पक्षियों में ल्यूसिज्म

पक्षियों में ल्यूसिज्म

कई बार आपने वन्यजीवों के समूहों के बीच सफ़ेद या रंगहीन सदस्य को देखा होगा। जिसका रंग उसके साथियों जैसा न होकर बल्कि सफ़ेद होता है। ऐसे जीवों को हम एल्बिनो कहते हैं। परन्तु सभी रंगहीन जीव एल्बिनो नहीं बल्कि कई बार वे लीयूसिस्टिक (Leucistic) भी होते हैं। ल्यूसिज्म जेनेटिक म्युटेशन (Genetic Mutation) के कारण होने वाली एक असामान्य स्थिति है जिसमें मेलेनिन पिग्मेंट जीव के शरीर में ठीक से जमा नहीं हो पाता है।

जहाँ एक ओर ऐल्बुनिज़्म में जीव में पूरी तरह से रंगहीनता आ जाती है वहीँ दूसरी ओर लीयूसिस्म जीव को पूरी तरह सफ़ेद नहीं करता बल्कि कभी- कभी ये जीव हल्के रंग के भी हो सकते हैं और ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि ल्यूसिज्म की स्थिति में जीवों में मेलेनिन पूरी तरह से खत्म नहीं होता है। लीयूसिस्टिक जीवों की आँखें सामान्य रंग की होती हैं जबकि एल्बिनो जीवों की आँखे गुलाबी या लाल होती हैं।

सामान्य लार्ज ग्रे बैब्लर (Photo: Dr. Renu Kohli)

इस कथा चित्र में लीयूसिस्टिक लार्ज ग्रे बैब्लर की तस्वीरें दी गई हैं जिसे जोधपुर में देखा गया था।

(Photo: Mr. Niramay Upadhyay)

और लीयूसिस्टिक रेड वेंटेड बुलबुल की तस्वीरें दी गई हैं जिसे सबलपुरा गाँव, बेदला, उदयपुर में देखा गया था।

अंटलायन का संसार

अंटलायन का संसार

अंटलायन यानि चींटो का सिंह एक मजेदार कीट है, जो अपने जीवन चक्र में अंततः क्या से क्या बन जाता है, और अपने शिकार चींटो को मारने का एक ऐसा घातक तरीका अपनाता है, जिसमें उसकी निर्माण कला और भौगोलिक समझ दोनों ही बखूबी परिलक्षित होती हैं। आपने खुले इलाकों में जमीन पर कीप के आकर के छोटे-छोटे गड्ढे देखे होंगे। इनमें रहने वाले कीट को भी अवस्य देखा होगा।

Photo: Dr. Dharmendra Khandal

शायद इस कीट को कुछ लोगो ने चींटी का शिकार बनाते हुए भी देखा होगा। यह ग्रामीण आँचल में बच्चों के खेल का एक हिस्सा भी हुआ करता है। बड़े बच्चे इस कीप नुमा गड्ढे में चींटी डाल कर उसे अंटलायन से पकड़वाते हैं। खैर यह कितना सही हैं, गलत हैं, इस सवेंदनशील विषय को छोड़ते हैं बात करते हैं इस कीट की जो कीप नुमा गड्ढे में छुपा रहता है।

Photo: Dr. Dharmendra Khandal

अंटलायन एक ऐसा कीट है जिनके बच्चे ज्यादा लोग जानते हैं जबकि इसका वयस्क कीट से बहुत लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। अंटलायन का वयस्क कीट पंखो वाला एक ड्रैगनफ्लाई जैसा दिखने वाला कीट है। जबकि कीप नुमा खड़े में रहनेवाला अंटलायन का ही लार्वा है। यह गड्ढे चीटियों को पकड़ने के साधन हैं।

Photo: Dr. Dharmendra Khandal

लार्वा कीपनुमा खड्ढा उन स्थानों पर बनता हैं जहाँ मिटटी नरम हो एवं चीटियों का रास्ता हो। कई बार यह चींटी द्वारा जमीन से निकाली गयी नरम मिटटी में ही उसे बना देताहै। कई बार यह गाय भेंसो के खुरो से नरम हुए रास्ते की मिटटी में अपना कीप बनता है। कीप का निचला हिस्सा जिस प्रकार संकरा होता है इनके खड़े का आकर भी उसी के अनुसार होता है।

Photo: Dr. Dharmendra Khandal

जब कोई चींटी इस गढ़े में गलती से आ जाये तो उसके लिए फिर से बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता हैं एवं इसी बीच अंटलायन का लार्वा उसे अपने तीखे दंशो से मजबूती से पकड़ कर नीचे की तरफ लेजा कर इसे अपना शिकार बना लेता है। इनके लार्वे जिस प्रकार के वयस्क बनते हैं अविश्वनीय लगता है।

क्या प्रेइंग मैंटिस अपना रंग भी बदलता है?

