कैलादेवी अभ्यारण्य बाघों के लिए संभावनाओं की भूमि
कैलादेवी अभ्यारण्य वर्षों से विश्व प्रसिद्ध रणथम्भोर टाइगर रिज़र्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है परन्तु सभी ने संरक्षण की दृष्टि से इसे नजरअंदाज किया है, इसी कारण हाल तक यह किसी बाघ का स्थायी हैबिटैट नहीं बन पाया था। मानवीय गतिविधियों के दबाव और कुप्रबंधन से यह भू भाग बाघ विहीन ही रहा है। यहाँ एक ज़माने पहले अच्छी संख्या में बाघ हुआ करते थे। यद्दपि यह अभ्यारण्य आज भी भारतीय भेड़ियों (Indian Gray Wolf) के लिए एक उत्तम पर्यावास है, परन्तु इन्हें बाघ के बराबर हम दर्जा ही नहीं देते, हालाँकि इनकी स्थिति बाघों से भी बदतर है। परन्तु यह एक अलग बहस का मुद्दा है। कालांतर में कभी कभार घूमते फिरते नर बाघ, इस क्षेत्र में कुछ समय के लिए आते जाते रहे है, लेकिन मादा बाघ आते भी कम हैं और वह यहाँ लम्बे समय तक रुककर, इसे अपना आशियाना बना के अपना परिवार भी बसा लेते हैं। यह इस सवेदनशील प्राणी के लिए और भी दुस्कर कार्य है।
बाघ जहाँ मानवीय दबाव से नहीं पनप रहे वहीँ मानव इसलिए दुखी है, क्योंकि इस स्थान में संरक्षण के अत्यंत कड़े कानून लागु है। जिस प्रकार बाघ तनाव में है, उसी प्रकार यहाँ कमोबेश इंसान भी कम मुश्किल में नहीं है, इस दुविधा को कैलादेवी के एक गांव सांकड़ा में आठ गुर्जर भाइयों की जिंदगी में झाँकने से समझा जा सकता हैं, इन आठों में से मात्र एक ही भाई – बद्री गुर्जर की शादी हो पायी है, एवं बद्री के भी आठ लड़के हुए, उनमें से भी मात्र एक बेटे – जगदीश गुर्जर ही की शादी हो पायी है। यानि कुल सोलह व्यक्तियों में से मात्र दो लोगों की ही शादी हो पायी है। इस तरह के मसले कैलादेवी के सभी गाँवो में एक सामान्य बात है, इस क्षेत्र में लड़को की शादियां अत्यंत ही मुश्किल काम है, क्योंकि कैलादेवी के वन प्रबंधन से पैदा हुए माहौल में, यह इलाका अभावग्रस्त और कष्टप्रद होता जा रहा है, जहाँ लोग अपनी लड़कियों की अभ्यारण्य के गाँवो में शादियां ही नहीं कराते है। वहीँ दूसरी तरफ लोगों के संसाधनों के बेतरतीब दोहन के कारण बाघ भी भारी दबाव में है।
निष्कर्ष यह है की यहाँ न तो नर बाघों को आसानी से बाघिनों का साथ मिलता है, न ही लड़कों को आसानी से शादी के लिए लड़कियां मिलती हैं।
परन्तु पांच वर्षों से यहाँ एक शुरुआत हुई है, जब कुछ बाघों ने इस कठिन अभ्यारण्य को अपनाया एवं कुछ प्रतिबद्ध लोगों ने उनकी मुश्किलों को आसान किया। इन लोगों में कुछ नए ज़माने के वन अधिकारी एवं वन रक्षक कर्मचारी हैं तो साथ ही इस कार्य में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई टाइगर वाच के टाइगर ट्रैकर टीम के सदस्यों ने ।
लगभग पांच साल (14 अगस्त 2015) पहले टाइगर वॉच का एक टाइगर ट्रैकर बाघ का एक फोटो लेकर आया, असल में यह टाइगर की पीठ के एक थोड़े से हिस्से का फोटो था, क्योंकि बाघ कैमरा ट्रैप के एकदम नजदीक से होकर निकला था। कैलादेवी अभ्यारण्य में बाघ का होना ही एक बड़ी घटना था। परन्तु आधे अधूरे फोटो से भी बाघ की पहचान हो गयी, यह बाघ कुछ समय से रणथम्भोर में से लापता हुए एक ‘सुल्तान’ नामक बाघ की थी। चिंतातुर वन अधिकारी भी आस्वस्त हुए की चलो ‘सुल्तान बाघ’ कैलादेवी में सुरक्षित है।
