वन्य जीवों के रक्षक :  रणथम्भौर के रेस्क्यूमैन

वन्य जीवों के रक्षक :  रणथम्भौर के रेस्क्यूमैन

“वन्य जीव संरक्षण में रेस्क्यू करने वालों का हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है जो अपनी जानपर खेल कर मुश्किल में फसे वन्यजीवों को सुरक्षित निकालकर उनकी स्थानीय लोगों की रक्षा करते हैं  | ऐसे ही उम्दा कार्य कर रहे हैं रणथम्भौर के रेस्क्यू मैन ! आइये जानते हैं इनके बारे में…”

14 नवम्बर 2016 की उस सुबह रणथम्भौर के पास सटे एक गाँव “खवा खण्डोज”  में सभी गाँव के लोगों में हड़बड़ी सी मच गई क्यों कि उन्होंने एक कुए में एक बाघिन को गिरे हुए देख था और वह जीवित थी। गाँव के लोगों ने तुरंत वन विभाग की रेस्क्यू टीम को बुलाया । टीम को सुचना मिलते ही वे पूरे दस्ते के साथ उस जगह पर पहुंचे लेकिन गांव वालो ने चारों ओर से उस कुए को घेर रखा था । उनके लिए वो सारी परिस्थिति बाघ को बिना सफारी के देख पाने का एक मौका थी। जैसे ही टीम घटना स्थल पर पहुंची तब सबसे बड़ी चुनौती उस भीड़ को दूर करना था क्योंकि उस समय वहां ग्रामीणों के अलावा रणथम्भौर के ट्यूरिज्म से जुड़े हुए लोग , मीडिया के लोग और उन्ही के वाहनों के लम्बी कतारे भी लगी हुई थी । रेस्क्यू टीम व पुलिस प्रशासन ने समझा बुझाकर भीड़ को दूर किया ।उस कुए के अंदर लग भग दो फुट पानी था जो कि , एक संकेत था की यह रेस्क्यू आसान नहीं होने वाला है। क्यों किट्रेंकुलाइज के बाद टाइगर के फेफड़ों में पानी जाने का भी डर था। मीडिया के कई लोग वहां मौजूद थे और पूरी टीम के लोग के मन में एक घबरा हट भी थी कि , कहीं रेस्क्यू सफल नही हुआ तो आगे क्या होगा ये ईश्वर ही जाने। परन्तु साहस रखते हुए पूरी टीम ने योजना बनाई और सबसे पहले टीम के एक सदस्य को बड़े आकार के पिंजरे में बैठाकर रस्सी की मदद से पिंजरे को नीचे भेजा गया।नीचे जाकर उसने बाघिन को ट्रैंक्युलाइज किया । बाघिन के बेहोश होने के बाद टीम के दो सदस्यों को खाटके सहारे कुए में उतारा गया। उन्होंने बाघिन को नजदीक से जाकर देखा तो वह बेहोश थी और उन दोनो ने उसे उठाकर स्ट्रेचर पर रखा और सुरक्षित ऊपर ले आये ।वह बाघिन आज बिलकुल सुरक्षित है।

हज़ारों लोगों की भीड़ और बाघ जैसे बड़े व खतरनाक शिकारी को सफलता पूर्वक रेस्क्यू करने वाली उस टीम के जाबाज़ सदस्य हैं राजवीर सिंह ,  राजीव गर्ग , अतुल गुर्जर , जगदीश प्रसाद जाट और जसकरण मीणा। यह टीम हर वर्ष सैकड़ों वन्य जीवों को रेस्क्यू कर उनकी जान बचाती है। आइये इस आलेख में ऐसा साहसी कार्य करने वाले जांबाज़ों के बारे में जानते हैं |

श्री राजवीर सिंह बाए अवम श्री जश्करण मीना दाये जान पर खेलकर कुए से बाघ को निकालते हुए , तत्पश्चात उसे सुरक्षित जंगल में छोड़ दिया गया |

श्री राजवीर सिंह (वनपाल) :-

वन्य जीवों से प्यार – दुलार ,  उन का पालन पोषण करना , उन्हें कैसे बचाया जाए आदि कार्यों में बचपन से ही रुचि रखने वाले राजवीर सिंह वर्तमान में न केवल रणथम्भौर बल्कि सवाई माधोपुर के आस पास के जिलों तक भी वन्य जीव रेस्क्यू के लिए जाते रहते हैं। राजवीर सिंह का जन्म सवाई माधोपुर जिले की बोंली तहसील के दतुली गांव में सन   1968  में एक साधारण से किसान परिवार में हुआ। इनके पिताजी भी वन विभाग में फॉरेस्ट गार्ड के पद पर कार्यरत थे लेकिन कम आयु में ही उन का देहांत हो गया था तथा राजवी रतब छोटे ही थे। इनकी प्राथमिक व उच्चप्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई और   1988  में उच्च माध्यमिक शिक्षा इन्हों ने जयपुर से प्राप्त की व 23  जनवरी   1992  को इन्होंने अनुकंपा नियुक्ति के तहत जैसलमेर स्थित इंदिरा गांधी नहर परियोजना नर्सरी में फॉरेस्टगार्ड ( वन रक्षक ) के पद पर ज्वाइन किया । लेकिन  1995  में इन का पदस्थापन रणथंभौर बाघ अभ्यारण में हो गया और तब से लेकर आज तक ये वन्य जीव रेस्क्यू टीम रणथम्भौर में ही कार्यरत हैं।

पिछले 26 वर्षों से रणथम्भौर में कार्यरत रहते हुए इन्होने बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किये हैं तथा कई कठिन रेस्क्यू को सफलतापूर्वक अंजाम देते हुए सैकड़ों वन्य जीवों के प्राण बचाये हैं। राजवीर बताते हैं कि,  वैसे तो हर रेस्क्यू ऑपरेशन अपने आप में कठिन व चुनौतियों से भरा होता हैं परन्तु कुछऐ से हैं जो आज भी उनके ज़हन में ज्यों के त्योंहैं।

वर्ष  2011  में ,  रणथंभौर बाघ अभयारण्य से सटे हुए गांव भूरी पहाड़ी में एक रात  T7  नामक बाघ ने गांव के अंदर घुसकर एक भैस के बच्चे का शिकार किया और रात भर वहीं बैठा रहा। अगली सुबह जैसे ही गांव वालों को पता चला तो सारे गांववाले इकट्ठे होकर चारों ओर से उसे भगाने का प्रयास करने लगे और बाघ खेतों में चला गया ।तभी गाँव वालों ने वन विभाग को सूचित कर मदद मांगी ।सुचना मिलते ही वन विभाग की पूरी रेस्क्यूटी मतत्कालीन उप वन संरक्षक दौलत सिंह के साथ घटना स्थल पर पहुंची लेकिन वर्षा होने के कारण विभाग की गाड़ी अंदर तक नहीं जा सकती थी। और गाँव वाले चारों ओर से शोर मचा रहे थे तथा वन विभाग रेस्क्यू टीम को मारने पर उतारू होरहे थे। परिस्थिति को देखते हुए टीम को मजबूर होकर पैदल ही बाघ को ट्रेंकुलाइज करने के लिए आगे बढ़ना पड़ा और वहां जा कर टीम एक छोटे टीले पर खड़ी हो गई ।जैसे ही गांव वालो ने फिर से शोर –शराबा मचाना शुरू किया तो बाघ झाड़ियों में छिपने के लिए रेस्क्यू टीम की दिशा में आगे बढ़ा लेकिन टीम को बिलकुल भी अंदेशा नहीं था। हालाँकि सारे गांव वाले वस्टाफ के अन्य लोग पूरा नज़ारा साफ़ देख रहे थे । इससे पहले कोई टीम को सूचित करता दौलत सिंह को बाघ ठीक उनके सामने दिखाई दिया। बाघ को सामने देखते ही टीम ने उससे बचने की पूरी कोशिश की परन्तु वह घबराया हुआ था और बाघने पालक झपकते ही दौलत सिंह पर हमलाकर उन्हें नीचे गिरा दिया ।अपने सामने बाघ को देखते हुए भी राजवीर ने हिम्मत नही हारी और डंडे के बल से डरा धमकाकर दौलत सिंह को बाघ के कब्जे से छुड़ा लिया और उन्हें तुरंत चिकित्सीय सुविधा के लिए जयपुर ले जाया गया। तथा उस बाघ को सरिस्का भेज दिया गया ।राजवीर बताते हैं कि , यह उनके जीवन का सबसे कठिन रेस्क्यू ऑपरेशन था भले ही यह एक दुखद घटना में परिवर्तित हो गया लेकिन इसमें बाघ का कोई दोष नहीं था वह बस भीड़ से बचने कि कोशिश में था और यह हादसा हो गया । इसी सिलसिले में राजवीर को एनडीटीवी के माध्यम से अमिता भबच्चन द्वारा और उस वक्त के मुख्य मंत्रीअशोक गहलोत आदि के माध्यम से कई अवार्ड भी मिले व सम्मान भी मिला जिन्हें सारे राजस्थान वासियों ने देखा व उनका साहस बढ़ाया ।

राजवीर अब तक एक हजार से ऊपर वन्य जीवों का रेस्क्यू कर चुके हैं जिनमे  35  से अधिक रेस्क्यू बाघ के भी किए हैं ।स्टाफ के अधिकारियों का मार्गदर्शन व साथियो के मिल रहे सहयोग से ये रोज किसीन किसी बेजुबान वन्य जीव की जिंदगी को नया जीवन देने में कामयाब होर हे हैं।

राजवीर बताते हैं कि ,एक बार छान गांव से सूचना मिली कि , गांव में अंदर खेतों की तरफ बाघ घुस गया है । वे पूरे दस्ते के साथ वहां पहुचे तो गांव वालों ने कहा कि , “साहब गाड़ी को आगे तक ले जाओ आगे कोई समस्यानही है” । उनके कह ने पर टीम गाड़ी सहित आगे चली तो गई पर उन्हें पता नहीं था कि , आगे कोनसी मुसीबत आने वाली थी। टीम वहां पर पहुंची और बाघ   T28  को ट्रेंकुलाइज किया और उसे पिंजरे में डाल गाड़ी में रख लिया । लेकिन जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ाई गई तो सारे गांव के लोगों ने इकट्ठे होकर विभाग की गाड़ी का घेरावकर लिया और बोलेकि, “गाड़ी नही निकालने देंगे , तुम लोगों ने हमारी फसले नष्ट कर दी” । इसके अलावा वहां कुछ लो गऐ से भी थे जो केवल उत्पात मचाने के मकसद से वहां इकट्ठे हुए थे और उन्होंने चारों ओर से पत्थर बाजी शुरू कर दी । टीम के लोगों को चोटें भी आई लेकिन उन्होंने जैसे – तैसे करके गाड़ी में छिपकर जान बचाई । साथ ही उस समयमौ के पर ही विभाग ने   60000  रुपये उनको फसल के नुक्सान के ऐ वजमें मुआवजे के रूप में सौंपी ।हालांकि नुकसान कुछ नही हुआ मिर्ची लोग तोड़ चुके थे लेकिन हंगामा खड़ाकर के पैसे लेना ही उनका मकसद था। परन्तु इस सारे उत्पात में बहुत समय व्यर्थ हो चूका था और बेहोश बाघ को नही रिवाइवल मिल स्का और नही पानी ।मार्च का महीना था और दिन का एक बज चुका था गर्मी बहुत तेज थी। जिसके चलते बाघ मर चुका था । टीम के लोग बताते हैं कि , अगर गाँव वाले पत्थर बाजी और हंगामा नहीं करते तो उस बाघ को आसानी से जीवित बचाया जा सकता था।

इसी प्रकार की एक अन्य घटना   17   जुलाई   2012   को भी घटी थी जब खण्डार के मेई कला गांव में बाघ  T20  ने गांव के अंदर घुसकर एक बैल का शिकार किया था। लेकिन गांव में ऐसी घटनाएं होने के समय ग्रामीणों की कुछ पूर्व नियोजित ज्वलंत मांगे भी जिंदा हो जाती है जैसे कि,  पशुओ की चराई ,जंगलो में ईंधन के लिए लकड़ी कटाई , वन्यजीवों से मानव वपशुओं की सुरक्षा आदि । इन मांगों को लेकर ऐसे मौकों पर यह ग्रामीण लोग विभाग के कर्मचारियों से बदला लेने की धारणा रखते हुए उनके कार्यों में अड़ चने पैदा करते हैं। इस घटना की सुचना जैसे ही विभाग को मिलीतो उससे पहले ही पुलिस प्रशासन वहां पर पहुंच चुका था गांव वालों ने पुलिस प्रशासन के साथ बदसलूकी की व उनको पकड़कर गाँव के स्कूल में बंदकर दिया। ऐसे माहौल को देखकर रेस्क्यू टीम घटनास्थल से  5  किलोमीटर की दूरी पर ही रुक गई और बाद में वहाँ के स्थानीय जनप्रतिनिधि व आस पास के ग्रामीणों की समझाइशके बाद जब मामला शांत हुआ तो टीम घटनास्थल के लिए रवाना हुई । गाँव वालों का आक्रोश देखकर ये अनुमान था कि , गाँव वाले मुश्किल जरूर खड़ी करेंगे इसीलिए रेस्क्यू टीम के सभी सदस्यों ने खुद को वन विभाग का न बताकर अपना हुलिया बदल लियात था इस से भीड़ शांत होकर वहां से हट गई। गांव के पास स्थित नाले के पीछे बाघ बैठा था टीम ने गाड़ी को सीधा नाले के पास लगाया और जैसे ही बाघ दिखा तुरंत उसे ट्रेंकुलाइज किया गया तथा बाघ व टीम सभी सुरक्षित निकलकर वापस आ पाए।

