काँटेदार झाऊ-चूहा

काँटेदार झाऊ-चूहा

शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना उद्विकास की कहानी का एक बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है। हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते।

प्रकृति में उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान अनेक जीवों ने बदलते पर्यावास में अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विभिन्न सुरक्षा प्रणालियों को विकसित किया है। कुछ जीवों ने सुरक्षा के लिए झुंड में रहना सीखा, तो बिना हाथ-पैर भी सफल शिकार करने के लिए सांपो ने जहर व जकड़ने के लिए मजबूत मांसपेशियाँ विकसित की। वही कुछ जीवों ने छलावरण विकसित कर अपने आप को आस-पास के परिदृश्य में अदृश्य कर लिया। शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना इस उद्विकास की कहानी का बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है।

हड्डियों के समान बाल अवशेषी रूप में अच्छे से संरक्षित नहीं हो पाते इसी कारण यह बताना मुश्किल है की धरती पर पहला काँटेदार त्वचा वाला जीव कब अस्तित्व में आया होगा। फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार फोलिडोसीरूस (Pholidocerus) नामक एक स्तनधारी जीव आधुनिक झाऊ-चूहों व अन्य काँटेदार त्वचा वाले जीवों (एकिड्ना व प्रोकुपाइन (Porcupine) जिसे हिन्दी में सहेली भी कहते है) का वंशज माना जाता है, जिसका लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आना ज्ञात होता है। झाऊ-चूहे वास्तव में चूहे नहीं होते अपितु छोटे स्तनधारी जीवों के अलग समूह जिन्हे ‘Erinaceomorpha कहते है से संबंध रखते है। जबकि चूहे वर्ग Rodentia से संबंध रखते है जो अपने दो जोड़ी आजीवन बढ़ने वाले आगे के incisor दाँतो के लिए जाने जाते है ।

झाऊ-चूहों में त्वचा की मांसपेशियां स्तनधारी जीवों में सबसे अधिक विकसित व सक्रिय होती है जो की खतरा होने पर काँटेदार त्वचा को फैलाकर लगभग पूरे शरीर को कांटों से ढक देती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ-चूहे के शरीर पर पाये जाने वाले कांटे वास्तव में किरेटिन नामक एक प्रोटीन से बने रूपांतरित बाल ही होते है। यह वही प्रोटीन है जिससे जीवों के शरीर में अन्य हिस्से जैसे बाल, नाखून, सींग व खुर बनते है। किसी भी परभक्षी खतरे की भनक लगते ही ये जीव अपने मुंह को पिछले पैरो में दबाकर शरीर को “गेंद जैसी संरचना” में ढाल लेते है। इनकी त्वचा की मांसपेशियों में कुछ अनेच्छिक पेशियों की उपस्थिति यह दर्शाती है की खतरे की भनक तक लगते ही तुरंत काँटेदार गेंद में ढल जाना कुछ हद तक झाऊ-चूहों की एक उद्विकासीय प्रवृति है। यह ठीक उसी तरह है जैसे काँटा चुभने पर हमारे द्वारा तुरंत हाथ छिटक लेना। सुरक्षा की इस स्थिति में झाऊ-चूहे कई बार परभक्षी को डराने हेतु त्वचा की इन्हीं मांसपेशियों को फुलाकर शरीर का आकार बढ़ा भी लेते है व नाक से तेजी से हवा छोड़ सांप की फुफकार जैसी आवाज निकालते है।

