अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली की आभा: मामेर से आमेर तक

अरावली, थार रेगिस्तान को उत्तरी राजस्थान तक सीमित रखे और विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है। इसके 800 किलोमीटर के विस्तार क्षेत्र में 20 वन्यजीव अभयारण्य समाये हुए हैं, आइए इसकी विविधता कि एक छोटी यात्रा पर चलते है…

संसार की सबसे प्राचीनतम पर्वत श्रखलाओ में से एक अरावली, भारत के चार राज्यों गुजरात, राजस्थान, हरियाणा एवं  दिल्ली तक प्रसारित है। अरावली का अधिकतम विस्तार राजस्थान में ही है। तो इसके प्राकृतिक वैभव को जानने के लिए, आइये चलते है दक्षिणी राजस्थान के मामेर से उत्तर दिशा के आमेर तक।

मामेर, गुजरात राज्य की उत्तरी सीमा के पास बसे धार्मिक नगरों खेड़ब्रम्हा एवं अम्बाजी के पास स्थित है। यहाँ अरावली की वन सम्पदा देखते ही बनती है। प्रसिद्ध फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य यहाँ से शुरू होकर उत्तर दिशा तक विस्तारित है। तो वहीँ मामेर की पश्चिमी दिशा की ओर से माउन्ट आबू अभयारण्य पहुंचा जा सकता है, जो राजस्थान का एकमात्र “हिल स्टेशन” है। फुलवारी, अरावली का एक मात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ धोकडा यानि एनोजीसस पेंडुला (Anogeissus pendula)  प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता। अभयारण्यों में यही अकेला ऐसा अभयारण्य है जहाँ राजस्थान के सुन्दर बांस वन पाए जाते हैं।

अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़ (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इस क्षेत्र में आगे चलते है तो रास्ते में वाकल नदी आती है, यह नदी कोटड़ा के बाद गुजरात में प्रवेश कर साबरमती से मिल जाती है। वाकल नदी को पार कर डेढ़मारिया व लादन वनखंडो के सघन वनों को देखते हुए रामकुंडा पंहुचा जा सकता है। यहाँ एक सूंदर मंदिर एवं एक झरना भी है जो वर्षा ऋतु में दर्शनीय हो जाता है। यहीं एक कुंड में संरक्षित बड़ी-बड़ी मछलिया भी देखने को मिलती है।

इसी क्षेत्र में पानरवा नामक स्थान के पास सोमघाटा स्थित है जिस से होकर किसी समय में अंग्रेज़ रेजीडेंट, खैरवाड़ा, बावलवाड़ा होकर पानरवा के विश्राम स्थल में ठहरकर कोटड़ा छावनी पहुंचते थे। पानरवा से मानपुर होकर कोल्यारी के रास्ते कमलनाथ के पास से झाड़ोल पंहुचा जा सकता है। यह क्षेत्र “भोमट” के नाम से जाना जाता है। झाड़ोल के बहुत पास का क्षेत्र ” झालावाड़ ” कहलाता है। अरावली के इस क्षेत्र में चट्टानों पर केले की वन्य प्रजाति (Ensete superbum) उगती है। झाड़ोल के पास स्थित मादडी नामक गांव में राज्य का सबसे विशाल बरगद का पेड़ स्थित है तथा यहीं मादडी वनखंड में राज्य का सबसे बड़ा ” बॉहिनिया  वेहलाई ” (Bauhinia vahlii) कुञ्ज भी विध्यमान है।

