टिड्डी दल का आगमन आम तो बिल्कुल नहीं है, वे एक क्रम का पालन करते हुए आते हैं। पहले, एक काफी छोटा झुंड मानो उन्हें भूमि का सर्वेक्षण करने के लिए भेजा गया हो। और फिर आती है एक ऐसी लहर जिसका सिर्फ एक उद्देश्य – दुनिया से हरियाली खत्म करने का…

कीट दुनिया में मानव जाति की तुलना में काफी पहले से मौजूद रहे हैं। जमीन के नीचे से लेकर पहाड़ी कि चोटी तक सर्वव्यापी कीट मनुष्य के जीवन से बहुत हद जुड़े हुए हैं। कुछ उपयोगी हैं तो कुछ अत्यधिक हानिकारक हैं। इन्हीं हानिकारक कीटों में शामिल हैं रेगीस्तानी टिड्डे (डेजर्ट लोकस्ट) जो मनुष्य के लिए चुनौतियों कि पराकाष्ठा रचते हैं। एफएओ के अनुसार ये दुनिया की दस फीसदी आबादी की ज़िंदगी को प्रभावित करते हैं जिससे इन्हें दुनिया का सबसे खतरनाक कीट भी कहा जाता है। इनसे उत्पन्न चुनौतियाँ नई भी नहीं है, वे आदि काल से मानव जाति के लिए संकट साबित होते रहे हैं।

औसतन हर छह वर्षों में एक बार जरूर आते हैं, और ऐसे आते हैं मानो जैसे मनुष्यों का अंत करके ही जाएंगे। वे घरों पर पूरी तरह छा जाते हैं, खिड़कियों पर झूलते हैं, गुजरती गाड़ियों से टकराते हैं और ऐसे काम करते हैं जैसे कि उन्हें सिर्फ विनाश के ही लिए भेजा गया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये अत्यधिक गतिशील झुंड में मॉरीतानिया (Mauritania) से भारत और तुर्कमेनिस्तान से तंजानिया तक एक विशाल क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जिसके कारण इन देशों में रहने वाले लोग बुरी तरह से फसलों के नुकसान को झेलते हैं। विश्व बैंक सहित कई विकास एजेंसियों ने प्रभावित देशों को इनके नियंत्रण में सहायता की है, पर स्थिति में कुछ बदलाव नहीं आया है, क्योंकि इनके आने का कोई निश्चित समय नहीं है। ये अनियमित अंतराल पर तो कभी-कभी कई वर्षों के अंतराल के बाद दिखाई देते हैं। इस अनियमितता को टिड्डी गतिविधि की आवधिकता (periodicity) कहा जाता है। जिसके 1812 के बाद से भारत में कम से कम 15 चक्र दर्ज किए गए हैं। पिछले साठ वर्षों में रेगिस्तानी टिड्डे कि दो बड़ी लहरें (1968, 1993) देखने को मिली है और ये लगातार आज भी अनियमित अंतराल पर आते हैं और एक महामारी बनकर उभरते हैं।

वर्ष 2020, मानव जाति के लिए अब तक काफी चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है। जहां एक ओर पूरी दुनिया नॉवेल कोरोनोवायरस महामारी से लड़ रही है और इसके प्रसार को रोकने के लिए ज़िंदगियाँ समेट अपने घरों में बंद है, तो वही दूसरी ओर कुछ अफ्रीकी और एशियाई देशों में प्रकृति ने टिड्डियों के झुंड (लोकस्ट स्वॉर्म) के रूप में एक नया खतरा पैदा किया है। ये टिड्डियाँ एक बार फिर अपने विकराल रूप में हमारे सामने हैं और फसलों पर कहर बरपा रहे हैं। इस बार इनके आगमन के अलग-अलग कारण बताए जा रहे हैं, कोई बदलते भूमि स्वरूप को कारण बता रहा, तो कोई रेगिस्तानी क्षेत्रों में बढ़ी हरियाली, वही कुछ ऐसे भी हैं जो पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कारण बता रहे हैं। इनके आगमन के बारे में जानने से पहले लोकस्ट से संक्षिप्त में परिचित हो लेते हैं।

