घर-घर औषधि योजना: आमजन के स्वास्थ्य के लिए सरकार की एक पहल

घर-घर औषधि योजना: आमजन के स्वास्थ्य के लिए सरकार की एक पहल

हाल ही में राजस्थान सरकार ने आमजन के स्वास्थ्य को सुरक्षित करने के लिए “घर-घर औषधि योजना” का प्रारम्भ किया है जिसके अंतर्गत औषधीय पौधों को आम जनता में निशुल्क वितरित किया जाएगा ताकि जब भी आमजन को इनकी आवश्यकता पड़े तो उन्हें ये आसानी से उपलब्ध हो सके। यह योजना आम जान में जैव विविधता के संरक्षण के लिए प्रेरणा का कार्य भी करेगी।  देखते हैं यह योजना किस प्रकार से प्रभावी होगी ?

राजस्थान के वन एवं वनों के सीमावर्ती क्षेत्र विभिन्न प्रकार की औषधीय प्रजातियों से संपन्न हैं। जिनका उपयोग आयुर्वेद तथा स्थानीय परम्परागत ज्ञान के अनुरूप स्वास्थ्य चिकित्सा के लिए होता आया है। वर्तमान में जब पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है और ऐसे में भारत के घर-घर में आयुर्वेदिक दवाइयों, काढ़ो और जड़ीबूटियों का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। प्रत्येक घर में लोग गिलोय व तुलसी जैसे औषधीय पौधों का काढ़ा बना कर या फिर बाजार से बने बनाये काढ़े खरीद कर सेवन कर रहे हैं ताकि वे कोरोना से बचने के लिए अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा सके। इसीलिए राज्य सरकार ने ये योजना शुरू की है ताकि सभी घरों में ये औषधीय पौधे उपलब्ध हो और लोग इनका सेवन कर सके।

योजना को लागू करते समय सरकार द्वारा इसकी पूरी जानकारी व कई दिशा-निदेश जारी किए गए हैं जैसे कि, योजना कार्य कैसे करेगी और किस विभागीय स्तर पर क्या कार्य किया जाएगा साथ ही कुछ समितियां भी बनाई गई है ताकि योजना के कार्यभार को ठीक से नियंत्रित कर इसे सफल बनाया जा सके। परन्तु फिर भी योजना को लेकर आमजन और विशषज्ञों के मन में कई जिज्ञासाएं हैं और कुछ लोग इसकी सफलता व उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।

आखिर क्या है घर-घर औषधि योजना:

घर-घर औषधि योजना के अंतर्गत वन-विभाग द्वारा औषधीय पौधों की पौधशालाएं विकसित कर तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेघ के पौधे उगा कर आम जनता को दिए जाएंगे। आमजन को औषधीय पौधे आसानी से उपलब्ध कराना व उनको घरों में उगाने में मदद और पौधों की उपयोगिता के बारे में प्रचार-प्रसार कर जन चेतना को बढ़ा कर राजस्थान के निवासियों के स्वास्थ्य में सुधार करना इस योजना का मुख्य उद्देश्य है। इस पंच वर्षीय योजना (2021 -2022 से 2025 -2026 तक) का कुल बजट 210 करोड़ रुपए है जिसमें से 31.4 करोड़ रुपए पहले वर्ष में खर्च किए जाएंगे। इस योजना के तहत हर परिवार को चार औषधीय प्रजाति के पौधे “तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेघ” के दो-दो पौधे (एक बार में कुल 8 पौधे) मिलेंगे और पांच साल में तीन बार तो, इस प्रकार हर परिवार को कुल 24 पौधे दिए जाएंगे।

पौधों का वितरण एवं योजना का प्रबंधन कैसे होगा ?

इस योजना को एक जन अभियान के रूप में संचालित किया जा रहा है और इसको अमल में लाने के लिए वन विभाग में HOFF और PCCF की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है तथा जिला कलेक्टर की अध्यक्षता में एक “जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स” बनाई गई है जिसका कार्यकाल योजना अवधि तक होगा। जिसमें जिला प्रशासन के नेतृत्व में, माननीय जन-प्रतिनिधियों, पंचायती संस्थाओं, विभिन्न राजकीय विभागों व संस्थाओं, विद्यालयों आदि का सहयोग लेकर बड़े स्तर पर अभियान चलाया जा रहा है।

जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स विभिन्न तरह के कार्य करेगी जैसे कि, पौधों का वितरण, जन अभियान, योजना के लिए अतिरिक्त संसाधनों की व्यवस्था, नियमित प्रबोधन आदि।

प्रत्येक जिले में जिला स्तरीय कार्य योजना बनाई गई है जिसमें वितरण स्थानों का चयन, वितरण व्यवस्था, विभिन्न विभागों के सहयोग प्राप्त करने की व्यवस्था, प्रचार-प्रसार की रणनीति, अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था इत्यादि विषय सम्मिलित है।

उप वन संरक्षक के निर्देश अनुसार वन विभाग पौधशालाओं में इन पौधों को तैयार किया गया है और पौधों का वितरण वन विभाग की पौधशाला व अन्य स्थल जैसे चिकित्सालय या राजकीय कार्यालय पर उपलब्ध कराए जाएगे। पौधे लेने वालों परिवारों की आधार कार्ड जानकारी प्राप्त की जाएगी ताकि रिकॉर्ड रखे जा सके व मूल्याङ्कन में आसानी हो और साथ ही अगले वर्ष जिन परिवारों को पौधे दिए जाने हैं उनको चिन्हित करना आसान हो। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि, आकड़ों का यह कार्य इतना बड़ा हो जाएगा जिसको बनाये रखने के लिए एक अलग टीम की जरूरत पड़ेगी।

योजना के प्रचार प्रसार पर भी मुख्य ध्यान दिया जा रहा है जिसके लिए सबसे पहले वर्ष 2021 में वन महोत्सव की थीम “घर घर औषधि योजना” राखी गई और राज्य के सभी जिलों के वन मंडलों, रेंज, तहसीलों, पंचायतों शहरी निकायों में वन महोत्सव मनाया गया। स्थानीय निवासियों को पौधों के लाभ, प्रयोग और सार संभाल की जानकारी दी जा रही है तथा पोस्टर भी लगाए जा रहे हैं। राज्य स्तर पर मीडिया प्लान बना कर प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग भी किया जा रहा है। कुछ लोगों का यह मानना है कि, सरकार इसके प्रचार खुद को अछूता नहीं रखना चाहती और इन सब कार्यों पर समय एवं मानव संसाधन खर्च होंगे।

इन पौधों से होने वाले लाभ:

आयुर्वेद में तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेध जैसे औषधीय पौधों को इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए अच्छी औषधि बताया है। आइये जानते हैं इनके महत्व के बारे में :

1. तुलसी (Ocimum sanctum):

जिसे आमतौर पर तुलसी के रूप में जाना जाता है, लैमियासी परिवार का एक सुगंधित बारहमासी पौधा है। तुलसी के पारंपरिक उपयोग का भारत में एक लम्बा इतिहास है और बहुत रोगों से लड़ने की क्षमता होने के कारण इसे ‘क्वीन ऑफ हर्ब्स’ भी कहा जाता है।

तुलसी / Ocimum sanctum (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)

फायदे: तुलसी को आयुर्वेद की प्राचीन संहिताओं चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और ऋग्वेद जिनका समय कम से कम 3500-1600 ईसा पूर्व माना जाता है, में खांसी, श्वसन संबंधी विकार, विषाक्तता और गठिया के इलाज के लिये औषधि के रूप में वर्णित किया गया है। साथ ही आचार्य भावमिश्र ने भावप्रकाश के पुष्पवर्ग में तुलसी के गुणों का वर्णन किया है:

तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमञ्जरी।
अपेतराक्षसी गौरी भूतघ्नी देवदुन्दुभिः॥
तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाहपित्तकृत्।
दीपनी कुष्ठकृच्छ्रास्रपार्श्वरुक्कफवातजित्।
शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तिता।

तुलसी पर हुए कई शोध बताते हैं कि, तुलसी का नियमित सेवन करने से सामान्य स्वास्थ्य, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने, दैनिक जीवन के तनावों को कम करने, खांसी, अस्थमा, बुखार, गठिया, नेत्र रोग, अपच, उल्टी, पेट की परेशानियों, हृदय रोग, त्वचा रोग, गिंगिवाइटिस और मसूढ़ों की सूजन सहित कई अन्य बिमारियों में फायदा मिलता है। तुलसी में कफ एवं वात दोष को कम करने, पाचन शक्ति एवं भूख बढ़ाने और रक्त को शुद्ध करने वाले गुण भी होते हैं। (Cohen 2014, Jackson, 2018, Wong 2020, Maiti 2020)।

कैसे लें: तुलसी के पत्तों, जड़, तने और बीजों का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। इसके पत्तों को रोज सुबह खली पेट खा सकते हैं तथा इसके बीजों का चूर्ण बनाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, तुलसी के पत्तों को कभी चबाना नहीं चाहिए बल्कि निगल लेना चाहिए। यदि निगने में मुश्किल होती है तो हाथ से उन पत्तों के छोटे टुकड़े कर लें या फिर पत्तों को गोल लपेटकर सिर्फ आगे के कृतंक दांतों से सिर्फ एक कट लगाकर निगल जाए। तुलसी के पत्ते को चाय की तरह उबालकर क्वाथ पीने सर्दी-जुकाम में फायदा होता है। वयस्क 3 – 5 पत्ते प्रतिदिन और बच्चे (3 साल से बड़े) 2- 3 पत्ते प्रतिदिन (Jackson, 2018)।

सावधानी: हालांकि वैसे तुलसी बिना किसी साइड इफेक्ट के कई चीजों में लाभकारी होती है, लेकिन इसके अत्यधिक सेवन से कुछ परेशानियां भी हो सकती हैं। इसीलिए इसे ध्यान से खाये जैसे कि, गर्म तासीर की होने के कारण तुलसी का अत्यधिक सेवन पेट में जलन पैदा कर सकता है। यदि किसी की कोई सर्जरी हुई है या होने वाली है तो तुलसी का सेवन नहीं करना चाहिए। तुलसी खून पतला करती है, जिसकी वजह से सर्जरी के दौरान या बाद में ब्लीडिंग का खतरा बढ़ सकता है। डायबिटीज़ की दवा खा रहे लोगों को तुलसी नहीं खानी चाहिए क्योंकि इससे ‘ब्लड शुगर’ लेवल कम होता है। तुलसी में पोटेशियम की मात्रा अधिक होने के कारण ‘लो ब्लड प्रेशर’ में इसे नहीं खाना चाहिए। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि, लंबे समय तक नियमित रूप से तुलसी के पत्तों का सेवन करने से यूजेनॉल (eugenol) की उपस्थिति के कारण लीवर और उसकी कोशिकाओं को नुकसान हो सकता है। इसलिए औषधि का सेवन सही मात्रा में करें। (TOI 2021, Indian.com 2021, Jackson, 2018)।

2. कालमेघ (Andrographis Paniculata):

कालमेघ एक गुणकारी औषधीय पौधा है जिसको हरा चिरायता नाम से भी जाना जाता है। इसमें एक प्रकार का क्षारीय तत्व एन्ड्रोग्राफोलाइडस और कालमेघिन पाया जाता है जिसके कारण इसका स्वाद बहुत ही कड़वा होता है।

कालमेघ / Andrographis Paniculata (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)

