सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में शामिल एक मकड़ी की बात

सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में शामिल एक मकड़ी की बात

पोर्टिया मकड़ियाँ एक छोटी जंपिंग स्पाइडर है। जो साल्टिसिडे परिवार से संबंधित हैं। ये मकड़ी सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक हैं। क्योंकि पोर्टिया मकड़ियाँ शिकारी का शिकारी करती हैं। वह तभी संभव है जब आप जटिल शिकार रणनीतियों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने माहिर हो।  कुछ मकड़ियां अपने रेशम का जाला बनाकर इंतज़ार करती है, परंतु यह पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं। देखा गया है की जब इस मकड़ी को एक जाला बनाने वाली मकड़ी मारनी होती है, तो वह उसे झांसा देकर अपने पास बुलाती है।  यह उसके जाले में अपनी पतली टांगों से एक कंपन पैदा करती है, यह जाले वाली मकड़ी को लगता है कोई कीट उसके जाले में फंसा है।जाले वाली मकड़ी छिपे स्थान से बाहर आती है और फिर यह उस पर हमला कर देती है। इसके अलावा पोर्टिया प्रजातियाँ सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए जानी जाती हैं जो आमतौर पर इन साल्टिसिडे मकड़ियों में नहीं देखी जाती हैं। यह मकड़ी मुझे सवाई माधोपुर (राजस्थान) में  देखने को मिली।

Portia

सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक मकड़ी (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

 

Portia Jumping Spider

पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं (फोटो: प्रवीण)

 

“सांभर झील की पारिस्थितिकी पर अवैध नमक व्यापार का खतरा”

“सांभर झील की पारिस्थितिकी पर अवैध नमक व्यापार का खतरा”

भारत के हर एक हिस्से से अंग्रेज अपना लाभ उठा रहे थे, कहीं से कॉफी, कहीं से चाय और कहीं से मसाले, राजस्थान से उन्हें आज्ञाकारी सैनिक और बुद्धिमान व्यापारी तो मिले ही साथ ही उन्हें मिला सांभर झील का नमक। नमक की एक चुटकी हम सब के लिए किसी जादू से कम नहीं है, खाने में इसके इधर उधर होने पर बेहतरीन से बेहतरीन ख़ानसामा की इज्जत दाव पर लग जाती है। परन्तु नमक मात्र स्वाद का मसला नहीं है, बल्कि नमक हमारे शरीर की एक महत्ती जरूरत है, शायद इसी कारण यह हमारे भोजन का एक अहम् हिस्सा भी बन गया है। नमक मानव शरीर की तंत्रिका आवेगों को संचालित करने, मांसपेशियों को अनुबंधित करने और शरीर में पानी एवं खनिजों के उचित संतुलन को बनाए रखने के लिए एक अत्यंत आवश्यक अवयव है।

सांभर झील का एक दृश्य

सांभर झील का एक दृश्य (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

नमक को शुरुआती खाद्य प्रसंस्करण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। यदि मछली को नमकीन बनाने की कला न होती, तो यूरोपीय लोगों ने अपनी मछली पकड़ने को यूरोप के तटों तक ही सीमित कर दिया होता और नई दुनिया की खोज में देरी की होती।

आज भी नमक का इतिहास हमारे दैनिक जीवन को छूता है। महीने के अंत में मिलने वाली सैलरी (वेतन) शब्द की उत्पत्ति साल्ट (नमक) शब्द से ही हुई है। प्रारंभिक रोमन सैनिकों को दिए जाने वाले विशेष नमक राशन को सलारियम अर्जेंटम के नाम से जाना जाता था, जो अंग्रेजी शब्द सैलरी का जनक है। इसी जरूरत को ध्यान में रख इस के उत्पादन स्थलों पर शासकों ने अधिकार बनाये रखा और लोगों की ज़िन्दगी को अपनी मुट्ठी में बंद रखा। जरुरत के हिसाब से उनके हलक से टैक्स निकालते रहे।

वर्तमान समय में भारत में तीन मुख्य नमक उत्पादक राज्य है – गुजरात, तमिलनाडु और राजस्थान। यह देश के उत्पादन का लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा उत्पादित करते हैं। कुल उत्पादन में गुजरात का योगदान 76.7 प्रतिशत है, इसके बाद तमिलनाडु (11.16%) और राजस्थान (9.86%) का स्थान है। शेष 2.28% उत्पादन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, दीव और दमन से आता है।

राजस्थान के थार रेगिस्तान में कई नमक की झीलें हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं – सांभर, कुचामन, डीडवाना आदि। सांभर झील असल में एक प्रसिद्ध वेटलैंड है जहाँ कई प्रकार के प्रवासी पक्षी आते है, यह झील किसी भी प्रकृतिवादी के लिए स्वर्ग के समान है। चारों ओर से अरावली से घिरी यह झील राजस्थान के नागौर, अजमेर और जयपुर जिलों में फैली हुई है। इसे मेंधा, रूपनगढ़, खंडेल और करियन नदियों से पानी मिलता है। झील की गहराई गर्मियों के दौरान 60 सेमी से लेकर मानसून के दौरान लगभग 3 मीटर तक होती है। जैसे शिकारी पक्षी पेरीग्रीन और लग्गर फाल्कन तो अक्सर यहाँ मिल ही जाते है, परन्तु कम नजर आने वाले शिकारी पक्षी जैसे मर्लिन और साकेर फाल्कन आदि भी सांभर झील में गाहे बगाहे नजर आ जाते है। यह अद्भुत लैंडस्केप पक्षी दर्शन के अलावा आजकल प्री-वेडिंग शूट का प्रमुख स्थल बन गया है। यहाँ हुए दो विवाह भी अत्यंत प्रचलित रहे है। महाभारत में सांभर झील का उल्लेख राक्षस राजा वृषपर्वा के राज्य के एक हिस्से के रूप में किया गया है। सांभर में उनके पुजारी शुक्राचार्य रहा करते थे, उनकी बेटी देवयानी और राजा ययाति के मध्य यहाँ विवाह हुआ था। आज भी झील के पास देवयानी का मंदिर है। हालांकि कालान्तर में भी सांभर झील मुगल बादशाह अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधाबाई के विवाह के लिए विख्यात हुआ था।

पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है

पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

1884 में, सांभर झील में उत्खनन कार्य किया गया और उस खुदाई के दौरान मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला कला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियां, पत्थर के बर्तन और सजाए गए डिस्क पाए गए। सांभर से प्राप्त कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।

कैसे बनी सांभर झील और कैसे बनता है नमक ? :

मिथकों के अनुसार जब एक राक्षस दुर्गामासुर ने धरती पर सूखा और अकाल फैला दिया, तो पृथ्वी पर रहने वालों को सो वर्षों तक इसकी पीड़ा सहनी पड़ी। तब ऋषियों ने देवी लक्ष्मी को याद किया, वह प्रसन्न होकर दुनिया में नीले रंग का रूप लिए अवतरित हुई। देवी ने भी धरती पर दुःख देख उन्होंने अपनी आंखों से लगातार आंसू बहाए और लोगों को पुनः जीवन योग्य सुविधा प्रदान की। परन्तु उसके आँखों के आंसुओं से बहने वाली धाराओं ने एक लवणीय झील का निर्माण किया।

नमक के ढेर और क्यारियां

नमक के ढेर और क्यारियां (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

इस देवी का नाम शाकम्भरी था जो शाक-सब्जी की देवी है। इस देवी का एक मंदिर सांभर झील में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। जो एक महान राजा पृथ्वीराज चौहान के समय बनाया गया था। एक अन्य दंतकथा के अनुसार मां शाकंभरी की कृपा से यहां चांदी की भूमि उत्पन्न हुई। चांदी को लेकर लोगों में झगड़े शुरू हो गए। इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए मां ने चांदी को नमक में बदल दिया। इस तरह से सांभर झील की उत्पत्ति हुई।

परन्तु अब तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार इस झील की उत्पत्ति के संबंध में कई परिकल्पना हैं। उनमें से एक यह है कि ये झीलें टेथिस सागर के अवशेष के रूप में विद्यमान हैं, जो लगभग 70 mya वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने से पहले इस क्षेत्र में मौजूद था। हालांकि हाल ही में हुए कई अध्ययनों के अनुसार इस झील की समुद्री द्वारा उत्पत्ति की उपरोक्त परिकल्पना के लिए कोई सबूत नहीं मिले हैं।

इसके विपरीत नए अध्ययन की परिकल्पना के अनुसार इस झील का पानी उल्कापिंड मूल का है और नमक स्थानीय रूप से इस क्षेत्र में चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होता है। ये झील टर्मिनल झील के रूप में व्यवहार करती हैं; यह मानसून के मौसम (जून-सितंबर) के दौरान पानी प्राप्त करते हैं और शेष वर्ष के दौरान वाष्पित हो जाते हैं (कोई बहिर्प्रवाह नहीं होता है और वाष्पीकरण प्रवाह के बराबर होता है)। यानी यह झील स्थानीय वर्षा द्वारा पोषित संचय और वाष्पीकरण चक्रों द्वारा बनाई गई हैं।यानी इसमें आने वाले नदी नाले यहीं पर समाप्त हो जाते है और आगे नहीं बहते है। वैसे राजस्थान में मुझे एक भी प्राकृतिक रूप से बनी मीठे पानी की झील नहीं मिली जितनी भी प्राकृतिक झीलें है वह खारे पानी की ही है।

सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है।

सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

नमक निर्माण और इस पर लगने वाले टैक्स का इतिहास :

नमक उत्पादन का सर्वप्रथम प्रमाण लगभग 6,000 ईसा पूर्व का है जो रोमानिया के पोयाना स्लैटिनी-लुनका में एक उत्खनन में मिला है। भारतीय उपमहाद्वीप में, नमक उत्पादन का प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व विकसित हुई थी। गुजरात में लोथल जैसे स्थलों की खुदाई में नमक के बर्तनों और नमक निकालने के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरणों की मौजूदगी का पता चला है, जो प्राचीन काल में भी नमक के महत्व को दर्शाता है। साथ ही भारत में नमक पर कराधान भी प्राचीन काल से होता आया है। सभी कालों में यह राजस्व एकत्रित करने का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम रहा है।

कहते है एक समय नमक टैक्स चीन के राजस्व के आधे से अधिक था और इसी धन से चीन की महान दीवार के निर्माण में योगदान दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भी नमक पर कर प्रचलित रहा है। अर्थशास्त्र, जो लोगों के विभिन्न कर्तव्यों का वर्णन करता है, कहता है कि नमक कर इकट्ठा करने के लिए लवणनाध्यक्ष नामक एक विशेष अधिकारी को नियुक्त किया गया था।बंगाल में, मुग़ल साम्राज्य के काल में नमक कर लागू था, जो हिंदुओं के लिए 5% और मुसलमानों के लिए 2.5% था।

हालाँकि, मुगल सम्राट अकबर (1542-16051) के शासनकाल तक झील के संचालन की एक व्यवस्थित प्रणाली शुरू नहीं की गई थी। उनके समय में झील से लगभग 250,000 रुपये प्रति वर्ष की आय होती थी। जब औरंगजेब गद्दी पर बैठा (16582) तो आय धीरे-धीरे बढ़कर 15 लाख रुपये हो गई।, मुगलों के पतन के साथ राजस्व में गिरावट आई और लगभग 1770 में, जयपुर और जोधपुर के लोगों ने बिना किसी संघर्ष के झील पर कब्ज़ा कर लिया। अगले युग के दौरान झील का प्रबंधन राजपूतों और मराठों के बीच आगे और पीछे चला गया। इतिहास इस बारे में मौन है कि उन दिनों (1770-1834) जब तक 1835 में अंग्रेजों ने झील पर कब्ज़ा नहीं कर लिया, तब तक कितना राजस्व प्राप्त हुआ था। जयपुर और जोधपुर की संयुक्त सरकार, शामलात ने 1844 से झील पर काम किया (गोपाल और शर्मा 1994)।

उस समय नावा और गुढ़ा नगण्य बस्तियाँ थीं, लेकिन धीरे-धीरे नमक बाजार के रूप में विकसित हो गईं। जब जोधपुर ने नावा और गुढ़ा में नमक का काम विकसित करना शुरू किया, तो जयपुर को ईर्ष्या होने लगी। इससे दोनों राज्यों के बीच निरंतर कलह बनी रही।

