foresters, wildlife managers, botanists, zoologists, environmentalists, conservationists, bird watchers, and nature lovers. It offers a “single window” overview of Rajasthan’s faunal spectrum, providing quick access to species counts in major animal groups. This feature is particularly useful for researchers verifying potential new species records in the state.

Dr. Sharma gives special attention to several taxa such as the freshwater crab (Paratelphusa jacqumentii), Mahseer (Tor spp.), Indian garden lizard (Calotes versicolor), Indian chameleon (Chamaeleo zeylanicus), Laudankia vine snake (Ahaetulla laudankia), Grey junglefowl (Gallus sonneratii), Lion (Panthera leo), Leopard (Panthera pardus), Caracal (Caracal caracal), and Striped squirrel (Funambulus spp.). The book provides intriguing facts about these species, enriching the reader’s knowledge.

In addition to wild fauna, the book also covers the diversity of domestic and exterminated taxa in Rajasthan. The creation of such a detailed and expansive book typically requires a large collaborative effort, yet Dr. Sharma has accomplished this monumental task single-handedly. His dedication, passion, and exhaustive efforts are evident throughout the book.

“Faunal Diversity of Rajasthan” is a testament to Dr. Sharma’s expertise and commitment, making it a crucial addition to the field of wildlife studies and conservation.

Dr Satish Sharma (left) with villagers while exploring the orchids of Rajasthan in Phulwari Ki Naal Wildlife Sanctuary

Book Details

Faunal Diversity of Rajasthan
Author: Dr. Satish Kumar Sharma
Pages: 1-305 (21.5 cm x 14.0 cm)
Publisher: Himanshu Publications, Udaipur and New Delhi
Publication Year: 2024
Price: Rs. 2995

तालछापर अभ्यारण्य में ग्रीन लिंक्स मकड़ी की नई प्रजाति

तालछापर अभ्यारण्य में ग्रीन लिंक्स मकड़ी की नई प्रजाति

राजस्थान के चूरू जिले में स्थित तालछापर वन्यजीव अभ्यारण्य में वैज्ञानिकों ने ग्रीन लिंक्स मकड़ी की एक नई प्रजाति की खोज की है। यह खोज डॉ. विनोद कुमारी के मार्गदर्शन में शोध कार्य कर रही सीकर निवासी निर्मला कुमारी द्वारा की गई है।

लिंक्स मकड़ियाँ

ये स्थलीय शिकारी मकड़ियां प्रभावी अरैक्निडा वर्ग की जंतु है जो कि पारिस्थितिकी तंत्र के की-स्टोन प्रजाति हैं। ऑक्सीओपिडी कुल के सदस्यों में आठ आंखें, तीन टारसल नखर, तीन जोड़ी स्पिनरेट्स, अधिजठर खांच के किनारों पर बुकलंग्स खुलना के सामान्य लक्षण होते हैं। इन मकड़ियों को अध्ययन क्षेत्र में इनके पैरो पर उपस्थित असंख्य खड़े स्पाइंस,  तीव्र गति की अचानक छलांगों  से पहचाना जाता है। इनकी खोज और वर्गीकरण का श्रेय स्वीडिश अरच्नोलॉजिस्ट टॉर्ड टैमरलान टेओडोर थोरेल को जाता है, जिन्होंने 1869 में इन मकड़ियों का अध्ययन किया था।

इन मकड़ियों की आदतों एवम अपेक्षाकृत तेज दृष्टि के कारण इन्हें लिंक्स मकड़ियां कहा जाता हैं ये मकड़ियां ऑक्सीओपिडी कुल के 9 वंशों की लगभग 445 प्रजातियों से संबंधित है । इनकी उत्कृष्ट दृष्टि शिकार को सक्रिय रूप से तलाशने, उनका पीछा करके उन पर घात लगाकर हमला करने एवं दुश्मनों से बचाने के लिए छलांग के उपयोग में सहायता प्रदान करती है।

व्यवहार

  • शिकारी: ये मुख्य रूप से हेमिप्टेरा, हाइमेनोप्टेरा, और डीप्टेरा गण के कीटों का शिकार करती हैं।
  • घात लगाकर शिकार: ये अक्सर पत्तियों या फूलों पर छिपकर शिकार की प्रतीक्षा करती हैं
  • तेज दौड़: ये अपने शिकार का पीछा करने के लिए तेजी से दौड़ सकती हैं और यहां तक कि उड़ने वाले कीड़ों को पकड़ने के लिए कुछ सेंटीमीटर हवा में छलांग लगाती है
  • मातृ देखभाल: इन मकड़ियो के द्वारा दिए गए अंडे एगसेक छोटी वनस्पतियो के शीर्ष से जोड़ा जाता हैं एवम मादा लिंक्स मकड़ियाँ एगसेक के स्पूटन तक अंडों की रक्षा करती हैं।

नई खोज का महत्व

  • यह खोज भारतीय जैव विविधता को समृद्ध करती है और वैज्ञानिकों को इस अद्भुत प्राणी के बारे में अधिक जानने का अवसर प्रदान करती है।
  • यह मकड़ी वन पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
  • इस खोज से तालछापर वन्यजीव अभ्यारण्य को एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक महत्व मिलता है।

मकड़ी की विशेषताएं

  • यह मकड़ी हरे रंग की होती है जो इसे पेड़ों की पत्तियों में छिपने में मदद करती है।
  • इसके लंबे पैर इसे तेज़ी से शिकार का पीछा करने में सहायता प्रदान करती है।
  • यह दिन के समय सक्रिय होती है और छोटे कीड़ों का शिकार करती है।
  • यह मकड़ी अत्यधिक गर्म और ठंडी जलवायु परिस्थितियों में भी जीवित रह सकती है।

नामकरण

इस मकड़ी की प्रजाति का नाम “प्यूसेटिया छापराजनिरविन” रखा गया है।

  • छापराज” शब्द खोज स्थल के नाम पर आधारित है जो कि छापर एवम राजस्थान से लिया गया है।
  • निर” निर्मला कुमारी और “विन” डॉ. विनोद कुमारी के नाम के पहले अक्षरों से लिया गया है।