कैलादेवी अभ्यारण्य एक विशाल भूभाग है, जहाँ रणथम्भोर के बाघों को विस्तार के लिए अपार सम्भावनाये हैं। कैलादेवी के पास का करौली सामाजिक वन क्षेत्र भी अत्यंत खूबसूरत एवं तुलनात्मक रूप से ठीक ठाक वन क्षेत्र है। इन दोनों वन क्षेत्रों से भी कहीं अच्छा वन पास के धौलपुर जिले का है। यह तमाम वन अभी तक भी उपेक्षित एवं कुप्रबंधन के शिकार है। लाल सैंडस्टोन के अनियंत्रित खनन एवं हज़ारों की संख्या में पालतू एवं आवारा पशुओं की चराई से बर्बाद हो रहे हैं। यह लाल सैंडस्टोन वही है जिस से लाल किला या दिल्ली की अधिकतर ऐतिहासिक इमारते बनी हैं।
इन वनों की सुरक्षा से मानो सभी ने वर्षों से पल्लाझाड़ रखा हैं। अब तो लोग कोटा, बूंदी, अलवर एवं राजसमंद के वनों में बाघ स्थापित करने की बात करने लगे हैं, परन्तु करौली एवं धौलपुर को मानो ऐसी फेहरिस्त में डाल दिया है, जिनमें कोई सुधार की गुंजाईश नहीं हैं। जबकि यह वन मध्य प्रदेश के विशाल वनों से जुड़े हुए हैं।
कैलादेवी में मानवीय दखल को कम करने एवं संरक्षण की रणनीति बनाने के लिए मेरे आग्रह पर पहली बार रणथम्भोर के मानद वन्यजीव पालक श्री बालेंदु सिंह ने तत्कालीन वनमंत्री श्रीमती बीना काक को कैलादेवी जाने का सुझाव दिया एवं उन्होंने तय किया की कैलादेवी के लिए एक कंज़र्वेशन प्लान बनाया जाये, जिसमें एक रणनीति के तहत कार्य किया जाये एवं उसमें बसे हुए गाँवो का विस्थापन मुख्य मुद्दा था, परन्तु इतने गाँवो और लोगों को किस तरह विस्थापित किया जाये ? यह एक सबसे बड़ी समस्या थी। इसके लिए टाइगर वॉच द्वारा संकलित डाटा के आधार पर एक प्लान बनाया गया, 3 कोर एरिया बनाये जाने का प्रस्ताव दिया गया। यह प्रस्ताव का मुख्य उदेस्य था, कम से कम लोगों का विस्थापन किया जाये एवं अधिक से अधिक भू भाग को बाघों के लिए उपयोगी बनाया जाये।
कैलादेवी के 66 गाँवो में लगभग 5000 परिवारों में 19,179 लोग रहते है। हालाँकि अभ्यारण्य मात्र इन्ही गाँवों के दबाव में नहीं है बल्कि पशु पालकों के 50 से अधिक अस्थायी कैंप भी लगते हैं जिन्हे स्थानीय भाषा में “खिर्काडी” कहा जाता हैं, इनमें लगभग 35,000 से अधिक भैंस आदि अभ्यारण्य में बारिश के 3 – 4 माह चराई के लिए आते हैं। इनके अलावा 75 से अधिक गांव अभ्यारण्य के परीक्षेत्र पर भी हैं। यह इतना प्रचंड मानवीय दबाव हैं के इसे कम किये बिना बाघों का संवर्धन संभव ही नहीं है। आज लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े कैलादेवी में रहती है एवं इसी तरह लगभग इतने ही और पशुओं का दबाव बाहरी गाँवों से अभ्यारण्य पर बना रहता है। खैर जहाँ रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान में 110 से अधिक जंगली प्राणी प्रत्येक वर्ग किलोमीटर में बाघ के लिए उपलब्ध हैं, वहीँ कैलादेवी में इसके विरुद्ध 110 से अधिक पालतू पशु पर्यवास पर अपना दबाव डाल रहे है। यदि कोई बाघ या बघेरा इन्हे मार दे तो उनके प्रति और अधिक कटुता पैदा होती जाती है। और उनको बदले में जहर देकर मारना एक सामान्य बात रही हैं।
