राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भैंसरोडगढ़ को “राजस्थान के स्वर्ग” की संज्ञा दी और कहा की “अगर मुझे राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी”, तो क्या है ऐसा भैंसरोडगढ़ में?

राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले में चम्बल किनारे एक अभयारण्य है, जिसे भैंसरोड़गढ़ के नाम से जाना जाता है, 193 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ यह एक अत्यंत खूबसूरत अभयारण्य है जिसे राजस्थान सरकार ने 5 फरवरी 1983 को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया किंतु आज भी बहुत कम लोग ही इसके बारे में जानते है Iरावतभाटा के पास स्थित विशाल भैंसरोड़गढ़ दुर्ग महान महाराणा प्रताप के अनुज शक्ति सिंह की सैन्य चौकी हुआ करता था। ब्राह्मिनी एवं चम्बल नदियों के संगम पर भैंसरोड़गढ़ के किले का निर्माण 1741  में रावत लाल सिंह द्वारा किया गया था जो कि एक जल दुर्ग है । यह दुर्ग चारों ओर पानी से घिरा हुआ है जिससे इस तक पहुंचना मुश्किल था । आज भी इस दुर्ग के परकोटे में भैंसरोडगढ़ गाँव बसा हुआ है जिसकी आबादी लगभग 5000 है ।

भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र फोटो: श्री प्रवीण कुमार

भैंसरोडगढ़ बंजारों द्वारा बसाया गया एक गाँव था जो कि “चर्मण्यवती नगरी” के नाम से प्रसिद्ध था जिसके अवशेष आज भी खुदाई में प्राप्त होते रहते है। चर्मण्यवती नगरी का नाम भैंसा और रोड़ा नामक दो भाइयों के नाम पर भैंसरोडगढ़ पड़ा । भैंसा और रोड़ा गाँव में मुसीबत के समय मसीहा माने जाते थे । एक किंवदंती के अनुसार एक बार गाँव में तेल की कमी हो गई तब ये दोनों भाई उदयपुर गए । वहाँ इन्होंने अपनी मूंछ का एक बाल एक लाख रुपये में गिरवी रखकर गाँव के लिए तेल कि व्यवस्था की । बाद में गाँव लौटकर उन्होंने एक व्यक्ति को एक लाख रुपये देकर अपनी मूंछ का बाल वापस मँगवाया । इसीलिए यहाँ के लोग मूंछ को आन-बान का प्रतीक मानते है ।

अभयारण्य के वन

यहाँ के बुजुर्गों का कहना है कि एक ज़माने में भैंसरोडगढ़ के जंगल इतने सघन थे की सूरज की रोशनी ज़मीन तक भी नहीं पहुँच पाती थी। दक्षिण एवं पूर्व दिशा में राणाप्रताप सागर बांध, उत्तर दिशा में ब्राह्मिनी नदी एवं पश्चिमी दिशा में हाड़ौती  का पठार इस अभयारण्य की सीमा निर्धारित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय  जलवायु  वाले इस अभयारण्य में चम्बल के गहरे घुमाव और प्रपात हैं जिनमें मगर एवं अन्य जलीय जीव पाए जाते हैं और इसी कारण से इसे घाटियों एवं प्रपातों का अभयारण्य भी कहा जाता है।धोक यहाँ मिलने वाला मुख्य वृक्ष है साथ ही यहाँ सालार, कदम्ब, गुर्जन, पलाश, तेन्दु, सिरस, आमला, खैर, बेर सेमल आदि के वृक्ष मिलते हैं। नम स्थानों पर अमलतास, इमली, आम, जामुन, चुरेल, अर्जुन, बहेड़ा, कलम और बरगद प्रजाति के पेड़ मिलते हैं।