शारीरिक पहचान

  • आकार: सामान्यतः इनका आकार 4-25 mm होता है, किन्तु प्यूसेटिया छापराजनिरविन का आकार 11.2mm पाया गया है।
  • रंग: इनका रंग प्रायः चमकीले हरे से पीले भूरे रंग तक होती हैं, जिससे कारण यह अपने आसपास के वातावरण में आसानी से घुल-मिल जाती हैं। प्यूसेटिया छापराजनिरविन के शिरोवक्ष का रंग  हल्का भूरा एवं उदर का रंग हल्का हरा पाया गया है।
  • आँखें:  प्राय: इन मकड़ियों की तेज दृष्टि उनकी आठ आंखें के कारण होती है जिनमे से छह समान आकार की आंखें जो शीर्ष पर एक षट्भुज बनाती हैं  एवम एक जोड़ी आंखें चेहरे के सामने षट्भुज के नीचे स्थित होती हैप्यूसेटिया छापराजनिरविन के  आंखों की आगे की पंक्ति प्रतिवक्रित जिसमें आगे मध्य की आंखें छोटी तथा पार्श्व की सबसे बड़ी होती है पीछे की पंक्ति की  सभी आंखें समान आकार तथा अग्रवक्रित होती है।
  • टांगें: सामान्यतः लिंक्स मकड़ियों की टांगें लंबी, काँटेदार स्पाइन्स युक्त होती हैं, जो शिकार को पकड़ने, तेजी से दौड़ने में मदद करती हैं। प्यूसेटिया छापराजनिरविन की मजबूत टांगे पीले भूरे रंग की तीन टारसल नखर युक्त होती है जिसका पाद सूत्र 1243 होता है।
  • आंतरिक जननांग: प्यूसेटिया छापराजनिरविन के आंतरिक जननांग में दो गोलाकार स्पर्मेथिका युक्त होती है जो कि विशिष्ट मैथुन वाहिनी एवम निषेचन वाहिनी युक्त होती हैं।

तालछापर वन्यजीव अभयारण्य

तालछापर वन्यजीव अभ्यारण्य 7.19 km2 में फैला हुआ है जो कि काले हिरणों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पर लगभग 4958 हिरणो के साथ ही साथ चिंकारा, नील गाय, जंगली सूअर, जंगली बिल्ली, मरू बिल्ली, कॉमन फॉक्स, डेजर्ट फॉक्स , सियार, भेड़िया, शिकारी पक्षी , मोर, सांडा व खरगोश जन्तुओ के साथ मोथिया घास, बबूल, देशी बबूल, कैर, जाल, रोहिड़ा, नीम, खेजड़ी आदि वनस्पतियो की प्रजातियां भी पायी जाती है। इसलिए यह अभ्यारण्य प्रकृति प्रेमियों और वन्यजीव उत्साही लोगों के लिए एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है।

यह खोज निश्चित रूप से भारत के वन्यजीव संरक्षण और जैव विविधता अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण योगदान देगी।

References

  • Kumari, N., Kumari, V., Bodhke, A. K. and Zafri, A. H. (2024). New species of genus Peucetia Thorell, 1869 (Araneae: Oxyopidae) from India. Serket  20(2): 73-77.

Authors

Dr. Vinod Kumari (Left) is an accomplished Associate Professor at the University of Rajasthan, Jaipur, and is renowned for her work in sustainable agriculture and environmental conservation. Her research focuses on biological pest control using natural agents and green nanoparticles, reducing the need for harmful chemicals. Ms Nirmala Kumari (Right), a research scholar under Dr. Vinod Kumari, is studying spider diversity in Taal Chhaper Wildlife Sanctuary, Rajasthan. During her research, she discovered a new species of green lynx spider, named Peucetia chhaparajnirvin, which has been officially recognized and included in the World Spider Catalog.

राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियां

राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियां

प्रकृति और उसके विभिन्न जीव जंतुओं से हम हमेशा से ही आकर्षित होते रहे हैं और इन्हीं के कारण हमारे जीवन में रंगों और सुंदरता का महत्व है फिर चाहे वह रंग-बिरंगे फूलों हो या उड़ती हुई चिड़िया हो या फिर फूलों पर मंडराती तितलियां या अन्य कीट इन्होंने मनुष्य को सदैव लुभाया हैं। कीट वर्ग में सबसे सुंदर तितलियों को माना जाता है क्योंकि उनके पंखों की खुली सतह पर बहुत रंगों का एक साथ प्रयोग होता है। सामान्यतः तितलियों को हम हमारे आसपास बाग बगीचों, वन-उपवन और खेत खलियानों में यहां वहां उड़ती, फूलों का रस पीते हुए आसानी से देख सकते हैं।

दुनिया भर में सर्वाधिक जंतुओं में कीड़े सबसे ज्यादा मिलते हैं इन्हीं कीड़ों के अंतर्गत तितलियों को लेपिडोप्टरा गण में शामिल किया गया है। तितलियों की दुनिया भर में लगभग 18000 प्रजातियां पाई जाती है जिनमें से भारत से लगभग 1432 प्रजातियों को दर्ज किया गया है, जो दुनिया भर में पाई जाने वाली तितलियों का 8% हिस्सा रखती है। वहीं राजस्थान में लगभग 115 प्रजातियों की तितलियां होने का दावा किया जाता है।

पैंसी तितलियों का सामान्य परिचय

यह लेख राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों के देखें जाने के संबंध में हैं। पैंसी तितलियों की भारत में छ: प्रजातियां पाई जाती है इन्हीं छ: प्रजातियों का राजस्थान में भी वितरण मिलता हैं। इन पैंसी तितलियों को कीट वर्ग के लेपिडोप्टरा (Lepidoptera) गण के Nymphalidae कुल के Junonia वंश में रखा गया हैं। इस वंश की तितलियों की संपूर्ण भारत व राजस्थान में छ: प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनका विवरण इसी लेख में आगे उल्लिखित हैं।

यह पैंसी तितलियां सामान्यतः प्रकाश प्रिय होती हैं जो फुर्तीले स्वभाव के साथ मध्यम आकार की, तेजी से उड़ान भरने में माहिर हैं। इन तितलियों को हिंदी में मंडला या बनफशा भी कहा जाता हैं। यह तितलियां बहुत सुन्दर होने और रंग-बिरंगे होने के कारण भी इन्हें पैंसी (Pansy) नाम दिया गया है। इन तितलियों के अंग्रेजी भाषा में सामान्य नाम भी इनके रंगों के आधार पर रखे गए हैं। सामान्यतः पैंसी तितलियों के पंखों की खुली सतह पर दो से अधिक बडी व छोटी रंगीन चमकीली अंडाकार आंखों के समान धब्बेंनुमा संरचनाएं पाई जाती हैं। इन तितलियों के पंखों के रंग पैटर्न की विविधता प्रकृति में पाई जाने वाली सबसे आकर्षक और जटिल विकासवादी घटनाओं में से एक मानी जाती है। सभी तितलियों में नैत्र धब्बें (eye-spot) नहीं पाए जाते ये केवल कुछ ही प्रजातियों में देखने को मिलते है ये नेत्र धब्बें तितलियों को शिकारियों से सुरक्षा प्रदान करने और सूखे आवासों के साथ छद्मावरण में सहयोग करते हैं। सामान्यतः इन तितलियों के दोनों पंखों की निचली सतह गहरे कत्थई रंग की होती हैं जिसमें आई स्पॉट नहीं पाए जाते तथा बंद पंखों वाली अवस्था एक दम सूखे पत्तों जैसी दिखाई देती है।