स्वास्थ्य,शिक्षा, मूलभूत एवं आधारभूत संसाधनों से वंचित लोग अभी तक अपंने पारम्परिक व्यवसायों से अपना पालन करते हैं, परन्तु इनकी नई पीढ़ियां नए ज़माने की चकाचोंध में अपने पारम्परिक कार्यों से भी दूर जा रही है एवं इस द्वन्द में है की किस प्रकार वह अपना भविष्य बनाये। यह द्वन्द उन्हें वन्यजीवों के संरक्षण के प्रति और अधिक नकारात्मक बना रहा है। जंगल के नियम कायदे इस नई पीढ़ी को और भी कठोर लगते हैं।
संरक्षण एक महंगा काम है, धनाभाव में वन विभाग कैलादेवी में मात्र अपनी उपस्थिति ही रख पाया है, धरातल पर कोई अधिक संरक्षण कार्य सम्पादित नहीं कर पाये। सुझाये गए तीन कोर के पीछे मुख्य आधार दो बिंदु रहे – कम आबादी वाले क्षेत्र का विस्थापन के लिए चयन ताकि कम से कम लोगों को विस्थापित किया जाये एवं अधिक से अधिक भूमि बाघों के लिए बचायी जाये एवं ऐसे भौगोलिक स्थानों का चयन जो प्राकृतिक रूप से स्वयं संरक्षित हो तथा जिन्हे बचाना आसान हो।
इन प्रस्तावित तीन कोर क्षेत्रों का क्षेत्रफल लगभग कुल मिला कर 450 वर्ग किलोमीटर बनता है। यह लगभग रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान से अधिक बनता है एवं इसके विकसित होने पर इस क्षेत्र में 50 अतिरिक्त बाघ रह सकते हैं।
इस रणनीति पर बनी योजना पर कार्य प्रारम्भ भी हुआ इसे गति मिली जब वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार राजस्थान में थी। परन्तु अभी और कार्य बाकि हैं। कैलादेवी के संरक्षण के लिए जाने माने बाघ विशेषज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने अथक प्रयास किये। मेरे कैलादेवी के भेड़ियों पर किये गए काम से प्रभावित श्री वाल्मीक थापर एवं पुलिस प्रमुख श्री अजित सिंह ने कैलादेवी में कुछ भृमण किये और तय किया की क्यों न हम इस अभ्यारण्य को संसाधनों से संपन्न करें।
वाल्मीक थापर के सुझाव पर रणथम्भोर टाइगर कंज़र्वेशन फाउंडेशन से 5 करोड़ की निधि कैलादेवी के विकास के लिए दी गयी। इस धन से अभ्यारण्य और अधिक सक्षम बना एवं सरकार की इस मनसा को स्थापित किया के अब रणथम्भोर की तर्ज पर यहाँ भी काम होगा ।
नए काबिल अधिकारी लगाए गए इसी क्रम में सबसे बड़े भागीदार बने उस समय के उपवन संरक्षक श्री कपिल चंद्रवाल जिन्होंने पहली बार कैलादेवी को गंभीरता से लिया । कुछ समय पश्च्यात कैलादेवी को एक और नए उपवन संरक्षक मिल गए श्री हेमंत शेखावत, इन्होने अभ्यारण्य के स्टाफ को जिम्मेदार बनाया और टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम को और अधिक सशक्त बनाया और उनको संरक्षण के कार्य के लिए प्रेरित किया। श्री शेखावत वन प्रबंधन में इच्छा रखने वाले काबिल अधिकारी हैं। परन्तु कुछ कुण्ठित अधिकारियों ने श्री हेमंत शेखावत का तबादला बेवजहऐसे स्थान पर किया जहाँ वन्यजीव दूर-दूर तक नहीं हो। एक ऊर्जावान अफसर की इस प्रकार की उपेक्षा वन विभाग की छवि को धूमिल करती है। खैर कैलादेवी को फिर तीसरा कर्मठ उपवन संरक्षक मिला श्री नन्दलाल प्रजापत। यह अतयंत ईमानदार एवं प्रतिबद्ध अफसर रहे।
टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम असल में स्थानीय ग्रामीणों से बनी एक अनोखी टीम है। जिसे “विलेज वाइल्डलाइफ वालंटियर्स” कहा जाता हैं। यह टीम 2013 से कार्यरत हैं जिसे देश भर में सरहा गया हैं। इसके बारे में यहाँ अधिक विस्तार में जाना जा सकता हैं – Wildlife Warriors -The Village Wildlife Volunteers Programme by Ishan Dhar & Meenu Dhakad (https://tigerwatch.net/wp-content/uploads/2019/10/Book-Wildlife-Warriors.pdf)
