नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

कर्नल केसरी सिंह ने अपनी एक पुस्तक में रणथम्भोर के एक स्थानीय व्यक्ति नाथू बावरिया का जिक्र किया है, जो उन्हें बाघ खोजने और भिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों और पक्षियों  के मांस से होने वाले अलग अलग फायदों के बारे में बताता था। यह किसी बावरिया के बाघ और रणथम्भोर से जुड़ाव का पहला वाकया है, जो कहीं लिखा गया है।  उसके बारे में लिखते हुए केसरी सिंह ने नाथू की बावरिया जाती के रणथम्भोर से जुड़े लम्बे इतिहास और वन्य जीव के बारे में उनकी गहरी समझ का भी बखान किया है।

शायद केसरी सिंह की मदद से ही नाथू बावरिया का एक पुत्र मुकन उस समय वन विभाग में वनरक्षक का कार्य करने लगा था। शायद रणथम्भोर क्षेत्र का अब तक का अकेला बावरिया था, जो सरकार से सीधा जुड़ कर मुख्यधारा में आगया था। हालाँकि वह हिस्सा टोंक जिले में जहाँ मुकन पदस्थापित था। खैर किसी बंधन में काम नहीं करने की आदत और एक स्थानीय व्यक्ति के झांसे में आकर मुकन ने यह नौकरी से हट गया था । असल में मुकन को कुछ रुपये देकर एक स्थानीय ऊँची जाती के व्यक्ति  कजोड़ सिंह ने सरकारी कागजो में हेर फेर  करवा कर उस से नौकरी हड़प  ली थी।  हालाँकि इस नौकरी के दौरान मुकन अपने नाम के आगे पिता की जाती बावरिया की जगह मोग्या लगाने लगा था, जिसके पीछे एक कारण था।

सामुदायिक विवाह समारोह में मस्ती करते हुए मुकन मोगिया (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैसे तो मोग्या और बावरिया एक ही समाज है, परन्तु इन दोनो नामों के इस्तेमाल के पीछे कई राज और दर्द की दास्ताने है, जो बस इन्ही समाज के लोगो के दिलों में ही दफ़न है।  इन्होने भिन्न जाती के नामो का इस्तेमाल सरकार की रुख देख करअलग अल्लाह समय में भिन्न ढंग से किया है कभी बावरिया – मोग्या बन गए और कभी मोग्या फिर से बावरिया बन गए।

इस समाज की नयी पीढ़ी ने अपने नाम के आगे मोग्या लिखना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेजो के एक  पक्षपातपूर्ण कानून से बच सके।  अंग्रेजो के एक कठोर कानून – जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के तहत 127 जातीय पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। अंग्रेजो के  इस काले कानून के दायरे में आने वाली इन जातियों में उस समय  लगभग 1 करोड 30 लाख (13 million) आते होंगे। इस कानून के तहत इन जाती के पुरुषों को हर सप्ताह नजदीक के  पुलिस थाने में जाकर उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी और बिना बताये तय क्षेत्र से बाहर पाए जाने पर कड़ी कानूनन कारवाई हुआ करती थी।

भारत जाती और सम्प्रदायों में बंटा हुआ एक विलक्षण देश है। हर व्यक्ति आज भी इन्ही बटवारो के दायरों में सिमटा हुआ है।  हर किसी जाती से कई ऊँची जातियां है और इतनी ही उनसे छोटी जातियां है। वर्तमान में जाती वह समूह है जिस का सीधा सम्बन्ध जन्म से है, यानि की वह किस समूह या परिवार में पैदा हुआ है।  यह व्यवस्ता कभी कर्मों से जुडी रही होगी, परन्तु सदियों से तो जाती का सीधा सम्बन्ध जन्म से ही माना जाता है।

मुकन और उनका परिवार (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के अंतरगत राजस्थान से १२ जातियों को प्रतिबंधित सूचि में रखा गया था -मीणा, भील, बावरिया, कंजर, सांसी, बंजारा, बागरिया, नट, नलक, मुलतांनी, भाट एवं मोगिया।

अब आप सोच रहे होंगे की जब मोगिया शामिल है तो बावरिया से मोगिया बनने में क्या लाभ?