यह तब तक चलता रहा जब तक कि 1870 में नावा और गुढ़ा सहित झीलों पर अंग्रेजों ने कब्जा नहीं कर लिया – परन्तु अंग्रेजों ने इसे नमक उत्पादन के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित किया। वर्ष 1870 से 1873 के मध्य सांभर झील के नमक उत्पादन के प्रबंधक रहे सहायक साल्ट कमिश्नर आर एम एडम लिखते है की ” सांभर और नावा गुढ़ा झील से नमक का औसत उत्पादन लगभग 1,400,000 मन या 51,429 टन है। अकेले सांभर में पिछले 17 वर्षों का औसत उत्पादन 690,000 मन था। उपरोक्त अवधि के दौरान सबसे बड़ा उत्पादन, यानी 1,360,000 मन, 1869 में हुआ था, और 1868 की अल्प वर्षा और अकाल के कारण श्रमिकों की प्रचुर आपूर्ति के कारण यह हो पाया ; जबकि 1863 में सबसे कम उत्पादन, यानी 1,504 मन, पिछले वर्ष की अत्यधिक वर्षा के कारण हुआ था, जिसने झील को इतना ऊंचा उठा दिया था कि शहर के कुछ निचले हिस्सों में भी बाढ़ आ गई थी” परन्तु सबसे अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नमक ढुलाई को लेकर थे की – 150 वर्ष पूर्व नमक निर्यात के लिए आवश्यक गाड़ी में 300,000 बैल, 66,000 ऊंट, 18,000 गाड़ियां और 5,000 गधे थे। यदि आप उस दृश्य को एक बार अपने मन में जिवंत कर देखे तो विचार करे की सांभर का क्या माहौल रहा होगा, शायद कोई अंतहीन मेले जैसा माहौल होगा।

एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा

एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा (नक्शा सार्वजनिक डोमेन से)

Sambhar Map

सांभर झील के आस पास के क्षेत्र की वर्तमान स्तिथि (बिंग सॅटॅलाइट व्यू)

आधुनिक समय में, महात्मा गांधी ने भारत में स्वशासन के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने के साधन के रूप में ब्रिटिश नमक कानूनों की अवहेलना की। हालांकि, नमक कर लागू रहा और इसे तभी निरस्त किया गया जब जवाहरलाल नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों के एकीकरण पर 1950 में झील का स्वामित्व राजस्थान राज्य सरकार को दे दिया गया। आज इसकी भूमि का पट्टा राजस्थान सरकार के साथ हिंदुस्तान साल्ट्स के संयुक्त उद्यम सांभर साल्ट्स को दे दिया गया है।
स्वतंत्रता के बाद, नमक कर को बाद में नमक उपकर अधिनियम, 1953 के माध्यम से भारत में फिर से लागू किया गया। 2017 में वस्तु एवं सेवा कर को खत्म कर दिया गया और सफल बनाया गया, जिसमें नमक पर कर नहीं लगता है।

भारत में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई ग्रेट साल्ट हेज : 

भारत के नमक निर्माण करने वाले हिस्से को एक लम्बी बाड़ द्वारा अलग किया गया और नमक के व्यापार पर नियंत्रण किया गया। क्या कभी आपने सोचा है यह बाड़ से क्या मतलब है ? ग्रेट इंडियन सॉल्ट हेज असल में कांटो की एक घनी बाड़ थी जिसने भारत को दो भागो में बाँट दिया था i वैसे ही जैसे आप अपने खेत को दो भागों में विभाजित करते हो। इसमें मुख्य रूप से कांटेदार पेड़ों और झाड़ियों की एक विशाल क़तार थी, जो पत्थर की दीवार और खाइयों से पूरक थी, जिसके पार कोई भी इंसान या बोझ वाला जानवर या वाहन बिना गुजर नहीं सकता था, इसकी लम्बाई 3700 किलोमीटर थी। यानी यह एक तरह की इनलैंड कस्टम लाइन थी, जो भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा तटीय क्षेत्रों से नमक की तस्करी को रोकने के लिए बनायी गयी थी। यह ऐ ओ ह्यूम 1870 ने बनायीं थी। उन्होंने यह नमक की आवाजाही को नियंत्रित करने वाले सीमा शुल्क विभाग के खर्च को कम करने के लिए किया था। इसे ग्रेट हेज के नाम से जाना जाता है। इसके माध्यम से देश वासी लगभग दो महीने की आय के बराबर नमक कर देने के लिए मजबूर होते थे। इस बाड़ की सुरक्षा लगभग 12,000 पुरुषों और छोटे अधिकारियों द्वारा की जाती थी। इसी तरह पूरे इतिहास में, नमक सरकारी एकाधिकार और विशेष करों के अधीन रहा है।

1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग

1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग (सौ: विकिपिडिया)

नमक व्यापार की वर्तमान स्थिति और सांभर के बिगड़ते हालात:

कहते है सांभर के पानी में सोडियम क्लोराइड की उच्च मौजूदगी के कारण यहां के नमक की बहुत अधिक मांग है। झील के नमक उत्पादन का प्रबंधन सांभर साल्ट्स लिमिटेड (एसएसएल) द्वारा किया जाता है, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड और राजस्थान सरकार का संयुक्त उद्यम है। परन्तु एक अनुमान के अनुसार सांभर झील से हर साल 32 लाख टन स्वच्छ नमक का उत्पादन होता है, जिसमें से 30 लाख टन का उत्पादन अवैध रूप से होता है।

सांभर झील के उत्तरी और पश्चिमी तट विशेष रूप से अवैध नमक उत्पादन के लिए कुख्यात हैं। इस गतिविधि से क्षेत्र की पारिस्थितिकी बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले कुछ वर्षों में झील में सर्दियों में रहने वाले फ्लेमिंगो की संख्या में भारी गिरावट आई है। नावा में, निजी नमक उत्पादकों द्वारा बोरवेल खोदने, अवैध पंप द्वारा पानी निकालने और बिजली के केबल बिछाने के लिए कई अर्थमूविंग मशीनें, हेवी ड्यूटी कंप्रेसर और ड्रिल मशीनें देखी जा सकती हैं।

बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार

बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

अवैध भूजल निकासी के लिए बिजली चोरी से निपटने के लिए, सांभर साल्ट्स लिमिटेड द्वारा राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष राजस्थान राज्य बिजली वितरण कंपनी (डिस्कॉम) के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की गई थी। जनता के दबाव में राज्य सरकार को विनोद कपूर समिति का गठन करना पड़ा। अपनी 2010 की रिपोर्ट में, समिति ने “झील में नमकीन पानी निकालने के अवैध कारोबार” पर प्रकाश डाला। रिपोर्ट में कहा गया है कि वेटलैंड क्षेत्र में 13,000 से अधिक अवैध ट्यूबवेल हैं। अब हालात और भी बदतर हुए है। यह हजारों करोड़ रुपये का अवैध कारोबार है। इस रिपोर्ट में इसे रोकने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए परन्तु क्षेत्र में व्यापार और राजनीतिक हितों के बीच सांठगांठ इतनी अधिक है कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान को रोक पाना असंभव लगता है।

सांभर झील की इकोलॉजी :

भारत के थार रेगिस्तान में सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारी झीलों में से एक है, इसके जैविक महत्व के कारण 1990 में इसे रामसर साइट घोषित किया गया था। यह जयपुर, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। यह नमक की झील एक विशाल खारे आर्द्रभूमि का निर्माण करती है, जो कच्छ के रण के बाहर राजहंस (flamingo) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सांभर साल्ट झील एक शीतोष्ण अति लवणीय पारिस्थितिकी तंत्र है।

फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है।

फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

झील की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। वर्ष को अलग-अलग गर्मी, बारिश और सर्दी के मौसम के साथ चिह्नित किया जाता है। गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस (113 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुँच जाता है और सर्दियों में 5 डिग्री सेल्सियस (41 डिग्री फारेनहाइट) तक नीचे चला जाता है।

झील के आसपास 38 गांव हैं जिस कारण इस पर अत्यंत मानवीय दबाव है – प्रमुख बस्तियों में सांभर, गुढ़ा, जब्दीनगर, नवा, झाक, कोर्सिना, झापोक, कांसेडा, कुनी, त्योड़ा, गोविंदी, नंधा, सिनोदिया, अरविक की ढाणी, खानदजा, खाखड़की, केरवा की ढाणी, राजास, जालवाली की ढाणी आदि शामिल हैं।

यहाँ आर्द्रभूमि उत्तरी एशिया से प्रवास करने वाले हजारों पक्षियों के लिए एक प्रमुख शीतकालीन क्षेत्र है। झील में उगने वाले विशेष शैवाल और बैक्टीरिया आकर्षक जल रंग प्रदान करते हैं और यह झील की पारिस्थितिकी के मुख्य घटक है। इस झील के पानी में नमक (NaCl) की सांद्रता हर मौसम में अलग-अलग होती है। पैन (क्यार) में नमक की मात्रा अलग-अलग होती है और तदनुसार, haloalkaliphilic सूक्ष्मजीवों के कारण नमकीन पानी का रंग हरा, नारंगी, गुलाबी, बैंगनी, गुलाबी और लाल होता है। जो प्रवासी पक्षियों को भोजन देते है। आसपास के जंगलों में अन्य जंगली सूअर, नीलगाय और लोमड़ियों स्वतंत्र रूप से विचरण करती हैं।

ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर

ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांभर लेक में मछलीया नहीं मिलती परन्तु कई प्रकार के क्रस्टेसियन यहाँ मिलते है- यानी झींगा और क्रिल्ल समूह से सम्बन्ध रखने वाले जीव, जो कई प्राणियों का भोजन है। पक्षी विज्ञानी आर. एम. एडम, जो सांभर में सहायक आयुक्त थे, कुचामन और नवा सहित झील और इसके आसपास के क्षेत्रों के पक्षीविज्ञान संबंधी रिकॉर्ड प्रकाशित करने वाले पहले व्यक्ति थे (एडम 1873, 1874 ए-बी)। झील के पक्षी जीवन पर उनके विस्तृत नोट्स अभी भी जानकारी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत बने हुए हैं और इसे एक बेंचमार्क अध्ययन माना जाता है। एडम ने 244 पक्षी प्रजातियां दर्ज की थी। एडम के पेपर को वर्तमान संदर्भ में एक पक्षिविद श्री हरकीरत सांघा ने विश्लेषण किया है। सांघा के फ्लेमिंगो की दोनों प्रजातियों पर लिखे नोट्स का ज्यों का त्यों उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ – “ग्रेटर फ्लेमिंगो नियमित और आम शीतकालीन आगंतुक। वे आम तौर पर अगस्त के दूसरे सप्ताह तक पहुंचते हैं और झील पर उनका रहना काफी हद तक पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सामान्य वर्षा वाले वर्षों में वे फरवरी तक झील छोड़ देते हैं, जब उच्च स्तर के वाष्पीकरण और नमक उत्पादन के लिए पानी के उपयोग के कारण झील सूखने लगती है। हालाँकि, ‘बाढ़’ के वर्षों के दौरान (उदाहरण के लिए, जुलाई 1977-जून 1978), जब झील गर्मियों में भी गीली रहती है, ग्रेटर और लेसर फ्लेमिंगो दोनों को पूरे वर्ष में दर्ज किया गया था (सांघा 1998)। आगमन और प्रस्थान की अंतिम तिथियां क्रमशः 10 अगस्त 1996 और 6 अप्रैल 1996 हैं। 1991 और 2009 के बीच आर्द्रभूमि की कई यात्राओं के दौरान राजहंस की पूरी गणना की गई और दो प्रजातियों के वितरण की योजना बनाई गई। हाल ही में प्रकाशित साहित्य (गोपाल और शर्मा 1994) के विपरीत, ग्रेटर फ्लेमिंगो हमेशा लेसर फ्लेमिंगो की तुलना में कम संख्या में थे। 25 जनवरी 1998 को 10,000 से अधिक की गिनती की गई। हालांकि 2 नवंबर 2001 को झील के किनारे तटबंध के पास एक अंडा पाया गया था, लेकिन इस प्रजाति ने सांभर में कभी भी सफलतापूर्वक प्रजनन नहीं किया, क्योंकि आदर्श जल परिस्थितियाँ उनके लिए उपलब्ध नहीं हैं।

सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है।

सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांघा लिखते है की लेसर फ्लेमिंगो बहुत आम है और झील पर सबसे प्रचुर प्रजाति है। परन्तु वे आगे लिखते है की अजीब बात है, एडम ने सांभर में अपने निवास के “पहले दो वर्षों के दौरान” इसका अवलोकन नहीं किया। वह कहते हैं कि “एक स्थानीय निवासी ने उन्हें बताया कि उन्होंने कमोबेश छोटे राजहंस देखे हैं, जिनके बारे में उनका कहना है कि वे छह या सात साल बाद झील पर आते हैं।” सांघा लिखते है की 1990 से मैं नियमित रूप से लेसर फ्लेमिंगो को देखता रहा हूं। झुंड बारिश की पहली भारी बारिश के बाद दिखाई देते हैं और उनके रहने की अवधि झील में पानी की मात्रा पर निर्भर करती है। सबसे प्रारंभिक आगमन तिथि 7 अगस्त 1998 दर्ज की गई थी जब 7,000 से अधिक देखे गए थे। वे आमतौर पर मार्च के अंत तक चले जाते हैं, लेकिन अंतिम तिथि 6 अप्रैल 1996 दर्ज की गई है। रिकॉर्ड संख्या 23 सितंबर 1995 को देखी गई थी जब 20,000 से अधिक का अनुमान लगाया गया था। जनवरी की शुरुआत से मार्च 1996 के अंत तक लगभग 18,000 फ्लेमिंगो देखे गए। 4 जनवरी 2009 को सी. 15,000 थे।

इस तरह यह लवणीय झील कई प्रकार के जीवों का अनोखा पर्यावास है।

सांभर झील की इकोलॉजी में बदलाव :

अब फिजा बदल रही है ।इस झील के बारे में एडम ने कभी लिखा था की – “बारिश में अत्यंत वीरान झील एक अत्यंत सुंदर दृश्य में बदल जाता है। साफ वातावरण जगमगा उठता है और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों की निचली श्रृंखला बैंगनी रंग में रंग जाती है, रेतीले टीले हरे रंग से ढक जाते हैं, और झील का तल 20 मील लंबाई और लगभग 5 इंच चौड़ाई में पानी के विस्तृत विस्तार में परिवर्तित हो जाता है। इस सब को बढ़ाने के लिए, छोटी-छोटी कलगीदार लहरें लहरा रही हैं, और पूरी सतह पक्षी-जीवन से भरी हुई है। राजहंसों के घने समूह को हर जगह तैरते या झील के तल में बहते, ऊपर की ओर उड़ते हुए, “सभी शानदार चीजों की समृद्ध छटा” के साथ, या भोजन की तलाश में किनारे पर चुपचाप घूमते हुए देखा जा सकता है। बड़े और छोटे पक्षियों की लंबी कतारें, सभी प्रकार के पंखों के, भव्य गुलाबी रंग के वयस्क फ्लेमिंगो से लेकर मटमैले भूरे और सफेद युवा फ्लेमिंगो तक, पश्चिम से पूर्व तक यहां मार्च करते हैं, और सभी अपने सिर नीचे झुकाते खाना खोजते हुए”

साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है।

साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

वे आगे लिखते है की सिंचाई के लिए सांभर के आसपास उपयोग में आने वाले खुले कुएं लगभग 30 या 40 फीट व्यास और 20 फीट गहरे खेतों में खोदे गए हैं। इनके किनारे विलो, बाघ और सरपत घास (प्रजातियों का वर्णन स्पष्ट नहीं है ) आदि की प्रजातियों से घने रूप से ढके हुए हैं, और कई पक्षियों का पसंदीदा निवास स्थान हैं। वर्तमान में पानी का लेवल लगभग 100 फ़ीट से भी गहरा चला गया है।

वर्तमान में यहाँ वर्षा के आंकड़े पैटर्न में किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं देते हैं, लेकिन झील में जल की आवक में भारी कमी आई है दूसरी और शैवाल में उल्लेखनीय वृद्धि झील के अस्तित्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह आसपास की मानवजनित गतिविधियों और झील के जलग्रहण क्षेत्र में चेक बांधों और एनीकटों के निर्माण के कारण हो सकता है जो झील में अपवाह को रोकते हैं और शैवाल की अनुकूल वृद्धि प्रदान करते हैं। सांभर झील को पानी लाने वाली अधिकांश नदियाँ रेत से भर गई हैं। जिस कारण ताजे पानी का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। दूसरी और आस पास अनियमित वर्षा और अत्यधिक दोहन के कारण सरकार ने खेती को बचाने के लिए इधर उधर चेक्ड बाँध एवं एनीकट बनाकर जल प्रवाह को रोकने अथवा जल संचय हेतु जल स्तर में सुधार करने की नीति बनाई। इसके कारण स्थिति और भी विकट हो गयी है, जलग्रहण क्षेत्र से झील में पानी का प्रवाह बंद होता जा रहा है।

कम ताज़ा पानी के कारण उपमृदा पानी और अधिक लवणीय हो गया है और एक अध्ययन के अनुसार इसकी सांद्रता 18 to 24°Be तक पहुंच गई है। वर्तमान स्थिति को पुनर्जीवित करने के लिए, वर्षा जल जलग्रहण क्षेत्र से झील तक पहुंचना चाहिए।नहीं तो बढ़ते सूखे दिनों के कारण हवा -आँधी और तूफ़ान के माध्यम से नमक पास के क्षेत्र में ले जाएँगी और वह क्षेत्र भी खारा होता जाएगा।

एक अध्ययन के अनुसार सांभर झील की फाइटोप्लांकटन प्रजातियों की संरचना पहले बताई गई 20 जेनेरा से घटकर केवल 11 (नोस्टॉक, माइक्रोसिस्टिस, स्पिरुलिना, अपानोकैप्सा, ऑसिलेटोरिया, मेरिस्मोपेडिया, नित्ज़स्चिया, नेविकुला, सिनेड्रा, कोस्मेरियम और क्लॉस्टेरियम) रह गई है। (Jakher, Bhargava & Sinha,1990)

नवंबर 2019 में, झील क्षेत्र में लगभग 20,000 प्रवासी पक्षी रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए थे। बोटुलिस्म को इसका कारण माना गया और अनेक लोग इस से सहमत नहीं लगते है। परन्तु अभी तक बोटुलिस्म ही प्रामाणिक कारण माना जाता है। झील के उत्तरी किनारे बिजली की तारों से पटा हुआ है। लोगों ने झील के पेट में हजारों की संख्या में बोरवेल खुदा दिए है ताकि १-२-३ किलोमीटर दूर तक अपने खेत में खारा पानी लेजा कर नमक बनाया जा सके। तीन और के किनारे नमक की क्यारियों से अटे पड़े है, झील के माता मंदिर वाले किनारे में भी मानवीय गतिविधियां जोरो पर है।

2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ

2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था।

2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांभर झील संरक्षण के प्रयास :

अनेक लोग आज कल झील की चिंता करने लगे है। परन्तु PIL और मुखर मीडिया रिपोर्ट्स के बाद भी नतीजा सिफर रहा है। मात्र वर्ष 2014 में, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड सहित छह सार्वजनिक उपक्रमों ने कंपनी के तहत भूमि पर दुनिया की सबसे बड़ी 4,000 मेगावाट की अल्ट्रा-मेगा सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन राज्य में एक अत्यंत बुद्धिमान वन अधिकारी की चौकस निगाहों के कारण इस परियोजना को रोक दिया गया और गुजरात में स्थानांतरित कर दिया गया, नहीं तो यह झील पूरी तरह बरबाद हो जाती। इस अधिकारी का नाम उजागर करना ठीक नहीं है। वरना इसके पैरोकार कम और गाली देने वाले ज्यादा लोग मिल जायेंगे।

यह झील धीरे धीरे अपने गुणों के कारण मारी जा रही है। इसे बचाना अब असंभव लगता है।

 

References

  1. Adam, R. M. 1873. Notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 1 (5): 361–404.
  2. Adam, R. M. 1874a. Additional notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 2 (4&5): 337–341.
  3. Adam, R. M. 1874b. Letters to the Editor. [“Since writing my additional note I find that the under mentioned bird has been shot at Sambhar:- …”]. Stray Feathers 2 (4&5): 465–466.
  4. Jakher G. R., S. C. Bhargava & R. K. Sinha, (1990), Comparative limnology of Sambhar and Didwana lakes (Rajasthan, NW India) Hydrobiologia
राजस्थान में मिलने वाली चमगादड़ प्रजातियां

राजस्थान में मिलने वाली चमगादड़ प्रजातियां

राजस्थान में पाए जाने वाले चमगादड़ों की विविधता को संकलित करता आलेख

चमगादड़ स्तनधारी प्राणियों का एक ऐसा समूह जिसे लोग सदैव हेय दृष्टि से ही देखते आये हैं।  इन्होंने भी अपने आप को हमसे दूर रखने में कोई कमी नहीं रखी, एक तो उड़ने वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए और दूसरे यह मात्र रात के समय सक्रिय रहते हैं। चमगादड़ एकांत प्रेमी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थान पर रहते हैं। इन सभी वजहों के कारण हम इनके बारे में कम ही जानते हैं। वहीं इनके जीवन जीने की सैली भी थोड़ी विचित्र है, यह प्राणी अपना मूत्र और विष्ठा का उत्सर्जन वहीं करते है जहाँ यह रहते हैं, जिसकी गंध अक्सर अन्य प्राणी पसंद नहीं करते और  इस तरह चमगादड़ अपने आप को अन्य प्राणियों से बचाते हैं और वहीं इंसान भी इन्हें दूर रखने का प्रयास करते हैं।

चमगादड़ को भोजन के आधार पर दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है – फल खाने वाले विशाल फल भक्षी मेगाबैट्स और दूसरे किट खाने वाले छोटे कीटभक्षी माइक्रो-बैट्स। राजस्थान में ३ चमगादड़ फ्रूट बैट प्रजाति की है और बाकि लगभग 18 कीटभक्षी प्रजाति की है। हालांकि कुछ और भी चमगादड़  प्रजातियां राजस्थान में हो सकती है और जंतु वैज्ञानिकों में कई प्रजातियों के राजस्थान में मिलने नहीं मिलने को लेकर कई तरह की बहस भी चल रही है।
राजस्थान में निम्न चमगादड़ प्रजातियां आसानी से मिल जाती है।

मेगाबैट्स:

यह बैट इकोलोकेशन का इस्तेमाल नहीं करते है और फलों को खाकर अपना पेट भरते है।  तीन प्रजातियों की फ्रूट बैट हमारे यहाँ मिलती है।

1. इंडियन फ्लाइइंग फॉक्स (Pteropus medius)

अधिकांशतया बरगद के विशाल वृक्षों पर कॉलोनी बनाकर रहते है। यह एक विशाल चमगादड़ है जिनके हाथों के साथ पंखों का फैलाव 890mm तक हो सकता है। यह अक्सर विशाल बरगद के वृक्षों पर मिलते है।  बरगद, गूलर आदि फलों को खाने वाले यह चमगादड़ अपनी विष्ठा से बीजों को फैलाने में एक महत्ती भूमिका निभाते हैं।

2. ग्रेटर शॉर्ट-नॉज्ड फ्रूट बैट (Cynopterus sphinx)

यह चमगादड़ इंडियन फ्लाइंग फॉक्स की तुलना में आधे आकार की फ्रूट बैट है। जिनके पंखों का फैलाव 480 mm तक होता है।  दिन के समय यह केले, घने पत्ते वाले पेड़ों में छिप कर रहती है। राजस्थान में इसका प्रसार व्यापक है परन्तु राज्य में इसे 1980 में पहली बार देखा गया।

 

3. लेसचेनॉल्ट का रुसेट (Rousettus leschenaultii)

इस फ्रूट बैट का आकर 560 mm तक होता है। अक्सर यह चमगादड़ गुफाओं अथवा इमारतों में मिलती है। झालावाड़ के गागरोन के किले और जालोर के स्वर्णगिरि के किले पर इसके बड़े समूह देखे जा सकते है।

माइक्रोबैट्स:

राजस्थान में अनेक कीटभक्षी चमगादड़ मिलती है।

A. राइनोपोमा (माउस-टेल्ड बैट)

राजस्थान में अनेक स्थानों पर राइनोपोमा चमगादड़ मिल जाती है। यह एक चूहे के समान दिखने वाली चमगादड़ है जिसके एक लम्बी पूंछ होती है। राजस्थान में इनकी दो प्रजातियां पाई जाती है

4. लेसर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma hardwickii)


5. ग्रेटर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma microphyllum)

R. hardwikii की पूंछ इनके फोरआर्म से लम्बी होती है। इनके नाक के पास दोनों और फुले हुए नथुने होते है इन भिन्नताओं के अलावा इसमे और R. microphyllum में कोई अंतर नहीं है।

B. टैफोज़स (टॉम्ब बैट)

इस वंश की 4 प्रजातियां राजस्थान में मानी जाती है। इस जीनस की चमगादड़ को टॉम्ब बैट कहा जाता है, अक्सर पुरानी इमारतों में रहती है अथवा गुफाओं के खुले हिस्से को पसंद करती है। यानी अधिक गहरी और अधिक अँधेरी जगह में कम रहती है।

6. नेकेडरम्प्ड टॉम्ब बैट (Taphozous nudiventris)

7. लॉंग-आर्मड टॉम्ब बैट (Taphozous longimanus)

8. ब्लैक बेयरडेड टॉम्ब बैट (Taphozous melanopogon)

9. ईजिप्शियन टॉम्ब बैट (Taphozous perforatus)

इन में से नुडीवेन्ट्रिस बैट के शरीर पर अत्यंत छोटे और पतले बाल होते है एवं इसके ऊपरी भाग पर एक तिहाई हिस्से पर बाल नहीं होते है यानि इसका रम्प वाला हिस्सा नग्न होता है। यह सूर्यास्त से आधे घंटे पहले सक्रिय हो जाती है, तेजी से उड़ती है और उड़ते हुए कीड़ों को शिकारी पक्षी की भांति पकड़ती है। वहीं लोन्गिमैनस की आगे की आर्म अधिक लम्बी होती है और मुँह के नीचे बाल रहित गले के पास एक अर्ध गोलाकार गूलर सैक होता है। मेलनोपोगों के नर में गले पर काली दाढ़ी होती है।

C. हिप्पोसिडरोस (राउन्डलीफ बैट)

10. फुलवस लीफ-नोज़ड़ बैट (Hipposideros fulvus)


11. इंडियन राउन्डलीफ बैट (Hipposideros lankadiva)

