“कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते  हैं , जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।”

प्रकृति में पाये जाने वाले अन्य सभी जीवों की तुलना में कुत्तों को इंसानों का सबसे भरोसेमंद साथी माना जाता है। कुत्तों की उत्पत्ति को मानव उद्विकास की कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला में एक प्रमुख कड़ी कहा जा सकता है। आनुवंशिक शोध के अनुसार कुत्तों की उत्पत्ति आज से लगभग 15000 से 40000 वर्ष पूर्व यूरोप, मध्य-पूर्व, व पूर्वी एशिया में भेड़ियों की एक से अधिक वंशावलियों से हुई मानी जाती हैं। कुत्ते एवं मानव के इस समानान्तर उद्विकास को सहजीविता का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आधुनिक मानव (Homo sapiens) ने अपनी शिकार एवं सुरक्षा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भेड़ियों को पालतू बनाया जिसके बदले भेड़ियों को भी सुरक्षा, आवास, एवं भोजन की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित हुई। तब से लेकर अब तक कुत्तों का इस्तेमाल व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में होता आ रहा है , जैसे की शिकार में सहायता से लेकर पशु धन, सम्पदा, व खेतों की सुरक्षा, विस्फोटकों और रसायनों को सूंघने से लेकर बर्फीले स्थानों में परिवहन एवं सबसे महत्वपूर्ण, इंसान का सबसे वफादार दोस्त। कुत्तों व मानव के इस गहरे रिश्ते को अनको कहाँनियों, व फिल्मों के माध्यम से बड़े ही रोमांचित तरीके से दर्शाया गया है । इसी रोमांचित छवि से परे इसी रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसे सदैव नजरंदाज किया जाता है ।

कुत्तों की अनियंत्रित रूप से बढ़ती संख्या सम्पूर्ण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ-साथ वन्य जीवन के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा है । सिडनी विश्व विध्यालय के डॉ टिम एस. डोहरती के एक शोध के अनुसार दुनिया में अब तक कशेरुकी जीवों की 11 प्रजातियों जिसमें पंछी, स्तनधारी, व सरीसृप शामिल है के सम्पूर्ण विलुप्ति करण में कुत्तों का मुख्य योगदान रहा है। इसी के साथ 188 और संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए कुत्तों को सबसे बड़े संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। भारत में डॉ चंद्रिमा होम द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कुल 80 वन्यजीवों की  प्रजातियाँ कुत्तों के हमलों से प्रभावित पायी गयी  जिनमें से 30 प्रजातियाँ IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल है। इसी शोध में कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर दर्ज कुल हमलों के 45% मामलों में पीड़ित प्राणी अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजस्थान में भी डॉ गोबिन्द सागर भारद्वाज व साथियों द्वारा Indian Forester में प्रकाशित एक अन्वेषण के अनुसार सन 2009 से 2016 के बीच थार रेगिस्तान में 3624 चिंकारा, 607 नील गाय, व 645 काले हिरण के विभिन्न कारणों से घायल होने के मामले दर्ज किए गए थे। इन कुल मामलों में 74.28% चिंकारा, 55.68% नील गाय, व 68.68% काले हिरण के घायल होने का कारण कुत्तों द्वारा हमला पाया गया था। दर्ज मामलों के आधार पर इन जीवों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा 96.7% पायी गयी।

कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य की एक तस्वीर जिसमे आवारा कुत्तों और भेड़ियों के बीच भोजन को लेकर संघर्ष को देख सकते है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

बढ़ती आबादी के कारण:       

एक पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी जीवों की संख्या भोजन की उपलब्धता, परभक्षियों से खतरा, एवं संक्रामक रोगोंके प्रकोप पर निर्भर करती है। कुत्ते मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं, एवं भोजन हेतु सीधे तौर पर इंसान द्वारा उपलब्ध खाने, कचरे के ढेर,और मृत जीवों पर आश्रित रहते हैं। इसी कारण कचरा एवं मृत जीवों के प्रबंधन व निस्तारण की कुशल प्रणालियों का अभाव कुत्तों के लिए लंबे समय तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, परिणामस्वरूप कुत्तों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।