जहाँ एक तरफ विभाग और स्वतंत्र लोग सक्रीय हुए वहीँ बाघों ने भी अपने प्रयास बढ़ा दिए:
सुल्तान के बाद एक और बाघ कैलादेवी पहुँच गया नाम था तूफान (T80) जिसे भी टाइगर वॉच टीम ने कैलादेवी में आते ही कैमरा ट्रैप में कैद कर लिया, यह प्रथम बार 17 जनवरी 2017 को देखा गया। परन्तु इसके वहां पहुँचते ही उसके दबाव से सुल्तान (T72) अपने क्षेत्र को छोड़ ना जाने कहीं और निकल गया। टाइगर वॉच टीम पुनः गहनता से T72 ढूंढ़ने लगी और एक अनोखी सफता मिली के T72 के साथ एक और बाघिन T92 कैमरा ट्रैप में कैद हो गयी। यह स्थान था, मंडरायल कस्बे के पास निदर का तालाब क्षेत्र में। यह कई वर्षों बाद हुआ, जब कोई मादा कैलादेवी में पायी गयी। T92 एक अल्प वयस्क बाघिन थी जो 2 वर्ष पुरे होते ही, अपनी माँ T11 को छोड़ नए स्थान को ढूंढ़ने निकल गयी। T92 को नाम दिया गया सुंदरी। मेरे पिछले 18 वर्ष के रणथम्भोर अनुभव बताते है, की इतने वर्षों में सात नर बाघ – T47, T07, T89, T38, T72 , T80 & T116 कैलादेवी पहुंचे परन्तु इतने ही वर्षों में मादा बाघ मात्र एक ही गयी और वह थी यही T92।
बाघों का कुनबा बढ़ने लगा:
लगभग एक वर्ष के पश्च्यात टाइगर वॉच टाइगर ट्रैकिंग टीम के सदस्य बिहारी सिंह के मोबाइल से एक अजीबो गरीब सन्देश मेरे पास आया की एक बाघ गहरी खो (gorge) में दो सियारों के साथ घूम रहा है, और दोनों सियार उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। यह स्थान मेरे से 140 किलोमीटर दूर था, परन्तु मैंने ऑफिस के मुख्य स्टाफ को अपने साथ ले लिया के चलो आज कुछ खास देखने चलते है। मुझे पता था, के यह सियार नहीं हो सकते, यदपि यह ट्रैकिंग टीम का कोई कोड मैसेज भी नहीं था, परन्तु यह उनका अवांछनीय सावधानी का एक हास्यास्पद नमूना भर था। मेरी समझ में आ चूका था, के यह बाघिन T92 के साथ उसके शावक के अलावा कुछ और नहीं हो सकता । सुचना आने के लगभग 3 घंटे बाद मध्य अप्रैल (14 /04 /2018) के गर्म दिन में दोपहर चार बजे करौली- मंडरायल सड़क के किनारे की एक गहरी खो में बाघिन (T92) बैठी थी, कुछ ही पल बाद वहां दो छोटे (3 -4) माह के शावक उसके पास बैठ के उसका दूध पिने लगे। यह सब नजारा हम 7 लोग 200 मीटर दूर खो के ऊपरी किनारे से देख रहे थे। यह एक बेहद शानदार पल था, जिसके पीछे अनेक लोगों की कड़ी मेहनत थी। मादा सुंदरी (T92) के इन दोनों शावकों का पिता नर सुल्तान (T72) भी अपनी जिम्मेदारी गंभीरता से ले रहा था। उसी दिन अप्रत्यक्ष प्रमाण मिले के सुल्तान T72 ने गाय का शिकार किया था एवं उसे वह लगभग एक किलोमीटर घसीट कर उस तरफ ले आया जहाँ T92 भी उसे आसानी से खा सके।
शावक बड़े होने लगे और दोनों शावक माँ से अलग हो गये एवं इनको नए कोड नाम दिए गए T117 (श्री देवी) एवं T118 (देवी) एवं अचानक से एक और बाघ के रणथम्भोर से कैलादेवी आने की खबर आयी। DFO श्री प्रजापत जी के विशेष आदेश पर टाइगर वॉच की टीम को उसकी मॉनिटरिंग के लिए लगाया गया और कुछ दिनों में टाइगर वॉच के टाइगर ट्रैकिंग टीम के केमरा ट्रैप में इस नए मेहमान की फोटो ट्रैप हुई जिसकी पहचान हुई की बाघ T116 के रूप में, जो रणथम्भोर के कवालजी