सभी पैंसी तितलियों के लार्वा (caterpillar) अकारिकी रूप से समान होते हैं। लार्वा गहरे काले-भूरे रंग के होते हैं जिनकी सतह शाखित महीन कांटेदार संरचनाओं से ढकी रहती हैं। सामान्यतः सभी पैंसीस के लार्वा काम दिखाई देते है क्योंकि इन्हें खतरे का आभास होते ही यह पत्तियों के पीछे छुप जाते हैं या फिर अपने आप को जमीन में घिरा देते है और खतरा टल जाने पर वापस मेज़बान पौधे पर आ जाते हैं। इन तितलियों के लार्वा के मेज़बान पौधे ज्यादातर Acanthaceae परिवार के पौधे होते हैं जैसे- आपमार्ग, पिली/नीली/सफेद वज्रदंती, आडूसा, कागजंघा, रुएलिया तथा नीला कुरंजी वंश के पौधे इत्यादि।

पैंसी तितलियों का राजस्थान में वितरण

समान्यत: पैंसी  तितलियां राजस्थान के संपूर्ण भू-भाग पर पाई जाती है। एवं इनका वितरण  कुछ पैंसी तितलियां सूखे इलाकों में तो कुछ नम क्षेत्रों में पाई जाती हैं। शहरी क्षेत्रों में जहां बगीचे होते है वहा कुछ पैंसी तितलियों की प्रजातियां जैसे पीकॉक पैंसी(Peacock pansy), लेमन पैंसी (Lemon pansy) व ब्लू पैंसी (Blue pansy) अधिक देखने को मिलती है। कुछ पैंसी तितलियां खुले मैदानों, घास के मैदानों और पहाड़ी क्षेत्रों मैं पाई जाती है जैसे यैलो पैंसी (yellow pansy) व ग्रे पैंसी (grey pansy)। इनसे अलग चॉकलेटी पैंसी (Chocolate pansy) सीमित क्षेत्रों में जहां बड़ी पतियों वाली वनस्पतियां हों, प्रयाप्त छाया व नमी वाले क्षेत्रों में ही पाई जाती हैं। चॉकलेटी पैंसी राजस्थान में सामान्यत: उदयपुर संभाग व घना पक्षी अभ्यारण (भरतपुर) में देखी गई है।

राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों की प्रजातियो का समान्य विवरण

The Lemon Pansy: इस तितली हिन्दी में नींबूई मंडला कहा जाता हैं जिसका वैज्ञानिक नाम Junonia lemonias हैं। यह एक मध्यम आकार की तितली है जिसके पंखों की ऊपरी सतह जैतूनी हरे रंग की, तथा मट-मैले पीले निशान पाए जाते है पंख भूरे रंग के होते है। तथा दोनों पंखों पर नीली-काली किन्तु नारंगी रंग से आवरित नेत्र धब्बें पाए जाते हैं। पंखों की निचली सतह हल्की कत्थई की जिसपर कोई धब्बें नहीं होते। यह प्रकाश प्रिय तितली है जो धूप अच्छी होने पर फूलों में अटखेलिया करती दिखाई देती है। पंख बंद करके सूखे पत्तों, टहनियों तथा दीवारों के साथ छद्मावरण करके बैठना पसन्द करती है ताकि शिकारी जीव आसानी से पहचान न पाए। ये कम दूरी की तेज उड़ान भरती है तथा जमीन के समीप उड़ती है।

लार्वा के मेज़बान पौधे: Justicia adhatoda, J.procumbens, Achyranthes aspera, Nelsonia sp., Barleria…etc

The Blue Pansy: हिन्दी में इसे नीली मंडला या नीली बनफशा कहा जाता है। तथा वैज्ञानिक नाम Junonia orithya हैं। इस तितली की पहचान इसके खुले पंखों की ऊपरी सतह पर नीले रंग से की जाती है और इसी से इसका नामकरण भी किया गया है। इस तितली के आगे के पंखों की ऊपरी सतह पर अंदर की ओर काला रंग अधिक प्रभावी होता हैं, बाहरी किनारे की ओर सफेद रंग की धारियां तथा हल्के भूरे रंग का जमाव पाया जाता हैं तथा दो काले-भूरे रंग की आंखें पाई जाती है। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर भी आगे वाले पंखों के समान ही अन्दर की ओर काले रंग के धब्बें लेकिन अपेक्षाकृत छोट तथा बाहर की ओर नीला रंग अधिक प्रभावी होता हैं। पिछले पंखों पर पाई जाने वाली आंखें बड़ी व मध्य में नीला निशान तथा इसके बाहर नारंगी रंग का अंडाकार घेरा पाया जाता हैं। यह तितली शहरी क्षेत्रों में बगीचों, खुले स्थानों तथा वनों में पानी के स्रोत के आस पास और सूखे पत्तों व पत्थरीली जमीन में पाई जाती है। इस तितली के पंख फैलाव सभी पैंसी तितलियों में सबसे कम होता है क्योंकि यह आकार में तुलनात्मक रूप से सभी से छोटी होती है।

लार्वा के भोज्य पौधो में Justicia procumbens, Justicia simplex, Barleria prionitis, Dicliptera paniculata…etc. Acanthaceae परिवार के पौधे शामिल हैं।

The Yellow Pansy: इस तितली को पिली मंडला या पीत बनफशा भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junonia hierta हैं। यैलो पैंसी के आगे के ऊपरी पंख चमकीले पीले रंग के होते हैं जिनपर काले रंग के निशान पाए जाते हैं। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के साथ अंदर की ओर दुम के आसपास काले रंग के धब्बे पाए जाते हैं इस काले रंग के धब्बों के बीच में चमकीले नीले रंग का निशान पाया जाता है जो पंख की जड़ तक होता है। यह तितली सभी पैंसी तितलियों में सर्वाधिक जंगली आवासों में देखी जाने वाली है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में काम दिखाई देती हैं। इसे खुले क्षेत्रों व पत्थरीले आवासों में धूप शेकते आसनी से देखा जा सकता हैं।

