श्री विवेक शर्मा एक सर्प विशेषज्ञ हैं जिन्होंने कई प्रकार के सर्पों एवं उनसे जुड़े विषयों पर विस्तृत शोध किया है, प्रस्तुत लेख में श्री शर्मा ने सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप के एकिस वर्ग की उप प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर के बारे में बताया है।

विश्व में पाए जाने वाले सभी सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप एकिस वर्ग (genus Echis) के अंतर्गत आते हैं जो की सबसे व्यापक रूप से वितरित विषैले सांपो के वर्ग में से एक हैं तथा ये भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर अफ्रीकी महाद्वीप में भूमध्य रेखा के उत्तर तक पाये जाते हैं। इसकी  अधिकांश प्रजातियाँ मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका में पाई जाती हैं, जबकि भारत में केवल एक प्रजाति एकिस कैरिनेटस (श्नाइडर, 1801) की 2 उप-प्रजातियाँ ही हैं।

राजस्थान में भी सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस कैरिनेटस) की दो उप-प्रजातियाँ पायी जाती है। उप-प्रजाति एकिस कैरिनेटस कैरिनेटस भारतीय प्रायद्वीपीय इलाके अरनी (आरनी) से खोजा और प्रदर्शित किया गया था जो की महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित है।यह भारत में व्यापक रूप से फैली हुई है और दक्षिण भारत से उत्तर भारत तथा पूर्व में यह पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले तक पायी जाती है जो इस सम्पूर्ण जीनस की सबसे पूर्वी सीमा भी है। दूसरी उप-प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी स्टेमर, 1969) को पाकिस्तान के बलूचिस्तान के पिशिन के पास स्थित बान कुशदिल खान नामक जगह से अलग उप-प्रजाति के रूप में मान्यता दी गई थी। यह अपने बड़े आकार, स्केल्स की गिनती में अंतर और मध्य-पूर्व के अधिक सूखे भागों में अलग से वितरण के कारण अलग श्रेणी में रखा गया है। यह राजस्थान से संयुक्त अरब अमीरात और ईराक तक पाया जाता है। उप-प्रजाति सॉशुरेकी का नाम ऑस्ट्रेलियाई पशु चिकित्सक एरिक सॉशुरेक के नाम पर रखा गया था। यह उप-प्रजाति थार रेगिस्तान और इसके किनारों में बहुत आम उपस्थिति के कारण राजस्थान में बहुत ख़ास है। इस तरह का पर्यावास दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान को छोड़कर अधिकांश राज्य में फैला हुआ है। रात में जब इनकी गतिविधि का मुख्य समय होता है तब यह बड़ी संख्या में खाने की तलाश में निकलते है और इन्हे देखना बहुत ही आकर्षक और रोमांचक क्षण होता है।

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी (Echis carinatus sochureki) फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर की अपने प्रायद्वीपीय भारतीय करीबी की तुलना से बड़ी आबादी है। यह 80 से.मी. तक लम्बा होता है लेकिन 60 से.मी. से ऊपर लम्बाई मिलना दूर्लभ है। यह छोटा और मोटा सांप होता है जिसका सिर बड़ा और पूँछ छोटी होती है। सॉ-स्केल्ड वाइपर की सभी प्रजातियों में से, यह उप-प्रजाति रंग और स्वरुप, और वैज्ञानिक वर्गीकरण में भिन्नताओं के लिए जानी जाती हैं। कुल मिलाकर यह सूखी सतह जैसा दिखता है जिसके कारण यह सूखे मैदान (रेत, चट्टानों, पत्ती कूड़े आदि) में किसी को आसानी से दिखाई नहीं देता है। इसका सिर त्रिकोणीय आकार का होता है जो गर्दन से स्पष्ट अलग दिखाई देता है। यह छोटे सूखे दिखने वाले कील स्केल्स (जिन स्केल में बीच में एक लंबाई के साथ एक सीधा उभार होता है जिसे छूने से भी अलग अहसास होता है) से ढका होता है। इसके सिर के शीर्ष पर एक लम्बी “प्लस या धन या त्रिशूल” आकार के निशान होते हैं जो इस सांप को पहचानने में मदद करने वाली विशेषता है। इसका ऊपरी शरीर (डॉरसल बॉडी) मूल रूप से मटमैले-भूरे रंग का होता है जिस पर रीढ़ के साथ-साथ 31-41 हल्के रंग के धब्बे होते हैं। इन धब्बों की दोनों तरफ लहराती हुई रेखाएं होती है जो स्पष्ट रूप से एक दूसरे को छूती नहीं है। इस सांप के सभी रूपों में इन धब्बों के बीच की जगह का रंग बाकी शरीर से ज्यादा गहरा होता है तथा शरीर की निचली सतह (उदर सतह/वेंट्रल बॉडी) पर छोटे गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे हो भी सकते हैं और नहीं भी।

