इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

राजस्थान को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता हैं – मरुस्थलीय हिस्सा एवं अरावली अथवा विंध्य पहाड़ियों से घिरा भूभाग। मरुस्थल में पौधों के जीवन में अत्यंत विविधता हैं परन्तु यदि सामान्य तौर पर देखे तो कुछ पेड़ और झाड़ियां हर प्रकार के जीवन को प्रभावित करता रहा हैं। यहाँ आपके लिए इनके बारे में  एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैं…

1.Khejri (Prosopis cineraria)

खेजड़ी को राजस्थान के राज्य वृक्ष का दर्जा हासिल हैं। ईस्वी 1730 में, खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए 363 आम लोगो ने एक साधारण महिला अमृता देवी के नेतृत्व में जोधपुर के पास एक छोटे से गांव खेजड़ली में प्राणोत्सर्ग किये थे। यह त्याग पेड़ों को बचाने की अनूठी मुहीम का आधार बना , जिसे नाम दिया गया चिपको आंदोलन। तपते रेगिस्तान में उगने वाला यह वृक्ष सही मानो में स्थानीय लोगो के लिए एक कल्पवृक्ष है, जो उनकी, उनके पशुओ एवं वन्य जीवो की अनेको जरूरतों को पूरा करता है। स्थानीय लोग मानते है, की इस वृक्ष की छाया में  निचे खेतों में अनाज भी अच्छा पैदा होता है अतः रेगिस्तान में लोग इनके बड़े पेड़ों को भी खेतों में रहने देते है, शायद भारत में कोई दूसरा वृक्ष नहीं है, जिनके निचे कोई फसल अधिक अच्छी होती हो। इसकी कई इंच मोती छाल में अनेको प्रकार के कीट अदि  रहते है, जिन्हे एक पक्षी – Indian Spotted Creeper बड़े चाव से खाती है। गिलहरी की तरह फुदकती यह चिड़िया अक्सर इन्ही खेजड़ी के पेड़ो पर ही मिलती है। यदि राजस्थान के रेगिस्तान वाले इलाके में देखे तो यह सबसे अधिक मिलने वाला वृक्ष है।

2. Rohida (Tecomella undulata)-

मारवाड़ में रोहिड़ा की लकड़ी को सागवान का दर्जा दिया जाता हैं। इन पर आसानी से न तो कीड़ा लगता हैं, और साथ ही इन पर खुदाई का अच्छा काम भी हो सकता हैं। रोहेड़ा के फूलों की रंगत से तो सूखा राजस्थान जैसे रंगो की होली खेलने लगता हैं। रोहिड़ा को तीन अलग अलग रंग में फूल आते हैं – गहरा लाल, केसरिया और मन को मोहित करने वाला पीला। अनेक पक्षियों की प्रजातिया इनसे मकरंद प्राप्त करती हैं और साथ ही इनके परगकण को अन्य पेड़ों तक ले जाती हैं। राजस्थान में इनके फूलों को राज्य पुष्प का दर्जा दिया गया। आम लोग खेजड़ी के बाद इस पेड़ को बड़े सम्मान के साथ देखते हैं एवं अपने खेतों में लगाते हैं।

Rohida (Tecomella undulata)

roheda

 

