पाना – पाना में पानरवा  !! “फुलवारी अभ्यारण की एक रोमांचक यात्रा”

पाना – पाना में पानरवा !! “फुलवारी अभ्यारण की एक रोमांचक यात्रा”

अगस्त 1986 में एक दिन कमलनाथ पर्वत और फिर जाडापीपला गांव से जंगलों की पैदल यात्रा करता हुआ मैं ढाला गाँव पहुँचा | यहाँ से पानरवा पहुँचने के लिये एक ऊँचा पर्वत चढकर और फिर एक दूसरे पहाड के बीच से एक दर्रे को पार करना पडता है। पानरवा पहुँचने के बाद फुलवारी अभयारण्य के जंगल भी दिखने लग जाते है। ढाला गाँव में  एक बुजुर्ग अनुभवी भील को साथ लिया जो पहले पहाड की चोटी  तक मुझे रास्ता दिखाने के लिये आगे आया। चढाई कठिन थी लेकिन चढना ही था। पहाड की चोटी पर पहुँचते ही बुजुर्ग ने अपनी उंगली पश्चिम दिशा में करते हुऐ उत्साह से कहा – लो साब ये देखो पाना – पाना में पानरवा !! यानी वह कहना चाह रहा था कि यहाँ से आगे हर पत्ते – पत्ते में पानरवा है। यानी अब आपको रास्ते भर पानरवा का एहसास होता रहेगा। पहाड की चोटी से अभी भी पानरवा कोई 7-8 किमी. दूर था। लेकिन पहाडों पर हरियाली आन्नदित करने वाली थी जो किसी भी दूरी को  थकान रहित करने में सक्षम थी। इस नजारे को बाद में मैनें सेकड़ो बार पैदल चल -चल कर देखा है। पानरवा सुंदर गाँव है जिसका जिक्र कर्नल टाॅड ने भी किया है।

गर्मी में जब तनस ( Ougeinia oogeinsis ) वृक्ष सफ़ेद फूलो से लद जाते है तो पहाड़ो के ढाल जगह – जगह ` फुलवारी ` नाम को साकार कर देते है |

प्राचीन काल में पानरवा एक छोटा ठिकाना रहा है जो तत्कालीन मेवाड़ राज्य के दक्षिणी छोर पर गुजरात सीमा पर स्थित भोमट भूखंड है। तत्कालीन काल में  मेवाड राज्य के अन्तर्गत होते हुये भी यह ठिकाना सदैव स्वायत्तशासी रहा। इस भूखंड की वैद्यानिक स्थिति भूतकाल में अन्य जागीरों से भिन्न रही। यह क्षेत्र भूतकाल में भौगोलिक रूप से अगम्य रहा जिससे वह स्वतंत्र सा रहा। यहाँ सोलंकी शासकों का राज्य रहा जिनका मेवाड की बजाय गुजरात के जागीरदारों से ज्यादा संबंध रहा। पानरवा ठिकाना पूर्ण दीवानी, फौजदारी, माली एवं पुलिस अधिकारों का प्रयोग करता था। यहाँ के ठिकानेदार सोलंकी राजवंश के हैं जो पहले रावत तथा बाद में राणा की उपाधि धारण करने लगे। वर्ष 1478 ई. में अक्षयराज सोलंकी ने पानरवा पर अधिकार किया। तब से आगामी 470 वर्षों तक यह ठिकाना उनके वंशजों के पास बना रहा। 1948 ई. में राजस्थान राज्य निर्माण के बाद जब जागीरी व्यवस्था समाप्त हुई, तब इस सोलंकी ठिकाने का भी राजस्थान के नये एकीकृत राज्य में विलय हो गया। यहाँ सोलंकियों की अभी तक 22 पीढियाँ रही हैं। वर्तमान में 22 वी पीढी का प्रतिनिधित्व राणा मनोहरसिंह सोलंकी करते हैं।

दुर्लभ पीला पलाश ( Butea monosperma var.lutea ) फुलवारी में कहीं – कहीं विघमान है | लाल फूलों के पलाशों के बीच इस उपप्रजाति का पुष्पन दूर से ही नजर आ जाता है |

