श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है . इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .
पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50 दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को भी सहज बनाये रखा .
इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी, श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .
श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .
राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..
राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।
राजस्थान के कठोर वातावरण को दर्शाते हुए एक सटीक कविता है |
लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)
खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे
यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है। और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।
अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।
Citation:
Amod Zambre and R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA, 115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.
“भैराराम, एक ऐसे वनरक्षक जिन्हें कैमरा ट्रैपिंग कर वन्यजीवों की गतिविधियों की निगरानी करने तथा स्कूली छात्रों को वन्यजीवों के बारे में जागरूक करने में है अटूट रूचि”।
अप्रैल 2020 में, जब पूरा विश्व कोरोना से लड़ रहा था, उस समय भी हमारे वनकर्मी अपनी पूर्ण निष्ठा के साथ वन्यजीवों के संरक्षण में लगे हुए थे। और उस समय एक ऐसी घटना हुई जिसने राजस्थान के कई वन्यजीव प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
एक मादा बघेरा (leopard) ने आबादी गाँव के एक सुने घर में तीन बच्चों को जन्म दिया और रोज़ वहां आने-जाने लगी क्योंकि, वह घर गाँव के बाहर एक नाले के पास स्थित था और नाले के दूसरी तरफ जंगल था। उस सुने घर के आसपास खेत थे और इसी वजह से बघेरे के लिए वहाँ आना-जाना कोई मुश्किल नहीं था। एक रात गाँव के किसी व्यक्ति ने मादा बघेरा को उस घर में घुसते हुए देखा और सुबह होते ही उसने यह बात गांव के लोगों को बताई। जैसे ही गांव के लोग उस घर पर पहुँचे तो उन्होंने देखा वहां बघेरे के तीन बच्चे सो रहे थे और मादा वहां नहीं थी। गाँव वालों ने तुरंत वन विभाग को बताया विभाग ने एक वन रक्षक के साथ दो और गार्ड वहाँ भेजे तो वहाँ पर मौजूद ग्रामीण उनसे बहस करने लगे कि, ” इन बच्चों की माँ तो यहाँ हैं ही नहीं इनको यहाँ से हटाओ”।
ऐसी स्थिति वन विभाग के कर्मियों के सामने हमेशा चुनौती पूर्ण होती हैं जिसमें ग्रामीणों के साथ सामंजस्य भी जरूरी हैं तो उस वन्यजीव व उसके बच्चों का संरक्षण भी बहुत जरूरी हैं इसलिए ऐसे समय में धैर्य की जरूरत होती हैं।
कैमरा ट्रैप लगाते हुए वनरक्षक
वहाँ पर मौजूद उस वनरक्षक के द्वारा योजनाबद्ध तरीके से इस कार्य को अंजाम दिया गया। पहले कैमरा ट्रैप की मदद से देखा कि, माँ आती है या नहीं? पहली रात बघेरा माँ आयी और तीन बच्चों में से एक को ले गयी अगली सुबह उस वनरक्षक ने कैमरा ट्रैप की फोटो गाँव वालों को दिखाई तो गांव वाले भी सहमत थे कि, ये बारी-बारी से अपने बच्चों को सुरक्षित जगह पर ले जाएगी। उस रात फिर कैमरा लगाया माँ आयी और एक बच्चे को ले गयी।
