रेतीले धोरो, सुखी पहाड़ियों एवं कंटीली झाड़ियों से घिरी सांभर झील कई मौसमी नदियों और नालों से आये खारे जल से समृद्ध आर्द्र भूमि होने के साथ सर्दियों में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों का आशियाना भी है, जो भारत का एक अनूठा पारिस्थितिक तंत्र है…

राजस्थान में स्थित सांभर झील भारत की सबसे बड़ी “लवण जल” अर्थात “खारेपानी” की झील है। इस का प्राचीन नाम, हर्ष शिलालेख 961 ई. में वर्णित, शंकरनक (शंकराणक) था। इसी नाम की देवी के बाद इस का प्राचीन नाम शाकंभरी (शाकंभरी) भी था। सांभर को साल्ट लेक, देवयानी और शाकंभरी मंदिर के तीर्थ के लिए भी जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष उत्तरी एशिया एवं यूरोप से सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। इस झील के अंतरराष्ट्रीय महत्व को समझते हुए इसे वर्ष 1990 में एक रामसर स्थल के रूप में नामांकित किया गया। इस झील का किनारा अद्वितीय है i  क्योंकि इस में पोटेशियम की मात्रा कम व सोडियम की मात्रा अधिक है, जिसके चलते इस झील से एक बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन भी किया जाता है परन्तु धीरे-धीरे ये नमक उद्योग, झील तथा यहाँ आने वाले पक्षियों के लिए मुश्किलों का सबब बनता जा रहा है।

सांभर झील मुख्यरूप से नागौर और जयपुर जिले में स्थित है तथा इसकी सीमा का कुछ भाग अजमेर जिले को भी छूता है। यह एक अण्डाकार झील है जिसकी लंबाई 3.5 किमी तथा चौड़ाई 3 से11 किमी है। इसकी परिधि 96 किमी है जो चारों तरफ से अरावली पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस झील का कुल जल ग्रहण क्षेत्र 5700 वर्ग किमी का है। मानसून के बाद शुष्क मौसम के दौरान इस झील के पानी का स्तर 3 मीटर से घटकर 60 सेमी तक रह जाता है, वहीं दूसरी ओर इस जल क्षेत्र का क्षेत्रफल190 से 230 वर्ग किलोमीटर तक बदलता है। चार मुख्य नदियां (मेंढा, रूपनगढ़, खारी, खंडेला), कई नाले और सतह से अपवाहित जल इस झील के मुख्य जलस्रोत हैं।

सांभर झील कि जैव विविधता

इस आर्द्रभूमि का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्व है क्योंकि प्रत्येक वर्ष सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। सर्दियों में यह झील, कच्छ के रण के बाद फुलेरा और डीडवाना के साथ, भारत में फ्लेमिंगो (Phoenicopterus roseus & Phoniconaias minor) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस झील में पेलिकन, कॉमन शेल्डक, रेड शैंक, ब्लैक विंगड स्टिल्ट, केंटिश प्लोवर, रिंग्ड प्लोवर, रफ और रिवर लैपिंग भी पाए जाते हैं। शर्मा एवं चौमाल 2018, के अनुसार अब तक इस झील से एल्गी की 40 से अधिक प्रजातियां दर्ज की गयी हैं। झील में उगने वाले विशेष प्रकार के एल्गी एवं बैक्टीरिया इसके पारिस्थितिक तंत्र का आधार है, जो जल पक्षियों का भोजन बन उनका समर्थन करते है।

सांभर झील में विचरण करते फ्लेमिंगो (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

सांभर झील के पास Peregrine falcon (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

