पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

 पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

सवाई माधोपुर – करौली ज़िलों के आस पास के लोग एक रहस्यमय सांप के बारे में अक्सर चर्चा करते है, जिसे वे ककरगड़ा के नाम से जानते है।  उनके अनुसार यह सांप अपने बिलों के आस पास कंकर इकट्ठे करता है।

इन पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों को वह करीने से अपने बिल के मुहाने के आगे सहेज कर रखता हैं। स्थानीय लोग इसे अत्यंत ज़हरीला सांप मानते है, और साथ ही कहते हैं की यह मात्र रात्रि में निकलता है। निरंतर ककरगड़ा की चर्चा होने के कारण, यह सब के लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कभी कभी लगाता था, जैसे वह करैत की बात कर रहे है, क्योंकि उनके अनुसार ककरगड़ा मात्र रात्रि में ही सक्रिय होता है। इन सब बातो से इस सांप का रहस्य और भी गहराता जा रहा था।
राजस्थान में सांपों के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ और अंधविश्वास से जुड़ी कई कहानियां आम हैं, परन्तु उनकी बातों से ककरगड़ा का वर्णन पूरी तरह गलत नहीं लग रहा था। गांव के बुजुर्ग और जवान सभी इस प्रकार के सांप देखने की चर्चा करते रहे है।गांव के लोगों के अनुसार इस सांप के बिल अक्सर ही मिल जाते हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल (फोटो : श्री धर्म सिंह गुर्जर)

वर्ष 2007, में पाली- चम्बल गांव से फ़ोन आया की उनके घर के पास ककरगड़ा ने एक बिल बना रखा हैं, यह हमारे लिए एक अवसर था। टाइगर वॉच संस्था ने एक इंटर्न श्री प्रीतेश पानके को यह जिम्मा दिया की वह इस रहस्य से पर्दा हटाने में मदद करें। श्री पानके को पूरी रात्रि जाग कर गहन नजर रखते हुए उस बिल के पास बैठना था। श्री पानके वर्तमान में भारतीय वायु सेना में कार्यरत है। पूर्ण सजग श्री पानके पूरी तैयारी कर के उस बिल से थोड़ी दूर अपना कैमरा लेकर बैठ गए की अब इस रहस्य से पर्दा हटाना ही है।

श्री पानके के अनुसार पहली रात्रि में उन्होंने कोई भी गतिविधि नहीं देखी, लगने लगा मानो यह एक व्यर्थ प्रयास होने जा रहा हैं। दूसरी रात्रि भी लगभग ख़तम होने को आयी, अब उन्हें नींद भी आ रही थी, परन्तु अभी उनकी जिज्ञासा ख़तम नहीं हुई थी, साथ ही यह भय भी था कहीं करैत जैसा सांप नींद में काट नहीं ले, बार बार में वे कुर्सी से नीचे लटकते अपने पांव ऊपर करते रहे। सुबह के पांच बज चुके थे, अचानक बिल के पास एक हलचल हुई और एक छोटा चूहा तेजी से बिल से निकल कर बाहर की और भागा। खोदा पहाड़ निकला चूहा की कहावत को चरितार्थ करता हुआ यह प्राणी कई रहस्यों से पर्दा हटाते हुए, उसी कुछ समय में कई बार अंदर बाहर आया गया, उसकी तेज गति के कारण श्री पानके मात्र एक छाया चित्र ही ले पाए।खैर श्री पानके के प्रयास से यह तय हो गया की ककरगड़ा कोई सांप नहीं बल्कि एक चूहा है।

भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने इसे प्राथमिक तौर पर Little Indian field mouse (Mus booduga) के नाम से पहचाना हैं। यद्यपि उनके अनुसार flat-haired mouse (Mus platythrix) भी हो सकता है एवं इसको प्रमाणिक तौर पर पहचनाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसका परिक्षण करना पड़ेगा। एक अन्य शोध पत्र के अनुसार यह पाया गया हैं की Little Indian field mouse (Mus booduga) अपने बिल के मुंह पर मिटटी के ढेले लगा कर रखता हैं। यह ढेले बिल में बच्चे मौजूद रहने पर संख्या में अधिक वह आकर में बड़े हो सकते हैं।  इसलिए यह माना गया है की उनका सम्बन्ध सुरक्षा से हैं। यद्यपि इस मामले में मिट्टी के ढेलो की बजाय पत्थर के कंकर थे। शायद सरीसृप इस तरह के बिल के पास जब रेंगते हुए चलते हैं तो पत्थर सरक कर उनके मुँह को ही बंद कर देते हैं अथवा बिल के अंदर जाने का छोटा रास्ता कंकरो के ढेर में ही खो जाता हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) का छायाचित्र (फोटो : श्री प्रितेश पानके)