क्या प्रेइंग मैंटिस अपना रंग भी बदलता है?

छद्मावरण के लिए प्रसिद्ध गिरगिट की भांति क्या प्रेइंग मैंटिस भी अपना रंग बदलता है?

प्रेइंग मैंटिस एक अत्यंत माहिर शिकारी है जो एक स्थान पर लम्बे समय तक बिना हिले डुले एक तपस्वी की भांति बैठ अपने शिकार का इंतजार करता है। यह अक्सर फूलों एवं पत्तों में छिप कर रहता है।

Photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

चूँकि आप जानते हैं फूलों में कीटो का आगमन अधिक होता है, अतः शिकार करना आसान भी होता है परन्तु किस रंग का फूल प्रेइंग मैंटिस के भविष्य में होगा अक्सर यह निर्धारित नहीं होता है। अतः कुछ प्रेइंग मैंटिस की प्रजातियों में देखा गया है कि, यह पृष्ठभूमि के अनुरूप अपना रंग बदल सकते है हालांकि यह बदलाव आंशिक होता है।

Photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

वैज्ञानिक सम्भावना व्यक्त करते हैं कि, प्रकाश , नमी एवं तापमान यह तय करता कि, प्रेइंग मैंटिस का रंग क्या होगा। इन तीन छाया चित्रों में आप स्पष्ट देख सकते कि, किस प्रकार एक ही प्रेइंग मैंटिस की प्रजाति हरा, सफ़ेद एवं पीला रंग को दर्शा रही हैं।

वन्यजीवों में “एरिथ्रिज्म”

वन्यजीवों में “एरिथ्रिज्म”

वन्यजीवों की दुनिया में अक्सर आपने लीयूसिस्टिक (Leucistic), एल्बिनो (Albino) और मिलेनेस्टीक (Melanistic) जीव देखे होंगे, जिनका रंग अपनी प्रजाति के बाकि सदस्यों की तरह न होकर बल्कि बिलकुल सफ़ेद यानि रंगहीन या फिर कई बार अधिक काला होता है। सफ़ेद रंग वाले जीवों को लीयूसिस्टिक और एल्बिनो तथा काले रंग वाले जीवों को मिलेनेस्टीक कहते हैं।

परन्तु क्या आपने कभी इरिथ्रिस्टिक (erythristic) जीव देखे हैं ?

Photo credit: Mr. Niramay Upadhyay

इरिथ्रिस्टिक जीव उनको कहते हैं जो अपनी प्रजाति के बाकि सदस्यों से अलग एक असामान्य लाल रंग के होते हैं और इस प्रभाव को एरिथ्रिज्म (Erythrism) कहते हैं।
एरिथ्रिज्म के मुख्य कारण हैं जेनेटिक म्युटेशन, जो सामान्य रंग को कम या फिर बाकि रंगों को बढ़ा देता है।

Photo credit: Mr. Niramay Upadhyay

इरिथ्रिस्टिक जीव का एक उदाहरण आप इस चित्रकथा में दी गई तस्वीरों में देख सकते हैं। आम तौर पर हाउस स्पैरो में मादा और युवा पक्षी हल्के भूरे-ग्रे रंग के होते हैं, और नर में काले, सफेद और भूरे रंग के होते हैं, लेकिन इरिथ्रिस्टिक स्पैरो में असामान्य नारंगी-लाल के पंख दीखते हैं। इरिथ्रिस्टिक स्पैरो की यह तस्वीर उदयपुर के बेदला गाँव के पास ली गई है।

ऐसे ही बोत्सवाना (अफ्रीका) में एक इरिथ्रिस्टिक तेंदुआ भी देखा गया है जिसे स्ट्रॉबेरी लेपर्ड (Strawberry leopard) के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसका रंग अन्य तेंदुओं से अधिक नारंगी-लाल है।

ततैये जो झींगुर की आत्मा छीन लेते हैं 

ततैये जो झींगुर की आत्मा छीन लेते हैं 

गहरे हरे रंग के पन्ने की मानिंद चमकीले यह ततैये बड़े झींगुरों (Cricket) को अपने विशेष विष से ज़ोंबी (Zombie) के समान बनाकर अपने गुफा नुमा घर में ले जाते हैं। जहाँ झींगुरो का शरीर कई दिनों तक जिन्दा रहता हैं एवं यह ततैये के लार्वे के लिए ताजा भोजन का स्त्रोत बनता हैं।