अपने बच्चे को लेजाती हुई बघेरा माँ
अपने बच्चे को लेजाती हुई बघेरा माँ
परन्तु तीसरी रात माँ आयी ही नहीं। तो उस वनरक्षक ने दो और दिन इंतज़ार करने का सोचा और उसने किसी पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार उस शावक की देख-रेख करी। दो दिन बाद माँ वहां आयी और उस आखरी बच्चे को भी ले गयी। इस पूरी घटना के समय 6 दिनों तक वह वनरक्षक उसी गाँव में एक मंदिर में रहा, रोज़ रात कैमरा ट्रैप लगाना, उन शावकों व ग्रामीणों की निगरानी भी जरूरी थी क्योंकि आबादी क्षेत्र से सटे हुए उस घर में खतरा यही थी कि, कहीं अचानक ग्रामीण आ जाए और वह मादा बघेरा उन पर हमला न कर दे। परन्तु इस कठिन परिस्थिति में भी उस वनरक्षक ने अपनी सूझबूझ और बहादुरी से काम लिया।
शावक को दूध पीलाते हुए वनरक्षक
तो ऐसे चुनौती पुर्ण कार्य को अंजाम देने वाले मेहनती वन रक्षक है “भैराराम बिश्नोई”, जो वर्तमान में कुम्भलगढ़ अभयारण्य (राजसमन्द डिवीज़न) में वनरक्षक (Forest Guard) के पद पर तैनात हैं।
भैराराम बताते हैं कि, उन्हें कैमरा ट्रैपिंग करना और वन्यजीवों की मॉनिटरिंग करना बहुत पसंद है। कैमरा ट्रैपिंग से इन्होने वन्यजीवों के कई ख़ास पलों को दर्ज़ किया है जिन्हें दिन में यूँ देख पाना मुश्किल होता है। इतने वर्षों की अपनी कार्यसेवा के दौरान कई बार भैराराम ने न सिर्फ मुश्किल बल्कि खतरनाक कार्यवाहियों में भी बड़ी सूझ-बुझ से भूमिका निभाई है।
“भैराराम बिश्नोई”, वर्तमान में कुम्भलगढ़ अभयारण्य (राजसमन्द डिवीज़न) में वनरक्षकके पद पर तैनात हैं।
“मारवाड़ की मरूगंगा” लूणी नदी के किनारे बसे छोटे से गांव काकाणी के किसान परिवार में जन्मे भैराराम बिश्नोई वनरक्षक में भर्ती होकर वर्तमान में वन संपदा व जीव जंतुओं के प्रति सजगतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। काकाणी गांव विश्नोई बहुल हैं जो हैंड प्रिंटिंग और नक्काशीदार मिट्टी के बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है। यहां के लोग प्रकृति में मौजूद सभी जीव जंतुओं के लिए जागरूक हैं और इनकी रक्षा के लिए जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाते हैं। बिश्नोई बहुल इस गांव में पेड़ काटना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। वन विभाग में आने से पहले भैराराम वन एवं वन्यजीवों की विशेषताओं से अनभिज्ञ थे और गांव के आसपास के क्षेत्र के अन्य युवाओं में भी वनों के प्रति कार्य करने की इच्छा शक्ति नही थी तथा ये खुद भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए प्रयासरत थे।
वतर्मान में 35 वर्षीय, भैराराम की स्कूली शिक्षा गाँव में ही हुई और स्नातक की पढ़ाई के लिए ये जय नारायण व्यास विश्विद्यालय, जोधपुर चले गए। अध्ययन के समय अध्यापक व पुलिस बनने का हुनर इन्हें दिन रात सोने नही देता था, लेकिन उससे पहले वर्ष 2013 की वनरक्षक भर्ती प्रतियोगी परीक्षा में इनको सफलता मिली तो आज प्रकर्ति के रहस्य को भलीभांति लोगों के बीच मे प्रसारित करना व वनों के प्रति लोगों को प्रेरित करना इनकी कार्यशैली का मुख्यरूप से मजबूत हिस्सा है। पर्यावरण संरक्षण एवं वन्यजीवों के उत्थान में इनका अहम योगदान हैं वन्यजीवों के बारे में विस्तृत अध्ययन करने के उपरांत ये आलेख तैयार कर लोगों के बीच जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं ताकि आमजन भी वन वनस्पति और वन्यजीवों की विशेषताओं से परिचित हो सके तथा उनके संरक्षण में अपनी भागीदारी निभा सके।