Little Indian field mouse (Mus booduga) चूहे मात्र एक छोटे मुँह वाले बिल बनाते हैं जिस कारण इनको हाइपोक्सिक और ह्यपरकपनीक (hypoxic and hypercapnic) स्थितियों में रह सकते हैं।  इसका मतलब हैं कम ऑक्सीजन एवं रक्त में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की स्थिति में भी रह पाना।
खैर, इस तरह श्री पानके ने दो रात की मेहनत कर एक सांप के मिथक से पर्दा हटा दिया।  परन्तु यह सम्भव है की कोई भी सांप इन चूहों के बिल को इस्तेमाल कर सकता हैं, क्योंकि सांप अपने लिए बिल बनाते नहीं हैं, वे दूसरों के बनाये हुए बिलों को ही इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह कहना गलत नहीं है कि ककरगड़ा के बिल में सांप नहीं होते, परन्तु ऐसे बिल बनाने वाला एक चूहा है।

कवर:
Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल :  फोटो : श्री प्रितेश पानके
राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

लोगो का सांपों के प्रति दो प्रकार से व्यवहार देखा गया है, कुछ लोग इनसे अत्यंत लगाव रखते हैं और हर मौके पर सांपों की चर्चा करते हुए नहीं थकते हैं, और दूसरे वे जो केंचुओं जैसे दिखने वाले निरीह ब्लाइंड स्नेक तक को भी, जहरीले सांप मान कर मारते रहते हैं।  केंचुए जैसे दिखने वाले ‘ब्लाइंड स्नेक’ सांप जो अक्सर आपके घरों के बाथरूमों के ड्रेनेज वाले नालों से निकलते हैं, उनको हम दो समूह में बाँट सकते हैं एक सामान्य तौर पर मिलने वाला ब्लाइंड स्नेक हैं, दूसरा पतला होने के कारण स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक जिसका ही एक अन्य नाम हैं – थ्रेड स्नेक।

Myriopholis blanfordi (Blanford’s worm snake , the Sindh thread snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

ये दोनों ही इतनी छोटे आकर के हैं की इन्हें मात्र प्रशिक्षित लोग ही इन्हें सही तरह से पहचान सकते हैं।  पिछले दिनों राजस्थान में मिलने वाले थ्रेड स्नैक्स पर एक सर्प विशेषज्ञ श्री विवेक शर्मा  द्वारा एक अध्ययन किया गया। उन्होंने राजस्थान में 4000 किलोमीटर की एक दुष्कर यात्रा की जिसका उद्देश्य था, उपेक्षित सांपों पर शोध कार्य करना जैसे थ्रेड स्नेक आदि को उनके विभिन्न परिवेशों में देखना- जिनमें रेगिस्तान, उजाड़, खुले वन, मानव विकसित एवं परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र इत्यादि शामिल थे। यह प्रयास वह एक लम्बे शोध अध्ययन के पूर्व में उसकी ज़रूरत को देखने लिए कर रहे थे ताकि अपने शोध के उद्देश्य निर्धारित कर सके।  जबलपुर, मध्य प्रदेश के रहने वाले श्री विवेक शर्मा, सांपों की टेक्सोनोमी एवं उनकी पहचान में माहिर हैं। टैक्सोनॉमी पृथ्वी पर सभी जीवित जीवों को वर्गीकृत (छँटाई और वर्गीकृत) करने के लिए उपयोग की जाने वाली एक प्रणाली है। उन्होंने भारतीय सांपों को नए स्थानों पर खोजने एवं सांपों की एकदम नयी प्रजातियों की खोज पर कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोधपत्र प्रकाशित किये हैं।

अक्सर किसी भी प्राणी की प्रजाति का सही नाम जान लेना एक अत्यंत दुष्कर कार्य हैं। यह काम हमारे लिए आसान करते हैं टैक्सनॉमिस्ट (Taxonomist)।  टैक्सनॉमिस्ट जीवित प्राणियों को वर्गीकृत करने का कार्य करते हैं। टेक्सोनोमी “जीवन” के लिए एक पुस्तकालय की तरह है, जिसमें पूरी दीवारें अलमारियों में विभाजित हैं, फिर अलमारियों के भीतर अलग अलग खाने, फिर उसके भीतर किताबें, और अंत में प्रत्येक प्रजाति के लिए एकल पन्ना।