पिछले कुछ दशकों में कुत्तों की बढ़ती संख्या को एक खास पारिस्थितिकी बदलाव से भी जोड़ के देखा गया है। 1990 के दशक में सर्वप्रथम कैवलादेवी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में गिद्धों की आबादी में अचानक से गिरावट दर्ज की गयी थी। गिद्ध प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य रूप से मुर्दा खोर (Obligatory scavenger) जीव हैं, जो पर्यावरण में मृत जीवों को खाकर उनके निष्कासन में अहम भूमिका निभाते है। भारत में गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियों (Gyps indicus, Gyps bengalensis, and Gyps tenuirostris) की संख्या में ये गिरावट 95% से भी अधिक देखी गयी थी, जो की सबसे बहुतायत में पाये जाने वाले गिद्ध थे। गिद्धों की संख्या में इतनी भारी गिरावट के कारण मृत जीवों के निष्कासन की दर धीमी हो गयी, परिणाम स्वरूप मृत जीवों की उपलब्धता में एकाएक वृद्धि पायी गयी।

वैकल्पिक मुर्दा खोर (Facultative scavenger) होने के कारण मृत जीवों की इस उपलब्धता का लाभ कुत्तों को हुआ एवं उनकी आबादी में जबरदस्त बढ़त देखी गई। वैकल्पिक मुर्दाखोर वह जीव होते हैं जो मुख्य रूप से भोजन के लिए अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं परंतु अवसर मिलने पर मृत जीवों का भी प्रमुखता से सेवन करते हैं। कुत्तों की यही बढ़ती संख्या अब संकटग्रस्त गिद्धों के संरक्षणव आबादी के पुनःस्थापन में सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि कुत्ते अपने उग्र व्यवहार व अधिक संख्या में होने के कारण गिद्धों को मृत जीवों से दूर रखते हैं। दूसरी और भारत के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों में बड़े शिकारी वन्य जीवों की अनुपस्थिति के कारण कुत्ते सर्वोच्च शिकारी बन चुके हैं जिस कारण इनसे किसी जीव द्वारा परभक्षण का खतरा नहीं है। । मनुष्य द्वारा प्रदत्त भोजन की उपलब्धता, बड़े शिकारी वन्य जीवों का अभाव, एवं प्रबंधन की खामियों के कारण कुत्तों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

वन्य-जीवन पर विपरीत प्रभाव:

कुत्ते दुनिया भर में सबसे व्यापक व बहुतायत में पाये जाने वाले carnivore हैं, जिनकी वैश्विक आबादी लगभग 1 अरब है। इस आबादी में भारत का हिस्सा लगभग 6 करोड़ का माना जाता है। कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर हो रहे हानिकारक प्रभाव को उनके घुमन्तू  व्यवहार एवं मानव पर उनकी निर्भरता के आधार पर समझा जा सकता है। इस आधार पर कुत्तों को निम्न भागों में बांटा गया है।

  1. पालतू कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मुख्यतः उनके मालिक द्वारा तय परिसीमन के अन्दर ही होती हैएवं ये भोजन व आवास के लिए पूर्णतः अपने मालिक पर ही निर्भर होते है। सीमित गतिविधियों के कारण ये कुत्ते वन्यजीवों के सबसे कम संपर्क में आते हैं।
  2. शहरी आवारा कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मोहल्लों एवं गलियों तक सीमित रहती है। ये कुत्ते वन्यजीवों के लिए मुख्य खतरा नहीं है परंतु जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से जीव-जनित बीमारियों का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
  3. ग्रामीण आवारा कुत्तों,जो की गाँवों व उनके आस-पास के इलाकों में पाये जाते हैं। इसी श्रेणी के कुत्तों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों व मानव बस्तियों से बहुत दूर तक स्वछंद विचरण करती है एवं वन्य जीवों को बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल कुत्तों की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है।