लोकस्ट एक्रीडिडे (Acrididae) परिवार से छोटी सींग वाले टिड्डे (short-horned grasshopper) की कुछ प्रजातियों के झुंड बनाने कि अवस्था (स्वार्मिंग फेज) है। लोकस्ट और ग्रासहॉपर की प्रजातियों के बीच कोई टैक्सोनोमिक अंतर नहीं है, ये ग्रासहॉपर कि तरह ही दिखते हैं लेकिन व्यवहार में उनसे बिल्कुल अलग होते हैं। ग्रासहॉपर कृषि भूमि पर पाए जाते हैं जबकि लोकस्ट रेगिस्तानी और शुष्क परिस्थितियों में पाए जाते हैं। ग्रासहॉपर में कोई रूपात्मक बदलाव देखने को नहीं मिलता जबकि लोकस्ट के नब्बे दिनों के जीवनकाल में कई बदलाव देखने को मिलते हैं।

लोकस्ट दुनिया का सबसे पुराना एवं अत्यधिक विनाश क्षमता के कारण ध्यानाकर्षी प्रवासी कीट है। लोकस्ट मुख्यतः ग्रासहॉपर ही होते हैं जो सूखे घास के मैदान और रेगिस्तानी इलाकों में अत्यधिक पाए जाते हैं। आमतौर पर लोग ग्रासहॉपर (long-horned grasshopper) को भी लोकस्ट समझ बैठते हैं क्यूँकि ग्रासहॉपर भी गर्मियों कि अनुकूल परिस्थितियों में प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और एक सीमित क्षेत्र में फसलें नष्ट करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये टिड्डे आमतौर पर एकान्त वासी होते हैं लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में फेनोटाइपिक बदलाव (phenotypic shift) के कारण संख्या बढ़ने पर व्यवहार में कुछ बदलाव (phase change) के साथ ये झुण्ड में रहना (ग्रीगेरियस) और प्रवासी व्यवहार (migratory behaviour) का प्रदर्शन करने लगते हैं। बस इसी आधार पर इनको परिभाषित किया गया है। इस परिवर्तन को तकनीकी भाषा में “घनत्व-निर्भर फेनोटाइपिक प्लास्टिसिटी” (density-dependent phenotypic plasticity) कहा जाता है।

पहली बार बोरिस उवरोव (Boris Uvarov) ने अपरिपक्व टिड्डे (immature hopper) के झुंड में रहने वाले हॉपर के रूप में विकसित होने को फेज पॉलीमोरफिसम बताते हुए इनके दो चरणों (phases) कि व्याख्या की, पहला सॉलिटेरिया (solitaria) और दूसरा ग्रेगारिया (gregaria)। इन्हें वैधानिक (statary) और प्रवासी रूप (morphs) के रूप में भी जाना जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एकान्तवासी टिड्डे शुष्क मौसम के दौरान सीमित क्षेत्र में बचे पेड़-पौधों के कारण एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं। पीछे के पैरो की बढ़ती स्पर्श उत्तेजना से सेरोटोनिन के स्तर में वृद्धि होती है जो कि टिड्डे का रंग बदलने, अधिक खाने, और आसानी से प्रजनन करने का कारण बनता है। टिड्डियों का प्रजनन रेगीस्तानी इलाकों में होता है और अक्सर वनों, कृषि क्षेत्रों और देहाती आजीविका के साथ मेल खाता है। टिड्डियों के लिए कूल तीन प्रजनन के मौसम होते हैं (i) विन्टर ब्रीडिंग [नवंबर से दिसंबर], (ii) स्प्रिंग ब्रीडिंग [जनवरी से जून] और (iii) समर ब्रीडिंग [जुलाई से अक्टूबर]। भारत में टिड्डी प्रजनन का केवल एक मौसम, समर ब्रीडिंग, देखने को मिलता है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में स्प्रिंग और समर ब्रीडिंग दोनों हैं।