फायदे: इसकी पत्तियों का उपयोग बुखार, पीलिया, मलेरिया, सिरदर्द, पेट के कीड़े, रक्तशोधक, विषनाशक, उच्च रक्तचाप, त्वचा रोग तथा अन्य पेट की बीमारियों में बहुत ही लाभकारी पाया गया है। सरसों के तेल में मिलाकार एक प्रकार का मलहम तैयार कर चर्म रोग जैसे दाद, खुजली इत्यादि दूर करने में बहुत उपयोगी होता है। इसकी जड़ का उपयोग भूख लगने वाली औषधि के रूप में भी होता है। (Kumar et al 2012, Balkrishan 2019, Sarah et al 2015)

आचार्य प्रियव्रत ने शपतपुष्पादी वर्ग में लिखा है की यह मुख्यतया तिक्त एवं कफ विपाका के गुणों से युक्त है।

कालमेघस्तुभूनिम्बो यवाकारफलस्तथा|
सुतिक्त: लघुरुक्षोष्ण कफपित्तपविनाशन:||    
द्वीपन:  स्वेदनो ज्ञेयः कृमिघ्न: पित्तसारकः|
यकृतरोगेक्रिमी कुष्ठेज्वरेचासौ प्रशस्यते||
 (पुष्पादि वर्ग, श्लोक-  १३५-१३६)

कैसे लें: दिनभर में एक चम्मच कालमेघ चूर्ण का सेवन किया जा सकता है। दिन में कालमेघ की ¼ टेबलस्पून या ½ टेबलस्पून की दो खुराक ले सकते हैं। इसके अलावा, कालमेघ की आठ से दस पत्तियों को एक कप पानी के साथ जूस बनाकर भी सेवन किया जा सकता है। इसकी पत्तियों के पेस्ट को घाव पर लगाया जा सकता है और पत्तियों का जूस बनाकर भी पी सकते हैं।

सावधानी: यदि कालमेघ का अत्यधिक मात्रा में सेवन किया जाए तो एलर्जी, सिरदर्द, थकान, गैस्ट्रिक समस्या, जी मचलाना, दस्त आदि शिकायते हो सकती हैं। दूसरी अंग्रेजी दवाओं के साथ इसेलेने से पहले अपने डॉक्टर से परामर्श ले। कालमेघ का अधिक सेवन लो बीपी और लो शुगर का कारण बन सकता है। इसलिए समय-समय पर बीपी और शुगर लेवल मॉनिटर करते रहें। गर्भावस्था और ब्रेस्टफीडिंग के दौरान कालमेघ का सेवन नहीं करें (Balkrishan 2019)।

3. गिलोय (Tinospora cordifolia):

गिलोय कभी न सूखने वाली एक बड़ी लता है। इसका तना देखने में रस्सी जैसा लगता है। इसके कोमल तने तथा शाखाओं से जडें निकलती हैं। इसके पत्ते कोमल तथा पान के आकार के और फल मटर के दाने जैसे होते हैं।

गिलोय / Tinospora cordifolia (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)

गुडूची को अनेक बीमारियों के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है। आचार्य भावमिश्र ने स्पष्ट किया है कि (भा.प्र.पू.ख. गुडुच्यादिवर्ग 6.8-10):

गुडूची कटुका तिक्ता स्वादुपाका रसायनी। संग्राहिणी कषायोष्णा लघ्वी बल्याऽग्निदीपिनी।।
दोष त्रयामतृड्दाहमेहकासांश्च पाण्डुताम्। कामला कुष्ठवातास्त्रज्वरक्रिमिवमीन्हरेत।। प्रमेहश्वासकासार्शः कृच्छ्रहृद्रोगवातनुत् ।

फायदे: गिलोय के मिस्रण और काढ़े द्वारा कई रोगों में फायदा मिलता है जैसे कि, टाइफाइड, वात, पित्त, कफ, पीलिया, साइनस, लीवर विकार, बुखार, गठिया, कब्ज, शुगर, डेंगू, चिकनगुनिया, उल्टी, साइन में जलन, एसिडिटी, त्वचा रोग, मुँह के छाले, यूरिनरी ट्रैक्ट से जुड़े रोग, फाइलेरियासिस और आंख से जुड़े तमाम रोग (saha & Ghosh 2012, Upadhyay et al 2010, Srivastava, 2020)                                        ।

कैसे लें: गिलोय को काढ़ा या फिर पत्तों के रस दोनों ही रूप में लिया जा सकता है। यदि कड़ा लेना है तो उसके तने के छोटे टुकड़ों को 100 मिली पानी में दाल कर उबाले और जब पानी 25 मिली रह जाए तब उसे पी लें। पत्तों का सीधा जूस बनाकर पिया जा सकता है। एक बार में केवल 20-30 मिली काढ़ा या फिर  20 मिली रस का सेवन करना चाहिए (Balkrishan 2019)।

सावधानी: गिलोय का सेवन यदि ज्यादा किया जाए तो इससे कब्ज और डायबटीज के रोगियों पर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं। इससे रोग प्रतिरोधक शमता अगर बहुत बढ़ जाए तो Autoimmune diseases भी हो सकती है साथ ही गर्भवती महिलायें इसका सेवन न करें।  (Balkrishan 2019, Gupta 2020)।

4. अश्वगंधा (Withania somnifera):

अश्वगंधा आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसके वैज्ञानिक नाम में “somnifera” एक लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “नींद लाने वाला”।

अश्वगंधा / Withania somnifera (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)

फायदे: आयुर्वेद में अश्वगंधा के भी कई गुण बताए गए है। अश्वगंधा में एंटीऑक्सीडेंट, लीवर टॉनिक, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटी-बैक्टीरियल के साथ-साथ और भी कई पोषक तत्व होते हैं जो स्वास्थ्य को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसके अलावा इसमें एंटी-स्ट्रेस गुण भी होते है जो मानसिक तनाव जैसी गंभीर समस्या को ठीक करने में लाभदायक है और इससे अच्छी नींद आती है। स्ट्रेस को कम करने में मदद करते है। यह वाइट ब्लड सेल्स और रेड ब्लड सेल्स दोनों को बढ़ाने का काम करता है। जो कई गंभीर शारीरिक समस्याओं में लाभदायक है

गन्धान्ता   वाजिनामादिरश्वगंधा   हयाहर्या।  वराहकर्णी वरदा बलदा कुष्ठ्गंधिनी। 
अश्वगंधानिलरलेधमश्चित्र शौयज्ञयापहा। बज्या रसायनी तिक्ता कषायोष्णतिशूक्रला।। 
भावप्रकाश निघण्टु, श्लोक १८९-१९० के अनुसार अश्वगंधा में निम्न गुण है – मुख्यतया तासीर में गर्म एवं ताकत देने वाली है और पौरुष गुण को बढ़ने वाली है।   

कैसे लें : अश्‍वगंधा का इस्‍तेमाल अश्वगंधा के पत्‍ते या चूर्ण (Ashwagandha Powder) के रुप में किया जाता है। अश्वगंधा चूर्ण खाने का तरीका बहुत आसान है। पानी, शहद या फिर घी में मिलाकर अश्वगंधा चूर्ण का सेवन किया जा सकता है। इसके अलावा, अश्वगंधा कैप्सूल, अश्वगंधा चाय और अश्वगंधा का रस इस्तेमाल किया जा सकता है (Balkrishan 2019)।

सावधानी: अश्वगंधा का सेवन सीमित मात्रा में ही किया जाए तो अच्छा है क्योंकि अत्यधिक सेवन से न सिर्फ उल्टियां हो सकती हैं बल्कि पेट गड़बड़ हो सकता है। यदि लो ब्लड प्रेशर की परेशानी रहती है तो उन्हें अश्वगंधा नहीं खाना चाइये नहीं तो ब्लड प्रेशर बहुत ही ज्यादा लो हो जाएगा। नींद न आने पर अश्वगंधा का इस्तेमाल कुछ हद तक सही है, लेकिन नींद बुलाने के लिए इसका नियमित सेवन नुकसानदेह साबित हो सकता है। अश्वगंधा थाइरोइड को बढाता है अर्थात जिनको थाइरोइड की कमी की शिकायत है उनके लिए तो ये फायदेमंद है परन्तु जिन्हें पहले सेथाइरोइड ज्यादा है तो उनके लिए बहुत खतरनाक हो सकता है (Zielinski 2019 , Balkrishan 2019)

आमजन के कुछ प्रश्न व विशेषज्ञ की राय:

इस योजना को लेकर आमजन की तरफ से कई प्रश्न सामने आ रहे हैं तथा डॉ. दीप नारायण पाण्डेय, IFS (वरिष्ठ वन अधिकारी) द्वारा उन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 1 : कुछ पौधों को गार्डन या फ्लैट में गमलों में लगाने से इन पौधों का संरक्षण कैसे होगा?

उत्तर : आज हम उस युग में जी रहे हैं जब केवल वनों में संरक्षण करने से जैव-विविधता का संरक्षण नहीं हो सकता बल्कि हमें जैव-विविधता का संरक्षण वहीँ करना होगा जहां हम रहते और काम करते हैं। घर से वन तक सम्पूर्ण भू-परिदृश्य में जैव-विविधता संरक्षण जरुरी है। इसीलिए सबसे पहले हमें अपने घरों में पौधों को संरक्षित करना होगा।

दूसरी बात यह है कि, आयुर्वेद में उपयोग होने वाले लगभग 70-80 प्रतिशत औषधीय पौधे अभी भी वनों से प्राप्त होते हैं। यदि हम प्रत्येक घर में इन औषधीय पौधों को अपने उपयोग के लिये उगा लेते हैं तो स्वाभाविक है कि, वनों से इनका हनन हमें कम करना पड़ेगा और अप्रत्यक रूप से प्रजातियों का संरक्षण होगा।

प्रश्न 2 : केवल पौधे बाँट देने से क्या होगा?

उत्तर : दरअसल घर-घर औषधि योजना केवल पौधे बांटने की योजना नहीं है बल्कि स्वास्थ्य और संरक्षण से जुड़े उन विचारों को बांटने की भी योजना है जो औषधीय पौधों के योगदान को जन-मानस को समझाती है। एक उदाहरण देखें तो कोविड-19 की चिकित्सा के लिये अभी तक किसी भी चिकित्सा पद्धति में कोई पक्की तौर पर ज्ञात औषधि नहीं मिल सकी है। तथा, विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में औषधियों पर शोध व प्रयोग किए जा रहे है और स्वाभाविक है कि, आयुर्वेद में भी शोध और प्रयोग हो रहे है। कई शोधपत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि, तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कुछ हद तक संक्रमित होने से बचाव भी करते हैं। तथा इन औषधियों का प्रयोग बीमारी की तीव्रता इतनी नहीं बढ़ने देता कि, व्यक्ति को अपनी जिंदगी ही गावनि पड़े।

प्रश्न 3 : घर-घर औषधि योजना के लिये तुलसी कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय ही क्यों चयनित किए गए?

उत्तर : यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर चार अलग-अलग दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। पहला चयनित की गई चारों प्रजातियां अलग-अलग या एक दूसरे से विभिन्न अनुपातों में मिलकर अधिक से अधिक रोगों के विरुद्ध प्रभावी हो सकती हैं। दूसरा, इन चारों प्रजातियों के बारे में संहिताओं, समकालीन वैज्ञानिक शोध एवं चिकित्सा आधारित कई प्रमाण उपलब्ध है। तीसरा, इन प्रजातियों को एथनोमेडिसिन के रूप में भी जाना जाता है और पहले लोग वैद्य की सलाह से बड़ी ही सरलता से इनसे विभिन्न औषधि बना लेते थे। चौथा दृष्टिकोण चयनित प्रजातियों की जलवायुवीय आवश्यकताओं से संबंधित है जिनके आधार पर यह समझा जा सकता है कि इन प्रजातियों का राजस्थान में उगाया जा सकता है।

कालमेघ (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)

आमजन के इन प्रश्नों के अलावा योजना और इसको अमल में लाने पर भी कई जिज्ञासाएं भी हैं जैसे की,

1. क्या कालमेघ आसानी से राजस्थान जैसे शुष्क व अर्ध-शुष्क पर्यावास में उग सकते हैं? क्योंकि कालमेघ नमी वाले क्षेत्र का पौधा है और इसलिए ये राजस्थान के सिर्फ कुछ जिलों में ही उग सकता है। साथ ही वन विभाग के नर्सरी कर्मचारियों को भी इसे उगाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है तो आमलोग इसे कैसे ऊगा पाएंगे?