उत्तर की तरफ बढ़ने पर जूड़ा, देवला, गोगुंदा आदि गांव आते हैं। फुलवारी की तरह, यहां भी मिश्रित सघन वन पाए जाते हैं तथा इस क्षेत्र में अरावली की पहाड़ियों पर मिट्टी की परत उपस्थित होने के कारण उत्तर व मध्य अरावली के मुकाबले यहाँ अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के “नाल वन” जो दो सामानांतर पर्वत श्रंखला के बीच नमी वाले क्षेत्र में बनते हैं दर्शनीय होते हैं। नाल सांडोल, केवड़ा की नाल, खोखरिया की नाल, फुलवारी की नाल, सरली की नाल, गुजरी की नाल आदि इस क्षेत्र की प्रसिद्ध नाल हैं। जिनके “रिपेरियन वन” (नदी या नालों के किनारे के वन) सदाबहार प्रजातियों जैसे आम, Syzygium heyneanum (जंगली जामुन), चमेली, मोगरा, लता शीशम, Toona ciliata, salix, Ficus racemosa, Ficus hispida, Hiptage benghalensis (अमेती), कंदीय पौधे, ऑर्किड, फर्न, ब्रयोफिट्स आदि से भरे रहते हैं।

अरावली, विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

अरावली के दक्षिणी भाग में Flying squirrel, Three-striped palm squirrel, Green whip snake, Laudankia vine snake, Forsten’s cat snake, Black headed snake, Slender racer, Red spurfowl, Grey jungle fowl (जंगली मुर्गा), Red whiskered bubul, Scimitar babbler (माऊंट आबू), White throated babbler आदि जैसे विशिष्ट प्राणी निवास करते है। राज्य की सबसे बड़ी मकड़ी “जायन्ट वुड स्पाइडर” यहाँ फुलवारी, कमलनाथ, कुम्भलगढ़ व सीतामाता में देखने को मिलती है तथा राज्य का सबसे बड़ा शलभ “मून मॉथ ” वर्षा में यहाँ जगह-जगह देखने को मिलता है। कभी बार्किंग डीयर भी यहाँ पाए जाते थे। सज्जनगढ़ व इसके आसपास भारत की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” भी देखने को मिलती है।

देवला के बहुत पास पिंडवाडा रोड पर सेई नामक बाँध पड़ता है, जिसे “इम्पोटेंड बर्ड एरिया” होने का गौरव प्राप्त है। राजस्थान के 31 मान्य आई.बी.ए में से 12 स्थान; जयसमंद झील व अभयारण्य, कुंभलगढ़, माऊंट आबू, फुलवारी, सरेसी बाँध, सेई बाँध, उदयपुर झील संकुल एवं बाघदड़ा आदि, दक्षिण राजस्थान में अरावली क्षेत्र व उसके आसपास विध्यमान हैं।

आइये देश के सागवान वनों की उत्तर व पश्चिम की अंतिम सीमा, सागेटी, चित्रवास व रीछवाडा की ओर बढ़ते हैं। इस क्षेत्र से पश्चिम में जाने पर पाली जिले की सीमा आ जाती है। यहाँ सुमेरपुर से होकर सादडी, घाणेराव आदि जगह का भू – भाग “गोडवाड़” के नाम से जाना जाता है। गोडवाड़  में अरावली व थार का मिलन होने से एक मेगा इकोटोन बनता है जो अरावली के पश्चिम ढाल से समान्तर आगे बढ़ता चलता है।

कुंभलगढ़ अभयारण्य, सागवान वितरण क्षेत्र के अंतिम बिंदु से प्रारम्भ होता है जो देसूरी की नाल को लांघते ही रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य के जंगलों से मिल जाता है। इस क्षेत्र में जरगा व कुम्भलगढ़ के ऊंचे पर्वत शिखर देखने को मिलते हैं। जरगा, माउंट आबू के बाद सबसे ऊंचा स्थल है। इस क्षेत्र की आबोहवा गर्मी में सुहानी बनी रहती है। गोगुन्दा व आसपास के क्षेत्र में गर्मी की रातें काफी शीतल व सुहावनी रहती है। इस क्षेत्र में दीवारों, चट्टानों व वृक्षों पर लाइकेन मिलती हैं। जरगा में नया जरगा नामक स्थान पश्चिमी ढाल पर व जूना जरगा पूर्वी ढाल पर दर्शनीय मंदिर है एवं पवित्र वृक्ष कुज भी है। कुंभलगढ़ व जरगा में ऊंचाई के कारण अनेकों विशिष्ट पौधे पाए जाते हैं। यहाँ Toona ciliate, Salix, Salix tetrandra, Trema orientalis, Trema politoria, Ceasalpinia decapetala, Sauromatum pedatum आदि देखने को मिलते हैं। जरगा पहाड़ियों को पूर्वी बनास का उद्गम स्थल माना जाता है। जरगा के आसपास बनास के किनारे विशिष्ट फर्नो का अच्छा जमाव देखा जाता है। वेरो का मठ के आस पास मार्केंशिआ नामक ब्रायोफाइट देखा गया है। कुंभलगढ़ में ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के अनेकों स्थान है तथा कुछ स्थान जैसे कुंभलगढ़ किला, रणकपुर मंदिर , मुछाला महावीर, पशुराम महादेव आदि मुख्य दर्शनीय स्थान है।