लार्वा के मेज़बान पौधो में Barleria prionitis, Barleria cristata, Hygrophila auriculata and Mimosa pudica (fabaceae). शामिल है।

The Peacock Pansy: इस तितली को मोरई मंडला या नारंगी रंग की होने के कारण नारंगी मंडला भी कहा जाता है। जिसका वैज्ञानिक नाम Junonia almana हैं। इस तितली के आगे के ऊपरी खुले पंख चमकीले नारंगी, जिनपर कत्थई रंग के निशान पाए जाते हैं। आगे के पंखों के नेत्र धब्बें असमान आकार के जिनके मध्य में सफेद-नीले रंग का गोल धब्बा जो दोहरी काली गोलकार रेखा से आवरीत होते हैं। पिछले पंखों पर भी आगे वाले पंखों के समान ही दो आंखें पाई जाती है लेकिन इनमें से एक अपेक्षाकृत अधिक बड़ी वह उबरी हुई होती है तथा दूसरी स्पष्ट वह काम उबारी हुई होती है। बड़ी उभरी हुई आंख के अंदर काले रंग का ढाबा वह साथ ही सफेद रंग के छोटे निशान होते हैं यह भी दोहरे आवरण युक्त काली गोल रेखाओं से घिरा रहता है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में फूलों का रस पीती हुई तथा उन पर मंडराती हुई अधिक देखी जाती हैं। समान्यत: यह तितली अपने पंखों को फैला कर बैठती है लेकिन सुखे आवासों या सुखे पत्तों पर यह अपने पंख बंद करके बैठना पसन्द करती हैं क्योंकि पंख बंद करने के बाद ये सुखे पत्तों के समान ही दिखाई देती है तथा आगे वाले पंख का बाहरी किनारा हुक के समान मुड़ा हुआ दिखाई देता हैं।

लार्वा के भोज्य में Barleria prionitis, Hygrophila auriculata, Ruellia tuberosa, Phyla nodiflora इत्यादि शामिल हैं।

The Grey Pansy: यह ध्रुसर/मलाई रंग की बेहद खूबसूरत तितली हैं। इसे ध्रुसर मंडला भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junonia atlites हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह पर काली पट्टीया पाई जाती हैं। आगे व पीछे वाले दोनों जोड़ी पंखों के बाहरी किनारे पर नारंगी व काले छोट-बड़े नेत्र धब्बों की पंक्ति पाई जाती हैं। पंक्ति में कुछ धब्बें रंगीन तो कुछ हल्के ध्रुसर रंग के होते है तथा रंगीन नेत्र धब्बें लगातार न हो कर कुछ अन्तराल में व्यवस्थित होते हैं। इस तितली के दोनों पंखों की निचली सतह पर, जब ये पंख बंद करके बैठी हो, तब लगभग पंखों के मध्य से एक हल्के काले भूरे रंग की सीधी रेखा गुजरती हुई दिखाई देती हैं। तथा दोनों पंखों की निचली सतह के बाहरी किनारो पर हल्के नेत्र धब्बें उभरे हुए दिखते है। यह तितली धीमी गति से तथा धरती की सतह के नज़दीक उड़ना पसन्द करती हैं। बरसात व हल्की सर्दि के दिनों में बाग बगीचों के फूलों पर मंडराती हुई, रस पीती हुई अधिक देखी जाती हैं। खुले क्षेत्रों में सुखे हुए घास तथा पत्तों पर पंख फैलाकर बैठना या धूप सेंकना इसे अत्यंत प्रिय हैं।

लार्वा के भोज्य पौधो में Lepidagathes cuspidata, Justicia procumbens, Dicliptera paniculata, Sida rhombifolia, Corchorus capsularis इत्यादि शामिल हैं।

The chocolate Pansy: यह गहरे भूरे रंग की होने के कारण इसे चॉकलेटी मंडला(Chocolate pansy) कहा जाता हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह गहरे भूरे/कत्थई रंग की जिसपर अन्य पैंसी तितलियों के समान नेत्र धब्बें नहीं पाए जाते, लेकिन कत्थई रंग की धारियां पाई जाती हैं। पीछले पंख भी अग्र पंखों के समान, लेकिन पीछले पंखों की ऊपरी सतह के बाहरी किनारो पर हल्के भूरे रंग के काम उभरे हुए या अस्पष्ट नेत्र धब्बों की पंक्ति दिखाई देती हैं। ये तितली छायादार तथा नम क्षेत्रों में पाई जानें के कारण इसकी राजस्थान में सीमित उपलब्धता हैं जबकि अन्य पैंसी तितलियां धूप वाले खुले क्षेत्रों को अधिक पसन्द करती हैं। चॉकलेट पैंसी सभी पैंसी तितलियों की प्रजातियों में से सबसे बड़ी है तथा इसका पंख फैलाव भी सबसे ज्यादा हैं। ये तितली फूलों तथा पक्के हुए फलों या सड़े हुए फलों का रस पीना पसंद करती हैं। यह सुखे पत्तों या सुखी वनस्पतियो के साथ पूर्ण रूप से छद्मावरण कर लेती हैं जो इन्हें शिकारी जीवों से बचाएं रखने में मददगार साबित होता हैं।

लार्वा के भोज्य पौधो में Barleria cristata, Dipteracanthus prostratus, Ruellia simplex, Ruellia tuberosa, Strobilanthes callosus, Astracantha longifolia, Erathemum roseum शामिल हैं।

References

  • Arun Pratap Singh: Butterflies of India
  • iNaturalist: https://www.inaturalist.org/
  • India Biodiversity Portal: https://indiabiodiversity.org/
  • Isaac Kehimkar: The Book of Indian Butterflies
  • Kumar Ghorpade: Butterflies of Keoladeo national park, Bharatpur, Rajasthan.
  • Kunte, K., S. Sondhi, and P. Roy (Chief Editors). Butterflies of India, v. 4.27. Indian Foundation for Butterflies. URL: https://www.ifoundbutterflies.org.
  • Lekhu Gehlot et.al :Sighting and Documentation of lepidoptera from urban region of Jodhpur, Raj.
  • Rashtriya Titli Namkaran Sabha. 2024. Butterflies of India: A Checklist of Hindi Names. A version for public Consultation. Indian Foundation for Butterflies Trust, Bengaluru. 25pp.
  • Rohan Bhagat: Checklist of Butterflies from MHTR, Rajasthan.
  • Sunita Rani & S.I. Ahmed: Diversity & seasonality of butterflies in STR, Rajasthan.
The Strange Tale of Two Missing Bats in Rajasthan

The Strange Tale of Two Missing Bats in Rajasthan

We often fail to recognize that the knowledge of the biodiversity of a location in India, be it a single locality or region, results from a cumulative process of documentation stretching back centuries. Most of this knowledge stems from the written works of European naturalists and explorers in the 19th and early 20th centuries. This information was then passed down from one author to another in a chain through citations, with very few ever questioning the veracity of some reports. Rajasthan was no different, despite being the scene of considerable scientific field exploration after independence in 1947.