2. नर्सरी में इन पौधों को उगाया गया है परन्तु बड़ी ही छोटी और नाजुक अवस्था वाले इन पौधों को सुरक्षित तरीके से वितरित कर हर घर तक पहुंचा पाना निश्चित ही एक मुश्किल कार्य होगा ?

3. योजना के तहत हर घर को यानी 12650000 परिवारों को पौधे वितरित किए जाएंगे। इतनी बड़ी जनसँख्या के हर घर तक पौधे पंहुचा पाना निश्चित ही बड़ा कार्य है जिसके लिए एक बड़ी टीम की आवश्यकता होगी।

4. जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स के सदस्यों में पंचायती संस्थाएं, विभिन्न राजकीय विभाग और विद्यालय शामिल हैं। अब प्रश्न ये उठता है कि, जिन लोगों को ये कार्य दिए जाएंगे उनके लिए यह नियमित विभागीय कार्य के अलावा एक अतिरिक्त कार्य होगा और कर्मचारियों पर कार्यभार बढ़ जाएगा।

5. शुरुआत में लोग खुशी-खुशी पौधे ले तो जाएंगे और कुछ दिन ध्यान भी रख लेंगे परन्तु क्या हमेशा ध्यान रख पाएंगे ?

वैश्विक महामारी से निपटने के बाद में अर्थव्यवस्था को ग्रीन डेवलपमेंट की ओर ले जाना और पारिवारिक स्तर पर क्षमता बेहतर करना एक बड़ी प्राथमिकता होगी। विश्व भर की सरकारें महामारी से निपटने के बाद आने वाले समय में अपने आधारभूत ढांचे में भारी परिवर्तनों की घोषणा कर चुकी हैं। इस दिशा में सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय विकास के लिए तमाम योजनायें भी बन रही हैं और इनमें से कुछ तो शुरू भी हो चुकी है।

घर-घर औषधि योजना को राजस्थान में इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। महामारी काल में अमीर और गरीब दोनों ही प्रकार के परिवार महामारी का भयानक चेहरा देख चुके हैं। अतः परिवार के स्तर पर प्रत्येक गांव और शहर को रेसिलियंट बनाने तथा स्वास्थ्य आपदाओं से निपटने में सक्षम बनाने के लिये घर-घर औषधि योजना का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

सन्देश यह है कि, घर-घर औषधि योजना मानव के स्वास्थ्य-रक्षण और जैव-विविधता के संरक्षण की दिशा में बहुत बड़ा कदम है। इसको सफल बनाने में प्रत्येक नागरिक का योगदान प्राप्त होगा, ऐसी आशा है।

राजस्थानी लहजे में एक विद्वान कहते है -गुडूची, कालमेघ अश्वगंधा और तुलसी जैसे पौधे पहले अपने माथे में उगाइये, मिट्टी में तो उग ही जायेंगे।
References:
  • Cohen, M.M. 2014. Tulsi – Ocimum sanctum: A herb for all reasons. J Ayurveda Integr Med.5:251-9.
  • https://hindi.news18.com/news/lifestyle/health-kalmegh-plant-is-good-for-health-know-its-seven-benefits-myupchar-pur-3315946.html
  • https://hindi.news18.com/news/lifestyle/pomegranate-ice-cream-recipe-bgys-3661960.html
  • https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/health-fitness/photo-stories/shocking-eating-tulsi-leaves-can-have-these-5-side-effects/photostory/63580855.cms?picid=63580892
  • https://www.aninews.in/news/national/general-news/rajasthan-govt-to-offer-medicinal-herbs-saplings-to-residents-under-ghar-ghar-aushadhi-yojana20210530063825/
  • https://www.getroman.com/health-guide/ashwagandha-side-effects/
  • https://www.healthshots.com/healthy-eating/nutrition/4-side-effects-of-giloy-you-must-be-aware-of/
  • https://www.idiva.com/hindi/health/benefits-and-harms-of-basiltulsi-in-hindi/18008080
  • https://www.india.com/health/side-effects-of-tulsi-who-should-not-take-it-4781393/
  • https://www.india.com/health/side-effects-of-tulsi-who-should-not-take-it-4781393/
  • https://www.khaskhabar.com/lifestyle/health/lifestyle-scientific-analysis-of-the-multifaceted-utility-of-ashwagandha-included-in-ghar-ghar-aushadhi-yojana-news-hindi-1-479829-KKN.html
  • https://www.livehindustan.com/lifestyle/story-ashwagandha-benefits-in-hindi-ashwagandha-is-a-curative-herb-according-to-ayurveda-3702643.html
  • https://www.siyasibharat.com/2021/06/blog-post_10.html
  • https://www.stylecraze.com/articles/serious-side-effects-of-giloy/ a Res. 1(2): 112-121.
  • https://www.stylecraze.com/hindi/kalmegh-ke-fayde-upyog-aur-nuksan-in-hindi/
  • https://www.stylecraze.com/hindi/tulsi-ke-fayde-upyog-aur-nuksan-in-hindi/
  • https://www.verywellhealth.com/benefits-of-tulsi-89591
  • Jackson. 2018. Tulsi: Benefits, uses, dosage, side effects, price, CASH KARO..
  • Kumar, A. Dora, J., Singh, A. and Tripathi, R. 2012. A review on king of bitter (Kalmegh). INTERNATIONAL JOURNAL OF RESEARCH IN PHARMACY AND CHEMISTRY. 2(1): 116-124
  • Maiti, M. 2020. A review on effect of tulsi (Ocimum sanctum) in Human as a medicinal plant. International Journal of Engineering Technology Research & Management. 4(9): 72-75.
  • Saha, S. and Ghosh, S. 2012. Tinospora: One plant, many roles. J. Ancient Science of Life. 31(4): 151-159
  • Salve J, Pate S, Debnath K, et al. (December 25, 2019) Adaptogenic and Anxiolytic Effects of Ashwagandha Root Extract in Healthy Adults: A Double-blind, Randomized, Placebo-controlled Clinical Study. Cureus 11(12): e6466. DOI 10.7759/cureus.6466
  • Sarah E. Edwards, Inês da Costa Rocha, Elizabeth M. Williamson and Michael Heinrich.2015. Phytopharmacy: An evidence-based guide to herbal medicinal products, First Edition. John Wiley & Sons, Ltd. Published 2015 by John Wiley & Sons, Ltd.
  • Srivastava, P. 2020. Study of medicinal properties of Herb Tinospora Cordifolia (Giloy) in preventing various diseases/abnormalities by increasing immunity naturally in human bodies. International Journal of Engineering Research and General Science. 8(4):10-14.
  • Upadhyay, A.K., Kumar, K., Kumar, A. and Mishra, H.S. 2010. Tinospora cordifolia (Willd.) Hook. f. and Thoms. (Guduchi) – validation of the Ayurvedic pharmacology through experimental and clinical studies. Int J Ayurveda Res. 1(2): 112-121.
सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

क्या सरिस्का में बाघों की संख्या में हुई वृद्धि इसकी समग्र सफलता का एक पैमाना हो सकती है ? या फिर अभी भी सरिस्का को एक सतत पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा सफर तय करना है ?

हाल ही में सरिस्का बाघ अभयारण्य में कई बाघिनों के शावकों के जन्म के कारण वन्यजीव प्रेमियों और संरक्षकों में ख़ुशी की एक लहर है क्योंकि, बाघों की एक छोटी आबादी को रणथम्भौर से सरिस्का लाये जानें के लगभग एक दशक के बाद ये वृद्धि देखने को मिली है। पिछले पांच वर्षों में बाघों की प्रजनन दर में लगातार वृद्धि देखी गई है, जो दर्शाती है कि, बाघों और उनके शावकों के लिए सरिस्का का पर्यावरण अनुकूल होता जा रहा है। लेकिन इस सफलता पर अभी भी कई सवाल मंडरा रहे हैं जैसे कि, क्या बाघों की ये बढ़ती आबादी वहां लाये गए बाघों के सफल विस्थापन का एक पैमाना हो सकती है?

क्योंकि यह वृद्धि अकेले इस कार्यक्रम की स्थिरता को तय करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकती है। इसी क्रम में भरद्वाज एवं साथियों द्वारा, सरिस्का में बाघों द्वारा किये गए शिकारों के पैटर्न के अध्ययन से मालूम होता है कि, अभी सरिस्का को एक आत्मनिर्भर पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा रास्ता तय करना है (Bhardwaj et al 2020)।

बाघ जैसे शिकारी के जीवित रहने का सीधा संबंध उसके आवास, अन्य प्रतियोगी प्रजातियों की उपस्थिति और उसके आहार की गुणवत्ता एवं मात्रा से होता है और यदि आवास में पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध न हो खासतौर से बड़ी शाकाहारी प्रजातियां तो बाघों का जीवित रहना और प्रजनन कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए, आहार के प्रकार और मात्रा की जानकारी हमेशा से बाघ और तेंदुए जैसे माँसाहारी जीवों की पारिस्थितिकी के अध्ययन के बुनियादी चरणों में से एक रहा है तथा इससे ही एक पारिस्थितिक वैज्ञानिक को शिकारी एवं आहार प्रजाति के सम्बन्ध समझने में मदद मिलती है।

वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में बाघों का विस्थापन किया गया और सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

आज सरिस्का में कई बाघों को रेडियो कॉलर लगाया हुआ है क्योंकि, वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा। उस निर्णय के चलते अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

इन सभी बाघों की रेडियो कॉलर और कैमरा ट्रैप की सहायता से निगरानी की जाती है जिससे बाघों के इलाकों के क्षेत्रफल, उनके विचरण स्थान एवं पैटर्न और आपसी व्यवहार से सम्बंधित कई आकड़े प्राप्त होते हैं। तथा इन सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके।

रेडियो कॉलर की सहायता से मानव-मांसाहारी संघर्षों और आहार पैटर्न को भी समझा जा सकता है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

हालांकि बाघों की आहार पैटर्न का अनुमान मल विश्लेषण और शिकार से लगाया जा सकता है, परन्तु यह अध्यन पूरी तरह से बाघों द्वारा किये गए शिकारों पर आधारित है। इस अध्ययन में, जून 2016 से नवंबर 2018 तक, मुख्य रूप से बाघों की मॉनिटरिंग टीमों और बीट गार्ड द्वारा सरिस्का में बाघों और तेंदुए द्वारा किये गए शिकारों की विविधता और अन्य आंकड़ों का विश्लेषण कर बाघों के आहार पैटर्न और अभयारण्य में मवेशियों की उपस्थिति के रूप में मानवजनित दबाव का पता लगाया गया है।

क्योंकि आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दबाव भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं। मानव आबादी के साथ-साथ यहाँ भैंस, गाय, बकरी और भेड़ सहित कुल 30000 मवेशी (10000 अंदर और 20000 बाहरी सीमा पर) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय दबाव में है।

सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसी कर्म में, मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे ढाई वर्ष (जून 2016 से नवंबर 2018) तक सभी 11 बाघों (उस समय मौजूद 11 वयस्क, 5 उप-व्यस्क और 1 शावक) की गतिविधियों (Movement Pattern), शिकार विविधता और स्थानों का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों और कैमरा ट्रैपिंग के आधार पर की गई।