Myriopholis macrorhyncha (Beaked-thread snake , Long-nosed worm snake or Hook-snouted worm snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

विवेक शर्मा ने अचानक एक दिन मुझे फोन किया की आप यदि सिंध थ्रेड स्नेक (Myriopholis blanfordi) को देखना चाहते हैं और आज के दिन समय निकाल सकते हैं तो राजस्थान के अजमेर जिले में आ जाये।  जब में वहां पहुंचा तो उन्होंने बताया की एक स्थान पर निर्माण कार्य चल रहा है और यहाँ कुछ अच्छी संभावनाएं हैं, विवेक बोले हम इस स्थान पर कुछ सिंध थ्रेड स्नेक पहले ही देख चुके हैं और स्थानीय सज्जनों ने भी ऐसे किसी गुलाबी रेंगने वाले “कीड़े” को कभी कभार देखने की बात की है। कुछ समय में खुदाई करने वाले मजदूरों ने एक सांप को उठा कर दूर किया, जिसको विवेक शर्मा ने सावधानीपूर्वक अवलोकन कर पाया की यह सिंध थ्रेड स्नेक ही हैं, इसे देखना मेरे लिए एक अवसर जैसा था। साथ ही उसने कहा की इसके खोजकर्ता के बाद और आजादी के पहले यहां काम कर रहे विदेशी जीव वैज्ञानिकों के बाद से इसे किसी ने ठीक से पहचानने का कार्य स्वतंत्र भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया हैं।

उसने बताया की कुछ लोग दावा करेंगे की उन्होंने इसे देखा हैं परन्तु थार मरुस्थल में एक और थ्रेड स्नेक प्रजाति मिलती हैं जिसे इसकी सहोदर प्रजाति (sibling species) कह सकते है। यानी दो या दो से अधिक प्रजातियां जो दिखने में लगभग समान हैं, फिर भी आपस में प्रजनन नहीं करती हो उन्हें सहोदर या गुप्त प्रजाति कहा जाता है। यह प्रोटोजोआ से लेकर हाथियों तक के सभी जीवों में देखा गया है। अपनी संरचनात्मक समानता को बनाए रखते हुए, ऐसी प्रजातियों सूक्ष्म शारीरिक और व्यवहारिक रूप से निसंदेह अलग भी होती हैं।  ऐसी  प्रजातियों के प्रजनन व्यवहार, फेरोमोन, मौसमी, या अन्य विशेषताओं में अंतर होते हैं जो इन प्रजातियों की अलग पहचान बनाए रखते हैं।

मैंने श्री विवेक से पूछा तो क्या थार में थ्रेड स्नेक की कोई अन्य प्रजाति भी मिलती हैं ?

विवेक बोले बिलकुल मिलती हैं।  और देखना आपको में एक बार मेरी यात्रा के दौरान फिर बुलाऊंगा।  यही हुआ, कुछ दिनों बाद विवेक ने कहा आप जोधपुर आये आपको नया थ्रेड स्नेक देखने को मिलेगा।उसी तरह रोड के पास देखा अन्य प्रजाति का बीकड थ्रेड स्नेक (Myriopholis macrorhyncha)। देखने में बिलकुल सिंध थ्रेड के समान परन्तु मुँह के सामने ध्यान से देखने पर आपको मुँह आगे चोंच की तरह निकला हुआ हिस्सा (रोस्ट्राल), जो इसे सिंध थ्रेड स्नेक से अलग प्रजाति बनाता हैं।