कहते है मेवाड़ रियासत ने  बावरिया समाज के ही चुनिंदा लोगो को मोग्या नाम का ख़िताब दिया था।  क्योंकि कुछ बावरिया लोगो ने  मेवाड़ रियासत को भीलो और स्थानीय मीना लोगो के उत्पात से रक्षा में सहायता की थी, अतः मोगिया को हर समय शासन के नजदीक माना गया था। जॉर्ज व्हिट्टी गएर (George Whitty Gayer) 1909  की पुस्तक  Lectures on some criminal tribes of India and religious mendicants  के अनुसार मेवाड़ शासन ने स्थनीय आदिवासियों के उत्पात को शांत करने वाले वफादार बावरिया समूह को कोरल (coral) यानि मूंगा का दर्जा दिया, जो एक एक हिरे मोती की भांति एक महंगा पदार्थ है और वह बावरिया लोग मोंगिया कहलाने लगे और बाद में मोगिया कहलाये।  परन्तु आज भी मोगिया और बावरिया शब्द के इस्तेमाल करने वाले दोनों समूहों में शादी विवाह और अन्य तरह के व्यव्हार मौजूद है।

मुकन का पुत्र भजन मोगिया (दाएं), एक सुधारित बाघ शिकारी

संयुक्त राष्ट्र की एक शाखा Committee on the Elimination of Racial Discrimination (CERD) की सलाह पर भारत ने आजादी के कुछ वर्ष पश्च्यात इन 127 जातियों को उस जरायम पेशा अनुसूची से तो विमुक्त कर दिया और अब इन्हे विमुक्त जातियों (Denotified Tribes) के रूप में जाना जाता है जो बिलकुल वैसा ही है जैसे आप चिपके हुए स्टीकर के ऊपरी तह को खुरच कर निकल देते हो परन्तु निचे अभी भीकुछ चिपका हुआ हिस्सा रह जाता हो।

मुकन मोगिया के परिवार का टाइगर वॉच संस्था से अनूठा जुड़ाव है। संस्था की एंटी-पोचिंग यूनिट में मुकन के एक पुत्र गोविन्द मोगिया  ने खूब सेवाये दी है,  साथ ही इसी संस्था ने मुकन के एक पुत्र कालू को बघेरे के शिकार के लिए पुलिस को पकड़वाया भी है । वहीँ संस्था ने सूड़ केमि नमक संस्थान की मदद से  मुकन के 15 पोत्रो को अच्छी शिक्षा भी दिलवाई है, जो आज भी जारी है। इन्ही बच्चो में से एक बड़ा लड़के ने एक बार कहाँ की उसे यदि कुछ रुपये मिले तो वह अपनी जाती का नाम मोगिया से बावरिया करवाना चाहता है।  लगा शायद यह आत्मसमान के लिए किया जाने वाला एक प्रयास है,  परन्तु उसने बतया की मोगिया पिछड़े वर्ग (OBC) में आते है जबकि बावरिया अनुसूचित जाती  (SC) में शामिल है।  और मुफ्त राशन, शिक्षा एवं नोकरियो में प्राथमिकता के लिए अनुसूचित जाती में जाना ज्यादा लाभप्रद है।  उसने अपने स्तर पर  एक सरकारी अधिकारी  को  2500 रुपये की रिश्वत देकर अपने परदादा की जाती पुनः हासिल करली। शायद बावरिया कहलाना उसका हक़ भी था और अब अधिकांश बच्चे मोगिया से पुनः बावरिया लिखने लगे है।

गांव में लोग बावरिया और मोगिया में भेद नहीं करते परन्तु सरकार अभी भी इनमें अंतर करती है। पिछले दिनों टाइगर वॉच में आये Anthropological Survey of India के लोगो ने मोगिया  समाज पर एक अलग जाती के रूप में अध्ययन कर न शुरू किया है जो अब तक वह नहीं  कर पाए थे।