डॉ राजीव गर्ग बाए रंथाम्भोरे में बाघिन का उपचार करते हुए . डॉ गर्ग ने सेकेड़ो बाघ अवम बघेरों को बचाने में मुख्य भूमिका निभाई है |

 

डॉ . राजीव गर्ग :-

पेशे से एक पशु चिकित्सक होने के नाते डॉ. राजीव गर्ग की रेस्क्यू टीम में भूमि का बहुत अहम रहती है। राजीव गर्ग,  सवाई माधोपुर के रहने वाले हैं और वर्तमान में वरिष्ठ पशुचिकित्सा अधिकारी सवाईमाधोपुर के पद  पर तैनात हैं। वर्ष   1995 में ये राजकीय सेवा में शामिल हुए औऱ अब तक लगातार हजारो पशु वन्य जीवोंका चिकित्सीय उपचार कर चुके हैं। डॉ. राजीव का कहना हैं रणथम्भौर नेशनल पार्क देश व दुनियाभर में प्रसिद्ध है यहां आए दिन बाघ जंगल से बाहर की तरफ निकल जाते हैं ऐसे में उनको रेस्क्यू के लिए सुव्यवस्थित रेस्क्यू यूनिट , पर्याप्त संसाधन ,अच्छे चिकित्सक व सुगम इलाज बेहद जरूरी हैं और इसमे भी विशेषकर जब ऑपरेशन की जरूरत होती है तो एक चिकित्सक की बहुत बड़ी भूमिका रहती है।

डॉ. राजीव एक  घटना को याद करते हुए बताते हैं कि , एक बार कुतलपुरा जाटान के पास एक बाघने एक वनकर्मी  के सीने पर दोनों पैर  रखते हुए उसे लहूलुहान कर दिया था  और ग्रामीण लोगों ने आसपास भीड़ लगा रखी थी।रेस्क्यू टीम ने घायल वनकर्मी को बचा तो लिया परन्तु बाघ लगातार आबादी क्षेत्र में घूमता रहा। बाद  में  क्षेत्रीय  निदेशक के आदेश पर  रेस्क्यू टीम का गठन किया जिसमें चिकित्सक के रूप में डॉ राजीव थे और रेस्क्यू टीम ने वहां पहुंच कर उस जगह को तलाशा जहां पर बाघ का लगातार मूवमेंट था।बाघ के पगचिन्हों के आधार पर बाघ को ढूंढ लिया गया और उस जगह को चारों ओर से देखा क्योंकि रेस्क्यू करने से पहले एक समुचित व सुगम स्थान की आवश्यकता होती है जो कि , वहाँ पर्याप्त था।तभी टीम ने बाघ को डाट किया और वह थोड़ा आगे निकल गया।कुछ दूर जाकर बाघ एक झाडी के निचे जाकर बैठ गया व होश हो गया।टीम ने तुरंत उसे रेस्क्यू किया बाद में इसको वहां पर चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए गाड़ी में बिठाकर फलौदी क्षेत्र में ले जाकर छोड़ा था उस समय वह क्षेत्र टाइगर के पर्यावास के लिए नया था।

ऐसे ही एक बाघ करौली क्षेत्र में लगातार ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहा था जिससे जनहानि भी हुई और ग्रामीण लोगों में दहशत भी बन गई।जिसका रेस्क्यू करना जरूरी हो गया था जैसे ही रेस्क्यूटीम को आदेश मिला तो टीम करौली पहुच गई।परन्तु वहां पर एक समस्या थी कि टाइगर के दिन में दिखने की  आशा बहुत कम थी तथा वहां काफी सारा  क्षेत्र माइंस का है।टीम सुबह जल्द ही उस क्षेत्र पर पहुंची जहां पर उसका लगातार मूवमेंट था वहां मुख्य सड़क के पास स्थित एक गोशाला को टीम ने अपना कैंप बनाया और वही से चारो तरफ उसे खोजना शुरू किया तो देखा कि बाघ ने एक सांड का शिकार किया गया था।लेकिन टाइगर वहाँ से आगे था उस जगह पर पहुँच पाना सम्भव नही था लेकिन जैसे ही शाम होगी तो यह निश्चित था कि टाइगर उस सांड के पास जरूर आएगा और टीम लगातार निगरानी करती रही।शाम के 5 बज चुके थे टीम पूर्ण रूप से अलर्ट थी और आस पास का स्थान रेस्क्यू के लिए भी सुगम था।बाघ के वहां आते ही तुरंत उसे ट्रेंकुलाइज के लिए डाट किया और डाट लगने के बाद वह उल्टियां करने लगा फिर हमने बर्फ की सिल्लियों के  साथ उपचार कर उसे पिंजरे की वेन में बंद किया और उसे रणथम्भौर स्थित भीड़ एनक्लोजर में लाकर बन्द किया गया उसके ट्रंकुलाइज से पशुपालकों व किसानों ने उसकी दहशत से राहत की सांस लेकिन पर्यटन से जुड़े हुए लोग,प्रकृति व वन्यप्रेमीबन्धुओ में मायूसी छा गई।

ऐसे ही टाइगर-24  के बारे में इनका कहना हैं कि  छ लगातार जनहानि की घटनाओं को देखते व विशेषज्ञों की सलाह को मध्यनजर रखते हुए राज्य सरकार द्वारा टी-24  को सज्जनगढ़ उदयपुर में शिप्ट करने का फैसला हुआ मई 2015  में इसे रणथम्भौर से उदयपुर स्थित बायोलॉजिकल पार्क,सज्जनगढ़ में शिफ्ट किया गया और यह पहला ही मामला था जब किसी टाइगर को रेस्क्यू करके सड़क मार्ग के द्वारा दूसरे पार्क में शिप्ट किया गया  नही तो आज तक हवाई जहाज के द्वारा ही टाइगर को एक से दूसरे पार्क में ले जाया गया हैं।

टी-24  को रेस्क्यू के लिए यहां के क्षेत्रीय निदेशक के नेतृत्व में एक टीम  का गठन हुआ जिसमे मैं एक चिकित्सक के रूप में शामिल था हमने उस टाइगर को वॉच करना शुरू किया लेकिन वह हम नही मिल पा रहा था उसको ढूंढते-ढूंढते तीन दिन बाद वह जॉन no.3 में टी-39 (मादा) के साथ एक तलाब के पास विचरण करता हुआ मिला काफी समय तक दोनों एक साथ विचरण करते रहे तो रेस्क्यू करने में समस्या थी हमने इंतजार किया बाद में टी-39 जैसे वहां से अन्यत्र चली गई तो हमने उस रास्ते पर वेट लगाया जो रास्ता पानी की तरफ नही जाता हैं तथा पानी वाले रास्ते पर हमने हमारी सारी गाड़ियां लगा दी ताकि गलती से भी टाइगर पानी की तरफ क्रॉस न कर सके हमने मौका पाते ही उसे डाट किया तो वह सामने एक पहाड़ी थी उस पर चढ़ गया वहाँ जाकर वो बेहोश हुआ तो उसे बड़ी मुश्किल नीचे लाया गया सुबह के 10 बज रहे थे बहुत तेज गर्मी थी हमने वेन के पास में नीचे जामुन की पत्ती बिछाई व बर्फ द्वारा स्प्रे के लिए तैयार किया गया बाद में हमने टाइगर को चिकित्सीय इलाज किया और वेन में सवार किया पूरे रास्ते मे बर्फ की स्प्रे करते रहे यानी कि उस केज को हमने एक वातानुकूलित केज बना दिया टाइगर काफी आराम से बैठकर गया था तथा उस भयंकर गर्मी में हमने टी-24 को 12 घण्टे की यात्रा के बावजूद पूर्ण रूप से सुरक्षित सज्जन गढ़ ले जाकर छोड़ा यह काफी लंबा रेस्क्यू था और मेरे लिए भी यह काफी महत्वपूर्ण टाइगर रेस्क्यू था।

इनका कहना कि अब तक 50 से अधिक टाईगर रेस्क्यू ऑपरेशन मेरे द्वारा किए जा चुके हैं और जहाँ तक वन्यजीवों के लिए जो कुछ मैंने किया हैं वो मैंने खुद से ही प्रेरणा लेकर यही से सीखा हैं मैंने इसके लिए कोई अलग से ट्रेनिंग नही ली हैं और नही वाइल्डलाइफ से सम्बंधित कोई अध्ययन किया हैं जो भी किया हैं मेरे ही अनुभव कोसाझा करते हुए किया हैं व सीखा हैं जामडोली जयपुर में वाइल्डलाइफ से सम्बंधित एकट्रेनिंग इंस्टिट्यूट हैं वहां पर वाइल्डलाइफ का भी कोर्स होता हैं उसमे मेने लेक्चर दिया हैं वहां पर ट्रेनिंग ले रहे लोगो के साथ मेरे अनुभव को साझा किया हैं उससे पहले भी मैं इसी इंस्टिट्यूट में वाइल्डलाइफ से सम्बंधित ट्रेनिंग दे चुका हूं साथ ही कुछ समय पहले करौली में भी मुझे उप वनसंरक्षक ने वहां के स्टाफ को ट्रेनिंग देने के लिए आमंत्रित किया था मैंने एक दिन का प्रशिक्षण व मेरा अनुभव उनके साथ भी साझा किया था।

रंथाम्भोरे के नए रेस्क्यू मेन श्री अतुल गुर्जर ( मध्य ) रेस्क्यू की विधा में अब्निपूर्ण हो गए है |

 

श्री अतुल गुर्जर :- 

30 जुलाई 1991 को सवाईमाधोपुर जिले की गंगापुरसिटी तहसील के रेंडायल “गुर्जर”  गांव में भारतीय सेना के रिटायर्ड हवलदार सियाराम गुर्जर के घर जन्मे अतुल गुर्जर आज रणथम्भौर अभयारण्य में वनरक्षक के पद पर कार्यरत हैं।वर्तमान में ये वनपाल के अतिरिक्त प्रभार के साथ आमली नाके पर तैनात हैं।इन के परिवार में दो बच्चे भी हैं जो अभी छोटे हैं वे पढाई कर रहे हैं इनकी पत्नी ग्रहणी होने के साथ-साथ बच्चो की देखरेख में लगी रहती हैं।इनका परिवार अधिकांशतः भारतीय सेना से जुड़ा हुआ है लेकिन ये शिक्षक बनना चाहते थे जिसके लिए इन्होने बी.एड. भी की।शिक्षक कम्पीटीशन के दौरान ही जून 2016 की वनरक्षक भर्ती परीक्षा में इनका चयन रणथम्भौर अभयारण्य स्थित जोगीमहल नाके पर वनरक्षक (फॉरेस्टगार्ड) के पद पर हो गया।बाद में प्रकृति व वन्यजीवों से बढ़ते लगाव को ध्यान में रखते हुए ये अपनी स्वेच्छा से रेस्क्यू टीम में चले गए और अगस्त  2017 से 2020 तक रेस्क्यू टीम के सदस्य रहे।

अतुल बताते हैं कि, रेस्क्यू टीम में आने के बाद इन्होने विभिन्न वन्यजीवों के रेस्क्यू में भाग लिया।

अप्रैल    2019  में इन्होने नर बाघ  T-91  को रामगढ़ विषधारी अभयारण्य बूंदी से रेस्क्यू कर के मुकुन्दरा हिल्स टाइगर रिज़र्व में शिप्ट करने के ऑपरेशन में भाग लिया था। नर बाघ  T-91  पहले रणथम्भौर अभयारण्य में विचरण कर रहा था लेकिन घूमता हुआ वह रामगढ़ विषधारी तक पहुंच गया। बाद में सभी अधिकारीयों ने विचार विमर्श से इस बाघ को मुकुन्दरा हिल्स भेजने का निर्णय लिया क्यों कि मुकुन्दरा हिल्स को भी टाइगर रिज़र्व की तरह विकसित करना था।

सीसीएफ के आदेश के बाद रेस्क्यू टीम रामगढ़ विषधारी बूंदी के लिए रवाना हुई और वहां पहुँचकर वहां के सम्बन्धित डीएफओ से इस रेस्क्यू के बारे में चर्चा की।इस रेस्क्यू में सीसीएफ रणथम्भौर वाई के साहू,टाइगर वॉच रणथम्भौर से कन्जर्वेशन बायलॉजिस्ट धर्मेंद्र खाण्डल,वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ.  राजीव गर्ग ,डॉ. अरविंद कोटा और जयपुर की रेस्क्यू टीमें भी शामिल थी।

जैसे ही टीम रेस्क्यू करने के लिए उस स्थान पर पहुंची तो वहां की स्थिति थोड़ी विपरीत थी।वह बाघ रणथम्भौर से निकल कर गया था लेकिन रामगढ में आकर मानवीय व्यवहार व वाहनों की आवाज को सुनकर झाड़ियों में छिपने की कोशिश करता था यानी वह अकेला बाघ एक तरह से डर-डरकर रहता था।टीम ने बाघ की निगरानी व उसे एक जगह पर बुलाने के लिए कैमरा ट्रेप के साथ बेट (एकशिकार – बछड़ा) भी बाँधा व बाघ को ढूंढना शुरू किया।बाघ कहीं दिखाई नहीं दिया फिर दो दिन बाद सुबह के 5-6 बजे बाघ बेट के पास आया तो कैमरा फ्लैश मारने लगा जैसे ही टीम ने कैमरा का फ्लैश देखा तो उन्होंने वहां जाकर उसको ट्रेंकुलाइज किया।बाघ वहां से हटकर थोड़ा दूर जाकर नाले में जाकर बैठ गया और पूरी टीम ने सर्च करना शुरू किया तो बाघ नाले के पास ही मिला तब तक वह बेहोश हो चुका था।बाघ को तुरंत गाड़ी में बिठा कर मुकुन्दरा शिप्ट किया गया और पूरी टीम के लिए ख़ुशी का मौका था क्योंकि मुकुन्दरामें  पहला बाघ ले जाने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ।

