पैसिव प्लांट टैक्सोनॉमी: राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में
जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।
हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?” Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।
भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:
Sr. no. | Period | Name of flora published (year of publication ) | Author(s) | Coverage |
1 | 1947-1980 | Contribution to the flora of Udaipur (1969) | K.D. Ramdev | South- East Rajasthan |
Flora of the Indian Desert (1978) | M.M. Bhandari | Jaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts | ||
Flora of North- East Rajasthan (1979) | S. Sharma &B. Tiagi | North – East Rajasthan | ||
2 | 1981-2000 | Flora of Banswara (1983) | V. Singh | Banswara district |
Flora of Tonk (1983) | B.V. Shetty & R. P. Pandey | Tonk district | ||
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993) | B.V. Shetty & V. Singh | Whole Rajasthan | ||
Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989) | K.K. Sharma & S. Sharma | Whole Rajasthan | ||
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996) | Prasad et al. | KNP Bharatpur | ||
3 | 2001-2020 | The flora of Rajasthan (2002) | N. Sharma | Hadoti zone |
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007) | Y. D. Tiagi & N.C. Arey | South and South- East Rajasthan | ||
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011) | S.K. Sharma | Orchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states ) | ||
Flora of South – Central Rajasthan (2011) | B. L. Yadav & K.L. Meena | South- Central Rajasthan |
ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।
इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।
परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।
हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।
सन्दर्भ:
- Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
- Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
- Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
- Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
- Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
- Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
- Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
- Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
- Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
- Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
- Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
- Shetty , B. V. & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
- Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
- Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
- Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
- Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .