टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

 

यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।

टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य

इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।

भील बेरी झरना

इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जि‍सके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई  भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा  हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा ।  वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया।  टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।

टेल्ड जे तितली।

पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर  अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में  Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ।  यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।

थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी  देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति  विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।

स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।

मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma),  कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis  decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी  (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है।  इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius)  ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य  धूसर जंगली मुर्गों  -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।

वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है

यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए  निसंदेह अभिशाप होगी।

वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।

टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव  इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

सभी फोटोग्राफ: धर्मेंद्र खांडल