यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।
टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य
इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।
भील बेरी झरना
इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जिसके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा । वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया। टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।
टेल्ड जे तितली।
पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ। यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।
थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।
स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।
मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma), कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है। इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius) ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य धूसर जंगली मुर्गों -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।
वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है
यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए निसंदेह अभिशाप होगी।
वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।
टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep Singh Sandu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.
Since ancient times, the cow has held a special place in Hindu culture, yet expounding on the virtues of this sanctity is often interpreted as a sign of rigid orthodoxy today. However, if you have even the slightest understanding of how ecosystems function, a gaushala in the district of Karauli named the Thekra Gaushala Dham might give you some ideas that might be deemed “out of the box”. For instance, I discovered how a jungle once ravaged by mining could be restored without plantation drives and the like.
Caption 1: Day-long struggles between vultures and jackals make this place unique.
The grazing area of this gaushala is 1790 bighas in size , and it was once decreasing on account of encroachment and of course being heavily damaged as a consequence of illegal mining. Thus complete chaos ensued in the gaushala’s name. Eventually, one fine day a gentleman named Sh. Munna Singh reversed the encroachment on the land with the support of local communities, and also had the illegal mining stopped for good.
2000 cows were given shelter in the Gaushala and due to the untiring efforts of this gentleman, arrangements for sufficient fodder and water were also made.Just as an ecosystem is nourished with manure and earthworms, in almost the same way, 2000 cows continued to fertilize the mining-afflicted soil with nutrients day and night in this vast area.
Caption 2: Migratory Eurasian Griffons
This area is now a safe ecosystem. I first had the opportunity to visit this area when a man-eating tiger from Ranthambhore called T-104 moved towards human habitation and stayed at this gaushala for a week from where the Forest Department moved it to a safer location with the help of the Village Wildlife Volunteers of Tiger Watch. The Village Wildlife Volunteers used to monitor the tiger in this area.
This ecosystem has improved even further with time, and today it is home to over 35 individuals of endemic vulture species and over 200 migratory vultures have been sighted this year. The interactions between these vultures and jackals is worth observing. There is very slight anthropogenic manipulation in the sense that the dead cows of the gaushala become an easy source of food for the vultures and jackals living here.
Caption 3: All the vultures give the jackals a tough fight.
Caption 4: Morning and evening sunlight is very important for the vultures in autumn. Perhaps the light falls straight on the inner wings.
If the Forest Department wishes, it can declare this place a protected area for vultures, so that this endangered group may have another safe haven. For this move, intense attention will have to be paid to the veterinary medicines used in the gaushala and the surrounding areas. Such a campaign can only be taken forward with the cooperation of local people.
Caption 5 : Limitations of food exacerbate conflict.