स्वछंद विचरण करने वाले कुत्तों की यही आबादी वन्यजीवों के सबसे अधिक संपर्क में आती है, परिणामस्वरूप  वन्यजीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है। अपने क्षेत्रीय व्यवहार से प्रेरित कुत्ते अकसर अपने इलाकों के विस्तारण हेतु इंसानी बस्तियों से दूर संरक्षित और असंरक्षित वन्यजीव क्षेत्रों में घूमते वन्य जीवों को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करते हैं।

आवारा कुत्ते न सिर्फ वन्य-जीवों को सताते है बल्कि गुट में उनपर हमला कर घायल और कई बार जान से मार भी देते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

कुत्ते मुख्य परभक्षी:

कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। कुत्तों का ये हानिकारक प्रभाव लगभग सभी छोटी व बड़ी सिम्पेट्रिक प्रजातियों पर देखा जा सकता है। सिम्पेट्रिक प्रजातीयाँ वह प्रजातीयाँ होती हैं जो एक ही आवास में रहकर समान संसाधनों का समान रूप से प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए भारतीय-लोमड़ी, मरु-लोमड़ी, सियार, एवं कुत्ते सिम्पेट्रिक प्रजाति है। उसी प्रकार बाघ एवं तेंदुआ भी सिम्पेट्रिक प्रजाति है। सिम्पेट्रिक प्रजातियों से इस संघर्ष का परिणाम अकसर वन्य जीवों की मृत्यु ही होता है। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र  में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।

कुत्ते वन्य जीवों का भोजन:

सामान्यतः परभक्षी की भूमिका निभाने वाले कुत्ते कई स्थानों पर बड़े परभक्षियों के भोजन का मुख्य हिस्सा भी हैं। देश के कई स्थानों में मानव बस्तियों के आस-पास पाये जाने वाले तेंदुओं को कुत्तों का बहुतायत में शिकार करते पाया गया हैं। कुत्तों का शिकार करते हुए तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं जो की बढ़ते मानव-वन्यजीव  संघर्ष को जन्म देते हैं। इस संघर्ष का परिणाम मानव व वन्य जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता हैं।

वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन एवं उसका प्रभाव:

कुत्तों न केवल प्रत्यक्ष रूप से शिकार कर वन्यजीवों की संख्या घटाते है परंतु परोक्ष रूप से उनके व्यवहार को भी बदलते है। संसाधन परिपूर्ण आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्या वन्य जीवों के संसाधन उपयोग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र में संसाधनों से तात्पर्य भोजन, पानी, व आश्रय स्थल की उपलब्धता से होता है। ऐसे आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्यावन्य जीवों को निम्न गुणवत्ता वाले संसाधन क्षेत्रों में विचरण करने को मजबूर करती है। इसका परोक्ष रूप से प्रभाव उनके स्वास्थ्य व प्रजनन क्षमता पर पड़ता है जो की अंततः वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण बनता है।

कुत्ते संक्रामक बीमारियों के वाहक:

वन्य जीवों व कुत्तों के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क, चाहे वह शिकार के तौर पर हो या शिकारी के तौर पर, कुत्तों द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का खतरा वन्यजीवों के लिए बढ़ाता ही है। अधिकांश मामलों में बीमारियों का यह संक्रमण किसी भी वन्यजीव की सम्पूर्ण आबादी मिटाने के लिए पर्याप्त होता है। कुत्तों में 358 प्रकार के रोग-जनक बैक्टीरिया, कवक, एवं वायरस के रूप में पाये जाते हैं। इनमें से तीन मुख्य वायरस विश्व में कई स्थानोंपर वन्यजीवों की संख्या में गिरावट के उत्तरदायी पाये गए हैं। यह है, रेबीज़ वायरस (RABV), Canine distemper virus (CDV) एवं Canine parvo virus (CPV)। सन 1989 में अफ्रीका के सेरंगेटी के घास के मैदानों में पाये जाने वाले अत्यंत संकटग्रस्त जंगली कुत्तों की कई स्थानीय आबादियों की विलुप्ति का कारण RABV के संक्रमण को पाया गया है। कुछ इसी तरह का प्रभाव 1994 में ईथोपीयन भेड़ियों पर भी देखा गया था। इसी साल सेरंगेटी में ही CDV के प्रकोप से एक हजार से अधिक शेर मारे गए थे जो की वहाँ की कुल शेरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।