आगे चलते है रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य की ओर। इतिहासकार कर्नल टॉड के नाम से जुडी रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य वन्यजीवों से भरपूर है। यहाँ आते-आते वन शुष्क पर्णपाती हो जाते है तथा पहाड़ पथरीले नजर आते है। यहाँ धोकड़ की क्लाइमैक्स आबादी को देखा जा सकता है। यह अभयारण्य ग्रे जंगल फ़ाउल की उतरी वितरण सीमा का अंतिम छोर है।

उतर दिशा में आगे बढ़ने पर राजसमन्द एवं अजमेर के बीच पहाड़ियां शुष्क होने लगती है। धोकड़े के जंगलो में डांसर व थूर का मिश्रण साफ़ दीखता है और सघनता विरलता में बदल जाती है। इसी भाग में सौखालिया क्षेत्र विद्यमान है जो गोडवान (Great Indian bustard) के लिए विख्यात है। कभी – कभार खड़मोर (Lesser florican) भी यहाँ देखने को मिलता है। यहाँ छितरे हुए गूगल के पेड़ मिलते हैं जो एक रेड डेटा प्रजाति है। इस भाग में आगे बढ़ने पर नाग पहाड़ आता है जो की काफी ऊँचा है, जहाँ कभी सघन वन एवं अच्छी जैव विविधता पायी जाती थी।

हमारी यात्रा के अंतिम पड़ाव में जयपुर के पहाड़ आते हैं और यहीं पर स्थित है, आमेर।  झालाना व नाहरगढ़ अभयारण्य में अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन हैं। कभी यहाँ बाघ तथा अन्य खूंखार प्राणियों की बहुतायत हुआ करती थी। यहाँ White-naped tit और Northern goshawk जैसे विशिष्ट पक्षियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहाँ से पास ही में स्थित है सांभर झील। सांभर झील, घना के बाद दूसरा रामसर स्थल है तथा हर वर्ष बहुत प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं । रामसागर और मानसागर इस क्षेत्र के प्रसिद्ध जलाशय हैं जो जलीय जीव सम्पदा के खजाने हैं। कभी रामगढ भी यहाँ का प्रसिद्ध जलाशय हुआ करता था परन्तु मानवीय हस्तक्षेपों के चलते वह सूख गया।

हम रुकते हैं, अभी आमेर में लेकिन अरावली को तो और आगे जाना है, आगे दिल्ली तक!!

राजपूताना मरुभूमि का स्वर्ग: माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य

राजपूताना मरुभूमि का स्वर्ग: माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य

माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक, अरावली पर गुरु शिखर चोटी सहित एक बड़े पठार को आच्छादित करता हुआ रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के सबसे अधिक देखे जाने वाले हिल स्टेशनों में से एक है…

राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित “आबू क्षेत्र” की जैव विविधता की विश्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग ही पहचान है। सन् 1960 में आबू क्षेत्र के लगभग 114 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को अभयारण्य के रूप में चिह्नित् किया गया था। आबू के नगरीय क्षेत्र की बढ़ती हुई मानव आबादी तथा पर्यटक संख्या की चुनौती से निपटने के लिए सन् 2008 में नये क्षेत्रों को भी आधिकारिक रूप से अभयारण्य में शामिल किया गया तथा ईको-सेन्सिटिव जोन (पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र) की अधिसूचना जारी की गई। वर्तमान में माउण्ट आबू वन्यजीव अभयारण्य का कुल क्षेत्रफल 326 वर्ग कि.मी. के लगभग है। आगामी कुछ वर्षों में मुख्य अभयारण्य क्षेत्र को सुरक्षित करने की दृष्टि से आबू पर्वत के चारों ओर के तलहटी क्षेत्र के कुछ भाग को हरित पट्टिका के रूप में विकसित किया जाने का लक्ष्य भी है।

आबू पर्वत की स्थलाकृति

आबू पर्वत 24°31″-24°43″ उत्तरी अक्षांश व 72°38″-72°53″ पूर्वी देशांतर के मध्य, अरावली के दक्षिण-पश्चिमी भाग में मध्य भारत के उच्चतम शिखर (गुरु शिखर, 1,722 मी.) युक्त पृथक पहाड़ी के रूप में स्थित है। आबू की व्युत्पत्ति संस्कृत व वैदिक नीत अर्बुद अर्थात् उबाल शब्द से हुई है। इसका  उल्लेख बुद्धि प्रदाता पर्वत के रूप में भी किया गया है। समुद्र तल से 1219 मी. पर स्थित यह पर्वत लगभग 19 कि.मी. लम्बाई व 5-8 कि.मी. चौड़ाई वाला मनोरम पठारी विस्तार है।

माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र

आबू पर्वत का इतिहास

विष्णु पुराण में मरुभूमि के रुप में वर्णित अर्बुद प्रदेश अर्थात् अर्बुदांचल या आबू पर्वत (माउण्ट आबू), राजस्थान के हृदय-हार अरावली के दक्षिण-पश्चिम में मुख्य पर्वतमाला से पृथक, मरूधरा में स्वर्ग का आभास देता भू-भाग है। यह देवी-देवताओं एवं ऋषि-मुनियों के पावन व दिव्य चरित्रों से सुवासित, तथा देवासुर संग्राम व् साधु-संतों के कई चमत्कारों के किस्से-कहानियों से भरपूर दिव्य क्षेत्र है। इसे कर्नल जेम्स टॉड ने ‘‘भारत का ओलम्पस” कह कर भी सम्बोधित किया। अनेक सन्दर्भ लेखों में अर्बुदांचल क्षेत्र की पौराणिक व वैज्ञानिक महत्ता का विवरण भी मिलता है। अपनी प्राकृतिक व ऐतिहासिक समृद्धि के लिए विख्यात यह स्थान सभी प्रकृति प्रेमी व जिज्ञासु जनमानस के लिए आकर्षण का केन्द्र है।

सन् 1940 बॉम्बे से छुट्टियां बिताने आए तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी प्रकृतिविद् चार्ल्स मेक्कान ने अपने लेख में अर्बुदांचल का ‘‘मरुभूमि का शाद्वल प्रदेश” के रूप में उल्लेख करते हुए इसकी महत्वता का विवरण इस प्रकार किया “प्रकृतिविद् हेतु यह भूमि अनेक प्रकार के पेङ-पौधों व जीव-जंतुओं से समृद्ध है, पुरातत्ववेत्ताओं के लिए यह क्षेत्र अनेक शोध विषयों का स्रोत है, फोटोग्राफर व कलाकारों के लिए मनोरम स्थल है, बाहर से आने वाले पर्वतारोहियों हेतु अनेक सपाट चट्टानें तथा चट्टानों की कन्दराऐं है।

सिरोही राज्य के गजट (1906) में मेजर के. डी. इरस्कीन ने आबू पर्वत की प्राकृतिक स्वरूप एवं भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन करते हुए यहाँ लिखा की “इसकी पश्चिम व उत्तर दिशाएं अत्यन्त ढलाव युक्त है तथा पूर्वी व दक्षिण दिशाओं के बाहरी छोर में गहरी घाटियों युक्त पर्वत-स्कंध को देखा जा सकता है। कोई भी यात्री ऊपर की और चढते हुए इसकी मनमोहक छँटाओ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, विशेषकर आबू पर्वत की चोटियों का निर्माण करती हुई सायनिटिक पत्थरों के विशालकाय शिलाखण्ड”