You can visit this place yourself with the consent of the gaushala management . It is 30 kms from Karauli on the Dholpur road. The gaushala managers are very sensitive towards the vultures, so you must observe the rules set by them.
Caption 6: Sh. Munna Singh, the gentleman responsible for this restored ecosystem.
गोडावण कन्जर्वेशन में जब कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम शुरू हुआ तो लगने लगा गोडावण के संरक्षण में अब गति आएगी, परन्तु यह काम यही तक सिमित रह गया और पिछले दिनों हुई ब्रीडिंग सेंटर पर हुई गोडावण के बच्चों की मौत ने चिंता और भी बढ़ा दी है । पोकरण में जिस अंदाज से परमाणु परीक्षण चुपचाप किया गया लगभग उसी अंदाज में सरकार ने पोकरण के पास ही इस गोडावण कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम को चलाया, किसी से कोई चर्चा नहीं और किसी को उसकी प्रोग्रेस से अवगत भी नहीं किया गया। इसके बावजूद टाइम्स ऑफ़ इंडिया के तेज तर्रार पत्रकार श्री अजय उग्रा ने एक स्थानीय गोडावण प्रेमी के माध्यम से एक तथ्य पूर्ण चौंकाने वाली खबर प्रकाशित कि जिसके अनुसार ६-७ गोडावण के बच्चे काफी बड़ी उम्र पाकर मारे गए और अभी तक कोई उसके उचित कारण जान नहीं पाया है। तो लगने लगा सब कुछ ठीक नहीं है। गोडावण की वर्तमान हालत पर चर्चा करने के लिए तीन महानुभावों से वार्ता करते है ताकि हम गोडावण संरक्षण की दशा और दिशा पर जानकारी प्राप्त कर सके। पहले उनका परिचय
श्री माल सिंह जामडा : आप जैसलमेर के मूल निवासी है और सेना में सेवा देने के पश्चात आर्गेनिक कृषि कार्य में संलग्न है। स्थानीय सामाजिक मुद्दों और गोडावण के मसलो पर गहरी समझ रखते है। राष्ट्रीय स्तर पर गोडावण संरक्षण के लिए सम्मानित किया जा चुका है एवं विभिन्न स्तरों पर गोडावण संरक्षण की मुहिम को आगे बढ़ा रहे है।
डॉ सुमित डूकिया- राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र में जन्मे है वर्तमान में दिल्ली में उच्च शिक्षा से जुड़े है एवं गोडावण संरक्षण के लिए कई प्रकार के कार्यक्रमों का संचालन कर चुके है। शिक्षक होने के नाते कन्जर्वेशन के विज्ञान और लोगों तक बात पहुँचाने में महारत रखते है। आपने उनके युवा लोगों को मरुस्थल के संरक्षण की मुहिम से जोड़ा है।
डॉ दाऊ लाल बोहरा – मरुस्थल निवासी है, आप लम्बे समय से गिद्ध संरक्षण से जुड़े है, एवं उच्च शिक्षा से जुड़ाव ने आप को विषय से निरंतर जोड़े रखा है। आप गोडावण संरक्षण पर कार्य करने वाले लोगों से निरंतर जुड़े है और उनकी कार्य प्रणाली को निरंतर देख रहे है।
प्रत्येक से धर्मेंद्र खांडल ने परिचर्चा की
श्री माल सिंह जामडा
१ सरकार ने गोडावण ब्रीडिंग सेंटर शुरू किया। वन विभाग के अधिकारियों एवं वन्यजीव संस्थान (WII) के वैज्ञानिकों के मध्य क्या कोई तालमेल में कमी नजर आती है ?
उत्तर : हाँ ऐसा लगता है। शुरुआती दौर की तुलना में भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक आजकल यहाँ कम आते है एवं वन अधिकारियों से किसी सहज सवाल का जवाब उनके द्वारा अक्सर यही कह कर दिया जाता है की यह जानकारी हमें नहीं है WII के लोग ही जाने। वन रक्षक भी अक्सर इनके द्वारा अंडे आदि उठाने पर पूरी जानकारी नहीं देने की बाते करते है। WII के वरिष्ठ लोगों को यहाँ और अधिक समय देना चाहिए। वन विभाग के लोग भी यह स्वीकारते है की की अब तक मरे हुए गोडावण के बच्चों की मौत का मुख्य कारण का पता करना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा यह सिलसिला चलते ही रहेगा।
२ क्या इस कार्यक्रम में धनाभाव कोई कारण है ?
उत्तर : धनाभाव कारण नहीं लगता है, यद्यपि एक वरिष्ठ संरक्षणकर्ता जो WII के वैज्ञानिकों के नजदीक है, उनके अनुसार सरकार ने बड़े बाड़े बनाने के लिए अभी तक पैसे नहीं दिए है। परन्तु दैनंदिन के लिए खर्च एवं सैलरी आदि के किसी प्रकार से अभाव नहीं है। शायद बड़े बाड़े में बढ़ते बच्चों को रखना उचित होगा।
३ अब तक लग रहा था सब ठीक है अचानक से 6-7 बच्चों के मारे जाने की खबर कितनी चिंता की बात है ? अथवा यह कार्यक्रम शुरुआती दौर में है और यह प्रक्रिया का सामान्य हिस्सा है।
उत्तर : हाँ यह चिंता की बात है। आप इन्हे बच्चे नहीं समझे यह लगभग वयस्क या अल्पवयस्क अवस्था के पक्षी थे। कुछ नर तो गूलर पाउच भी निकालने लगे थे जो प्रदर्शित करता है की वह कोई चिक अवस्था नहीं थी।
4 वन विभाग अक्सर बाहरी सहयोग नहीं लेती है, परंतु विभाग के सबसे अधिक वैज्ञानिक सोच रखने वाले मरुस्थल विशेषज्ञ डॉ गोबिंद सागर भारद्वाज जैसे लोगों को भी इस कार्यक्रम से दूर रखा गया क्या कारण है ?
उत्तर : शायद कोई ऐसा व्यक्ति विभाग में वर्चस्व रखता जो स्वयं सत्ता के नजदीक है परन्तु विषय से दूर है। ऐसे व्यक्ति सरकार द्वारा गलत फैसले लेने के कारक बनते है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारद्वाज जी को इस से दूर रखा गया एवं उनको राज्य से बाहर सेवा देनी पड़ रही है।
5 आपने गोडावण के बच्चों के मरने का यह मुद्दा उठाया, शायद कई लोग नाराज होंगे, आप उन्हें किस प्रकार का सन्देश देना चाहेंगे ?