बाघों की निगरानी करने के लिए कई समूह कार्यरत है। प्रत्येक समूह में दो व्यक्ति होते हैं, एक वन रक्षक और दूसरा स्थानीय ग्रामीण है जिसे रेडियो कॉलर, जी पी एस और पगमार्क द्वारा बाघों की निगरानी में प्रशिक्षित किया गया है। इन निगरानी दलों द्वारा बाघों की गतिविधि का स्थान व पैटर्न और शिकार की प्रजाति की जानकारी दर्ज की जाती और कण्ट्रोल रूम में भेजी जाती थी। शिकार की बहुतायत जानने के लिए लाइन ट्रांससेक्ट विधि का इस्तेमाल किया गया।

मांसाहारी जीवों की बदलती पारिस्थितिकी:

इस अध्ययन में बाघों और तेंदुओं द्वारा कुल 737 शिकार दर्ज किये गए, जिसमें से 500 (67.84 %) शिकार बाघों द्वारा और 227 (30.80 %) शिकार तेंदुओं द्वारा किये गए थे। बाकि 10 शिकारों की पहचान स्पष्ट नहीं हो पायी क्योंकि अधिकतम भाग खाया जा चूका था। शिकारों के सभी आंकड़ों के विश्लेषण के दौरान इनके आहार संबंधी प्राथमिकताओं में भारी परिवर्तन देखे गए हैं। क्योंकि, यदि शिकारों की विविधता को देखे तो, दर्ज किये गए सभी (n=737) शिकारों में से सबसे अधिक संख्या भैस 330 (44.48%) और उसके बाद गाय 163 (22.12%) की पायी गई। इसके अलावा सांभर 85 (11.53%), बकरी 81 (10.99%), चीतल 27 (3.66%), नीलगाय 18 (2.44%) और अज्ञात शिकार 11 (1.49%) रहे। इन सभी आंकड़ों में से यदि हम सिर्फ मवेशियों (भैंस, गाय, बकरी, भेड़, ऊंट और गधे) के शिकारों को देखे तो कुल 581 (78.83%) शिकार मवेशियों के थे।

बाघों द्वारा किये गए शिकार मुख्यरूप से मानव दबाव से रहित क्षेत्रों (Undisturbed areas) में देखे गए। कुल 500 शिकारों में से 77% मवेशी (livestock) थे जिसमें विशेषरूप से भैस (58%) शामिल थी तथा वन्यजीव शिकारों में सांभर (13.6%), चीतल (3.6%), नीलगाय (2.4%) और जंगली सुअर (1%) थे।

पशुपालन, सरिस्का के आसपास रहने वाले इन गांव वालों का मुख्या व्यवसाय है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों द्वारा यह माना जाता है कि, बाघ अपने शिकार को अवसरवादी रूप से मारता है यानी आसानी से मिलने वाले शिकार को पहले मारा जाएगा। ऐसे में सरिस्का जैसे क्षेत्र में मानवजनित दबाव (Anthropogenic disturbance) का हिसाब लगाने के लिए, मवेशी शिकारों (Livestock prey) के साथ वन्यजीव शिकारों (Natural Prey) के अनुपात को “अप्रत्यक्ष सूचक (Indirect index)” माना जा सकता है। ऐसे में सभी बाघों के लिए यह अनुपात 3.34 देखा गया क्योंकि, बाघों ने कुल 385 मवेशियों का शिकार किया जबकि वन्यजीव शिकार केवल 115 ही मारे गए और यह अनुपात रिज़र्व में मवेशियों की बहुतायत को दर्शाता है जो रिज़र्व के लिए अच्छा नहीं है।

यह अनुपात सबसे अधिक ST6 (17) और सबसे कम ST5 (0.8) एवं ST8 (1) के लिए पाया गया और इसका कारण यह है कि, दोनों बाघों के इलाके में वन्यजीव आहार का घनत्व अच्छा देखा गया है।

Sankar et al. द्वारा वर्ष 2010 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया की सरिस्का में सांभर बाघों द्वारा खाये जाने वाला सबसे प्रमुख शिकार है और लगभग 45.2% शिकार सांभर के ही पाए गए तथा मवेशी (भैस और गाय) केवल 10.4% ही। इसके बाद एक अन्य अध्ययन में, सबसे अधिक सांभर (41.7%) और मवेशी (19.4%) दर्ज किया गया (Mondal et al 2012)। इसी तरह रणथम्भौर, जो आवास और वन प्रकार में सरिस्का जैसा ही है में देखा गया कि, बाघों द्वारा सबसे अधिक शिकार (54.54%) सांभर के ही किए जाते हैं और मवेशियों के 12.5%।

इस प्रकार सरिस्का में बाघों के आहार में मवेशी 10.4% (2010) से बढ़कर 19.4% (2012) हो गए। परन्तु इस अध्ययन में यह संख्या 77% पायी गई और बाघों द्वारा मवेशियों के शिकार में वृद्धि की यह खतरनाक दर स्पष्ट रूप से सरिस्का में चराई की तीव्रता में कई गुना वृद्धि का संकेत देती है।

लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है तथा मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

सरिस्का में बाघ के बाद तेंदुआ बड़ी बिल्ली प्रजाति है तथा इसके द्वारा भी विभिन्न जीवों के शिकार किये जाते हैं। इसी कर्म में अध्ययन के दौरान तेंदुओं द्वारा कुल 227 शिकार किए गए जिनमें सबसे अधिक बकरियां (33.8%) थी और इसके अलावा गाय (31.1%), भैंस (16.7%), सांभर (7%), चीतल (3.9%) आदि थे तथा ज़्यादातर (76%) शिकार मानवीय बस्तियों के पास मानवजनित दबाव क्षेत्र में थे। साथ ही यह भी देखा गया है कि, सभी शिकारों में से एक बड़ा भाग 84.2% मवेशी शिकार थे।

तेंदुए द्वारा सबसे अधिक यानी 77 बार बकरियों का शिकार किया गया। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि, सिर्फ इतनी ही बकरियां मारी गई है बल्कि यह सिर्फ घटनाओं की संख्या है। दरअसल इन 77 घटनाओं में कुल 169 बकरियों का शिकार किया गया है और हर घटना में लगभग 1-12 बकरियां मारी गई थी। तथा भैसों के कुल 37 शिकारों में से 28 तो बछड़े ही थे यानी तेंदुए द्वारा व्यस्क भैसों का शिकार बहुत कम हुआ है।

इस अध्ययन में देखा गया कि, सरिस्का में तेंदुए द्वारा किये गए अधिकाँश शिकार मानव बस्तियों के पास देखे गए जबकि बाघ ने आबादित क्षेत्र से दूर शिकार किये थे। और ये दोनों ही क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण इनमें संघर्ष स्थिति नहीं देखी गई। हालांकि बाघ और तेंदुए के देखे गए आहार में बड़े पैमाने पर मवेशी शामिल हैं, परन्तु जहाँ एक ओर बाघ बड़े से मध्यम आकार के पशु (भैंस>गाय>बकरी) पसंद करता है वहीँ दूसरी ओर तेंदुए को छोटे से मध्यम आकार के पशु (बकरी>गाय>भैंस) अधिक पसंद है।

सरिस्का बाघ अभयारण्य (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ को जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, प्रजनन के लिए साथी और रहने का स्थान बहुत आवश्यक होता है। परन्तु, मानव प्रधान (human dominated) पर्यावास में जहां मवेशियों की उपलब्धता प्राकृतिक शिकार से अधिक होती है, तथा ऐसे में मानवीय दबाव वाले ये क्षेत्र बाघों के लिए कुछ हद्द तक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। बाघ जैसे बड़े शिकारियों के लिए भी, जंगल में शिकार करना कोई आसान काम नहीं है और आम तौर पर दस प्रयासों में से एक बार सफलता मिलती है। बाघ अपनी ऊर्जा बनाये रखने के लिए बड़े जानवरों का शिकार करना अधिक पसंद करते हैं। यदि वन क्षेत्र में मानवीय दबाव न हो तो सांभर बाघ का पसंदीदा शिकार होता है लेकिन सरिस्का जैसे मानव-प्रधान क्षेत्र में जहाँ मवेशियों की संख्या अधिक है, बाघ शिकार करने में आसानी होने के कारण मवेशियों का शिकार करना अधिक पसंद करता है।

इस प्रकार, बाघों द्वारा मवेशियों का अधिक शिकार यह दर्शाता है कि, रिजर्व में मवेशियों की संख्या अधिक है जिन्हें अन्य शिकार की तुलना में मारना कहीं अधिक आसान है।

पशुपालन को सरिस्का के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों में प्राथमिक व्यवसाय के रूप में देखा गया है ऐसे में लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है। मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है।

एक वन पारिस्थितिक तंत्र की खाद्य श्रृंखला (food chain) में बाघ सभी माँसाहारी जीवों के ऊपर रहता है तथा उसकी आहार की आदतें प्राकृतिक आवास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी सामाजिक संरचना, व्यवहार और शिकार प्रजातियों के घनत्व को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऑडिट-माइंडेड सरकार रिज़र्व से गाँवों को विस्थापित कर मानवीय दबाव को कम किए बिना बाघों की आबादी को बढ़ाना चाहती है। परन्तु बाघों की बढ़ती आबादी से और कुछ नहीं सिर्फ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं बढ़ेंगी जिससे स्थानीय समुदायों का बाघ संरक्षण में समर्थन कम हो सकता है तथा बाघ संरक्षण व्यवस्था में मुश्किलें भी कड़ी हो सकती है।

सरिस्का में बाघों और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाने की आवश्यकता है। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

सरिस्का में वन विभाग के फ्रंटलाइन स्टाफ की बेहद कमी हैं और जो हैं उनमें भी प्रेरणा और प्रतिबद्धता की कमी है जो पिछले एक दशक के दौरान वन अपराध/वन्यजीव मामलों के पंजीकरण में गिरावट की प्रवृत्ति से स्पष्ट है और इन्हीं सबके चलते रिजर्व में मानवजनित दबाव मुख्यरूप से अवैध चराई बहुत अधिक बढ़ गई है।

सरिस्का के कोर और बफर क्षेत्र दोनों में बाघ और तेंदुए द्वारा मवेशियों के बढ़ते शिकार यदि यु ही चलते रहे तो शायद स्थानीय समुदायों में इनकी उपस्थिति के प्रति असहिष्णुता बढ़ सकती है। हालांकि रिज़र्व से गांवों के स्वैच्छिक विस्थापन की प्रक्रिया जारी है, लेकिन पिछले एक दशक से देखी गई बेहद धीमी गति ने आवास को और खराब स्थिति में ला दिया है। तथा अध्ययन के शोधकर्ताओं के सुझाव है कि, सरिस्का में कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाई जानी चाइये ताकि हानि कि गति को रोका जा सके।

References:

  • Mondal, K., Gupta, S. , Bhattacharjee, S., Qureshi, Q. and K. Sankar. (2012). Prey selection, food habits and dietary overlap between leopard Panthera pardus (Mammalia: Carnivora) and re-introduced tiger Panthera tigris (Mammalia: Carnivora) in a semi-arid forest of Sariska Tiger Reserve, Western India, Italian Journal of Zoology, 79:4, 607-616.
  • Sankar, K., Qureshi, Q., Nigam, P., Malik, PK., Sinha, PR., Mehrotra, RN., Gopal, R., Bhattacharjee, S., Mondal, K. and S. Gupta. 2010. Monitoring of reintroduced tigers in Sariska Tiger Reserve, Western India: Preliminary findings on home range, prey selection and food habits. J. Trop. Conserv. Sci., 3(3): 301-318
  • Bhardwaj, G. S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A. and Reddy G.V. 2020. Study on kill pattern of re-introduced tigers, demonstrating increased livestock preference in human dominated Sariska tiger reserve, India. SCIREA Journal of Biology. 5(2): 20-39