विश्व भर में झाऊ चूहों की कुल 17 प्रजातियाँ पायी जाती है जो की यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका व मध्य एशिया के शीतोष्ण व उष्णकटिबंधीय घास के मैदान, काँटेदार झाड़ी युक्त, व पर्णपाती वनों में वितरित है। आवास के मुताबिक शीतोष्ण क्षेत्र की प्रजातियाँ केवल बसंत व गर्मी में ही सक्रिय रहती है एवं सर्दी के महीनों में शीत निंद्रा (Hibernation) में चली जाती है। भारत में भी झाऊ चूहों की तीन प्रजातियों का वितरण ज्ञात होता है जो की पश्चिम के सूखे इलाकों से दक्षिण में तमिलनाडु व केरल तक वितरित है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा (Indian long-eared Hedgehog) जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है का वैज्ञानिक नाम Hemiechinus collaris है। यह प्रजाति सबसे पहले औपनिवेशिक भारत के ब्रिटिश जीव विज्ञानी थॉमस एडवर्ड ग्रे द्वारा 1830 में गंगा व यमुना नदी के बीच के क्षेत्र से पहचानी गयी थी। इसी क्षेत्र से इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ एकत्रित किया गया था जिसका चित्रण सर्वप्रथम ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी ने “इल्लुस्ट्रेसन ऑफ इंडियन ज़ूलोजी” में किया था।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहे का सबसे पहला चित्र ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी द्वारा बनाया गया तथा वर्ष 1832 में उनकी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” में प्रकाशित किया था। जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यह प्रजाति मुख्यतः राजस्थान व गुजरात के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के साथ- साथ उत्तर में जम्मू , पूर्व में आगरा, पश्चिम में सिंधु नदी, व दक्षिण में पूणे तक पायी जाती है। गहरे भूरे व काले रंग के कांटों वाली यह प्रजाति अन्य दो प्रजातियों की तुलना में आकार में बड़ी होती है। इसके कानों का आकार पिछले पैरों के आकार के बराबर होता है जिस कारण इनके कान कांटों की लंबाई से भी ऊपर दिखाई पड़ते है। झाऊ-चूहे की ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। हालांकि इनका शीत निंद्रा में जाना इनके वितरण के स्थानों पर निर्भर होता है क्योंकि सर्दी का प्रभाव वितरण के सभी इलाकों पर समान नहीं होता है। मरुस्थलीय झाऊ-चूहे मुख्यतः सर्वाहारी होते है जो की कीड़ों, छिपकलियों, चूहों, पक्षियों व छोटे सांपो पर भोजन के लिए निर्भर होता है। ये पके हुए फल व सब्जियाँ बिलकुल पसंद नहीं करते है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है तथा ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मरुस्थलीय झाऊ चूहे के विपरीत भारतीय पेल झाऊ-चूहा Paraechinus mircopus आकार में थोड़ा छोटा व पीले-भूरे कांटों वाला होता है। इसके सर व आंखो के ऊपर चमकदार सफ़ेद बालों की पट्टी गर्दन तक फैली होती है जो इसे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे से अलग पहचान देती है। यह प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। टोर्पोर अवस्था में कोई जीव संसाधनों के अभाव की परिस्थिति में जीवित रहने के लिए अल्पावधि निंद्रा में चले जाते है एवं संसाधनों की बाहुल्यता पर पुनः सक्रिय हो जाते है। अपरिचित पर्यावास में आने पर ये प्रजाति अपने शरीर व कांटो को अपनी लार से भर लेती है। ऐसा शायद अपने इलाके को गंध द्वारा चिह्नित करने या नर द्वारा किसी मादा को आकर्षित करने के लिया हो सकता है परंतु इस व्यवहार का सटीक कारण एक शोध का विषय है। भारतीय पेल झाऊ-चूहे, मरुस्थलीय झाऊ-चूहे की तुलना में बहुत दुर्लभ ही दिखाई देते है व इनका वितरण भी सीमित इलाकों तक ही है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहे का सबसे पहला विवरण ब्रिटिश जीव विज्ञानी एडवर्ड ब्लेथ ने 1846 में दिया जब उन्होने इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के भावलपुर क्षेत्र से एकत्रित किया था। इस प्रजाति का भौगोलिक वितरण मरुस्थलीय झाऊ-चूहे के वितरण के अलावा थोड़ा ओर अधिक दक्षिण तक फैला हुआ है जहां यह तमिलनाडु व केरल में पाये जाने वाले मद्रासी झाऊ-चूहे या दक्षिण भारतीय झाऊ-चूहे Paraechinus nudiventris से मिलता है। मद्रासी झाऊ-चूहा भारत में झाऊ चूहे की सबसे नवीनतम पहचानी गयी प्रजाति है जो पहले भारतीय पेल झाऊ-चूहे की उप-प्रजाति के रूप में जानी जाती थी। इसका सबसे पहला ‘टाइप स्पेसिमेन’ जैसा की इसके नाम से ज्ञात होता है मद्रास से ही एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी होर्सेफील्ड ने 1851 में किया था। हालांकि ये दोनों प्रजातियाँ दिखने में काफी समान होती है परंतु मद्रासी झाऊ-चूहा अपने अधिक छोटे कानों व हल्के भूरा रंग के कारण अलग पहचाना जा सकता है। मद्रासी झाऊ-चूहे का वितरण केवल तमिलनाडु व केरल के कुछ पृथक हिस्सों से ही ज्ञात है जिससे इसे यहाँ की स्थानिक प्रजाति का दर्जा प्राप्त है। ये दोनों प्रजातियाँ मुख्यतः सर्वाहारी होती है जो की अवसर मिलने पर कीड़ो व छोटे जीवों के साथ पके हुए फल व सब्जियाँ भी चाव से खाती है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा (Indian pale Hedgehog), प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ–चूहे की ये तीनों प्रजातियाँ मुख्य रूप से निशाचर होती है तथा दिन का समय अपनी संकरी माँद में आराम करते ही बिताती है। इनकी माँद एक सामान्य पतली व छोटी सुरंग के समान होती है जिसे एक चूहा दूसरों के साथ साझा नहीं करता। साल के अधिकांश समय अकेले रहने वाले ये जीव केवल प्रजनन काल में ही साथ आते है जिसमें एक नर एक से अधिक मादाओं के साथ मिलन का प्रयास करता है। नर बच्चों  के पालन-पोषण में कोई भागीदारी नहीं निभाते है। कुछ लेखों के अनुसार भारतीय पेल झाऊ-चूहो में स्वजाति-भक्षिता भी पायी जाती है, जिसमें नर व मादा दोनों ही भोजन की कमी में अपने ही बच्चों को खाते देखे गए है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा, व्यवहार की दृष्टि से ये प्रजाति अधिक स्थानों तक प्रवास नहीं करती एवं आवास सुरक्षित होने पर कई साल तक एक ही माँद का प्रयोग कर उसके आस-पास के इलाकों में ही विचरण करती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। सांपो के शिकार के लिए कुख्यात नेवले इन छोटे काँटेदार जीवों को भी आसानी से शिकार बना लेते है। फ़ौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया के एक लेख में जीव विशेषज्ञ ई -ऑ ब्रायन अपने एक अवलोकन के बारे में बताते है जिसमें एक भारतीय नेवला गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट कर उसके बन्द मुंह के हिस्से पर तब तक वार करता है जब तक उसे शरीर का कोई हिस्सा पकड़ में नहीं आता। काफी लंबे चलते इस संघर्ष के अंत में उसे झाऊ चूहे का मुंह पकड़ में आ ही जाता है व उसे पास के झाड़ी में ले जाकर खाने लगता है।