As a result, certain mysteries and loose ends in information continue to bewilder us, particularly when we decide to step out of the realm of charismatic fauna and take a closer look at other species.

For instance, why has a bat species, Tickell’s bat Hesperoptenus tickelli (Blyth, 1851), not been recorded in Rajasthan for over a century? Did it go extinct? Or is something else afoot? Could there have been an error in documentation by an early naturalist that has gone unnoticed all these years?

Furthermore, why was the possibility of another species of bat being found in Rajasthan, the small mouse-tailed bat Rhinopoma muscatellum Thomas, 1903 suddenly raised in 1997 when there has been no evidence of it ever being found in Rajasthan?

Answering these questions demands a fresh look at historical sources and even some contemporary ones.

Col. Samuel R. Tickell (1811-1875), after whom Tickell’s bat and multiple bird species are named.  Tickell reportedly collected the type specimen for this species in Chaibasa, Jharkhand, in 1842, which is why the species is named after him. (Public Domain Image)

  1. Tickell’s Bat

A look at the encyclopedic Bats of the Indian Subcontinent (1997) by P.J. Bates and D.L. Harrison reveals that Tickell’s bat was reported from Nasirabad in Rajasthan-“INDIA: Rajasthan: Nusserabad.”

Strangely, they did not include Nasirabad or any other place in Rajasthan on the accompanying distribution map for this species and do not explain why. Perhaps they doubted this report.

The book they rely on for this information is Mammalia (1888-91) by William Thomas Blanford. Now where did Blanford get his information from?  Blanford referenced all the available literature on this species at the time and wrote that it was found in, the “Peninsula of India (Nusserabad in Rajputana; Bombay; Chybassa; Jashpur, Sirguja in SW Bengal)”.

A look at the literature referenced by Blanford reveals that it was in G.E. Dobson’s Catalogue of Chiroptera in the British Museum (1878), that we first see specimens of this species recorded from “Nusserabad, India”.

Let us consider that this is the first mention of a location in India called “Nusserabad” being connected to this species. Dobson DID NOT write that the Nusserabad being discussed here was in Rajasthan or any other specific locality. Dobson also did not provide other details that could have helped us trace where these specimens were collected from, such as the name of the collector nor when they were collected, except that the British Museum received them from East India House.

The remaining sources Blanford referenced for this species do not mention Tickell’s bat being collected from anywhere in Rajasthan; therefore, it was Blanford who first connected Rajasthan to this species. Adding Rajputana to the locality information (Nusserabad) appeared to be based on nothing more than an assumption by Blanford.

Now, what could have caused Blanford’s assumption? After all, there were at least six localities named “Nasirabad” in British India, so why would he add Rajasthan (or then Rajputana) to this ambiguous locality?

As we have seen earlier with three other bat species, it was likely the connection of Captain W.J.E Boys to the town of Nasirabad in Rajasthan.  Now, who was Captain W.J.E Boys?

Captain W.J.E Boys was a cavalry officer with the British East India Company, but more importantly, he was a very well-known and highly prolific collector of specimens. As mentioned in an earlier article, Nasirabad in Rajasthan has a long history as a cantonment town.

Despite not being named in the literature connected to this species, it is more than possible that Blanford assumed that Captain Boys was the collector and that therefore the specimens were collected in Nasirabad, Rajasthan, in the absence of a specific locality and collector identity in the information provided in Dobson’s catalogue.  Such assumptions have been made before with other species and there is no other explanation for why Blanford made this assumption.

After Blanford, many authors perpetuated the unfounded assumption that Tickell’s bat was recorded in Rajasthan, which skewed the distributional record of this species for a very long time.

No evidence of the presence of this species in Rajasthan has ever been found despite many field surveys and exploration in the state.

2. Small Mouse-tailed Bat

This case is even stranger than that of Tickell’s bat because it takes place in modern times and contemporary scientists’ works.

Coming back to the Bats of the Indian Subcontinent, Bates and Harrison wrote in 1997 that this bat has possibly been recorded in a place called Genji in  Rajasthan: “Tamil Nadu: Genji (doubtful record, restricted to Coromandel coast by Van Cakenberghe & de Vree (1994) but possibly Genji in Rajasthan)”.

They were sceptical, however, as they do mention the record is doubtful for India. The map provided by Bates and Harrison nevertheless marks both Genji in Rajasthan and a spot on the Coromandel coast in Tamil Nadu with a “?”. Which unfortunately inadvertently gives credence to the report.

It is possible that when Bates and Harrison viewed this report alongside other reports of this species from Afghanistan and Pakistan, a locality in Rajasthan might have seemed like a natural part of its distributional area.

However, we must now look at the source that Bates and Harrison relied on to understand how the possibility of this species being found in Rajasthan was raised in 1994 and never before.

In a 1994 paper titled “A revision of the Rhinopomatidae DOBSON 1872, with the description of a new subspecies”, Victor Van Cakenberghe and Frits de Vree wrote that specimens of this species were probably collected from a place named Genji on the Coromandel coast.

Their information was based on documents that were with specimens which are stored in the Museum National d’Histoire Naturelle in Paris. Despite possessing this information, they were strangely unable to find a locality named “Genji” on the Coromandel coast.

They did, however, find a place named “Genji” in Rajasthan, but still concluded that the specimens of the small mouse-tailed bat were from south-eastern India while merely noting that “Genji” also existed in Rajasthan.

Despite their conclusion, they still marked Genji in Rajasthan on their distributional map for the species, thereby unfortunately lending credibility to the possibility that the specimens could have been collected from Rajasthan.

Map by Van Cakenberghe and de Vree (1994), which also shows Genji in Rajasthan as a locality for the small mouse-tailed bat even though they concluded that the single Indian locality report for this species was from Southeastern India.

The collector of these specimens was Maurice Maindron, who was believed to be in the areas of Pondicherry and Karikal around September, 1901, about the same time the specimens were captured in “Genji”. Both areas are within the vicinity of the Coromandel Coast.