टोल्मी के भारतीय मानचित्र (सन् 150) me इस क्षेत्र को ‘‘एपोकोपी माउण्ट”अर्थात् पृथक पहाङी के रूप में दर्शाया। मेगस्थनीज ने भी 300 ई.पू. आबू पर्वत का उल्लेख किया जिसका उद्धरण प्लीनी (सन् 23-79) के प्राकृतिक इतिहास में ‘‘मोन्स केपिटेलिया” अर्थात् मृत्यु दंड का पर्वत के रूप में किया गया।

आबू पर्वत का मनोरम दृश्य

आबू पर्वत की जलवायु

आबू पर्वत पर तुलनात्मक रूप से तलहटी की अपेक्षा ऊँचाई वाले क्षेत्र में मौसम ठण्डा व मनभावन रहता है। यहाँ औसत वार्षिक तापमान 20℃ तथा सबसे शुष्क माह का औसत तापमान 26℃ रहता है। ग्रीष्म ऋतु में तापमान 24℃ से 34℃ के मध्य रहता है, मई माह में औसतन 31℃ तापमान देखा गया हैं जब कि शीत ऋतु में तापमान 18℃ से -2℃ रहता है, जनवरी माह में न्यूनतम तापमान 9℃ रहता है। वर्षाकाल जून के तीसरे सप्ताह से सितम्बर माह के अन्त तक रहता है। सामान्यतः अक्तूबर से मई माह तक मौसम सूखा रहता है। आबू पर्वत पर औसत वर्षा 1,639 मि.मी. होती है। यहाँ सबसे अधिकतम वर्षा सन् 1944 में 4,017 मि.मी तथा सबसे न्यूनतम वर्षा सन् 1939 में मात्र 502 मि.मी. रिकार्ड की गयी। वर्ष 1898, 1900-02 व 1938-39 में इस पर्वतीय क्षेत्र को गम्भीर अकाल का भी सामना करना पड़ा। यहाँ में औसतन 8.6 कि.मी. प्रति घण्टे की गति से हवाएँ चलती है जिसकी अधिकतम गति जून-जुलाई माह में 12.8 कि.मी. प्रति घण्टा हो जाती है। शीत ऋतु में हवाएँ सामान्यतः शांत रहती है।

आबू पर्वत का पठारी क्षेत्र

आबू पर्वत के वन

आबू पर्वत अपनी प्राकृतिक, भौगोलिक स्थलाकृति एवं जलवायु विशिष्टताओं के कारण राजस्थान में वनस्पतिक विविधता से समृद्ध क्षेत्र है। आबू  पर्वत के वनों को सन 1936 में एच जी  चैम्पियन द्वारा दक्षिण उप-उष्णकटीबन्धीय नम पहाड़ी वन समूह (7 अ ) में बॉम्बे उप-उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (C 3) में वर्गीकृत किया गया। तत्पश्चात अनेक विशेषज्ञों द्वारा इसके वनों  का विस्तृत अध्ययन किया गया। आई. यू. सी. एन. के आवासीय वर्गीकरण (संस्करण 3.1) के अनुसार आबू पर्वत पर मुख्यतः आठ प्रकार के आवासों को देखा जा सकता है। इनमें काष्ठ वन, झाड़ वन, नम भूमि/जलीय, पथरीली भूमि, कंदराएं व भूमिगत आवास, कृत्रिम स्थलीय, कृत्रिम जलीय, पुरःस्थापित वनस्पति सम्मिलित है।