अतुल बताते हैं कि, यह कार्य हमारी टीम के लिए एक चुनौती पूर्ण कार्य था क्योंकि रणथम्भौर हमारे लिए होम ग्राउंड की तरह हैं तो दूसरी जगह जाकर बाघ को रेस्क्यू करना हम समझते हैं कि कार्य चुनौती भरा हैं आखिर कार हम सफल हुए।

आगे अतुल बताते हैं कि , एक बार सूचना मिली कि रणथम्भौर सेंचुरी से सटे गांव छान में बाघ T23 घुस गया है और उसका रेस्क्यू करना है।रेस्क्यू टीम तैयार हुई और पूर्ण दस्ते के साथ छान गांव पहुंची।रात का समय था और छान एक बड़ी आबादी का गांव था और ऐसी जगह से बाघ को रेस्क्यू करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। तो टीम ने देखाकि, गांव के अंतिम छोर की तरफ एक मकान के पीछे नाले के ऊपर बीच रोड़ पर बाघ गाय के शिकार को खा रहा था।उसके पास गांव के लोगो का भी मूवमेंट था तथा बाघ बार-बार डिस्टर्ब भी हो रहा था इसलिए उसे ट्रेंकुलाइज करना जरूरी था।टीम ने बाघ को ट्रेंकुलाइज किया और जैसे ही वह बेहोश हुआ तो उसे गाड़ी में बिठा लिया तब तक रात के 1 बज चुके थे।आस पास लोगो का हुजूम लग गया था और टीम गांव के अंतिम छोर पर थी तथा बीच गांव में होकर गाड़ी को निकालना काफी कठिन था।तभी टीम ने बोदल नाके से एक और गाड़ी बुलवाली और लोगो को समझाते हुए वहां मौजूद भीड़ को तीतर बितर किया व बाघ को सुरक्षित लेकर आ गए और इंडाला डांग मेंले जाकर उसे छोड़ दिया।

अतुल बताते हैं कि घनी आबादी और भीड़ भाड़  वाले क्षेत्र में वन्यजीवों को रेस्क्यू करने में काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है कभी कभार स्थानीय लोगों और विभाग के बीच आपसी संघर्ष भी हो जाता है। ऐसी ही एक घटना रणथम्भौर अभयारण्य से सटे एक गांव कुंडेरा की है। जनवरी 2019 की एक सुबह विभाग को सूचना मिली कि, एक बाघ ने एक महिला को मार दिया हैं।उस समय सारे गाँव के लोगों में आक्रोश भरा हुआ था और हर तरफ हंगामा मचा हुआ था ।ऐसी स्थिति में वनविभाग टीम का वहां जाना बहुत ही जोखिम भरा कार्य था। फिर भी टीम को हिम्मत व सूझबूझ से कार्य करना जरूरी था।टीम साहस जुटाकर घटनास्थल पर पहुंची तो चारों तरफ लोगों की भीड़ लगी हुई थी।बाघ उस महिला को मारकर पास स्थित सरसों के खेतों में चला गया था।जब वहां जाकर बाघ के पगमार्क मिलेतो कुछ दुरी पर एक नाले के पास बाघ ने नीलगाय का शिकार कर रखा था।रात का समय था तो उस दिन टीम सिर्फ कैमरा लगाकर वापस लौट आई।फिर घटना के तीन दिन बाद रेस्क्यूटीम व पुलिस प्रशासन की टीम वापस उसी जगह पर पहुंची जहाँ बाघ ने नीलगाय का शिकार किया था।क्योंकि लोगो की भीड़ बढ़ गई थी तो प्रशासन का सहयोग जरूरी था।महिला की मौत की वजह से बाघ के प्रति लोगो मे काफी रोष था इसलिए टाइगर को रेस्क्यू करना बेहद जरूरी था।यानि कि, रेस्क्यूटीम के सामने एक बड़ी चुनौती थी ।बाघ उस नीलगाय के शिकार को घसीटकर पास में सरसों के खेत मे ले गया था तो टीम ने उसे घसीट के निशान को देखते हुए उसका पीछा किया परन्तु सरसो की फसल में यदि बाघ बैठा हो तो उसे देख पाना मुश्किल था इसीलिए टी\म ने ड्रोन कैमरा इस्तेमाल किया जिससे पता चला कि, टाइगर थोड़ा आगे किल के पास ही बैठा हैं।लेकिन गाड़ी को देखकर टाइगर आगे आगे जंगल की ओर चल पड़ा तो उस वक्त डीएफओ ने होशियारी दिखाते पास में वनविभाग के थर्मल कैमरे के ओपरेटर को कॉल लगाकर टाइगर की लोकेशन स्पष्ट करने को कहा तो वहां से ओपरेटरने बताया कि, “टाइगर आपके बांयी ओर कुछ ही मीटर की दूरी पर आगे की ओर जा रहा हैं”। फिर बाघ खेत की मेड पर चलता हुआ आगे की तरफ बढ़ रहा है थोड़ा पास जाकर उसे ट्रेंकुलाइज किया गया और थोड़ी देर बाद बाघ बेहोश हो गया।शाम का समय हो गया था लोगो मे बाघ को देखने की जदोजहद थी लेकिन पूरी टीम ने ततपरता दिखाते हुए बाघ को गाड़ी में शिप्ट कि या व वहां से रवाना हो गए।बाद में उसे अंदर जंगल में ले जाकर छोड़ दिया।

अतुल रेस्क्यू टीम से आने के बाद फील्ड में भी रेस्क्यू करते रहते हैं। अतुल बताते हैं कि, “मैं आज भी हमारी रेस्क्यू टीम के इंचार्ज वनपाल राजवीर सिंह को अपना आदर्श मानताहूं उनके साथ में मैंने 400  से अधिक वन्यजीवों के जीवन को बचाया हैं।उच्चाधिकारियों का मार्गदर्शन तो मुझे मिला ही हैं लेकिन वनपाल राजवीरसिंह से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला।मेरे रेस्क्यू कार्यकाल में विभाग के लिए मैंने जितने भी अच्छे कार्य किए हैं मैं उनका श्रेय वनपाल राजवीर सिंह को देता हूं”।

श्री जगदीश प्रशाद जाट ने अनेको बार रेस्क्यू के कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. श्री जाट हिम्मत में जज्बे से हर समय मुश्किल रेस्क्यू के दोरान आगे रहते है |

श्री जगदीश प्रसाद जाट :-

वर्तमान में रणथम्भौर बाघ अभयारण्य में फ़्लाइंग टीम में कार्यरत जगदीश प्रसाद जाट वनरक्षक न होकर राजस्थान होम गार्ड सेवा के माध्यम से वन विभाग में ड्राईवर के पद पर कार्यरत हैं।  7  दिसम्बर  1980  को इन का जन्म सवाई माधोपुर नगर से सटे हुए कस्बा ठीगला में हुआ था । इनका शिक्षा से इतना लगा वन ही रहा साथ ही परिवार भी किसान वर्ग से था तो आठवी पास करने के बाद परिवार के साथ खेती –बाड़ी केकार्यमेजुटगएऔरबादमेंसन 2005 मे राज्य होम गार्ड सेवा में इनका सिपाही के पद पर चयन हुआ । इनकी प्रथम पोस्टिंग भी इन्हें वन विभाग के अधीन कुशाली पूराना के पर मिली उसके बाद से लेकर आज तक ये वन विभाग मे ही कार्य रत हैं।

वन विभाग मे आने के बाद इन्होंने अपने स्टाफ के साथीयो से प्रकृति ववन्य जीवो के महत्व के बारे में काफी कुछ सीखा बाद में इनकी कार्य करने की रुचि बढ़ती चली गई और सन   2012  में ये स्वेच्छा से वन्य जीव रेस्क्यू टीम आ गए । वहां साथी ववरिष्ठ सदस्यों के मार्ग दर्शन में रहकर  “वन्य जीवों को कैसे बचाए ” इस बारे में इन्होंने काफी कुछ सीखा बाद में ये रेस्क्यू टीम के साथ – साथ बाघ परियोजना परिक्षेत्र , नगर परिषद व जिले के आस पास के कई शहर व कस्बो में जाने लगे जिससे इनको काफी अनुभव हो गया। जगदीश प्रसाद बताते हैं रेस्क्यू टीम में आने से पहले भी इन्हें टाइगर रेस्क्यू के लिए जाने का मौका मिला है । सन  2009  में    NTCA  द्वारा एक गाइडलाइन जारी हुई जिसमें रणथंभौर बाघ परियोजना से सरिस्का के लिए टाइगर शिफ्ट करने का प्रस्ताव था। उसमें   T-44  को सरिस्का में शिप्ट करने की मंजूरी मिली थी उस कार्य के लिए डीएफओ द्वारा एक टीम गठित की गई जिसमें जगदीश उस टीम के ड्राइवर थे ।  T-44  ( मादा )  खंडार के पास स्थित वन क्षेत्र में दूध बावड़ी के आस पास में रहती थी । रेस्क्यू टीम ने बाघिन को ढूंढा उसे ट्रेंकुलाइज करने की योजना बनाई । मौका मिलते ही बाघिन को ट्रेंकुलाइज कर दिया गया और वह थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ के पास बैठ गई और   20  मिनट बाद में वह जैसे ही बेहोश हुई तो टीम ने उसके मुँह पर कपड़ा रखा और स्ट्रेचर पर डाल दिया । बाघिन कोरेडियो कॉलर लगाया गया और रिवाइवल देकर केंटर में रखे पिजरे में शिप्ट कर दिया । बाद में उसे हेलीकॉप्टर से सरिस्का ले जाया गया और वहां जाकर उसे एनक्लोजर में छोड़ दिया गया । जगदीश सरिस्का तक इस पूरे रेस्क्यूमें साथ में थे बाद सरिस्का में टाइगर छोड़ने के बाद वहां के विभाग , आस पास के पर्यावरण व वन्य प्रेमियो में खुशी की लहर छा गई तथा और बाघों को सरिस्का भेजने का प्रयास किया जा रहा था ।

इसी क्रम एक नर बाघ   T-12  अक्सर रणथम्भौर के बाहरी इलाके में घूमता रहता था तथा उसे सरिस्का भेजने कि योजना बनाई गई । रेस्क्यू टीम डीएफओ के निर्देशन में सुबह   8  बजे अणतपुरा के पास चिरौली वन्य क्षेत्र में पहुंच गई जहाँ पर कभी – कभार   T-12  का मूवमेंट रहता था । वहा इस टाइगर को लगातार खोज जारी थी और कुछ समय बाद बाघ मिल गया । वह सामने ही दिख रहा था लेकिन जैसे ही टीम पास जाने की कोशिश करती तो टाइगर वहां से भाग जाता ।

इस मशक्कत में दिन के   11  बज चुके थे तभी डीएफओ का मैसेज आया कि , “पूरी टीम वहां से रवाना होकर कुंडाल वन क्षेत्र पहुँचे ” और आदेश की पालना करते हुए पूरी टीम तुरन्त कुंडाल वन्य क्षेत्र पहुंच गई तब तक दोपहर के   12  बज चुके थे । वहां जाकर देखा तो   T25  एक नाले की बगल में एक बैल के किल पर बैठा था । टीम ने तुरंत बाघ को ट्रेंकुलाइज करने की योजना बनाई और वहां पर नाले का आस पास का हिस्सा था वह एक समतल सपाट क्षेत्र था तो मौका देखकर उसे डाट दी तो बाघ कुछ दूर जाकर एक झाडी के पास लेट गया व बेहोश हो गया । बाघ को तुरंत रेडियो कालर लगा या गया और रिवाइवल देकर उसे स्ट्रेचर द्वारा पिंजरे में शिप्ट किया गया बाद में उसे सड़क मार्ग से सरिस्का ले कर गए थे । परन्तु यह रेस्क्यू जितना सरल लग रहा है वास्तव में उतना सरल था नहीं । उस समय गर्मियों के दिन थे और रात के  8  बज चुके थे । टीम में ताप मान ठंडा रखने के लिए पिंजरे के ऊपर बर्फ की सिल्लियां लगाई थी । जगदीश पिंजरे वाली गाड़ी से आगे वाली गाड़ी चला रहे थे जिसमें   100 – 100  लिटर पानी की चार टंकी थी और एक   200  लीटर पानी की टंकी पिंजरे वाली गाड़ी में भी थी । जिसमें एक व्यक्ति लगातार पिंजरे पर पानी डालता रहा यानी कि ,  सरिस्का पहुचने तक   1000  लीटर पानी खर्च कर दिया ताकि बाघ को गर्मी से बचाया जा सके । बाद में सरिस्का के अंदर उसे एनक्लोजर में जाकर छोड़ दिया गया ।

