भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

जंगल में दीमक की संख्या को नियंत्रित करने वाला पेस्ट कंट्रोल सर्विस देने वाला प्राणी होता है – भालू। असल में अधिकांश लोग मानते है की दीमक नुकसान के अलावा कुछ नहीं करता। भालू ऐसे नहीं सोचता, वह इसे अपने जीवन का आधार मानता है। स्लॉथ भालू जैसे विशाल जीव के आहार का आधा हिस्सा दीमक होता है। उसे वर्ष भर फल आदि मिले ना मिले परन्तु वर्ष के अधिकांश महीने कीट अवश्य मिलते हैं जिनमें दीमक प्रमुख है। स्लॉथ भालू ने तो अपने उद्विकास को भी दीमक के अनुरूप ही विकसित किया है।

इसका लम्बा थूथन एवं प्रथम मैक्सिलरी कृन्तकों की अनुपस्थिति, उभरे हुए तालू, उभरे हुए गतिशील होंठ, और लंबे और घुमावदार अग्र पंजे, लंबे झबरीले कोट और नासिका छिद्रों को बंद करने वाली झिल्ली के कारण यह कीड़ों एवं उसमें भी दीमक को खाने के लिए अत्यधिक विशिष्ट रूप से अनुकूल है। स्लॉथ बेयर अपना जीवन अनेक तरह के भोजन पर आधारित रखता है। फल, जिसमें बेर और तेन्दु मुख्य हैं, वहीँ कीटकों में दीमक और चींटी प्रमुख है। प्रत्येक महीनों में इनकी विष्ठा में अलग-अलग तरह के भोजन के अवशेष देखने को मिलते है। इस तरह के भोजन को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार के जतन करने पड़ते है। फिर इसे स्लॉथ (आलसी) भालू के रूप में क्यों जाना जाता है।

क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी (स्लॉथ) है?

भालू को अंग्रेजी में स्लॉथ बेयर के नाम से जाना जाता है। स्लॉथ शब्द का मतलब होता है – आलसी। तो क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी है?

अगर देखे तो पुरे विश्व में भालुओं की आठ प्रजातियां मिलती हैं जिनमें से स्लोथ बेयर ही मात्र एक ऐसी प्रजाति है जो शीत निद्रा (hibernation) में नहीं जाती है। अन्य सभी भालू प्रजातियां लम्बे समय के लिए सोने चले जाते है – भालुओं के लिए हाइबरनेशन का सीधा सा मतलब है कि उन्हें खाने या पीने की ज़रूरत नहीं है, और वे शायद ही कभी पेशाब या शौच करते हैं (या बिल्कुल नहीं)। यदि भोजन बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है, तो सर्दियों के दौरान भालू अपनी मांद में सोते रहते है। शीतनिद्रा के दौरान, जानवर के शरीर का तापमान गिर जाता है, हृदय गति धीमी हो जाती है और साँस लेना कम हो जाता है। जानवर ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं जहां वे बमुश्किल सचेत होते हैं और बहुत कम हिलते-डुलते हैं। हाइबरनेशन कई महीनों तक रह सकता है, और जानवर जीवित रहने के लिए संग्रहीत वसा भंडार पर निर्भर रहते हैं।

भालुओं की निगरानी के दौरान डॉ धर्मेन्द्र खांडल द्वारा भालू के माँद के अंदर से लिया गया चित्र

तो जब स्लॉथ बेयर 12 महीने सक्रिय रहता है और अन्य भालुओं की भांति शीतनिन्द्रा में नहीं जाता तो फिर स्लॉथ क्यों कहा जाता है ?