आबू क्षेत्र में पाए जाने वाला सिल्वर फ़र्न

यहाँ गहरी घाटियों तथा सघन वनस्पति युक्त ठंडे क्षेत्रों में अर्द्ध सदाबहार वन के खण्ड भी दिखाई देते हैं। शुष्क तथा पूर्णतः वनस्पति रहित व उजड़े क्षेत्रों में कटीले झाड़ वन दिखाई देते हैं। सड़क किनारे छायादार क्षेत्र, नम घास के मैदान, खेत व पोखरों के आस-पास झाड़ियों की अधिकता है। आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग एक हजार वनस्पति प्रजातियां पाई जाती हैं जिनकी 40 प्रतिशत समानता पश्चिमी हिमालयी और 30 प्रतिशत समानता पश्चिमी घाट की वनस्पति प्रजातियों से मिलती है। कुछ मुख्य वनस्पति प्रजातियां जो ध्यानाकर्षण करती है – आर्किड, बकाइन, बिच्छु बूटी, सफेद और गुलाबी गुलाब, करौंदा, चम्पा, चमेली की प्रजातियाँ और सात वर्ष में खिलने वाले नीले फूलों से युक्त कारा बहुतायत में पाये जाते हैं। आम, जामुन, कचनार, ऑक, विलोज और यूकेलिप्ट यहाँ स्थापित प्रजातियों में शामिल है।

यूफोर्बिआ (Euphorbia) की झाड़ियां

आबू पर्वत की जन्तु विविधता

आबू पर्वत के सन्दर्भ में कई लेख संकेत करते हैं कि यहाँ कभी शेर (सन् 1872) और बाघ (1970 के दशक) की उपस्थिति हुआ करती थी। वर्तमान में आबू क्षेत्र में 35 स्तनधारी से अधिक प्रजातियां मिलती है जिनमें तेंदुआ, भालू खाद्य श्रृंखला की उच्चतम प्रजातियां है। सम्पूर्ण आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग 290 पक्षी प्रजातियां है जिनमें हरी मुनिया, सिलेटी मुर्गा, लाल चौखरी, भारतीय हंसियाचोंच-चरखी, सिपाही बुलबुल, ललछौंह-पेट चरखी आदि आकर्षण की  केन्द्र हैं। आबू क्षेत्र में लगभग 40 हर्पेटोफोना की प्रजातियां तथा 50 से अधिक तितली प्रजातियों की उपस्थिति देखी गई है।

ग्रीन मुनिया (Green Avadavat)

आबू पर्वत क्षेत्र की जैवविविधता के संरक्षण में स्थानीय भागीदारी

पर्यटन मानचित्र पर आबू पर्वत की पहचान इसके ऐतिहासिक तथा धार्मिक धरोहर की महत्ता के कारण है। मुख्यतः आबू के पठारी भाग तक सिमित पर्यटन अनेक मायनों में उचित भी है क्योंकी हरे-भरे वन में मानवीय हस्तक्षेप न्यूनतम है। प्राकृतिक पर्यटन की असीमित क्षमताओं से युक्त इस वन्यजीव अभयारण्य का स्थानीय  रोज़गार की सम्भावना व अर्थव्यवस्था में अनुपातिक योगदान यहां की जनता के सहयोग से बढ़ाई जा सकती है। इस हेतु स्थानीय जनता का प्रकृति से जुड़ाव एवं संवर्धन के ज्ञान अत्यावश्यक है। वर्तमान में अनेक जागृत जन समूह वन विभाग के सहयोग में तत्पर रहते हैं, परन्तु संरक्षण के अल्पज्ञान के कारण वे अपना पूर्ण योगदान नहीं दे पाते है। कुछ व्यक्ति स्थानीय वानस्पतिक धरोहर का ज्ञान रखतें हैं परन्तु वन विभाग के अतिरिक्त उनके ज्ञान का लाभ सामान्य जन को नहीं मिल पाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मत्वपूर्ण पक्षी प्रजाति हरी मुनिया के संरक्षण तथा इसके आवासों की सुरक्षा स्थानीय लोगों के कारण से ही संभव हो पायी। लेखकों द्वारा चयनित स्थलों के वैज्ञानिक अधययन के अनुसार सन 2004 में संख्या चार सौ से भी कम थी जो सन 2020 में दो हज़ार से अधिक हो गयी है। इस पक्षी की महत्वता व स्थानीय जनता में इसके प्रति बढती लोकप्रियता के कारण ज़िला प्रशासन ने इसे सन 2019 के लोकसभा चुनाव में ज़िले का शुभंकर भी बनाया था। अब समय है कि प्रशासन व वन विभाग एक सुनियोजित प्रकार से प्राकृतिक पर्यटन की दिशा में कार्य कर क्षेत्र की सतत विकास की कल्पना को मूर्तरूप दे। इस विकास को पूर्णतः नियंत्रित रूप से विकसित किया जाये जिससे की भारत के प्रकृति पुरुष के सिद्धांत को चरितार्थ कर स्थानीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में अपना योगदान दिया जा सके।