 

Cover Photo Credit: Mr. Buvnesh Suthar

पार्थीनियम: शुष्क प्रदेश के लिए एक अभिश्राप

पार्थीनियम: शुष्क प्रदेश के लिए एक अभिश्राप

पार्थीनियम आज राजस्थान की दूसरी सबसे अधिक आक्रामक तरीके से फैलने वाली एक खरपतवार है जो यहाँ के आवासों, स्थानीय वनस्पत्तियों और वन्यजीवों के लिए मुश्किल का सबब बनती जा रही है

जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कभी तेज गर्मी तो कभी सर्दी और इसके द्वारा न जाने कितनी अन्य मुसीबतों से आज पूरा विश्व गुजर रहा है। ऐसे में राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश लगातार जलसंकट का सामना कर रहे है कई खरपतवार वनस्पतियाँ इस संकट की घडी में पर्यावरण की मुश्किलों को और बढ़ा रही है जैसे की “पार्थीनियम “।

पार्थीनियम, राजस्थान की दूसरी सबसे खराब खरपतवार है जो की राज्य के अधिकांश इलाकों में आक्रामक तरीके से फैल चुकी है। यह राजस्थान के पारिस्थितिक तंत्र की मूल निवासी नहीं हैं तथा राजस्थान तो क्या पूरे भारत में इसके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे एवं प्राणी नहीं है क्योंकि यह एक आक्रामक प्रजाति (Invasive species) है। आक्रामक प्रजाति वे पौधे, प्राणी एवं सूक्ष्मजीव होते है जो जाने-अनजाने में मानव गतिविधियों द्वारा अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र से बाहर के क्षेत्र में पहुंच जाते है और फिर बहुत ही आक्रामक तरीके से फैलते है क्योंकि उनको नियंत्रित रखने वाली प्रजातियां वहां नहीं होती है।

Parthenium hysterophorus (Photo: Dr. Ravikiran Kulloli)

आज सिर्फ राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का लगभग 65 प्रतिशत भू-भाग पार्थीनियम की चपेट में है। परन्तु प्रश्न ये उठता है कि, अगर ये यहाँ की मूल निवासी नहीं हैं तो यहाँ आयी कैसे?

तो बात है सन 1945 की जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इस हमले के बाद दुनिया के तमाम देशों ने अमेरिका की आलोचना की तथा दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने के लिए सन 1956 में अमेरिका ने पब्लिक लॉ 480 (PL-480) स्कीम की शुरुआत की। इस स्कीम के अंतर्गत अमेरिका ने विश्व के आर्थिक रूप से गरीब व जरूरतमंद देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने का वादा किया तथा भारत भी उन देशों में से एक था। परन्तु इस स्कीम के तहत जो गेंहू आयात हुआ उसके साथ कई प्रकार की अनचाही वनस्पतिक प्रजातियां भी भारत में आ गयी और उनमें से एक थी “पार्थीनियम “। आज देखते ही देखते यह खरपतवार पूरे भारत सहित 40 अन्य देशों में फ़ैल चुकी है तथा इसके प्रकोप और प्रभावों को देखते हुए IUCN द्वारा इसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक माना गया है।

पार्थीनियम को “गाजर घास” एवं “कांग्रेस घास” भी कहा जाता है तथा इसका वैज्ञानिक नाम “Parthenium hysterophorus” है। उत्तरी अमेरिका मूल का यह पौधा Asteraceae परिवार का सदस्य है। एक से डेढ़ मीटर लम्बे इस पौधे पर गाजर जैसी पत्तियां और सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे फूल आते है।

जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पार्थीनियम  एक ऐसी खरपतवार है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र ख़ासतौर से राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है। राजस्थान में लगभग सभी इलाके 236 ब्लॉक में से 190 ब्लॉक डार्क ज़ोन में है तथा जलसंकट से ग्रसित है। यहाँ के ज्यादातर क्षेत्र शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, बीहड़, पर्णपाती वन और रेगिस्तान हैं तथा इन सभी आवासों की एक खास बात यह है कि, ये कभी भी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते हैं क्योंकि हरीयाली यहाँ वर्षा जल पर निर्भर करती है ऐसे में पार्थीनियम का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है।

इस खरपतवार से निम्न नुकसान होते हैं

  • स्थानीय वनस्पतियों के हैबिटैट में प्रसार : राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले प्रदेश में स्थानीय वनस्पतिक अपेक्षाकृत कम घनत्व वाली वनस्पति आवरण पायी जाती है ऐसे में पार्थीनियम विभिन्न तरीकों से स्थानीय वनस्पतियों को आच्छादित कर लेता है एवं उसके स्थान पर स्वयं फैलने लगता है  जैसे कि, यह एक शाकीय पौधा है और पास-पास उग कर यह सघन झाड़ियों (Thickets) के रूप में वृद्धि करता है जिसके द्वारा इससे छोटे पौधों को पूरी तरह से प्रकाश नहीं मिल पाता, उनकी वृद्धि नहीं हो पाती और न ही उनके बीज बनने की क्रिया पूरी हो पाती है। फिर धीरे-धीरे वो खत्म हो जाते हैं। इस प्रतिस्पर्धा  में छोटे पौधे और विभिन्न घास प्रजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। साथ ही इसमें पाए जाने वाले रसायन भी फसलों तथा अन्य वनस्पतियों पर एलेलोपैथिक प्रभाव डाल बीज अंकुरण व वृद्धि को रोकते है।

कृषि क्षेत्र में पार्थीनियम (फोटो: मीनू धाकड़)

  • संरक्षित वन क्षेत्रों में नुकसान: राजस्थान में पाए जाने वाले सभी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र शुष्क पहाड़ी क्षेत्र है जो न सिर्फ वन्यजीव संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि इस शुष्क प्रदेश के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में इनसे कई छोटी-छोटी जलधाराएं निकलती है जो आगे जाकर नदियों, तालाबों और बांधों का जल स्तर भी बढ़ाती है। परन्तु अब पार्थीनियम  इन संरक्षित क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है तथा बाकि वनस्पतियों को हटा कर दुर्लभ वन्यजीवों के आवास व भोजन को नुकसान पंहुचा रहा है।
  • मवेशियों व वन्यजीवों पर प्रभाव: राजस्थान में पानी की कमी के कारण चरागाह भूमि और घास के मैदान भी बहुत सिमित है जिनपर बहुत से मवेशियों के साथ-साथ शाकाहारी वन्यजीव जैसे सांभर, चीतल, चिंकारा, काला हिरन आदि भी निर्भर है और इन भूमियों के अधिकतर हिस्सों में अब पार्थीनियम  फैल गया है जिससे न सिर्फ चरागाह भूमियों की उत्पादकता में कमी आ रही बल्कि यह आवास धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव उन जीवों पर पड़ रहा है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं। साथ ही मवेशियों और अन्य जानवरों के लिए विषैला होता है और यदि कोई प्राणी इसकी हरियाली के प्रति आकर्षित होकर इसे खा ले तो वह बीमार हो जाता है या मर सकता है।
  • नमभूमियों को नुकसान: सिर्फ यही नहीं पार्थीनियम अपने पैर हर मुमकिन जगहों पर फैला रहा है जैसे की नमभूमियों के किनारे। राजस्थान में भीषण गर्मी के दिनों में छोटे जल स्रोत सूख जाया करते है और ऐसे में वर्षभर पानी उपलब्ध कराने वाले जल स्रोतों की महत्वता बहुत ही बढ़ जाती है। क्योंकि ये जल स्रोत न सिर्फ जानवरों को पानी उपलब्ध कराते है बल्कि वर्ष के सबसे भीषण गर्मी वाले दिनों में जब कहीं भी कोई घास व हरा चारा नहीं बचता है उस समय इनके किनारे उगने वाले हरे चारे पर कई जीव निर्भर करते है। परन्तु आज पार्थीनियम  इन जल स्रोतों के किनारों पर भी उग गया है तथा जानवरों के लिए गर्मी के दिनों में मुश्किल का सबब बन रहा है। राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश जहाँ पहले से ही पानी की कमी के कारण मनुष्य, मवेशी और वन्यजीव मुश्किल में है वहां पार्थीनियम  जैसी खरपतवार मुश्किलों को और भी ज्यादा बढ़ा रही है।
  • छोटी जैव विविधता को नुकसान: प्रकृति में घास और अन्य पौधों की झाड़ियों में चिड़ियाँ, मकड़ी, शलभ (moth) और कई प्रकार के छोटी जीव रहते हैं परन्तु पार्थेनियम के विस्तार के साथ एक ही प्रकार का आवास बनता जा रहा है जिसके कारण यह कम जैव विविधता को समर्थन करता है।
  • आग की घटनाओ को बढ़ाना: क्योंकि यह एक साथ लगातार बड़े-बड़े हिस्सों में फैलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में नमी की कमी से यह सूख जाता है और सूखने पर यह एक आसानी से जलनेवाला पदार्थ (Combustible) है तथा जंगल में आग की घटनाओं को बढ़ाता है।
  • फसलों और आय पर प्रभाव: आज अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी यह फ़ैल चुका है और जिसके करण खेतों की उत्पादकता और फसलों की पैदावार कम हो रही है क्योंकि यह जरुरी पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।
  • मनुष्यों पर प्रभाव: न सिर्फ वनस्पत्तियों और जीवों के लिए यह हानिकारक है बल्कि यह मनुष्यों के लिए भी बहुत नुकसान दायक है क्योंकि इस पौधे के संपर्क में आने से मनुष्यों में खाज, खुजली, चर्म रोग, दमा, हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं।
फैलने के कारण व तरीके:
  • इसके तेजी से फैलने के पीछे कई कारण है जिसमें सबसे मुख्य है कि, इसका जीवनचक्र 3-4 माह का ही होता है और इसका एक पौधा एक बार में लगभग 10,000 से 25,000 बीज पैदा करता है। यह बीज हल्के होते हैं जो आसानी से हवा और पानी से आसपास के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं तथा यह वर्षभर प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उगने व फलने फूलने की क्षमता रखता है।

पार्थीनियम, एक बारी में ही बड़ी तादाद में बीज पैदा करता है। (फोटो: मीनू धाकड़)

  • वन क्षेत्रों को जब भी सड़क, रेल लाइन और नहरों के निर्माण के लिए खंडित किया जाता है अर्थात जंगल को काटा जाता है तो जंगल का कैनोपी कवर हटने से भूमि खाली होती है और जिसपर प्रकाश भी भरपूर होता है। बस प्रकाश और खाली स्थान मिलते ही ऐसे खरपतवार वहां उग जाते है। साथ ही निर्माण कार्य के दौरान आसपास बने गड्ढों में पानी भर जाने पर भी ये उग जाता है।
  • अगर ये नदी या पानी के किनारे पर मौजूद होता है तो बहते हुए पानी के साथ आते-आते इसके बीज पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाते है और धीरे-धीरे यह खेतों में भी पहुंच जाता है।
  • स्वास्थ्य के ऊपर कई नुकसान होने के कारण कोई भी प्राणी इसे नहीं खाता है जिसके कारण यह बचा हुआ है और तेजी से फ़ैल रहा है।
  • हालांकि प्राणी इसे नहीं खाते हैं परन्तु ऐसा देखा गया है कि, गधा इसे बड़े चाव से खाता है और फिर उसके गोबर के साथ इसके बीजों का बिखराव आसपास के सभी क्षेत्र में हो जाता है।
वनस्पति विशेषज्ञ डॉ सतीश कुमार शर्मा के अनुसार इसे निम्न तरीकों से हटाया जा सकता है:

पार्थीनियम अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी फ़ैल चूका है और इसे उन्मूलन, पुनः रोपण और जांच इन तीन चरणों से ही हटाया जा सकता है। (फोटो: मीनू धाकड़)

  • इस खरपतवार को हटाने का सबसे पहला और बड़ा तरीका यह है कि, इसे छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने से सफलता नहीं मिलेगी। यानी अगर हम इसे छोटे क्षेत्र से ही हटाते हैं जैसे किसी किसान ने सिर्फ अपने खेत से हटाया या फिर वन विभाग ने सिर्फ एक रेंज से हटाया और आसपास यह मौजूद है तो आसपास के क्षेत्रों से यह वापिस आ जाएगा। इसीलिए इसे छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बल्कि “लैंडस्केप स्तर” पर हटाना होगा। यानी की इसे विस्तृत रूप से हटाना होगा जैसे वन विभाग वाले वनों से हटाए, चरागाह वाले चरागाह से हटाए और नगरपालिका वाले शहरों से हटाए। यानी एक साथ सब जगह से हटाने से ही इसका नियंत्रण होगा।
  • इसे हमेशा फूल और फल बनने से पहले हटाना चाहिए नहीं तो बीज सब तरफ फ़ैल जाएगें। इसे हटाते समय काटो या जलाओ मत, नहीं तो यह फिर से उग जाएगा। इसको पूरी जड़ सहित उखाड़ा जाना चाहिए और यह करने का सबसे सही समय होता है बारिश का मौसम।
  • इसे पूर्णरूप से हटाने के तीन चरण है; उन्मूलन (Eradication), पुनः रोपण (Regeneration) और जांच (Followup) अर्थात जैसे ही एक क्षेत्र से इसे हटाया जाए साथ के साथ स्थानीय वनस्पति का पुनः रोपण (Regeneration) भी किया जाए ताकि खाली ज़मीन से मिट्टी का कटाव न हो। साथ ही हटाए गए क्षेत्र का समय-समय पर सर्वेक्षण कर जांचना चाहिए कि, कहीं कोई नए पौधे तो नहीं उग गए क्योंकि जो बीज मिट्टी में पड़े रह गए होंगे बारिश में नया पौधा बन सकते हैं। ऐसे में उन नए पौधों को भी हटा देना चाहिए। इन तीन चरण को लगभग चार से पांच वर्ष तक किये जाने पर इसे हटाया जा सकता है।
  • पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ऊपर से नीचे की तरफ और समतल क्षेत्रों में बीच से बाहरी सीमा की तरफ हटाया जाना चाइये।
  • विभिन्न विकास कार्यों के दौरान जंगलों के कटाव के कारण भी यह वन क्षेत्रों में आ जाता है। इसीलिए हमें सबसे पहली कोशिश यही रखनी चाहिए की वनों का खंडन न करें और अन्य विकल्प खोजने की पूरी कोशिश करें। और यदि काटे भी तो स्थानीय पौधों का रोपण कर खाली स्थानों को भर दिया जाए।

राजस्थान में पानी की बढ़ती कमी के इस दौर में पार्थीनियम जैसी खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए सभी विभागों को मिलकर कार्य करना होगा। विशेषरूप से संरक्षित क्षेत्रों से इसे हटाने के लिए विभाग को एक मुहीम चलानी चाहिए तथा राज्य सरकार को भी नरेगा जैसी स्कीम के तहत जल स्रोतों और चारागाह भूमियो से इसे हटाने के प्रयास करने चाइये।

साथ ही वन विभाग के सभी कर्मियों को उनके क्षेत्र में पायी जाने वाली खरपतवार की पहचान, उनकी वानिकी और नियंत्रण के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे ऐसी खरपतवार को सफलतापूर्वक तरीके से हटा सके।

Cover photo credit : Dr. Ravikiran Kulloli

कैमरा ट्रैपिंग के माहिर वनरक्षक: भैराराम बिश्नोई

कैमरा ट्रैपिंग के माहिर वनरक्षक: भैराराम बिश्नोई

“भैराराम, एक ऐसे वनरक्षक जिन्हें कैमरा ट्रैपिंग कर वन्यजीवों की गतिविधियों की निगरानी करने तथा स्कूली छात्रों को वन्यजीवों के बारे में जागरूक करने में है अटूट रूचि”।

अप्रैल 2020 में, जब पूरा विश्व कोरोना से लड़ रहा था, उस समय भी हमारे वनकर्मी अपनी पूर्ण निष्ठा के साथ वन्यजीवों के संरक्षण में लगे हुए थे। और उस समय एक ऐसी घटना हुई जिसने राजस्थान के कई वन्यजीव प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

एक मादा बघेरा (leopard) ने आबादी गाँव के एक सुने घर में तीन बच्चों को जन्म दिया और रोज़ वहां आने-जाने लगी क्योंकि, वह घर गाँव के बाहर एक नाले के पास स्थित था और नाले के दूसरी तरफ जंगल था। उस सुने घर के आसपास खेत थे और इसी वजह से बघेरे के लिए वहाँ आना-जाना कोई मुश्किल नहीं था। एक रात गाँव के किसी व्यक्ति ने मादा बघेरा को उस घर में घुसते हुए देखा और सुबह होते ही उसने यह बात गांव के लोगों को बताई। जैसे ही गांव के लोग उस घर पर पहुँचे तो उन्होंने देखा वहां बघेरे के तीन बच्चे सो रहे थे और मादा वहां नहीं थी। गाँव वालों ने तुरंत वन विभाग को बताया विभाग ने एक वन रक्षक के साथ दो और गार्ड वहाँ भेजे तो वहाँ पर मौजूद ग्रामीण उनसे बहस करने लगे कि, ” इन बच्चों की माँ तो यहाँ हैं ही नहीं इनको यहाँ से हटाओ”।

ऐसी स्थिति वन विभाग के कर्मियों के सामने हमेशा चुनौती पूर्ण होती हैं जिसमें ग्रामीणों के साथ सामंजस्य भी जरूरी हैं तो उस वन्यजीव व उसके बच्चों का संरक्षण भी बहुत जरूरी हैं इसलिए ऐसे समय में धैर्य की जरूरत होती हैं।

कैमरा ट्रैप लगाते हुए वनरक्षक

वहाँ पर मौजूद उस वनरक्षक के द्वारा योजनाबद्ध तरीके से इस कार्य को अंजाम दिया गया। पहले कैमरा ट्रैप की मदद से देखा कि, माँ आती है या नहीं? पहली रात बघेरा माँ आयी और तीन बच्चों में से एक को ले गयी अगली सुबह उस वनरक्षक ने कैमरा ट्रैप की फोटो गाँव वालों को दिखाई तो गांव वाले भी सहमत थे कि, ये बारी-बारी से अपने बच्चों को सुरक्षित जगह पर ले जाएगी। उस रात फिर कैमरा लगाया माँ आयी और एक बच्चे को ले गयी।

अपने बच्चे को लेजाती हुई बघेरा माँ

अपने बच्चे को लेजाती हुई बघेरा माँ

परन्तु तीसरी रात माँ आयी ही नहीं। तो उस वनरक्षक ने दो और दिन इंतज़ार करने का सोचा और उसने किसी पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार उस शावक की देख-रेख करी। दो दिन बाद माँ वहां आयी और उस आखरी बच्चे को भी ले गयी। इस पूरी घटना के समय 6 दिनों तक वह वनरक्षक उसी गाँव में एक मंदिर में रहा, रोज़ रात कैमरा ट्रैप लगाना, उन शावकों व ग्रामीणों की निगरानी भी जरूरी थी क्योंकि आबादी क्षेत्र से सटे हुए उस घर में खतरा यही थी कि, कहीं अचानक ग्रामीण आ जाए और वह मादा बघेरा उन पर हमला न कर दे। परन्तु इस कठिन परिस्थिति में भी उस वनरक्षक ने अपनी सूझबूझ और बहादुरी से काम लिया।

शावक को दूध पीलाते हुए वनरक्षक

तो ऐसे चुनौती पुर्ण कार्य को अंजाम देने वाले मेहनती वन रक्षक है “भैराराम बिश्नोई”, जो वर्तमान में कुम्भलगढ़ अभयारण्य (राजसमन्द डिवीज़न) में वनरक्षक (Forest Guard) के पद पर तैनात हैं।

भैराराम बताते हैं कि, उन्हें कैमरा ट्रैपिंग करना और वन्यजीवों की मॉनिटरिंग करना बहुत पसंद है। कैमरा ट्रैपिंग से इन्होने वन्यजीवों के कई ख़ास पलों को दर्ज़ किया है जिन्हें दिन में यूँ देख पाना मुश्किल होता है। इतने वर्षों की अपनी कार्यसेवा के दौरान कई बार भैराराम ने न सिर्फ मुश्किल बल्कि खतरनाक कार्यवाहियों में भी बड़ी सूझ-बुझ से भूमिका निभाई है।

“भैराराम बिश्नोई”, वर्तमान में कुम्भलगढ़ अभयारण्य (राजसमन्द डिवीज़न) में वनरक्षकके पद पर तैनात हैं।

“मारवाड़ की मरूगंगा” लूणी नदी के किनारे बसे छोटे से गांव काकाणी के किसान परिवार में जन्मे भैराराम बिश्नोई वनरक्षक में भर्ती होकर वर्तमान में वन संपदा व जीव जंतुओं के प्रति सजगतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। काकाणी गांव विश्नोई बहुल हैं जो हैंड प्रिंटिंग और नक्काशीदार मिट्टी के बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है। यहां के लोग प्रकृति में मौजूद सभी जीव जंतुओं के लिए जागरूक हैं और इनकी रक्षा के लिए जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाते हैं। बिश्नोई बहुल इस गांव में पेड़ काटना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। वन विभाग में आने से पहले भैराराम वन एवं वन्यजीवों की विशेषताओं से अनभिज्ञ थे और गांव के आसपास के क्षेत्र के अन्य युवाओं में भी वनों के प्रति कार्य करने की इच्छा शक्ति नही थी तथा ये खुद भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए प्रयासरत थे।

वतर्मान में 35 वर्षीय, भैराराम की स्कूली शिक्षा गाँव में ही हुई और स्नातक की पढ़ाई के लिए ये जय नारायण व्यास विश्विद्यालय, जोधपुर चले गए। अध्ययन के समय अध्यापक व पुलिस बनने का हुनर इन्हें दिन रात सोने नही देता था, लेकिन उससे पहले वर्ष 2013 की वनरक्षक भर्ती प्रतियोगी परीक्षा में इनको सफलता मिली तो आज प्रकर्ति के रहस्य को भलीभांति लोगों के बीच मे प्रसारित करना व वनों के प्रति लोगों को प्रेरित करना इनकी कार्यशैली का मुख्यरूप से मजबूत हिस्सा है। पर्यावरण संरक्षण एवं वन्यजीवों के उत्थान में इनका अहम योगदान हैं वन्यजीवों के बारे में विस्तृत अध्ययन करने के उपरांत ये आलेख तैयार कर लोगों के बीच जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं ताकि आमजन भी वन वनस्पति और वन्यजीवों की विशेषताओं से परिचित हो सके तथा उनके संरक्षण में अपनी भागीदारी निभा सके।

भैराराम बताते हैं कि, अभयारण्य के आसपास कई गाँव स्थित हैं और ये लोग विभिन्न कारणों जैसे जलाऊ लकड़ी, जड़बुटियाँ और पेड़ों से गोंद निकालने के लिए वन क्षेत्र के अंदर घुस आते हैं। राजस्थान सरकार द्वारा किसी भी संरक्षित क्षेत्र में पेड़ों से गोंद निकालना एक गैर कानूनी कार्य है परन्तु फिर भी कुछ समुदायों के लोग अवैध रूप से अभयारण्य में घुस आते हैं और “सालार (Boswellia serrata)” का गोंद निकालते हैं। ये लोग पेड़ के तने पर चीरा लगा देते हैं और जब 10 से 12 दिनों में गोंद इक्कठा हो जाता है तो उसे निकाल कर ले जाते हैं।