जगदीश बताते हैं कि ,  कई बार रेस्क्यू इतना मुश्किल होता है कि , टीम के लोगों की जान पर ही बन आती है । ऐसी ही एक घटना वे बताते हैं जब वे रेस्क्यू टीम के साथ जंगल के अंदर ही थे । शाम के चार बज रहे थे और विभाग को सुचना मिली कि , “आपतत्काल ऑफिस पहुँचे “। ऑफिस में भी कुछ बताया नहीं गया पर पूरी टीम बरवाड़ा रोड़ की तरफ निकल पड़ी । रेस्क्यू टीम के इंचार्ज राजवीर सिंह भी साथ ही थे । आगे जाकर पाड़ली गांव की तरफ घूमे तो वहां गांव के लोगो ने शोर मचा रखा था । टीम ने जाकर वहां देखा कि , प्रशासन की गाड़ी वहां मौजूद थी उस जगह सैंकड़ों लोगो का भीड़ थी और लोगो मे काफी आक्रोश भी था । तो बाद में राजवीर सिंह ने टीम को बताया कि , “यहां एक पैंथर हैं और उसका रेस्क्यू कर के जंगल मे छोड़ना हैं “। पैंथर और टीम के बीच एक   10  फिट गहरा नाला था जिसकी चौड़ाई लगभग   15  फिट थी और उसमें  5 फिट तक पानी भी था । राजवीर सिंह और एक साथी आगे जा चुके थे और जगदीश भी नाला पार करके उनके पीछे चले गए । इन्होने पैंथर को ट्रेंकुलाइज करने की योजना बनाई । पैंथर बेंगन की क्यारी में बैठा हुआ था और जब उसे ट्रेंकुलाइज करने की कोशिश की तो वह सीधा जगदीश की तरफ़ दौड़ता आया लेकिन उन्होंने लकड़ी के जेडे की मदद से उसे नीचे गिरा दिया । पैंथर गुस्से में था उसने सीधा राजवीर सिंह की तरफ हमला किया । जगदीश ने राजवीर को बचाने के लिए उसकी ओर झपट्टा मारा तो पैंथर जगदीश की ओर हो लिया और उसने इनकी बांयी आंख के ऊपर पंजे से अटेक किया । जैसे तैसे करके इन्होने पैंथर को नीचे फेंक दिया लेकिन पैंथर ने दुबारा झपट्टा मारते हुए जगदीश का सिर पकड़कर नीचे पटक दिया जिससे उनका सिर फट गया । जगदीश की आँख और सिर से खून बहने लगा । वहीँ दूसरी और पैंथर ने फिर एक गांव के युवक की ओर झपटा जिसे टीम के लोगों ने बचा लिया । गांव के लोग गुस्से में आग –बबूला हो उठे और पैंथर खेतो की ओर भाग गया और वह भीड़ पैंथर के पीछे लग गई । उस भीड़ के हाथों में लाठी ,  कुल्हाड़ी वदांतली जैसी चीजे थी । जगदीश वहां पड़े – पड़े चिल्लाते रहे कि  “पैंथर को मत मारो पैंथर को मत मारो ”  पर वो भीड़ उसके पीछे भागती रही । पैंथर काफी आगे भाग गया था बाद में जगदीश को वहां से उठाकर जिप्सी से अस्पताल लाया गया जहां पर उनका लम्बा इलाज चला था ।

श्री जसकरण मीणा :-

वर्तमान में रेस्क्यू टीम रणथम्भौर में कार्यरत जसकरण मीणा का जन्म 1 मई 1968 को रणथम्भौर के नज़दीकी गांव सूरवाल में हुआ था । चार भाई-बहनों में सबसे बड़े जसकरण ने 10 वी की पढ़ाई गांव सूरवाल से ,उच्चमाध्यमिक शहर सवाईमाधोपुर व 1991-92  के सत्र में स्नातक की पढ़ाई सरकारी कॉलेज सवाईमाधोपुर से की हैं और  1987  में इनकी शादी हो गई थी । वर्तमान में इनके परिवार में एक बच्चा व एक बच्ची हैं जो पढाई कर रहे हैं । जसकरण वर्ष  1996  में राजस्थान होमगार्ड सिपाही के रूप में भर्ती हुए थे इस दौरान ये सवाईमाधोपुर स्थित मानटाउन पुलिस थाना,भारतीय खाध निगम कार्यालय, बाघ नियंत्रण कक्ष कलेक्ट्रेट व आकाशवाणी सवाईमाधोपुर में सिपाही पद पर सेवाएं दे चुके हैं। इसके पश्चात वर्ष  2011  में जसकरण राज्य होमगार्ड सेवा के ही माध्यम से रणथम्भौर बाघ अभ्यारण में पदस्थापन के तौर आए और तब से लेकर आज यहीं पर कार्यरत हैं। विशेषकर ये रेस्क्यू टीम में हैं जो कि , रणथम्भौर ही नही बल्कि इसके आसपास के ग्रामीण व शहरी क्षेत्र तथा सवाई माधोपुर के पडौसी जिलों तक भी वन्यजीव रेस्क्यू के लिए अपनी टीम के साथ जाते रहते हैं।

रेस्क्यू के दौरान ऐसे ही यह घटना के बारे में जसकरण बताते हैं कि , वहरदा चौकी क्षेत्र में एक भालू काफी समय से बीमार था व उसको ट्रेंकुलाइज के लिए प्रयास भी किए लेकिन हो नहीं सका।उपवन संरक्षक के आदेश पर बाद जसकरण और उनके साथी वहरदा क्षेत्र में पहुँचे , तो वहां पास में एक छोटी पहाड़ी पर भालू बैठा नजर आया। वहाँ पर ट्रैकिंग करने वाले फारेस्ट गार्ड ने भी सुचना दी कि वह तीन दिन से एक ही जगह बैठा था तथा उसमे चलने की क्षमता नही थी। उसकी कमज़ोर हालत को देखते हुए टीम ने भालू को ट्रेंकुलाइज कर ने की बजाय वैसे ही पकड़ ने की योजना बनाई ।

पूरी टीम भालू की ओर बढ़ी व सबसे आगे जसकरण थे । जब भालू और जसकरण के बीच सिर्फ पांच मीटर का फ़ासला तथा एक दम से भालू टीम की तरफ दौड़ा और सभी तेजी से भाग छुटे।जो साथी जसकरण से पीछे थे वे बहुत आगे निकल चुके थे और जसकरण पीछे रह गए।उनके पास लकड़ी का जेड़ा था लेकिन उन्होंने सोचा अगर इसके जेडे की पड़ी नहीं तो भालू उनको घायल कर देगा ।सभी भागते रहे लेकिन जैसे ही एक नाला आया तो आगे वाले दूसरी तरफ चले गए और जसकरण उनसे बिछुड़ गए।परिस्थिति कुछ ऐसी बन गई थी मानो भालू को जसकरण के अलावा और कोई नज़र नहीं आ रहा था और वो उनके पीछे पड गया तथा पकड़ भी लिया । भालू ने उनको ज़ख्मी कर दिया जिस में उनका एक पैर फैक्चर हो गया । बाद में उनके साथियों में से एक सदस्य ने बहादुरी दिखाते हुए जेडे की मदद से भालू परवार किया । टीम का कोई भी सदस्य कभी भी किसी जीव को नुक्सान पहुंचना नहीं चाहता था परन्तु उस समय जसकरण की जान बचाने के लिए यह कठोर कदम उठाना ही पड़ा । चोट लगते ही भालू जसकरण को छोड़कर  5-7  मीटर की दूरी पर जा बैठा बाद में सभी स्टाफ के साथी आ गए जो साथ मे गए थे उन्होंने जसकरण को उठाया व जिप्सी में बिठाकर अस्पताल ले गए । ऐसी ही एक घटना दर्रा वन्य जीव अभयारण्य कोटा की है जहां पर एक पैंथर वायर के फंदे में फंस गया था । सुचना मिलते ही पूरी टीम रेस्क्यू के लिए गई ।

इस रेस्क्यू में जस करण व राजवीर दोनों ही थे ।जब टीम वहां पहुंची तबतक भी वह पैंथर फंदे में फंसा हुआ ही था । राजवीर ने तुरंत बिना समय गवाय पैंथर को ट्रेंकुलाइज करने के लिए इंजेक्शन लगाया परन्तु जैसा सोचाथा वह नहीं हुआ। ट्रेंकुलाइज करने पर भी पैंथर परकुछ असर नहीं हुआ । पैंथर गुस्से में तो पहले से ही था और वह वायर को तोड़ते हुए सीधा टीम की तरफ दौड़ा और राजवीर के ऊपर से कूदकर पास के एक सरसों के खेत में जाकर बैठ गया।

बाद में टीम गाड़ी में सवार हुई और गाड़ी को सीधी सरसो के खेत मे अंदर ले गए तो जाकर देखा तो वह तब तक बेहोश हो चुका था। उसे गाड़ी में डालकर कोटा जुमेंलाकर छोड़ दिया तब जाकर यह रेस्क्यू सफल हो पाया।

इसी     प्रकार के कई रेस्क्यू ये टीम करती है तथा वन्य जीवों के प्राण बचाती है। टीम के चारों सदस्य एक दूसरे के साथ सामंजस्य बनाकर कार्य करते हैं व एक-दूसरे से रोज़ कुछ नया सीखते हैं। जैसे जसकरण और जगदीश कहते हैं कि , “रेस्क्यू टीम के इंचार्ज राजवीर सिंह से हमने रेस्क्यू के विभिन्न पहलु सीखे हैं “। तो दूसरी ओर ये सभी अपने बच्चों को वनविभाग में कार्य करते हुए देखना चाहते है। इन सभी का यह मानना है वनविभाग में भर्ती होने वाले सभी कर्मियों को वन्यजीवों के रेस्क्यू कि ट्रेनिंग मिलनी चाइये ताकि वे अपने स्तरपर छोटे-मोटे रेस्क्यू आराम से कर पाए।

हम इन सभी को इनके कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं तथा आशा करते हैं कि अन्य लोगों को इनकी कहानी से काफी कुछ सिखने को मिलेगा।

Cover Photo credit: Dr. Dharmendra Khandal 

वन्यजीवों की सेवा के लिए मैं हूँ, सदैव तत्पर

वन्यजीवों की सेवा के लिए मैं हूँ, सदैव तत्पर

“आइये जानते हैं श्री सोहनराम जाट के बारे में, एक ऐसे वनरक्षक के बारे में जिन्हें अपने परिवार से ज्यादा प्यारे हैं वन्यजीव और जो 365 दिन रहते हैं ऑन ड्यूटी…”

राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ तहसील के छापर गांव में स्थित है “ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। अभयारण्य का नाम इसी छापर गांव के नाम पर रखा गया है। काले हिरणों और देश-विदेश से आए पक्षियों को देखने के लिए यहां पूरे वर्ष ही पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी ताल छापर अभयारण्य में पिछले 21 साल से एक वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) प्रकृति व वन्यजीवों के बीच में घुलमिलकर एक परिवार की तरह जीवन यापन कर रहा है।

गांव से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने भरे पूरे परिवार व सुख सुविधाओं को छोड़कर प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने उन्हें जंगल की हरी-भरी घास व प्राकृतिक छटाओ के बीच रहने को मजबूर कर रखा है। जंगल की रक्षा के लिए रोज मीलों दूर पेट्रोलिंग करना वर्तमान समय के अनुसार एक कठिन चुनौती तो है लेकिन, उनका शौक ही यही है कि, ये हमेशा 24 घंटे घूमते रहे। ये अपने परिवार से मिलने के लिए महीने में एक बार जाते हैं जिसमें भी शाम को जाते हैं और सुबह वाली बस में बैठकर अभयारण्य वापिस लौट आते हैं।

ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल )

इनके बारे में स्टाफ के साथी व संबंधित अधिकारी भी बताते हैं कि, घर पर भले ही ये किसी जरूरी काम में व्यस्त ही क्यूँ न हो लेकिन, विभाग से कोई जरूरी सूचना आती है तो ये घरेलू कार्य को छोड़कर तुरन्त अभयारण्य पहुँच जाते है। कभी-कभार बीच में ऐसा भी हुआ है कि, ये कार्य से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने घर जा रहे थे और इन्हें सुचना मिली कि, विभाग में कुछ जरुरी कार्य आया है तो तुरंत आधे रस्ते में ही बस से उतर एवं दूसरी बस में बैठ कर वापस आ जाते थे। यानी घर, परिवार, गांव व रिश्तेदार आदि से कहि गुना अधिक इन्हें प्रकृति व उसमें बस रहे जीवों से प्रेम है। दिन-रात उनकी सेवा में कभी पैदल तो कभी साइकिल से गस्त करना इनकी रोज़ की दिनचर्या है।

ऐसे कर्मठशील, प्रकृति व वन्यजीव प्रेमी वनरक्षक का नाम है “सोहनराम जाट”। जो कि पिछले 21 वर्षों से ऑफिस रेंज ताल छापर चुरू में तैनात है। सोहनराम का जन्म 1 जुलाई 1966 को चुरू जिले की सुजानगढ़ अब बिंदासर तहसील के सांडवा-भोमपुरा गांव के एक किसान परिवार में हुआ। उस समय मे कम उम्र में ही शादी का प्रचलन था तथा परिवार द्वारा इनका भी विवाह जल्दी ही करवा दिया गया। इनकी धर्मपत्नी “पतासी देवी” एक ग्रहणी है। इनके परिवार में तीन बेटा व एक बेटी है और इनका बड़ा बेटा विदेश में एक कम्पनी में नौकरी करता है बाकी बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे हैं।

सोहनराम बताते है कि, बचपन में इनको खुद को पढाई से इतना लगाव नहीं था, पिताजी खेतीबाड़ी करते थे तो ये भी खेती के कार्यो में पिताजी का हाथ बंटाते थे।

गांव के पास स्थित एक पौधशाला में शाम के वक्त ये रोज़ जाया करते थे तो वहां पर मौजूद वनपाल ने इन्हें पौधशाला में काम करने के लिए कहा और भरोसा भी दिलाया कि, समयनुसार कभी नियमित भी हो जाओगे। सोहनराम जिस तरह घरेलू कार्यो में जुटते थे उसी तरह इन्होंने पौधशाला में काम की जिम्मेदारी भी ले ली। इनकी मेहनत के चलते दो साल बाद इन्हें वनकर्मी के रूप में नियमित नियुक्ति पत्र मिल गया।

पढाई में महज साक्षर होने के बावजूद इन्होंने वन व वन्यजीवों के महत्व को वन्यप्रेमी गहनता से समझा और चार साल गाव में स्थित पौधशाला में नौकरी करने के बाद इनका पदस्थापन रेंज ऑफिस ताल छापर चूरू में हो गया और पिछले 21 साल से अभी यहीं पर तैनात हैं।

वनविभाग में आने के बाद से लेकर आज तक सोहनराम का जीवन पूरी तरह से वन सेवा में समर्पित है और आज 55 साल की उम्र में भी उनके काम करने के हौसले व जज्बात दोगुनी हिम्मत के साथ बरकरार हैं।