लेखक:

Dr. Sarita Mehra & Dr. Satya Prakash Mehra (1 & 3) (L to R): Drs. Mehra Couple is the Conservation Biologist involved in the conservation programs in Rajasthan. Both Drs. Mehra restarted their activities at Abu in 2002 which continued with their extensive explorations from 2003-2007 to produce a document on behalf of WWF-India.

Mr. Balaji Kari (2): He is IFS and the present DCF of Mount Abu WLS. He has undertaken several conservation and management measures to overcome the challenges of the Mt Abu WLS. He is actively engaged in the conservation planning of the flagship species along with revising the biodiversity documentation of the Abu Hills.

Mrs. Preeti Sharma (4): Academician by profession, she is involved in the writing of the popular articles on the aspects of eco-cultural aspects and the conservation issues for the common mass. She is compiling the references from the epics and mythological documents which directly deal with the conservation of biodiversity and environmental protection in Indian, in general, and Rajasthan, in specific. Presently, she is Assoc. Professor (Sanskrit) at Shree Vardhman Girls College, Beawar.

राजस्थान में पीले पुष्प वाले पलाश

राजस्थान में पीले पुष्प वाले पलाश

फूलों से लदे पलाश के पेड़, यह आभास देते हैं मानो वन में अग्नि दहक रही है I इनके लाल केसरी रंगों के फूलों से हम सब वाकिफ हैं, परन्तु क्या आप जानते है पीले फूलों वाले पलाश के बारे में ?

पलाश (Butea monosperma) राजस्थान की बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियों में से एक है जो मुख्यतः दक्षिणी अरावली एवं दक्षिणी-पूर्वी अरावली के आसपास दिखाई देती है। यह प्रजाति 5 उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का महत्वपूर्ण अंश है तथा भारत में E5 – पलाश वन बनाती है। E5 – पलाश वन मुख्यरूप से चित्तौड़गढ़, अजमेर, पाली, जालोर, टोंक, भीलवाड़ा, बूंदी, झालावाड़, धौलपुर, जयपुर, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर और राजसमंद जिलों तक सीमित है।

पीले पलाश (Butea monosperma var. lutea) का वृक्ष (फोटो: डॉ. सतीश शर्मा)

राजस्थान में पलाश की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं तथा उनकी विविधताएँ नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत की गई हैं:

क्र. सं. वैज्ञानिक नाम प्रकृति  स्थानीय नाम मुख्य वितरण क्षेत्र फूलों का रंग
1 Butea monosperma मध्यम आकार का वृक्ष पलाश, छीला, छोला, खांखरा, ढाक मुख्य रूप से अरावली और अरावली के पूर्व में लाल
2 Butea monosperma var. lutea मध्यम आकार का वृक्ष पीला खांखरा, ढोल खाखरा विवरण इस लेख में दिया गया है पीला
3 Butea superba काष्ठबेल पलाश बेल, छोला की बेल केवल अजमेर से दर्ज (संभवतः वर्तमान में राज्य के किसी भी हिस्से में मौजूद  नहीं) लाल

लाल पलाश (Butea monosperma) का वृक्ष (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