इनके नाक पर मिलने वाले विभिन्न आकारों के कारण इन्हे सामूहिक रूप से राउंड लीफ चमगादड़ कहा जाता है। इसमें अभी तक दो प्रजातियों के चमगादड़ राज्य में मिले हैं। फुलवस प्रजाति आकर में छोटी और लंकादिवा आकर में बड़ी होती है। लंकादिवा अक्सर नम क्षेत्र में मिलती है और राज्य में मात्र करौली जिले में ही देखी गयी है, जो इस आलेख के लेखक ने ही पहली बार रिकॉर्ड की है। फुलवस राज्य में जैसलमेर से लेकर धौलपुर तक सभी हिस्सों में मिल जाती है।  यद्यपि यह भी कुछ नमी वाले स्थानों को पसंद करती है और राइनोपोमा चमगादड़ के साथ भी रह लेती है।

D. स्कोटोफिलुस (येल्लो बैट)

12. लेसर एशियाटिक येल्लो बैट (Scotophilus kuhlii)


13. ग्रेटर एशियाटिक येल्लो बैट (Scotophilus heathii)

एक वेस्पर्टिलिओनिडे परिवार की बैट है, वेस्पर का अर्थ है ‘शाम’; उन्हें “शाम के चमगादड़” कहा जाता है।  इसमें २ प्रजाति राजस्थान में मिलती है। हीथी सबसे अधिक मिलने वाली बैट है जो अकसर भवनों की सीधी दीवारों पर चिपकी रहती है। इन की मादा चमगादड़ में शुक्राणु संग्रहित करने की क्षमता होती है जो ओव्यूलेशन के समय इस्तेमाल होते है। कुहली आकर में छोटी होती है और ब्रीडिंग के समय इनके अंदरूनी हिस्से का रंग और अधिक पीला हो जाता है।

E. टैडारिडा (फ्री-टेल्ड बैट)

इस जीनस में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ों की 2 प्रजातियों राजस्थान में मिलती हैं।

14. ईजिप्शियन फ्री-टेल्ड बैट (Tadarida aegyptiaca)

15. रिंकल-लिप्ड फ्री-टेल्ड बैट (Tadarida plicata)

यह सबसे तेजी से उड़ने वाले बैट है जो १५० कम प्रतिघंटा की स्पीड से उड़ सकती है।  इसको तेजी से उडने में इसकी पूंछ और उस से लगी झिल्ली काम आती है।  इनकी पूँछ आमतौर पर आराम करते समय ही दिखाई देती है। इनकी उपास्थि (cartilage) का एक विशेष छल्ला पूंछ कशेरुकाओं को ऊपर या नीचे स्लाइड करती है साथ ही पूंछ के पास की झिल्ली भी मांसपेशियों द्वारा आगे पीछे खींचने के काम आती है। aegyptiaca प्रजाति अधिकांश राजस्थान में सामान्य तौर पर मिल जाती है परन्तु plicata  मात्र माउंट आबू से 1980 में श्री सिन्हा द्वारा रिपोर्टेड है। यह तेजी से आवाज करने में भी माहिर है।

F. राइनोलोफस (हॉर्सशू बैट) 

16. ब्लीदस हॉर्सशू बैट (Rhinolophus lepidus)

राइनोलोफस जीनस में हॉर्सशू बैट की कई प्रजातियों आती है। असल में इन चमगादड़ों की नाक के चारों ओर त्वचा का एक गोलाकार आवरण होता है जो घोड़े की नाल की तरह होता है।अधिकांश कीटभक्षी चमगादड़ों की तरह, उनकी आंखें छोटी होती हैं और उनकी दृष्टि का क्षेत्र अक्सर उनकी नाक की पत्ती तक सीमित होता है।  राजस्थान में एडवर्ड ब्लाइथ द्वारा खोजी गयी एक बैट मिलती है।  यह नाम गुफा में मिलने वाली छोटी बैट है।

G. लयरोडेर्मा (फ़ाल्स वैम्पायर बैट)

17. ग्रेटर फ़ाल्स वैम्पायर बैट (Lyroderma lyra)

यह अपेक्षाकृत बड़े चमगादड़ हैं, जिनके बड़ी आंखें  और बहुत बड़े कान और एक उभरी हुई नाक पर एक पत्ती समान संरचना होती है। उनके पिछले पैरों या यूरोपेटागियम के बीच एक चौड़ी झिल्ली होती है, लेकिन कोई पूंछ नहीं होती। इनका पुराना नाम मेगाडरमा था। इन्हें फाल्स वैम्पायर बैट कहते है।  यह वैम्पायर जैसे लगते है परन्तु असल में यह अन्य प्राणियों का रक्त नहीं पीते है। राजस्थान में इसकी एक ही lyra नामक प्रजाति मिलती है।

H. पिपिस्टरेलस

18. केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus)


19. लीस्ट पिपिस्ट्रेल  (Pipistrellus tenuis)

जीनस का नाम इतालवी शब्द पिपिस्ट्रेलो से लिया गया है, जिसका अर्थ है “चमगादड़”।  यह अत्यंत छोटे चमगादड़ है।  जिनमें २ चमगादड़ राजस्थान से शामिल किये गए है। यह वजन में मात्र ३-८ ग्राम तक के है। इनकी पहचान बाह्य आकर से कम ही हो सकती है परंतु वैज्ञानिक इनकी आवाज , डीएनए, एवं स्कल की बनावट से इनका पता लग सकते है।  केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus) को अब तक मात्र माउंट आबू, सिरोही से रिकॉर्ड किया गया है। लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis)  को गुढ़ा, लिहोरा, नावा, नागौर, (बिस्वास और घोस 1968) जोधपुर, नागौर, जयपुर, टोंक, पाली, सिरोही (सिन्हा 1980) आदि से रिकॉर्ड किया है। यद्यपि यह राजस्थान में विस्तृत रूप से मिलती है।

I. स्कोटोजोस

20. डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (Scotozous dormeri)

 

इस जीनस में मात्र एकमात्र प्रजाति है, यह है -डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (स्कॉटोज़स डॉर्मरी) प्रजाति। वितरण: जोधपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भरतपुर (सिन्हा, 1980)

J. असेलिआ

21. ट्राइडेंट लीफ़-नोज़्ड बैट (Asellia tridens)

यह चमगादड़ गर्म क्षेत्रों में मिलती है। इसकी महत्वपूर्ण खोज राजस्थान से मात्र १० वर्ष पूर्व में की गयी है और साथ में पहली बार यह चमगादड़ भारत की सूची में भी शामिल हुई है। राजस्थान के दो जंतु वैज्ञानिक डॉ के आर सेनेचा एवं डॉ सुमित डूकिया ने मिलकर इसकी खोज जैसलमेर से 2013 में की है। इस खोज के बाद शायद इसे पुनः कभी नहीं देखा गया है। इसके नाक की पत्ती नुमा संरचना त्रिशूल के आकर की होती है यानी इसके तीन भाग होते हैं; बाहरी दो हिस्से कुंद हैं, जबकि केंद्रीय हिस्सा नुकीला होता है।

संकलित चमगादड़ों की सूची के अलावा भी कई और चमगादड़ों का राजस्थान के वैज्ञानिक साहित्य में वर्णन है परन्तु उनके रिकॉर्ड त्रुटि पूर्ण लगते है। अतः इन २१ चमगादड़ों को ही राजस्थान का माना जाना चाहिए, यह मेरा मत है।

राजस्थान के एक खूबसूरत ऑर्किड का एक पेचीदा परागण

राजस्थान के एक खूबसूरत ऑर्किड का एक पेचीदा परागण

राजस्थान एक सूखा क्षेत्र है परन्तु कुछ सुंदर दिखने वाले नम क्षेत्रों के अनोखे पौधे भी यदा कदा इधर उधर मिल जाते है। इसी तरह का एक खूबसूरत ऑर्किड – ईस्टर्न मार्श हेलेबोरिन (एपिपैक्टिस वेराट्रिफ़ोलिया- Epipactis veratrifolia) राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में मिलता है। इस के अलावा राजस्थान में यह कहीं और से अभी तक देखा नहीं गया है।  इस तरह के पौधे कैसे अपने लायक उपयुक्त स्थान तलाश लेते है एक शोध का विषय है । यद्यपि यह पूरे भारत में कई  अन्य स्थानों पर पाया जाता है। यह एक स्थलीय आर्किड है।

एपिपैक्टिस वेराट्रिफ़ोलिया, Epipactis veratrifolia

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में पाए जाने वाला ईस्टर्न मार्श हेलेबोरिन (Epipactis veratrifolia)

परन्तु इस ऑर्किड के परागण की प्रक्रिया अत्यंत रोचक है – यह होवरफ्लाइज़ नामक कीट को धोखा देकर परागण प्रक्रिया को संपादित करता है।
होवरफ्लाइज़ एक छोटी मक्खी नुमा कीट है जो फूलों के आस पास मंडराते है।  यह आर्किड इसके लिए एक रणनीति का उपयोग करते है जो अत्यंत जटिल है, यह एक अन्य कीट एफिड के अलार्म फेरोमोन की नकल करते हुए गंध को छोड़ते  है। यानी ऐसी गंध जो एफिड खतरे के समय छोड़ता है।

होवरफ्लाइज़, अपने लार्वा के लिए एफिड्स को भोजन के रूप में पसंद करते है। चूँकि यह ऑर्किड भी एफिड द्वारा छोड़ी गई अलार्म गंध के समान ही गंध छोड़ता है, तो मादा होवरफ्लाइज़ को आभास होता है की, कोई एफिड समूह ऑर्किड के फूल के पास है, और यह होवरफ्लाईस उस ओर आकर्षित होती हैं।

Hoverflies होवरफ्लाइज़

होवरफ्लाइज़ अनजाने में अपने अंडे इस ओर्किड के फूल को एफिड समझ कर फूल पर ही जमा कर देते हैं

ये होवरफ्लाइज़ अनजाने में अपने अंडे एफिड समझ कर इस आर्किड के फूल पर ही जमा कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अंडे से निकले उनके लार्वा का भूख से दुखद अंत होता है। हालांकि यह विश्वासघात न केवल होवरफ्लाइज़ के लिए जोखिम पैदा करता है बल्कि आर्किड के पौधे को भी खतरे में डालता है यदि वे अपने स्वयं के परागणकर्ताओं को ही मार देते हैं।

फिर ऐसा क्यों होता है ?

दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने देखा है कि यह पौधा एफिड्स से मुक्त रहता है। नतीजतन, वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि ऑर्किड एक ऐसी गंध का उत्सर्जन करता है जो एफिड्स को उनसे दूर रखता है, अनजाने में स्वयं होवरफ्लाइज़ को धोखा देता है। अतः इसका पहला उद्देश्य है एफिड को दूर रखना और दूसरा स्वार्थ परागण करवाना अपने आप सिद्ध हो जाता है।

शायद आपने इतने कलिष्ट परागण प्रक्रिया को कभी नहीं सुना हो।

वन दुर्ग

वन दुर्ग

दुर्ग :-1

सुनहरी रोशनी से दमकते जालोर के एक पहाड़ का नाम है स्वर्णगिरि जिस पर बना है एक विशाल किला – जालोर फोर्टउतना ही पुराना जितना शायद रणथम्भोर (१ हजार साल)। आज कल किले मुझे अच्छे लगते है, क्योंकि इनमें रहती है कहानियां और चमगादड़ें। कहानियां सभी को अच्छी लगती है और चमगादड़ें शायद सबसे कम पसंद किये जाने वाला प्राणी है। खैर अपनी अपनी पसंद है, मुझे वहां मिले Leschenault’s rousette (Rousettus leschenaultii) का एक बड़ा समूह- लगभग 250, वह भी एक ही कमरे में। पता नहीं जालोर के आस पास कोनसा फल होता है जिसके कारण वो वहां है? आस पास जानकारी के नाम पर ASI का जाना पहचाना नीला बोर्ड लगा था, जिस पर शायद यही लिखा होगा “यह बड़ा सुरक्षित स्मारक है औकात में रहना वर्ना घर आकर मारेंगे”। कहानी मुझे नहीं मिली सो आप इस बेतरतीब बात से काम चलाए।

दुर्ग :- 2

खीदरपुर डाँगरी- गंगापुर कस्बे का एक छोटी चौकी नुमा किला है, बिना प्लास्टर के करीने से रखे पत्थरों से बना यह छोटा फोर्ट जिस प्रकार के एक पहाड़ के खुले मैदानी हिस्से में है, उसे स्थानीय लोग डांग कहते है, खुला स्थान विशाल नहीं है, अतः उसे डांगरी कर दिया गया होगा। रणथम्भौर से भटका एक बाघ पूरी मानसून सत्र इसके आस पास आनंद से रह कर जाने कहाँ कहाँ होते हुए मुरैना (मध्य प्रदेश) चला गया। आज कल यह कभी मध्यप्रदेश के मुरैना और कभी राजस्थान के धौलपुर में घूमता है -शायद इन दिनों का सबसे शानदार यायावर है। चीता वाले भी इसी बाघ से चिंतित थे कि कहीं कुनो नहीं आ जाए, बघेरे पहले ही उन्हें परेशान कर रहे है। बकरी चराने वाले युवक ने आस पास पहाड़ के कोने में कुछ रॉक पेंटिंग भी दिखा दी तो लगा कभी कोई और भी घुमक्कड़ लोग इस जगह से अपना नाता रखते होंगे। मेरे लिए एक दोपहर बाघ के चले जाने के बाद, चुपचाप इस स्थान को देखना अत्यंत आनंद दायक था। यहाँ बाघ की कहानी अभी भी सबके जुबान पर थी, पर इस बार चमगादड़ नहीं थी।