वन्यजीवों को प्राथमिक उपचार देते हुए सोहनराम जाट

वर्ष 2009 और 2010 में आए भीषण चक्रवात से छापर ताल में वन सम्पदा व वन्यप्राणियों को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उस समय सोहनराम के लिए सैंकड़ो की संख्या में जीव जंतुओं की हानि एवं घायल होने का मंजर उनके जीवन का एक मुश्किल दौर था और इतना मुश्किल कि, उस पल को याद करके तो काफी दुःख होता है। उस परिस्थिति में लम्बे समय तक सोहनराम वन्यजीवों को बचाने व सुरक्षित स्थानों पर पहुचाने में लगे रहते थे और आठ से दस दिन तक लगातार जंगल में रहकर भोजन मिला तो खा लिया नही मिला तो नही ही सही लेकिन उस समय जितना हो सका वन्यप्राणियों को बचाया। सोहनराम के साथी बताते हैं कि, लगातार कई दिनों तक पानी में काम करने की वह से उनके पैरों में खड्डे पड़ गए थे परन्तु फिर भी सोहन सिंह पैरों पर कपडे की पट्टी बाँध कर दिन रात वन्यजीवों को बचाने में लगे रहे।

श्री सोहनराम जाट लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं और अभ्यारण्य के आसपास गश्त करते हैं।

सोहनराम बताते हैं कि, ताल छापर अभयारण्य के आसपास बावरिया समाज के लोगों के कुछ ठिकाने हैं और यही लोग कई बार वन्यजीवों के शिकार की घटनाओं को अंजाम देते हैं। ऐसी परिस्थिति में सोहनराम अपने दिन के अधिकत्तर समय गश्त करते रहते हैं और लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं। वे बताते हैं की गश्त के समय ये अवैध गतिविधियों की खोज खबर निगरानी के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं। और ऐसे ही एक बार इन्हें अभयारण्य से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित कुम्हारों की ढाणी से सूचना मिली कि, तीन बावरिया समाज के लोगों ने हिरन का शिकार करा है। सुचना मिलते ही विभाग वालों ने एक टीम गठित की और एक निजी वाहन के साथ पुलिस को सूचना देकर अतिरिक्त जाब्ता भी मंगवाया। सोहनराम और उनकी टीम वहाँ से रवाना हुए और करीब साढ़े तीन घण्टे की मशक्कत के बाद वो शिकारी उनके हाथ लगे। उन शिकारियों के पास से एक मृत चिंकारा व लोमड़ी बरामद हुई। शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया व जांच पूरी होने के बाद उनको जेल भी हुई।

पकड़े गए शिकारियों के साथ सोहनराम जाट और उनकी टीम

एक बार ऐसी ही एक घटना अभयारण्य से 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव के एक विशेष समाज के लोगों द्वारा की गई। ये लोग पहले भी कई शिकार की घटनाओं को अंजाम दे चुके थे। लेकिन गांव में किसी को गिरफ्तार करना या फिर पूछताछ करना एक चुनौती भरा कार्य था। ऐसे में परिस्थिति को समझते हुए सोहनराम ने अपने विभाग को और फिर पुलिस को सूचित किया। वन विभाग की टीम जैसे ही उस गाँव में पहुंची तो लोगों की भीड़ जमा हो गई और तभी पुलिस की टीम भी वहां आ पहुँची। तुरंत शिकारियों को गिरफ्तार किया व उनके पास एक चिंकारा और लोमड़ी की खाल बरामद हुई, साथ ही चार बन्दूक व तीन तलवारें भी जब्त की गई। पुलिस कार्यवाही के बाद उन लोगो को जेल भी हुई।

सोहनराम बताते हैं कि, अभयारण्य के आस-पास काफी संख्या आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं जो वन्यप्राणियों को भी नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि ये कुत्ते 4 -5 के छोटे समूह में एक साथ एक हिरन पर हमला कर उसे घायल कर मार देते हैं। ऐसे में वन्य प्राणियों से उनकी सुरक्षा करना भी एक चुनौती हैं सोहनराम लगातार उनको सुरक्षा देने में लगे रहते हैं साथ घायल हिरणों का उपचार करके उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ देते हैं। सोहनराम बताते हैं कि, पहले वे जानवर के घायल होने पर डॉक्टर को बुलाते थे परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने खुद घायल जानवरों का चोट-मोटा इलाज करना सीख लिया और अब वे खुद ही सभी जानवरों का इलाज करते हैं और अब तक ये कुल 300 हिरणों को बचा चुके हैं।

सोहनराम बताते हैं कि, तालछापर अभयारण्य के आसपास में काफी सारे गांव बसे हुए हैं और गांव में बसे हुए लोगों का वन्यजीवों व वनों से काफी लगाव है। उनसे विभाग वालों का भी काफी अच्छा तालमेल रहता है और वे विभाग के कार्य का पूर्ण रुप से समर्थन करते हैं। इसके चलते यहां पर अवैध चराई पर अवैध कटाई की घटनाएं बिल्कुल नहीं है और मैं भी पूर्ण जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करता रहता हूँ। मैं वर्ष के 365 में से 345-50 दिन तालछापर को देता हूँ और मेरा मन मेरे परिवार से ज्यादा तालछापर के लिए समर्पित है और मैं चाहता हूं कि, मेरे सेवाकाल के बाकी के 5 साल भी इसी तरह से वन सेवा में समर्पित रहे।

आज हमारे वन विभाग को सोहनराम जैसे और निष्ठावान कर्मियों की जरूरत है जो सदैव तत्पर रहकर वन्यजीवों के संरक्षण के लिए कार्य करें। हम सोहन सिंह के कार्य एवं जज्बे की सराहना करते हैं और आशा करते हैं कि, नए आने वाले नौजवान वन कर्मी उनसे बहुत कुछ सीखेंगे।

प्रस्तावित कर्ता: श्री सूरत सिंह पूनिया (Member of state wildlife board Rajasthan)
लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

गोडावण के संरक्षण के लिए तैनात पहली महिला वनरक्षक

गोडावण के संरक्षण के लिए तैनात पहली महिला वनरक्षक

  • सुखपाली, एक ऐसी महिला वनरक्षक जिसने सुदासरी जैसे कठिन परिस्थितियों वाले क्षेत्र में अकेले रहकर उठाई गोडावण के संरक्षण की जिम्मेदारी…

राजस्थान के राष्ट्रीय मरु उधान (Desert National Park) को विश्व भर में “गोडावण” (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) की अंतिम शरण स्थली माना जाता है। इसमें स्थित सुदासरी नामक स्थल गोडावण के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है, यहाँ आज भी यह फल-फूल रहे है। इनको यहाँ सुरक्षा मिले इसके लिए अनेकों लोग कड़ी मेहनत करते है, इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण नाम रहा है- सुखपाली देवी का जो राजस्थान वन विभाग में  वन रक्षक के रूप में कार्यरत है। जहाँ अन्य लोग इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण इसे काला पानी की संज्ञा देते हैं, एवं काम करना नहीं चाहते वहीँ सुखपाली ने इस कठोर पारिस्थितिक तंत्र को दिल से स्वीकार किया।

संकटापन्न सूची में शामिल गोडावण पक्षी के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं। और यही नहीं वह अपनी ढाई साल की बच्ची के साथ कठिन क्षेत्र में रहकर बुलंद हौसलों के साथ कार्य किया हैं। वह जाबाज़ महिला वनरक्षक वर्तमान में जोड़बीड़ गिद्ध संरक्षण अभयारण्य में कार्यरत है।

सुखपाली बताती है कि, गोडावण एक बहुत ही शर्मिला पक्षी हैं, जो एक साल में एक ही अंडा देता हैं।  इन अंडो को दो मुख्य खतरे हैं एक तो जंगल मे विचरण करने वाले पशुओं के खुरों से कुचला जाना और दूसरा आबादी क्षेत्र से आने वाले आवारा कुत्ते द्वारा नुकशान। सुखपाली ने गोडावण के इन्ही दुर्लभ अंडो की देखभाल की। इसके अलावा मादा गोडावण के लिए पानी की व्यवस्था को भी सुचारु रखा ताकि मादा को पानी की तलाश में अंडो से अधिक दूर नहीं जाना पड़े, और जब तक अंडो से चूजे बाहर नहीं आ गए तब तक सुखपाली उनकी देखभाल करती रही।

गोडावण के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं।

सुखपाली ने सुदासरी में कार्यरत रहने के समय एक पीएचडी की छात्रा जो गोडावण पर शोध करने आयी थी, के साथ रहकर उसकी शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें सुबह से शाम तक उनके साथ गोडावण पर निगरानी रखना, ब्लॉक बनाना, वाटर पॉइंट चेक करना व गोडावण की गतिविधियों पर नज़र रखना औऱ उसके खान पान की विविधता को दर्ज करना इनका मुख्य कार्य था।

परन्तु समाज का एक वर्ग आज भी इस साहसी कार्य को एक हे दृष्टि से देखता हैं सुखपाली ऐसे ही एक वाकये को याद करती हुई कहती हैं की  शोध के दौरान ही एक रोज़ वह दोनों जंगल मे ट्रैकिंग कर रही थी तो पर्याप्त पानी न होने की वजह से पास में बसे एक गांव में पानी लेने के लिए चली गई। वहां एक घर में जाकर पानी पिया व बोतल में पानी भर लिया, तभी वहां पर मौजूद एक महिला इन दोनों से बात करने लग गई और वह महिला बोली कि, “आप इस तरह से जंगल मे भटकती रहती हो इसमें कोई इज्जत नही हैं हमारे यहां महिलाएं घर से बाहर नही जाती हैं आपकी जैसी महिलाओं का नारी जाति में कोई सम्मान नही है”। सुखपाली और उनकी साथी ने चुप चाप खड़े रहकर उस महिला की बातों को सुना और फिर वहां से चल दिए तथा रास्ते भर यही सोचते रहे कि, “हमने अच्छी शिक्षा हासिल कर अपने काम के लिए घर से दूर रहने का फैसला कर क्या कोई गलती कर दी है ?”

सुखपाली पंवार का जन्म श्रीगंगानगर जिले की सार्दुलशहर तहसील के प्रतापपुरा गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। परिवार में ये पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी हैं और इनकी शादी पंजाब के मुक्तसर जिले के भाइकेरा गांव में हुई। इनके पति का नाम हरपाल सिंह हैं और इनकी एक छोटी बेटी है जिसका नाम नवनीत कौर हैं।

सुखपाली की प्राथमिक शिक्षा प्रतापपुरा गांव के एक सरकारी विद्यालय में हुई थी और इन्होंने 9वी से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई सादुलशहर से एवं बीएड पंजाब से की थी। अध्ययन के दौरान इन्हें विद्यालय में पौधारोपण करना, छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाना आदि बहुत पसंद था तथा बीएड करने के बाद इन्होंने एक निजी विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर भी कार्य किया था। बाद में इनके मन मे अध्यापक बनने का जुनून बढ़ता चला गया इन्होंने मेहनत और लगन के साथ अध्यापक भर्ती परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की उसके बीच मे ही वनरक्षक भर्ती परीक्षा का विज्ञापन जारी हुआ, परिवार की स्वेच्छा से इनके पति ने वनविभाग में आवेदन करवा दिया और पहली ही भर्ती में सुखपाली का चयन हो गया।

जोधपुर में तीन माह के विभागीय प्रशिक्षण के बाद सुखपाली की पहली पोस्टिंग राष्ट्रीय मरु उधान स्थित बाड़मेर जिले के बछड़ा गांव स्थित नाके पर हुई। बाद में मार्च 2014 में इनको जैसलमेर जिले के सुदासरी नाके पर लगाया गया। राष्ट्रीय मरू उद्यान एक वन्य जीव अभयारण्य है जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा जीव संरक्षित क्षेत्र है।

सुदासरी क्षेत्र के बारे में वहां के उप वन संरक्षक भी मानते हैं कि, यहां पर छोटी सी बच्ची के साथ अकेले एक महीला वनरक्षक का रुकना कठिन और हिम्मत वाला कार्य है और इसलिए वन विभाग द्वारा उनके पति को निजी रोजगार भी दे दिया हैं।

यह जैसलमेर और बाड़मेर जिले में फैला हुआ है और वहाँ पर प्रयटक भी आते रहते हैं। सुदासरी में सुखपाली को गोडावण के संरक्षण के अलावा सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी थी जिसमें ये वहां आने वाले सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाती एवं वहां मिलने वाले वन्यजीवों के बारे में बताती थी।

सुदासरी में काम करने के दौरान इनका गोडावण संरक्षण की नई वैज्ञानिक तकनीकें सीखने हेतु दुबई जाने के लिए चयन हुआ था लेकिन बच्ची की परवरिश को देखतें हुए इन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया।

वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं

सुखपाली, सुदासरी नाके व आसपास के क्षेत्र के बारे में बताती हैं कि, मौसम में यहाँ काफी असमानताएं देखी जा सकती हैं सर्दियों में यहां पर तापमान 2 डिग्री से नीचे व गर्मियों में तापमान 50 डिग्री से ऊपर चला जाता है। गर्मी के दिनों में तेज आंधी, धूल भरे गुब्बार, चारों ओर रेत के टीले व धोरे ही धोरे नज़र आते हैं। आसपास पानी के अलावा बिजली व स्वास्थ्य सुविधा भी नहीं है सौर ऊर्जा से संचालित बैटरी के एक छोटे से बल्ब के उजाले से ही काम चलता है। मोबाइल नेटवर्क भी हमेशा नहीं मिल पाता है। नाके पर स्थित एक छोटी सी रसोई, पास में एक कमरा और बगल में एक पानी का टैंक है जिसमें टैंकर द्वारा जरूरत के अनुसार पानी डलवाया जाता है। इस प्रकार की कठिन परिस्थिति में सुखपाली एक दो माह नहीं बल्कि पुरे डेढ़ साल वहां रही हैं।