एक रोज़ भैराराम और उनके साथी गस्त के लिए निकले तो उन्हें एक कैंप मिला जहाँ 15 से 20 गोंद निकालने वाले लोग रह रहे थे। उनकी ज्यादा संख्या को समझते हुए भैराराम वहां से वापिस आ गए और अपने वरिष्ठ अधिकारियों व साथियों से चर्चा कर योजना बनाई। अगले रोज विभाग की 17 लोगों की एक टीम रात को वहां उनके कैंप पर पहुंची और मुज़रिमों को दोनों तरफ से घेर लिया। जब घेरा गया तो एक तरफ कम गहरी खाई थी और वो सभी लोग उस खाई में कूद गए और केवल एक मुजरिम ही हाथ लग पाया। परन्तु उनके ठिकाने की तलाशी लेने पर उनके पास से बन्दुक, छर्रे, चाक़ू और कुछ मीट बरामद हुआ। लैब से जांच करवाने पर मालूम हुआ की वह सांबर का मीट था। अभी उस मुजरिम पर क़ानूनी कार्यवाही चल रही है।

कैमरा ट्रैपिंग के अलावा भैराराम वन्यजीवों को रेस्क्यू करने में भी निपुण हैं और आज तक इन्होने 5 लेपर्ड, 50-60 मगरमच्छ, 100 अजगर और कुछ अन्य जीव रेस्क्यू किये हैं।

भैराराम बताते हैं कि, एक बार उन्होंने 100 फ़ीट गहरे कुए से मगरमच्छ को बाहर निकाला था। गुराभोप सिंह नामक इनकी बीट के पास एक गाँव में एक छोटा कुआ था, जिसमें हर वर्ष बारिश के दौरान पानी भर जाता था। इसी दौरान एक मगरमच्छ उस कुए में रहने लग गया। दिन के कुछ समय वह बाहर रहता और आसपास हलचल होते ही तुरंत कुए के अंदर चला जाता था। परन्तु कुछ दिन बाद जैसे पानी सूखने लगा वह मगरमच्छ उस कुए में ही रह गया। तब फिर गाँव के लोगों ने भैराराम को बुलाया। भैराराम अपनी टीम के साथ घटना स्थल पर पहुंचे और इन्होने तुरंत बिजली से चलने वाले मोटर मंगवा कर कुए का सारा पानी बाहर निकाला। तब उपकरणों की कमी होने के कारण इनके साथी कुए में जाने से डर रहे थे परन्तु तभी भैराराम ने कुए के अंदर जाने का फैसला किया। भैराराम और उनके एक साथी ने उस सौ फ़ीट गहरे कुए में जाकर मगरमच्छ को बाहर निकाला।

एक बार ऐसी घटना भी हुई कि, अभयारण्य के पास एक एन्क्लोज़र था जहाँ पेड़ पौधे उगे हुए थे और काम करने वाले कई मज़दूर वहां आया करते थे। वहां अक्सर एक मादा भालू अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमा करती थी जिन्हें लोग देखा करते थे तथा उनके लिए वह एक साधारण सी बात बन गई थी। फिर एक दिन एक बच्चा गाँव के पास चला गया और एक नाले में गिर गया। सुबह के समय मज़दूरों ने उसको देखा और सोचा की आसपास माँ होगी अभी चला जाएगा। परन्तु वो बच्चा शाम तक भी वही बैठा रहा और यह स्थिति देख लोगो ने भैराराम को बुलाया। भैराराम और उनकी टीम ने उस बच्चे को नाले से निकाल कर वापिस एन्क्लोज़र के पास छोड़ दिया तथा कुछ रोज़ तक लगातार एन्क्लोज़र के आसपास कैमरा ट्रैप लगाया और पाया की दोनों बच्चे अपनी माँ के साथ ठीक हैं।

पैंगोलिन को रेस्क्यू करते हुए भैराराम

भैराराम बताते हैं कि,एक बार अभयारण्य के पास स्थित एक गाँव में कुछ लोगों ने पैंगोलिन को मगरमच्छ का बच्चा समझ कर तालाब में डाल दिया था और जब पैंगोलिन बार-बार बाहर आने की कोशिश कर रहा था तो उसे डंडे से मार-मार कर जान से मार दिया। इस घटना के बाद भैराराम ने गाँव वालों को इसके बारे में जागरूक किया। जिसके बाद दोबारा जब पैंगोलिन गाँव के लोगों को मिला तो उन्होंने तुरंत विभाग वालो को सूचित किया और पैंगोलिन को रेस्क्यू कर वापिस अभ्यारण्य में छोड़ दिया गया।

समय के साथ-साथ भैराराम ने नई-नई चीजे सीखने में भी बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने खुद का निजि कैमरा खरीद कर अभयारण्य में और उसके आसपास के क्षेत्र में घूम कर वन्यजीवों की फोटोग्राफी तथा पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा।

ज़मीनी स्तर पर वन्यजीवों के लिए काम करने के अलावा भैराराम शिक्षक होने में भी रूचि रखते हैं। इसके लिए हर वर्ष जब वन्यजीव सप्ताह में अभयारण्य के पास स्थित विद्यालयों के बच्चों को अभयारण्य लाया जाता है तो भैराराम उनको वन और वन्यजीवों के महत्त्व के बारे में समझाते एवं उनको जागरूक करते हैं। इसके अलावा भी कई बार भैराराम आसपास के स्कूलों में जाकर बच्चों को वन्यजीवों के बारे में पढ़ाते हैं।

भैराराम की कड़ी मेहनत को देखते हुए आज सभी वन अधिकारी उनकी प्रसंशा करते हैं

वन्यजीवों के प्रति इनके कार्य व ग्रामीण लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए इनको जिला स्तर पर सम्मानित भी किया गया है। इसके अलावा भैराराम को क्रिकेट खेलने का विशेष शौक है तथा पिछले दो वर्षों से All India Forest National games में वन विभाग की टीम की तरफ क्रिकेट खेल रहे हैं और छ बार मैन ऑफ़ द मैच बन चुके हैं।

भैराराम मानते हैं कि, अभयारण्य में वर्षा ऋतू में दिन प्रतिदिन मगरमच्छ और अजगर बाहर निकल आते हैं तथा आसपास स्थित खेत, घर या फार्महाउस में पहुँच जाते हैं। मुश्किल यह है कि, इन सबको रेस्क्यू करने के लिए इनकी टीम के पास सिर्फ रस्सी ही है और ऐसे जानवरों को पकड़ने के लिए विभाग के पास नई तकनीक के उपकरण (equipment) होने चाइये।

इनके अनुसार वन क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी कर्मियों को कैमरा ट्रैपिंग और वन्यजीवों के रेस्क्यू के बारे में पूरी ट्रेनिंग देनी चाहिए, क्योंकि यही एकमात्र विधि है जिसके कारण वन्यजीवों को बिना परेशान किये हम उनकी निगरानी कर सकते हैं तथा मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम कर सकते हैं। साथ ही हर संरक्षित क्षेत्र के आसपास स्थित ग्रामीण लोगों को वन्यजीवों व उनके महत्त्व के बारे में जागरूक करना चाइये तथा किस प्रकार वे संरक्षण में विभाग कि मदद कर सकते है उसके लिए भी उनको सूचित करना चाहिए।

प्रस्तावित कर्ता: श्री राहुल भटनागर (सेवा निवृत मुख्य वन संरक्षक, कुम्भलगढ़ अभयारण्य), डॉ सतीश कुमार शर्मा (सेवा निवृत सहायक वन संरक्षक उदयपुर)
लेखक: 

Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

Shivprakash Gurjar (R) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

वैज्ञानिकों और बाघ प्रेमियों में हमेशा से यह एक चर्चा का विषय रहा है कि, आखिर बाघ का इलाका औसतन कितना बड़ा होता है? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान के वन अधिकारियों द्वारा सरिस्का के सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं का एक अध्यन्न कर कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है आइये जानते हैं

हाल ही में राजस्थान के कुछ वन अधिकारीयों द्वारा बाघों पर एक अध्ययन किया गया है जिसमें अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” के बाघ मूवमेंट क्षेत्र (Territory) को मानचित्र पर दर्शाकर तुलना करने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बाघों की गतिविधियों और वितरण सीमा को प्रभावित करने वाले संभावित कारणों को समझना था ताकि बाघों की बढ़ती आबादी के फैलाव और उसके साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर योजनाए भी बनाई जा सके (Bhardwaj et al 2021)।

दअरसल सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है। निगरानी के सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके। नियमित रूप से निगरानी और वैज्ञानिक तरीकों से एकत्रित आंकड़ों की मदद से यहाँ बाघों के स्वभाव एवं पारिस्थितिकी को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के शोध भी किये जाते हैं।

सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

मुख्यत: राजस्थान के अर्ध-शुष्क एवं अरावली पर्वत श्रृंखला का भाग सरिस्का बाघ परियोजना जो कि अलवर जिले में स्थित हैं इसका कुल क्षेत्रफल 1213.31 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ मुख्यरूप से उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिसमें धोक (Anogeissus pendula) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली वृक्ष प्रजाति है। इसके अलावा सालार (Boswellia serrata), Lannea coromandelica , कत्था (Acacia catechu), बेर (Zizyphus mauritiana), ढाक (Butea monosperma) और केर (Capparis separia) आदि पाई जाने वाली अन्य प्रजातियां हैं। वन्यजीवों में बाघ यहाँ का प्रमुख जीव है इसके अलावा यहाँ तेंदुआ, जरख, भालू, सियार, चीतल, सांबर, लोमड़ी आदि भी पाए जाते हैं।

सरिस्का में स्थित सूरज कुंड बाउरी (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

वर्ष 1978 में सरिस्का को बाघों की आबादी के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान समझते हुए “बाघ परियोजना (Project Tiger) का हिस्सा बनाया गया था। परन्तु वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा।

सरिस्का में दुबारा बाघों को लाने के लिए, सरिस्का से 240 किलोमीटर दूर राजस्थान के एक और सबसे प्रसिद्ध बाघ अभयारण्य “रणथम्भौर” का चयन किया गया तथा 28 जून 2008 को भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर विमल राज (wing commander Vimal Raj) द्वारा रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में पहली बाघ (ST-1) विस्थापन की प्रक्रिया को Mi-17 हेलीकॉप्टर की मदद से सफल बनाया गया।

उस समय अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

बाघिन ST9 (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दंश भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और इसके आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय व्यवहार के दबाव में है।

पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण कुछ शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने हेतु अभयारण्य की सीमा को पार कर गाँवों के आसपास चले गए थे ऐसे में बाघों के मानव बस्तियों के आसपास जाने के कारण बाघ-मानवीय संघर्ष की घटनाएं भी हो उतपन्न हो जाती हैं

बाघों की  बढ़ती आबादी व इनकी गतिविधियों को देखते हुए, विभाग द्वारा सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं को समझने की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके की वन क्षेत्र बिना किसी संघर्ष घटनाओं के सफलतापूर्वक कितने बाघों को रख सकता है तथा बढ़ती आबादी के अनुसार उचित उपाय ढूंढे जा सके।

जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

बाघ, पुरे विश्व में बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा सदस्य है जो विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में रहने के लिए अनुकूल है। इन आवासों में पर्यावरणीय विविधताओं के कारण शिकार की बहुतायत में भी अंतर देखे जाते हैं और इसी कारण बाघों की वितरण सीमा में भी भिन्नता देखी गई है। बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ का अपना एक निर्धारित क्षेत्र (इलाका/Territory) होता है।