उत्तर : उनकी नाराज होने की वजह जायज नहीं है मैंने गोडावण संरक्षण को हरदम सहयोग देने का प्रयास किया है। मेरा व्यक्तिगत किसी से कोई द्वेष नहीं है। हमारे सभी कर्मचारी एवं वन अधिकारी कड़ी मेहनत कर रहे है। उन्हें गोडावण पर ध्यान देने की ज़रूरत है एवं खुल कर समस्याओं पर चर्चा कर उचित हल ढूंढने के आवश्यक है।
6 गोडावण संरक्षण के सम्बन्ध में आप का कोई सुझाव ?
हमारा मरु प्रदेश थार मरुस्थल का एक भाग है इसमें थार डेजर्ट की बहुतायत में वन्यजीवो की प्रजातियां एवं वनस्पति विद्यमान है तत्कालीन सरकार द्वारा इस डेजर्ट की वनस्पति एवं वन्य जीवों के संरक्षण संवर्धन के लिए थ 4 अगस्त 1980 को डेजर्ट नेशनल पार्क का प्रथम नोटिफिकेशन 3162 वर्ग किलोमीटर का जारी हुआ लेकिन फाइनल नोटिफिकेशन इस अभ्यारण का आज दिनांक तक जारी नहीं हो रखा है गोडावण डेजर्ट में पक्षी जगत की सबसे महत्वपूर्ण प्रजाति है जो धीरे धीरे विलुप्त की कगार की ओर जा रही हैं गोडावण सक्षण के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है बहुत सारे समाज सेवी संस्थाएं एव वन्यजीव में सरक्षण को समझ रखने वाले लोग लगातार कार्य कर रहे हैं अपने सुझावों के माध्यम से इस कार्य को प्रगति दे रहे हैं मेरा एक सुझाव था गोडावण प्रजनन क्रेन्द्र से तीसरी जनरेशन तैयार होगी और उसको हम कहां पर छोड़ेंगे उसके लिए हमें चिंता करने की जरूरत है उसके लिए सबसे उपयुक्त अगर कोई जगह है तो वह डेजर्ट नेशनल पार्क का सुदासरी क्षेत्र है पिछले दस वर्षो से लगातार अतिक्रमण की भेंट चढ़ता जा रहा है इसको रोकने के लिए विभाग द्वारा क्लोजर बनाए गए लेकिन यह कार्य कुछ समय के लिए बिमार व्यक्ति को ऑक्सीजन देने बराबर है इसके लिए जरूरी है 200-300 वर्ग किलोमीटर का कोर एरिया बना करके गोडावण को हम स्वच्छंद विचरण करने के लिए जगह दे दे यह कार्य अति आवश्यक है
श्री सुमित डूकिया
१ गोडावण विलुप्ति के कगार पर है, इसका मुख्य कारण क्या है ? क्या सोलर और पवन ऊर्जा के तारों का जाल ही इसकी विलुप्ति की और जाने का का मुख्य कारण है ? क्या हम 5 कारणों को उनकी प्रभाव के क्रम में रख सकते है, मुख्य कारण पहले और दूसरे कारण बाद में ?
उत्तर : इस प्रश्न का मैं आपको विस्तृत उत्तर देना चाहता हूँ – कालांतर में गोडावण भारत के ११ राज्यों में मिलता था जो आज मात्र ५ में ही बचा रह गया है। ऐसा माना जाता है कि 5 में से 4 राज्यों में तो मात्र 10 के आस पास ही गोडावण होंगे और राजस्थान में इनकी अनुमानित संख्या लगभग 100 से भी कम होंगी। शायद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र के पक्षी एक ही समूह से सम्बन्ध रखते हो और उनमें 1-2 अल्पवयस्क है और 2-3 प्रौढ़ पक्षी है। गुजरात में माना जाता है सिर्फ 4 मादा गोडावण पक्षी बचे है जो बिना नर की उपस्थिति के धीरे धीरे विलुप्ति की और बढ़ रहे है। गोडावण का विस्तार पूर्व में 11 राज्यों में माना जाता था परन्तु अब इसके अतिरिक्त मान ने लगे है की ओडिशा भी एक राज्य था जहां यह पक्षी मिलता था। खैर इतिहास होते जा रहे इस पक्षी के लिए राजस्थान ही एकमात्र आशा का केंद्र है, क्योंकि यहाँ आज भी ये प्रजनन करता हैं।
राजस्थान में इसके दो समूह है एक जैसलमेर के पश्चिम में सम-सुदासरी है और दूसरा समूह पूर्व में पोकरण-रामदेवरा के पास मिलता है। रामदेवरा के पास मिलने वाला समूह सेना के युद्धाभ्यास किये जाने वाले क्षेत्र में भी मिलता है।
अब में अपने मूल प्रश्न पर आता हूँ – राजस्थान के संदर्भ में इनकी विलुप्ति के अथवा संख्या में गिरावट को यदि देखे तो यह कहना सही होगा की गोडावण के लिए अक्षय ऊर्जा के लिए लगाए गए बिजली के तार एक जाल के रूप में कार्य कर रहे है एवं पक्षी निरंतर मारे जा रहे है। और सरकार इनको कम करने की बजाय और अधिक बढ़ावा ही दे रही है। जिस ऊंचाई पर पक्षी उड़ान भरता है अक्सर तार भी उसी ऊंचाई पर लगायी जाती है। आज के सन्दर्भ में यही कारण इनकी संख्या में गिरावट के लिए मुख्य तौर पर उभरा है।