3. Jaal/ Pilu (Salvadora sp.)

भारत में दो सल्वाडोरा प्रजातियाँ हैं – ओलियोइड्स ( मीठी जाल ) और पर्सिका (खारी जाल)। ये दोनों पेड़ रेगिस्तान के मुश्किल वातावरण में रहने के लिए अनोखी अनुकूलनता लिए हुए है, क्योंकि उच्च लवणता सहिष्णुता क्षमता रखते है। ये सबसे अच्छे आश्रय प्रदान करने वाले पेड़ हैं, जो कई रेगिस्तानी जंगली प्राणियों को आश्रय तो देता ही है, पर साथ ही यह भोजन भी प्रदान करते हैं। क्योंकि ये हमेशा सूखे और गर्म मौसम में भी हरे-भरे रहते हैंI लगभग एक सदी पहले एक ब्रिटिश अधिकारी माइकल मैकऑलिफेन (जिन्होंने बाद में सिख धर्म को अपना लिया) ने कई सिख धर्म ग्रंथो को अंग्रेजी में अनुवाद किया, उन्होंने उल्लेख किया कि गुरु नानकजी ने अपने जीवन के उत्तरार्ध को सल्वाडोरा ओलियोइड्स पेड़ के नीचे बिताया। खारे एवं गर्म क्षेत्र में वर्ष भर हरा रहना बहुत कठिन है, इसके पीछे है इस पेड़ के खारापन की उच्च सांद्रता है। इसी कारण यह आसानी से नमकीन मिट्टी से पानी को प्राप्त कर सकते हैं। पानी लवणता की कमी वाली मिटटी से अधिक लवणता की और परासरण की प्रक्रिया से बढ़ता हैी सामान्य पेड़ की जड़ो में भी थोड़ी लवणता होती है एवं पानी को लेती रहती है परन्तु खारी मिटटी से पानी निकलने के लिए, उस से भी अधिक लवणता होनी चाहिए I साथ ही इनकी मोटी पत्तियों भी पानी को जमा करने के लिए अनुकूलित है। इनके पानी से भरे नरम फल सभी प्रकार के पक्षियों को लुभाते है।

4. कुमठा (Senegalia senegal / Acacia senegal) –

एक छोटे आकर का पेड़ हैं जो स्थिर धोरो या छोटी पथरीली पहड़ियों पर मिलता हैं।इनके बीजो को रेगिस्तानी क्षेत्र के चूहे पसंद करते हैं एवं आस पास मिलने वाले कीट अनेक विशेष पक्षियों को अपनी और आकर्षित करते हैं – जिनमे मार्शल आयोरा, व्हाईट नेप्पेडटिट, व्हाईट बेलिड मिनिविट आदि शामिल हैं। कुमठा के बीज को राजस्थान की एक खास सब्जी जिसे ‘पंचमेल सब्जी’ कहते हैं ‘पंचमेल सब्जी’ का एक मुख्य घटक भी हैं।

5. Kair (Capparis decidua)-

रेगिस्तान के घरो में छाछ के पानी में डाले हुए कच्चे कैर के फल एक आम बात होती हैं, जो उसके आचार बनाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है।  कैर रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली एक झड़ी हैं जिसके अतयंत खूबसूरत फूल आते हैं, डालिया पूरी तरह फूलो से लड़ी रहती हैं और इनपर अनेक प्रकार के कीट और पक्षी अपना आहार पाते हैं।  इन झाड़ियों के अंदर कई तरह के बड़े पेड़ अपने जीवन के सबसे आरम्भिक समय में छुपे रहते हैं और शाकाहारी जीवो से बच पाते हैं।  यह पेड़ यदि खुले में होते तो शायद अपने आप को बचा नहीं पाते।  कई प्रकार के जीव इन भरी झाड़ियों के निचे अपने बिल अथवा मांद बनाके रहते हैं, ताकि वह तेज धूप एवं अन्य शिकारियों से बच सके।

 

6. Phog (Calligonum polygonoides)-

एक झाड़ी जो राजस्थान के थार से तेजी से विलुपत होरही हैं उसका नाम हैं-  फोग।  गहरी जड़ो पर आधारित इस झाड़ी को नव युग के कृषि संसाधन- ट्रेक्टरो ने मानो जड़ो से उखाड कर फेंक दिया। जो ट्रैक्टरों से बच गए उन्हें भट्टियों में डाल कर अत्यंत ऊर्जा देने वाले ईंधन के रूप में उपयोग लेलिया गया। बीकानेर, जैसलमेर आदि शहरो में आज भी इनको बाजारों में बेचते हुए देखा जासकता है। सूखे फूलो को दही के साथ मिला कर गुलाबी रंग का रायता बनाया जाता हैं।

 

 

राजस्थान का राज्य पुष्प रोहिड़ा एवं उसकी अद्भुत परागण प्रक्रिया

राजस्थान का राज्य पुष्प रोहिड़ा एवं उसकी अद्भुत परागण प्रक्रिया

कभी फूलों के चटकीले रंग तो कभी उनकी मधुर सुगंध मधुमक्खियों, भँवरों, तितलियों और पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करती है जो फूलों का मकरंद पीते है,और परागण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया में सहायता करते हैं। परागण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पुष्प के नर भाग-पुंकेसर से परागकण, किसी माध्यम (हवा, पानी , पक्षी, कीट आदि ) से फूल के मादा भाग स्त्रीकेसर तक पहुँचते हैं और अंडाशय में बीजो को निषेचित करता है।