वहीँ दूसरी ओर जब हम प्रकाशित सन्दर्भों को देखते हैं तो विभिन्न तरह की बाते सामने आती हैं जैसे कि, जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं।

सरिस्का के बाघों की वंशावली:
क्र स  बाघ  ID लिंग माँ का नाम  जन्म स्थान  वर्तमान स्थिति  इलाके का क्षेत्रफल (वर्ग किमी )
1 ST1 नर रणथम्भौर मृत
2 ST2 मादा रणथम्भौर जीवित 19.34
3 ST3 मादा रणथम्भौर जीवित 172.75
4 ST4 नर रणथम्भौर मृत 85.4
5 ST5 मादा रणथम्भौर मृत 51.91
6 ST6 नर रणथम्भौर जीवित 79.94
7 ST7 मादा ST2 सरिस्का जीवित 16.59
8 ST8 मादा ST2 सरिस्का जीवित 43.04
9 ST9 मादा रणथम्भौर जीवित 85.24
10 ST10 मादा रणथम्भौर जीवित 80.1
11 ST11 नर ST10 सरिस्का मृत 57.63
12 ST12 मादा ST10 सरिस्का जीवित 50.87
13 ST13 नर ST2 सरिस्का जीवित 61.39
14 ST14 मादा ST2 सरिस्का जीवित 36.58
15 ST15 नर ST9 सरिस्का जीवित 47.67
16 ST16 नर रणथम्भौर जीवित

 

कई विशेषज्ञों के शोध यह भी बताते हैं कि, नर बाघ का इलाका उसकी ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने से भी काफी ज्यादा बड़ा होता है और ये इसीलिए हैं ताकि बाघ अपने प्रजनन के अवसरों को अधिकतम कर सके। इसी प्रकार के कई तर्क एवं तथ्य संदर्भो में देखने को मिलते हैं।

मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे एक वर्ष (2017 -2018) तक सभी बाघों (उस समय मौजूद कुल 16 बाघों) की गतिविधियों (Movement Pattern) का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों के आधार पर की गई। इसके अलावा सभी बाघों को उनकी उम्र के आधार पर तीन भागों में बांटा गया; शावक (<1.5 वर्ष), उप-वयस्क (1.53 वर्ष) और वयस्क (> 3 वर्ष)। इसके पश्चात सभी बाघों के मूवमेंट क्षेत्रो को मानचित्र पर दर्शाने के साथ तुलना भी की गई।

रेडियो-टेलीमेट्री के महत्त्व को देखते हुए सरिस्का में अब तक नौ बाघ रेडियो कॉलर किये गए हैं जिनमे सात बाघ वे हैं जो रणथम्भोर से लाये गए थे और दो नर बाघ (ST11 और ST13) जो सरिस्का में ही पैदा हुए थे।

ST11 और ST13 के अलावा आज तक सरिस्का में पैदा होने वाले किसी भी बाघ को रेडियो-कॉलर नहीं लगाया गया है क्योंकि ये दोनों बाघ अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान काफी बड़े इलाके और अभयारण्य की सीमा के बाहरी छोर पर घूम रहे थे। ऐसे में इनकी सुरक्षा को देखते हुए इनको रेडियो कॉलर लगाया गया।

इन नौ बाघों के अलावा बाकी सभी बाघों की पगचिन्हों और कैमरा ट्रैप के आधार पर ही निगरानी की जाती है।

अध्ययन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों की जांच से पता चलता है कि, सरिस्का में बाघिनों की क्षेत्र सीमा न्यूनतम 16.59 किमी² से अधिकतम 172.75 किमी² तक हैं, जिसमें से सबसे छोटा क्षेत्र बाघिन ST7 (16.59 किमी²) का तथा सबसे बड़ा क्षेत्र ST3 (172.75 किमी²) का देखा गया है। अन्य बाघिनों जैसे ST9 का क्षेत्र 85.24 किमी², ST10 (80.10 किमी²), ST5 (51.91 किमी²), ST12 (50.87 किमी²), ST8 (43.04 किमी²),  ST14 (36.58 किमी²) और ST2 (19.34 किमी²) तक पाए गए।

पिछले वर्षों में सरिस्का के अलावा अन्य अभयारण्यों में हुए कुछ अध्ययनों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि, अमूर बाघों के क्षेत्र अपर्याप्त शिकार और आवास की गुणवत्ता की कमी के कारण बड़े होते हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप में वयस्क मादाओं के क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध होने के कारण छोटे होते हैं। इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही देखा गया है जहाँ बाघिन ST7, ST2, ST14, और ST8 के क्षेत्र, शिकार की बहुतायत होने के कारण छोटे (50 किमी² से छोटे) हैं।

परन्तु सरिस्का के बाघों की वंशावली को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाघिन ST2 इन सभी बाघिनों (ST7, ST14 और ST8) की माँ है तथा इनके ये क्षेत्र “female philopatry” का परिणाम है जिसमें, ST2 के क्षेत्र में उसकी बेटियों को जगह मिल गई है तथा ST2 का क्षेत्र 181.4 किमी² से कम होकर 19.34 किमी² रह गया है। इस तरह की female philopatry को कई मांसाहारी प्रजातियों में भी देखी गई है, जिसमें उप-वयस्क मादाओं को अक्सर अपनी माँ के क्षेत्र में ही छोटा हिस्सा प्राप्त हो जाता है और नर शावकों को लम्बी दुरी तय कर अन्य स्थान पर जाकर अपना क्षेत्र स्थापित करना पड़ता है।

कई अध्ययन इस व्यवहार के लिए एक ही कारण बताते हैं और वो है बेटियों की प्रजनन सफलता बढ़ाना। हालाँकि ST2 की केवल एक ही बेटी (ST14) ने सफलतापूर्वक दो मादा शावकों जन्म दिया व पाला है।

वहीँ दूसरी ओर अन्य बाघिनों जैसे ST3 (172.75 km²), ST9 (85.25 km²) और ST10 (80.10 km²) के क्षेत्र काफी बड़े थे क्योंकि इनके इलाके सरिस्का में ऐसे स्थान पर हैं जहाँ मानवजनित दबाव अधिक होने के कारण शिकार की मात्रा कम है तथा इसके पीछे एक और कारण प्रतीत होता है कि, अलग वंशावली के होने के कारण, इन बाघिनों को अन्य बाघिनों द्वारा कम शिकार और अपेक्षाकृत अशांत क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया गया है।

यदि नर बाघों की क्षेत्र सीमाओं की तुलना की जाए तो, बड़ी उम्र और पहले स्थान घेरने के कारण पहले सरिस्का भेजे गए नर बाघों के इलाके नए पैदा हुए नरों से बड़े हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र ST11 (646.04 km²) का देखा गया है। परन्तु यदि वर्ष के सभी महीनों की औसत निकाली जाए तो सबसे बड़ा क्षेत्र ST4 (85.40 km²) का और सबसे छोटा क्षेत्र ST15 (47.67 km²) का दर्ज किया गया है। इसके अलावा अन्य बाघों के इलाके ST6 (79.94 km²), ST13 (61.39 km²) और ST11 (57.63 km²) तक पाए गए।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, वर्ष 2017 में, बाघिन माँ ST9 से अलग होने के शुरुआती महीनों के दौरान ST15 का क्षेत्र अधिकतम (189.5 किमी²) हो गया था, लेकिन सरिस्का के दक्षिणी भाग में बस जाने के बाद इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो गया था। इसी प्रकार शुरुआत में ST13 (687.58 वर्ग किमी) का क्षेत्र भी काफी बड़ा था जो की बाद में कम हो गया था।

मार्च 2018 में, नर बाघ ST11 की किसी कारण वश मृत्यु हो गई और शोधकर्ताओं का यह अनुमान था कि, इसके बाद अन्य नरों के क्षेत्रों में वृद्धि होगी परन्तु यह अनुमान गलत साबित हुआ और बाघों की क्षेत्र सीमाओं में गिरावट देखी गई।

बाघों के इलाके पूर्ण रूप से अलग-अलग होते हैं या कहीं-कहीं एक दूसरे में मिलते भी हैं इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी बाघों के प्रत्येक माह और पुरे वर्ष के इलाकों को मानचित्र पर दर्शाया गया। जब सभी नर बाघों की प्रत्येक माह की क्षेत्र सीमाओं को देखा गया तो वे पूर्णरूप से अलग-अलग थी। परन्तु, पुरे वर्ष की क्षेत्र सीमाएं कुछ जगहों पर एक-दूसरे से मिल रही थी, जिसमें सबसे अधिक ओवरलैप ST4 व ST11 और  ST4 व ST13 के बीच में देखा गया।

ऐसा इसलिए था क्योंकि नर बाघ ST11 और ST13 युवा हैं और उस समय वे अपना क्षेत्र स्थापित करने के लिए अभयारण्य में अधिक से अधिक क्षेत्र में घूम रहे थे। परन्तु ST11 की मृत्यु के बाद यह ओवरलैप कम हो गया।

कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि, नर बाघ की मृत्यु के बाद अन्य बाघ उस क्षेत्र को कब्ज़ा कर अपने क्षेत्र को बड़ा कर लेते हैं परन्तु इस अध्ययन में किसी भी बाघ की सीमाओं में बदलाव नहीं देखे गए तथा यह पहले से बसे नर बाघों के गैर-खोजपूर्ण व्यवहार के बारे में संकेत देता है।

रेडियो-टेलीमेट्री एक महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, नर बाघों का क्षेत्र कुछ मादाओं के साथ लगभग पूरी तरह से ओवरलैप करता है और कुछ मादाओं के साथ बिलकुल कम। युवा बाघ ST15 के अलावा बाकि सभी नरों के क्षेत्र मादाओं के साथ ओवरलैप करते हैं। अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान ST11 का संपर्क सभी मादाओं के क्षेत्रों के साथ रहा है। इसके अलावा वर्ष के अलग-अलग महीनों में लगभग सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं में थोड़ी बहुत कमी, विस्तार और विस्थापन भी देखा गया है जिसमें सबसे अधिक मासिक विस्थापन युवा बाघ ST15 के क्षेत्र में (4.23 किमी) देखा गया और एक स्थान पर बस जाने के बाद यह कम हो गया। इसके बाद ST4 (2.04 किमी), ST13 (1.88 किमी), ST6 (1.69 किमी), और न्यूनतम विस्थापन ST11 (1.51 किमी) के क्षेत्र में दर्ज किया गया। परन्तु सभी बाघों की सीमाओं में ये बदलाव सरिस्का जैसे मानव-बहुल पर्यावास में एक ज़ाहिर सी बात है।

इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि, सभी बाघों की क्षेत्र सीमायें (Territories) अलग-अलग तो होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से यह वर्ष के किसी भी समय में बदल सकती हैं तथा पूर्णरूप से निर्धारित कुछ भी नहीं है। सरिस्का जैसे अभयारण्य में जहाँ मानवजनित दबाव बहुत है बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ सकते हैं और ऐसे में रेडियो-टेलीमेट्री (radio-telemetry) एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर भविष्य में होने वाले मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम किया जा सकता है तथा बहार निकले वाले बाघों को वापिस से संरक्षित क्षेत्र के अंदर स्थानान्तरण किया जा सकता है।

सन्दर्भ:

Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A., Gupta, R. & Reddy, G.V. (2021). The spacing pattern of reintroduced tigers in human-dominated Sariska Tiger Reserve, 5(1), 1-14

लेखक:

Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

Dr. Gobind Sagar Bhardwaj (R), IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.