भजन के पुत्र दिलकुश बावरिया। नाथू बावरिया के बाद चौथी पीढ़ी, और औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मोगिया समाज के बच्चो के छात्रावास के 15 वर्ष के अनुभव में यह कई बार सामने आया ऊँची आजाती के लोग ही नहीं इन्हे दलित समाज (बैरवा आदि) के लोग भी इन्हे हेय दृष्टि से देखते है और इस से बढ़ कर यह भी देखने को मिला की किस प्रकार इसी मोगिया समाज के छात्रों ने भी कुछ अन्य समाजो (कालबेलिया और भोपा) के छात्रों के साथ खाने पिने और रहने से मना कर दिया की वह उनसे छोटे और अछूत है।

आज देश में 352 घुमंतू और 198 विमुक्त जातीय है जिनकी जनसँख्या 10 -11 करोड़ है और यह अपनी परम्परा से जुड़े रहने के लिए संघर्ष कर रहे है। सरकार इन्हे मुख्यधारा में लाने के अनेक प्रयास भी कर रही है, परन्तु इस संसाधन हीन देश में सब आसानी से नहीं मिलने वाला।

परन्तु दूसरी तरफ लगता है इस देश से अधिक सुविधा वाला देश और कौन सा होगा जहाँ कोई 2500 रुपये में जाती बदलवा सकते है।

नाथू बावरिया की नई पीढ़िया परपरागत ज्ञान भुला कर किताबी शिक्षा हासिल कर चुके है और कजोड़ जैसी चतुराई सीख कर प्रमाणपत्र भी हासिल कर लिया है। आज यह किसी और कजोड़ से बेवकूफ नहीं बनगे बल्कि सरकार को चक्कर खिला देंगे।

इन असली आदिवासियों के बारे में यह आलेख सत्य और तथ्य पर आधारित है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

राजस्थान के अंतिम जंगली कुत्ते (ढोल)

राजस्थान के अंतिम जंगली कुत्ते (ढोल)

अरे कुत्ते को क्या देख रहे हो ?  एक पर्यटन बोला और बेचारा टूरिस्ट गाडी वाला उसे छोड़ आगे बढ़ गया।  यही था अंतिम जंगली कुत्ता जो वर्ष 2004 में रणथम्भोर में दिख रहा था। मैं इसकी एक बेहद ख़राब फोटो ले पाया। जंगली कुत्ता जिसके लिए एक सही भारतीय नाम है – ‘ढोल’ (Cuon alpinus)। ढोल वर्ष 2004 के बाद में राजस्थान से विलुप्त हो चुके है, और यह  एक मात्र स्तनधारी प्राणी है, जो राज्य से आज़ादी के बाद से गायब हुआ है। परन्तु उस सामान्य पर्यटन की हिकारत भरी उपेक्षा से भी कहीं अधिक कठोर था हमारे पुरखो का  बर्ताव। क्योंकि ढोल को एक हानिकारक प्राणी माना जाता था जो हिरणो को मारता है। हिरन का कम होना मतलब बाघ और इंसान के लिए खाना कम होना। यह हालात वन्य जीव अधिनियम कानून आने के बाद भी नहीं सुधरे थे, तब भी पुराने खयालो के वन अधिकारी अक्सर इनके खिलाफ रहे और कुछ तो इनको चुप चाप मारते या मरवाते भी रहे।

जयपुर के एक पुराने शिकारी कहते थे की, १९५० के दशक में  वे जब श्योपुर- मध्य प्रदेश के जंगलो में  शिकार करने जाते तो, अक्सर वहां के  वन अधिकारी उनसे ढोल को ख़तम करने की सलाह देते थे, और वे जब ढोल मारते तो उन्हें लगता की यह एक वन्य जीव संरक्षण केलिए  किया गया सही फैसला है।

रणथंभौर का अंतिम एशियाई जंगली कुत्ता 8 मई 2004

वर्ष 2004  में, रणथम्भोर में ढोल कहाँ से आये कोई नहीं जानता परन्तु मध्य प्रदेश के अलावा कही से कोई और दूसरा जगह नहीं है, आज श्योपुर में भी इनका पूरी तरह सफाया हो चूका है।  एक जमाना था जब रणथम्भोर- सरिस्का – करौली , धौलपुर, बारां, दक्षिणी राजस्थान के अन्य जिलों के जंगलो में  इनकी तादाद ठीक-ठाक रही थी।