वन क्षेत्र से निकल कर आया है, और 100 किलोमीटर से अधिक दुरी तय कर यह बाघ धौलपुर पहुँच गया। इस दौरान टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम ने अपने तय कार्य को छोड़ T116 को धौलपुर आदि क्षेत्र में ढूढ़ने में लगी रही क्योंकि वन विभाग के नव नियुक्त बायोलॉजिस्ट ने मंडरायल को पूरी तरह सँभालने का दावा करने लगा। अनुभवहीन व्यक्ति को नेतृत्व देने का फल अत्यंत कष्ट दायक रहा। अचानक से एक दिन फरवरी 2020 में बाघिन T92 कहीं गायब हो गयी। महीनों की तलाश के बाद तय हुआ की वह नहीं मिलेगी। स्थानीय वाइल्ड लाइफ बायोलॉजिस्ट फिर अपनी अकर्मण्यता को छुपाते हुए, मन बहलाने के लिए बोलने लगा की बाघिन मध्य प्रदेश चली गयी और शायद यही सब को सुनना था, सो महकमा संतोष करके बैठ गया।
घटनाक्रम (Chronology)14 अगस्त 2015: सुल्तान टाइगर T72 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया। 17 जनवरी 2017: तूफान टाइगर T80 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी – कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया। 30 जनवरी 2017: सुंदरी बाघिन T92 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा निदर की डांग- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप कि गयी । 14 अप्रैल 2018: बाघिन सुंदरी के शावक प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा जाखौदा की खो – कैलादेवी में कैमरा से फोटो लिया गया। 04 जनवरी 2020: बाघ T116 को गिरौनिया खो -धौलपुर में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा कैमरा ट्रैप किया गया। 09 जनवरी 2021: बाघिन T117 को पहली बार दो शावकों के साथ देखा गया एवं एक सप्ताह में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा रींछड़ा गिरौनिया -धौलपुर में कैमरा ट्रैप किया गया। 23 जनवरी 2021: बाघिन T118 को पहली बार दो शावकों के साथ प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा घोड़ी खो कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया। |
उधर धौलपुर में T116 के क्षेत्र में कई गायों के शिकार मिले, तो लगने लगा, यहाँ एक से अधिक बाघ विचरण कर रहे हैं, और यही हुआ इसी वन क्षेत्र में एक बाघिन शावक T117 का विचरण भी मिल गया एवं उसकी फोटो भी कैद हो गयी। अत्यंत शर्मीली बाघिन वर्ष 2020 में धौलपुर में मात्र 18 बार कैमरा ट्रैप में कैद हुई, परन्तु नर T116 इसके बजाय 69 बार कैमरे में कैद हुआ। यानि 4 गुना अधिक बार हम उसके रिकॉर्ड प्राप्त कर पाए। यह हर बार आवश्यक नहीं की वह कैमरे में कैद हो, परन्तु उसके पगमार्क आदि सप्ताह में 3-4 बार मिलना यह सुनिश्चित करता है की बाघ सुरक्षित है। इसी विधि से टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम निरंतर कार्य करती है। कुछ दिनों में बाघिन T117 भी मिल गई एवं इसको ढूंढ़ते हुए तूफान (T80) भी मिल गया। यह दोनों करौली के सामाजिक वानिकी क्षेत्र में मिले।