वैज्ञानिक वर्गीकरण से इस उप-प्रजाति में कुछ उल्लेखनीय चरित्र हैं जो वैज्ञानिक स्तर पर पहचान में मदद करते हैं, जैसे की 154-181 वेंट्रल, 27-34 सब-काडल, मध्य शरीर में 28-32 डॉरसल स्केल्स, 3-7 क्रमिक रूप से दांतेदार स्केल, सुस्पष्ट सुपरा-ऑक्युलर स्केल्स और आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच 2 स्केल्स होते हैं। कैरिनैटस में उदर (वेंट्रल) स्केल्स सॉशुरेकी से कम होते हैं और आमतौर पर आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच केवल एक ही स्केल होता है। सॉशुरेकी में दो धब्बो के बीच की खाली जगह गहरे रंग की होती है तो वहीं कैरिनैटस में ऐसा कुछ नहीं होता है। इसके अलावा कैरिनटस में 40 से.मी. से ऊपर लंबाई मिलना आम नहीं है, लेकिन सॉशुरेकी में यह आकार सामान्य रूप से पाया जाता है। अध्ययनों के अनुसार, सॉशुरेकी पश्चिमी भारत और पाकिस्तान व ईरान के पश्चिमवर्ती अधिक सूखे इलाकों के लिए अनुकूलित है, जबकि कैरीनेटस विभिन्न प्रकार के निवास स्थानों जैसे खुले जंगलों, झाड़ियों, शुष्क पर्णपाती जंगलों, प्रायद्वीपीय भारत के चट्टानी मैदानों में रहता है।

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एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी (Echis carinatus sochureki) सॉ स्केल वाइपर की अन्य उपप्रजाति की तुलना में तुलना में काफी बड़ा सांप होता है फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉ-स्केल्ड वाइपर में दिलचस्प पारिस्थितिकी देखने को मिलती है जो कि अन्य वाइपर प्रजातियों में से अलग है। सबसे पहले तो यह की यह सांप अन्य वाईपर की तुलना में छोटा होता है। इनके पास रेगिस्तान और अन्य शुष्क क्षेत्रों की कठिन मौसम में भी जीवित रहने की क्षमता होती है। हमने सॉशुरेकी को गुजरात के समुद्री तटों में भी देखा है जहाँ ताजा पानी उपलब्ध नहीं होता है। ये ज्यादातर स्थलीय हैं, लेकिन कांटेदार झाड़ियों में चढ़ने और यदि तापमान सही रहे तो कई दिनों तक वहां रहने की क्षमता रखते हैं। मैंने खुद व्यक्तिगत रूप से सॉशुरेकी के एक सांप को देखा है जिसने तटीय गुजरात में धातु की बाड़ पर 10 फीट ऊंचाई पर 25 दिन और रात से अधिक समय बिताया था। अन्य वाइपर (और पिट-वाइपर) के विपरीत, यह कई प्रकार के जानवरो को खाते हैं जैसे की चूहे, छिपकली, अपनी प्रजाति व अन्य प्रजाति के सांप और कीड़े आदि। बल्कि ये दोनों उप-प्रजातियाँ अकशेरुकीय और छिपकलियों पर सबसे अधिक निर्भर हैं। भोजन में विविधता होने के कारण यह उन क्षेत्रों में भी जीवित रह सकते हैं जहां खाद्य श्रृंखला में अच्छी संख्या में पौष्टिक शिकार नहीं हैं।