अब में आपको ४ अन्य कारण भी विस्तार से बताता हूँ-
दूसरा सबसे बड़ा कारण: जो मुझे लगता है वह है कृषि में आये बदलाव, देखिये पारम्परिक कृषि किसी भी तौर पर हानिकारक नहीं थी बल्कि लाभकारी थी- क्योंकि गोडावण को कई प्रकार के भोजन उसमें मिलते थे, परन्तु नए तौर तरीकों ने सब उलट कर रख दिया है। जैसे ट्रैक्टर के कारण कृषि आसान हो गयी है जिसके के कारण कृषि क्षेत्र बढ़ गया है। प्राकृतिक आवास घटा है। ज़माने पहले खेत मालिक अपने खेत का कुछ क्षेत्र बिना उपयोग के भी रखता था, आप जानते हो शेखावाटी में उसे अडावा कहते है, आज यह परंपरा ख़त्म हो गयी है और अब खेत के हर कोने में बुआई होती है। अडावा किसान स्वयं के पशुओं के लिए चरागाह स्थल के रूप में काम लेता था। गत दशकों में किसानो ने कीटनाशक का उपयोग बढ़ा दिया है। किसान फसल की सुरक्षा के लिए खेतों में अधिक समय देने लगा है जिस से कृषि क्षेत्र में इंसानी उपस्थिति बढ़ गई है।
तीसरा बड़ा कारण : पर्यावास का प्रबंधन, सरकार ने जिसे डेजर्ट नेशनल पार्क माना है उसकी अधिकांश भूमि 4 दशक बाद भी राजस्व विभाग और व्यक्तिगत लोगों के पास है अथवा कु-प्रबंधन की शिकार है। आज भी वास्तविक सीमाज्ञान के अभाव में उपयोगी भूमि को संरक्षित नहीं किया जा रहा है।जहाँ गोडावण मिलता है और जहाँ डेजर्ट नेशनल पार्क के सुरक्षित बाड़े (Enclosure) है उनमें बहुत फर्क है। गोडावण के दो समूह रामदेवरा और सुदासरी के मध्य तारों का गहन जाल बन गया है एवं अब यह समूह मिल नहीं पाते है। इनके दोनों स्थलो के मध्य की अधिकतर जमीन की मालिक सरकार है परन्तु शायद वह इन्हे गोडावण के लिए सुरक्षित करना नहीं चाहते है।
चौथा बड़ा कारण : कचरे आदि के कुप्रबंधन के कारण कुत्तों एवं कौओं की संख्या में बढ़ोतरी भी एक मुख्य वजह है। देखिये कौओं की और प्रजाति है रैवेन जो पहले माइग्रेट कर यहाँ से चला जाता था परन्तु आज कल यह बारह महीने यह यहीं पर रहने लगे है। यह अत्यंत घातक है। सुदासरी के आस पास चारो और अनेक होटल आदि है जिनमें मानव गतिविधि बढ़ने से इस तरह के प्राणियों का अनुपात भी बढ़ा है एवं उनके समूह में भी विस्तार हुआ है।रैवेन गोडावण के अण्डों को नुक्सान पहुंचाते हैं।
पांचवा बड़ा कारण : देखिये अधिकांश गोडावण लोगों की जमीन पर है और यही वह अधिकांश समय व्यतीत करते है। प्रबंधक लगभग संवाद हीनता का माहौल रखते है और बगैर लोगों से संवाद करे हम इनके संरक्षण का कार्य राष्ट्रीय मरू उद्यान के बाहर नहीं कर पाएंगे।
२ गोडावण संरक्षण के लिए कोई ५ कदम जिन पर सरकार को तुरंत कार्य करने की आवश्यकता है।
उत्तर : देखिये मेरे पहले सवाल के उत्तर में इनके उपाय और कदम भी छुपे थे परन्तु हम पुनः चर्चा करते है –
पहला कदम : पक्षी के हिसाब से जमीन का प्रबंधन। आज हमारे डेजर्ट नेशनल पार्क का बहुत कम हिस्सा गोडावण वास्तविक रूप से इस्तेमाल करता है परन्तु जो इलाका ये अति संकटग्रस्त पक्षी उपयोग कर रहा है उसके लिए हम चिंतित नहीं है। वन विभाग डेजर्ट नेशनल पार्क में ही अपनी संपूर्ण ऊर्जा और संसाधन लगा देता है और गोडावण किसी और जमीन को इस्तेमाल करता है। जैसे आज कल हर वर्ष भूटेवाला से 3-4 पक्षी की सूचना आती है परन्तु आज भी उस तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
दूसरा कदम : अक्षय ऊर्जा के लिए स्थानों को निर्धारित करना चाहिए एवं पक्षी के क्षेत्रों से उन्हें निकालने की सख्त आवश्यकता है। यह शायद आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण कदम अथवा उपाय होगा।