असल में इन्हें यह गलत पहचान एक यूरोपीय जीवविज्ञानी जॉर्ज शॉ ने उसके लंबे, मोटे पंजे और असामान्य दांतों के लिए दे दी। उसने सोचा कि इन विशेषताओं के कारण भालू – दक्षिण अमेरिका में मिलने वाले स्लॉथ से संबंधित है। स्लॉथ बेयर भी कभी-कभी पेड़ की शाखाओं पर उल्टा लटक जाते हैं, जैसे स्लॉथ भी करते है। इसी गफलत में इसे गलत वैज्ञानिक नाम भी दे दिया गया और जॉर्ज शॉ द्वारा इसे स्लॉथ के जीनस में स्थापित कर दिया गया था।

स्लॉथ भालू:

स्लॉथ भालू भारत में पाई जाने वाली भालू की चार प्रजातियों में से एक है। यह एक मध्यम आकार का भालू है जिसके पास एक विशिष्ट रूप से बड़ा झबरा काला कोट और चौड़ी यू-आकार की छाती है। बाल विशेष रूप से गर्दन के आसपास और पीछे लंबे होते हैं। वयस्क नर का वजन आम तौर पर 80-145 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन लगभग 60-100 किलोग्राम होता है।

स्लॉथ भालू की उत्पति: स्लॉथ भालू संभवतः मध्य प्लियोसीन के दौरान उत्पन्न हुए और भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुए। प्रारंभिक प्लीस्टोसीन या प्रारम्भिक प्लियोसीन के शिवालिक की पहाड़ियों में पाए जाने वाले मेलर्सस थियोबाल्डी नामक भालू की एक जीवाश्म खोपड़ी को कुछ लेखकों ने स्लॉथ भालू और पूर्वज भूरे भालू के बीच एक मध्य की कड़ी माना है। एम. थियोबाल्डी के दांतों का आकार स्लॉथ भालू और अन्य भालू प्रजातियों के बीच का था।

स्लॉथ भालू, भालू परिवार उर्सिडे में आठ मौजूदा प्रजातियों में से एक है और उपपरिवार उर्सिनाई में छह मौजूदा प्रजातियों में से एक है।

स्लॉथ भालू प्रजनन: स्लॉथ भालू के लिए प्रजनन का मौसम स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है: भारत में, वे अप्रैल, मई और जून में सहवास करते हैं, और दिसंबर और जनवरी की शुरुआत में बच्चे पैदा करते हैं, जबकि श्रीलंका में, यह पूरे वर्ष होता है। मादाएं 210 दिनों तक गर्भधारण करती हैं और आम तौर पर गुफाओं में या पत्थरों के नीचे आश्रयों में बच्चे को जन्म देती हैं।

एक मादा भालू, अपने शावकों के साथ रणथंभोर के जंगल में (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

एक बार में आमतौर पर एक या दो शावक होते हैं, या शायद ही कभी तीन होते हैं। शावक अंधे पैदा होते हैं, और चार सप्ताह के बाद अपनी आँखें खोलते हैं। अधिकांश अन्य भालू प्रजातियों की तुलना में स्लॉथ भालू के शावक तेजी से विकसित होते हैं: वे जन्म के एक महीने बाद चलना शुरू करते हैं, 24-36 महीने में स्वतंत्र हो जाते हैं, और तीन साल की उम्र में यौन रूप से परिपक्व हो जाते हैं। युवा शावक अपनी माँ की पीठ पर तब तक सवारी करते हैं। बच्चों के बीच का अंतराल दो से तीन साल तक रह सकता है।

वयस्क स्लॉथ भालू दौड़ने वाले इंसानों से भी तेज़ दौड़ने में सक्षम हैं। यद्यपि वे धीमे दिखाई देते हैं, युवा और वयस्क स्लॉथ भालू दोनों ही उत्कृष्ट पर्वतारोही होते हैं।

स्लॉथ बेयर – भालू का राजस्थान में वितरण :

स्लॉथ भालू भारतीय उप महाद्वीप के लिए स्थानिक है और भारत, श्रीलंका, नेपाल और भूटान में पाया जाता है। भारत में, यह पश्चिमी घाट के पहाड़ों के दक्षिणी सिरे से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैली हुई है। राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र पश्चिमी वितरण को सीमित करता है।