PC: Dr. Dharmendra Khandal

असल में जब यह इन झिंगरो का संग्रहण करता हैं, तब तक ततैये के लार्वे तो छोड़िये, अंडे भी उसने नहीं दिए होते हैं। यह इन झींगुरों के शरीर पर ही अंडे डाल देता हैं, और जब कुछ समय बाद यह अंडो में से लार्वे निकलते हैं, उन्हें झींगुर के रूप में तैयार भोजन मिलता हैं।

PC: Dr. Dharmendra Khandal

यह ततैये JEWEL WASP (Ampulex sp) कहलाते हैं। इन ततैयों का विष इस प्रकार काम करता हैं कि, झींगुर का तंत्रिका तंत्र पूरी तरह ततैये के प्लान का हिस्सा बन जाता हैं।

PC: Dr. Dharmendra Khandal

आप इसके विष के असर की सूक्ष्मता को ऐसे समझ सकते हैं कि, झींगुर के मस्तिष्क को विषदंश होने के पश्च्यात वह स्वयं के शरीर को अपने आगे के पैरों से साफ करने लगता है। यह सफाई उसे फफूदी एवं अन्य हानिकारक बीमारियों से रहित बना देती हैं जो ततैये के लार्वा के भविष्य लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। साफ सुथरा जिन्दा भोजन अब ततैये द्वारा एक नए खोजे हुए घर में लेजा कर अंडा देकर रख दिया जाता है।

PC: Dr. Dharmendra Khandal

ततैये द्वारा झींगुर को कई बार अलग-अलग दंश दिये जाता हैं एवं प्रत्येक बार विभिन्न प्रकार के रसायन छोड़े जाते हैं जो झींगुर पर अलग-अलग तरह से असर करते हैं।

एक जीवन दूसरे जीवन पर किस प्रकार निर्भर रहता हैं, यह हमें भले ही साधारण लगे परन्तु यह वास्तव में एक अत्यंत कलिष्ट प्रक्रिया का हिस्सा होता है।

 

प्राकर्तिक स्थलों की जीवंतता के प्रतीक भोरें

प्राकर्तिक स्थलों की जीवंतता के प्रतीक भोरें

गुनगुनाते यह कीट भारत के प्रेम गीतों में अक्सर याद किये जाते हैं, इनका फूलों के आसपास मंडराना इन्हें सौन्दर्य काव्य के एक किरदार के रूप में दर्शाता है।

अक्सर हम इन भंवरों को ततैयों के नजदीक का सदस्य समझते हैं परन्तु यह मधुमखियों के अधिक नजदीक हैं। कहते हैं ततैया अपने पैरों को लटकाये हुए उड़ते हैं और मधुमखी उन्हें शरीर के साथ जोड़े हुए उड़ती हैं। साथ ही मधुमखियां एक ही बार डंक मार सकती हैं जबकि ततैया अनेक बार डंक मर सकता हैं। खैर मधुमखी जहाँ एक समूह में रहती हैं और यह समूह समाज विन्यास के उच्चतम स्तर पर अपने जीवन को संयोजित करता हैं वहीँ भंवरों की अधिकांश प्रजातियां एकल जीवन जीते हैं एवं लकड़ी में छेद करके अपने लिए घर बनाते हैं।

इनके लकड़ी में घर बनाने के कारण ही इन्हें “कारपेंटर बी (Carpenter bee)” कहते हैं।

काले रंग के यह तेजी से उड़ने वाले भँवरे कोमल फूलों पर धुप आने पर स्थिरता के साथ उड़ते हैं एवं उड़ते-उड़ते ही उनका रस चूस लेते हैं, जबकि कम धुप में इनके पंख इतनी तेज नहीं हिलते हैं अतः वह अधिक विशाल एवं मजबूत डंठल वाले फूलों पर बैठ कर रस चूसते हैं। धुप से उन्हें तेजी से पंख फड़फड़ाने की ताकत मिलती हैं और इनका गहरा काला शरीर धुप की गर्मी को आसानी से गृहण करता हैं।

लकड़ी में बनाये गये छिद्रों में यह फूलों से एकत्रित परागकण (Pollen grains) के गोल-गोल पिंड या लड्डू बनाते हैं एवं इनपर मादा भँवरे अंडे देते हैं। कीट जगत में इनके अंडो का आकार शरीर की तुलना में सबसे बड़ा होता है। नर भंवरो की आंखे मादा की तुलना में अधिक बड़ी होती हैं ,
यह अनेको पौधों के लिए परागण (Pollination) की प्रक्रिया में सहायक हैं एवं इनकी उपस्थिति प्राकृतिक आवासों को जीवंत बनाती हैं।