राजस्थान के मरुस्थल में जब रोहिड़े के पेड़ पीले, नारंगी और लाल रंग के फूलों से भर जाते हैं तो इस दौरान इन फूलों पर मंडरा रहे रेड-वेंटेड बुलबुल (Pycnonotus cafer) और पर्पल सनबर्ड (Cinnyris asiaticus) के बीच एक दिलचस्प व्यवहार देखने को मिलता है, यह व्यवहार परागण की प्रक्रिया के कई दिलचस्प पहलुओं पर प्रकाश डालता है।

रोहिड़ा का वृक्ष ( फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल )

मुख्यतया राजस्थान में पाए जाने वाला वृक्ष “रोहिड़ा”(Tecomella undulata) जिसे राज्य पुष्प का दर्जा भी हासिल है, विशेष रूप से राजस्थान के मरू क्षेत्रों में पाया जाता है। यह बिग्नोनियासी (Bignoniaceae) परिवार का एक पतझड़ी पेड़ है, जिस पर वसंत ऋतु में पलाश के पेड़ के समान, एक साथ बड़े पैमाने पर फूल खिलते हैं। रोहिड़ा, राजस्थान के लिए पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व का पेड़ है, विशेष रूप से रेगिस्तानी क्षेत्रों में जहां यह रेत के टीलों पर पनपता है। यह अत्यधिक निम्न तापमान (लगभग -2°C) और उच्च तापमान (लगभग 50°C) दोनों को सहन कर सकता है, और शायद यही कारण है कि इसे ‘डेजर्ट टीक’ या ‘मारवाड़ टीक’ भी कहा जाता है। यह अपनी मजबूत और टिकाऊ लकड़ी की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है । मानव द्वारा उच्च मांग और धीमी गति से बढ़ने के कारण आज यह पेड़ IUCN रेड सूची में शामिल किया जा चुका है और वर्तमान में रोहिड़ा विलुप्त होने की ओर है तथा इसका भविष्य आज अनिश्चित बना हुआ है।

इसके फूल एक तुरही के आकार के होते हैं- जिससे पक्षी दो प्रकार से मकरंद निकालते है- या तो फूलों के भीतर अपना सिर डालकर या फिर परागण में सहायता किये बिना सीधा फूलों के आधार पर अपनी चोंच द्वारा छिद्र बनाकर। इस व्यवहार को ‘मकरंद चोरी’ भी कहा जाता है – यह एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा जानवर फूलों के पराग के संपर्क में आए बिना मकरंद निकालते हैं।


पक्षियों द्वारा गिराए गए फूलों को खाते हुए चीतल हिरन (फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल )

बुलबुल अपना सिर फूल के अंदर डाल कर मकरंद पीती है जबकि सनबर्ड फूल के आधार पर एक छोटा छिद्र करके मकरंद की चोरी करती है I बुलबुल द्वारा मकरंद पीते समय परागकण उसके सिर पर चिपक जाते हैं, परन्तु सनबर्ड परागण में सहायता किये बिना मकरंद निकालती है। यही प्रक्रिया मकरंद की चोरी (Nectar robbing) कहलाती है I इस प्रक्रिया के दौरान बुलबुल के सिर पर परागकण चिपक जाते हैं ,और उसका काला सिर पराग कणों से पीले रंग में रंग जाता है।
सनबर्ड के मकरंद चोरी करने का कारण है की वह आसानी से फूल के आधार पर संग्रहित मकरंद तक नहीं पहंचती है, क्योंकि फूल का आकार सनबर्ड की तुलना में बड़ा होता है कभी कभार यदि वह अपना सिर फूलों में डालती भी है तो परागकण से भरे परागकोश उसे छू नहीं पाते हैं I जिस कारण वह परागण की प्रक्रिया में भागीदारी नहीं निभाती है।