मरुस्थलीय परिवेश में लोमड़ी द्वारा झाऊ-चूहे के शिकार की प्रक्रिया संबंधी एक किंवदंती बहुत प्रचलित है। इसके अनुसार चालक लोमड़ी गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट उसके बन्द मुंह के हिस्से पर पेशाब कर देती है। मूत्र की गंदी महक से निजात पाने झाऊ-चूहा जैसे ही अपनी नाक को हल्का सा बाहर निकलता है, लोमड़ी झट से उसे पकड़ लेते है व खींच कर उसे काँटेदार चमड़ी से अलग कर देती है। हालांकि इस किंवदंती सटीकता पर चर्चा की जा सकती है लेकिन लोमड़ियों की मांदों के आस-पास अकसर दिखने वाले काँटेदार चमड़ी के ढेर सारे अवशेष लोमड़ी के भोजन में झाऊ चूहो की प्रचुरता को स्पष्ट जरूर करते है। झाऊ चूहो की इन भारतीय प्रजातियों की पारिस्थितिकी व व्यवहार संबंधित जानकारी बहुत ही सीमित है इसी कारण संरक्षण हेतु इनके वितरण व व्यवहार पर अधिक शोध की आवश्यकता है।

 

औपनिवेशिक अवधारणा एवं संकटग्रस्त परिदृश्य : बाह्य आक्रामक प्रजातियों का पारम्परिक पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव

औपनिवेशिक अवधारणा एवं संकटग्रस्त परिदृश्य : बाह्य आक्रामक प्रजातियों का पारम्परिक पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव

स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I

भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित  है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता  रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।

शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।

प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।

औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।

प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)

स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी  मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने  संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।

विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)

विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी  में असमानता के कारण  इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।

दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है।  परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।

प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)

विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है।  विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग  इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।

प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)

हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के  सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है ।  खड़-मौर  एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई  शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के  लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।

विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।

सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)

स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के  शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया,  सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।

बदलते जलवायु  के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं  आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।

 

 

 

कुत्तों की बढ़ती आबादी एवं वन्य-जीवों को खतरा

कुत्तों की बढ़ती आबादी एवं वन्य-जीवों को खतरा

“कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते  हैं , जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।”

प्रकृति में पाये जाने वाले अन्य सभी जीवों की तुलना में कुत्तों को इंसानों का सबसे भरोसेमंद साथी माना जाता है। कुत्तों की उत्पत्ति को मानव उद्विकास की कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला में एक प्रमुख कड़ी कहा जा सकता है। आनुवंशिक शोध के अनुसार कुत्तों की उत्पत्ति आज से लगभग 15000 से 40000 वर्ष पूर्व यूरोप, मध्य-पूर्व, व पूर्वी एशिया में भेड़ियों की एक से अधिक वंशावलियों से हुई मानी जाती हैं। कुत्ते एवं मानव के इस समानान्तर उद्विकास को सहजीविता का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आधुनिक मानव (Homo sapiens) ने अपनी शिकार एवं सुरक्षा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भेड़ियों को पालतू बनाया जिसके बदले भेड़ियों को भी सुरक्षा, आवास, एवं भोजन की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित हुई। तब से लेकर अब तक कुत्तों का इस्तेमाल व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में होता आ रहा है , जैसे की शिकार में सहायता से लेकर पशु धन, सम्पदा, व खेतों की सुरक्षा, विस्फोटकों और रसायनों को सूंघने से लेकर बर्फीले स्थानों में परिवहन एवं सबसे महत्वपूर्ण, इंसान का सबसे वफादार दोस्त। कुत्तों व मानव के इस गहरे रिश्ते को अनको कहाँनियों, व फिल्मों के माध्यम से बड़े ही रोमांचित तरीके से दर्शाया गया है । इसी रोमांचित छवि से परे इसी रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसे सदैव नजरंदाज किया जाता है ।

कुत्तों की अनियंत्रित रूप से बढ़ती संख्या सम्पूर्ण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ-साथ वन्य जीवन के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा है । सिडनी विश्व विध्यालय के डॉ टिम एस. डोहरती के एक शोध के अनुसार दुनिया में अब तक कशेरुकी जीवों की 11 प्रजातियों जिसमें पंछी, स्तनधारी, व सरीसृप शामिल है के सम्पूर्ण विलुप्ति करण में कुत्तों का मुख्य योगदान रहा है। इसी के साथ 188 और संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए कुत्तों को सबसे बड़े संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। भारत में डॉ चंद्रिमा होम द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कुल 80 वन्यजीवों की  प्रजातियाँ कुत्तों के हमलों से प्रभावित पायी गयी  जिनमें से 30 प्रजातियाँ IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल है। इसी शोध में कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर दर्ज कुल हमलों के 45% मामलों में पीड़ित प्राणी अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजस्थान में भी डॉ गोबिन्द सागर भारद्वाज व साथियों द्वारा Indian Forester में प्रकाशित एक अन्वेषण के अनुसार सन 2009 से 2016 के बीच थार रेगिस्तान में 3624 चिंकारा, 607 नील गाय, व 645 काले हिरण के विभिन्न कारणों से घायल होने के मामले दर्ज किए गए थे। इन कुल मामलों में 74.28% चिंकारा, 55.68% नील गाय, व 68.68% काले हिरण के घायल होने का कारण कुत्तों द्वारा हमला पाया गया था। दर्ज मामलों के आधार पर इन जीवों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा 96.7% पायी गयी।

कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य की एक तस्वीर जिसमे आवारा कुत्तों और भेड़ियों के बीच भोजन को लेकर संघर्ष को देख सकते है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

बढ़ती आबादी के कारण:       