जब और अधिक अंतर जानने का प्रयास किया तो विवेक बोले यह काम सांप पर काम करने वालो का हैं जो इतने छोटे सांपों को मात्र सूक्ष्मदर्शी से ही पहचान सकते हैं, मोटे तौर पर आप इतना ध्यान रखे की जो गुलाबी रंग का अधिक चमकदार हैं स्नेक हैं वह थ्रेड स्नेक या स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक हैं, और गहरे भूरे रंग के ब्लाइंड स्नेक हैं। साथ ही बताया की किस प्रकार थ्रेड स्नेक के कपाल और ऊपरी जबड़े स्थिर होते हैं और ऊपरी जबड़े में कोई दांत नहीं होते है। निचले जबड़े में बहुत लम्बी चतुष्कोणीय हड्डी, एक छोटी यौगिक हड्डी और अपेक्षाकृत बड़ी दांतेदार हड्डी होती है।जबकि ब्लाइंड स्नेक में ऊपरी जबड़े में दांत होते हैं। ब्लाइंड स्नैक्स में निचले जबड़े की जोड़-तोड़ अन्य सर्पों की तरह खुलते नहीं हैं जो उसे अपने मुँह से छोटे शिकार करने के लिए बाध्य करते हैं। इसलिए कहते हैं यह सांप प्रजाति अपने शिकार को टुकड़े टुकड़े कर के खाते हैं, अन्य सर्पों की भाँति उन्हें निगलते नहीं हैं। खैर यह व्यवहार भी किसी प्रयोगशाला  में ही देखा जा सकता है.

आगे विवेक थोड़ा रुक कर बोले “राजस्थान में थ्रेड स्नेक एवं ब्लाइंड स्नेक की कई प्रकार की ज्ञात प्रजातियां पायी जाती हैं एवं कई अज्ञात प्रजातियां होने की भी पूरी सम्भावना हैं।जब समझ नहीं आये तो यह बोले की यह एक थ्रेड स्नेक हैं – सिंध हैं या बीकड पता नहीं। बस आप एक सुधि शोधार्थी   की तरह व्यवहार करें।”

राजस्थान के वन

राजस्थान के वन

प्रस्तुत आलेख द्वारा जानते हैं, राजस्थान की अनुपम वन सम्पदा के बारे में जो न सिर्फ हमारी अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को पूर्ण करते हैं बल्कि वन्य जैव-विविधता को भी संरक्षित करते हैं…

प्रकृति में तरह-तरह की प्रजातियों के पौधे मिलते हैं। उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं – कुछ वृक्ष, तो कुछ झाड़ियां, कुछ शाक तो कुछ बेलें। प्रकृति में कई जगह वृक्षों का बाहुल्य भूमि पर एक हरे आवरण की तरह पनप जाता है एवं इस वृक्ष आवरण के नीचे विभिन्न प्रकार के छोटे पौधे (under growth) भी पनप जाते हैं। वनस्पतियों का यह पुंज “वन” कहलाता है। वैसे आम आदमी सामान्यतया प्रायः सघन वृक्षों वाले क्षेत्र को ही वन समझता है लेकिन घास के मैदान भी एक तरह के वन ही होते हैं।

वनों की वन्यजीव व जैव विविधता संरक्षण में महत्ती भूमिका है। वन वन्य प्राणियों एवं पौधों को उपयुक्त आवास प्रदान करते हैं। वे न केवल उस आवास से जीवित रहने हेतु आवश्यक चीजें ग्रहण करते हैं बल्कि स्वयं भी आवास का हिस्सा बन कर दूसरों की जरूरतें पूर्ण करते हैं। इस तरह वन अपने आप में एक ऐसे तंत्र के रूप में काम करता है जो अपनी आवश्यकता स्वयं पूर्ण करता है, अपनी टूट-फूट स्वयं ठीक कर लेता है तथा जिसमें अदृश्य असंख्य जैव-भौतिक रासायनिक क्रियायें निर्बाध चलती रहती हैं। यह वनीय तंत्र “वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)” कहलाता है। प्रकृति में वन पारिस्थितिकी तंत्र के साथ साथ “घास क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)” और “जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Aquatic Ecosystem)” आदि भी देखने को मिलते हैं। ये सभी पारिस्थितिकी तंत्र तरह-तरह के स्तनधारी, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचारी, मछलियों, कीट-पतंगों, घोंघों आदि को रहने, प्रजनन करने एवं अपना समुदाय बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं। यदि पौधों में विविधता न हो तो आवास विविधता भी नहीं पनप सकती है एवं आवास विविधता नहीं होगी तो प्राणी व वनस्पति विविधता भी पैदा नहीं होगी साथ ही वन विविधता भी नहीं होगी। वनों के प्रकार या विविधता ही वस्तुतः वन वर्गीकरण है।

उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिक वर्गीकरण: मुख्यरूप से राजस्थान के वनों को वैज्ञानिक एवं जैविक दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से वनों का वर्गीकरण कानून की पुस्तकों में मिलता है। भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian Forest Act 1927) की आधार शिला पर राजस्थान वन अधिनियम 1953 (Rajasthan Forest Act 1953) बनाया गया है। यह अधिनियम वनों को तीन श्रेणी में विभाजित करता है :

  1. आरक्षित वन (Reserve Forest)
  2. रक्षित वन (Protected Forest)
  3. अवर्गीकृत वन (Unclass Forest)

आरक्षित वन एवं उसकी उपज का स्वामित्व पूर्ण रूप से या उसके कुछ भाग पर सरकार का होता है। रक्षित वन पर भी सरकार का स्वामित्व होता है लेकिन सरकार चाहे तो उसके उपयोग के कुछ अधिकार या अधिकांश अधिकार अपनी जनता या स्थानीय समुदाय को दे सकती है। अवर्गीकृत वन वे हैं जिनका अभी निर्धारण नहीं हुआ है कि उनको आरक्षित वन बनाया जाये या रक्षित। वनों की वैज्ञानिक श्रेणी का निर्धारण वन विभाग, वन बंदोबस्त अधिकारी (Forest Settlement Officer), सरकार अवं रेवेन्यू विभाग करते हैं। वन बंदोबस्त का कार्य रेवेन्यू बंदोबस्त से स्वतंत्र रह कर चलता है। वन बंदोबस्त में वन खंड अवं कम्पार्टमेंट के रूप में नक़्शे तैयार होते हैं। रेवेन्यू सेटलमेंट की तरह वन क्षेत्र में खसरों का प्रावधान नहीं होता।

जैविक वर्गीकरण दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण एच्. जी. चैम्पियन एवं एस. के. सेठ ने किया है। उन्होंने 16 मुख्य वनों के प्रकार पहचाने हैं जिनमें राजस्थान में 3 मुख्य प्रकार ज्ञात हैं:

  • वर्ग 5 -उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (Tropical Dry Deciduous Forest)
  • वर्ग 6 -शुष्क कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest)
  • वर्ग 8 – उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन (Subtropical Broad Leaved Hills Forest)
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन:

उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों में उन वृक्ष प्रजातियों का बाहुल्य होता है जो वर्षा में हरी-भरी  नजर आती हैं तथा पत्तियों से ढकी रहती हैं लेकिन वर्षा के बाद जैसे ही नमी का स्तर गिरता है, इनके पत्ते पीले होकर झड़ने लगते हैं एवं गर्मियों के आते-आते ये पर्ण विहीन होकर सूखे जैसे नजर आते हैं। गर्मी में प्राय: इनमें फूल व फल लगते हैं तथा वर्षा काल प्रारम्भ होते ही फिर इनमें पत्तियाँ आने लगती हैं। इन वनों में बाँस व झाड़ियों को भी देखा जा सकता है। इन वनों में धौंक, सफ़ेद धौंक, बहेड़ा, सादड, गुर्जन, सालर, खिरन, खिरनी, खैर, बरगद, पीपल, पहाड़ी पीपल, महुआ, बबूल, पलाश, खजूर आदि प्रजातियों के वृक्षों का बाहुल्य होता है तथा काली स्याली, गणगेरण, हरसिंगार, कड़वा या दुद्धी आदि झाड़ियों का बाहुल्य होता है। उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों के भी कई उप प्रकार नजर आते हैं। राजस्थान में मिलने वाले प्रमुख उप प्रकार निम्न हैं :

  1. धौक वन (Anogeissus pendula Forest)
  2. सालर वन (Boswellia Forest)
  3. बबूल वन (Babool Forest)
  4. पलाश वन (Butea Forest)
  5. बेलपत्र वन (Aegle Forest)
  6. लवणीय क्षेत्र के झाड़ीदार वन (Saline Alkaline scrub forest)
  7. खजून वन (Phoenix savannah)
  8. शुष्क बॉस वन (Dry Bamboo Brakes)
  9. सागवान वन (Teak Forest)
  10. मिश्रित वन (Mixed Forest)