पानरवा एवं आस-पास के जंगल देखने लायक हैं। ये जंगल जूडा, ओगणा, कोटडा, अम्बासा, डैया, मामेर आदि जगहों तक फैले हैं जो गुजरात के खेडब्रह्म, आन्तरसुंबा व वणज तक फैले हैं। पानरवा के जंगल जैव विविधता, सघनता एवं सुन्दरता के लिये जाने जाते हैं। अक्टूबर 6, 1983, को पानरवा के जंगलों को फुलवाडी की नाल अभयारण्य नाम से एक अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया। वाकल नदी यहाँ के सघन वनों के बीच से निकल कर गऊपीपला गाँव के पास गुजरात में प्रवेश कर जाती है। एक समय था जब यह पश्चिम प्रवाह वाली नदी वर्ष पर्यन्त बहती रहती थी लेकिन अब यह 8-9 माह ही बह पाती है। भले ही कुछ दिनों इसका बहाव रूकता हो लेकिन इसके पाट में जगह- जगह गहरे पानी के दर्रे सालभर भरे रहते हैं। बीरोठी गाँव के पास वाकल नदी में मानसी नदी भी मिल जाती है। इस संगम से गऊपीपला गाँव तक नदी में 34 पानी के दर्रे हैं जो नदी का प्रवाह रूकने के बाद भी वन्यजीवों को पेयजल उपलब्ध कराते हैं।

गर्मी के प्रारंभ में पतझड़ के बाद जब पर्ण विहीन टहनियों पर सफ़ेद – नीले – ललाई मिश्रण वाले रंगों से रंगे कचनार ( Bauhinia ariegata ) पुष्पन करते है तो घाटियों की फिजा ही बदल जाती है |

फुलवाडी की नाल अभयारण्य दक्षिण अरावली क्षेत्र में विद्यमान है। यह अभयारण्य ’’नालों’’ का अभयारण्य कहलाता है। दो पहाडों के बीच गलीनुमा घाटी स्थानीय भाषा में ’’नाल’’ नाम से जानी जाती है। इस अभयारण्य में फुलवाडी की नाल, गामडी की नाल, खाँचन की नाल, ढेढरी की नाल, गुरादरा की नाल, हुकेरी की नाल, बडली की नाल, केवा की नाल आदि प्रसिद्व नाल हैं। अरावली की नाल,  विंद्याचल के खोहों  ( Gorges ) की बनावट में अलग होते हैं। विंद्याचल के खोह ’’U’ आकार के खडे तटों वाले होते हैं लेकिन अरावली की नाल कुछ-कुछ ’’V’’ आकार के होते हैं तथा ढालू तट वाले होते हैं।

 

आदिवासी अपने देवालयों में मनोती पूर्ण होने पर टेराकोटा का बना घोडा अपर्ण करते है आस्था के प्रतिक “ भडेर बावसी” के “ थान “ पर धर्मावाल्म्भियो द्वारा अर्पित घोड़ो का हुजूम |

फुलवारी की नाल एक अद्भुत अभयारण्य है। यह राजस्थान में अरावली का एकमात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ काले धौंक (Anogeisus pendula) का एक भी वृक्ष नहीं है बल्कि काले धौंक का स्थान सफेद धौंक  (Anogeissus latifolia) ने ले लिया। राजस्थान के श्रेष्ठतम बाँस वन इस अभयारण्य में विद्यमान हैं। गामडी की नाल जैसे क्षेत्र में बाँस की ऊँचाई 24 फुट से ऊपर चली गई है। याद रहें वन विभाग के मापदण्ड अनुसार राजस्थान में 24 फुट बाँस को प्रथम श्रेणी बाँस माना जाता है। यह अभयारण्य जंगली केलों (Ensete superbum) की भी शरणस्थली है। केलों के झुरमुट रामकुण्डा वन से लेकर जूडा तक पहाडों पर इस कदर फैले है कि एक बार तो पश्चिमघाट के जंगल भी फीके पड जाते हैं। इस क्षेत्र में जंगली केला, जंगली हल्दी, जंगली अदरक (Costus peciosa),भौमिक ऑर्किड व पश्चिमी घाट तथा प्रायःद्विपीय प्रजातियों का बाँस एवं अन्य वनों में बाहुल्य है जिससे इन्हें ’’दक्षिण भारतीय शुष्क पतझडी वन’’ के रूप में जाना गया है।

