रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

बाघिन के  मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…

9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।

रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।

हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।

बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)

बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।

अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।

परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।

अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।

क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक

1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।

विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।

दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।

नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।

बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।

वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।

18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।

बेरदा वन क्षेत्र के शावक

4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।

कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता

अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।

पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।

चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।

नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)

अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।

फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।

जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।

सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार

झीलों की रानी और उसके तीन शावक

बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।

एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/

वन्यजीवों की सेवा के लिए मैं हूँ, सदैव तत्पर

वन्यजीवों की सेवा के लिए मैं हूँ, सदैव तत्पर

“आइये जानते हैं श्री सोहनराम जाट के बारे में, एक ऐसे वनरक्षक के बारे में जिन्हें अपने परिवार से ज्यादा प्यारे हैं वन्यजीव और जो 365 दिन रहते हैं ऑन ड्यूटी…”

राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ तहसील के छापर गांव में स्थित है “ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। अभयारण्य का नाम इसी छापर गांव के नाम पर रखा गया है। काले हिरणों और देश-विदेश से आए पक्षियों को देखने के लिए यहां पूरे वर्ष ही पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी ताल छापर अभयारण्य में पिछले 21 साल से एक वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) प्रकृति व वन्यजीवों के बीच में घुलमिलकर एक परिवार की तरह जीवन यापन कर रहा है।

गांव से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने भरे पूरे परिवार व सुख सुविधाओं को छोड़कर प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने उन्हें जंगल की हरी-भरी घास व प्राकृतिक छटाओ के बीच रहने को मजबूर कर रखा है। जंगल की रक्षा के लिए रोज मीलों दूर पेट्रोलिंग करना वर्तमान समय के अनुसार एक कठिन चुनौती तो है लेकिन, उनका शौक ही यही है कि, ये हमेशा 24 घंटे घूमते रहे। ये अपने परिवार से मिलने के लिए महीने में एक बार जाते हैं जिसमें भी शाम को जाते हैं और सुबह वाली बस में बैठकर अभयारण्य वापिस लौट आते हैं।

ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल )

इनके बारे में स्टाफ के साथी व संबंधित अधिकारी भी बताते हैं कि, घर पर भले ही ये किसी जरूरी काम में व्यस्त ही क्यूँ न हो लेकिन, विभाग से कोई जरूरी सूचना आती है तो ये घरेलू कार्य को छोड़कर तुरन्त अभयारण्य पहुँच जाते है। कभी-कभार बीच में ऐसा भी हुआ है कि, ये कार्य से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने घर जा रहे थे और इन्हें सुचना मिली कि, विभाग में कुछ जरुरी कार्य आया है तो तुरंत आधे रस्ते में ही बस से उतर एवं दूसरी बस में बैठ कर वापस आ जाते थे। यानी घर, परिवार, गांव व रिश्तेदार आदि से कहि गुना अधिक इन्हें प्रकृति व उसमें बस रहे जीवों से प्रेम है। दिन-रात उनकी सेवा में कभी पैदल तो कभी साइकिल से गस्त करना इनकी रोज़ की दिनचर्या है।

ऐसे कर्मठशील, प्रकृति व वन्यजीव प्रेमी वनरक्षक का नाम है “सोहनराम जाट”। जो कि पिछले 21 वर्षों से ऑफिस रेंज ताल छापर चुरू में तैनात है। सोहनराम का जन्म 1 जुलाई 1966 को चुरू जिले की सुजानगढ़ अब बिंदासर तहसील के सांडवा-भोमपुरा गांव के एक किसान परिवार में हुआ। उस समय मे कम उम्र में ही शादी का प्रचलन था तथा परिवार द्वारा इनका भी विवाह जल्दी ही करवा दिया गया। इनकी धर्मपत्नी “पतासी देवी” एक ग्रहणी है। इनके परिवार में तीन बेटा व एक बेटी है और इनका बड़ा बेटा विदेश में एक कम्पनी में नौकरी करता है बाकी बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे हैं।

सोहनराम बताते है कि, बचपन में इनको खुद को पढाई से इतना लगाव नहीं था, पिताजी खेतीबाड़ी करते थे तो ये भी खेती के कार्यो में पिताजी का हाथ बंटाते थे।

गांव के पास स्थित एक पौधशाला में शाम के वक्त ये रोज़ जाया करते थे तो वहां पर मौजूद वनपाल ने इन्हें पौधशाला में काम करने के लिए कहा और भरोसा भी दिलाया कि, समयनुसार कभी नियमित भी हो जाओगे। सोहनराम जिस तरह घरेलू कार्यो में जुटते थे उसी तरह इन्होंने पौधशाला में काम की जिम्मेदारी भी ले ली। इनकी मेहनत के चलते दो साल बाद इन्हें वनकर्मी के रूप में नियमित नियुक्ति पत्र मिल गया।

पढाई में महज साक्षर होने के बावजूद इन्होंने वन व वन्यजीवों के महत्व को वन्यप्रेमी गहनता से समझा और चार साल गाव में स्थित पौधशाला में नौकरी करने के बाद इनका पदस्थापन रेंज ऑफिस ताल छापर चूरू में हो गया और पिछले 21 साल से अभी यहीं पर तैनात हैं।

वनविभाग में आने के बाद से लेकर आज तक सोहनराम का जीवन पूरी तरह से वन सेवा में समर्पित है और आज 55 साल की उम्र में भी उनके काम करने के हौसले व जज्बात दोगुनी हिम्मत के साथ बरकरार हैं।