यह वन पूरी अरावली पर्वत माला, विंध्याचल पर्वतमाला एवं अरावली पर्वत माला के पूर्व दिशा में फैले हुये हैं। ये वन उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां, धौलपुर, भरतपुर, अलवर, दौसा, जयपुर आदि अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले जिलों में मिलते हैं। सालर के वन पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में, धौक वन पहाड़ों के ढाल पर तथा पलाश वन तलहटी क्षेत्र में मिलते हैं। जहाँ मिटटी का अच्छा जमाव है एवं नमी का स्तर अच्छा है वहां खजूर एवं बाँस वन मिलते हैं। बाँस मुख्य रूप से दक्षिणी राजस्थान में पाये जाते हैं। सागवान वन हाड़ौती एवं दक्षिण राजस्थान में मिलते हैं। उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा रेंज का सागेती वन खण्ड भारत में सागवान की अंतिम पश्चिमी एवं उत्तरी सीमा बनता हैं। राजस्थान व गुजरात सागवान के विस्तार रेंज की पश्चिमी सीमा बनाते हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शुष्क कांटेदार वन:

इस प्रकार के वनों का अस्तित्व मुख्यरूप से कम वर्षा वाले क्षत्रों में होता है।  इन वनों में छोटी व संयुक्त पत्तियों तथा काँटों वाली प्रजातियों के वृक्ष व झाड़ियों का बाहुल्य मिलता है। इन वनों में कुमठा, रौंझ, बेर, फोग,थूर, पीलू, (खारा जाल व मीठा जाल), कैर, आंवल छाल आदि वनस्पतियां मिलती हैं।  ये वन मुख्य तथा शुष्क व रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक मिलते हैं। जहाँ भूमि का कटाव हो रहा है, तथा जल बहाव अधिक है वहां भले ही अधिक वर्षा हो, ये ही वन पनपते हैं क्योंकि भौतिक रूप से वहां सूखे की स्थिति बनी रहती है। चम्बल जैसी नदियों के कंदरा क्षेत्र में भी ऐसे ही वन पनप पाते हैं।

कांटेदार वनों के भी कई उप प्रकार ज्ञात हैं। राजस्थान के मुख्य उप प्रकार निम्न हैं:

  1. रेगिस्तानी कांटेदार वन (Desert Thorn Forest)
  2. कंदरा क्षेत्र कांटेदार वन (Ravine Thorn Forest)
  3. बेर के झाड़ीदार वन (Ziziphus scrub)
  4. थूर झाड़ीदार वन (Tropical Euphorbia Forest)
  5. कुमठा वन (Acacia senegal Forest)
  6. पीलू वन (Salvadora Scrubs)
  7. आंवल छाल झाड़ीदार क्षेत्र (Cassia auriculata scrubland)

कांटेदार वन मुख्य रूप से राजस्थान में अरावली के पश्चिम में पाली,सिरोही,जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चूरू, नागौर, बीकानेर, आदि जिलों में पाएं जाते हैं। इंदिरा गाँधी नहर की सिंचाई से गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों की परिस्थितियां काफी बदल गई हैं एवं वहां वनस्पति एवं वन प्रकारों में बदलाव हुआ है। कांटेदार वन क्षेत्र में सेवण घास के घास क्षेत्र (grassland) भी पाए जाये हैं। कांटेदार वन अजमेर, जयपुर, अलवर, धौलपुर, व अरावली के पूर्व में अन्य जिलों में भी जहाँ-तहाँ विधमान हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन:

चौड़ी-पत्ती के पहाड़ी वनों का फैलाव राजस्थान में सबसे कम क्षेत्र में है। ये वन सिरोही जिलों में आबू पर्वत पर ऊपरी तरफ पाए जाते हैं। आबू पर्वत पर हिमालय एवं नीलगिरि के बीच में सबसे ऊँची छोटी गुरु शिखर भी विध्यमान है। यहाँ 1500 मिमी. तक वर्षमान है तथा ताप अपेक्षाकृत कम है जिसमें जहाँ अर्द्ध-सदाबहार वन अस्तित्व में आया है। यहाँ आम, जामुन, स्टर्कुलिया की कई प्रजातियां, करौंदा, फर्न, आर्किड आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं। यहाँ जंगली गुलाब (Rosa involucrata) नमक प्रजाति भी पायी जाती है।

राजस्थान की वन सम्पदा बहुत ही अनुपम है ये वन न सिर्फ लोगों की अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को तो पूर्ण करते ही है, साथ ही यहाँ की वन्य जैव विविधता को भी संरक्षित करते हैं अतः इन्हें संरक्षित करने की अत्यंत आवश्यकता है।

Cover Photo Credit: Dr. Dharmendra Khandal