राजस्थान के जाने माने शिकारी कर्नल केसरी सिंह ने अपनी पुस्तकों में इनसे जुड़े अनेक किस्से लिखे है की किस प्रकार रणथम्भोर के सोनकच्छ इलाके में उन्होंने सांभर के पीछे लगे 5 -6 शिकारी कुतो में से एक को मार गिराया,एक अन्य को घायल कर दिया और बाकि सब भाग गए। उन्होंने दो और उद्धरण लिखे है जिसमें भी ढोल सांभर  हिरन का पीछा करते हुए ही बताये गए थे। उनके अनुसार जब ऊंटो पर बैठे वन रक्षक ने देखा की एक घबराया हुआ सांभर का छौना उनके बीच आगया है और उनके पीछे दो ढोल मोके की तलाश में है ताकि उसका शिकार कर सके। इसी प्रकार एक बार उनको सुबह सुबह जब वे अपने एक शिकारी दोस्त के साथ सुबह का नास्ता ले रहे थे तब भी एक सांभर तेजी से भागते हुए उनके पास आगया जिसके पीछे ढोल भाग रहे थे। उनका दोस्त जो एक सांभर के शिकार के लिए रणथम्भोर आया था और उसे पहले दिन पुरे दिन घूमने के बाद भी सांभर नहीं दिखा था। ढोल के द्वारा दिखाए सांभर से अत्यंत प्रसन्न था। एक और वाकये में तो ढोल के समूह ने बाघ से खाना तक छीन लिया था।  यह सभी वाकये देश आजादी (1947) के आस पास के रहे होंगे।

इन कहानीयो से स्पष्ट है  की रणथम्भोर ढोल का अच्छा पर्यावास था। खैर कोटा, डूंगरपुर, झालावाड़ आदि सभी जगह के पुराने राजवंशो के महलो में आज भी राजस्थान से मारे गए ढोल की कई ट्रॉफीज दीवारों पर टंगी हुई है।

पिछले दिनों ढोल का जिक्र भारत की एक महती परियोजना -भारत माला राज मार्ग के पर्यावरण प्रभाव आकलन की रिपोर्ट में भी हुआ था की राजस्थान के कई अभ्यारण्यो से गुजरनेवाला यह राजमार्ग किस प्रकार अन्य वन्य जीवो के साथ ढोल के जीवन को प्रभावित करेगा।  पर्यावरण प्रभाव आकलन  की रिपोर्ट बनाने वाले अक्सर इधर उधर का ज्ञान चोरी कर अपनी रिपोर्ट बनाते है जिसमें सच्चाई अक्सर कहीं पीछे ही छूट जाती है। ढोल राजस्थान से कब ही के समाप्त हो चुके परन्तु पर्यावरण प्रभाव आकलन  करने वाले अभी भी गलती से उसे दर्ज कर ही रहे है।

ढोल राज्य का सबसे अधिक भुला दिया गया प्राणी है जिसे आज पुनः लाने से वन विभाग के अधिकारी भी कतराते है क्योंकि वर्षो से हमने इसकी छवि को इतना कलुषित जो कर दिया है।

लेखक :

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo Caption: जंगली कुत्तों द्वारा शिकार किया गया बाघ (1807) (फोटो:सैमुअल हॉविट)

गंध सुगंध से राजी बादशाह

गंध सुगंध से राजी बादशाह

राजस्थान के माहिर बाघ शिकारी कर्नल केसरी सिंह लिखते हैं कि, जब दतिया महाराज श्री गोबिंद सिंह शिकार करने ग्वालियर आये तो उन्हें तैयारी का बहुत कम समय मिला और आनन-फानन में केसरी सिंह जी ने अपने शिकारख़ानों के कर्मचारियों से बाघ के बारे में जानकारी ली। बाघ ने एक गांव के पास एक गाय का शिकार किया था। स्थिति का जायजा लेने वह स्वयं वहां गये, उन्होंने पाया कि, शिकार खुले में पड़ा था और आस पास मचान बांधने की उचित जगह ही नहीं थी। उन्होंने तय किया की उस से 500 गज दूर एक बरगद के पेड़ पर मचान बांधा जाए साथ ही एक घरेलु सूअर को उसके लिए प्रलोभन के रूप में बांधा गया। परन्तु केसरी सिंह जी ने बाघ को उस सूअर तक लाने के लिए एक अनोखी वनस्पति की गंध का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि, इस वनस्पति की सुगंध बाघों को लुभाती है। यह वनस्पति है – जटामासी (Indian Spikenard) जिसे वनस्पति शास्त्र की भाषा में Nardostachys jatamansi के नाम से जाना जाता है। यह आज बाघों से भी अधिक एवं  घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered या CR) श्रेणी में राखी गयी पादप प्रजाति है।

