कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में

चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।

सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।

सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु  इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।

कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)

वंशावली (Genealogy):

दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।

भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।

कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।

इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।

विशिष्ठ गुण (Typical features):

कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।

दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।

अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।

कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है।  बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।

उपयुक्त स्थान (Suitable sites):

अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।

सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।

 

अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली, थार रेगिस्तान को उत्तरी राजस्थान तक सीमित रखे और विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है। इसके 800 किलोमीटर के विस्तार क्षेत्र में 20 वन्यजीव अभयारण्य समाये हुए हैं, आइए इसकी विविधता कि एक छोटी यात्रा पर चलते है…

संसार की सबसे प्राचीनतम पर्वत श्रखलाओ में से एक अरावली, भारत के चार राज्यों गुजरात, राजस्थान, हरियाणा एवं  दिल्ली तक प्रसारित है। अरावली का अधिकतम विस्तार राजस्थान में ही है। तो इसके प्राकृतिक वैभव को जानने के लिए, आइये चलते है दक्षिणी राजस्थान के मामेर से उत्तर दिशा के आमेर तक।

मामेर, गुजरात राज्य की उत्तरी सीमा के पास बसे धार्मिक नगरों खेड़ब्रम्हा एवं अम्बाजी के पास स्थित है। यहाँ अरावली की वन सम्पदा देखते ही बनती है। प्रसिद्ध फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य यहाँ से शुरू होकर उत्तर दिशा तक विस्तारित है। तो वहीँ मामेर की पश्चिमी दिशा की ओर से माउन्ट आबू अभयारण्य पहुंचा जा सकता है, जो राजस्थान का एकमात्र “हिल स्टेशन” है। फुलवारी, अरावली का एक मात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ धोकडा यानि एनोजीसस पेंडुला (Anogeissus pendula)  प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता। अभयारण्यों में यही अकेला ऐसा अभयारण्य है जहाँ राजस्थान के सुन्दर बांस वन पाए जाते हैं।

अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़ (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इस क्षेत्र में आगे चलते है तो रास्ते में वाकल नदी आती है, यह नदी कोटड़ा के बाद गुजरात में प्रवेश कर साबरमती से मिल जाती है। वाकल नदी को पार कर डेढ़मारिया व लादन वनखंडो के सघन वनों को देखते हुए रामकुंडा पंहुचा जा सकता है। यहाँ एक सूंदर मंदिर एवं एक झरना भी है जो वर्षा ऋतु में दर्शनीय हो जाता है। यहीं एक कुंड में संरक्षित बड़ी-बड़ी मछलिया भी देखने को मिलती है।

इसी क्षेत्र में पानरवा नामक स्थान के पास सोमघाटा स्थित है जिस से होकर किसी समय में अंग्रेज़ रेजीडेंट, खैरवाड़ा, बावलवाड़ा होकर पानरवा के विश्राम स्थल में ठहरकर कोटड़ा छावनी पहुंचते थे। पानरवा से मानपुर होकर कोल्यारी के रास्ते कमलनाथ के पास से झाड़ोल पंहुचा जा सकता है। यह क्षेत्र “भोमट” के नाम से जाना जाता है। झाड़ोल के बहुत पास का क्षेत्र ” झालावाड़ ” कहलाता है। अरावली के इस क्षेत्र में चट्टानों पर केले की वन्य प्रजाति (Ensete superbum) उगती है। झाड़ोल के पास स्थित मादडी नामक गांव में राज्य का सबसे विशाल बरगद का पेड़ स्थित है तथा यहीं मादडी वनखंड में राज्य का सबसे बड़ा ” बॉहिनिया  वेहलाई ” (Bauhinia vahlii) कुञ्ज भी विध्यमान है।

उत्तर की तरफ बढ़ने पर जूड़ा, देवला, गोगुंदा आदि गांव आते हैं। फुलवारी की तरह, यहां भी मिश्रित सघन वन पाए जाते हैं तथा इस क्षेत्र में अरावली की पहाड़ियों पर मिट्टी की परत उपस्थित होने के कारण उत्तर व मध्य अरावली के मुकाबले यहाँ अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के “नाल वन” जो दो सामानांतर पर्वत श्रंखला के बीच नमी वाले क्षेत्र में बनते हैं दर्शनीय होते हैं। नाल सांडोल, केवड़ा की नाल, खोखरिया की नाल, फुलवारी की नाल, सरली की नाल, गुजरी की नाल आदि इस क्षेत्र की प्रसिद्ध नाल हैं। जिनके “रिपेरियन वन” (नदी या नालों के किनारे के वन) सदाबहार प्रजातियों जैसे आम, Syzygium heyneanum (जंगली जामुन), चमेली, मोगरा, लता शीशम, Toona ciliata, salix, Ficus racemosa, Ficus hispida, Hiptage benghalensis (अमेती), कंदीय पौधे, ऑर्किड, फर्न, ब्रयोफिट्स आदि से भरे रहते हैं।

अरावली, विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

अरावली के दक्षिणी भाग में Flying squirrel, Three-striped palm squirrel, Green whip snake, Laudankia vine snake, Forsten’s cat snake, Black headed snake, Slender racer, Red spurfowl, Grey jungle fowl (जंगली मुर्गा), Red whiskered bubul, Scimitar babbler (माऊंट आबू), White throated babbler आदि जैसे विशिष्ट प्राणी निवास करते है। राज्य की सबसे बड़ी मकड़ी “जायन्ट वुड स्पाइडर” यहाँ फुलवारी, कमलनाथ, कुम्भलगढ़ व सीतामाता में देखने को मिलती है तथा राज्य का सबसे बड़ा शलभ “मून मॉथ ” वर्षा में यहाँ जगह-जगह देखने को मिलता है। कभी बार्किंग डीयर भी यहाँ पाए जाते थे। सज्जनगढ़ व इसके आसपास भारत की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” भी देखने को मिलती है।