भैराराम बताते हैं कि, अभयारण्य के आसपास कई गाँव स्थित हैं और ये लोग विभिन्न कारणों जैसे जलाऊ लकड़ी, जड़बुटियाँ और पेड़ों से गोंद निकालने के लिए वन क्षेत्र के अंदर घुस आते हैं। राजस्थान सरकार द्वारा किसी भी संरक्षित क्षेत्र में पेड़ों से गोंद निकालना एक गैर कानूनी कार्य है परन्तु फिर भी कुछ समुदायों के लोग अवैध रूप से अभयारण्य में घुस आते हैं और “सालार (Boswellia serrata)” का गोंद निकालते हैं। ये लोग पेड़ के तने पर चीरा लगा देते हैं और जब 10 से 12 दिनों में गोंद इक्कठा हो जाता है तो उसे निकाल कर ले जाते हैं।
एक रोज़ भैराराम और उनके साथी गस्त के लिए निकले तो उन्हें एक कैंप मिला जहाँ 15 से 20 गोंद निकालने वाले लोग रह रहे थे। उनकी ज्यादा संख्या को समझते हुए भैराराम वहां से वापिस आ गए और अपने वरिष्ठ अधिकारियों व साथियों से चर्चा कर योजना बनाई। अगले रोज विभाग की 17 लोगों की एक टीम रात को वहां उनके कैंप पर पहुंची और मुज़रिमों को दोनों तरफ से घेर लिया। जब घेरा गया तो एक तरफ कम गहरी खाई थी और वो सभी लोग उस खाई में कूद गए और केवल एक मुजरिम ही हाथ लग पाया। परन्तु उनके ठिकाने की तलाशी लेने पर उनके पास से बन्दुक, छर्रे, चाक़ू और कुछ मीट बरामद हुआ। लैब से जांच करवाने पर मालूम हुआ की वह सांबर का मीट था। अभी उस मुजरिम पर क़ानूनी कार्यवाही चल रही है।
कैमरा ट्रैपिंग के अलावा भैराराम वन्यजीवों को रेस्क्यू करने में भी निपुण हैं और आज तक इन्होने 5 लेपर्ड, 50-60 मगरमच्छ, 100 अजगर और कुछ अन्य जीव रेस्क्यू किये हैं।
भैराराम बताते हैं कि, एक बार उन्होंने 100 फ़ीट गहरे कुए से मगरमच्छ को बाहर निकाला था। गुराभोप सिंह नामक इनकी बीट के पास एक गाँव में एक छोटा कुआ था, जिसमें हर वर्ष बारिश के दौरान पानी भर जाता था। इसी दौरान एक मगरमच्छ उस कुए में रहने लग गया। दिन के कुछ समय वह बाहर रहता और आसपास हलचल होते ही तुरंत कुए के अंदर चला जाता था। परन्तु कुछ दिन बाद जैसे पानी सूखने लगा वह मगरमच्छ उस कुए में ही रह गया। तब फिर गाँव के लोगों ने भैराराम को बुलाया। भैराराम अपनी टीम के साथ घटना स्थल पर पहुंचे और इन्होने तुरंत बिजली से चलने वाले मोटर मंगवा कर कुए का सारा पानी बाहर निकाला। तब उपकरणों की कमी होने के कारण इनके साथी कुए में जाने से डर रहे थे परन्तु तभी भैराराम ने कुए के अंदर जाने का फैसला किया। भैराराम और उनके एक साथी ने उस सौ फ़ीट गहरे कुए में जाकर मगरमच्छ को बाहर निकाला।
एक बार ऐसी घटना भी हुई कि, अभयारण्य के पास एक एन्क्लोज़र था जहाँ पेड़ पौधे उगे हुए थे और काम करने वाले कई मज़दूर वहां आया करते थे। वहां अक्सर एक मादा भालू अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमा करती थी जिन्हें लोग देखा करते थे तथा उनके लिए वह एक साधारण सी बात बन गई थी। फिर एक दिन एक बच्चा गाँव के पास चला गया और एक नाले में गिर गया। सुबह के समय मज़दूरों ने उसको देखा और सोचा की आसपास माँ होगी अभी चला जाएगा। परन्तु वो बच्चा शाम तक भी वही बैठा रहा और यह स्थिति देख लोगो ने भैराराम को बुलाया। भैराराम और उनकी टीम ने उस बच्चे को नाले से निकाल कर वापिस एन्क्लोज़र के पास छोड़ दिया तथा कुछ रोज़ तक लगातार एन्क्लोज़र के आसपास कैमरा ट्रैप लगाया और पाया की दोनों बच्चे अपनी माँ के साथ ठीक हैं।