डेढ वर्ष तक सुदासरी रहने के बाद अगस्त 2015 में पोस्टिंग सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर) हो गई थी और इनका परिवार भी सूरतगढ़ ही आ गया था। सूरतगढ़ में नेशनल पार्क नही हैं बल्कि आसपास विश्नोई समुदाय के लोगों की ज़मीने हैं वे जीवो को अत्यधिक प्यार करते हैं। यहाँ भी कार्य की दिनचर्या सुदासरी जैसी ही थी जैसे गश्त करना, अवैध गतिविधियों की निगरानी, कुत्तो की निगरानी, घायल जानवरों का रेस्क्यू करना आदि रहता था।

सुखपाली बताती हैं कि, एक बार जब नवनीत तीन माह की थी रात का समय था तो इनको एक नर नील गाय के कुत्तों द्वारा घायल होने की सूचना मिली। इन्होने हिम्मत जुटाते हुए किराये की एक टैक्सी ली और मौके पर पहुँचकर लोगो की सहायता से नील गाय को टैक्सी में डाला व उपचार करवा के रायसिंह नगर स्थित रेस्क्यू सेंटर छोड़ कर आयी। रात का समय था और इनका मोबाइल फ़ोन भी बैटरी कम होने के कारण बंद हो गया था ऐसे में इनके परिवार वाले बहुत चिंतित थे। सुखपाली रात को 12 बजे घर पहुँची तो इनकी सासु माँ काफी चिंतित हुई लेकिन उनको एक गर्व की अनुभूति भी हुई कि मेरी बहू वन्यजीवों के लिए सदैव लगी रहती है।

सुखपाली बताती हैं कि, संरक्षित क्षेत्रों के आसपास बसे गांवो में खेती की जमीने बहुत कम होती हैं और ऐसे में कई बार आसपास के लोगो के साथ अवैध अतिक्रमण को लेकर भी आमना सामना हो जाता हैं। ऐसे लोग जेसीबी और ट्रैक्टर द्वारा पेड़ पौधों की सफाई करके कृषि कार्य के लिए जमीन खाली कर लेते हैं तथा सुखपाली उनको रोकती, समझाती और अगर नहीं समझते हैं तो फिर कानूनी तौर पर कार्यवाही करती। कई बार इनको महिला होने के नाते ऐसे कार्यों में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अपशब्द भी सुनने को मिलते हैं लेकिन ग्रामीणों में भी ऐसे कुछ लोग होते हैं जो इनका  साथ देते हैं और सामंजस्य स्थापित करवाते हैं। हालांकि ऐसे कार्यो से निपटना एक महिला वनरक्षक के लिए चुनौती भी है फिर भी ऐसी परिस्थितियों में तत्पर रहना बहुत आवश्यक है।

सुखपाली की कड़ी मेहनत और निष्ठा की सभी वन अधिकारी प्रशंसा करते हैं।

सूरतगढ़ में इनकी पोस्टिंग डिडमलसर चौकी पर थी तो रोज़ एक अधिकारी द्वारा सूचना आई कि, “आप तैयार रहे एक सेही (सेव पोर्क्युपाइन) के शिकार की खबर है”।  सुचना मिलते ही ये और इनके पति स्टाफ के सदस्यों के साथ शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए।

आसपास के लोगों से इनको शिकारी के चरित्र व उसकी दिनचर्या की जानकारी प्राप्त हुई और उसी के अनुसार इन्होने जहां उसका उठना बैठना रहता था, वहां इनकी टीम ने जाकर दबिश दी और मुज़रिम को पकड़ लिया। तो जैसे ही उसे हिरासत में लिया तो वह सच उगलने लगा उसके साथ दो व्यक्ति और थे तथा इनके बीच मांस के बंटवारे को लेकर विवाद भी हुआ था। सेही के शिकार के स्थान पर उसे लेकर गए लेकिन वहां इन्हे केवल  कांटे व थोड़ा सा मांस बरामद हुआ जिसको तीन जगह दफ़नाया गया था। उन शिकारियों पर कानूनी कार्यवाही के साथ जुर्माना भी लगाया गया।

वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं और यहाँ भी इनकी दिनचर्या वैसी ही रहती है जैसी सुदासरी और सूरतगढ़ में थी। कोटड़ी रेंज में इनकी चौकी के पास लोगों ने आबादी क्षेत्र से बाहर निकल कर जंगल में झोपड़ी बनाकर अवैध कब्जा कर रखा था जिसे सुखपाली ने स्टाफ के सदस्यों और गांव वालों की सहायता से सामंजस्य स्थापित कर वहां से हटवाया था। इस कदम की वजह से वहां के लोगों ने इनका जबरदस्त विरोध भी किया था लेकिन काम करने का हौसला इनको ऐसे विरोध को झेलने का सहस भी देता है।

जोड़बीड़ में रहकर सुखपाली ने पक्षियों के बारे में सीखा है और वहां आने वाले पर्यटकों को गाइड भी करती हैं। इसके अलावा ये रोज़ गस्त, पक्षियों के लिए बने वाटर स्रोतों को चेक करना व अगर उन में पानी नहीं होता है तो टेंकर द्वारा पानी डलवाना इनकी ड्यूटी है। कभी कभार गांव के लोग अवैध चराई व कटाई के लिए आते हैं तो ये उनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व के बारे में भी बताती हैं।

सुखपाली बताती हैं कि, अवैध मानवीय गतिविधि अक्सर यहाँ होती रहती हैं कुछ महीनों दिवाली से पहले अक्टूबर में एक चिंकारा का शिकार हो चुका था। शिकारी को पकड़ने के लिए सुखपाली और इनके साथी अलग-अलग दल बनाकर शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए। शिकारी को तो इन्होने सफलतापूर्वक पकड़ लिया लेकिन मृत जानवर के अवशेष इन्हे नही मिले क्योंकि उसे किसी दूसरी गाड़ी वाले लेकर फरार हो गए और बहुत कोशिश के बाद भी वो पकड़ में नही आ पाया। लेकिन जो शिकारी पकड़ा गया उसे पर कानूनी कार्यवाही के लिए पुलिस को सौंप दिया।

समय के साथ-साथ सुखपाली ने वन्यजीवों की विविधता का ज्ञान अर्जित कर किया है और विभिन्न जीवों का रेस्क्यू भी कर लेती हैं। आज सुखपाली वन विभाग में काम करने वाली हर महिला के लिए प्रेरणा का श्रोत है तथा इनके सुदासरी में रहने के बाद अब वहां रहने के लिए कई महिलाये तैयार हैं।

सुखपाली, अपनी बेटी को भी एक वन अधिकारी बनाना चाहती हैं।

सुखपाली बताती है कि, आज उनके इस मुकाम के पीछे उनके परिवार और उनके पति का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इन्हे हर प्रकार से सहयोग किया है, हमेशा घरेलू कार्यों से दूर रख पढ़ाई में आगे बढ़ने के लिए हमेशा साथ दिया है। सुखपाली अपने पति के बारे में भी बताती है कि, “वह मेरे साथ रेगिस्तान में चले आये और हमेशा मेरा साथ दिया, जिसके लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूँ।

सुखपाली के अनुसार अवैध मानवीय गतिविधियों से गोडावण के भोजन का प्रमुख़ आधार समाप्त हो जाना भी गोडावण की घटती संख्या का प्रमुख कारण हैं और इन गतिविधियों को तुरंत रोका जाना चाइये। साथ ही वर्तमान समय अनुसार नारी का योगदान इस युग मे अतुलनीय है ऐसे में हर महिला को आगे बढ़कर आना चाइये और मुश्किल कार्यों को भी करने की पहल करनी चाइये।

हम सुखपाली को उनके बुलंद हौसलों और भविष्य में यूँ ही निडर होकर कार्य करने ले लिए धन्यवाद और शुभकामनाये देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: Dr. GV Reddy, सेवनिर्वित हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF)

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

वन रक्षक 5:    वन्यजीव प्रेमी एवं रक्षक: स्वरूपाराम गोदारा

वन रक्षक 5: वन्यजीव प्रेमी एवं रक्षक: स्वरूपाराम गोदारा

स्वरूपाराम, एक ऐसा वन रक्षक जिसने न सिर्फ जंगल की आग बुझाकर वन्यजीवों की जान बचाई है बल्कि अपनी जान पर खेल कर अपने साथियों की भी रक्षा करी

रेतीले धोरों की धरती बाड़मेर के एक छोटे से गांव खोखसर में जन्मे “स्वरूपाराम गोदारा” आज वनरक्षक (फॉरेस्ट गार्ड) के रूप में वन-विभाग में भर्ती होकर वन पर्यावरण व जीव जंतुओं के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं। खोखसर, वह गांव है जहाँ से जाबाज़ प्रतिभावान “श्री खेताराम सियाग” आते हैं जिन्होंने रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ये ऐसा क्षेत्र है जहाँ से स्वरूपराम गोदारा एकमात्र व्यक्ति हैं जो वन विभाग में कार्य कर रहे हैं और वर्तमान में ये अपने गांव ही नही बल्कि उस क्षेत्र के सभी युवा व आमजन के लिए एक प्रेरणा का केंद्र बने हुए हैं। आज उसी का परिणाम हैं कि उस क्षेत्र के सेंकडो युवा वनरक्षक भर्ती प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी भी कर रहे हैं।

स्वरूपाराम गोदारा का जन्म 8 जुलाई 1993 को बाड़मेर जिले की गिड़ा तहसील के खोखसर गांव में एक किसान परिवार में हुआ। खोखसर गांव जैसलमेर, बाड़मेर व जोधपुर की सीमा पर बसा हुआ एकमात्र गांव है जो इन तीनों जिलों का केंद्र बिंदु है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में व उच्च शिक्षा हीरा की ढाणी बाड़मेर में हुई। इनकी विशेषतया कबड्डी में काफी रुचि थी और विद्यालय से ये कई बार जिला स्तर पर कबड्डी खेल चुके हैं। पढाई के दौरान ही इनकी “टीपू देवी” से शादी हो गई थी और आज इनके दो जुड़वा बच्चे भी हैं। बच्चों के बारे में इनके मन में एक सपना हैं कि ये पढ़ लिख कर वन्यजीव संरक्षण के महत्व को समझे और इसी क्षेत्र में आगे बढ़े। स्वरूपाराम की पत्नी टीपू देवी  एक ग्रहणी महिला हैं तथा वह अपने घर परिवार को संभालने हेतु गांव में ही रहती हैं। टीपू बाई अशिक्षित जरूर हैं लेकिन वे अपने परिवार के सभी लोगों व बच्चों को स्वरूपाराम के कार्यक्षेत्र को एक कहानी के रूप में सुनाती रहती हैं।

राजस्थान वन विभाग द्वारा निकाली गई वनरक्षक भर्ती परीक्षा 2015 में इनका चयन हुआ और 13 अप्रैल 2016 को इन्होंने पहली बार माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य में ज्वाइन किया। यहां जॉइन करने के तीन महीने बाद ही इनका चयन सीमा सुरक्षा बल में हो गया था लेकिन प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने इनको वहां से जाने की इजाजत नही दी। ये वनविभाग के साथियों के साथ घुल मिल गए थे और इनमें वन्य क्षेत्र में कार्य करने की रुचि भी बढ़ गयी थी। अभी पांच माह पूर्व ही इनका स्थानांतरण वन मण्डल उपवन संरक्षक बाड़मेर के अधीन हो गया है।

वन में गश्त करते हुए

माउंट आबू अभयारण्य में काम करने के दौरान इन्होने बहुत ही सराहनीय कार्य किये है जिसमें सबसे मुख्य है “उपवन संरक्षक” की जान बचाना। यह बात है कोरोनाकाल की जब नगरपालिका द्वारा वन्य क्षेत्र में साफ-सफाई के लिए अभियान चलाया गया था। इस अभियान के लिए मजदूर भी नगरपालिका की तरफ से ही थे तथा उनकी देखभाल व निगरानी का जिम्मा वन- विभाग कर्मियों का था। स्वच्छता अभियान चल ही रहा था कि, एक दिन स्वरूपाराम सहित उपवन संरक्षक महोदय (श्री बालाजी करी) और एक नेचर गाइड वन में ट्रेकिंग के लिए निकले। ये साथ-साथ आसपास के कचरे का संग्रहण करते हुए आगे बढ़ रहे थे और वन में स्थित अगलेश्वर महादेव मन्दिर पर पहुंच गए। इस मंदिर पर साधु के भेष में एक बाबा रहते थे तो वह साधु बाबा इनसे पूछने लगे कि आप आगे कहां जा रहें हैं ? इन्होने उत्तर दिया कि हम वन विभाग वाले हैं और गश्त के लिए आए हैं। जैसे ही ये नीचे की ओर गए तो वहाँ पर 4-5 साधु और बैठे थे जो अनैतिक गतिविधियां कर रहे थे। तभी पीछे से जो बाबा पहले मिले थे वो भी वहीं आ गए। उपवन संरक्षक साहब ने उनको रोका कि “यह प्रतिबंधित क्षेत्र है और यहाँ नगरपालिका द्वारा साफ सफाई का अभियान चला रहा है और आप इस तरह से यहाँ गंदगी फैला रहे हो, यह उचित नहीं है”। यह बात सुनते ही साधू लोग लड़ाई पर उतारू हो गए और उन्होंने लाठी-डंडे उठा लिए और हमला कर दिया। मुठभेड़ के दौरान स्वरूपाराम के सिर में चोट भी आई लेकिन उन्होंने कोशिश कर के हमलावरों से लाठी छीन ली। परन्तु उनके पास एक कुल्हाड़ी और थी जैसे ही वो कुल्हाड़ी लेकर उपवन संरक्षक की तरफ दौड़े, तो स्वरूपाराम बीच में आ गए और कहा कि “मुझे मार लो पर मेरे बॉस (उप वनसंरक्षक) को कुछ नही होना चाहिए”। यह बात सुन कर भी वह साधु नहीं रुका और जैसे ही वह स्वरूपाराम को मारने के लिए आगे बढ़ा तो स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को पकड़ लिया और हिम्मत दिखाते हुए उपवन संरक्षक साहब व नेचर गाइड को ऊपर भेजा। जब तक वे ऊपर नही पहुँचे तब तक स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को रोके रखा। उप वनसंरक्षक के वहां से सुरक्षित निकलते ही स्वरूपाराम भी फुर्ती से वहाँ से निकल लिए।

