राजस्थान में विंध्यन पर्वतमाला कि वन पट्टिका के अंतिम वन खंड के रूप में स्थित शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य ऐतिहासिक घटनाओं और प्राकृतिक सौन्दर्य को संजोये बारां जिले  का एक मात्र और राजस्थान का एक अनन्वेषित अभयारण्य है।

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य “वराह नगरी” अर्थात् बारां जिले की अटरू तहसील के शेरगढ़ क़स्बे कि परिधि पर स्थित 98.8 वर्ग किमी. का वन क्षेत्र है; जो राजस्थान की वन पट्टिका का अंतिम विशालतम वन खंड है तथा यह पारिस्थिकीय दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस वन भूमि की भौगोलिक स्थिति, सदावाही परवन नदी, बरसाती नाले और जैव विविधता अनायास ही आकर्षित करते है। इस क्षेत्र की जैव विविधता को देखते हुए 30 जुलाई 1983 को इसे अभयारण्य घोषित किया गया। इसी सन्दर्भ में 25 मई 1992 को राज्य सरकार द्वारा पुन: संशोधित अधिसूचना जारी की गयी जिसमें इसके वन क्षेत्र का विस्तार किया गया। शेरगढ़ गाँव के ऐतिहासिक महत्तव के मद्देनज़र अभयारण्य का नाम भी शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य रखा गया।

शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य विंध्यन पर्वतमाला और उसकी एक अद्भुत घाटी पर स्थित है जिसकी भौगोलिक संरचना घोड़े की नाल के समान दिखाई देती है। इसकी सीमा उत्तरी सिरे से प्रारंभ होकर अभयारण्य के मध्य भाग में समाप्त होती है; जबकि दक्षिण में परवन का ढाल दिखाई देता है। इस प्रकार बनी हुई घाटी के दो भाग है। प्रथम आधा भाग मिट्टी के बने अन्चोली बांध में डूबा हुआ है और दूसरे आधे भाग में सुरपा गाँव के लोगों के खेत है। खास बात है कि इस अभयारण्य की परिधि के अन्दर एक भी गाँव का निवास नहीं है। जिसके चलते जंगल में वन्य जीव बेखौफ होकर विचरण करते है।

अभयारण्य का मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

अभयारण्य का मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

शेरगढ़ किला

हाड़ौती प्रान्त में स्थित बारां जिला सुरमय पहाड़ियों और घाटियों की भूमि है जहाँ के पुराने खंडहर ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे हैं। बारां का इतिहास 14वीं शताब्दी के उस समय का बोध कराता है जब इस क्षेत्र पर सोलंकी राजपूतों का शासन था। 1949 में राजस्थान का पुनर्गठन होने पर बारां, कोटा का प्रमुख मंडल बन गया। और 1991 में राजस्थान राज्य का स्थापित जिला घोषित हुआ। यह जिला अपनी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों, राम-सीता मंदिरों, जीवंत आदिवासी मेलों, त्योहारों और शक्तिशाली किलों की प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है।

बारां से लगभग 65 किमी. दूर शेरगढ़ गाँव परवन नदी के किनारे स्थित है, जिसे शासकों के लिए रणनीति का महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय स्थान माना जाता था। वर्षों तक विभिन्न राजवंशों द्वारा शासित शेरगढ़ किले के एक बुर्ज के आलय की नई तिबारी में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में लिखे हुए एक शिलालेख द्वारा प्रमाणित होता है कि 790 ईस्वी में यहाँ सामंत देवदत्त का शासन रहा, जिन्होंने इस स्थान पर कई जैन व ब्राह्मण मंदिरों तथा बौद्ध मंदिर एवं मठ का निर्माण करवाया। 8वीं शताब्दी में यह स्थान कृषि, व्यापारिक, आर्थिकदृष्टि से संपन्न एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था अतःराजा कोषवर्धन ने इसका नाम “कोषवर्धनपुर” रखा, जिसका तात्पर्य है: “निरंतर धन में वृद्धि करने वाला”।