तीसरा कदम : विभाग स्वयं के तीन DFOs – सोशल फॉरेस्ट्री , डेजर्ट नेशनल पार्क और IGNP में सामंजस्य पैदा करे। ताकि वह एक मिशन पर काम कर सके। डेजर्ट नेशनल पार्क से अधिक गोडावण अन्य दो DFO के क्षेत्र में रहते है, जबकि उनके ऑब्जेक्टिव में गोडावण संरक्षण प्राथमिकता में नहीं है।
चौथा कदम : चूँकि अनेक सामाजिक संगठन और संरक्षणवादी इस पक्षी को बचाना चाहते है परन्तु वन विभाग उनके साथ तिरस्कार भाव रखता है और यह बदलाव मात्र एक व्यक्ति ला पाया वे थे डॉ गोबिंद सागर भरद्वाज। आज आवश्यकता है उस तरह से सबके साथ सामंजस्य बैठा कर कार्य करने की।
पांचवा कदम : आस पास के लोगों को वन से जुड़े सस्टेनेबल रोजगार से जोड़ना और उनको इस पक्षी और मरुस्थल बचने के लिए प्रेरित करना।
३ क्या पूर्व संरक्षणकर्ता सही रास्ते पर चले और उनके काम से किसी प्रकार का सकारात्मक प्रभाव इन पक्षियों के संरक्षण पर पड़ा ?
उत्तर : अच्छा सवाल हैं, आज हमारे पास गोडावण से सम्बंधित लगभग सभी वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद हैं। इनको जुटाने में सभी पूर्व संरक्षणकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं और वो वैज्ञानिक जानकारी आज हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। अब परिस्थितियाँ और वस्तुस्तिथि बदल चुकी हैं। आज गोडावण साल के अधिकांश समय स्थानीय समाज की व्यक्तिगत या राजस्व भूभाग में विचरण करता हुआ देखा जा रहा हैं। इस स्थिति में हमें अब समाज के साथ ही संरक्षण का काम करना होगा और उनको इस महत्वपूर्ण संरक्षण के कार्य में बराबर का भागीदार बना कर साथ लाना होगा।
4. सुमित जी आप इतना अनुभव रखते है परन्तु फिर भी वन विभाग की गोडावण संरक्षण के नीति निर्धारण से दूर रखा जाता है, आप उन कुछ लोगों के नाम बताएं जिन्होंने इस पक्षी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अथवा आज भी उनकी सलाह हमें सही दिशा दिखाने में सक्षम है ?
उत्तर : आप सही कह रहे है, सरकार हर प्रश्न कर्ता को दूर रखती है। सरकार अपनी असक्षमता और काम करने के तरीके पर प्रश्न करने वाले से बात करना पसंद नहीं करती है। खुद विभाग ने श्री गोबिंद सागर भारद्वाज को दरकिनार कर के रखा है और आज वो चंडीगढ़ में सेवा दे रहे है। अन्य IFS श्री अनूप के. आर. आज राज्य से दूर कार्य कर रहे है। जबकि आज भी इन दोनों अफसरों को स्थानीय जनता एवं कर्मचारी उनके कार्यकाल में किये गये काम और काम करने के तरीके की वजह से दिल से चाहते है। स्थानीय निवासी माल सिंह जी जामडा एक और नाम है जो सुदासरी और उसके आस पास के इलाके में गोडावण संरक्षण के लिए अति महत्वपूर्ण है। उनकी पहुँच समाज के हर तबके में है और सरकार के उच्च स्तर तक जा कर गोडावण की बात रखने का दम रखते है। इन्हीं नामों में श्री विक्रम सिंह जी नाचना का नाम रखना चाहूँगा जिन्हे इस पक्षी की चिंता है। यदि नव जवान लोगों में देखा जाये तो जैसलमेर निवासी श्री पार्थ जगाणी और धोलिया निवासी श्री राधेश्याम बिश्नोई भी कम नहीं है आने वाला समय इन्हे और अधिक परिमार्जित कर निखारेगा और इसका गोडावण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। यदि महारावल साहब चैतन्य राज जी जैसलमेर से बात की जाए तो उनका प्रभाव आम जनता पर आज भी बहुत है और उन्हें इस पक्षी के संरक्षण की अत्यंत चिंता भी है, उनसे मेरी और पार्थ जगाणी जी की इस विषय पर चर्चा हुई है।
परन्तु यदि आपने मुझे और अधिक स्वतंत्रता दी होती तो और अधिक नाम भी जोड़े जा सकते है। परन्तु इन सबमें अगर आप मुझे एक व्यक्ति चुनने का कहते तो मैं निसंदेह श्री गोबिंद सागर भरद्वाज का नाम लेता उन्होंने सभी समाज वर्ग के साथ और संरक्षण विज्ञान को आधार मानते हुए समसामयिक परिस्थितियों के हिसाब से रास्ते बनाए थे। आज उनकी अनुपस्थिति यहाँ बेहद खलती है।
5 आप जैसे लोगों को संरक्षण की मुहिम में शामिल किया जाता है ?