अभयारण्य के वन्यजीव

अन्य बड़ी बिल्लियों की अनुपस्थिति में तेंदुए  खाद्य शृंखला में शीर्ष पर हैं। मांसाहारियों में धारीदार हायना,सियार,कबर बिज्जू,जंगलीबिल्ली, सिवेट, और लोमड़ियाँ मिलती हैं। शाकाहारियों में चीतल, सांभर, नीलगाय, चिंकारा, लंगूर, खरगोश, जंगली सूअर देखे जा सकते हैं। यह क्षेत्र स्लोथ बियर के रहने के लिए भी अनुकूल है।अभयारण्य में सरीसृपों की भी अच्छी आबादी है जिनमें मगरमच्छ, कछुआ, कोबरा, करैत, रैट स्नेक,इंडियन रॉक पाइथन,और मॉनिटर लिजार्ड शामिल हैं। अभयारण्य के चम्बल नदी क्षेत्र में मछलियों की भी कई प्रजातियां पायीं जाती हैं ।मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया भैंसरोड़गढ़ के आस पास के गॉंवों में पालने के उद्देश्य से लायी गई थी जो संयोगवश स्थानीय नदी तंत्र में शामिल हो गयीं । जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों की स्थानीय प्रजातियां संकट में है वही दूसरी ओर यह अभयारण्य में मिलने वाले ऊदबिलाव का प्रमुख  आहार हैं

संकटापन्न पक्षियों का आशियाना

अभयारण्य में लगभग 250 तरह के स्थानीय एवं प्रवासी पक्षियों की प्रजातियां पायी जाती है; जिनमें क्रैन, स्टोर्क, स्नाइप, वैगटेल, रूडी शेलडक और गीज़ प्रमुख हैं। यहाँ स्थित सेडल डैम और ब्रिजसाइड क्षेत्र में यूकेलिप्टस के पेड़ों पर अलेक्जेंड्राइन पैराकीट(Psittacula eupatria) के घोंसले अच्छी संख्या में देखे जा सकते हैं।अभयारण्य का एक अन्य आकर्षण,काला खेत प्लांटेशन-2 में अर्जुन के पेड़ों  पर रहने वाले संकटग्रस्त व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की कॉलोनियां हैं । चम्बल नदी के किनारे स्थित अर्जुन के पेड़ों पर लगभग तीस की संख्या में ये वल्चर मौजूद हैं। संभवतः हाड़ौती में व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की यह एक मात्र कॉलोनी है।

व्हाइट रम्प्ड वल्चर समूह, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

पुनर्वास केंद्र(RC) – अभयारण्य का सूक्ष्म स्वरूप

नदी किनारे धूप सेकते हुए मगर एवं नदी में अठखेलियां करते हुए ऊदबिलाव अभयारण्य की शान माने जाते हैं । यहाँ स्थित पुनर्वास केंद्र (रिलोकेशन सेंटर) के क्रॉकोडिल पॉइंट में दुर्घटनावश मानव बस्तियों में पहुंचने वाले मगर को सुरक्षित निकालकर लाया जाता है एवं नदी में छोड़ा जाता है। यहाँ कई घंटों तक मगर को बिना हिले डुले घूप सेकते हुए, पानी में तैरते हुए देखना और मछली पर झपटना बहुत ही रोमांचक लगता है। 300  हेक्टेयर में बना पुनर्वास केंद्र देखने लायक है जो की सम्पूर्ण अभयारण्य का एक सूक्ष्म स्वरूप माना जा सकता है। यहाँ स्टील से बने इंदिरा गाँधी वाच टावर से पूरे अभयारण्य के विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है।

इंदिरा गाँधी वाच टावर से अभ्यारण्य का विहंगम दृश्य, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

ऊदबिलाव एवं उनकी कलाबाजियां

ब्रिज साइड एवं इसके आसपास के क्षेत्र में चिकने फर वाले उदबिलावों को देखा जा सकता है। ये सुबह से शाम के समय बहुत सक्रिय रहते हैं। इनके झुण्ड को जिसे रोम्प (romp) कहा जाता है नदी में बार बार कूदते हुए देखना रोचक लगता है। ये कूदते समय शरीर को इस तरह से घुमाते हैं मानो डॉल्फिन नदी में कूद रही हो। कुछ समय बाद वापस ये नदी में से मछली मुंह में पकड़ कर निकल कर आते हैं ।मछली को ये बिलकुल उसी तरह से खाते हैं जैसे छोटा बच्चा बिस्किट खाता है। बहुत ही हिल मिलकर रहने वाला यह जीव एक आवाज निकाल कर एक दूसरे से संवाद करता  है । जब ये किसी मानव को देख लेते हैं तो इनकी आवाज लम्बी होने लगती है। नदी की किनारे रेत पर या चट्टान पर इन्हें अपने परिवार के साथ मस्ती करता हुआ देखा जा सकता है, इनका पानी में जाना, वापस आना, एक दूसरे पर चढ़ना, रेत पर फिसलते हुए देखना बहुत ही अलग अनुभव होता है ।