पहली बार घुमंतू बाघों को बाघिन मिल गई एवं यह नर बाघ इन्ही के क्षेत्र में बस गए। जहाँ तूफान बाघ रणथम्भोर के भदलाव, खण्डार, बालेर, महाराजपुरा एवं नैनियाकि रेंज के 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को घूमा करता था, वहीँ आज वह मात्र T118 के नजदीक रहने लगा। उधर बाघों के धौलपुर पहुँचते ही पूर्व मुख्यमंत्री महोदया श्रीमती वसुंधरा राजे ने मुझे फ़ोन कर ताकीद किया के “इन बाघों पर कड़ी नजर रखो एवं यदि किसी प्रकार की आवस्यकता हो तो उन्हें सीधे सूचित किया जाये”। बाद में उनके खास सलाहकार रहे वन अधिकारी श्री अरिजीत बनर्जी भी समय-समय पर खोज खबर लेते रहे। इन दोनों की व्यक्तिगत रूचि ने हमें और हमारी टीम को और अधिक सतर्क बना दिया। उनकी बाघों के प्रति गंभीरता अत्यंत प्रभावित करने वाली थी। अचानक से वह दिन आया जिसका इंतजार था, बाघिन T117 एवं T118 दोनों के ही जनवरी 2021 के एक सप्ताह में शावकों की फोटो टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम के केमरे में दर्ज हो गयी। यह अत्यंत खुशी का पल था, सभी टीम सदस्य खुश और उत्साहित थे की इस बार भी टाइगर वॉच की टीम ने इनको सबसे पहले दर्ज किया। आज मंडरायल-करौली एवं सरमथुरा-धौलपुर में नो बाघ पल रहे है, इन्होने स्वयं यह जगह तलाशी और स्थापित किया के बाघों के लिए इस इलाके में संभावनाएं हैं।
यह टाइगर वॉच की इस टाइगर ट्रैकिंग टीम जिसे विलेज वाइल्ड लाइफ वालंटियर्स के नाम से जाना जाता हैं को श्री योगेश कुमार साहु ने स्थापित किया हैं, एवं उनकी प्रेरणा से 2013 में इस टीम को स्थापित किया गया एवं फिर जाने माने बाघ विषेशज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने इसे और अधिक संवर्धित किया। वन्यजीव मंडल के सदस्य श्री जैसल सिंह ने इसे वित्तीय सहायता देकर पोषित किया एवं आगे बढ़ाया। यदपि इसके पीछे अनेकोनेक लोगों ने संसाधनों को जुटाया है। वनविभाग भी कुछ वर्षो से इसे वित्तीय सहायता दे रहा है। यह आज विभाग के एक अंग की तरह कार्य कर रहा है।
विभाग के कुछ कुण्ठित अफसर ने इस कार्यक्रम को कमजोर करने एवं इसके टुकड़े कर एक अलग संगठन खड़ा करने का प्रयास भी किया परन्तु उन्हें अधिक सफलता नहीं मिल पाई। आज यह टीम मजबूती से अपने कार्य को सम्पादित कर रही है।
कैलादेवी को वन विभाग ने दो हिस्सों में बांटा था, क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट (CTH) एवं बफर। बाघों के मामलों पर नियंत्रण रख ने वाली केंद्रीय संस्था NTCA ने अस्वीकार कर दिया के प्रस्तावित बफर को भी CTH ही बनाओ, क्योंकि यह अभ्यारण्य का हिस्सा है। खैर यह मसला आज तक हल नहीं हुआ। परन्तु बाघों ने यह स्थापित कर दिया के कैलादेवी के CTH से अधिक अच्छा क्षेत्र प्रस्तावित बफर वाला रहा है। यह एक नमूना है विभाग के कागजी प्लान का जो टेबल पर ही बना है। यद्दपि वन विभाग के अनेक वनरक्षक आज सीमा पर प्रहरी की भांति डटे है एवं उन्ही की बदौलत कैलादेवी जैसे विशाल भूखंड संभावनाओं से भरे हैं।
सुंदरी बाघिन T92 की तलाश के लिए करौली पुलिस के एक नए IPS अफसर – श्री मृदुल कछावा ने कई प्रयास किये भी थे, परन्तु शायद नियति को कुछ ज्यादा मंजूर नहीं था। उन्होंने कुछ शिकारी गिरफ्तार भी किये परन्तु अधिक कुछ स्थापित नहीं हो पाया।
परन्तु उसका बैचेन साथी सुल्तान आज भी अपनी प्रेयसी की तलाश में इधर-उधर घूमता है, और शायद हम सभी को कोसता होगा के हम सब मिलकर एक लक्ष्य के लिए कब कार्य करेंगे और कब स्थानीय लोग बाघों को उनका पूरा हक़ लेने देंगे ?