उत्तर : मैं स्वयं मरुस्थल में जन्मा और पला बढ़ा हूँ और गोडावण के भूभाग से पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से विभिन्न प्रकार के शोध कार्यों में अनवरत लगा हुआ हूँ और मैंने अपने स्थानीय नागरिक होने और स्थानीय समाज में अच्छे से काम करने के अनुभव के कारण खुद को गोडावण संरक्षण के कार्य में उतारा हैं। प्रशासन अपने ढंग से काम करता है और मैं स्थानीय समाज के समन्वय और सामंजस्य के साथ काम कर रहा हूँ। जब भी हमें प्रशासन से सहयोग के लिए कहा जाता है, मैं खुद जाता हूँ या मेरी बात उन तक पहुँचता हूँ। मुझे किसी के निमंत्रण का इंतज़ार नहीं है परन्तु सरकार यदि हमें किसी योग्य पाती है और उन्हें आवश्यकता लगती है तो उनकी संरक्षण की मुहिम में हम भी अवश्य शामिल होंगे।
श्री दाऊ लाल बोहरा
१ क्या गोडावण ब्रीडिंग प्रोग्राम के बारे में पर सरकार शिथिल हो गयी है ?
उत्तर : नहीं बिलकुल ऐसा नहीं लगता है, ब्रीडिंग प्रोग्राम को एक अत्यंत संवेदनशील वेटरनरी डॉक्टर श्रवण सिंह राठौड़ ठीक से संचालित कर रहे है। उनका पूर्ण समर्पण के साथ 24×7 घंटे यही कार्यक्रम रहता है। और हाँ उन्हें यदि आप मुझे 100 नंबर में से मार्क्स देने को बोलते तो में उनका एक भी नंबर नहीं काटता।
२ क्या सक्षम लोग इसका नेतृत्व कर रहे है और अपना पर्याप्त समय दे रहे है ?
उत्तर: जी आज इस देश के सबसे महान जीव वैज्ञानिक डॉ झाला और डॉ दत्ता इसको देख रहे है, और उनकी क्षमता पर बिरला ही सवाल उठाएगा। कितना समय वह दे पा रहे है यह मुझे नहीं पता परन्तु उतर चढाव सभी के जीवन का हिस्सा है। इनको मैंने महान इसी लिए बताया है की यह अपने सभी कामों को पूर्ण समर्पण से करते है। मुझे पूर्ण विश्वास है वह इसे भी पर्याप्त समय दे रहे होंगे।
३ अभी हुई गोडावण के बच्चों की मृत्यु चिंताजनक है या यह एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है ? कोई बड़ी चूक आप देख पा रहे है ? क्या कारण रहे होंगे ?
उत्तर : यह बेहद चिंताजनक है। यह कतई सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। दो वर्ष तक के पले पलाये गोडावण का मरना बेहद दुखद है। देखिये इसका पता लगाना अत्यंत जरुरी है की उनके मरने के क्या कारण रहे है। यह जानकारी निकालना इस देश में संभव नहीं है। यह घटना सांभर झील में मरे पक्षियों के अनुरूप होगी, जिनका सटीक पता आज भी नहीं लगा है। सटीक जानकारी अत्यंत आवश्यक है। कयास लगाने से काम नहीं होगा। यदि आज देखा जाए तो समस्या इनके खाने से संबंधित लगती है। परन्तु बिना कारण जाने हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे। इनके नमूने IVRI की बजाय विदेशी प्रयोगशाला भेजने चाहिए। यहाँ WII और वन विभाग अक्सर दोनों पूरी तरह विफल होंगे और देखना सटीक जवाब कभी नहीं मिलेगा।
४ किस प्रकार के संरक्षण के उपाय सरकार / स्वयं सेवी संस्था / व्यक्ति/ समाज ने किये है ?