फुलवारी अभयारण्य में कटावली जेर, अम्बावी, कवेल, महाद, अम्बामा एवं आम्बा (लुहारी गाँव के पास) क्षेत्र में महुआ वृक्ष राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ महुआकुंज बनाते हैं। इन पर वृक्षीय आर्किडों का नजारा देखने लायक होता है। वर्षा में जब आर्किडों में फूल आते हैं तो वह नजारा अविस्मरणीय होता है। शीशम बेल, सफेद फूलों  का बाँदा (Dendrophthoe falcata), हिरोई बेल (Porana paniculata), श्योनख, पाडल, काली शीशम, बीजा, सादड, मोजाल, उम्बिया, जंगली मीठा करौंदा, कार्वी, हस्तीकर्ण (लीया मैक्रोफिल्ला), उडनगिलहरी, वृक्षीय मकडियाँ, वृक्षीय चीटियाँ, चैसिंगा, वृक्षीय साँपों की चार प्रजातियाँ, चट्टानों पर लगने वाली मधुमक्खी ’’राॅक बी’’ जैसी जैव विविधता की बहुलता इस अभयारण्य को विशिष्ठ बनाती है। वर्षा के बाद एवं सर्दी के आगमन से पूर्व दो ऋतुओं की संधी पर जब यहाँ हिरोई बेल पुष्पन करती है तो लगता हैं मानों जगह – जगह रूई के छोटे – बडे बादल भूमी पर गिर गये हों। यह वह नजारा है जो इस अभयारण्य के नाम को सार्थक करता हैं। यहाँ दुनियाँ का सबसे छोटा हिरण ’’माउस डियर’’ भी पूर्व में देखा जा चुका है लेकिन अभी उसकी स्थिति के बारे में ज्यादा सूचनायें उपलब्ध नहीं हैं। राजस्थान की फल खाने वाली चमगादड ’बागल’ भी सबसे अधिक इसी अभयारण्य में विद्यमान है। एक समय था जब यहाँ बाघों  का बाहुल्य था लेकिन अब वे नहीं रहे।मेवाड के रियासतकालीन शिकारगाहों में जहाँ शिकार होदियों (औदियों) का बाहुल्य है उसके विपरीत यहाँ कोई शिकार औदी नहीं है। यहाँबाघ का शिकार शिकार होदियों की बजाय दूसरी विधियों से किया जाता था। इस अभयारण्य में जुडलीगढ, देवलीगढ एवं भागागढ नामक छोटे- छोटे किले महाराणा प्रताप से संबंधित रहें है जिनमें भागागढ ज्यादा प्रसिद्ध है जो केवल  गाँव के पास सघन वन में स्थित है। मुगलकालीन हमलों में  महाराणा प्रताप यहाँ के जंगलों में रहे थे। उस समय इन किलों का उपयोग विभिन्न कार्यो में किया गया था। अभयारण्य में ’’बीज फाडिया’’ नामक ’फटा’ हुआ पहाड भी देखने लायक है जहाँ भालूओं व भमर नामक मधुमक्खियों का बडा बसेरा हैं।

खाँचन क्षेत्र में वाकल नदी में लंगोटिया भाटा नामक ’’द्वीपीय चट्टान ( Island Rock ) देखने लायक है। आदिवासियों का कहना है कि यह भगवान हनुमान का ’लंगोट’ है जो लक्ष्मण की मूर्छा के समय संजीवनी बूँटी के पहाड को परीवहन के समय हनुमान जी के तन से खुलकर यहाँ गिर गई था। लोग इस चट्टान के प्रति आपार सम्मान का भाव रखते हैं। परिस्थतिकी पर्यटकों हेतु यह लोकप्रिय सैल्फीपोईन्ट भी है।

पफ – थ्रोटेड बैबलर ( Pellorneum ruficeps ) जैसे अनेक दुर्लभ पक्षी फुलवारी के “ नाल – आवासो” में जब – तब देखने को मिल जाते है |

 

पानरवा में ब्रिटिशकाल का एक विश्राम गृह भी है जो वर्षा में ठहरने व सामने वाकल की बहती जलराशी को निहारने का अद्भुत मौका देता है। इस विश्राम ग्रह में रूक कर प्रकृति व स्थिानिय संस्कृति को पास से देखा व समझा जा सकता है।

हो सके तो आप वर्षा से सर्दी तक पानरवा अवश्य जाईऐ और वहाँ के ’पाने-पाने’ से जुुडिऐ। वहाँ ’पाने – पाने’ में पानरवा बसता है! हरा- भरा पानरवा!!