 

दुर्ग :- 3
उटगिर का किला (करौली)- यह किला कुछ वर्षों पहले तक था डकैतों का घर (कभी कभार आज भी) और शिकारियों की छुपने की जगह (कभी कभार आज भी) हुआ करता था। चारों तरफ जंगल, चम्बल नदी से मात्र 3 किलोमीटर दूर, एकल पहाड़ी पर बना यह किला, एक अत्यंत रहस्यमय स्थान पर है। किले तक जाने के लिए जिस तरह के रास्ते का इस्तेमाल करना पड़ता है, वह है चम्बल के बीहड़ और दर्रे।
किले के अंदर जाते ही आपको अहसास होगा की किला आपको देख कर चौंक जाता है, और कह उठता हो, अरे आप कैसे आये?
साँस की गति में नियंत्रण के बाद नजर आता है विशाल जंगल का खूबसूरत फैलाव और चांदी सी चमकती सर्पीली बलखाती चम्बल नदी का अद्भुत दृश्य। भालू, बघेरे और सेही के निशानों से भरे इस किले में बाघ भी कभी कभी आ जाता है। कुछ अबाबील पक्षी अपनी हलकी फुलकी आवाजों से यहाँ की चुप्पी भगाते रहते है।
इस किले को देख कर लगता है की काश वन विभाग (या कोई और विभाग) इतना सक्षम होता की जंगल के साथ साथ इतिहास के इन खास पन्नों को भी बचा पाता। राजस्थान के वनों में सैकड़ों की संख्या में किले है, कितना बचाए कोई? कैसे बचाये कोई ? क्या तरीके हो की इन छतनार बरगदों की छाँव से ढके और कठफड़ीयो की लहराती जड़ों से जकड़े अद्भुत किलों की हालत ठीक हो सके ?
मुट्ठी में प्रश्न रख कर घूमना बेकार है अतः इन्हें फेसबुक की दिवार पर उड़ेल देना ही ठीक होगा, इसलिए यह सब आपको समर्पित। यहाँ की कहानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा और बाघ के शिकारियों से जुड़ी है, कभी फिर लिखूंगा, हाँ चमगादड़ यहाँ खूब मिलती है – अधिकतर चूहे जैसे दिखने वाली Lesser mouse-tailed bat (Rhinopoma hardwickii)।
शाम तक नीचे उतरना जरुरी था सो किले को बोल दिया अच्छा भाई किले राम -राम !
दुर्ग :- 4
Karauli old palace
आधे रास्ते से पहले मन करेगा वापस चलो, तंग गलीयों में लहराते बाइकर सामने आकर कट मारकर निकल जायेगा इस से पहले के रुकी साँस चले, एक बड़े सींगों का सांड आपके सामने आजाता है, आप ठिठक कर खड़े रह जाते हो। आप सोचोगे की आज यहां कोई अनर्थ अवश्य होगा, सांड का ख्याल आगे बढे, इससे पहले चप्पल में एक अम्मा, अपनी छड़ी फटकारती, बाप की गाली देती और अनायास ही आपकी हिम्मत बढ़ा देती है और निकल जाती है, असल में इसी दुःख से, वर्षों बाद में इस किले नुमा महल तक पहुंचा, परन्तु तंग गली के आगे इस महल में जिंदगी रुक सी गयीं है, यहाँ आकर ही पता लगेगा करौली के महल क्या है। यहाँ के राजा बड़े सज्जन व्यक्ति है, वन्य जीवों के जानकर और उनसे प्रेम रखने वाले। पर जीवों ने कभी उनके प्रेम की कदर नहीं की, कबूतर और रीसस बंदरों से यहां के महल के गुंबद, छतरियां, मेहराबें, कंगूरे, झरोखे, बुर्जे, खम्भे, चौखटे, टोडे, सीढियाँ, रोशनदान, खिड़कियां, दरवाजे आदि सब डरते है। लाल बलुआ पत्थर से बना यह महल दर्शाता है यहाँ के कारीगरों के पास कंप्यूटर से चलने वाले लेजर कटर पहले से ही थे।यहाँ कहानियों के अम्बार लगे है इन सब ने मुझे चमगादड़ों को भूला दिया। यह महल आपको कहेगा बेटा पूरा तो देख कर जाते।
दुर्ग :- 5
रामगढ़ किला (बारां):