उत्तर :कैप्टिव ब्रीडिंग किसी भी तरह से अकेला उपाय नहीं है इसके विफल होने की पूरी सम्भावना है। असल उपाय गोडावण के पर्यावास क्षेत्रों में करना होगा।
BNHS को सरकार ने पर्यावास के संरक्षण के लिए कार्य करने के लिए कहा था परंतु यह मात्र प्रतीकात्मक रूप से कार्य कर पा रहे है। अभी तक असल उपाय नहीं दे पाये शायद आगे अपने काम को बढ़ा सके। उनके नए डायरेक्टर से बड़ी आशा है जबसे उन्होंने चम्बल के पानी पर बोले की किस प्रकार स्किमर के अंडे डूब रहे है। यहाँ सकारात्मक बदलाव के संकेत है। वर्ना आप जानते हो यह पुराना जहाज कितना मुश्किल से चलता है।
इसी तरह WCS को स्थानीय समुदायों के लिए कार्य करना था परन्तु वह एक दिशाहीन रूप से आगे बढ़े और अपनी टीम के प्रबंधन में ही विफल होते नजर आते रहे है। उनकी अधिक बाते नहीं करे तो ठीक है क्योंकि वह तो असल में इस ग्रह के लोग भी नहीं लगते है।
सरकार के कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम ने उनके पूरे ध्यान को उसी और केंद्रित कर लिया है एवं अन्य हैबिटैट डेवलपमेंट आदि के कार्य से पिछड़ते जा रहे है। असल रस्ते सरकार को संवाद के माध्यम से निकालने होंगे। डॉ भरद्वाज जैसे लोगों को कमान देनी होगी एवं वर्तमान DFO अत्यंत उत्साही एवं काबिल इंसान है उन्हें और अनुभवी बना कर अच्छा काम लिया जा सकता है। पानी बिजली जैसे समस्या का निपटारा एक कुशल रेंजर मिनटों में कर सकता है अथवा माल सिंह जी जैसे लोगों को साथ लेकर किया जा सकता है। यह सब वन विभाग के अलग थलग रहने का ठोस उदाहरण है।
५ कोई आशा है की इस स्थिति में गोडावण का संरक्षण किया जा सकता है ?
उत्तर: समय बताएगा, वन विभाग को अपने स्तर पर कई नीति बदलनी होगी, लोगों को शामिल करना होगा पहले खुद के घर से फिर बाहर से।
विज्ञान से सरोकार रखने वाले लोग प्रकृति में जब भी घूमते हैं या अवलोकन करते हैं तो वे प्रेक्षण लेते रहते हैं। ये प्रेक्षण वीडियों, सेल्फी, फोटो, आंकडों, संस्मरण, नोट, चित्र या आरेख के रूप में या किसी भी अन्य रूप में हो सकते हैं।
जो लोग गंभीर अध्ययन – अनुसंधान करना चाहते हैं, वे गिने-चुने कुछ प्रेक्षणों तक सिमित नहीं रहते बल्कि प्रयास कर एक ही विषय पर पर्याप्त प्रेक्षण लेने की कोशिश करते हैं। जितने प्रेक्षण अधिक होते हैं, निष्कर्ष उतने ही सही निकलते हैं। कम प्रेक्षणों का भी अपना एक महत्तव है। कई बार तो एक प्रेक्षण भी महत्वपूर्ण हो जाता है लेकिन जहाँ तक संभव हो पर्याप्त प्रेक्षण लेने का प्रयास करना चाहिये। कई बार घटनायें इतनी दुर्लभ रहती हैं कि हमें एक ही विषय पर अधिक प्रेक्षण नहीं मिल पाते । ऐसी स्थिति में एक प्रेक्षण भी महत्तवपूर्ण हो जाता है।
प्रेक्षण अलिखित या लिखित हो सकते हैं। अच्छा रहे प्रेक्षण लिखित ही रहने ताकि उनकी सत्यता पर आँच न आये। प्रकृति प्रेमियों के पास एक छोटी डायरी व एक पैन हमेशा पास रहना चाहिये ताकि प्रेक्षण को संपूर्णता में सही-सही अंकित किया जा सके। जब प्रेक्षण अच्छी संख्या में उपलब्घ जावें तो, उन्हें एक लेख के रूप में किसी न्यूजलेटर या जर्नल में प्रकाशित करना चाहिये। यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो उत्तम। पीयर व्यू प्रकृति का नहीं होने वाले जर्नलों में लेखक या अनुसंधानकर्ता (प्रेक्षण संग्रहकर्ता) द्वारा की गई गलतियों का निवाराण ढंग से नहीं हो पाता है । यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो प्रकाशन से पूर्व लेख रिव्यू करने वाले 1-3 विषय विशेषज्ञों के पास जाता हैं तथा लेख की तकनीकी गलतियों से लेकर व्याकरण तक की त्रुटियाँ ठीक की जाती हैं तब जाकर लेख प्रकाशित होता है। पीयर व्यू नहीं करने वाले जर्नल में अध्ययनकर्ता की गलती को हांलाकि संम्पादक ठीक करने का प्रयास करते हैं फिर भी कई बार आपेक्षित सुधार नहीं हो पाता है तथा कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं।
