साँड़ा, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पायी जाने वाली छिपकली, जो मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है परन्तु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते इसकी आबादी घोर संकट का सामना कर रही हैं।

साँड़े का तेल, भारत के विभन्न हिस्सो मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि हैं परन्तु इस तेल का तथाकथित बिमारियों मे कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र हैं एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाये गये हैं। आज इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बहुतायत में अवैध शिकार किया जाता हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सांडो की आबादी तेजी से घटती जा रही हैं।

साँड़े के नाम से जाने जाने वाला ये सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाए जाने वाली एक छिपकली हैं। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मजबूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती हैं। साँड़ा का अँग्रेजी नाम, Spiny-tailed lizard होता है जो इसे इसकी पूंछ पर पाये जाने वाले काँटेदार स्केल्स के अनेकों छल्लो (Rings) की शृंखला के कारण मिला हैं।

विश्वभर में साँड़े की 20 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो की उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम “Saara hardiwickii” हैं, जो की मुख्यतः अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा, एवं गुजरात के कच्छ जिले के शुष्क घास के मैदानों में पायी जाती है। कुछ शोधपत्रों के अनुसार साँड़े की कुछ छोटी आबादियाँ उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, उत्तरी कर्नाटक, तथा पूर्वी राजस्थान के अलवर एवं सवाई माधोपुर जिलों में भी पायी जाती हैं, जो की इनके शुष्क आवास के अलावा अन्य आवासों में वितरण को दर्शाती हैं। वहीँ दूसरी ओर वन्यजीव विशेषज्ञो के अनुसार साँड़े का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों, मुख्यत: अवैध शिकार का परिणाम हो सकता हैं क्योंकि वन्यजीव व्यापार में अनेकों जीवो को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता हैं।

साँड़े की भारतीय प्रजाती में नर (40 से 49 सेमी) सामन्यत: आकार में मादा (34 से 40 सेमी) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हें। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर से नुकीली होती हें जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे से भोंटी होती हैं।

भारतीय साँड़ा छिपकली (Indian Spiny tailed lizard “Saara hardiwickii”)

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पायी जाने वाली साँड़े की आबादी में, त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के स्केल्स में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परन्तु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में इस तरह का कोई भी रंग नहीं पाया जाता है। दोनों राज्यों में पायी जाने वाली आबादी में रंग के इस अंतर का कारण जानने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता हैं। परन्तु रंगों में यह अंतर आहार में भिन्नता तथा दोनों आवास में पायी जाने वाली वनस्पतियों में अंतर होने के कारण भी हो सकता है।

भारतीय साँड़े को भारत मे पाये जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनो की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता हैं लेकिन शिशु साँड़ा प्रायतः वनस्पति के साथ विभ्न्न कीटो मुख्यत: भृंग, चींटिया, दीमक, एवं टिड्डे का सेवन करते भी जाने जाते हैं।बारिश मे एकत्रित किए गए कुछ वयस्क साँड़ो के मल में भी कीटो की बहुतायत मिलना इनकी आहार के प्रति अवसरवादिता को दर्शाता हैं।

साँड़ा, मुख्यरूप से शाकाहारी भोजन पर ही निर्भर रहती है

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए साँड़े भी अन्य मरुस्थलीय जीवो के समान भूमिगत माँद में रहते हैं। साँड़े की माँद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा इसी कारण से यह अन्य सस्थलीय जीवों की माँद से अलग दिखाई पड़ती हैं। ये मांदे अक्सर टेड़ी-मेढी, सर्पाकर तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती हैं। माँद का आंतरिक तापमान बाह्य तापमान की तुलना में बहुत ही प्रभावी रूप से कम होता हैं, जिससे साँड़े को रेगिस्तान की भीषण गर्मी में सुरक्षा मिलती हैं। ये छिपकली दिनचर होती हैं तथा माँद में आराम करते समय अपनी काँटेदार पूंछ से प्रवेशद्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों विशेषकर परभक्षी जीवो को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को अपनी पूंछ द्वारा मिट्टी से सील भी कर देती हैं।

माँद बनाना, रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है तथा इसी कारण पैदा होने के कुछ ही समय बाद ही साँड़े के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ माँद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान साँड़े भी अत्यात्धिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिंद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की रस प्रक्रिया (metabolism) दर को धीमी कर शरीर में संचित वसा (stored fats) पर ही जीवित रहते हैं। हालांकि कच्छ के घास के मैदानों में शिशु साँड़ों को अक्सर दिसम्बर एवं जनवरी माह में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका मुख्य कारण कच्छ में सर्दियों के समय तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता हैं।

साँड़ों का प्रजनन काल फरवरी माह से शुरू होता है और उनके छोटे शिशुओं को जून व् जुलाई के महीने तक घास के मैदानों में इधर-उधर दौड़ते हुए देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय के दौरान भी ये छिपकलियां प्रकृति में सख्ती से दिनचर बनी रहती हैं तथा इनकी गतिविधियां सूर्योदय के साथ शुरू होती हैं एवं सूर्य क्षितिज से नीचे पहुंचते ही समाप्त हो जाती हैं। गर्मी के दिनों में तेज धूप खिलने पर यह भरी दोपहर तक सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहे तो इनकी शाम तक भी रहती है।

साँड़ा मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरमिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लाइकोजन और वसा की अधिक मात्रा, इसे रेगिस्तान में अनेकों परभक्षी जीवो के लिए प्रमुख भोजन बनाते हैं। साँड़े को दोनों, भूमि तथा हवा से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल मे पाये जाने वाले परभक्षी जीवो की विविधता एवं बहुतायता जिनमे स्तनधारी, सरीसृप, स्थानीय एवं प्रवासी शिकारी पक्षी शामिल हैं, सांडो की बड़ी आबादी का ही परिणाम हैं। हैरियर और फाल्कन जैसे कई अन्य शिकारी पक्षियो को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते हुए देखा जा सकता है। केवल बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं परंतु किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात साँड़ों का शिकार करने का अवसर नहीं गवाते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इन उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत साँड़ों को प्राप्त करने का एक अवसर भी नही गवातें। थार रेगिस्तान में विषहीन सांप की एक आम प्रजाति जिसे आम बोली में दो मूहीया धुंभी (Red sand-boa) कहते हैं, अक्सर साँड़े को माँद से बाहर खदेड़कर कहते हुए देखी जा सकती हैं। दो मूही द्वारा माँद में हमला करने पर साँड़े के पास अपने पंजो से जमीन पर मजबूत पकड़ बनाने एवं माँद की संकीर्न्ता के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता हैं। हालांकि दोमूही के लिए भी ये कार्य अत्यधिक ऊर्जा व समय की खपत करने वाला होता है क्योंकि साँड़े को माँद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन ये प्रयास व्यर्थ नहीं हैं क्योंकि एक सफल शिकार की कीमत ऊर्जा युक्त भोजन होती है। प्रायतः संध्या काल में सक्रिय होने वाली भारतीय मरु-लोमड़ी भी अपनी वितरण सीमा में अक्सर साँड़े को माँद से खोदकर शिकार करती देखी जा सकती हैं।

खाद्य पिरामिड के विभिन्न ऊर्जा स्तरो से परभक्षी जीवो की ऐसी विविधता के कारण साँड़े ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किये है। हालांकि इस छिपकली के पास किसी भी प्रकार की आक्रामक सुरक्षा प्रणाली से नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसका प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सुखी घास के समान होता हैं, जो इसके आसपास के पर्यावास में अच्छी से घुलकर एक छलावरण का कार्य करता हैं एवं इसे शिकारियों की नजर से बचाता हैं।

यदि छलावरण शिकारियों के खिलाफ काम नहीं करता, तो यह शिकारियों से बचने के लिए अपनी गति पर निर्भर रहती हैं। साँड़ा छिपकली के पीछे के टांगे मजबूत तथा उंगलिया लम्बी होती हैं जो इसे किसी भी शिकारी  से बचने के लिए उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। गति के साथ-साथ, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है। विशेष रूप से, जब शिशुओं के साथ हो, वयस्क छिपकली आगे के पैरो पर सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पे नजर रखती हैं। साँड़ा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढ़ती हैं और आसपास में एक मामूली हलचल मात्र से ही खतरा भांप कर निकट की माँद मे भाग जाती हैं। साँड़े अक्सर समूहो में रहते है तथा अपनी माँद एक दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरो को मादाओ से मिलन के लिए मुक़ाबला करते देखा जा सकता हैं। नर अपने इलाके को लेकर सक्त क्षेत्रीयत्ता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

आज मनुष्यों से, साँड़ा छिपकली को बचाने के लिए न तो छलावरण, न ही गति और न ही सतर्कता पर्याप्त प्रतीत होती हैं। साँड़े की वितरण सीमाओं में इनके अंधाधुन शिकार की घटनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं। माँद में रहने वाली इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारीयो को भी अनेकों तरीके इस्तेमाल करते देखा गया हैं।सबसे सामन्या तरीके में साँड़े की माँद को गरम पानी से भर के या माँद खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता हैं। एक अन्य तरीके में शिकारी, साँड़े की माँद ढूंढने के बाद उसके प्रवेश द्वार पर एक छोटी रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे जमीन में गाड़ देते हैं। जब साँड़ा अपनी माँद से बाहर निकलता है तो उस समय ये फंदा उसके सर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही साँड़ा वापस माँद में जाने की कोशिश करता हैं वैसे ही फंदा उसके शरीर पे कस जाता हैं, परिणाम स्वरूप साँड़ा वापस माँद में पूरी तरह नहीं जा पता हैं। तभी फिर साँड़े को पकड़ के उंसकी रीड की हड्डी तोड़ दी जाती हैं ताकि वो भाग न सके। तत्पश्चात उसके शरीर से मांस एवं पूंछ के वसा से तेल निकाला जाता हैं।

साँड़े को भारतीय संविधान के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची 2 में रखा गया हैं, जो इसके शिकार पर पूर्णत: प्रतिबंद लगता हैं। हालांकि, भारतीय साँड़े का आईयूसीएन (IUCN) की रेड डाटा लिस्ट के लिए मूल्यांकन नहीं किया गया है, लेकिन यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल हैं। TRAFFIC की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का हिस्सा 1997 से 2001 के बीच सांडो की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार का केवल दो प्रतिशत ही पाया गया, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय पैमाने पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का पर्यायवाची नहीं हैं, अपितु इसकी अधिक मात्र में स्थानीय खपत एवं व्यापार स्थानीय बाजार की स्थिति को दर्शाता हैं।

हाल ही में बेंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार साँड़े के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग हैं। पकड़े गए गिरोह का सम्बन्ध राजस्थान के जैसलमर जिले से पाया गया, जहां पर साँड़े अभी भी बुहतायत में पाये जाते हैं। समय समय पर चर्चा में आने वाले इस तरह के गिरोह का नेटवर्क कितना गहरा पसरा हुआ हैं कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडो को अक्सर कई स्थानीय बाजार में खुले बिकते भी देखा जाता हैं। प्रशासन की सख्ती के साथ साथ आम जनता में जागरूकता सांडो एक सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। अन्यथा भारतीय चीते के समान ये अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डोक्य्मेंटेरी में समा के रहा जाएगा।

सवाल यह है कि क्या भारतीय साँड़ा अपनी गति और सतर्कता के साथ आज की दुनिया में विलुप्ति की कगार से वापस आ सकता है जहां प्राकृतिक आवास शहरी विकास की कीमत चुका रहे हैं और जैवविविधता संरक्षण के नियमों की अनदेखी की जा रही है।