एक पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी जीवों की संख्या भोजन की उपलब्धता, परभक्षियों से खतरा, एवं संक्रामक रोगोंके प्रकोप पर निर्भर करती है। कुत्ते मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं, एवं भोजन हेतु सीधे तौर पर इंसान द्वारा उपलब्ध खाने, कचरे के ढेर,और मृत जीवों पर आश्रित रहते हैं। इसी कारण कचरा एवं मृत जीवों के प्रबंधन व निस्तारण की कुशल प्रणालियों का अभाव कुत्तों के लिए लंबे समय तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, परिणामस्वरूप कुत्तों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।

पिछले कुछ दशकों में कुत्तों की बढ़ती संख्या को एक खास पारिस्थितिकी बदलाव से भी जोड़ के देखा गया है। 1990 के दशक में सर्वप्रथम कैवलादेवी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में गिद्धों की आबादी में अचानक से गिरावट दर्ज की गयी थी। गिद्ध प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य रूप से मुर्दा खोर (Obligatory scavenger) जीव हैं, जो पर्यावरण में मृत जीवों को खाकर उनके निष्कासन में अहम भूमिका निभाते है। भारत में गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियों (Gyps indicus, Gyps bengalensis, and Gyps tenuirostris) की संख्या में ये गिरावट 95% से भी अधिक देखी गयी थी, जो की सबसे बहुतायत में पाये जाने वाले गिद्ध थे। गिद्धों की संख्या में इतनी भारी गिरावट के कारण मृत जीवों के निष्कासन की दर धीमी हो गयी, परिणाम स्वरूप मृत जीवों की उपलब्धता में एकाएक वृद्धि पायी गयी।

वैकल्पिक मुर्दा खोर (Facultative scavenger) होने के कारण मृत जीवों की इस उपलब्धता का लाभ कुत्तों को हुआ एवं उनकी आबादी में जबरदस्त बढ़त देखी गई। वैकल्पिक मुर्दाखोर वह जीव होते हैं जो मुख्य रूप से भोजन के लिए अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं परंतु अवसर मिलने पर मृत जीवों का भी प्रमुखता से सेवन करते हैं। कुत्तों की यही बढ़ती संख्या अब संकटग्रस्त गिद्धों के संरक्षणव आबादी के पुनःस्थापन में सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि कुत्ते अपने उग्र व्यवहार व अधिक संख्या में होने के कारण गिद्धों को मृत जीवों से दूर रखते हैं। दूसरी और भारत के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों में बड़े शिकारी वन्य जीवों की अनुपस्थिति के कारण कुत्ते सर्वोच्च शिकारी बन चुके हैं जिस कारण इनसे किसी जीव द्वारा परभक्षण का खतरा नहीं है। । मनुष्य द्वारा प्रदत्त भोजन की उपलब्धता, बड़े शिकारी वन्य जीवों का अभाव, एवं प्रबंधन की खामियों के कारण कुत्तों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

वन्य-जीवन पर विपरीत प्रभाव:

कुत्ते दुनिया भर में सबसे व्यापक व बहुतायत में पाये जाने वाले carnivore हैं, जिनकी वैश्विक आबादी लगभग 1 अरब है। इस आबादी में भारत का हिस्सा लगभग 6 करोड़ का माना जाता है। कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर हो रहे हानिकारक प्रभाव को उनके घुमन्तू  व्यवहार एवं मानव पर उनकी निर्भरता के आधार पर समझा जा सकता है। इस आधार पर कुत्तों को निम्न भागों में बांटा गया है।

  1. पालतू कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मुख्यतः उनके मालिक द्वारा तय परिसीमन के अन्दर ही होती हैएवं ये भोजन व आवास के लिए पूर्णतः अपने मालिक पर ही निर्भर होते है। सीमित गतिविधियों के कारण ये कुत्ते वन्यजीवों के सबसे कम संपर्क में आते हैं।
  2. शहरी आवारा कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मोहल्लों एवं गलियों तक सीमित रहती है। ये कुत्ते वन्यजीवों के लिए मुख्य खतरा नहीं है परंतु जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से जीव-जनित बीमारियों का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
  3. ग्रामीण आवारा कुत्तों,जो की गाँवों व उनके आस-पास के इलाकों में पाये जाते हैं। इसी श्रेणी के कुत्तों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों व मानव बस्तियों से बहुत दूर तक स्वछंद विचरण करती है एवं वन्य जीवों को बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल कुत्तों की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है।

स्वछंद विचरण करने वाले कुत्तों की यही आबादी वन्यजीवों के सबसे अधिक संपर्क में आती है, परिणामस्वरूप  वन्यजीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है। अपने क्षेत्रीय व्यवहार से प्रेरित कुत्ते अकसर अपने इलाकों के विस्तारण हेतु इंसानी बस्तियों से दूर संरक्षित और असंरक्षित वन्यजीव क्षेत्रों में घूमते वन्य जीवों को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करते हैं।

आवारा कुत्ते न सिर्फ वन्य-जीवों को सताते है बल्कि गुट में उनपर हमला कर घायल और कई बार जान से मार भी देते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

कुत्ते मुख्य परभक्षी:

कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। कुत्तों का ये हानिकारक प्रभाव लगभग सभी छोटी व बड़ी सिम्पेट्रिक प्रजातियों पर देखा जा सकता है। सिम्पेट्रिक प्रजातीयाँ वह प्रजातीयाँ होती हैं जो एक ही आवास में रहकर समान संसाधनों का समान रूप से प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए भारतीय-लोमड़ी, मरु-लोमड़ी, सियार, एवं कुत्ते सिम्पेट्रिक प्रजाति है। उसी प्रकार बाघ एवं तेंदुआ भी सिम्पेट्रिक प्रजाति है। सिम्पेट्रिक प्रजातियों से इस संघर्ष का परिणाम अकसर वन्य जीवों की मृत्यु ही होता है। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र  में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।