बाद में 15वीं शताब्दी में सूरी वंश के मुग़ल शासक शेरशाह ने आक्रमण कर दुर्ग पर आधिपत्य कर लिया तब से इसका नाम शेरगढ़ रखा गया। इतिहास में इसे शेरपुर एवं शेरकोट इत्यादि नाम से भी उच्चारित किया गया है। उसने यहाँ पूर्व-निर्मित मंदिरों, भवनों और इमारतों को ध्वस्त करके नए सिरे से निर्माण करवाया। यहाँ स्थित खंडहरों में आज भी बेगम व नवाब की मेहराबदार झरोखे युक्त हवेलियाँ है, जो मुस्लिम शैली की परिचायक है। शेरशाह ने पूर्व स्थापित गढ़ के बाहर एक ओर किले का निर्माण भी करवाया। वर्तमान में इस किले और आसपास के वन क्षेत्र में रख-रखाव कि कमी के कारण सत्यानाशी (lantana) का लंघन बढ़ता जा रहा है। किले के ऊपर से देखने पर दूर-दूर तक सत्यानाशी कि सदाबहार पुष्पजनक झाड़ियों का आक्रामक फैलाव अन्य वनस्पतियों को पनपने नहीं देता। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ पांच हज़ार पुराने प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है, जो मनुष्य के प्रारंभिक पाषाण युग के माने गए है। पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र में सिन्धु घाटी सभ्यता की उपस्थिति व्यक्त की गई है। (Source: Jain,K.C (1972). Ancient cities and Towns of Rajasthan: A study of Culture and Civilization. Motilal Banarsidass,Delhi)

परवन नदी से शेरगढ़ किले का दृश्य (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

अभयारण्य के अरण्य

प्रशासनिक रूप से यह अभयारण्य बारापाती ‘A’, छोटा डूंगर, बड़ा डूंगर, नहारिया और टीकली नामक वनों के 5 ब्लॉक्स में बंटा हुआ है। इस जंगल में खैर (Acacia catechu), धौंक (Anogeissus pendula), करौंदा (Carrisa congesta) एवं बांस (Dendrocalamus strictus) के घने वितानधारी वृक्ष है। शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट्स, टेरिडोफाइट्स और आवर्तबीजीय पादपों की विभिन्न प्रजातियाँ यहाँ की विविधता का आभास कराती है। यही नहीं यह अभयारण्य कंदील पौधों व लताओं का भंडार है। इस जंगल की सुरपा घाटी एवं आर्द्र नालों को औषधीय महत्व के पौधों का अजायबघर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

शेरगढ़ के जंगल उत्तरी ऊष्ण कटिबंधीय शुष्क मिश्रित पर्णपाती वनों की श्रेणी में आते है यहाँ की मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ खैर (Acacia catechu), महुआ (Madhuca indica), आंवला (Emblica officinalis), गुरजन (Lannea coromandelica), धावड़ा (Anogeissus latifolia), सालर (Boswellia serrata), खिरनी (Manilkara hexandra), करंज (Pongamia pinnata), बहेड़ा (Terminalia bellirica), अर्जुन (Terminalia arjuna), आम (Mangifera indica), बरगद (Ficus religiosa) व बांस(Dendrocalamus strictus) है। चिरौंजी (Buchanania lanzan) के दुर्लभ वृक्ष भी यहाँ पाए जाते है। पीले फूलों वाली पलाश की किस्म (Butea monosperma var. lutea), गम्हड़ (Gmelina arborea) और गधा पलाश (Erythrina suberosa) यहाँ के विशिष्ट आकर्षण है।

वन्यजीवों का जल श्रोत सूरपा माला (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

अभयारण्य के वन्यजीव

शेरगढ़ अभयारण्य हमेशा से अपने वन्यजीवों के लिए जाना जाता रहा है। तात्कालिक शेरगढ़, कोटा रियासत के महारावों द्वारा बाघों का शिकार करने के लिए पसंदीदा आखेट स्थल रहा, जिसके प्रमाण यहाँ स्थित शिकार माले है। 19 अप्रैल 1920 को महाराज गंगा सिंह द्वारा हस्तलिखित डायरी में शेरगढ़ के आस-पास के क्षेत्रों से 11 बाघों के शिकार से सम्बन्धित वृतांत का उल्लेख किया गया है जो संभवतः कोटा रियासत के किसी भी अन्य मेहमान की तुलना में सर्वाधिक है। 70 के दशक के अंत तक शेरगढ़में बाघ पाए जाते थे, किन्तु अवैध शिकार के चलते प्रारंभिक 80 के दशक में ये यहाँ से विलुप्त हो गए। इसके बाद पैंथर यहाँ की खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर रहे जो लगभग एक दशक पूर्व तक खासी तादाद में यहाँ पाए जाते थे, परन्तु किन्ही अज्ञात कारणों से विलुप्त हो गए। यह जंगल पैंथर के लिए एक मुफ़ीद प्राकृतवास है। अतः यह क्षेत्र पैंथर पुनर्वास के लिए पूर्णतः उपयुक्त है। हाल ही में इस क्षेत्र में भेड़िये की उपस्थिति दर्ज की गयी, जिसे भी यहाँ से विलुप्त मान लिया गया था।