रणथंभोर टाइगर रिजर्व के कैलादेवी क्षेत्र से पहली बार देखा गया भूरे रंग का स्लोथ बेयर (फ़ोटो: टाइगर वॉच)

राजस्थान में स्लॉथ भालू का वितरण इस प्रकार है – यह बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौरगढ़, उदयपुर, जालोर, प्रतापगढ़, करौली, अजमेर, पाली, राजसमंद में पाया जाता है। निम्न दो जिलों – बाड़मेर के सिवाना और नागौर के डेगाना, थांवला क्षेत्र में कभी कभार दिख जाता है। अलवर में यद्यपि वर्षों से भालू गायब है परन्तु हाल ही में वन विभाग ने माउंट आबू से भालू को लाकर छोड़ा, परन्तु लगता है यह प्रयास उतना सफल नहीं रहा। कुछ जिले ऐसे है जहाँ भालू होने चाहिए जैसे भरतपुर, जयपुर, सीकर एवं झुंझुनू, यहाँ उपयुक्त आवास होते हुए भी बिलकुल नहीं मिलता। निम्न जिले ऐसे है जहाँ भालू नहीं मिलता जिनमें जोधपुर, चूरू, जैलसमेर, बीकानेर, गंगानगर एवं हनुमानगढ़ शामिल है।

भालुओं के जीवन को खतरा: आवास नष्ट होना सभी के लिए खतरा है, परन्तु भालुओं के लिए भोजन प्राप्त करना आसान नहीं। इसके लिए तेन्दु के फल, बेर के फल, दीमक और मधु के छतों से भरा जंगल होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही अभी भी इनके शिकार होने की घटनाओं से पीछा नहीं छूटा है। अनेक स्थानों पर मानव गतिविधियों के कारण संघर्ष की घटना बढ़ी है।

राजस्थान का सुंधा माता, माउंट आबू और उसका तलहटी क्षेत्र भालुओं की घनी आबादी के लिए जाना जाता है। कहते हैं माउंट आबू के तलहटी के पास, जसवंतपुरा क्षेत्र में रात में कई बार अटैक हो जाता है। इसी प्रकार सुंधा माता, रेवदर, जीरावला आदि क्षेत्र में भालुओं का अत्यंत प्रभाव रहता है। प्रत्येक वर्ष कई अटैक रिकॉर्ड किए जाते हैं। इसके अलावा, स्लॉथ भालू द्वारा मानव पर हमलों और फसल क्षति के कारण इनके क्षेत्र के कई हिस्सों में जनता के बीच भय और दुश्मनी पैदा कर दी है। जैसे रणथम्भोर के आस पास स्लॉथ भालू अक्सर अमरूद आदि की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।

डांसिंग बेयर: हाल ही के वर्षों तक मदारी लोग भालू को पालते और लोगों को उसका खेल दिखाते थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में एक लोकप्रिय मनोरंजन था, जो 13वीं शताब्दी और मुगल-पूर्व काल से चले आ रहे हैं। कलंदर, जो मनोरंजन प्रयोजनों के लिए सुस्त भालू को पकड़ने की परंपरा का पालन करते थे, अक्सर मुगल सम्राटों के दरबार में प्रशिक्षित भालुओं के साथ तमाशा करने के लिए नियुक्त किए जाते थे। 1972 में लागू इस प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद, 20वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान भारत की सड़कों पर लगभग 800 नाचते भालू थे, खासकर दिल्ली, आगरा और जयपुर के बीच राजमार्ग पर। सुस्त भालू के शावक, जिन्हें आम तौर पर छह महीने की उम्र में व्यापारियों और शिकारियों से खरीदा जाता था, उन्हें जबरदस्ती उत्तेजना और भुखमरी के माध्यम से नृत्य करने और आदेशों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। नरों को कम उम्र में ही बधिया कर दिया जाता था और एक साल की उम्र में उनके दांत तोड़ दिए जाते थे ताकि वे अपने संचालकों को गंभीर रूप से घायल न कर सकें। भालुओं को आम तौर पर चार फुट के पट्टे से जुड़ी नाक की नकेल डाली जाती थी।