भारत में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों में बीमारियों के संक्रमण से संबन्धित शोध का अत्यधिक अभाव एवं कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़ों की कमी के कारण इन संक्रामक बीमारियों का वन्य जीवों पर प्रभाव कम ही ज्ञात है। डॉ वानक द्वारा महाराष्ट्र के नानज में किए गए एक शोध में टेस्ट किए गए  93.3% कुत्तों में CPV तथा 90.7% कुत्तों में CDV से संबंधित एंटिबोडीज़ पाये गए। नानज में पायी गई कुछ मृत भारतीय लोमड़ियों में भी CDV का संक्रमण पाया गया था। तत्पश्चात भारतीय लोमड़ी पर की गई  रेडियो टेलीमेट्री विधि से किए गए शोध में लोमड़ियों व कुत्तों में बढ़ते संपर्क के आधार पर लोमड़ियों की आबादी में बड़े स्तर पर CDV की संभावना व्यक्त की गई है।

Tiger Watch संस्था के वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल की एक जांच के अनुसार रणथम्भोर राष्ट्रीय उध्यान की सीमा के नजदीक भारतीय लोमड़ी का एक परिवार जिसमें  नर व मादा के साथ उनके पाँच बच्चे थे की मृत्यु CDV के कारण पायी गयी। डॉ खांडल ने बताया की लोमड़ी के परिवार में मृत्यु से पहले CDV के लक्षण जैसे की आंखों में सूजन, तंत्रिका तंत्र  (Nervous system)के ठप्प पड़ जाने के कारण चाल डगमगाना व डर की अनुभूति नहीं होना देखे गए थे।

राजस्थान में कुत्तों का गंभीर प्रभाव:

राजस्थान के परिपेक्ष्य में कुत्तों की समस्या वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसका प्रमुख कारण राज्य में वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों की कम संख्या एवं अधिकांश वन्य जीवों का इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर गौचर, ओरण एवं कृषि भूमि में पाया जाना हैं। डॉ भट्टाचार्जी के एक शोध के अनुसार पश्चिम राजस्थान के इन्हीं असंरक्षित क्षेत्रों में संकटग्रस्त जीव जैसे चिंकारा व काले हिरणों का जनसंख्या घनत्व भारत के कई बड़े-बड़े वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों के बराबर हैं। इन क्षेत्रों में प्रबल मानवीय गतिविधियों के कारण कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है जो की इन संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए निरंतर बढ़ता खतरा है। राजस्थान के इन शुष्क क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले बड़े परभक्षी जीवों के अभाव में कुत्ते खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च परभक्षी की भूमिका निभाते हैं।

राज्य के कई कस्बों व शहरों के बाह्य क्षेत्रों में मृत मवेशियों को डालने वाले स्थल भी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या को भोजन उपलब्ध कराते हैं। ये स्थान वन्यजीव क्षेत्रों के आस-पास ही होते हैं जो की कई प्रवासी व स्थानीय गिद्धों की बड़ी संख्या का भी बसेरा है, परंतु कुत्तों की बढ़ती तादाद अक्सर इन गिद्धो को उपलब्ध भोजन से वंचित रखती हैं। कई किसान इन क्षेत्रों में अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बाड़ बनाने में महीन जाली का उपयोग करते हैं जो की कई वन्यजीवों  के लिए लगभग अदृश्य होती है। परिणामस्वरूप चिंकारा एवं काले हिरण जैसे सींगो वाले जीव खेत पार करते समय इन जालियों में फंस आवारा कुत्तों का आसान शिकार बन जाते हैं। केवल स्थानीय स्तनधारी ही नहीं अपितु प्रति वर्ष हिमालय पार कर सर्दियों में आने वाली प्रवासी कुर जाएँ भी बड़ी संख्या में कुत्तों का शिकार बनी देखी जा सकती हैं । राजस्थान में कुत्तों का ये भयावह प्रकोप खरगोश जैसी छोटी प्रजाति से लेकर सियार व भेड़ियों जैसे मध्यम व बड़े आकार के शिकारियों पर भी बहुत प्रभावी रूप से देखा जा सकता हैं।