नमक उत्पादन – इतिहास कि नजर से

जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ सांभर झील पुरातत्व दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं मुगलकालिक नमक उदपादक क्षेत्र भी है। जोधा बाई (जयपुर राज्य के भारमल की बेटी) या मरियम-उज़-ज़मानी की शादी अकबर से 20 जनवरी, 1562 को सांभर लेक टाउन में हुई थी। झील से नमक आपूर्ति मुगल वंश (1526-1857) द्वारा आरम्भ किया गया, जो बाद में जयपुर और जोधपुर रियासतों के संयुक्त रूप से स्वामित्व में था। 1884 में, सांभर झील में किए गए छोटे पैमाने पर उत्खनन कार्य के हिस्से के रूप में क्षेत्र में प्राचीन मूर्तिकला की खोज की गई थी। पुरातत्व विभाग ने नलसर नामक स्थान पर सांभर में खुदाई की थी जिसने इसकी प्राचीनता का संकेत दिया था। उस खुदाई के दौरान, मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया था जिस में बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियाँ, पत्थर के पात्र और सजे हुए डिस्क पाए गए थे। सांभर की कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।

वर्तमान में नमक-वाष्पीकरण पैन और शोधन कार्य झील के पूर्वी किनारे पर स्थित हैं। सांभर झील के किनारे तीन गाँव बसे हुए हैं, पूर्वी तट पर सांभर, उत्तर-पश्चिमी तट पर नवा और इनके बीच में गुढ़ा। इन गाँवों के लोग नमक उद्योग पर निर्भर हैं। प्रतिवर्ष इस झील से लगभग 2,10,000 टन नमक का उत्पादन किया जाता है। परन्तु कुछ स्थानीय लोग बोरवेल द्वारा पानी की निकासी कर सालाना 15-20 लाख मैट्रिक टन से भी अधिक नमक का उत्पादन करते है जिसके फलस्वरूप आज राजस्थान भारत के शीर्ष तीन नमक उत्पादक राज्यों में से एक है। लगभग 30 -35 वर्ष पूर्व यहाँ मत्स्य व्यापार भी किया जाता था क्योंकि वर्ष 1985 में, सांभर में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी तथा यह स्थिति एक वर्ष तक बनी रहने के कारण यहाँ मत्स्य संसाधनों में वृद्धि कर व्यापार शुरू किया गया। वर्ष 1992 में, फिर से झील में भारी वर्षा के कारण मत्स्य संसाधनों में दुबारा वृद्धि हुई परन्तु पहले चरण में जीवित रहने के बाद जब पानी की लवणता 1से1.20 हो गई तो मत्स्य पालन के लिए खतरा पैदा हो गया, अंततः उनकी मृत्यु हो गई और इसका कोई व्यावसायिक मूल्य नहीं रहा।

सांभर झील के किनारों पर बने नमक वाष्पीकरण की इकाइयां दर्शाता मानचित्र

नमक उत्पादन–वर्तमान स्थिति

वर्तमान में सांभर झील पर 5.1 किमी लंबा बलुआ पत्थर का बांध भी बना हुआ है जो इस झील को दो भागों में विभाजित करता है। खारे पानी की सांद्रता एक निश्चित सीमा तक पहुंचने के बाद, बांध के फाटकों को खोल पानी को पश्चिम से पूर्व की ओर छोड़ दिया जाता हैं। इस बांध के पूर्व में ही नमक के वाष्पीकरण वाले तालाब हैं जहाँ पिछले हजार से भी अधिक सालों से नमक की खेती की जाती है। नमक उत्पादन का नियंत्रण स्थानीय समुदायों से राजपूतों, मुगलों, अंग्रेजों और अंत में आज यह सांभर साल्ट्स लिमिटेड, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड (भारत सरकार) जयपुर विभाग और अजमेर व् नागौर  खनन विभाग (राजस्थान सरकार) के बीच एक संयुक्त उद्योग है। इनके अलावा कुछ निजी ठेकेदार जिनकी भूमि झील के पास स्थित है नमक का उत्पादन करते है।

वहीँ दूसरी ओर देखे तो आज नमक निष्कर्षण की पारंपरिक प्रक्रिया जो मानसून पर निर्भर हुआ करती थी लगभग समाप्त हो गई है। अब ठेकेदार छोटी अवधि में अधिक से अधिक नमक निकालने की कोशिश करते हैं। सांभर झील में नदियों और नालों पानी झील के तलछट के साथ प्रतिक्रिया कर नमक बनाता है, जिसे क्रिस्टलीकृत नमक को पीछे छोड़ते हुए वाष्पित होने में लगभग 50 – 60 दिन लगते हैं। परन्तु आज अधिकांश ठेकेदार इस प्रक्रिया अवधि को 15 – 20 दिनों की करने के लिए भूजल का उपयोग करते हैं तथा इसके लिए गहरे अवैध बोरवेल लगाए गए हैं। भूजल के अत्यधिक इस्तेमाल ने क्षेत्र में भूजल का स्तर लगभग 40 फीट तक कम कर दिया है तथा इस से आस-पास के गांवों में पानी की कमी होने लगी है।