कुत्ते वन्य जीवों का भोजन:

सामान्यतः परभक्षी की भूमिका निभाने वाले कुत्ते कई स्थानों पर बड़े परभक्षियों के भोजन का मुख्य हिस्सा भी हैं। देश के कई स्थानों में मानव बस्तियों के आस-पास पाये जाने वाले तेंदुओं को कुत्तों का बहुतायत में शिकार करते पाया गया हैं। कुत्तों का शिकार करते हुए तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं जो की बढ़ते मानव-वन्यजीव  संघर्ष को जन्म देते हैं। इस संघर्ष का परिणाम मानव व वन्य जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता हैं।

वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन एवं उसका प्रभाव:

कुत्तों न केवल प्रत्यक्ष रूप से शिकार कर वन्यजीवों की संख्या घटाते है परंतु परोक्ष रूप से उनके व्यवहार को भी बदलते है। संसाधन परिपूर्ण आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्या वन्य जीवों के संसाधन उपयोग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र में संसाधनों से तात्पर्य भोजन, पानी, व आश्रय स्थल की उपलब्धता से होता है। ऐसे आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्यावन्य जीवों को निम्न गुणवत्ता वाले संसाधन क्षेत्रों में विचरण करने को मजबूर करती है। इसका परोक्ष रूप से प्रभाव उनके स्वास्थ्य व प्रजनन क्षमता पर पड़ता है जो की अंततः वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण बनता है।

कुत्ते संक्रामक बीमारियों के वाहक:

वन्य जीवों व कुत्तों के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क, चाहे वह शिकार के तौर पर हो या शिकारी के तौर पर, कुत्तों द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का खतरा वन्यजीवों के लिए बढ़ाता ही है। अधिकांश मामलों में बीमारियों का यह संक्रमण किसी भी वन्यजीव की सम्पूर्ण आबादी मिटाने के लिए पर्याप्त होता है। कुत्तों में 358 प्रकार के रोग-जनक बैक्टीरिया, कवक, एवं वायरस के रूप में पाये जाते हैं। इनमें से तीन मुख्य वायरस विश्व में कई स्थानोंपर वन्यजीवों की संख्या में गिरावट के उत्तरदायी पाये गए हैं। यह है, रेबीज़ वायरस (RABV), Canine distemper virus (CDV) एवं Canine parvo virus (CPV)। सन 1989 में अफ्रीका के सेरंगेटी के घास के मैदानों में पाये जाने वाले अत्यंत संकटग्रस्त जंगली कुत्तों की कई स्थानीय आबादियों की विलुप्ति का कारण RABV के संक्रमण को पाया गया है। कुछ इसी तरह का प्रभाव 1994 में ईथोपीयन भेड़ियों पर भी देखा गया था। इसी साल सेरंगेटी में ही CDV के प्रकोप से एक हजार से अधिक शेर मारे गए थे जो की वहाँ की कुल शेरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।

भारत में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों में बीमारियों के संक्रमण से संबन्धित शोध का अत्यधिक अभाव एवं कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़ों की कमी के कारण इन संक्रामक बीमारियों का वन्य जीवों पर प्रभाव कम ही ज्ञात है। डॉ वानक द्वारा महाराष्ट्र के नानज में किए गए एक शोध में टेस्ट किए गए  93.3% कुत्तों में CPV तथा 90.7% कुत्तों में CDV से संबंधित एंटिबोडीज़ पाये गए। नानज में पायी गई कुछ मृत भारतीय लोमड़ियों में भी CDV का संक्रमण पाया गया था। तत्पश्चात भारतीय लोमड़ी पर की गई  रेडियो टेलीमेट्री विधि से किए गए शोध में लोमड़ियों व कुत्तों में बढ़ते संपर्क के आधार पर लोमड़ियों की आबादी में बड़े स्तर पर CDV की संभावना व्यक्त की गई है।

Tiger Watch संस्था के वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल की एक जांच के अनुसार रणथम्भोर राष्ट्रीय उध्यान की सीमा के नजदीक भारतीय लोमड़ी का एक परिवार जिसमें  नर व मादा के साथ उनके पाँच बच्चे थे की मृत्यु CDV के कारण पायी गयी। डॉ खांडल ने बताया की लोमड़ी के परिवार में मृत्यु से पहले CDV के लक्षण जैसे की आंखों में सूजन, तंत्रिका तंत्र  (Nervous system)के ठप्प पड़ जाने के कारण चाल डगमगाना व डर की अनुभूति नहीं होना देखे गए थे।

राजस्थान में कुत्तों का गंभीर प्रभाव:

राजस्थान के परिपेक्ष्य में कुत्तों की समस्या वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसका प्रमुख कारण राज्य में वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों की कम संख्या एवं अधिकांश वन्य जीवों का इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर गौचर, ओरण एवं कृषि भूमि में पाया जाना हैं। डॉ भट्टाचार्जी के एक शोध के अनुसार पश्चिम राजस्थान के इन्हीं असंरक्षित क्षेत्रों में संकटग्रस्त जीव जैसे चिंकारा व काले हिरणों का जनसंख्या घनत्व भारत के कई बड़े-बड़े वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों के बराबर हैं। इन क्षेत्रों में प्रबल मानवीय गतिविधियों के कारण कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है जो की इन संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए निरंतर बढ़ता खतरा है। राजस्थान के इन शुष्क क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले बड़े परभक्षी जीवों के अभाव में कुत्ते खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च परभक्षी की भूमिका निभाते हैं।