पैंगोलिन को रेस्क्यू करते हुए भैराराम
भैराराम बताते हैं कि,एक बार अभयारण्य के पास स्थित एक गाँव में कुछ लोगों ने पैंगोलिन को मगरमच्छ का बच्चा समझ कर तालाब में डाल दिया था और जब पैंगोलिन बार-बार बाहर आने की कोशिश कर रहा था तो उसे डंडे से मार-मार कर जान से मार दिया। इस घटना के बाद भैराराम ने गाँव वालों को इसके बारे में जागरूक किया। जिसके बाद दोबारा जब पैंगोलिन गाँव के लोगों को मिला तो उन्होंने तुरंत विभाग वालो को सूचित किया और पैंगोलिन को रेस्क्यू कर वापिस अभ्यारण्य में छोड़ दिया गया।
समय के साथ-साथ भैराराम ने नई-नई चीजे सीखने में भी बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने खुद का निजि कैमरा खरीद कर अभयारण्य में और उसके आसपास के क्षेत्र में घूम कर वन्यजीवों की फोटोग्राफी तथा पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा।
ज़मीनी स्तर पर वन्यजीवों के लिए काम करने के अलावा भैराराम शिक्षक होने में भी रूचि रखते हैं। इसके लिए हर वर्ष जब वन्यजीव सप्ताह में अभयारण्य के पास स्थित विद्यालयों के बच्चों को अभयारण्य लाया जाता है तो भैराराम उनको वन और वन्यजीवों के महत्त्व के बारे में समझाते एवं उनको जागरूक करते हैं। इसके अलावा भी कई बार भैराराम आसपास के स्कूलों में जाकर बच्चों को वन्यजीवों के बारे में पढ़ाते हैं।
भैराराम की कड़ी मेहनत को देखते हुए आज सभी वन अधिकारी उनकी प्रसंशा करते हैं
वन्यजीवों के प्रति इनके कार्य व ग्रामीण लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए इनको जिला स्तर पर सम्मानित भी किया गया है। इसके अलावा भैराराम को क्रिकेट खेलने का विशेष शौक है तथा पिछले दो वर्षों से All India Forest National games में वन विभाग की टीम की तरफ क्रिकेट खेल रहे हैं और छ बार मैन ऑफ़ द मैच बन चुके हैं।
भैराराम मानते हैं कि, अभयारण्य में वर्षा ऋतू में दिन प्रतिदिन मगरमच्छ और अजगर बाहर निकल आते हैं तथा आसपास स्थित खेत, घर या फार्महाउस में पहुँच जाते हैं। मुश्किल यह है कि, इन सबको रेस्क्यू करने के लिए इनकी टीम के पास सिर्फ रस्सी ही है और ऐसे जानवरों को पकड़ने के लिए विभाग के पास नई तकनीक के उपकरण (equipment) होने चाइये।
इनके अनुसार वन क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी कर्मियों को कैमरा ट्रैपिंग और वन्यजीवों के रेस्क्यू के बारे में पूरी ट्रेनिंग देनी चाहिए, क्योंकि यही एकमात्र विधि है जिसके कारण वन्यजीवों को बिना परेशान किये हम उनकी निगरानी कर सकते हैं तथा मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम कर सकते हैं। साथ ही हर संरक्षित क्षेत्र के आसपास स्थित ग्रामीण लोगों को वन्यजीवों व उनके महत्त्व के बारे में जागरूक करना चाइये तथा किस प्रकार वे संरक्षण में विभाग कि मदद कर सकते है उसके लिए भी उनको सूचित करना चाहिए।
प्रस्तावित कर्ता: श्री राहुल भटनागर (सेवा निवृत मुख्य वन संरक्षक, कुम्भलगढ़ अभयारण्य), डॉ सतीश कुमार शर्मा (सेवा निवृत सहायक वन संरक्षक उदयपुर)
लेखक:
Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
Shivprakash Gurjar (R) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.