हालांकि तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी कुत्तों का भोजन के रूप में शिकार करते हैं परंतु इन बड़े परभक्षियों के शावक संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले कुत्तों से सुरक्षित नहीं होते तथा मारे जाते हैं।

वर्ष 2017 में कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य के पास कुत्तो के एक गुट ने लेपर्ड के दो छोटे शावकों को मौत के घाट उतार दिया था।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

आबादी नियंत्रण व प्रबंधन संबंधी नीतियाँ:

वास्तव में हमारे देश में कुत्तों के प्रबंधन संबंधी नीतियाँ उनकी संख्या कम करने के उद्देश्य से नहीं अपितु उनपर हो रही क्रूरता के निवारण तथा जीव अधिकारों की रक्षा को मद्दे नजर रखते हुए बनाई गयी है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम 2001 का उल्लेख किया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुत्तों की आबादी नियंत्रण के उपायों को चार चरणों में बताया गया है। ये चरण हैं,उन्हें पकड़ना, नसबंदी करना, टिकाकरण, एवं पुन: उसी आवास में छोड़ देना है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नियम में कुत्तों को पुन: उसी आवास में छोड़ने की बात पर ज़ोर दिया गया है अर्थात यह नीति गली मोहल्लों से कुत्तों की आबादी हटाने के लिए नहीं परंतु वास्तव में ये आबादी बनाए रखने को प्रेरित करती है। उपरोक्त नियमों में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों पर पड़ रहे खतरनाक प्रभावों से निपटने के लिए किसी प्रकार के उपायों का ना तो उल्लेख है ना ही ये नियम इन प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं।

कुत्तों की नसबंदी द्वारा जन्म दर नियंत्रण कर इनकी संख्या को कम करने का तरीका लंबे समय से अप्रभावी रहा है। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों की आबादी के प्रभावी नियंत्रण के लिए किसी भी स्थान में कुत्तों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक निश्चित समय के अंदर (नए प्रजनन काल के शुरू होने से पहले ही) बंध्य करना आवश्यक है। ये तब ही संभव हो सकता हैं जब हमारे पास कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़े, उनके आवासों एवं आबादी को बढ़ाने वाले कारकों के संबंध में अधिक वैज्ञानिक शोध व जानकारी हो जिसका वास्तविकता में बहुत अभाव हैं। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों का प्रभावी नियंत्रण भारत जैसी बड़ी आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चीला विकल्प है।

कुत्तों की संख्या के नियंत्रण में विफलता के लिए न केवल प्रभावी नीतियों का अभाव बल्कि लोगों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी एक मुख्य कारण है। हमारा संविधानबेशक आमजन को जीव-मात्र के प्रति करुणा दिखनेव भोजन उपलब्ध करवाने के लिए प्रेरित करता है परंतु इसी के साथ उन्हें उन जानवरों की ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध भी किया गया है। लोग अकसर कुत्तों को गली मोहल्ले में खाना देते वक़्त भूल जाते है की उन कुत्तों की टिकाकरण व उनके उग्र व्यवहार के कारण हुई जन-हानि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।

कुत्तों द्वारा वन्य जीवों व जन-स्वास्थ्य के खतरों कम करने के लिए इनकी संख्या को नियंत्रण करना अति-आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम कचरे का प्रभावी निस्तारण प्रमुख है जिससे उनकी भोजन की उपलब्धता में कमी आएगी जिसका प्रभाव इनकी संख्या पर पड़ेगा। इसके साथ आम-जन  को गली मोहल्लों में कुत्तों को भोजन देना भी बंद करना होगा। आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के  लिए लोगों व पशु प्रेमियों द्वारा स्वस्थ कुत्तों को अपनाने के लिए जागरूक करना होगा। प्रबंधन की ऐसी नीतियाँ बनानी होगी जिसमें कुत्तों के जीवन स्तर के साथ-साथ उनके जन-स्वास्थ्य एवं वन्य-जीवन पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के निवारण की समीक्षा भी हो।

सन्दर्भ:

Cover picture credit Mr. Chetan Misher