टिड्डियों का जीवन चक्र तीन अलग-अलग चरण होते हैं, अंडा, हॉपर और वयस्क। टिड्डियाँ नम रेतीली मिट्टी में 10 सेन्टमीटर कि गहराई पर अंडे देती हैं। ग्रेगेरीअस मादाएँ आमतौर पर 2-3 बीजकोष (pods) में अंडे देती हैं जिसके एक पॉड में 60-80 अंडे होते हैं। सॉलिटेरियस मादा ज्यादातर 3-4 बीजकोष में औसतन 150-200 अंडे देती है। अंडों के विकास की दर मिट्टी की नमी और तापमान पर निर्भर करता है। 15°C से नीचे कोई विकास नहीं होता है। ऊष्मायन अवधि (incubation period) इष्टतम तापमान (Optimum temperature) 32-35 डिग्री सेल्सियस के बीच 10-12 दिन का होता है।

दुनिया भर में ग्रासहॉपर कि लगभग 28500 प्रजातियाँ हैं जिनमें से मात्र 500 ऐग्रिकल्चरल पेस्ट के रूप में मौजूद है और केवल 20 ही ऐसे हैं जो लोकस्ट बनने कि क्षमता रखते हैं। भारत में मुख्य तौर से चार प्रजातियां, रेगिस्तानी टिड्डा या डेसर्ट लोकस्ट (Schistocerca gregaria), अफ्रीकी प्रव्राजक टिड्डा या अफ्रीकन माइग्रटोरी लोकस्ट (Locusta migratoria), बम्बई टिड्डा या बॉम्बे लोकस्ट (Patanga succincta) और वृक्षीय टिड्डा या ट्री लोकस्ट (Anacridium spp.) सक्रिय रहती हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऊष्मायन पूरा होने के बाद अंडे हैच होते हैं और निम्फ (युवा) बाहर आते हैं जिन्हें “हॉपर” कहा जाता है। ग्रीगेरियस चरण में 5 इंस्टार और सॉलीटेरियस आबादी में 5-6 इंस्टार होते हैं। प्रत्येक इंस्टार में एक अलग वृद्धि और विशेष रंग का परिवर्तन होता है। हॉपर का विकास दर तापमान पर निर्भर करता है। जहां 37°C के औसत तापमान पर 22 दिन लगते हैं तो वही 22°C के औसत तापमान पर 70 दिनों तक कि देरी हो सकती है।

पाँचवी इन्स्टार अवस्था के बाद हॉप्पर वयस्क हो जाते है। इस परिवर्तन को ‘फलेजिन्ग’ कहा जाता है और युवा वयस्क को ‘फलेजलिङ्ग’ या ‘अपरिपक्व वयस्क’ कहा जाता है।  यौन परिपक्वता की अवधि भिन्न होती है। उपयुक्त स्थिति में वयस्क 3 सप्ताह में परिपक्व हो सकता है और ठंढे और / या सूखे कि स्थिति में 8 महीने का समय लग सकता है। इस चरण के दौरान वयस्क अनुकूल प्रजनन स्थिति की खोज के लिए उड़ान भरते हैं और हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इस दौरान अगर किसी भी समय अनुकूल परिस्थितियाँ मिले तो वे ग्रेगेरीअस हो सकते हैं।

युवा अवयस्क टिड्डे हैचिंग के समय एकान्तवासी होते है और अपने परिवेश के साथ फिट होने के लिए हरे और भूरे रंग के होते हैं। जब भोजन बहुतायत में होता है तो डेसर्ट लोकस्ट प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और “ग्रेगेरीअस अवस्था” प्राप्त करते हैं। युवा अपरिपक्व वयस्क रंग में गुलाबी होते हैं जबकि पुराने वयस्क ठंड की स्थिति में गहरे लाल या भूरे रंग के हो जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

जैसे-जैसे वे बड़े और सघन होते जाते हैं वे एक समूह के रूप में कार्य करते हुए व्यावहारिक बदलाव के साथ उड़ने वाला झुंड बनाते हैं जिसे स्वॉर्म कहते हैं। टिड्डे के झुंड के रूप में परिवर्तन चार घंटे की अवधि में प्रति मिनट कई संपर्कों से प्रेरित होता है। हजारों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले एक बड़े झुंड में अरबों टिड्डे हो सकते हैं, जिनकी आबादी लगभग 80 मिलियन प्रति वर्ग किलोमीटर होती है। इस बिंदु पर टिड्डे पूरी तरह से परिपक्व और वयस्क होते हैं। परिपक्वता पर वयस्क चमकीले पीले हो जाते हैं। नर मादा से पहले परिपक्व होते हैं। टिड्डों के व्यवहार और शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन प्रतिवर्ती होते हैं जिससे अंत में अपने मूल रूप में बदल सकते हैं या अपनी संतानों को पारित कर सकते हैं।

लगभग तीन महीने के प्रजनन चक्र के बाद टिड्डे एक अंडे से वयस्क होते हैं और संख्या में 20 गुना वृद्धि ला सकते हैं। यह छह महीने के बाद 400 गुना और नौ महीने के बाद 8,000 तक बढ़ सकता है। ये हजारों लाखों के झुण्ड में आकर पेड़ों, पौधों या फसलों के पत्ते, फूल, फल, बीज, छाल और फुनगियाँ सभी खा जाते हैं। ये इतनी संख्या में पेड़ों पर बैठते हैं कि उनके भार से पेड़ टूट तक सकता है। एक टिड्डा अपने वज़न के बराबर भोजन चट करता है यानी कम से कम दो ग्राम। उड़ते बैंड के टिड्डे भोजन कि कमी के दौरान एक-दूसरों को काटते हुए नरभक्षी क्रिया को भी दर्शाते हैं। रेगिस्तानी टिड्डियों में माइग्रैशन उनकी इस नरभक्षी क्रिया से प्रभावित होता है। सेपीदेह बज़ाज़ी  द्वारा किये शोध से पता चलता है कि टिड्डे के झुंड इसलिए बनते हैं क्योंकि वे अपने नरभक्षी पड़ोसी से खुद को बचाने के लिए एक कदम आगे रहना पसंद करते हैं।

टिड्डियों के स्वॉर्म के रूप में आगमन के लिए पूरी तरह से किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इनके आगमन के पीछे एक प्राकृतिक क्रम है जिसका ये पालन करते हैं। हां, लैंड यूज पैटर्न में बदलाव, बढ़ते तापमान और हरियाली आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसी प्राकृतिक क्रम में एक निश्चित काल पर। जैसे कि अंडे हैच होने के लिए उपयुक्त तापमान और नमी कि जरूरत, निम्फ्स को वयस्क होने के लिए भोजन के तौर पर हरियाली आदि कि जरूरत। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

टिड्डी दल के आगमन का जैविक सिद्धांत डॉ एस प्रधान द्वारा वर्ष 1967 में दिया गया था, जो उस समय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में एंटोमोलॉजी के प्रमुख थे। सिद्धांत के अनुसार टिड्डे अर्ध रेगिस्तानी इलाकों में प्रजनन करते हैं जहाँ 15 सेंटीमीटर की गहराई तक अंडे देने के लिए रेतीली मिट्टी उपयुक्त होती है। टिड्डे इन क्षेत्रों के भीषण वातावरण को सहने में सक्षम होते है, जबकि उनके शिकारी, जैसे कि छिपकली, सांप, पक्षी, छछूंदर, हेजहॉग, मोल्स आदि को रेगिस्तान और अर्ध रेगिस्तान की भीषण स्थितियों का सामना करने में मुश्किल आती है और इसलिए वे धीरे-धीरे भीषण क्षेत्रों कि परिधि पर अधिक सहिष्णु क्षेत्र कि ओर चले जाते हैं।

लेकिन रेगिस्तानी इलाकों में एक या दो दशक में एक बार पर्याप्त वर्षा होती है, जिससे सेज (sedge) घास और अन्य खरपतवारों का विकास होता है और टिड्डों को अपनी पूर्ण जैविक क्षमता के बराबर भोजन मिलता है। शिकारी जीव जो भीषण परिस्थितियों के कारण इनके प्रजनन क्षेत्र से बाहर परिधि कि तरफ चले गए थे, स्थिति सामान्य होने पर टिड्डियों कि आबादी को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त तेजी लौट नहीं पाते। इनकी आबादी शिकारियों की अनुपस्थिति में बहुत तेजी से बढ़ती है। प्राकृतिक दुश्मनों द्वारा अनियंत्रित, टिड्डी एकान्त चरण से प्रवासी चरण की ओर बढ़ती है और बड़े स्वॉर्म में विकसित होती है और अंत में प्रजनन के क्षेत्रों से बाहर निकलती है, जिससे भारी विनाश होता है। लोकस्ट स्वॉर्म के मरुस्थलीय क्षेत्रों से बाहर निकलने के बाद कुछ वयस्क और निम्फ की बिखरी हुई आबादी जो पीछे रह जाती है, सहिष्णु पर्यावरणीय परिस्थितियों के दूसरे चरण के आगमन तक एकान्तवासी चरण के रूप में मॉरिटानिया और भारत के बीच रेगिस्तान में हमेशा मौजूद रहते हैं।

ग्रासहॉपर दुनिया भर के चरागाह पारिस्थितिक तंत्र के प्रमुख घटक हैं और ट्रॉफिक गतिशीलता और पोषक तत्वों के साइक्लिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन जब अच्छी बारिश के कारण हरे-भरे घास के मैदान विकसित होते हैं तो ये रेगिस्तानी टिड्डे एक या दो महीने के भीतर तेजी से संख्या बढ़ा इकट्ठे होते हैं और एक भयानक झुंड का रूप ले लेते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

समय पर नियंत्रित नहीं किये जाने पर पंखहीन हॉपरों के छोटे समूह या बैंड पंखों वाले वयस्क टिड्डे के छोटे समूह या स्वॉर्म का निर्माण कर सकते हैं जिसे एक विस्फोट (OUTBREAK) कहा जाता है और यह आमतौर पर किसी देश के एक हिस्से में लगभग 5,000 वर्ग किमी तक होता है। यदि एक विस्फोट या समसामयिक कई विस्फोटों को नियंत्रित नहीं किया जाता है और आसपास के क्षेत्रों में व्यापक या असामान्य रूप से भारी बारिश होती है, तो प्रजनन के कई सिलसिलेवार मौसम बन सकते हैं जो आगे चलकर हॉपर बैंड और वयस्क झुंड के गठन का कारण बनते हैं। इसे अभ्युत्थान (UPSURGE) कहा जाता है और आम तौर पर पूरे क्षेत्र को प्रभावित करता है।

यदि एक अभ्युत्थान को नियंत्रित नहीं किया जाता है और पारिस्थितिक स्थिति प्रजनन के लिए अनुकूल रहती है तो टिड्डे की आबादी संख्या और आकार में वृद्धि जारी रखती है जो एक महामारी (PLAGUE) के रूप में विकसित हो सकता है। महामारी के समय अधिकांश संक्रमण बैंड और स्वार्म्स के रूप में होते हैं। जब दो या दो से अधिक क्षेत्र एक साथ प्रभावित होते हैं तो एक बड़ी महामारी होती है।

टिड्डी विस्फोट सामान्य है और आमतौर पर होते रहते हैं, इनमें से कुछ ही विस्फोट ऐसे हैं जो अभ्युत्थान का रूप लेते हैं और इसी तरह कुछ अभ्युत्थान महामारी का रूप। आखिरी महामारी को 1987-89 में तथा आखिरी बड़ा अभ्युत्थान 2003-05 में देखा गया था। अभ्युत्थान और महामारी किसी एक रात में नहीं उभरते, इन्हे विकसित होने में कई महीनों से लेकर एक या दो वर्ष का समय भी लग सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैश्विक स्तर पर लोकस्ट कि निगरानी संयुक्त राष्ट्र के फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेसन (FAO) का लोकस्ट वॉच विभाग करता है जिसके मुताबिक वर्तमान टिड्डियों के आतंक की कहानी साल 2018 में अरबी प्रायद्वीप पर आए चक्रवाती तूफानों और भारी बारिश के साथ शुरू हुई थी। मई के तूफान से ही इतना पानी हो गया कि अगले छह महीनों के लिए रेगिस्तान में हरियाली उपजी जिस पर टिड्डियों की दो पीढ़ियां जीवन गुज़ार सकती थीं। इसके बाद अक्टूबर के तूफान के कारण टिड्डियों को प्रजनन और पनपने के लिए और कुछ महीनों का आधार मिल गया जहां इनकी तीन पीढ़ियाँ पली। यहां से ये खतरनाक हुईं और साल 2019 से अफ्रीका को निशाना बनाया। चक्रवातों के चलते ओमान और यमन जैसे दूरदराज के एकदम अविकसित इलाकों में टिड्डियों ने अपनी आबादी बढ़ाई।

एफएओ के लोकस्ट विशेषज्ञ कीथ क्रेसमैन के मुताबिक मानव संसाधन और उपग्रहों के माध्यम से संस्था टिड्डियों के दलों के संकट को लेकर निगरानी रखती है, लेकिन इस मामले में नाकाम साबित हुई। मॉनिटरिंग नेटवर्क ध्वस्त हो गया। क्रेसमैन के मुताबिक किसी को नहीं पता था कि धरती के इस दूरस्थ इलाके में तब क्या हो रहा था। इस इलाके में कुछ नहीं है, सड़कें नहीं हैं, कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है, फेसबुक नहीं, कुछ भी नहीं है। कुछ है तो रेत के बड़े बड़े टीले हैं, जो स्काईस्क्रेपरों से कम नहीं हैं।

जब टिड्डियों के दल झुंड में रहने की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं, तब ये मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट वाले भोजन पर निर्भर करने लगते हैं। जिस मिट्टी से लगातार फसलें ली जा चुकी हैं और जो ज़रूरत से ज़्यादा चराई जा चुकी है, उसमें से नाइट्रोजन गायब हो चुकी है। इसकी वजह से प्रोटीन तो मिट्टी में है नहीं इसलिए कार्बोहाइड्रेट बहुलता वाली घासें पैदा होती हैं। विशेषज्ञों ने दक्षिण अमेरिकी टिड्डियों पर किए अध्ययन में यह पाया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

साल 2018 के आखिर में जब ओमान में लोगों ने टिड्डियों के दलों को देखा तब कहीं जाकर क्रेसमैन की संस्था तक खबर पहुंची और अलर्ट कि स्थिति बनी। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। यहां से टिड्डियों के दल यमन और ईरान तक पहुंच चुके थे और ओमान से लगातार निकलते हुए सामने आ रहे थे। युद्धग्रस्त रहे यमन के पास टिड्डियों के हमले से लड़ने के लिए फोर्स न होने का संकट था। यमन में इन स्थितियों के दौरान भारी बारिश हुई और टिड्डियों के दलों को प्रजनन के साथ ही और पनपने का अनुकूल वातावरण मिल गया। पिछले (2019) के बसंत और गर्मियों के मौसम में टिड्डियों की आपदा यहां से सोमालिया पहुंची और उसके बाद इथोपिया और केन्या में कहर टूटा। बीते मार्च अप्रैल में पूर्वी अफ्रीका में भारी बारिश हुई, जो फिर टिड्डियों के लिए वरदान साबित हुई। पिछले चालीस वर्षों में, रेगिस्तानी टिड्डे का निवारक रणनीति (preventive strategy) से नियंत्रण प्रभावी साबित हुआ है लेकिन टिड्डियों के विनाशकारी आवृत्ति और अवधि में कमी आने से लापरवाही और संगठनात्मक समस्याओं के कारण टिड्डियों का झुंड एक बार फिर गंभीर समस्या बनकर उभरा है।

हमले के समय टिड्डियों का सामना करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये बहुत बड़े इलाके में फैली होती हैं। टिड्डियों से निपटने में प्रारंभिक हस्तक्षेप ही स्वॉर्म को रोकने का एकमात्र सफल उपाय है। दुनिया भर के कई संगठन टिड्डियों से खतरे की निगरानी करते हैं। वे निकट भविष्य में टिड्डियों से पीड़ित होने की संभावना वाले क्षेत्रों का पूर्वानुमान प्रदान करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एफएओ की डेजर्ट लोकस्ट इनफार्मेशन सर्विस (DLIS) रोम, इटली से मौसम, पारिस्थितिक स्थितियों और टिड्डियों की स्थिति की दैनिक निगरानी करती है। DLIS प्रभावित देशों में राष्ट्रीय टीमों द्वारा किए गए सर्वेक्षण और नियंत्रण कार्यों के परिणाम प्राप्त करता है और इस जानकारी को उपग्रह डेटा, जैसे कि MODIS, वर्षा के अनुमान और मौसमी तापमान और वर्षा की भविष्यवाणी आदि के साथ जोड़कर वर्तमान स्थिति का आकलन कर अगले छह सप्ताह में होने वाले प्रजनन और प्रवास कि सूचनाओं का अनुमान लगता है।

भारत में वनस्‍पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय (DPPQ&S) द्वारा गठित टिड्डी चेतावनी संगठन (Locust Warning Organisation) विभाग को अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों (Scheduled Desert Area) विशेष रूप से राजस्थाान और गुजरात राज्यों में रेगिस्तानी टिड्डी पर निगरानी, सर्वेक्षण और नियंत्रण का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। LWO, DLIS द्वारा जारी मासिक टिड्डी बुलेटिन के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा टिड्डी की स्थिति की अद्यतन जानकारी रखता है। कृषि कार्यकर्ताओं द्वारा खेतों से टिड्डियों कि स्थिति के सर्वेक्षण कर आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। फिर उन्हें LWO के मंडल कार्यालयों, क्षेत्रीय मुख्यालय, जोधपुर और केन्द्रींय मुख्यालय, फरीदाबाद भेजा जाता है जहां पर उनका परस्पर मिलान करके संकलित किया जाता है और टिड्डी के प्रकोप और आक्रमण की संभावना के अनुसार पूर्व चेतावनी के लिए विश्लेषण किया जाता है। टिड्डी की स्थिति से राजस्थान और गुजरात की राज्य सरकारों को अवगत कराया जाता है और उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को तैयार रखें। टिड्डी सर्वेक्षण के आंकड़ों को शीघ्रता से भेजने, उनका विश्लेषण करने के लिए e-locust2 / e-locust3 और RAMSES जैसे नवीन साफ्टवेयर का उपयोग किया जाता है।