राज्य के कई कस्बों व शहरों के बाह्य क्षेत्रों में मृत मवेशियों को डालने वाले स्थल भी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या को भोजन उपलब्ध कराते हैं। ये स्थान वन्यजीव क्षेत्रों के आस-पास ही होते हैं जो की कई प्रवासी व स्थानीय गिद्धों की बड़ी संख्या का भी बसेरा है, परंतु कुत्तों की बढ़ती तादाद अक्सर इन गिद्धो को उपलब्ध भोजन से वंचित रखती हैं। कई किसान इन क्षेत्रों में अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बाड़ बनाने में महीन जाली का उपयोग करते हैं जो की कई वन्यजीवों  के लिए लगभग अदृश्य होती है। परिणामस्वरूप चिंकारा एवं काले हिरण जैसे सींगो वाले जीव खेत पार करते समय इन जालियों में फंस आवारा कुत्तों का आसान शिकार बन जाते हैं। केवल स्थानीय स्तनधारी ही नहीं अपितु प्रति वर्ष हिमालय पार कर सर्दियों में आने वाली प्रवासी कुर जाएँ भी बड़ी संख्या में कुत्तों का शिकार बनी देखी जा सकती हैं । राजस्थान में कुत्तों का ये भयावह प्रकोप खरगोश जैसी छोटी प्रजाति से लेकर सियार व भेड़ियों जैसे मध्यम व बड़े आकार के शिकारियों पर भी बहुत प्रभावी रूप से देखा जा सकता हैं।

हालांकि तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी कुत्तों का भोजन के रूप में शिकार करते हैं परंतु इन बड़े परभक्षियों के शावक संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले कुत्तों से सुरक्षित नहीं होते तथा मारे जाते हैं।

वर्ष 2017 में कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य के पास कुत्तो के एक गुट ने लेपर्ड के दो छोटे शावकों को मौत के घाट उतार दिया था।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

आबादी नियंत्रण व प्रबंधन संबंधी नीतियाँ:

वास्तव में हमारे देश में कुत्तों के प्रबंधन संबंधी नीतियाँ उनकी संख्या कम करने के उद्देश्य से नहीं अपितु उनपर हो रही क्रूरता के निवारण तथा जीव अधिकारों की रक्षा को मद्दे नजर रखते हुए बनाई गयी है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम 2001 का उल्लेख किया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुत्तों की आबादी नियंत्रण के उपायों को चार चरणों में बताया गया है। ये चरण हैं,उन्हें पकड़ना, नसबंदी करना, टिकाकरण, एवं पुन: उसी आवास में छोड़ देना है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नियम में कुत्तों को पुन: उसी आवास में छोड़ने की बात पर ज़ोर दिया गया है अर्थात यह नीति गली मोहल्लों से कुत्तों की आबादी हटाने के लिए नहीं परंतु वास्तव में ये आबादी बनाए रखने को प्रेरित करती है। उपरोक्त नियमों में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों पर पड़ रहे खतरनाक प्रभावों से निपटने के लिए किसी प्रकार के उपायों का ना तो उल्लेख है ना ही ये नियम इन प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं।

कुत्तों की नसबंदी द्वारा जन्म दर नियंत्रण कर इनकी संख्या को कम करने का तरीका लंबे समय से अप्रभावी रहा है। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों की आबादी के प्रभावी नियंत्रण के लिए किसी भी स्थान में कुत्तों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक निश्चित समय के अंदर (नए प्रजनन काल के शुरू होने से पहले ही) बंध्य करना आवश्यक है। ये तब ही संभव हो सकता हैं जब हमारे पास कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़े, उनके आवासों एवं आबादी को बढ़ाने वाले कारकों के संबंध में अधिक वैज्ञानिक शोध व जानकारी हो जिसका वास्तविकता में बहुत अभाव हैं। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों का प्रभावी नियंत्रण भारत जैसी बड़ी आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चीला विकल्प है।

कुत्तों की संख्या के नियंत्रण में विफलता के लिए न केवल प्रभावी नीतियों का अभाव बल्कि लोगों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी एक मुख्य कारण है। हमारा संविधानबेशक आमजन को जीव-मात्र के प्रति करुणा दिखनेव भोजन उपलब्ध करवाने के लिए प्रेरित करता है परंतु इसी के साथ उन्हें उन जानवरों की ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध भी किया गया है। लोग अकसर कुत्तों को गली मोहल्ले में खाना देते वक़्त भूल जाते है की उन कुत्तों की टिकाकरण व उनके उग्र व्यवहार के कारण हुई जन-हानि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।

कुत्तों द्वारा वन्य जीवों व जन-स्वास्थ्य के खतरों कम करने के लिए इनकी संख्या को नियंत्रण करना अति-आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम कचरे का प्रभावी निस्तारण प्रमुख है जिससे उनकी भोजन की उपलब्धता में कमी आएगी जिसका प्रभाव इनकी संख्या पर पड़ेगा। इसके साथ आम-जन  को गली मोहल्लों में कुत्तों को भोजन देना भी बंद करना होगा। आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के  लिए लोगों व पशु प्रेमियों द्वारा स्वस्थ कुत्तों को अपनाने के लिए जागरूक करना होगा। प्रबंधन की ऐसी नीतियाँ बनानी होगी जिसमें कुत्तों के जीवन स्तर के साथ-साथ उनके जन-स्वास्थ्य एवं वन्य-जीवन पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के निवारण की समीक्षा भी हो।

सन्दर्भ:

Cover picture credit Mr. Chetan Misher

 

साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पायी जाने वाली छिपकली, जो मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है परन्तु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते इसकी आबादी घोर संकट का सामना कर रही हैं।

साँड़े का तेल, भारत के विभन्न हिस्सो मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि हैं परन्तु इस तेल का तथाकथित बिमारियों मे कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र हैं एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाये गये हैं। आज इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बहुतायत में अवैध शिकार किया जाता हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सांडो की आबादी तेजी से घटती जा रही हैं।