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हर किला इतिहास का अहम् हिस्सा होता है और इस से जुड़ी कोई कहानी आपकी उंगली पकड़ कर, आपको वहां तक लेकर जाती है। यह बहुत कम ही होता है, जब कोई किला अचानकआपके सामने आ जाये। परन्तु रामगढ़ का किला मुझे एक बाघ ने दिखाया। एक नया नया जवान बाघ रणथम्भोर से निकला और मुँह किया कोटा की तरफ, उसे ढूंढने निकली टाइगर वॉच की टीम ने पहला पगमार्क का फोटो भेजा, जिसके साथ GPS लोकेशन भी थी। में नदी के किनारे चलते बाघ की स्थिति गूगल मैप पर देखते हुए, उसके आगामी रास्ते का अंदाज लगाने का प्रयास कर रहा था, ताकि वहां उसका पीछा करती हमारी टीम को बाघ के आगे बढ़ने के संभावित मार्ग पर कोई टिप्स मिल सके। बस इसी क्रम में खोजते- खोजते पार्वती नदी से थोड़ा छिटका हुआ- एक अनोखा गोला दिखा, पहले लगा यह कोई प्राकृतिक संरचना नहीं है
, परन्तु फिर पता लगा यह तो कोई एक क्रेटर है, जिसे रामगढ़ के नाम से जाना जाता है, अब तक लूनर सुना था बस।मेरे घर से 100 किलोमीटर दूर एक इम्पैक्ट क्रेटर है, और मुझे 10 वर्षो में कभी खबर नहीं लगी।
खैर दूसरे दिन सूरज देर से उठा और में पहले, समय से क्रेटर के पास पहुँच चूका था और यह अनुभव अद्भुत था, जिसके बीच में है 2 झील है और अंदर वाली के आस पास एक महादेव का एक 10 वीं शताब्दी का खंडित मंदिर है, बहुत ही खूबसूरत और सलाउद्दीन अहमद साहिब ने व्यक्तिगत रूचि लेकर ठीक करवाया था इसे, यह बात एक स्थानिक पुजारी ने बताई, और क्रेटर के गोलाकार पहाड़ का एक तरफ मुँह खुला है और एक भुजा पर था प्राचीन किला- रामगढ़ किला। यहाँ भी किला? शायद सबसे अनोखी जगह बना राजस्थान का एक किला होगा। फूटा टुटा है पर किसी भी और किले से अनोखी जगह पर स्थित है। आप इसे क्रेटर जा कर भी आसानी से नहीं देख सकते, थोड़ी पूछताछ तो लगती है और यही मजा है।
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दुर्ग :-6
Devgir (karauli)
क्या चम्बल किनारे बचा खुचा खण्डर देवगिर कोई किला था या जैन देवालय? मुझे पता नहीं। जो भी रहा हो, आज कल यहाँ के लोग इसे किला ही कहते है। अब यह इमारत धीरे धीरे से मर रही है और परन्तु ख़ुशी इस बात की है कि यह शांत मौत मर रही है, किसी ने सीमेंट के प्लास्टर या चमक दार टाइल लगा कर बचाने की कोशिश की होती तो यह शर्म से मर रही होती। कितनी ही ऐसी पुरानी इमारते है जिनका पुनरुद्धार के नाम पर क्या क्या हुआ है।
खैर दो दशको से देख रहा हूँ, लगता है इन पर उगे गुर्जन के पेड़ अब इसे जल्द ही गिरा देंगे, परन्तु देख कर लगता है उनकी खुद की सांस अटकी है, कितनों ने तो दीवारों से फिसल कर खुद जान गवां दी।
यहाँ मिले चरचरी गांव के मियांजी से जब उनके हाल-चाल पूछा तो बोले, यहाँ कोंच की फली से भरे जंगल में कौन आता है, कभी कोई मूर्ति चोर या कोई बकरियों का रखवाला, वह भी खुद के हाल से ज्यादा किले के हाल बयां कर रहे थे।
इधर उधर 10-11वीं शताब्दी के उत्कीर्ण शिलाखंड बिखरे पड़े है, जो हर साल कम होते जा रहे है। किले की और क्या बात करे अब यह चम्बल का किनारा भर रह गया है। इस किले की जड़ों में चम्बल बहती है और इसी के किनारे पर 4 -5 मादा घड़ियालों के अंडे देने का स्थान भी है। यही तो वह जगह है जहाँ घड़ियाल के अंडो को मात्र सियार ही नहीं बघेरा भी खाने आता है। यह वह जगह है, जहां मैंने देखा की एक नर घड़ियाल ने नदी में जाने कौन सी आवाजों और तरंगों का मिश्रण पैदा किया की उसके बच्चों की और बढ़ता एक बड़ा मगर वापस घूम गया।
इस किले के आस पास गोहटा का थाक (स्थानीय भाषा में उथले पानी का स्थान) है, जो चम्बल को आसानी से पार कर राजस्थान से मध्यप्रदेश आने जाने का एक सुगम स्थान है।
मैंने चम्बल को इस जगह जीप से तो पार कर लिया पर, यह नदी के किनारे को शायद बर्दाश्त नहीं हुआ और मेरी गाड़ी नदी से निकल कर किनारे के दलदल में फंस गयी। छोटी गाडी में सोने की बजाय जमीं पर नीचे ही सोना पड़ा और यहाँ एक साफ जगह में सिर के नीचे लगाने के लिए एक छोटी हांड़ी का सहारा भी मिल गया था, सुबह पता लगा वह एक शमशान घाट भी था और हांड़ी किसी कर्मकांड का हिस्सा रही होगी और हद तो तब थी जब रात में साफ दिखने वाली जगह पुरानी चित्ता की राख थी।
इसके बाद हर यात्रा में टोर्च ले जाना आवश्यक हो गया, लम्बी यात्रा में मोबाइल तो अक्सर पहले ही प्राण त्याग देते है । दलदल इतना भयानक था की सुबह एक गाय भी फंस गयी। गाय और गाड़ी कैसे निकली होगी आप कल्पना नहीं कर सकते। खैर उस दिन राख में लिपटे शैव भेष में घड़ियालों के साथ चम्बल स्नान के अलावा कोई उपाय न था। डुबकी के साथ अनायास ही हर हर गंगे ही निकल रहा था और चम्बल का साथी किनारा बेवजह शायद और नाराज हो रहा होगा, उसे क्या पता चम्बल कहाँ जाएगी। किला तो कुछ खास बचा नहीं, पर यहां का किनारा बड़ा सुन्दर है, पर मेरे से थोड़ा नाराज है, शायद आप जा कर कभी मना लो।
दुर्ग :- 7
शेखावाटी की हवेलियां :
लगभग पचास वर्ष पूर्व एक अंग्रेज व्यक्ति- आइला कूपर (Ilay Cooper) राजस्थान के एक कस्बे- चूरू में आया, जिसके पिता ने ब्रिटिश फ़ौज के लिए भारत में काम किया था, वह उन दिनों चूरू के भित्ति चित्र वाली इमारतें देख कर आश्चर्यचकित था। दस वर्ष पश्चात 1985 में उसने चूरू कस्बे के एक सरकारी अध्यापक के साथ मिलकर दो वर्ष तक INTACH के लिए 2260 हवेलियां, छतरियां, कुँए, धर्मशाला आदि के स्थापत्य कला और भित्ति चित्र का एक गहन सर्वे किया। पहली बार इन इमारतों में बनी कई वर्ग किलोमीटर (वर्ग फुट में नहीं) भीति चित्रों (फ्रेस्को) का एक अनोखा विश्लेषण किया गया। यह अध्यापक श्री रविंद्र शर्मा (Ravindra Sharma) मेरे परिवार के संजीदा लोगों मे से एक है। उनका यह विशाल सर्वे INTACH के संग्रहालय में बंद पड़ा है, परन्तु इन सब प्रयासों ने शेखावाटी को पर्यटन के नक़्शे पर लाने में मदद की।
राजस्थान ही नहीं बल्कि भारत का सबसे अलग किस्म का हिस्सा है “शेखावाटी” जहां राजा से प्रभावी और समृद्ध वहां की प्रजा थी। यहाँ राजा के महल जर्जर और इन व्यापारियों की हवेलियां अधिक भव्य हुआ करती थी। यहाँ की प्रजा का रसूख अधिक और राजा साधारण थे। यह उस काल में राज तंत्र ने कैसे होने दिया होगा ? यह क्षेत्र है, उन साहसी व्यापारियों का क्षेत्र रहा जिन्होंने सम्पूर्ण भारत (विश्व कहो तो अतिशयोक्ति नहीं) में अपना व्यापार फैलाया। इस जगह से सम्बन्ध रखने वाले व्यापारी लोग थे -बिरला, सिंघानिया, बजाज, रुइया, लोहिया, गोयनका, पीरामल, और न जाने कौन कौन से बिज़नेस टाइकून।
राजस्थान के तीन जिलों में शेखावाटीऔर लगभग उसी तरह का क्षेत्र फैला है- सीकर, झुंझुनू एवं चूरू, जो मुख्यतया जयपुर एवं बीकानेर प्रिंसली स्टेट का हिस्सा हुआ करता था।
शेखावाटी में प्रमुखता से छोटी, बड़ी और बहुत बड़ी आकार की सैंकड़ों सूंदर सूंदर हवेलियां और अन्य इमारतें है। हवेली एक तरह का घर है जिस के बीच में कोर्टयार्ड होता है और चारो तरफ कमरे ही कमरे। इन हवेलियों पर सुंदर चित्रकारी है और उनके विषय है -राम, कृष्ण और सामान्य जन जीवन। यह इतनी अधिक मात्रा में है की आप इन्हें देख कर विस्मित रह जाते हो। इन के मालिकों के पास इतने पैसे कहाँ से आये की उन्होंने महलों के अंदर की जाने वाली चित्रकारी हवेली के बाहरी हिस्से में भी करवा दी थी। यदि आपने राजस्थान के महलों में चित्रकारी देखी है तो आप जानकर चौंक जायेंगे की राजस्थान के इस छोटे हिस्से में ही पुरे राजस्थान की 95 % भित्ति चित्रकारी मिलती है।
इस क्षेत्र के व्यापारियों ने अंग्रेज व्यापारियों में एक विश्वास पैदा किया की वह उनके लिए इस अनजाने देश में सबसे महत्वपूर्ण व्यापार सहयोगी बन कर उभरे, भारत के कच्चे माल को ढूंढना और बिना गफलत किये समय पर उपलब्ध करवाना, पैसे के लेन देन को दुरुस्त रखना, आदि उनका मुख्य काम हुआ करता था। इसमें इस सहयोग को देश भक्ति और गद्दारी के तराजू पर नहीं तौले, यह शुद्ध व्यापारिक समझौतों पर आधारित सम्बन्ध थे। यदि इस व्यापारी वर्ग को गहनता से देखे तो उनके व्यक्तिगत जीवन में धर्मपरायणता, समाज सेवा और सहज जीवन जीने की कला अपना एक खास महत्व रखती थी।
अंग्रेजों ने भी इन लोगों को महत्व दिया, उनकी सुरक्षा को पुख्ता किया और इस क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए 1835 में अंग्रेजों ने एक शेखावाटी ब्रिगेड बनाई जिसका नेतृत्व एक ब्रिटिश ऑफिसर -मेजर फोरेस्टर ने किया और उसने बलपूर्वक स्थानीय छोटे राजाओं को लगभग शक्तिहीन कर दिया, जो शासन की बजाय लूट खसोट में लग चुके थे। उनके किले ध्वस्त कर दिए और सभी व्यापारियों को इतनी ताकत दी के वे अपने वैभव का बिना भय के प्रदर्शन करने लगे। और यही वह एक कारण था, कि कहते है अधिकांश हवेलियां और अन्य भव्य इमारत 1835 के बाद ही निर्मित हुई।
मेरे अध्यापक भाई आज समाप्त होती इस विरासत पर चिंता जाहिर करते है और जाने कितनी कहानियां कहते है, जो उस सर्वे के दौरान उनके साथ हुई , उन सब पर चर्चा अगले सीजन में करते है।
आप Ravindra Sharma से और Ilay Cooper (https://www.ilaycooper.com) से और ज्यादा परिचित यहाँ हो सकते है।
श्री रविंद्र शर्मा के भाई श्री अरविन्द शर्मा Arvind Sharma अब यही ज्ञान तीन दशकों से अधिक समय से लोगों तक लेकर जा रहे है। यहाँ उनके संग्रह से कुछ चित्र बिना आज्ञा अधिकारपूर्वक इस्तेमाल कर रहा हूँ।
दुर्ग :- 8
बयाना किला (भरतपुर) :
खजाने की चर्चा भर भी एक बेहद रोमांच दिलाने वाला अहसास कराती है। क्या आप जानते है भारत के एक सबसे दुर्लभ खजाने की खोज के बारे में , जो राजस्थान के बयाना किले के पास एक गांव में सन् 1946 में की गयी थी ?
यहाँ लगभग 1500 वर्ष पुरानी, गुप्त काल की 2150 दुर्लभ स्वर्ण मुद्राएं मिली थी, जिसे ‘सिक्कों का अम्बार’ ”Hoard of Bayana” कहा जाता है। यह एक गांव के कुछ बच्चों को मिले और उन्होंने गांव में वितरित कर दिए, गांव वालों ने तुरंत 300 के लगभग स्वर्ण मुद्राओं को पिघला कर उनके प्रमाण नष्ट कर दिये। इसकी भनक भरतपुर के राजा को लग गयी, उस समय भरतपुर के महाराज थे श्री बृजेन्द्र सिंह, उन्होंने इस खजाने की 1821 स्वर्ण मुद्राओं को संग्रहित कर पिघलने से बचा लिया।
यह किसी दूसरे का खजाना छीनने की बात नहीं थी, यह इतिहास को बचाने की कहानी थी। उन्होंने इस खजाने को ठीक से एक नुमिस्मैटिस्ट से अध्ययन करवा कर संग्रहालय को भेंट कर दिया।कितनी कहाँ भेजी मुझे ठीक से पता नहीं, पर चाहो तो आप को यह खजाना नेशनल म्यूजियम दिल्ली और शायद भरतपुर के म्यूजियम में देखने को मिल सकता है। इसके बारे में और अधिक यहाँ पढ़े https://www.livehistoryindia.com/…/the-bayana-hoard-of… )
खैर मेरा विषय था बयाना का किला और देखो माया ने मुझे अपनी और खींच लिया। बयाना का किला एक उत्तंग और विशाल पहाड़ पर है। यह किला मेरे लिए रोचक इसलिए था, की यहाँ से खिलजी का एक भाई उलुघ खान रणथम्भौर युद्ध के लिए आया था। रणथम्भोर अभियान को बीच में छोड़ उसे मंगोलों से युद्ध करने काबुल जाना पड़ा परन्तु मेरे लिए यह बेहद रोचक था कि बयाना कैसा किला है। जहाँ मेरे सबसे पसंदीदा राजा महाराणा सांगा ने युद्ध लड़े। सांगा कम चर्चित महाराणा है परन्तु वे स्वाभिमानी होने के साथ कुशल रणनीतिज्ञ भी थे।
सो बयाना का किला कितना बड़ा है ? अब आप यह जानकर हैरान होंगे की जहाँ रणथम्भौर का विशाल किला 1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और चित्तौड़गढ़ का किला 3 वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं, वहीँ बयाना का किला 15-16 वर्ग किलोमीटर में फैला है, मुझे ठीक से पता नहीं कुम्भलगढ़ कितना बड़ा है, उसकी दीवारें 36 किलोमीटर की है जो चीन के बाद सबसे लम्बी ऐतिहासिक दीवार कहते है। बयाना किले में जहां लम्बी दीवारें बनी है और कहीं कहीं भौगोलिक अवरोधों का बेहद खूबी से इस्तेमाल किया गया है।
यहाँ की दो और बेहद रोचक बाते है, एक है एक कुतुब मीनार जैसी मीनार जिस पर फारसी में कुरान की आयतें लिखी है। इसमें अनेक चमगादड़ प्रेम से रहती है। दूसरा है यहाँ एक स्तम्भ है जो 20 फ़ीट से अधिक लम्बा एक पत्थर से बना है, जिसे भीम की लाट कहते है, उस पर देवनागरी में किसी राजा की विजय गाथा लिखी है। यह लाट 1650 वर्ष पुरानी बताई जाती है और जिसने भी इस पर जो कुछ भी लिखा है वह बेहद खूबसूरती से लिखा है। बयाना का किला आपको मुंबई दिल्ली रेल मार्ग पर भरतपुर से पहले दिखता है। अक्सर लोग इसके नीचे से निकल जाते है पर ऊंचाई पर होने के कारण इसे देखने की हिम्मत नहीं करते।
दुर्ग :- 9
शाहबाद किला (बारां)
खबर आई की टमाटर मोग्या का भाई बारां, कुनो और शिवपुरी के जंगलों से बघेरे की खाले इकट्ठी कर रहा है। उसके राजस्थान में पारिवारिक सम्बन्ध है और रणथम्भौर के आस पास भी आता रहता है। तय हुआ उसे पकड़वाना है और फलां शख्स इसमें मदद करेगा, परन्तु पकड़ना कहाँ है? जगह तय करनी है और पुलिस के आला अफसर से बात करनी है , और तभी यह काम ठीक से होगा। खैर पूरी तारीफ के साथ कहूंगा ऐसे कामों के लिए राजस्थान पुलिस तो हर दम जूते बांध के तैयार रहती है। कहा गया इस काम के लिए शाहबाद किला सबसे उपयुक्त जगह है, पुलिस पहले से छुप कर बैठ सकती है। अतः इसे देखना था। किले की रेकी एक सहज यात्रा थी सो साथ में दिव्या (पत्नी) और घर का कुत्ता भी गए थे।
किला बेहद शानदार है, एक दम मंदिरों, मकबरों और दीवारों की दुनिया; बुर्जों, चौबारों और छतरियों की दुनिया, विशाल पहाड़ों, दरख्तों और दर्रों की दुनिया।इतिहास में रूचि रखने वाले मुझे अक्सर पूछते रहते थे, कभी शाहबाद गए हो ? चलो अब यह कलंक भी दूर हुआ। शायद यह उनके लिए सबसे दूर स्थित किला हैं। यहाँ मैंने पाया की में अकेला नहीं यहां आने वाला, यहाँ की हर दीवारों पर कोयले और चुने से आधी दुनिया के तो नाम लिखे थे, कुछ के तो एड्रेस और फ़ोन नंबर भी थे।
एक बुर्ज पर रखी तोप उसी तेवर से तनी है जैसे पहले कभी हुआ करती होगी, उसे देखो तो लगता है, कह रही हो “बस एक बार मेरे पिछवाड़े में दियासलाई लगा दे, उन नामकुलों के घर पर मौत बन के बरसूँगी, जिसने मेरे इस किले की दीवारों पर अपने नाम पोते है”। भाइयों इतिहास की कालिख अब न मिटनी हमसे, इस तरह की कालिख ना पोते वही सबसे अच्छा है।
असल में मुझे इस किले की दीवारों से बाहर झाँकने में और भी अधिक आनंद आया, और इस किले के बाहर देख कर लगता है इस जंगल को हम अभ्यारण्य क्यों नहीं बना पाए, हालांकि अभी भी देर नहीं हुई, आएगा कोई इन्हें बचाने वाला भी कभी। विंध्यन पहाड़ी में बहते कुंडा खो के झरने के पास के खड़े किनारों पर आज भी कई गिद्ध अपने घर बना कर रहते है।
तब तक दिव्या ने यहाँ टमाटर काट कर सैंडविच बनाया और कुछ दिनों बाद में उस टमाटर के भाई को पुलिस ने डबल रोटी बनाया, हाँ उसके साथ एक बघेरे की खाल भी पकड़ी थी। (पुलिस के शांतनु सिंह जी कोटा वाले और अंशुमान भोमिया जी को धन्यवाद)
दुर्ग :- 10
खण्डार किला (Sawai Madhopur)
आज कल इतिहास एक चर्चा नहीं बहस का विषय है, हर चौराहे पर बॉलीवुड की कोई फिल्म की चर्चा से शुरू होता है और एक छोटे द्वन्द तक बमुश्किल रुक पता है। एक बोला मराठे अफगानिस्तान में कंधार तक अपना परचम लहरा रहे थे, यह सुनते ही राजस्थान के दौसा जिले के एक राजपूत की आँखों से अंगारे फूटे पड़े, बोले कोई लूट के लिए इधर उधर भागना परचम नहीं था। यह लोग मुगलों से बुरे थे, इन्होंने उस ज़माने में हमारे परिवार के दुधमुहे बच्चे तक नहीं छोड़े। इन लूट कर भागने वालों पर आज बॉलीवुड के लोग फिल्में बना कर हमें इतिहास पढ़ा रहे है और कह रहे है, यह हिन्दू राष्ट्र रक्षक थे ? अब लगने लगा मेरे से यह विवाद यहाँ तक नहीं रुकना। खैर बीच में ही चाय आ गई और विषयान्तर करने में मदद मिल गई।
इतिहास ने लोगों को व्यक्तिगत, समाज और देश स्तर पर अलग अलग रूप से एक साथ प्रभावित किया है, कोई व्यक्तिगत नुकसान, समाज और देश स्तर पर फायदे का हो सकता है अतः इसे अलग अलग तरह से देखा भी जा सकता है।
हालाँकि सदियों से भारत सांस्कृतिक रूप से एक था, परन्तु तब राजनीतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह विखंडित था। उस ज़माने में गाय, गंगा, गीता, और गणेश सबके साझे थे बाकी सभी विखंडित था। मुझे लगता है चाय आज सांस्कृतिक जुड़ाव का क्विक फिक्स साधन है।
खण्डार एक अत्यंत प्राचीन किला है, परन्तु बाद में मराठा-राजपूत संघर्ष में राजपूतों की एक महत्वपूर्ण छावनी जो दक्षिण से होने वाले आक्रमण को झेलती थी। मराठो से बचने के लिए राजस्थान ने चम्बल के किनारे बने पुराने किलों को सुधरवाया गया जैसे – मंडरायल, ऊटगिर, खण्डार आदि और उनके पीछे नए किलों की क़तार बनायीं गयी। शायद बरवाड़ा, बोंली, भरतून, ककोड़ और शिवाड़ आदि उनके उदाहरण है।
सवाई माधोपुर में दो किले है एक रणथम्भौर और दूसरा खण्डार। रणथम्भौर चन्द्रमा का वह हिस्सा है जो चमकदार है और खण्डार वह जो हरदम अंधकार में रहता है। दोनों के मध्य 13-14 किलोमीटर की दूरी है। इसके बाद भी खण्डार की चर्चा लगभग नगण्य। इतना पास एक और विशाल किला क्यों है ? क्या आपस में साझेदारी थी ? एक जानकार बोले जैसे दुधारी तलवार के दोनों तरफ धार होती है और उसे खांडा कहते है वैसे ही यह किला है, एक धार रणथम्भौर तो खांडे के दूसरी तरफ खण्डार, पता नहीं यह शब्द जाल था या खण्डार नाम की व्युत्पत्ति का कारण।
किले का द्वार किसी तिलिस्मी दुनिया का लगता है। यहाँ का हवामहल किसी विलासी राजा का महल लगता है। शिवालय के देव को खजाने ढूंढने वालों ने खोदकर किनारे कर दिया, जिसे कभी कोई रानी, एक बूढ़े पुजारी के अलावा किसी को छूने नहीं देती होगी। आज तालाब में बस शैवाल जिन्दा है और बाकि सब निष्प्राण, परन्तु निस्तेज नहीं। किसी एकल योद्धा की तरह खुले में खड़ा है, यह खण्डार का किला, रणथंभौर की तरह पहाड़ियों की गोद में छिपकर नहीं बैठा। तोपे लोगों ने कुल्हाड़ी और गंडे- ताबीज बनाने के लिए चुरा ली और लोग कहते है यहाँ कुरान लिखे पत्थर थे, जो एक मियाँजी ने ही बेच दिए। कोई ऐसा कोना नहीं बचा जो धन की लालसा में खोदा नहीं गया और कोई ऐसे कोने में पड़ा पत्थर नहीं जो किसी धन से कम हो, परन्तु उसे कौन जाने।
खण्डार देखने कभी कभी कोई जाता है, परन्तु जयंती माता का मंदिर आज भी यहाँ का सबसे अधिक आस्था का बिंदु है और सेंकडो लोग उन्हें सहाय माता के रूप में सहायता मांगने आते है। पीछे के दरवाज़े पर हनुमान जी की प्रतिमा है जो बाघ के आने जाने के रास्ते में है, महीने में 2 -3 बार बाघ भी आता है और बघेरे और भालू यहाँ हर दम रहते है। सांभर हिरण के सींग बिखरे मिल जाते है। नेचर ट्रेल के साथ किला दर्शन यहाँ संभव है जिसमें सभी जानवरों के चिन्ह मिल जाते है। आप किला देखे और मुझे किसी बहस का हिस्सा न बनाले।
दुर्ग :- 11
तिमनगढ़ (मासलपुर – करौली):
राजस्थान पुलिस द्वारा अपने नए ऑफिसर्स को ट्रेनिंग के दौरान एक केस स्टडी पढ़ाई जाती है, और वह है- जयपुर निवासी मूर्ति तस्कर वामन नारायण घीया के संघटित मूर्ति चोरी गैंग के पर्दाफाश करने और उसे जेल भेजने की। पुलिस के वरिष्ठ अफसर श्री आनंद श्रीवास्तव की अगुआई में इस बड़े केस को अंजाम दिया गया था। इस तस्कर के लिए कहा जाता है की उसने- राजस्थान के अनेक जिलों से मुख्यतया- चित्तौड़गढ़ के मंदिरों, चम्बल के बीहड़ों और इनके अलावा देश के कोने कोने से 700 से अधिक दुर्लभ और प्राचीन मूर्तियों को देसी – विदेशी संग्रहकर्ताओं को ऊँचे दामों में बेच दिया था। इसके बारे में देश विदेश में खूब छपा है।
कहते है, मूर्ति चोरों का राजस्थान में सबसे अधिक प्रिय स्थान रहा है – तिमनगढ़ का किला। यह करौली के मासलपुर क्षेत्र में स्थित है जो एक खास तरह के पान की पैदावार के लिए प्रसिद्ध है। पता नहीं उस मुलायम पान की मानिंद ही करौली के लाल बलुआ पत्थर भी है की उन्हें यहाँ चाहे जैसा रूप दे दिया गया है। कहते है, 1100 ईस्वी में बने तिमनगढ़ दुर्ग का यह नाम वहां के यदुवंशी राजा तिमनपाल के नाम से दिया गया था। यहां के सब राज परिवार के लोग अपने नाम के आगे पाल लगते है, जो कृष्ण वंशज गौ पालक होने के कारण पड़ा।यहाँ के राजा हिन्दू थे, परन्तु तिमनगढ़ के टूटे फूटे अवशेषों में जैन मंदिरों के अवशेष भी बहुतायत में मिलते है।
आज इसकी हालत देखकर लगता है किसी ने एक कांच के फूलदान को कई सो फ़ीट ऊपर उठा कर पटक दिया हो। इस किले के अंदर की इमारतों का मलबा किसी भयानक भूकंप के बाद का दृश्य लगता है। शुरू में मोहमद गौरी की फ़ौज ने इसका यह हाल किया था, परन्तु इस किले को फिर बना दिया गया, और फिर किसी ने तोड़ दिया। अवशेषों से पता लगा है, इस किले में कभी ५० मंदिर थे, जिनमें १० तो विशाल श्रेणी के थे। परन्तु जो कुछ खंडित मूर्तियां और पत्थरों में उकेरे कला के आयाम बचे थे, उन्हें हमारे ही देश के घीया जैसे लोगों ने लूट कर बेच दिया। अब भी कुछ बचा था। यहाँ के गांव वाले अक्सर कहते है, विदेशी राजनयिक लोग आकर मूर्ति ले जाते थे। खैर यह बात कितनी सत्य है पता नहीं, परन्तु इस तरह के लोग अवश्य शामिल रहे होंगे। एक स्थानीय व्यक्ति बोला, पहले आस पास के कुछ लोग अपने बिस्तर, भूसे एवं मिट्टी के नीचे मूर्तियां छिपा कर रखते थे, ताकि मौका मिलने पर उसे बेच सके। आज इस किले की बाहरी दीवार भर बची है और यह वैसे ही लगता है, जैसे किसी पुस्तक का बाहरी कवर पेज बचा हो और अंदर से सारे पन्ने किसी ने फाड़ दिए हो।
आप जब इस लुटे तिमनगढ़ को देखोगे तो दिल बैठ सा जायेगा। हर पत्थर, हर ज़र्रा कराह रहा है। कभी हो सके तो अपने पाषाण मन से जाओ और इस मृतपाय किले को सांत्वना दे आओ।
यहाँ विस्तार से पढ़े घीया केस के बारे में https://www.newyorker.com/magazine/2007/05/07/the-idol-thief )।
दुर्ग :-  12
जोहड़े