ऐतिहासिक तौर पर लोग फसलों को टिड्डियों से बचाने अक्षम थे, हालांकि, आज हमारे पास पूर्वजों की तुलना में टिड्डियों से लड़ने के लिए गहन ज्ञान और प्रौद्योगिकी का फायदा है लेकिन फिर भी प्रभावित क्षेत्रों के अधिक फैलाव (16-30 मिलियन किमी), सीमित संसाधन, अविकसित बुनियादी ढाँचा और उन क्षेत्रों की पारगम्यता, आदि के कारण टिड्डियों को नियंत्रित या रोक पाना मुश्किल हो जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्तमान में, रेगिस्तानी टिड्डी के संक्रमण को नियंत्रित करने की प्राथमिक विधि ऑर्गनोफॉस्फेट केमिकल्स (हर्बिसाइड और कीटनाशक में प्रमुख घटक) कि छोटी-छोटी गाढ़ी खुराकें हैं। जिनको वाहन पर लगे या फिर हवाई स्प्रेयरस से अति कम मात्रा में (ULV) छिड़क कर किया जाता है। कीटनाशक को टिड्डे सीधे या परोक्ष रूप से पौधे पर चलने से अथवा उनके अवशेषों को खाने पर अधिग्रहित कर लेते हैं। ये नियंत्रण पूरी तरह सरकारी एजेंसियों द्वारा किया जाता है। भारत के अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्रयोग के लिए DPPQ&S ने 4 कीटनाशक कि मंजूरी दी है। फसलों, बबूल, खैर और अन्य पेड़ों पर रेगिस्तानी टिड्डे के नियंत्रण के लिए 11 कीटनाशकों को मंजूरी दी है।

टिड्डियों के रोकथाम के लिए फन्जाइ, बैक्टीरीया, और नीम के रस से बने जैविक कीटनाशकों का उपयोग भी किया जाता है। कई जैविक कीटनाशकों की प्रभावशीलता पारंपरिक रासायनिक कीटनाशकों के बराबर है लेकिन सामान्य रूप से इनके इस्तेमाल से कीटों को मारने में अधिक समय लगता है। इनके रोकथाम के लिए प्रभावित क्षेत्रों में किसानों ने ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है जिन्हें लोकस्ट स्वॉर्म के मौसम से पहले काटा जा सके। इसके अतिरिक्त, सेरोटोनिन के निषेध से लोकस्ट कि संख्या को प्रयोगशालाओं में नियंत्रित करने में सफलता मिली है, लेकिन इस तकनीक का फील्ड टेस्ट अभी बाकी है।

रेगिस्तानी टिड्डियों के शिकारी ततैया और मक्खियाँ (wasp and flies), परजीवी ततैया (parasitoid wasps), शिकारी बीटल लार्वा, पक्षी और सरीसृप आदि प्राकृतिक दुश्मन होते हैं। हाल ही में डॉ धर्मेन्द्र खांडल ने सवाई माधोपुर में जकोबीन कुक्कू, मोरनी को इनका शिकार करते देखा है। लेकिन इन शिकारियों कि सिमा है कि ये एकान्त आबादी को नियंत्रण में रखने में प्रभावी हो सकते हैं। स्वॉर्म और हॉपर बैंड में टिड्डों की भारी संख्या होने के कारण उनके खिलाफ इनका प्रभाव सीमित है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल) 

हालांकि टिड्डे के हमले को समाप्त करना लगभग असंभव है, लेकिन स्वॉर्मस पर आक्रमण करके, अंडे कि एक बड़ी संख्या को नष्ट कर इनकी गंभीरता को कम किया जा सकता है। वर्तमान ‘प्लेग’ को नियंत्रित करने के लिए प्रभावित देशों में कड़े प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन आखिरकार ये कैसे समाप्त होंगे यह कह पान मुश्किल है। फिलहाल मानसून ही इनके स्वॉर्म को कुछ हद तक नियंत्रित कर पाएगा।

References:

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  1. लोकस्ट वाच, फूड एण्ड ऐग्रिकल्चरल ऑर्गनाइजेशन http://www.fao.org/ag/locusts/en/info/info/index.html
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