लाल पलाश के पुष्प (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

Butea monosperma var. lutea राजस्थान में पलाश की दुर्लभ किस्म है जो केवल गिनती योग्य संख्या में मौजूद है। राज्य में इस किस्म के कुछ ज्ञात रिकॉर्ड निम्न हैं:

क्र. सं. तहसील/जिला स्थान वृक्षों की संख्या भूमि की स्थिति
1 गिरवा (उदयपुर) पाई गाँव झाड़ोल रोड 1 राजस्व भूमि
2 गिरवा (उदयपुर) पीपलवास गाँव के पास, (सड़क के पूर्व के फसल क्षेत्र में) 2 राजस्व भूमि
3 झाड़ोल (उदयपुर) पारगीया गाँव के पास (पलियाखेड़ा-मादरी रोड पर) 1 राजस्व भूमि
4 झाड़ोल (उदयपुर) मोहम्मद फलासिया गाँव 2 राजस्व भूमि
5 कोटड़ा (उदयपुर) फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के पथरापडी नाका के पास 1 राजस्व भूमि
6 कोटड़ा (उदयपुर) बोरडी गांव के पास फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के वन ब्लॉक में 4 आरक्षित वन
7 कोटड़ा (उदयपुर) पथरापडी नाका के पूर्व की ओर से आधा किलोमीटर दूर सड़क के पास एक नाले में श्री ननिया के खेत में (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य का बाहरी इलाका) 2 राजस्व भूमि
8 झाड़ोल (उदयपुर) डोलीगढ़ फला, सेलाना 1 राजस्व भूमि
9 झाड़ोल (उदयपुर) गोत्रिया फला, सेलाना 1 राजस्व भूमि
10 झाड़ोल (उदयपुर) चामुंडा माता मंदिर के पास, सेलाना 1 राजस्व भूमि
11 झाड़ोल (उदयपुर) खोड़ा दर्रा, पलियाखेड़ा 1 आरक्षित वन
12 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) जोलर 2 झार वन ब्लॉक
13 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) धरनी 2 वन ब्लॉक
14 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) चिरवा 2 वन ब्लॉक
15 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) ग्यासपुर 1 मल्हाड वन खंड
16 आबू रोड गुजरात-राजस्थान की सीमा, आबू रोड के पास 1 वन भूमि
17 कोटड़ा (उदयपुर) चक कड़ुवा महुड़ा (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य) 1 देवली वन  ब्लॉक
18 कोटड़ा (उदयपुर) बदली (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य) 1 उमरिया वन ब्लॉक
19 कोटड़ा (उदयपुर) सामोली (समोली नाका के उत्तर में) 1 राजस्व भूमि
20 बांसवाड़ा जिला खांडू 1 राजस्व भूमि
21 डूंगरपुर जिला रेलड़ा 1 राजस्व भूमि
22 डूंगरपुर जिला महुडी 1 राजस्व भूमि
23 डूंगरपुर जिला पुरवाड़ा 1 राजस्व भूमि
24 डूंगरपुर जिला आंतरी रोड सरकन खोपसा गांव, शंकर घाटी 1 सड़क किनारे
25 कोटड़ा (उदयपुर) अर्जुनपुरा (श्री हुरता का कृषि क्षेत्र) 2 राजस्व भूमि
26 गिरवा (उदयपुर) गहलोत-का-वास (उबेश्वर रोड) 6 राजस्व भूमि
27 उदयपुर जिला टीडी -नैनबरा के बीच 1 राजस्व भूमि
28 अलवर जिला सरिस्का टाइगर रिजर्व 1 वन भूमि

चूंकि पीला पलाश राज्य में दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। राज्य के कई इलाकों में स्थानीय लोगों द्वारा इसकी छाल पूजा और पारंपरिक चिकित्सा के लिए प्रयोग ली जाती है जो पेड़ों के लिए हानिकारक है। वन विभाग को इसकी रोपाई कर वन क्षेत्रों में इसका रोपण तथा स्थानीय लोगों के बीच इनका वितरण करना चाहिए।