बाघ को अपनी और लुभाने के लिए उन्होंने दो बोरों में जटामासी को भर कर पहले उसे गिला किया एवं दो अलग-अलग सहयोगियों को उन बोरों के रस्सी बांध के दे दिया। उन्हें कहा गया कि, इनको दो दिशाओ में 500 मीटर जमीन पर घसीटते हुए मचान की और लाये ताकि जमीं पर इसकी सुगंध फ़ैल जाये। केसरी सिंह मानते थे कि, इस वनस्पति में मादा बाघिन के समान गंध आती है।

जटामासी Nardostachys jatamansi

यह तरीका काम कर गया एवं रात्रि 9 बजे बाघ उनके मचान के पास गंध के पीछे-पीछे आ गया था, जिसका सफलता पूर्वक शिकार किया।

जब महाराष्ट्र में एक बाघिन जो दर्जन भर लोगो को मारने के लिए उत्तरदायी मानी जा रही थी, तो कुछ वन अधिकारी जंगल में उसे ढूंढने के लिए एक खास प्रकार का परफ्यूम छिड़क रहे थे। आप सोच रहे होंगे यह बड़ा विचित्र तरीका है, बाघिन को ढूंढने का, परन्तु कई जगह इसक तरीके को इस्तेमाल किया गया है जैसे दक्षिण अमेरिका में परफ्यूम से जैगुआर को आकर्षित किया जाता रहा है, ताकि बायोलॉजिस्ट उसका कैमरा ट्रैप में फोटो ले सके।  शोधकर्ता यह तरीका खास परिस्थिति में इस्तेमाल करते है जब कोई बाघ जंगल से भटक कर कहीं बाहर निकल जाता है। यह परफ्यूम अधिकांश तय कैल्विन क्लेइन नामक ब्रांड का होता है और इसमें एक खास तरह का फेरोमेन है, जो सीवेटोन कहलाता है। यह एक खास तरह की बिज्जू या सिवेट प्रजाति के स्तनधारी की विशेष ग्रंथियों में मिलता है। यह फेरोमेन आज कल कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है। परन्तु कृत्रिम रूप से प्राप्त बिज्जू की ग्रंथि का स्त्राव प्राचीन समय में इत्र का मुख्य घटक था।

ब्रोंक्स ज़ू ने कई प्रकार के इत्रों पर बाघों की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में आंकड़े जुटाए और बताया कि, सबसे अधिक ‘कैल्विन क्लेइन’स ओबसेशन फॉर मेन’ को बाघों ने 11.1 मिनट तक सूंघते रहा, वहीँ  ‘रिक्की’स  ल’एयर  दू टेम्प्स’ को 10.4 मिनट तक सुंघा वहीँ अन्य कुछ परफ्यूम को मुश्किल से 2-15  सेकंड ही दिये।

बाघ रास्ते के सबसे मुख्य पेड़ के तने पर मूत्र की बौछार करता है, एवं अक्सर उस पेड़ को चयन करता है जो रास्ते की और झुका हुआ हो। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

बाघ अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए अपने मूत्र और अंगो की विभिन्न ग्रंथियों से पेड़ो और पत्थरों पर अपनी गंध छोड़ते है। यह गंध इतनी हल्की होती है, परन्तु तेलिये पदार्थ (लिपिड) में घुली हुई यह गंध कई दिनों तक अन्य बाघों को सन्देश देती है, कि यह किसका इलाका है या गंध छोड़ने वाला बाघ किस प्रकार की स्थिति में है।