मोग्या शिकारियों द्वारा स्लॉथ भालू को उनके पंजों के लिए निशाना बनाया जाता और अंधविश्वासी लोगों को आकर्षण के रूप में बेचा जाता था, कभी कभी अनुभवहीन खरीदारों को बाघ के पंजे के रूप में बेच दिया जाता था (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

Wildlife SOS नामक संस्था के अथक प्रयास से इस परंपरा को कानून के दम और मदारियों की भलाई के जरिये ख़त्म कर दिया गया है। Wildlife SOS और उत्तर प्रदेश वन विभाग के साझा प्रयासों से मदारियों के पास से रेस्क्यू कर लाये गए अनेक भालुओं को रेस्क्यू सेंटर्स में अपने जीवन यापन के लिए रखा जाता है। इनके सेंटर्स में सेंकडों की संख्या में भालुओं को रखा गया है। आने वाले समय में यह प्रथा से जुड़े सभी भालू अपना जीवन यहाँ पूर्ण कर हम इंसानों के जीवन के बड़े कलंक को समाप्त कर देंगे।

आगरा स्थित Wildlife SOS के रेस्क्यू सेंटर में भालू (फ़ोटो: कार्तिक, Wildlife SOS)

संरक्षण स्थिति: स्लॉथ बियर को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 की अनुसूची I, CITES के परिशिष्ट I और IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची (2012) में “वल्नरेबल” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

 

 

 

 

 

एक भालू माँ और बाघिन में संघर्ष

एक भालू माँ और बाघिन में संघर्ष

बाघ को वन पारिस्थितिक तंत्र का शीर्ष शिकारी माना जाता है परन्तु कई बार अन्य जानवरों के साथ मुठभेड़ में बाघ को भी हार माननी पड़ती है। ऐसी ही एक घटना वर्ष 2011, अप्रैल माह में रणथम्भौर बाघ अभयारण्य में हुई। ज़ोन 6 में कालापानी एनीकट के पास चट्टानी पठार पर, एक बाघ और बाघिन का जोड़ा बैठा हुआ था कि, तभी एक भालू माँ अपनी पीठ पर दो बच्चे लिए बाघों की जोड़ी की ओर चल रही थी, और बाघिन आगे होकर उससे भिड़ने के लिए गई। जब तक भालू को एहसास होता कि आसपास बाघ है तब तक बाघिन उसके बिलकुल करीब पहुँच चुकी थी।

भालू माँ गंभीर संकट में फस चुकी थी, परन्तु उसके बच्चों ने खुद को माँ कि पीठ पर चिपका लिया और माँ ने तुरंत बाघिन पर हमला कर दिया।

और लड़ाई के लिए अपने दो पैरों पर खड़ी हो गई और तेज़-तेज़ आवाज़े लगी। भालू और बाघिन के बीच तेज़ चिल्लाहट में गरमा-गर्मी हुई, जिसे निसंदेह भालू माँ ने जीत लिया और बाघिन जल्दबाजी में पीछे हटने लगी।

तभी पास में खड़ा नर बाघ जो काफी देर से मुठभेड़ को देख रहा था, अपनी शक्ति दिखाने के लिए आगे बढ़ा, परन्तु भालू माँ ने उस पर भी अपना क्रोध दिखाया।

बाघ वहां से दूर चले गए और भालू माँ भी अपने बच्चों को वहां से लेकर चली गई।

यह पूरी घटना कुल 2 मिनट में हुई, जहाँ शुरुआत में लग रहा था कि भालू माँ गंभीर संकट में फस चुकी है और वहीँ कुछ सेकेंड्स में उसने पुरे संघर्ष को नियंत्रित कर लिया और बाघों को वहां से भगा कर अपनी और अपने बच्चों कि रक्षा करी। रणथम्भौर में इस प्रकार की घटना कई बार देखी गयी, परन्तु यह घटना शानदार तरीके से फोटोग्राफ कर दर्ज़ भी की गयी।