जल के महत्व को समझते हुए राजस्थान में झीलों और तालाबों के अलावा जल संचय के और अनेक प्रयोग हुए है, जिनमें मुख्य थे – नाड़ी, बावड़ी, झालरा, खडीन, कुंड, केवडिया (यह आपने नहीं सुना होगा), टांके, टोबे और जोहड़े आदि। जल बहुतायत वाले दक्षिण राजस्थान में जहाँ खूबसूरत झीले अधिक है, वहीं पश्चिम में शानदार बावड़ियां, तो उतर राजस्थान में हर घर में कुंड थे, शेखावाटी और आस पास क्षेत्रों के जोहड़े दर्शनीय है। इन सभी का उपयोग धीरे धीरे सांकेतिक या नाम मात्र का बचा है, परन्तु इसका अफ़सोस सभी राजस्थान वासियों को है। कुछ लोग उन्हें पर्यटन के महत्व से विकसित करना चाहते है और इसी जोश में सरकार के प्रतिनिधि इतना अधिक धन व्यय कर देते है, की मूल स्वरूप ही नष्ट हो जाता है।
चुने पत्थर से बने चौड़े जल संचयन के वर्गाकार संरचना को जोहड़ों कहते है। इन जोहड़ों पर भी अन्य इमारतों की तरह, चूना, दही, दूध, संगमरमर की धूल से बने अराइश की एक चमकदार परावर्तक सतह लगाई जाती थी, जो न केवल आंखों को बल्कि आपके स्पर्श को एक मुलायम अहसास देती है। यह विधा शायद राजस्थान में सर्वाधिक उत्कर्ष तक विकसित हुई। यह एक तरह का कैनवास था, जिन पर राजस्थान के उत्कृष्ट चित्रकारों से मिनिएचर पेंटिंग भी बनवाई गयी।

 

जोहड़े का निर्माण अक्सर खेतों, गोचर या ओरण में होता था, जहाँ मिट्टी में जिप्सम की अधिकता हो जो जल को लम्बे समय तक जमीन में रोके रखे एवं रिसाव हो जाने से रोके रखने में सक्षम हो। बलुई टीलों के मध्य जिप्सम के इन मैदानों के मध्य में बनाए गए हल्के गहरे गड्ढे में बारिश की हर बूंद को करीने से सुरक्षित किया जाता रहा है।
चूरू स्थित सेठानी का जोहड़ा सबसे सुंदर माना गया है। कहते है छप्पन के अकाल में राहत कार्य चलने के लिए एक वणिक वर्ग की महिला ने अपने परिवार को इस जोहड़ निर्माण के लिए प्रेरित किया। चूरू के निवासी इसे अत्यंत आदर से देखते और दिखाते है। कुछ अलग अलग जोहड़ों की तस्वीरें आपके लिए यहाँ है, जरूर देखे।

 