मूत्र की बौछार उस स्थान पर छोड़ी जाती है जहाँ वह कई दिनों तक रहे एवं बारिश से धुले नहीं। अक्सर बाघ रास्ते के सबसे मुख्य पेड़ के तने पर मूत्र की बौछार करता है, एवं अक्सर उस पेड़ को चयन करता है जो रास्ते की और झुका हुआ हो। झुके हुए पेड़ पर बारिश की बुँदे गंध युक्त मूत्र को जल्दी से बहा नहीं पाती है एवं झुके होने के कारण मूत्र का छिड़काव भी अधिक बड़ी सतह पर  भी हो पाता है। यदि आप इंटरनेट पर टाइगर सेंट मार्किंग की फोटो ढूंढेगे तो अधिकांश  फोटो रास्ते की और झुके हुए पेड़ों की ही मिलेगी जिन पर बाघ मूत्र कर रहा होता है। इसके अलावा जिन पेड़ो में गंध युक्त रेसिन होती है, उनपर बाघ अपनी गंध नहीं छोड़ते है, क्योंकि उनकी गंध पेड़ो के रेसिन की तेज गंध में खो जाती है।

टाइगर के मूत्र में 2 acetyl-1-pyrroline (2AP) नामक रसायन मिलता है, जो बासमती चावल या ब्रेड या रोटी जब आग में भून कर भूरे रंग में परिवर्तित होती है, यही रसायन उस समय भी बनता है। प्रकर्ति में वनस्पति एवं जीव जंतुओं में  की अनेक क्रिया मिलती जुलती है एवं उसी प्रकार कई रसायन भी समान होते है।

कई बार अमेरिका में मिलने वाली बॉब कैट के प्लेसेंटा के द्वारा तैयार किये गये घोल से भी बाघ एवं अन्य बिल्लियों को आकर्षित किया जाता है।

वर्ष 2017 में सरिस्का में वरिष्ठ वन अधिकारी श्री गोबिंद सागर भरद्वाज एवं उनके सहायक अधिकारियो ने बड़ी सूझबूझ दिखाते हुए एक नर अल्पवयस्क बाघ को मादा के मूत्र से इच्छित स्थान पर आकर्षित किया और पुनः सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। यह अनूठा प्रयोग चिड़ियाघर  की एक मादा के मूत्र का इस्तेमाल कर के किया गया।

इस प्रकार कई तरीके इस्तेमाल कर बाघों को खतरे में डाला गया है अथवा निकला गया है।

लेखक:

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Cover Photo Credit: Dr. Dharmendra Khandal

चिपकने वाले कागज़ एवं बाघ का शिकार

चिपकने वाले कागज़ एवं बाघ का शिकार

शिकार के अलग अलग तरीके है और इनमें छुपे ज्ञान से, हम बाघों को बचाने के अद्धभूत तरीके ढूंढ सकते हैं, एक वाक्या राजस्थान के विख्यात शिकारी केसरी सिंह जी द्वारा दर्ज किया गया है, जो नरभक्षी और घुमन्तु बाघों को पकड़ने में सहायक हो सकता है।

कर्नल केसरी सिंह राजस्थान के एक माहिर शिकारी थे, जिन्होंने ग्वालियर और जयपुर रियासतों के शिकार खानो के लिए वर्षो तक कार्य किया। उस समय की परिस्थितियाँ अलग हुआ करती थी, बाघ – बघेरों के शिकार को राज्यों के कानून एवं समाज द्वारा मान्यता प्राप्त थी। अतः शिकार की घटनाओं आज के परिपेक्ष्य में भी हेय नजर से देखना ठीक नहीं होगा। केसरी सिंह जी ने कई पुस्तके लिखी है, जिनमें बाघ शिकार के साथ उसके व्यवहार की अनेक बारीकियों का सूक्ष्मता से वर्णन किया है। आज के समय भी उनके द्वारा दर्ज की गयी घटनाये, बाघ संरक्षण में उपयोगी हो सकता है।