 

 

 

भालुओं द्वारा कचरे में भोजन की तलाश

भालुओं द्वारा कचरे में भोजन की तलाश

राजस्थान के हिल स्टेशन – माउंट आबू में भालू अक्सर कचरे के ढेरो के आसपास भोजन ढूंढते देखे जाते हैं परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में बदलाव आ रहा है।

कुछ दिनों पहले मैंने माउंट आबू में एक विचलित करने वाला दृश्य देखा, जिसमें चार भालू कचरे के ढेर में गाय एवं भैंस के साथ भोजन ढूंढ रहे थे। खैर अचानक से आई 2-3 पर्यटकों की गाड़ी से वो भाग गए परन्तु एक भालू निर्भय होकर अपना भोजन ढूंढ़ता ही रहा। यह दृश्य अब यहाँ एक साधारण बात हैं।

गाय भैंस के मध्य कचरे से खाना तलाशता एक भालूI (फोटो: श्री धीरज माली)

राजस्थान का हिल स्टेशन – माउंट आबू, भालूओं  के लिए एक अनुकूल पर्यावास हैं, लेकिन कई वर्षों से प्लास्टिक और गन्दगी के अम्बार से यहाँ की वादियों का मानो दम घुट रहा है। जगह-जगह बिखरा हुआ कचरा, यहाँ के वन्यजीवों और पक्षियों के व्यवहार को तेजी से बदल रहा हैं। कचरे के ढेरों में आसानी से मिलने वाला खाना खाने के लिए, यह मानव आबादी की ओर चले आते हैं एवं प्रतिकूल भोजन का सेवन करते हैं। कहते हैं, माउंट आबू में कचरा निस्तारण प्रणाली का कोई सार्थक प्रबंध इसलिए नहीं है, क्योंकि यहाँ के जनप्रतिनिधियों ने इसे विकसित ही नहीं होने दिया। क्योंकि कचरे से यहाँ के प्रभावशाली लोगों के व्यक्तिगत हित जुड़े हुए हैं। यहाँ कचरा निस्तारण के लिए इनके द्वारा एक बहुत बड़े समूह को रखा गया हैं, जो मात्र साबुत शराब की बोतले और रीसायकल होने योग्य प्लास्टिक ही इकठ्ठा कर रहे है। प्लास्टिक और शराब की साबुत बोतलों से हो रही मोटी कमाई के फेर में जिम्मेदार लोग मौन धारण करके बैठे है अथवा मात्र इतने ही शामिल हैं के अपना मतलब सिद्ध कर सके।  इसका खामियाजा माउंट आबू की प्रतिष्ठा एवं वन्यजीव भुगत रहे है। लम्बे समय से यह सिलसिला जारी है लेकिन अब तक कोई पुख्ता प्रबंधन नजर नहीं आ रहे हैं।

पर्यटकों द्वारा रात में भालुओं के करीब तक जाने व् उनको खाना डालने से उनके व्यवहार में बदलाव आना तय है (फोटो: डॉ. दिलीप अरोड़ा)

वन विभाग की माने तो माउंट आबू वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में दो सौ से भी अधिक भालू मौजूद हैं। इसके अलावा तेंदुए, सांभर, हनी बेजर सहित कई सारे दुर्लभ वन्यजीव भी यहाँ पर है लेकिन बढ़ते मनुष्यों के हस्तक्षेप ने वन्यजीवों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यहाँ पर भालुओं के मनुष्यों पर हमले भी बढ़ रहे है। देखना हैं कब तक विभाग, सरकार और यहाँ के स्थानीय लोग इन मुद्दों से मुँह मोड़ के रहते हैं।

 

# Cover Image by Dr. Dilip Arora