लगभग सभी संरक्षित वन क्षेत्रों में धार्मिक स्थल स्थित हैं जो की लगातार वन कर्मियों के लिए मुश्किल बने हुए हैं क्योंकि यहाँ पर साधू के रूप में लोग रहने लग जाते हैं जो अनैतिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं और इन स्थानों पर आने वाले दर्शनार्थियों की वजह से जंगल में कचरा भी फैलता है।

वरिष्ठ अधिकारियों के साथ गश्त पर स्वरूपाराम

स्वरूपाराम बताते हैं कि माउंट आबू वन्यजीव क्षेत्र में आग लगने की गंभीर समस्या है, गर्मियों के मौसम में अक्सर वहां आग लगती रहती है जिससे न सिर्फ पेड़ों बल्कि वन में रहने वाले जीवों को बहुत नुक्सान पहुँचता है। स्वरूपाराम के अनुसार यहाँ आग लगने के कुछ मुख्य कारण हैं; आबू पर्वत के चारों ओर व ऊपर के भाग में बहु संख्या में आदिवासी गरासिया जनजाति निवास करती है। यह लोग जंगलों में ही रह कर अपना जीवन यापन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार जब इनके घर, परिवार व समाज में कोई उत्सव या उत्साह का माहौल होता है तो यह लोग जंगल में आग लगाते हैं जिसको “मगरा जलाना” कहते हैं। इस खुशी के माहौल में यह लोग वनों में रहते हुए भी इस प्रकृति के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। ऐसी घटनाओं से जीव-जंतुओं व पेड़ पौधों का नुकसान होता हैं और यह वन विभाग के लिए एक गंभीर चिंता का विषय हैं। आदिवासियों के अलावा यहां बांस के थूरों की बहुतायता है और गर्मी में बांस में घर्षण के कारण भी यहाँ आग लग जाती हैं।

एक बार इसी आदिवासी समुदाय की लापरवाही के कारण वन में आग लगा दी गयी और आग इतनी जबरदस्त थी कि, वह धीरे-धीरे करीब 500 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र में फैल गई। पिछले तीस वर्षों में ऐसी भयावह आग कभी नहीं देखी थी और इस आग को लेकर स्थानीय लोग भी डरे हुए थे।

उस समय स्थिति ऐसी बन गई कि आग बुझाने के लिए वन विभाग को हेलीकॉप्टर उपयोग में लेना पड़ा, परन्तु वह प्रयास कारगर साबित नहीं हो पाया।  क्योंकि हेलीकॉप्टर पानी भर कर जब तक ऊपर पहुंचता था तब तक 15 मिनट का समय लग जाता था और आग काफी तेजी के साथ आगे बढ़ रही थी। उस भयानक स्थिति को देखते हुए वायुसेना के जवान भी सहायता के लिए बुलाए गए और उपवन संरक्षक ने लोहे के पंजे मंगवाए और जिसकी सहायता से सभी कर्मियों ने झाड़ियों व वृक्षों को आग से दूर करना शुरू किया, लम्बी झाड़ियों को कुल्हाड़ी से काटकर आग से दूर किया और लगातार 17 दिन के प्रयास के बाद आग पर काबू हो पाया।

इसके बाद स्वरूपाराम ने जंगल में आग बुझाने के लिए कई तरीके सुझाये और नए रास्तों का पता लगाया जिनका आग के समय में इस्तेमाल किया जा सकता है।

जंगल में लगी आग को बुझाते हुए स्वरूपाराम

स्वरूपाराम बताते हैं कि विभाग में वन्य प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती है जैसे आग की घटनाएं, शिकारियों की घटनाएं व जंगल में बाहर से घूमने का बहाना लेकर कुछ असामाजिक तत्वों के जमावड़ा आदि प्रमुख़ हैं। इनकी निगरानी के लिए उच्च अधिकारियों के मार्गदर्शन व ग्रामीणों के सहयोग से समाधान निकालना पड़ता है। स्थानीय ग्रामीण लोगों के सहयोग से ही घने जंगल, दुर्गम पहाड़ी, रास्ता खोजना व अवैध गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती हैं।

माउंट आबू एक घना जंगल है और यहां भालुओं की आबादी भी अच्छी है और उनके लिए प्रयाप्त भोजन भी है। वन्यजीव गणना के मुताबिक माउंट आबू के संरक्षित क्षेत्र के जंगलों में लगभग 300 से अधिक भालू हैं। यहां अक्सर सड़क के किनारे भालू को घूमते हुए देखा जा सकता है और कभी कभार भालू आबादी क्षेत्र में भी घुस जाते हैं। एक बार भालू जंगल से बाहर निकल कर गाँव गुफानुमा के आबादी क्षेत्र में आ गया और एक घर में अंदर घुस गया। आसपास के लोगों के द्वारा विभाग के पास सूचना पहुंची और स्वरूपाराम एवं टीम ने मौके पर पहुँचकर उसे देखा तो वह न तो आगे जा पा रहा है और न ही पीछे आ पा रहा था। तभी स्वरूपाराम ने सूझबूझ से काम लेते हुए पिंजरा मंगवाया और उसे सही सलामत रेस्क्यू करके जंगल मे ले जाकर छोड़ दिया।

वन क्षेत्र में कार्य करने के दौरान कई बार अवैध शिकार की घटनाएं सामने आती हैं और इस प्रकार की घटनाओ में स्वरूपाराम ने बड़ी ही हिम्मत और सतर्कता से कार्य करते हुए शिकारियों को भी पकड़ा है। एक बार ड्यूटी के दौरान आबू क्षेत्र के ज्ञान सरोवर के पास स्वरूपाराम गश्त कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक शिकारी ने भालू को पकड़ने के लिए तार का फंदा लगा रखा था और उसी जगह के आसपास भालू के बाल, अंग व नाखून बिखरे हुए थे। स्वरूपाराम व उनके साथियों ने शिकारी को खोजना शुरू कर दिया। काफी कोशिशों के बाद आसपास के ग्रामीण लोगों द्वारा मालूम हुआ की यह शिकारी और कोई नहीं बल्कि सोमाराम था जो योगी समाज का व्यक्ति था और लगातार शिकार की घटनाओं में शामिल रहता था तथा कभी पकड़ा नहीं जाता था। सारी सुचना मिलते ही स्वरूपाराम व उनकी टीम ने शिकारी को गिरफ्तार करने के लिए एक गुप्त योजना बनाई। योजना के मुताबिक स्वरूपाराम भेस बदलकर शिकारी के घर एक ग्राहक बनकर गए। शिकारी के घर पर एक महिला मौजूद थी जिससे स्वरूपाराम भालू के कुछ अंगों की जरूरत व उनको खरीदने की इच्छा के बारे में बताया। उस महिला ने कहा कि “अभी घर पर कोई नहीं है मेरा बेटा अभी बाहर है उसको आने दो मैं आपको दे दूंगी”। स्वरूपाराम ने मोबाइल नंबर ले लिए  और उसको कॉल करके ग्राहक की तरह बात करी। सामने ग्राहक देख शिकारी भी पैसों के प्रलोभन में आ गया और सौदा पक्का कर दिया। फिर सौदा होने की जगह पर विभाग की पूरी टीम ने छापा मारा और शिकारी सोमाराम और उसके बेटे को पकड़ लिया। गिरफ्तार होने के बाद उसने कई राज भी खोलें और उसके बाद ऐसा सबक लिया कि उसने शिकार करने का धंधा ही छोड़ दिया।

स्वरूपा राम बताते हैं कि माउंट आबू अभ्यारण्य का पूरा क्षेत्र पिकनिक स्पॉट के लिए प्रसिद्ध है देश-विदेश के सैलानी यहाँ पर आते-जाते रहते हैं। सैलानियों को लेकर भी वन प्रबंधन काफ़ी चिंतित रहता हैं क्योंकि कुछ ऐसी किस्म के लोग भी यहाँ आते हैं जिनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व से  कोई मतलब नहीं होता बल्कि ये लोग सिर्फ मौज मस्ती के लिए घूमने यहाँ आते हैं। वन्य क्षेत्र में कचरा फैलाना, शराब पीना ऐसी अनैतिक गतिविधियों से परेशान होकर स्वरूपाराम उनको समझाते भी है परन्तु लोगों के बर्ताव में कोई फर्क नहीं आया। और जब

ऐसी गतिविधियां बढ़ने लगी तो विभाग वालों ने कैमरा लगाना शुरू कर दिया जिसके बाद कोई भी वन में अवैध रूप से आता था तो उन्हें पकड़ कर कार्रवाई करी जाने लगी।

 

स्वरूपराम समझते हैं कि आज जिस तरह से अवांछित मानवीय गतिविधियों के कारण पर्यावरण ख़राब हो रहा है उसके लिए जंगलों को सख्ती से बचाने और बनाए रखने की बहुत बड़ी जरूरत है। केवल ऐसा करने से हम सभी जीवों के भविष्य को बचा सकते हैं। दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, आदि वन संरक्षण की आवश्यकता पर ज़ोर दे रहे हैं। सरकारों ने जंगली प्रजातियों की रक्षा के लिए अभयारण्य बनाए हैं। वन संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण काम संभवतः ‘वृक्षारोपण’ सप्ताह देखकर किया नहीं जा सकता। इसके लिए वास्तव में महत्वपूर्ण योजनाओं की तर्ज पर काम करने की आवश्यकता है। यह भी एक या दो सप्ताह या महीनों के लिए नहीं बल्कि सालों के लिए तभी तो पृथ्वी का जीवन उसके पर्यावरण और हरियाली की सुरक्षा संभव हो सकती है।

प्रस्तावित कर्ता: श्री बालाजी करी (उप-वन संरक्षक उदयपुर (उत्तर), डॉ सतीश कुमार शर्मा (सेवा निवृत सहायक वन संरक्षक उदयपुर)

लेखक: 

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

 

वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

कमलेश, बिश्नोई समाज का वह बालक जिसने अपने दादाजी के साथ ऊंट चराते हुए वन्यजीवों के बारे में सीखा और आज वन-रक्षक बन गोडावण सहित अन्य वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है

“आई लव माई खेतोलाई”, खेतोलाई राजस्थान पोखरण में स्थित वह जगह है जहाँ प्रधानमंत्री स्व.श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी सूझबूझ साहस और दूरदर्शिता दिखाते हुए 11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण किया था। उस परमाणु परीक्षण के इंचार्ज मिसाइल मैन स्व. श्री ए. पी.जे.अब्दुल कलाम थे। श्री कलाम साहब ने 2002 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद एक अंग्रेजी अखबार के इंटरव्यू में कहा था “आई लव माई खेतोलाई ।

इसी पोखरण की धरती में जन्म लेने वाले प्रकृति प्रेमी, कोमल ह्रदय कमलेश विश्नोई आज वनरक्षक में भर्ती होकर वन सम्पदा, जीव-जंतुओं एवं वन्य प्राणियों के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।

कमलेश बिश्नोई का जन्म 1 जुलाई 1990 को जैसलमेर जिले की पोखरण तहसील के खेतोलाई गांव में एक पशुपालक परिवार में हुआ। बचपन में ही जब इनकी उम्र मात्र 6 वर्ष थी इनके सिर से पिता का साया उठ चुका था। माता गृहणी थी और इनके दादाजी ऊंट चराते थे और घर चलाते। बचपन में कमलेश भी अपने दादाजी के साथ ऊंट चराने जाया करते थे, क्योंकि इनको ऊँटो की सवारी करना बहुत पसंद था। जब ये अपने दादाजी के साथ जाया करते थे तो आसपास की वनस्पतियां और जीव-जंतु इनको बड़ा आकर्षित करते थे और ये उनके बारे में अपने दादाजी से पूछते रहते थे और दादाजी इनको उन सभी जंतुओं के ग्रामीण नाम व उनकी विशेताएं बताया करते थे।

एक बार ये अपने दादाजी के साथ एक तालाब के पास बैठे हुए थे और तब इन्होने पहली बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) को देखा तभी से इनके मन वन्यप्राणियों के प्रति लगाव और उनको बचाने का जज़्बा आ गया और उस समय इनको लगा कि “मैं वन विभाग में ही कार्य करू जिससे मैं प्रकृति का प्रेमी बन सकू” साथ ही इनके दादाजी भी चाहते थे कि ये वनकर्मी बने और वे इन्हें प्रेरित भी करते रहते थे। कठिन घरेलू परिस्थितियों के चलते हुए भी इन्होंने हिम्मत नही हारी और बुलन्द हौसलों व जज्बातों के साथ एक उज्ज्वल व सफल भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई व कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई इन्होंने सागरमल गोपा स्कूल जैसलमेर से की थी 11वीं व 12वीं की पढ़ाई इन्होंने जयपुर से की थी इसी दौरान ये अंडर 16 व अंडर 18 में 800 मीटर तक की दौड़ में चार बार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने भी गए थे। वर्ष 2013 में इनका वनरक्षक के पद पर चयन हुआ और ये सफलता इनके परिवार के लिए एक संजीवनी व इनके दादाजी के सपनो को साकार करने वाली थी।