साँड़े के नाम से जाने जाने वाला ये सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाए जाने वाली एक छिपकली हैं। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मजबूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती हैं। साँड़ा का अँग्रेजी नाम, Spiny-tailed lizard होता है जो इसे इसकी पूंछ पर पाये जाने वाले काँटेदार स्केल्स के अनेकों छल्लो (Rings) की शृंखला के कारण मिला हैं।

विश्वभर में साँड़े की 20 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो की उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम “Saara hardiwickii” हैं, जो की मुख्यतः अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा, एवं गुजरात के कच्छ जिले के शुष्क घास के मैदानों में पायी जाती है। कुछ शोधपत्रों के अनुसार साँड़े की कुछ छोटी आबादियाँ उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, उत्तरी कर्नाटक, तथा पूर्वी राजस्थान के अलवर एवं सवाई माधोपुर जिलों में भी पायी जाती हैं, जो की इनके शुष्क आवास के अलावा अन्य आवासों में वितरण को दर्शाती हैं। वहीँ दूसरी ओर वन्यजीव विशेषज्ञो के अनुसार साँड़े का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों, मुख्यत: अवैध शिकार का परिणाम हो सकता हैं क्योंकि वन्यजीव व्यापार में अनेकों जीवो को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता हैं।

साँड़े की भारतीय प्रजाती में नर (40 से 49 सेमी) सामन्यत: आकार में मादा (34 से 40 सेमी) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हें। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर से नुकीली होती हें जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे से भोंटी होती हैं।

भारतीय साँड़ा छिपकली (Indian Spiny tailed lizard “Saara hardiwickii”)

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पायी जाने वाली साँड़े की आबादी में, त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के स्केल्स में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परन्तु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में इस तरह का कोई भी रंग नहीं पाया जाता है। दोनों राज्यों में पायी जाने वाली आबादी में रंग के इस अंतर का कारण जानने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता हैं। परन्तु रंगों में यह अंतर आहार में भिन्नता तथा दोनों आवास में पायी जाने वाली वनस्पतियों में अंतर होने के कारण भी हो सकता है।

भारतीय साँड़े को भारत मे पाये जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनो की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता हैं लेकिन शिशु साँड़ा प्रायतः वनस्पति के साथ विभ्न्न कीटो मुख्यत: भृंग, चींटिया, दीमक, एवं टिड्डे का सेवन करते भी जाने जाते हैं।बारिश मे एकत्रित किए गए कुछ वयस्क साँड़ो के मल में भी कीटो की बहुतायत मिलना इनकी आहार के प्रति अवसरवादिता को दर्शाता हैं।

साँड़ा, मुख्यरूप से शाकाहारी भोजन पर ही निर्भर रहती है

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए साँड़े भी अन्य मरुस्थलीय जीवो के समान भूमिगत माँद में रहते हैं। साँड़े की माँद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा इसी कारण से यह अन्य सस्थलीय जीवों की माँद से अलग दिखाई पड़ती हैं। ये मांदे अक्सर टेड़ी-मेढी, सर्पाकर तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती हैं। माँद का आंतरिक तापमान बाह्य तापमान की तुलना में बहुत ही प्रभावी रूप से कम होता हैं, जिससे साँड़े को रेगिस्तान की भीषण गर्मी में सुरक्षा मिलती हैं। ये छिपकली दिनचर होती हैं तथा माँद में आराम करते समय अपनी काँटेदार पूंछ से प्रवेशद्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों विशेषकर परभक्षी जीवो को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को अपनी पूंछ द्वारा मिट्टी से सील भी कर देती हैं।

माँद बनाना, रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है तथा इसी कारण पैदा होने के कुछ ही समय बाद ही साँड़े के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ माँद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान साँड़े भी अत्यात्धिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिंद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की रस प्रक्रिया (metabolism) दर को धीमी कर शरीर में संचित वसा (stored fats) पर ही जीवित रहते हैं। हालांकि कच्छ के घास के मैदानों में शिशु साँड़ों को अक्सर दिसम्बर एवं जनवरी माह में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका मुख्य कारण कच्छ में सर्दियों के समय तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता हैं।

साँड़ों का प्रजनन काल फरवरी माह से शुरू होता है और उनके छोटे शिशुओं को जून व् जुलाई के महीने तक घास के मैदानों में इधर-उधर दौड़ते हुए देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय के दौरान भी ये छिपकलियां प्रकृति में सख्ती से दिनचर बनी रहती हैं तथा इनकी गतिविधियां सूर्योदय के साथ शुरू होती हैं एवं सूर्य क्षितिज से नीचे पहुंचते ही समाप्त हो जाती हैं। गर्मी के दिनों में तेज धूप खिलने पर यह भरी दोपहर तक सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहे तो इनकी शाम तक भी रहती है।