सभी एकिस(Echis) प्रजातियों की तरह, सॉशुरेकी में भी खतरे की परिस्थिति में एक विशिष्ट प्रकार का प्रदर्शन होता है जो इसे दुश्मन के सामने शक्तिशाली, सतर्क और चुस्त दिखाता है। यह अंग्रेजी के सी (C) के आकार की कुंडली बना लेता है तथा अपने स्केल्स को आपस में रगड़ कर एक ख़ास प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है। यह ध्वनि 4-5 पंक्तियों में डॉरसल स्केल्स की अनूठी व्यवस्था द्वारा निर्मित होती है जहाँ ये लंबवत नहीं बल्कि 45 डिग्री के कोण पर जमे होते हैं।इसके अलावा, उनके तिरछे व्यवस्थित स्केल्स में लकीरें होती हैं (उन्हें तकनीकी रूप से कील्ड स्केल्स कहा जाता है) जो आरी की तरह दाँतदार होते हैं। बगल वाले डॉरसल स्केल्स में इस प्रकार के परिवर्तन से उन्हें कम ऊर्जा खर्च कर ध्वनि उत्पन्न करने में मदद मिलती है। यह संभवत: इन सांपों को उनके दुश्मन को बिना मुंह से हिस्स या फुंफकार की ध्वनि निकाले चेतावनी देने में मदद करता है जिसके लिए शरीर में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यह विशिष्ट रूप से चेतावनी-आक्रमण के प्रदर्शन के समय अपने सिर को स्थिर रखते हैं और बाकि शरीर को हिला कर ये ध्वनि उत्पन्न करते हैं। स्थिर सिर दुश्मन को काटने की स्थिति में सटीकता रखने में मदद करता है। इस सांप और अन्य सभी एकिस (Echis) प्रजातियों की हमला करने की गति बाकी सभी सांपो से तेज होती है। यह तेज गति चूहों और बिच्छू जैसे तेज व सतर्क शिकार को सफलतापूर्वक काटने और घातक जहर छोड़ने के लिए आवश्यक होती है। रेगिस्तानों में जहां छिपने के स्थान सीमित होते हैं और बहुत गहरे नहीं होते हैं, सॉशुरेकी को कांटेदार रेगिस्तानी वनस्पतियों की जड़ें और कृंतक टीले आश्रय के रूप में मिलते हैं। सॉशुरेकी का प्रजनन जीवंत है और यह सीधे जून से सितंबर के दौरान 3 से 23 संतानों को जन्म देता है। संभोग पुरुष युद्ध के बाद शुरू होता है, जहां ज्यादातर वाइपर की तरह दो वर्चस्व में दिलचस्पी लेने वाले और प्रजनन के लिए सक्षम नर अपने एक तिहाई अग्रभाग को उठाते हैं और पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के सिर के ऊपर से एक-दूसरे को वश में करने की कोशिश करते हैं। सर्दियों के दौरान सॉशुरेकी गहरे टीले में छिपने लगते हैं।

भारत में व्यापक रूप से फैली हुई उप-प्रजाति एकिस कैरिनेटस कैरिनेटस(Echis carinatus carinatus ) फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉ-स्केल्ड वाइपर (उसकी दोनों उप-प्रजातियां) कुख्यात बिग-फोर के सदस्य हैं जो चार चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषैले सांप स्पेक्टाकल्ड स्पेक्टेकल्ड कोबरा (नाजा नाजा),  रसल्स वाइपर (दबोइया रसेली), कॉमन क्रेट (बंगारस सिरुलियस) और सॉ-स्केल्ड वाइपर (एचिस कैरीनेटस) के सदस्य हैं। ये सभी भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से फैले हैं। सांप के काटने से होने वाली मौतों और सर्पदंश संबंधी विकलांगता के लिए ये सांप ही जिम्मेदार हैं। हालाँकि, हाल के अध्ययनों में यह पाया गया है कि एचिस कैरीनेटस से काटने की घटनाएं इसके आवास वाले क्षेत्रों में इतनी आम नहीं हैं। लेकिन सॉशुरेकी की सीमा में, अन्य विषैले सांप आमतौर पर नहीं पाए जाते हैं और यह सॉशुरेकी को सबसे प्रमुख चिकित्सकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण साँप बनाता है। मानसून और गर्मियों के महीनों के दौरान काटने की घटनाएं बढ़ जाती हैं जब साँप भोजन और प्रजनन के लिए सबसे अधिक सक्रिय होता है। ज्यादातर दंश तब होता है जब पीड़ित इनके क्षेत्र में नंगे पांव चलते हैं और अनजाने में सांप पर कदम रखते हैं। कुछ मामलों में, जमीन पर सोने वाले लोगों को भी सर्पदंश हुआ है। आक्रामक और संभावित घातक साँप होने के बावजूद कभी-कभी कम विष की मात्रा के कारण इसके दंश घातक नहीं होते हैं और पीड़ित अपनी प्रतिरक्षा के बूते ठीक हो जाता है। इस कारण से सर्पदंश ठीक करने के वैज्ञानिक रूप से अप्रभावी या अष्पष्ट तौर तरीकों को खुद को सही साबित करने का मौका मिल जाता है क्योंकि पीड़ित तो खुद के मजबूत प्रतिरक्षा या विष की कम मात्रा से खुद ही ठीक हो जाते हैं। 

दुर्भाग्य से इस तरह के प्रतिरोध आधारित शरीर के ठीक होने के प्रयासों से पीड़ित व्यक्ति के गुर्दे की प्रणाली को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि वाइपर के काटने से रक्त और ऊतकों को गंभीर रूप से नकारात्मक प्रभाव जाता है, और गुर्दे की विफलता / क्षति इन मामलों में एक सामान्य परिदृश्य है, जो कि जल्दी नजर में नहीं आते हैं।