आज ठेकेदारों द्वारा झील से ज्यादा से ज्यादा नमक निकला जाता है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मानवीय हस्तक्षेप

सांभर झील के पारिस्थितिक तंत्र पर खतरे के लिए विभिन्न कारक जिम्मेदार है जैसे की झील के जल ग्रहण क्षेत्र के लैंडयूज पैटर्न में भी बदलाव हो रहा है। नमक उत्पादक इकाइयाँ झील के किनारों के ऊपर आ गई हैं और मेंढा व् रूपनगढ़  से आने वाले पानी को रोक रहीं हैं। हालांकि झील का जल ग्रहण क्षेत्र बहुत विशाल है, परन्तु फिर भी इसे मानवीय हस्तक्षेप के कारण बहुत कम अपवाह प्राप्त हो रहा है। जल ग्रहण क्षेत्र में अनियोजित निर्माण ने वर्षा जल के प्रवाह को भी रोक दिया है। सूखे की वजह से, सरकार ने कृषि के लिए चेक डैम और एनीकट बनाकर पानी की कटाई व् भूजल  के स्तर को सुधारने की एक पहल की। परन्तु इस से, झील का जल प्रवाह पूरी तरह से जल ग्रहण क्षेत्र से बंद हो गया है। पानी में लवणता बढ़ने के परिणाम स्वरूप कुछ प्रमुख नमक निर्माता संसाधनों का दोहन कर रहे हैं तो कुछ कम और सीमांत नमक निर्माता झील की परिधि में उप-मिट्टी से नमक निर्माण कर रहे हैं।

मानवीय हस्तक्षेपों के चलते झील में लवणता बढ़ गयी है जिसके परिणाम स्वरूप आज जीवों की विविधता कम हो रही है जैसे की ग्रीन एल्गी जो शुरू में ताजे पानी में ज्यादा पायी जाती थी, आज पूरी तरह से गायब हो गई है। कभी वर्ष 1982-83 में, 5 लाख से अधिक फ्लमिंगोस को इस झील में गिना गया, तो बड़ी संख्या में पेलिकन भी सर्दियों के दौरान इस झील में एकत्रित हुआ करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में फ्लमिंगोस की संख्या घटकर 20,000 हो गई।

विडम्बना

स्थिति की विडम्बना यह है कि विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों के लिए इसके महत्त्व को समझते हुए भी सांभर को आज एक नमक के स्रोत के रूप में ही जाना जाता है। ऐसा नहीं है की भारत सरकार ने इसके संवर्धन के लिए कोई योजना नहीं बनायीं हैं क्योंकि, यदि वर्ष 2015 की लोकसभा की एक पत्रावली को देखे तो 7.19 करोड़ रुपये राशि सांभर झील के विकास के लिए दिए गये थे; परन्तु जिम्मेदारी पूर्ण नीति के अभाव में सांभर कि आर्द्रभूमि आज संकटग्रस्त है, सरकार को सर्वप्रथम इस स्थान को संरक्षित करना चाहिए तथा इसकी जैव-विविधता को संरक्षित करने के लिए निति बनानी चाहिए।

  

Dr Dau Lal Bohra works on raptor conservation, particularly their mortality related issues along migratory routes across central Asia. He is well familiar with the repercussions that veterinary drugs such as diclofenac may have upon Gyps vultures, steppes eagles, and other vulnerable species. He is also associated with conservation projects based on UNEP/IUCN Migratory Species, particularly in the field of poisoning prevention. Dr Bohra, Now works as Head, Post Graduate Department of Zoology, Seth GB Podar College and runs a UGC minor research project in Bats Biodiversity in central Rajasthan.