दुर्ग :-  13
भागागढ़ (Udaipur)
कन्हैया लाल सेठिया जी राजस्थान के एक बड़े कवि थे और उन्होंने महाराणा प्रताप पर एक मार्मिक कविता लिखी थी।जो पढ़ते वक्त आपके दिल को छू जाती है और राणा प्रताप के जीवन संघर्षों का दर्शन कराती है। वह कविता यह की महाराणा जंगलों की खाक छान रहे है, और अपने पुत्र के लिए एक हरे घास रोटी की इंतजाम भी बमुश्किल ही कर पाए और वह भी एक “बन बिलावडो ले भाग्यो”। जब बचपन में इस पढ़ा तो लगा, महाराणा बड़े बेचारे, मोहताज और लाचार राजा मात्र ही रह गए थे। हल्दीघाटी के बाद उन्होंने सब कुछ खो दिया था, इस राजा ने फिर आगे के युद्ध कैसे किये होंगे। ऐसी दयनीय हालत में वह कैसे मुगलों की जयपुर राज्य के राजपूतों से समर्थित सेना से मुकाबले की सोच पाए होंगे। असल में सेठिया जी की उस सुंदर कविता को अपना एक गहन मतलब है, परन्तु उसे इतिहास भी न मान बैठे।उनकी सेना के लोग भील थे जो बन बिलाव क्या वन व्याघ्र को कुछ न समझे।
असल में महाराणा हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी 30 और वर्षों तक और जिन्दा रहे। और तो और मात्र दस वर्ष पश्चात उन्होंने एक भीषण युद्ध किया, जिसे आज हम दिवेर का युद्ध के रूप में जानते है, इसमें उन्होंने मुगलों को हरा कर अपने राज्य का अधिकांश हिस्सा वापस भी ले लिया था।
इस विजय के पीछे उनकी एक सतत रणनीति अवश्य रही होगी और जनता का अटूट साथ रहा होगा। असल में वे सभी समाजों को साथ लेकर चलने वाले अद्भुत रक्षक और पराक्रमी राजा थे। वह कोई जिद्दी शासक भर नहीं थे, न ही वह कोई अव्यवहारिक योद्धा थे, जो ढाई मण का भाला और अकल्पनीय भारी तलवार लेकर युद्ध में अकुशल तरह का प्रदर्शन करें। कुछ लोग उनका इस तरह से लार्जर देन लाइफ छवि घड़ने के चक्कर में उनके असली संघर्षों को कमतर कर देते है। उनका साथ प्रकृति और सामान्य जनता दोनों ने दिया था। उस ज़माने में अक्सर राजा, उसका परिवार और मात्र राजपूत जाति के लोग ही युद्ध लड़ते थे। और यह सब किले में बंद होकर प्रजा से अलग-थलग पड़ जाते थे, परन्तु महाराणा के साथ थी बहु संख्यक प्रजा और उन्होंने मेवाड़ की प्रजा के बल पर युद्ध लड़ा और दूसरा साथ दिया दक्षिण राजस्थान की प्राकृतिक विरासत ने।
कई बार कुछ युद्ध एक लड़ाई से समाप्त नहीं होता, इसके कई दौर हो सकते है, जैसे कुस्ती में कई बाउट के बाद निर्णय होता है। इसी तरह महाराणा अपने इरादों पर कायम रहे और अनिर्णीत फैसले के साथ इस धरा से विदा हुए, और विदा होने से पहले अधिकांश राज्य उन्होंने प्राप्त कर लिया था।
उनका एक किला भागागढ़, मुझे कोटड़ा के जंगलों में मिला, जो राजस्थान के सबसे अधिक घने जंगल का क्षेत्र है। यहाँ बिना चुने के पत्थरों को जमा कर रखा गया है। जिसके आस पास का क्षेत्र फुलवारी वन अभ्यारण्य का हिस्सा है। यह किला नीचे से नहीं दिखता है, यहाँ का भील समुदाय उनके के लिए मुख्य सहयोगी बना। उनका यह किला रणनीति के तौर पर इतना छुपा हुआ था, की कुछ हिस्से में तो पेड़ों ने सूरज के आने पर भी रोक लगा रखी थी, क्योंकि उनपर छद्म रूप से अनेक हमले हुए थे।इसी तरह के दो और किले यहाँ स्थित है – जुड़लीगढ़ और देवलीगढ़। यहाँ भागागाढ़ के निचे स्थित दीवार आदि की एक झलक दिखा रहा हूँ। यह राजस्थान के दैया वन खंड का हिस्सा है और गुजरात की सीमा पर स्थित है। यहाँ के एक ऊंचाई पर एक गांव माल श्रवण है, जो भालुओं से भरा है और ऊँचा और दूर है, पता नहीं कैसे लोग अपना जीवन यापन करते है।आप इस तीर्थ पर अनावश्यक रूप से पर्यटन के लिए नहीं जाए। फुलवारी अवश्य जाए यह राजस्थान की सबसे सुंदर सैंक्चुअरी है।
दुर्ग :-  14
मंडरायल किला (करौली)
मंडरायल एक पुराने कस्बे सा कस्बा है, इसके पीछे एक पहाड़ी और जिसके सिर पर एक किला है। हाँ, राजस्थान में कस्बे और शहर किलों के आस पास ही तो बनते थे, अन्य प्रदेशों की तरह इस सूखे प्रदेश में नदियां तो है नहीं। माना जाता है, इस कस्बे का यह विचित्र नाम ‘मंडरायल’ एक ऋषि माण्डव्य के नाम से पड़ा था।
पुराणों में कहानी है की माण्डव्य ऋषि एक बार किसी झूठे चोरी के आरोप में फंस गए थे और उन्हें सूली पर चढ़ाने का दंड मिला। सूली पर चढ़ा दिए गए। परन्तु सूली पूरी तरह उनको भेद नहीं पायी, फिर भी उसकी तीक्ष्ण नोक, उनके जिस भी हिस्से (इसका अंदाजा आप लगाए कहाँ ?) में गयी, वह निकल नहीं पायी, और उसे अंततः काट कर अलग कर दिया गया, और नोक वहीं चुभी रह गयी। मानते है यह इसलिए हुआ की उन्होंने बचपन में एक पक्षी को कुछ इसी तरह सताया था। वह उसी नोक के साथ विचित्र तरह से चलते रहे, और तबसे उनका नाम बदल के अणि माण्डव्य रख दिया गया था।
खैर मंडरायल नाम के पीछे एक और कहानी है की बयाना के प्रसिद्ध महाराजा विजयपाल के एक पुत्र मदनपाल या मण्डपाल ने मंडरायल को बसाया था और वहां एक किले का निर्माण संवत 1184 के लगभग कराया था।
खैर, यह किला उसी माण्डव्य ऋषि को चुभी तीक्ष्ण नोक के समान ग्वालियर को भी सतत चुभता रहा था। इतिहासकार इसे ग्वालियर के किले की चाबी कहते है। ग्वालियर मध्य प्रदेश का सबसे विशाल राज्य था और इसकी ताकत लगभग आगरा या दिल्ली के समान ही थी। इसलिए ग्वालियर को जितने के लिए मंडरायल को हासिल किये बिना यह मुश्किल था।
प्रारंभिक मुगल काल के दौरान, जयपुर राज्य के आंतरिक झगड़ों से परेशान होकर वहां के राजा पूरणमल ने मुगलों का सहारा लिया। हुमायूँ के कहने पर पूरणमल ने बयाना के युद्ध में उन्हें सहयोग दिया। इसके बाद जब वह मंडरायल की और मुड़े तो यह जगह उन पर भारी पड़ गयी और वह इस युद्ध में खेत हुए, यह जयपुर के लिए भी शूल के समान ही रहा।
मंडरायल करौली जिले में स्थित है, परन्तु करौली को मंडरायल के राजा ने ही बसाया था और पहले उसका नाम कल्याणपुरी था।
खैर मंडरायल वन और चम्बल नदी से घिरा क्षेत्र है, यह रणथम्भौर वन विभाग के कैला देवी हिस्से में ही आता है, जब सरकार ने कहा की क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट का क्षेत्र निर्धारित कीजिये, जो बाघों के लिए कैला देवी में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगा तो, रणथम्भौर वन विभाग ने कैलादेवी की इस मंडरायल रेंज को पूरी तरह नकार दिया था बाकि सारे क्षेत्र को CTH बना दिया था। बाघ भी इज्जत लेने पर उतारू थे, जैसे ही रणथम्भोर में बाघ बढे वे कैला देवी की और रुखसत हुए और पूरे कैला देवी के CTH जंगल को छोड़, यहीं मंडरायल आकर बसे और पनपे, जिसे शुरुआत में वन विभाग ने बाघ के दृष्टिकोण से कम महत्व का माना था। यह हमारे बाघों के लायक स्थान चयन के ज्ञान को दर्शाता है। खैर यहाँ से बाघों के सिलसिलेवार तरीके से गायब होने ने विभाग की हालत अणि माण्डव्य जैसी बना रखी है। सुल्तान, सुंदरी नामक बाघों के यहाँ से गायब हो ने बाद भी यह सिलसिला अभी तक रुका नहीं है।
यह किला गहरे लाल बलुई पत्थरों से बना है, किले के अंदर एक और बाला किला जैसा स्थान है जो अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता था। बघेरे इस पूरे किले का बढ़िया इस्तेमाल करते है। हालांकि यहां इंसानी दखल बहुत है और दिन में अक्सर मंडरायल कस्बे की औरते लकड़ी चुनने और बकरिया चराने जाते रहती है। यहाँ कांटे वाली जाल झाड़ी की बहुतायत है जो सावधानी नहीं बरती तो यह किला किसी की भी हालत भी अणि माण्डव्य के समान कर सकता है।
दुर्ग :- 15
Shergarh Fort (Baran)
एक नदी है परवन, जो चम्बल की छोटी बहन है, उसका आधार कार्ड पर नाम है पार्वती, पर इसके किनारे के सभी लोग इसे प्यार से परवन ही बोलते है। परवन नदी का चम्बल के जीवन में बड़ा योगदान है। एक ज़माने तक उसकी बड़ी बहन चम्बल, एक दस्यु की तरह हुआ करती थी, जो निर्बाध जंगलों में बहती थी, परन्तु अब कोटा से पहले पहले ही इंसानो ने इसे चार बड़े बांधों में कैद कर लिया है। इन बांधो ने लगभग इसका प्रवाह पूरी तरह ही खत्म कर दिया है। परवन नदी अवश्य चम्बल के इस हालात से दुखी है, और उसे अपना पूरा पानी दे देती है, पानी पहले भी देती थी, तब इसका कोई मायना नहीं था, परन्तु अब यह चम्बल के पानी में आधे से अधिक इजाफा करता है, बस इसीलिए चम्बल आज जिन्दा है। सो चम्बल के लिए परवन बचानी है क्योंकि चम्बल तो हमने पहले ही कैद में डाल रखी है।
परवन के किनारे पर एक किला है, जिसका पहले नाम था कोषवर्धन जिसे शेरशाह सूरी ने काबिज कर जोरी से नाम रख दिया शेरगढ़। न जाने कितनी बार किले का मालिक बदला, किले का नाम भी बदला, परन्तु परवन का इस किले प्रति प्रेम नहीं बदला, यह आज भी इसकी पीठ पर लहरों से होले होले थापी मार इसे दिलासा देती रहती है। इस किले को वाकई दिलासा देने की ज़रूरत है, क्योंकि आज कल इसके सभी पीछे पड़े है।
किले में प्रवेश करते ही मिलता है एक दाढ़ी वाले मियां जी, जो आप को आदर से कहते है में यहाँ का किलेदार हूँ बेटा, और आप सीधे जाओ और खूब किला देखो। फिर पता लगता है आप किले में नहीं अभी तक तो खाली शेरगढ़ के दीवारों से बंद गांव में आये थे, फिर लगभग १ किलोमीटर आगे चलने के बाद किला आता है, जहाँ एक और शख्स मिलता है, जो कहता है में हूँ यहाँ का असली किलेदार ASI की तरफ से और फिर आपको एक सरकार का फरमान पकड़ा देता है जिस पर लिखा है, आप आगे कैमरा नहीं ले जा सकते। कारण वह बताते नहीं और फीस वह लेते नहीं और आसपास गांव वालों की भीड़ में सेटिंग वो कर पाते नहीं । छोडो जी, फ़ोन से काम चलाएंगे। जैसे किला तो हम कैमरे वालों ने ही बर्बाद किया है।अंदर जाते ही मिलेंगे आपको दो घनघोर गंदे सूचना पट्ट जो इस किले का इतिहास बताते है। हालाँकि कहानी अच्छे से लिखी है, किसने कब कैसे बनवाया आदि, परन्तु यह पट्ट बेहद ही अटपटे लगते है।
आजकल इसकी काली दीवारों पर किया जा रहा है, चुना प्लास्टर और पीला रंग जो इसे चमका देगा। कहते है लाल कप्तान नामक फिल्म ने भी इस किले को आस पास के लोगों के मध्य चमका दिया है, तबसे ASI को भी यह जगह महत्वपूर्ण लगने लगी है।
किले के बाहर एक खूबसूरत जंगल है उसका नाम है शेरगढ़ वन्य जीव अभ्यारण्य और यह शायद अपने अच्छे दिनों की और जा रहा है। इन दिनों वन विभाग इसके संरक्षण के लिए कुछ संजीदा हुआ है, कभी कभी उन्हें इस जंगल को भी चीता घर बनाने की हुक उठती है। जो शायद मेरे हिसाब से उचित नहीं।
यहाँ सबके लायक कुछ है, मुस्लिम मजारे, जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म के देवालय है, और प्रकृति प्रेमियों के लिए जंगल, नदी और पहाड़ है। एक मंदिर में तो गज़ब काले पत्थर की मूर्ति है, जो एक बार चोर उठा ले गए थे, पर पुलिस की मुस्तैदी से वापिस आगयी थी।इस मूर्ति के बारे में ज्यादा पूछने पर मंदिर का पुजारी आप पर भी शक करने लगता है। इसी जगह के आस पास मिले एक ठेकेदार जी, जो अन्य मंदिरों और इमारतों को ASI के तरीके से ठीक कर रहे है, नाम है कोई तो मीणा जी, जो वजीरपुर- सवाई माधोपुर के रहने वाले थे, वे बोले चुना, पीसी ईंट, गुड़ का घोल, और बेल फल की सुखी गिरी को मिलाकर प्लास्टर तैयार करते है। यह सर्दी में किसी मिठाई की रेसिपी अधिक लग रही थी।
परवन एक जीवित नदी है हमने एक ज़माने पहले इसका हमने एक सर्वे किया था और पाया की इसमें जगह जगह घड़ियाल मिलते है l हमने एक अमेरिका के मगरमच्छ विशेषज्ञ के साथ इस के सम्बन्ध में लम्बा शोध पत्र भी छापा था। एक नदी में ठीक ठाक मात्रा में अति संकटापन्न प्राणी का मिलना सुखद है, यह उसके जिंदा होने के प्रमाण है। इस नदी पर अब एक नया और बड़ा बांध बनेगा। इसलिए आज कल भारतीय वन्यजीव शोध संस्थान (WII) इस पर शोध कर रहा है की, एक नए बांध बनाने से क्या होगा। आप भी जानते है क्या होगा, WII वाले भी जानते है क्या होगा, बस अभी परवन को पता नहीं, उसका क्या होगा। आप भी मत बताना क्या होगा, उसे दिलासा देने वाला उधर कोई नहीं है।
किले तो बनते बिगड़ते रहते है, नदियाँ और पहाड़ हमसे नहीं बनेंगे, अतः मैंने फैसला किया है यह सीरीज यही समाप्त करूँ और नदी, पहाड़ और प्रकृति पर ही कुछ लिखूं पढू। भूल-चूक, लेन -देन माफ़ करें।
टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

 

यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।

टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य

इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।

भील बेरी झरना

इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जि‍सके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई  भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा  हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा ।  वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया।  टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।

टेल्ड जे तितली।

पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर  अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में  Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ।  यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।

थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी  देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति  विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।

स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।

मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma),  कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis  decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी  (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है।  इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius)  ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य  धूसर जंगली मुर्गों  -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।

वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है

यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए  निसंदेह अभिशाप होगी।

वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।

टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव  इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

सभी फोटोग्राफ: धर्मेंद्र खांडल