वन्यजीवों को प्राथमिक उपचार देते हुए सोहनराम जाट

वर्ष 2009 और 2010 में आए भीषण चक्रवात से छापर ताल में वन सम्पदा व वन्यप्राणियों को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उस समय सोहनराम के लिए सैंकड़ो की संख्या में जीव जंतुओं की हानि एवं घायल होने का मंजर उनके जीवन का एक मुश्किल दौर था और इतना मुश्किल कि, उस पल को याद करके तो काफी दुःख होता है। उस परिस्थिति में लम्बे समय तक सोहनराम वन्यजीवों को बचाने व सुरक्षित स्थानों पर पहुचाने में लगे रहते थे और आठ से दस दिन तक लगातार जंगल में रहकर भोजन मिला तो खा लिया नही मिला तो नही ही सही लेकिन उस समय जितना हो सका वन्यप्राणियों को बचाया। सोहनराम के साथी बताते हैं कि, लगातार कई दिनों तक पानी में काम करने की वह से उनके पैरों में खड्डे पड़ गए थे परन्तु फिर भी सोहन सिंह पैरों पर कपडे की पट्टी बाँध कर दिन रात वन्यजीवों को बचाने में लगे रहे।

श्री सोहनराम जाट लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं और अभ्यारण्य के आसपास गश्त करते हैं।

सोहनराम बताते हैं कि, ताल छापर अभयारण्य के आसपास बावरिया समाज के लोगों के कुछ ठिकाने हैं और यही लोग कई बार वन्यजीवों के शिकार की घटनाओं को अंजाम देते हैं। ऐसी परिस्थिति में सोहनराम अपने दिन के अधिकत्तर समय गश्त करते रहते हैं और लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं। वे बताते हैं की गश्त के समय ये अवैध गतिविधियों की खोज खबर निगरानी के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं। और ऐसे ही एक बार इन्हें अभयारण्य से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित कुम्हारों की ढाणी से सूचना मिली कि, तीन बावरिया समाज के लोगों ने हिरन का शिकार करा है। सुचना मिलते ही विभाग वालों ने एक टीम गठित की और एक निजी वाहन के साथ पुलिस को सूचना देकर अतिरिक्त जाब्ता भी मंगवाया। सोहनराम और उनकी टीम वहाँ से रवाना हुए और करीब साढ़े तीन घण्टे की मशक्कत के बाद वो शिकारी उनके हाथ लगे। उन शिकारियों के पास से एक मृत चिंकारा व लोमड़ी बरामद हुई। शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया व जांच पूरी होने के बाद उनको जेल भी हुई।

पकड़े गए शिकारियों के साथ सोहनराम जाट और उनकी टीम

एक बार ऐसी ही एक घटना अभयारण्य से 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव के एक विशेष समाज के लोगों द्वारा की गई। ये लोग पहले भी कई शिकार की घटनाओं को अंजाम दे चुके थे। लेकिन गांव में किसी को गिरफ्तार करना या फिर पूछताछ करना एक चुनौती भरा कार्य था। ऐसे में परिस्थिति को समझते हुए सोहनराम ने अपने विभाग को और फिर पुलिस को सूचित किया। वन विभाग की टीम जैसे ही उस गाँव में पहुंची तो लोगों की भीड़ जमा हो गई और तभी पुलिस की टीम भी वहां आ पहुँची। तुरंत शिकारियों को गिरफ्तार किया व उनके पास एक चिंकारा और लोमड़ी की खाल बरामद हुई, साथ ही चार बन्दूक व तीन तलवारें भी जब्त की गई। पुलिस कार्यवाही के बाद उन लोगो को जेल भी हुई।

सोहनराम बताते हैं कि, अभयारण्य के आस-पास काफी संख्या आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं जो वन्यप्राणियों को भी नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि ये कुत्ते 4 -5 के छोटे समूह में एक साथ एक हिरन पर हमला कर उसे घायल कर मार देते हैं। ऐसे में वन्य प्राणियों से उनकी सुरक्षा करना भी एक चुनौती हैं सोहनराम लगातार उनको सुरक्षा देने में लगे रहते हैं साथ घायल हिरणों का उपचार करके उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ देते हैं। सोहनराम बताते हैं कि, पहले वे जानवर के घायल होने पर डॉक्टर को बुलाते थे परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने खुद घायल जानवरों का चोट-मोटा इलाज करना सीख लिया और अब वे खुद ही सभी जानवरों का इलाज करते हैं और अब तक ये कुल 300 हिरणों को बचा चुके हैं।

सोहनराम बताते हैं कि, तालछापर अभयारण्य के आसपास में काफी सारे गांव बसे हुए हैं और गांव में बसे हुए लोगों का वन्यजीवों व वनों से काफी लगाव है। उनसे विभाग वालों का भी काफी अच्छा तालमेल रहता है और वे विभाग के कार्य का पूर्ण रुप से समर्थन करते हैं। इसके चलते यहां पर अवैध चराई पर अवैध कटाई की घटनाएं बिल्कुल नहीं है और मैं भी पूर्ण जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करता रहता हूँ। मैं वर्ष के 365 में से 345-50 दिन तालछापर को देता हूँ और मेरा मन मेरे परिवार से ज्यादा तालछापर के लिए समर्पित है और मैं चाहता हूं कि, मेरे सेवाकाल के बाकी के 5 साल भी इसी तरह से वन सेवा में समर्पित रहे।

आज हमारे वन विभाग को सोहनराम जैसे और निष्ठावान कर्मियों की जरूरत है जो सदैव तत्पर रहकर वन्यजीवों के संरक्षण के लिए कार्य करें। हम सोहन सिंह के कार्य एवं जज्बे की सराहना करते हैं और आशा करते हैं कि, नए आने वाले नौजवान वन कर्मी उनसे बहुत कुछ सीखेंगे।

प्रस्तावित कर्ता: श्री सूरत सिंह पूनिया (Member of state wildlife board Rajasthan)
लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.