खोह और जल प्रपातों का अभयारण्य

वैसे तो अभयारण्य की प्राकृतिक छटा स्वयं में अद्वितीय है, लेकिन विशेष रूप से यहाँ की रेवाझर खोह,सांकल खोह, रीछा खोह किसी को भी दक्षिणी भारत जैसा अनुभव कराती है ! यहाँ के अन्य आकर्षण राणाप्रताप सागर बांध, सेडल डेम, पाड़ाझर महादेव, चूलिया जल प्रपात, मंडेसरा जल प्रपात ओर  कलसिया महादेव हैं।ब्राह्मिनी एवं चम्बल के किनारे लगभग 150 फुट की ऊंचाई पर भैंसरोड़गढ़ का दुर्ग बहुत ही भव्य दिखाई देता है। भैंसरोड़गढ़ की अद्भुत वास्तुकारी एवं भव्यता देखकर राजस्थान का इतिहास लिखने वाले ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था की अगर उन्हें राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये  तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी ।दक्षिण राजस्थान का सबसे ऊँचाई से गिरने वाला चूलिया प्रपात कई चूड़ी के आकार की घुमावदार घाटियों से बहने वाली जलधाराओं से बना है इस कारण पहले इसका नाम चूड़ियाँ पड़ा ओर बाद में धीरे-धीरे अपभ्रंश होता हुआ चूलिया के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रपात के निचले हिस्से में कई मगर देखे जा सकते हैं।

पाड़ाझर महादेव में देखने लायक तीन मुख्य जगह हैं, महादेव मंदिर, गुफाएं,एवं प्रपात। लगभग 100 मीटर लम्बी प्राकृतिक गुफा के अंतिम बिंदु पर शिवलिंग स्थित है। इस गुफा में सैकड़ों चमगादडो की विशाल कॉलोनी भी हैं।

रेवाझर, भैंसरोड़गढ़ पठार के निचले हिस्से में है जहाँ दुर्लभ वनस्पतियां विद्यमान हैं। यह घाटी  संकटग्रस्त लम्बी चोंच वाले गिद्धों (Gyps indicus)की प्रजनन स्थली है। हालाँकि इनकी संख्या काफी कम है लेकिन फिर भी इन्हें सुबह व शाम के समय आसमान में उड़ान भरते हुए देखा जा सकता है। प्रपात की पूर्वी दिशा में स्थित सीधी चोटी पर इनके घोंसले हैं।इन जंगलों में धारीदार लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, जंगली बिल्लियां भी हैं लेकिन मवेशियों एवं मानवीय गतिविधियों के कारण इनकी संख्या कम है। भैंसरोड़गढ़ में सड़क के किनारे एवं वनस्पतियों से समृद्ध रीछा खोह प्रमुख चार घाटियों में से एक है। यहाँ किसी ज़माने में रीछ हुआ करते थे ।

कलसिया महादेव जल प्रपात, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

सांकल घाटी/प्रपात भी भैंसरोड़गढ़ की चार घाटियों में से एक है जो रेवाझर के ही जैसी है। कलसिया महादेव सड़क के किनारे भैंसरोड़गढ़ पठार की अंतिम घाटी है।महादेव की गुफा यहाँ से बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है।

ऊदबिलाव एवं व्हाइट रम्प्ड वल्चर की कॉलोनी मिलने के कारण भैंसरोडगढ़ अभयारण्य को संकटापन्न प्रजातियों की शरणस्थली कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी I 

Praveen holds a degree in Life Sciences and is currently working as Assistant Conservation Biologist with Tiger Watch. He has worked for Rajasthan & Haryana State Biodiversity Boards as Scientific Consultant and contributed in documentation of the biological diversity of these States. He has documented wetlands of Rajasthan and aided WII team in conservation breeding program of Lesser Florican.