उनकी एक पुस्तक – “हिंट्स ऑन टाइगर शूटिंग” 1965 में एक वर्तान्त बांध बरेठा (भरतपुर) से शामिल है, की किस प्रकार वहां उनके एक मित्र ने घबराये हुए दौड़ते बाघ को कुछ क्षण एक स्थान पर रोके रखा, ताकि वह उसका आसानी से शिकार कर सके।

भरतपुर महाराज किशन सिंह जी

केसरी सिंह जी लिखते है कि, भरतपुर महाराज किशन सिंह जी, उनके मेयो कॉलेज, अजमेर के ज़माने से मित्र हुआ करते थे। किशन सिंह जी किसी भी समस्या के लिए हर समय त्वरित रूप से नए हल ईजाद कर लिया करते थे। केसरी सिंह जी लिखते है यदि बरेठा का वह शिकार का वाक्या खुद उन्होंने ने नहीं देखा होता तो शायद वह इस तरह के शिकार के तरीके पर भरोसा ही नहीं करते। किशन सिंह जी राजस्थान के प्रसिद्ध राजनेता श्री विश्वेन्द्र सिंह के दादा एवं नव जवान राजनेता श्री अनिरुद्ध सिंह के परदादा थे। किशन सिंह जी अपने ज़माने के समाज सुधारक के रूप में जाने जाते है। बरेठा को वर्तमान में एक वन्य जीव अभ्यारण्य का दर्जा प्राप्त है जिसे बांध बरेठा नाम से जाना जाता है, एवं इन दिनों में इसलिए चर्चा में रहा था क्योंकि राम मंदिर निर्माण के लिए इस्तेमाल होने वाले पत्थरो के लिए इसके एक बड़े हिस्से को राजस्थान सरकार ने अभ्यारण्य से अलग किया था।

बांध बरेठा वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ सत्य प्रकाश मेहरा)

उस ज़माने में शिकार का एक सबसे अधिक प्रचलित तरीका था – हांका लगाना। हांके में अनेको लोग बाघ के पीछे तेज शोर और हल्ला करते हुए U आकर में उसे घेरते हुए चलते है, और डरा हुआ बाघ एक निश्चित स्थान से दौड़ते हुए गुजरता है, जहाँ पहले से मचान पर तैयार बैठा शिकारी, उसका शिकार कर लेता है। मचान हालाँकि छुपे हुए स्थान पर होता है और उसके सामने एक खुला मैदान रखा जाता है। परन्तु कई बार बाघ इतना तेजी से निकलता है की यदि उस क्षण में शिकारी गोली नहीं चला पाए तो पुनः उतनी ही तैयारी फिर से करनी पड़ती है, जो एक लम्बी प्रक्रिया है।

बांध बरेठा वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ सत्य प्रकाश मेहरा)

वे लिखते है कि, बरेठा में जैसे ही बाघ हांका लगने के बाद खुले मैदान में मचान के पास आया वह अपने पांव से कुछ निकलने की कोशिश कर रहा था। यह क्षण मचान पर बैठे लोगो के लिए आसानी से शिकार के लिए समय दे गया और उन्होंने ने बन्दुक से एक सधा हुआ निशाना मार उसे ख़तम कर दिया।

मक्खी एवं कीट आदि पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाला फ्लाईपेपर

किशन सिंह जी जानकारी लेने पर उन्होंने बताया की किस प्रकार उन्होंने फ्लाईपेपर – मक्खी एवं कीट आदि पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक तरफ से चिपकने वाले पदार्थ से सने कागज को रास्ते पर बिखेर दिया था, ताकि जब बाघ उसपर से चले तो उसके पांव में वे कागज के टुकड़े चिपक जाये। और जैसे ही वह इनसे अपना पीछ छुड़ाने के लिए रुके, फिर आसान शिकार बना सकते है।

यह तरीका खास परिस्थिति में घुमन्तु एवं मानव भक्षीबाघ को पकड़ने में लिया जा सकता है, एवं गोली की जगह बेहोश करने वाली दवा का इस्तेमाल किया जा सकता है। क्योंकि गोली की बजाय दवा वाला इंजेक्शन धीमी गति से चलती हां एवं सही निशाना भी अत्यंत आवश्यक है।

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Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

कवर फ़ोटो क्रेडिट: सिटी पैलेस संग्रहालय, जयपुर