एक सफल परागण के लिए, फूल के आकार व संरचना और पक्षी की चोंच व सिर के आकार के बीच एक प्रकार की समरूपता होनी बहुत जरूरी है। अर्थात बुलबुल अपने बड़े सिर और छोटी चोंच के कारण रोहिड़ा के फूलों के साथ समरूप है क्योंकि छोटी चोंच के कारण उनको अपने सिर को पूरी तरह से फूल के भीतर ले जाना पड़ता है और ऐसा करते समय, उनके सिर परागकोष के सीधे संपर्क में आते है। वहीं दूसरी ओर सनबर्ड्स अपने छोटे सिर और लम्बी चोंच के कारण फूलों के परागकोष के संपर्क में आये बिना मकरंद निकाल ले जाती है।


रोहिड़े के फूल (फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल)


इस प्रक्रिया में सनबर्ड तो मानो पूरी तरह से एक परजीव के रूप में स्थापित हो गयी परन्तु गहराई से देखें तो भले ही सनबर्ड फूलों से मकरंद की चोरी करती है परन्तु फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से परागण में सहायता भी करती है। क्योंकि मकरंद चोरी के दौरान सनबर्ड ज्यादा से ज्यादा फूलों पर जाती है, जिससे वह बुलबुल के लिए मकरंद संघर्ष को बढाकर, उसे आसपास के कई फूलों और पेड़ों पर जाने के लिए मजबूर करती है। सनबर्ड और बुलबुल के बीच का यह संघर्ष, अप्रत्यक्ष रूप से रोहिड़े के पेड़ों को परपरागण (cross pollination) में मदद करता है।

वास्तव में सनबर्ड और बुलबुल दोनों ही परागण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इस मामले में बुलबुल को “सच्चा परागणक” (true pollinators) और सनबर्ड्स को “प्रेरक” कहा जा सकता है। इसी प्रकार की टिप्पणियों को एक शोध पत्र में भी दिया गया है, जिसका शीर्षक है, “नेक्टर रॉबिंग पॉजिटिव इन्फ्लुएंस द रिप्रोडक्टिव सक्सेस ऑफ टेकोमेला अंडुलाटा” जहां पर्पल सनबर्ड रोहिड़ा में परपरागण को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।


फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सनबर्ड की भांति बुलबुल भी फूलों के आधार पर छिद्र बनाती है एवं पेड़ो से गिरे फूलों पर अक्सर दो अलग-अलग प्रकार के चिह्न देखने को मिलते हैं । जैसे कुछ फूलों के आधार पर छोटे-छोटे छिद्र, तो कुछ में बड़े अंडाकार छिद्र। पक्षियों के आकार को देख कर यह स्पष्ट समझ आता है कि छोटे छिद्र सनबर्ड द्वारा तथा बड़े छिद्र बुलबुल द्वारा किये जाते हैं। इसके अलावा, यह भी देखा जाता है की बुलबुल के संपर्क में आने से कई बार कोमल फूल टूट कर गिर भी जाते है। हो सकता है की बुलबुल का उद्देश्य फूलों से मकरंद निकालना नहीं बल्कि सिर्फ उन्हें तोडना है। यदि पेड़ों से नीचे गिरे हुए फूलों को देखा जाये तो यह पाया जाता है की, अधिकांश फूल प्राकृतिक रूप से मुरझा कर नहीं बल्कि पक्षियों (विशेषरूप से बुलबुल) द्वारा तोड़े हुए हैं , अथवा उनकी लापरवाही से टूटे हुए हैं। दिनेश भट्ट और अनिल कुमार (Fortkail 17, 2001) द्वारा भारत में रेड-वेंटेड बुलबुल के खाने की पारिस्थितिकी पर किये गए अध्ययन के अनुसार यह बुलबुल द्वारा फूलों की पंखुड़ियों को खाने के प्रयासों के संकेत हो सकते हैं। वहीं दूसरी ओर पेड़ों से गिरे हुए इन फूलों को चिंकारा (Gazella bennettii) एवं नीलगाय (Boselaphus tragocamelus) आदि खाते हैं तथा यह रेड-वेंटेड बुलबुल और एंटीलोप के बीच सहभोजिता (commensalism) की प्रक्रिया को दर्शाता है।


फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

तो इस बार जब फरवरी- मार्च माह में जब रोहिड़ा पर फूल आये तो प्रयास करना की आप विभिन्न पक्षियों के साथ रोहिड़ा के मध्य होने वाले इस व्यवहार को देख सकें।