आज यह विभिन्न वन्य प्राणियों की संरक्षण एवं आश्रय स्थली है। हायना, जैकाल, जंगली बिल्ली, स्माल इंडियन सीवेट, लोमड़ी, वाइल्ड बोर, चिंकारा और चीतल, नेवला, सेही व खरहा इत्यादि शेरगढ़ के मुख्य वनचर है।

अभयारण्य को दो असमान भागों में विभाजित करती परवन नदी की कन्दराएँ मगरमच्छों एवं अन्य जलीय जीवों के लिए आदर्श पर्यावास उपलब्ध करती कराती है जबकि नदी में मिलने वाले नालों के रेतीले किनारे इन मगरों के उत्तम प्रजनन स्थान है।

शेरगढ़ अभयारण्य में विचरण करता भेड़िया (फोटो: श्री बनवारी यदुवांशी)

शेरगढ़ अभयारण्य में पक्षियों की 200 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है। जिनमें से कुछ आइ.यू.सी.एन. की लाल आंकड़ों की किताब (Red data book) की विशिष्ट श्रेणियों में रखा गया है। जैसे- व्हाइट-बेलीड मिनिवेट, इंडियन ब्लैक आइबीस Near Threatened श्रेणी में; पेंटेड स्टोर्क, व्हाइट-विंगड ब्लेक टिट, एशियन ओपन-बिल्ड स्टोर्क, व्हाइट-वल्चर, किंग वल्चर, रेड-नेक्ड फाल्कन Vulnerable श्रेणी में; स्पूनबिल, ओस्प्रे, इंडियन पीफाउल Threatened श्रेणी में रखे गए है। साथ ही नदी की ओर अभिमुख शेरगढ़ दुर्ग की पहाड़ी की कराइयों में संकटग्रस्त लॉन्ग-बिल्ड वल्चर की कॉलोनी है। मानसून ऋतु में नवरंग पक्षी (Indian Pitta) एवं शाह बुलबुल (Paradise Flycatcher) को देखने के लिए शेरगढ़ संभवतः हाड़ौती का सबसे अच्छा स्थान है।

विभिन्न सरीसृप प्रजातियाँ शेरगढ़ की विशेषता मानी जाती है, जिनके रहते यहाँ स्नेक पार्क के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया है। विशाल अज़गर से लेकर अत्यंत विषैले कोबरा व करैत जैसे सांप यहाँ सरलता से देखे जा सकते है।

अभयारण्य के अन्य आकर्षण

परि-पर्यटन की दृष्टि से शेरगढ़ को हाड़ौती का सर्वोत्तम स्थान माना जा सकता है। राजस्थान में परि-पर्यटन (eco-tourism) के उत्थान के लिए सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। जिसमें शेरगढ़ किले का जीर्णोद्धार भी शामिल है। शेरगढ़ किले के साथ यहाँ स्थित पाड़ा खोह, पांच तलाई अन्चोली डैम, नहारिया, अमलावाड़ा, टीकली जैसे वाच टावर व व्यू पॉइंट दर्शनीय है। इको-ट्रेल्स जंगल का निकट व सहज अनुभव प्रदान करती है।

कुंडा खोह जल प्रपात (फोटो: डॉ कृष्णेंद्र सिंह नामा)

इनके साथ-2 तपस्वियों की बगिची,भंड-देवरा मंदिर, काकूनी मंदिर श्रृंखला, सूरज कुण्ड, सोरसन संरक्षित क्षेत्र, नाहरगढ़ किला, कन्या देह– बिलास गढ़, कपिल धारा व गूगोर का किला भी ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक धरोहरों के रूप में प्रमुख आकषर्ण के केंद्र है, जो शेरगढ़ की खूबसूरती में चार चाँद लगाते है।

Dr. Krishnendra Singh Nama, Associate Professor of Botany from Kota, is active in Plant Taxonomy, Wildlife Research, Nature Conservation and Forest Management with the forest department and various NGOs of Rajasthan and other states since 12 years. Dr. Nama has the credit of publishing more than 35 research papers in scientific journals, and 2 books on science and biodiversity and is continuously working to educate forest workers, sensitize students and the general public for wildlife protection through an organization, Society for Conservation of Historical and Ecological Resources.