विश्नोई समाज से आने वाले कमलेश बताते हैं कि हिरन को हम अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है। यहां तक की इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरन का बच्चा या हिरन दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसे पालते हैं। यहां तक बिश्नोई समाज की महिलाएं भी हिरनों को एक मां का पूरा प्यार देती हैं। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान जैसे कभी कोई हिरन का बच्चा बीमार या दुर्घटना से घायल इनको मिल जाता था तो ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके इलाज की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराते थे।

घायल चिंकारा का इलाज करते हुए कमलेश

कमलेश की पहली पोस्टिंग कुम्भलगढ़ नाका (राजसमंद) में हुई और वर्तमान में ये वन्य जीव चौकी चाचा डेजर्ट नेशनल पार्क में तैनात हैं। वर्ष 2016 में जब इन्होने डेजर्ट नेशनल पार्क को ज्वाइन किया तो उस समय श्री अनूप के आर उप वन संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। वन संरक्षक हमेशा गोडावण के संरक्षण के प्रति सोचते व कार्य करते रहते थे, तब कमलेश को भी बचपन में देखे हुए गोडावण की याद आ गई जिसके बारे में इनको बाद में पता चला था कि ये राज्य पक्षी है। तो साहब की प्रेरणा से कमलेश की भी “गोडावण बचाओ” के प्रति रुचि बढ़ती चली गई और इन्होने वन संरक्षक के निर्देशानुसार स्थानीय सरपंच व गांव वालों के सहयोग से डेढ़ सौ हेक्टेयर में एक व्यवस्थित ढंग से क्लोजर भी बनवाया था जिसे आसपास के लोग देखने भी आते हैं।

अपना कार्यभार संभालने के बाद जब कमलेश रोज़ पार्क में गश्त के लिए जाया करते थे तो इन्हे अनेक छोटे-छोटे गड्ढे देखने को मिलते थे जिनके बारे में इन्होने वहां घूमने वाले चरवाहों से जानकारी जुटाना शुरू किया। तब इनको मालूम कि भील समुदाय से आने वाले कुछ लोग जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं स्पाईनि टेल्ड लिजार्ड जिसको स्थानीय भाषा मे “सांडा” छिपकली कहा जाता है का शिकार करते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सांडा के ऊपरी हिस्से में से तेल निकलता है जो औषधि बनाने के काम में आता है। धीरे-धीरे कमलेश ने चरवाहों व पशुपालकों को विश्वास में लेने एवं उनका मनोबल बढ़ाने के लिए, वन संपदा और जीव-जंतुओं का प्रकृति में महत्व को समझाना शुरू किया। इस पहल से 8-10 चरवाहे कमलेश के लिए विश्वासपात्र मुखबिर बन गए और अपराधियों के नाम, पते और गतिविधियां बताने लगे। वर्तमान में 40 चरवाहे ऐसे हैं जो कमलेश को सहयोग करते हैं। कमलेश भी उन्हें जरुरत पड़ने पर सहायता करते हैं और ग्रामीण क्षेत्र में ये एक पहल हैं जो इनके बीच में सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सामंजस्य स्थापित करती हैं।

इन चरवाहों के माध्यम से कमलेश ने चार बार सांडा के शिकारियों को पकड़ा। एक बार ये पोखरण थे तब इन्हे सुचना मिली कि, “रामदेवरा के पास तीन आदमी अभी-अभी साइकिल से आए हैं और वो ज़मीन खोद रहे हैं”। सुचना मिलते ही कमलेश ने अपनी पूरी टीम के साथ उनके ऊपर धावा बोलकर उनको पकड़ लिया जिनके पास से 6 सांडे बरामद हुए थे। बाद में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई की गई। इसी प्रकार ऐसा ही केस और आया ये घटना लोहारकी गांव के पास की हैं जब रात के समय गांव के स्थानीय लोग कहीं बाहर से आ रहे थे तो उनकी गाड़ी की लाइट में उन्होंने कुछ अवैध व्यक्तियों को सांडा के बिलों को खोदते हुए देखा तो उन लोगों ने तुरंत कमलेश को सूचित किया। सुचना मिलते है वन कर्मी टीम के साथ वहां पहुंचे और उनको पकड़कर उनपर कानूनी कार्रवाई की।

ऐसे ही एक बार कमलेश जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे थे तो उन्हें आदमी दिखा जिसका केवल सिर ही नज़र आ पा रहा था। वो एक पहाड़ी से नीचे की तरफ जा रहा था तो जैसे ही कमलेश पास गए तो पाया कि वहां दो आदमी थे और उन्होंने 16 सांडे खोदकर रखे हुए थे। कमलेश उस समय अकेले थे तो उन्होंने बुद्धिमता से काम लेते हुए रेंजर व अपने साथियों को फोन से मैसेज कर दिया और दूसरी ओर शिकारियों बातों में उलझाते रहे। इस से पहले कि शिकारी कमलेश को पहचान पाते वन-विभाग के अन्य लोग वहां पर पहुंच गए और अपराधियों को पकड़ लिया। एक बार और शिकारियों कि सुचना मिली थी परन्तु पहुंचने से पहले ही वे भाग गए थे तथा वहां से कुछ हथियार व 10 सांडे बरामद हुए थे।

शिकारियों से बरामद किये हुए सांडा

कमलेश बताते हैं कि “अवैध कार्यों में शिकारियों को गिरफ्तार करवाने पर मुझे जनप्रतिनिधि व असामाजिक तत्वों की धमकी भी सुनने को मिलती है लेकिन हम बिश्नोई समुदाय से आते हैं इसलिए जीव जंतुओं को हम हमेशा दया की भावना से ही देखते हैं तथा हमको कितनी भी धमकियां मिले लेकिन हम घबराते नहीं हैं”। साथ ही कमलेश मानते हैं कि आपराधिक तत्वों पर लगाम लगाने में कहीं न कहीं सुचना देने वाले ग्रामीण व चरवाहों का भी महत्वपूर्ण योगदान हैं।

कमलेश बताते हैं कि, आसपास के इलाके में चिंकारा का शिकार भी किया जाता है। एक घटना ऐसी हुई जब गांव के एक व्यक्ति ने सूचना दी कि “मावा गाँव के पास दो गाड़ियों पर चार व्यक्ति हैं और हिरन को मारने कि कोशिश कर रहे हैं, मई यहीं पर छिप कर बैठा हूँ आप जल्दी आजाओ “। चिंकारा का शिकार करने का यह सामान्य तरीका है, जब चिंकारा पानी पीता है तो तुरंत भाग नहीं पाता है ऐसे में शिकारी चिकारा कि तरफ गाड़ी चालते हैं। चिंकारा भागता है लेकिन जल्दी थक जाता है और मारा जाता है। उन शिकारियों ने भी चिंकारा के पीछे दौड़ा कर उसे मार दिया था तथा उसे जाल में डालकर शरीर को चीर रहे हैं। सुचना मिलते ही कमलेश ने स्टाफ के अन्य साथियों को सूचना दी और वहां पहुंचे थे। विभाग कि टीम के वहां पहुंचने से पहले वे शिकारी तीन और चिंकारा मार चुके थे। घटना स्थल पर पहुंचते ही उन शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया गया व कानूनी कार्यवाही की तथा उनको तीन महीने की जेल भी हुई। जेल से बाहर आने के बाद वे लोग कमलेश को धमकियाँ देने लगे। परन्तु ऐसी धमकियाँ कमलेश के जुनून व हौसले को कमजोर नहीं कर पाई।

समय के साथ-साथ कमलेश को विभिन प्रकार कि नई चीज़ें भी सीखने को मिली हैं, वरिष्ठ साथियों का अनुभव व अधिकारियों के मार्गदर्शन ने इनके इरादों को इतना मजबूत कर दिया कि प्रतिदिन इन्हे वन्य क्षेत्र में नया कार्य करने के लिए उत्सुकता रहती हैं। वर्ष 2019 में उपवनरक्षक महोदय ने कमलेश को बताया कि, “एक गोडावण ने अंडे दिए हैं और आपको विशेष तौर से उसकी निगरानी करनी होगी”। यह बात सुनते ही कमलेश इस कार्य के लिए तैयार हो गए और उस गोडावण व उसके अण्डों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली। कमलेश ने जरूरत का सारा सामान व एक टेंट पैक किया और उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ गोडावण ने अंडे दिए थे। गोडावण को उनकी उपस्थिति से कोई परेशानी न  हो इस बात को समझते हुए उन्होंने 100 मीटर की दुरी रखते हुए एक अस्थायी तम्बू तैयार किया। मादा गोडावण सुबह 9 बजे पानी पीने के लिए ताल पर जाती थी और सुबह-शाम भोजन के लिए इधर उधर टहलती थी और उस समय कमलेश उसके घोंसले की पूरी मुस्तैदी निगरानी करते थे ताकि कोई बाज़ या लोमड़ी अण्डों पर हमला न करदे।

गोडावण एक शर्मीला पक्षी होता है और इस बात को समझते हुए कमलेश टेंट में ऐसे रहते थे की जैसे वहां कोई है ही नहीं। ये पूरे 28 दिन तक उस तम्बू में रहे। गोडावण गर्मियों में अंडे देता है और उस समय पोखरण में रेत के धोरों पर दैनिक तापमान 45-46 डिग्री तक पहुँच जाता है और ऐसे तेज़ गर्मी वाले वातावरण में रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसे कमलेश ने भलभाँति निभाया।

आज अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास मानव बस्तियां हैं और इन बस्तियों में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी वन्यजीवों के लिए मुश्किल बनती जा रही है। ये आवारा कुत्ते संरक्षित क्षेत्रों की सीमा के अंदर भी जाने लगे हैं तथा कई बार बाहर आने वाले जानवर जैसे की हिरन, चिंकारा और नीलगाय को घायल कर देते हैं। ऐसी की मुश्किल कमलेश के कार्य क्षेत्र में भी है। कमलेश बताते हैं की “जब से मैंने यहाँ कार्यभार संभाला है रोज कुत्तों द्वारा एक न एक दिन हिरण को घायल करना, मार देना ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। वन क्षेत्र के आसपास गाँव हैं जिधर अधिकतर लोगो ने अपने खेतों की तार बाढ़ कर रखी है। ऐसे में भोजन की तलाश में कई चिंकारे इधर-उधर भटक जाते हैं तो रास्ता तलाश कर खेतों में प्रवेश कर जाते हैं और पीछे से कुत्ते भी खेतों में घुस जाते हैं और चिंकारा का पीछा करते हैं। रास्ता न मिल पाने के कारण वो इधर उधर टकराकर घायल हो जाता है और कुत्ते उसको आसानी से मार देते है। इस परेशान को देखते हुए कमलेश ने अपने उच्च अधिकारियों से सम्पर्क किया और इस समस्या का समाधान ढूंढना शुरु किया। इन्होने विभाग से एक पिंजरा लाकर ग्रामीणों के सहयोग से उनको पकड़ना शुरू किया। इनकी सोच कुत्तो के खिलाफ नही थी बल्कि ऐसी घटनाओं की रोज पुनरावृत्ति न हो इसीलिए इन्होने कुत्तों को पकड़ कर अन्यत्र स्थान पर ले जाकर छोड़ा जहाँ उन्हें भोजन भी मिल जाए और कोई वन्यजीव को खतरा भी न हो। इसी प्रकार से कमलेश अभी तक और अब तक 250 कुत्तो को ग्रामीणों के सहयोग से अन्यत्र स्थान पर छोड़ चुके हैं।

वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कमलेश

कमलेश बताते हैं कि वर्ष 2019 में, कमलेश के इन सभी कार्यों को देखते हुए टाइगर वॉच संस्था और वाइल्ड लाइफ क्राइम कण्ट्रोल ब्यूरो (WCCB) द्वारा पुरुस्कृत भी किया गया है। साथ ही श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वनसंरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क कमलेश के बारे में बताते हैं कि “कमलेश एक बहुत ही आश्वस्त और समर्पित वन रक्षक है। वह न केवल अपने कर्तव्य की भावना कार्य करते हैं, बल्कि वन्यजीवों के प्रति गहरी लगन और प्रेम से भी प्रेरित हैं। इनका स्थानीय लोगों के साथ एक अच्छा संपर्क है और संरक्षण के लिए समुदाय के समर्थन का होना बहुत जरुरी होता है”।

कमलेश बताते हैं कि उनकी शादी 2011 में हो गई थी और उनके दो बच्चे हैं। इनकी पत्नी भी चिंकारों के संरक्षण में रुचि रखती हैं उन्होने ने भी चिंकारे के बच्चे पाल-पालकर बड़े किए हैं फिर उनको जंगल मे छोड़ा हैं। आज जब इनके घर कोई अतिथि आता है और बच्चों से पूंछते हैं कि बेटा तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो इनके बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि “पापा गोडावण बचाते हैं”। और इसके चलते परिवार व सगे सम्बंदियो के लिए तो यह स्लोगन बन चुका हैं कि “कमलेश एक गोडावण प्रेमी” हैं।

कमलेश बताते हैं कि गोडावण संरक्षण को लेकर विभाग स्तर पर सराहनीय प्रयास किए गए हैं। गोडावण प्रजनन व रहवासी स्थलों पर खुफिया कैमरों की नजर, अंडों के सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधन, क्लोजरों में पानी की समुचित व्यवस्था, गोडावण रहवासी क्लोजरों में अन्य हिंसक वन्यजीवों के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सुविधाओं का विस्तार कर गोडावण संरक्षण को लेकर विशेष कार्य किए गए हैं। और आगे बहुते से अन्य जरुरी कदम भी उठाये जाएगी जिनसे हमारे राज्य पक्षी गोडावण को बचाया जा सके।

हम कमलेश को उनके अच्छे कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वन संरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क 
लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.