While Van Cakenberge and de Vree were unable to locate “Genji” in the area in 1994, we (Dharmendra Khandal, Ishan Dhar and Shyamkant S. Talmale) found a locality near the Coromandel coast in Tamil Nadu spelt “Gingee” in 2023.

Although this seems very hard to believe, the cause of this mystery ultimately boiled down to a spelling inconsistency.

It is important to remember that many early European naturalists were inconsistent with the spellings of Indian localities. We have already seen this with Nasirabad/Nusserabad in the previous case. Therefore, “Gingee” on the Coromandel coast in Tamil Nadu is probably what Maurice Maindron meant by “Genji”.

So yes, even a spelling inconsistency can completely skew a species’ distributional record if the authors are not careful or not mindful of geography.

However, the strange tale of the small mouse-tailed bat does not end there. There is good reason to believe that not only was the species not recorded in Rajasthan, but it may never have been found in India.

After he was employed by the Museum National d’Histoire Naturelle in Paris, Maidron travelled almost uninterrupted for the next 25 years. In addition to India, he visited other parts of the small mouse-tailed bat’s global range, such as “Arabia,” in 1896, before his third visit to India in 1900-1901, which is when the specimens were reportedly collected from “Genji.”

This could mean that the specimens were possibly collected from somewhere in West Asia, such as the Persian Gulf, where the species is still found today, and were perhaps mislabelled afterwards. Errors such as these by curators have been documented previously, such as in the British Museum.

Fortunately, the possibility of this species being found in India was not articulated beyond Bates and Harrison, as subsequent authors on Indian bats have omitted this species from their works.

This case shows that not only can assumptions and errors by historical authors skew the distributional records of species, but contemporary authors are quite capable of similar errors if they do not account for the inadequacies of historical sources.

For more details about these two cases, read this paper authored by Dharmendra Khandal, Ishan Dhar and Shyamkant S. Talmale in the Journal of Threatened Taxa.

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भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

जंगल में दीमक की संख्या को नियंत्रित करने वाला पेस्ट कंट्रोल सर्विस देने वाला प्राणी होता है – भालू। असल में अधिकांश लोग मानते है की दीमक नुकसान के अलावा कुछ नहीं करता। भालू ऐसे नहीं सोचता, वह इसे अपने जीवन का आधार मानता है। स्लॉथ भालू जैसे विशाल जीव के आहार का आधा हिस्सा दीमक होता है। उसे वर्ष भर फल आदि मिले ना मिले परन्तु वर्ष के अधिकांश महीने कीट अवश्य मिलते हैं जिनमें दीमक प्रमुख है। स्लॉथ भालू ने तो अपने उद्विकास को भी दीमक के अनुरूप ही विकसित किया है।

इसका लम्बा थूथन एवं प्रथम मैक्सिलरी कृन्तकों की अनुपस्थिति, उभरे हुए तालू, उभरे हुए गतिशील होंठ, और लंबे और घुमावदार अग्र पंजे, लंबे झबरीले कोट और नासिका छिद्रों को बंद करने वाली झिल्ली के कारण यह कीड़ों एवं उसमें भी दीमक को खाने के लिए अत्यधिक विशिष्ट रूप से अनुकूल है। स्लॉथ बेयर अपना जीवन अनेक तरह के भोजन पर आधारित रखता है। फल, जिसमें बेर और तेन्दु मुख्य हैं, वहीँ कीटकों में दीमक और चींटी प्रमुख है। प्रत्येक महीनों में इनकी विष्ठा में अलग-अलग तरह के भोजन के अवशेष देखने को मिलते है। इस तरह के भोजन को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार के जतन करने पड़ते है। फिर इसे स्लॉथ (आलसी) भालू के रूप में क्यों जाना जाता है।

क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी (स्लॉथ) है?

भालू को अंग्रेजी में स्लॉथ बेयर के नाम से जाना जाता है। स्लॉथ शब्द का मतलब होता है – आलसी। तो क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी है?

अगर देखे तो पुरे विश्व में भालुओं की आठ प्रजातियां मिलती हैं जिनमें से स्लोथ बेयर ही मात्र एक ऐसी प्रजाति है जो शीत निद्रा (hibernation) में नहीं जाती है। अन्य सभी भालू प्रजातियां लम्बे समय के लिए सोने चले जाते है – भालुओं के लिए हाइबरनेशन का सीधा सा मतलब है कि उन्हें खाने या पीने की ज़रूरत नहीं है, और वे शायद ही कभी पेशाब या शौच करते हैं (या बिल्कुल नहीं)। यदि भोजन बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है, तो सर्दियों के दौरान भालू अपनी मांद में सोते रहते है। शीतनिद्रा के दौरान, जानवर के शरीर का तापमान गिर जाता है, हृदय गति धीमी हो जाती है और साँस लेना कम हो जाता है। जानवर ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं जहां वे बमुश्किल सचेत होते हैं और बहुत कम हिलते-डुलते हैं। हाइबरनेशन कई महीनों तक रह सकता है, और जानवर जीवित रहने के लिए संग्रहीत वसा भंडार पर निर्भर रहते हैं।

भालुओं की निगरानी के दौरान डॉ धर्मेन्द्र खांडल द्वारा भालू के माँद के अंदर से लिया गया चित्र

तो जब स्लॉथ बेयर 12 महीने सक्रिय रहता है और अन्य भालुओं की भांति शीतनिन्द्रा में नहीं जाता तो फिर स्लॉथ क्यों कहा जाता है ?

असल में इन्हें यह गलत पहचान एक यूरोपीय जीवविज्ञानी जॉर्ज शॉ ने उसके लंबे, मोटे पंजे और असामान्य दांतों के लिए दे दी। उसने सोचा कि इन विशेषताओं के कारण भालू – दक्षिण अमेरिका में मिलने वाले स्लॉथ से संबंधित है। स्लॉथ बेयर भी कभी-कभी पेड़ की शाखाओं पर उल्टा लटक जाते हैं, जैसे स्लॉथ भी करते है। इसी गफलत में इसे गलत वैज्ञानिक नाम भी दे दिया गया और जॉर्ज शॉ द्वारा इसे स्लॉथ के जीनस में स्थापित कर दिया गया था।

स्लॉथ भालू:

स्लॉथ भालू भारत में पाई जाने वाली भालू की चार प्रजातियों में से एक है। यह एक मध्यम आकार का भालू है जिसके पास एक विशिष्ट रूप से बड़ा झबरा काला कोट और चौड़ी यू-आकार की छाती है। बाल विशेष रूप से गर्दन के आसपास और पीछे लंबे होते हैं। वयस्क नर का वजन आम तौर पर 80-145 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन लगभग 60-100 किलोग्राम होता है।

स्लॉथ भालू की उत्पति: स्लॉथ भालू संभवतः मध्य प्लियोसीन के दौरान उत्पन्न हुए और भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुए। प्रारंभिक प्लीस्टोसीन या प्रारम्भिक प्लियोसीन के शिवालिक की पहाड़ियों में पाए जाने वाले मेलर्सस थियोबाल्डी नामक भालू की एक जीवाश्म खोपड़ी को कुछ लेखकों ने स्लॉथ भालू और पूर्वज भूरे भालू के बीच एक मध्य की कड़ी माना है। एम. थियोबाल्डी के दांतों का आकार स्लॉथ भालू और अन्य भालू प्रजातियों के बीच का था।

स्लॉथ भालू, भालू परिवार उर्सिडे में आठ मौजूदा प्रजातियों में से एक है और उपपरिवार उर्सिनाई में छह मौजूदा प्रजातियों में से एक है।

स्लॉथ भालू प्रजनन: स्लॉथ भालू के लिए प्रजनन का मौसम स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है: भारत में, वे अप्रैल, मई और जून में सहवास करते हैं, और दिसंबर और जनवरी की शुरुआत में बच्चे पैदा करते हैं, जबकि श्रीलंका में, यह पूरे वर्ष होता है। मादाएं 210 दिनों तक गर्भधारण करती हैं और आम तौर पर गुफाओं में या पत्थरों के नीचे आश्रयों में बच्चे को जन्म देती हैं।

एक मादा भालू, अपने शावकों के साथ रणथंभोर के जंगल में (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

एक बार में आमतौर पर एक या दो शावक होते हैं, या शायद ही कभी तीन होते हैं। शावक अंधे पैदा होते हैं, और चार सप्ताह के बाद अपनी आँखें खोलते हैं। अधिकांश अन्य भालू प्रजातियों की तुलना में स्लॉथ भालू के शावक तेजी से विकसित होते हैं: वे जन्म के एक महीने बाद चलना शुरू करते हैं, 24-36 महीने में स्वतंत्र हो जाते हैं, और तीन साल की उम्र में यौन रूप से परिपक्व हो जाते हैं। युवा शावक अपनी माँ की पीठ पर तब तक सवारी करते हैं। बच्चों के बीच का अंतराल दो से तीन साल तक रह सकता है।

वयस्क स्लॉथ भालू दौड़ने वाले इंसानों से भी तेज़ दौड़ने में सक्षम हैं। यद्यपि वे धीमे दिखाई देते हैं, युवा और वयस्क स्लॉथ भालू दोनों ही उत्कृष्ट पर्वतारोही होते हैं।

स्लॉथ बेयर – भालू का राजस्थान में वितरण :

स्लॉथ भालू भारतीय उप महाद्वीप के लिए स्थानिक है और भारत, श्रीलंका, नेपाल और भूटान में पाया जाता है। भारत में, यह पश्चिमी घाट के पहाड़ों के दक्षिणी सिरे से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैली हुई है। राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र पश्चिमी वितरण को सीमित करता है।

रणथंभोर टाइगर रिजर्व के कैलादेवी क्षेत्र से पहली बार देखा गया भूरे रंग का स्लोथ बेयर (फ़ोटो: टाइगर वॉच)

राजस्थान में स्लॉथ भालू का वितरण इस प्रकार है – यह बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौरगढ़, उदयपुर, जालोर, प्रतापगढ़, करौली, अजमेर, पाली, राजसमंद में पाया जाता है। निम्न दो जिलों – बाड़मेर के सिवाना और नागौर के डेगाना, थांवला क्षेत्र में कभी कभार दिख जाता है। अलवर में यद्यपि वर्षों से भालू गायब है परन्तु हाल ही में वन विभाग ने माउंट आबू से भालू को लाकर छोड़ा, परन्तु लगता है यह प्रयास उतना सफल नहीं रहा। कुछ जिले ऐसे है जहाँ भालू होने चाहिए जैसे भरतपुर, जयपुर, सीकर एवं झुंझुनू, यहाँ उपयुक्त आवास होते हुए भी बिलकुल नहीं मिलता। निम्न जिले ऐसे है जहाँ भालू नहीं मिलता जिनमें जोधपुर, चूरू, जैलसमेर, बीकानेर, गंगानगर एवं हनुमानगढ़ शामिल है।

भालुओं के जीवन को खतरा: आवास नष्ट होना सभी के लिए खतरा है, परन्तु भालुओं के लिए भोजन प्राप्त करना आसान नहीं। इसके लिए तेन्दु के फल, बेर के फल, दीमक और मधु के छतों से भरा जंगल होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही अभी भी इनके शिकार होने की घटनाओं से पीछा नहीं छूटा है। अनेक स्थानों पर मानव गतिविधियों के कारण संघर्ष की घटना बढ़ी है।

राजस्थान का सुंधा माता, माउंट आबू और उसका तलहटी क्षेत्र भालुओं की घनी आबादी के लिए जाना जाता है। कहते हैं माउंट आबू के तलहटी के पास, जसवंतपुरा क्षेत्र में रात में कई बार अटैक हो जाता है। इसी प्रकार सुंधा माता, रेवदर, जीरावला आदि क्षेत्र में भालुओं का अत्यंत प्रभाव रहता है। प्रत्येक वर्ष कई अटैक रिकॉर्ड किए जाते हैं। इसके अलावा, स्लॉथ भालू द्वारा मानव पर हमलों और फसल क्षति के कारण इनके क्षेत्र के कई हिस्सों में जनता के बीच भय और दुश्मनी पैदा कर दी है। जैसे रणथम्भोर के आस पास स्लॉथ भालू अक्सर अमरूद आदि की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।

डांसिंग बेयर: हाल ही के वर्षों तक मदारी लोग भालू को पालते और लोगों को उसका खेल दिखाते थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में एक लोकप्रिय मनोरंजन था, जो 13वीं शताब्दी और मुगल-पूर्व काल से चले आ रहे हैं। कलंदर, जो मनोरंजन प्रयोजनों के लिए सुस्त भालू को पकड़ने की परंपरा का पालन करते थे, अक्सर मुगल सम्राटों के दरबार में प्रशिक्षित भालुओं के साथ तमाशा करने के लिए नियुक्त किए जाते थे। 1972 में लागू इस प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद, 20वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान भारत की सड़कों पर लगभग 800 नाचते भालू थे, खासकर दिल्ली, आगरा और जयपुर के बीच राजमार्ग पर। सुस्त भालू के शावक, जिन्हें आम तौर पर छह महीने की उम्र में व्यापारियों और शिकारियों से खरीदा जाता था, उन्हें जबरदस्ती उत्तेजना और भुखमरी के माध्यम से नृत्य करने और आदेशों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। नरों को कम उम्र में ही बधिया कर दिया जाता था और एक साल की उम्र में उनके दांत तोड़ दिए जाते थे ताकि वे अपने संचालकों को गंभीर रूप से घायल न कर सकें। भालुओं को आम तौर पर चार फुट के पट्टे से जुड़ी नाक की नकेल डाली जाती थी।

मोग्या शिकारियों द्वारा स्लॉथ भालू को उनके पंजों के लिए निशाना बनाया जाता और अंधविश्वासी लोगों को आकर्षण के रूप में बेचा जाता था, कभी कभी अनुभवहीन खरीदारों को बाघ के पंजे के रूप में बेच दिया जाता था (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

Wildlife SOS नामक संस्था के अथक प्रयास से इस परंपरा को कानून के दम और मदारियों की भलाई के जरिये ख़त्म कर दिया गया है। Wildlife SOS और उत्तर प्रदेश वन विभाग के साझा प्रयासों से मदारियों के पास से रेस्क्यू कर लाये गए अनेक भालुओं को रेस्क्यू सेंटर्स में अपने जीवन यापन के लिए रखा जाता है। इनके सेंटर्स में सेंकडों की संख्या में भालुओं को रखा गया है। आने वाले समय में यह प्रथा से जुड़े सभी भालू अपना जीवन यहाँ पूर्ण कर हम इंसानों के जीवन के बड़े कलंक को समाप्त कर देंगे।

आगरा स्थित Wildlife SOS के रेस्क्यू सेंटर में भालू (फ़ोटो: कार्तिक, Wildlife SOS)

संरक्षण स्थिति: स्लॉथ बियर को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 की अनुसूची I, CITES के परिशिष्ट I और IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची (2012) में “वल्नरेबल” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

 

 

 

 

 

अनोखा आशियाना बनाने वाली क्रिमेटोगैस्टर चींटियाँ

अनोखा आशियाना बनाने वाली क्रिमेटोगैस्टर चींटियाँ

राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य में चींटियों की एक प्रजाति मिलती है जो घोंसले बनाती है जो पैगोडा मंदिरों के आकर का होता है। यह चींटियां देखने में  सामान्य काली चिंटी लगती है, लेकिन इन चींटियों का घोंसला अनुपम है। पैगोडा भारत के हिमालय क्षेत्र में या दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में मिलने वाले बौद्ध मंदिर है जो एक बुर्ज तथा अनेक तलों वाली इमारत है, जिसकी प्रत्येक तल की अपनी छत होती है। वैज्ञानिक इन चींटियों को क्रिमेटोगैस्टर वंश में रखते हैं। राजस्थान के जैव-विविधता के विशेषज्ञ डॉ सतीश शर्मा के अनुसार राजस्थान में क्रिमेटोगैस्टर चींटियों की तीन प्रजाति पाई जाती है Crematogaster (Acrocoelia) brunnea var. contemta, C. (A.) rothneyi and C. (A.) walshi.

क्रिमेटोगैस्टर

इनका पेट दिल के आकार का होता है जिसकी वजह से इनका नाम क्रिमेटोगैस्टर है (चित्र: मंगल मेहता)

प्रतापगढ़ जिले के जंगल अपनी जैव-विविधता के लिए जाने जाते हैं। यहाँ अरावली, विंध्याचल पर्वतमालाओं और  मालवा के पठार का अनूठा संगम है और साथ ही इस क्षेत्र की समुद्र तल ऊंचाई 282 – 600 मीटर के बीच है। यही कारण है की यहाँ राजस्थान के अन्य हिस्से की बजाय अधिक जैव-विविधता पाई जाती है।

पगोडा मंदिर का एक चित्रण (स्रोत: इंटरनेट)

पगोडा मंदिर का एक चित्रण (स्रोत: इंटरनेट)

यह चींटियाँ उष्ण/उपऊष्ण कटिबंधीय वनों के नम स्थलों के पेड़ों पर पाई जाती है। सीतामाता के जंगल में इनके घोंसले पेड़ों पर 20 फिट ऊँचाई तक देखे गए हैं। यह अपना घोंसला मिट्टी रेशों और अपनी लार को मिला कर बनाती है। इनके पेट दिल के आकार का होता है जिसकी वजह से इनका नाम क्रिमेटोगैस्टर – (गेस्टर) है। इनका आकर २ से ३ मिली मीटर तक होता है। राजस्थान के दक्षिण में स्थित अन्य जिलों जैसे उदयपुर, बांसवाड़ा आदि में भी कहीं कहीं इनके घोंसले देखे गये है। इनका घोंसला ५ से १० वर्षों या इससे भी अधिक पुराना हो सकता है- अगर पारिस्तिथिकी अनुकूल हो, और घोंसले वाले पेड़ों को छेड़ा नहीं जाए और जंगल की आग में भी यह सुरक्षित रह सकते है, यह कॉलोनी लम्बे समय तक स्थाई रहती है।

क्रिमेटोगैस्टर चींटियाँ अपना घोंसला मिट्टी के रेशों और अपनी लार को मिला कर बनाती है (चित्र: मंगल मेहता)

भारत में यह उत्तराखंड के जंगलों, मध्य भारत और दक्षिणी भारत के जंगलों में पाई जाती है। राजस्थान में इन घोंसलों की संख्या कम है। इसके घोंसले बहेडा और पलाश के पेड़ों पर देखे गए हैं। इन घोंसलों को नुकसान नहीं पहुंचाएं और न ही कौतूहल वश इसे छेड़ें। जिस पेड़ पर इसके घोंसले हो उन्हें नहीं काटना चाहिए। देखा गया है की इन घोंसलों में रुफस वुडपेकर अपना घोंसला बनाकर रहता है। परन्तु चींटियों के साथ यह कैसे रह पता है जानना अत्यंत रोमांचक होगा। अभी तक इस तरह की प्रक्रिया राजस्थान में भली प्रकार से किसी शोध पत्र में प्रकाशित नहीं हुई है। अथवा राजस्थान से कोई छायाचित्र भी प्रकाशित नहीं हुआ है।