देवला के बहुत पास पिंडवाडा रोड पर सेई नामक बाँध पड़ता है, जिसे “इम्पोटेंड बर्ड एरिया” होने का गौरव प्राप्त है। राजस्थान के 31 मान्य आई.बी.ए में से 12 स्थान; जयसमंद झील व अभयारण्य, कुंभलगढ़, माऊंट आबू, फुलवारी, सरेसी बाँध, सेई बाँध, उदयपुर झील संकुल एवं बाघदड़ा आदि, दक्षिण राजस्थान में अरावली क्षेत्र व उसके आसपास विध्यमान हैं।

आइये देश के सागवान वनों की उत्तर व पश्चिम की अंतिम सीमा, सागेटी, चित्रवास व रीछवाडा की ओर बढ़ते हैं। इस क्षेत्र से पश्चिम में जाने पर पाली जिले की सीमा आ जाती है। यहाँ सुमेरपुर से होकर सादडी, घाणेराव आदि जगह का भू – भाग “गोडवाड़” के नाम से जाना जाता है। गोडवाड़  में अरावली व थार का मिलन होने से एक मेगा इकोटोन बनता है जो अरावली के पश्चिम ढाल से समान्तर आगे बढ़ता चलता है।

कुंभलगढ़ अभयारण्य, सागवान वितरण क्षेत्र के अंतिम बिंदु से प्रारम्भ होता है जो देसूरी की नाल को लांघते ही रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य के जंगलों से मिल जाता है। इस क्षेत्र में जरगा व कुम्भलगढ़ के ऊंचे पर्वत शिखर देखने को मिलते हैं। जरगा, माउंट आबू के बाद सबसे ऊंचा स्थल है। इस क्षेत्र की आबोहवा गर्मी में सुहानी बनी रहती है। गोगुन्दा व आसपास के क्षेत्र में गर्मी की रातें काफी शीतल व सुहावनी रहती है। इस क्षेत्र में दीवारों, चट्टानों व वृक्षों पर लाइकेन मिलती हैं। जरगा में नया जरगा नामक स्थान पश्चिमी ढाल पर व जूना जरगा पूर्वी ढाल पर दर्शनीय मंदिर है एवं पवित्र वृक्ष कुज भी है। कुंभलगढ़ व जरगा में ऊंचाई के कारण अनेकों विशिष्ट पौधे पाए जाते हैं। यहाँ Toona ciliate, Salix, Salix tetrandra, Trema orientalis, Trema politoria, Ceasalpinia decapetala, Sauromatum pedatum आदि देखने को मिलते हैं। जरगा पहाड़ियों को पूर्वी बनास का उद्गम स्थल माना जाता है। जरगा के आसपास बनास के किनारे विशिष्ट फर्नो का अच्छा जमाव देखा जाता है। वेरो का मठ के आस पास मार्केंशिआ नामक ब्रायोफाइट देखा गया है। कुंभलगढ़ में ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के अनेकों स्थान है तथा कुछ स्थान जैसे कुंभलगढ़ किला, रणकपुर मंदिर , मुछाला महावीर, पशुराम महादेव आदि मुख्य दर्शनीय स्थान है।

आगे चलते है रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य की ओर। इतिहासकार कर्नल टॉड के नाम से जुडी रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य वन्यजीवों से भरपूर है। यहाँ आते-आते वन शुष्क पर्णपाती हो जाते है तथा पहाड़ पथरीले नजर आते है। यहाँ धोकड़ की क्लाइमैक्स आबादी को देखा जा सकता है। यह अभयारण्य ग्रे जंगल फ़ाउल की उतरी वितरण सीमा का अंतिम छोर है।

उतर दिशा में आगे बढ़ने पर राजसमन्द एवं अजमेर के बीच पहाड़ियां शुष्क होने लगती है। धोकड़े के जंगलो में डांसर व थूर का मिश्रण साफ़ दीखता है और सघनता विरलता में बदल जाती है। इसी भाग में सौखालिया क्षेत्र विद्यमान है जो गोडवान (Great Indian bustard) के लिए विख्यात है। कभी – कभार खड़मोर (Lesser florican) भी यहाँ देखने को मिलता है। यहाँ छितरे हुए गूगल के पेड़ मिलते हैं जो एक रेड डेटा प्रजाति है। इस भाग में आगे बढ़ने पर नाग पहाड़ आता है जो की काफी ऊँचा है, जहाँ कभी सघन वन एवं अच्छी जैव विविधता पायी जाती थी।

हमारी यात्रा के अंतिम पड़ाव में जयपुर के पहाड़ आते हैं और यहीं पर स्थित है, आमेर।  झालाना व नाहरगढ़ अभयारण्य में अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन हैं। कभी यहाँ बाघ तथा अन्य खूंखार प्राणियों की बहुतायत हुआ करती थी। यहाँ White-naped tit और Northern goshawk जैसे विशिष्ट पक्षियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहाँ से पास ही में स्थित है सांभर झील। सांभर झील, घना के बाद दूसरा रामसर स्थल है तथा हर वर्ष बहुत प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं । रामसागर और मानसागर इस क्षेत्र के प्रसिद्ध जलाशय हैं जो जलीय जीव सम्पदा के खजाने हैं। कभी रामगढ भी यहाँ का प्रसिद्ध जलाशय हुआ करता था परन्तु मानवीय हस्तक्षेपों के चलते वह सूख गया।

हम रुकते हैं, अभी आमेर में लेकिन अरावली को तो और आगे जाना है, आगे दिल्ली तक!!