साँड़ा मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरमिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लाइकोजन और वसा की अधिक मात्रा, इसे रेगिस्तान में अनेकों परभक्षी जीवो के लिए प्रमुख भोजन बनाते हैं। साँड़े को दोनों, भूमि तथा हवा से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल मे पाये जाने वाले परभक्षी जीवो की विविधता एवं बहुतायता जिनमे स्तनधारी, सरीसृप, स्थानीय एवं प्रवासी शिकारी पक्षी शामिल हैं, सांडो की बड़ी आबादी का ही परिणाम हैं। हैरियर और फाल्कन जैसे कई अन्य शिकारी पक्षियो को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते हुए देखा जा सकता है। केवल बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं परंतु किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात साँड़ों का शिकार करने का अवसर नहीं गवाते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इन उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत साँड़ों को प्राप्त करने का एक अवसर भी नही गवातें। थार रेगिस्तान में विषहीन सांप की एक आम प्रजाति जिसे आम बोली में दो मूहीया धुंभी (Red sand-boa) कहते हैं, अक्सर साँड़े को माँद से बाहर खदेड़कर कहते हुए देखी जा सकती हैं। दो मूही द्वारा माँद में हमला करने पर साँड़े के पास अपने पंजो से जमीन पर मजबूत पकड़ बनाने एवं माँद की संकीर्न्ता के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता हैं। हालांकि दोमूही के लिए भी ये कार्य अत्यधिक ऊर्जा व समय की खपत करने वाला होता है क्योंकि साँड़े को माँद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन ये प्रयास व्यर्थ नहीं हैं क्योंकि एक सफल शिकार की कीमत ऊर्जा युक्त भोजन होती है। प्रायतः संध्या काल में सक्रिय होने वाली भारतीय मरु-लोमड़ी भी अपनी वितरण सीमा में अक्सर साँड़े को माँद से खोदकर शिकार करती देखी जा सकती हैं।

खाद्य पिरामिड के विभिन्न ऊर्जा स्तरो से परभक्षी जीवो की ऐसी विविधता के कारण साँड़े ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किये है। हालांकि इस छिपकली के पास किसी भी प्रकार की आक्रामक सुरक्षा प्रणाली से नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसका प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सुखी घास के समान होता हैं, जो इसके आसपास के पर्यावास में अच्छी से घुलकर एक छलावरण का कार्य करता हैं एवं इसे शिकारियों की नजर से बचाता हैं।

यदि छलावरण शिकारियों के खिलाफ काम नहीं करता, तो यह शिकारियों से बचने के लिए अपनी गति पर निर्भर रहती हैं। साँड़ा छिपकली के पीछे के टांगे मजबूत तथा उंगलिया लम्बी होती हैं जो इसे किसी भी शिकारी  से बचने के लिए उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। गति के साथ-साथ, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है। विशेष रूप से, जब शिशुओं के साथ हो, वयस्क छिपकली आगे के पैरो पर सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पे नजर रखती हैं। साँड़ा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढ़ती हैं और आसपास में एक मामूली हलचल मात्र से ही खतरा भांप कर निकट की माँद मे भाग जाती हैं। साँड़े अक्सर समूहो में रहते है तथा अपनी माँद एक दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरो को मादाओ से मिलन के लिए मुक़ाबला करते देखा जा सकता हैं। नर अपने इलाके को लेकर सक्त क्षेत्रीयत्ता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

आज मनुष्यों से, साँड़ा छिपकली को बचाने के लिए न तो छलावरण, न ही गति और न ही सतर्कता पर्याप्त प्रतीत होती हैं। साँड़े की वितरण सीमाओं में इनके अंधाधुन शिकार की घटनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं। माँद में रहने वाली इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारीयो को भी अनेकों तरीके इस्तेमाल करते देखा गया हैं।सबसे सामन्या तरीके में साँड़े की माँद को गरम पानी से भर के या माँद खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता हैं। एक अन्य तरीके में शिकारी, साँड़े की माँद ढूंढने के बाद उसके प्रवेश द्वार पर एक छोटी रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे जमीन में गाड़ देते हैं। जब साँड़ा अपनी माँद से बाहर निकलता है तो उस समय ये फंदा उसके सर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही साँड़ा वापस माँद में जाने की कोशिश करता हैं वैसे ही फंदा उसके शरीर पे कस जाता हैं, परिणाम स्वरूप साँड़ा वापस माँद में पूरी तरह नहीं जा पता हैं। तभी फिर साँड़े को पकड़ के उंसकी रीड की हड्डी तोड़ दी जाती हैं ताकि वो भाग न सके। तत्पश्चात उसके शरीर से मांस एवं पूंछ के वसा से तेल निकाला जाता हैं।

साँड़े को भारतीय संविधान के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची 2 में रखा गया हैं, जो इसके शिकार पर पूर्णत: प्रतिबंद लगता हैं। हालांकि, भारतीय साँड़े का आईयूसीएन (IUCN) की रेड डाटा लिस्ट के लिए मूल्यांकन नहीं किया गया है, लेकिन यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल हैं। TRAFFIC की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का हिस्सा 1997 से 2001 के बीच सांडो की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार का केवल दो प्रतिशत ही पाया गया, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय पैमाने पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का पर्यायवाची नहीं हैं, अपितु इसकी अधिक मात्र में स्थानीय खपत एवं व्यापार स्थानीय बाजार की स्थिति को दर्शाता हैं।

हाल ही में बेंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार साँड़े के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग हैं। पकड़े गए गिरोह का सम्बन्ध राजस्थान के जैसलमर जिले से पाया गया, जहां पर साँड़े अभी भी बुहतायत में पाये जाते हैं। समय समय पर चर्चा में आने वाले इस तरह के गिरोह का नेटवर्क कितना गहरा पसरा हुआ हैं कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडो को अक्सर कई स्थानीय बाजार में खुले बिकते भी देखा जाता हैं। प्रशासन की सख्ती के साथ साथ आम जनता में जागरूकता सांडो एक सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। अन्यथा भारतीय चीते के समान ये अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डोक्य्मेंटेरी में समा के रहा जाएगा।

सवाल यह है कि क्या भारतीय साँड़ा अपनी गति और सतर्कता के साथ आज की दुनिया में विलुप्ति की कगार से वापस आ सकता है जहां प्राकृतिक आवास शहरी विकास की कीमत चुका रहे हैं और जैवविविधता संरक्षण के नियमों की अनदेखी की जा रही है।