वैसे देखा जाये तो जो प्रेक्षण एक लेख के रूप में वैज्ञानिक साहित्य में प्रकाशित हो जाते हैं वे ही वैज्ञानिक रेकार्ड बनते हैं तथा आगे अनुसंधानकर्ता या लेखक उनको सन्दर्भ के रूप में अपने लेखों में जगह देते हैं। लेकिन जो प्रेक्षण, तथ्य, फोटो आदि जर्नलों में प्रकाशित नहीं हो पाते, वे वैज्ञानिक साहित्य का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। यदि कोई प्रेक्षण, तथ्य या फोटो किसी स्थानीय अखबार में भी प्रकाशित होते हैं तो भी वे विज्ञान का सन्दर्भ नहीं बन पाते हैं।
आजकल कई अच्छे एवं होनहार प्रकृति प्रेमी छायाकार, प्रकृति प्रेक्षक, प्रकृति अन्वेषक तरह-तरह की वनस्पति व प्राणि प्रजातियों को ढूंढते रहते हैं तथा उनसे हम सभी से अवगत कराने हेतु अखबारों में समाचार प्रकाशित करते हैं व कुछ फेसबुक पर व विभिन्न ग्रुपों में अपनी सामग्री साझा करते रहते हैं। कभी-कभी तो बहुत ही अचरज जनक चीजे व बिल्कुल नये तथ्य भी सामने आते है। चूँकि इनमें उचित ढंग से वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण का अभाव रहता है अतः ये अद्भुत चीजे समय के साथ अक्सर खो जाती हैं तथा स्थानीय कुछ लोगों के अलावा बाहरी दुनियाँ को उन अचरज जनक चीजों का कुछ पता ही नहीं चलता । वैज्ञानिक अन्वेषण – लेखन कार्य करने वाले अद्येताओं के लिए ये अद्भुत तथ्य सन्दर्भ भी नहीं बन पाते हैं। ऐसे ही तथ्य जब कोई दूसरा व्यक्ति ढूंढ कर उचित वैज्ञानिक प्रक्रिया का पालन कर दस्तावेजीकरण कर उन्हें रेकार्ड पर लाता है तो प्रथम व्यक्ति असहज हो जाता है तथा अपने कार्य की ‘‘चोरी’’ होने तक का आरोप लगाता है तथा वह कई बार अपनी असहजता को अनेक माध्यमों पर प्रकट भी करता है। यह असहजता कई बार मोबाईल ग्रुपों में देखने को मिलती है। कई बार तो कटु शब्दों का उपयोग भी लोग कर डालते हैं। इससे ग्रुप सदस्यों का सौहार्द बिगडने की भी नौबत बन जाती है।
वे लोग जो अपने नवीन वैज्ञानिक तथ्यों को अखबार या फसेबुक तक सीमित रखते हैं उनको चाहिये की वे अपनी सामग्री को उचित ढंग से दस्तावेजीकरण कर सर्वप्रथम किसी न्यूजलेटर, अनुसंधान जर्नल, रिसर्च प्रोजेक्ट, वैज्ञानिक पुस्तक आदि का हिस्सा बनायें ताकि वह आमजन से लेकर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन से जुडी संस्थाओं एवं व्यक्तियों तक पहुंच जाये। निसंदेह अब किसी भी सृजनकर्ता की सामग्री एक वैज्ञानिक रेकार्ड के रूप में दर्ज रहेगी तथा उनका लेख भी उनके नाम से ही दर्ज रहेगा। उचित वैज्ञानिक प्रारूप में प्रकाशित हो जाने के बाद किसी भी जानकारी को यदि मौखिक वार्तालाप, अखबार, फेसबुक आदि का हिस्सा बनाया जाये तो उनके लेख/श्रेय के चोरी होने का खतरा नहीं रहता। ऐसा करने से विज्ञान साहित्य तो सजृन होगा ही, सृजनकर्ता भी ंआंनदित एंव गौरवान्वित अनुभव करेंगे। साथ ही उनके श्रम, समय व धन का सदुपयोग हो सकेगा। मैं यहां यह भी सलाह देना चाहूंगा कि लिखने से पहले उस विषय पर पूर्व प्रकाशित वैज्ञानिक साहित्य को अच्छी तरह पढना व समझना चाहिए ताकि बात-बात में यह कहना की ‘‘यह पहली-पहली बार’’ देखा गया है या इससे पहले ‘‘किसी ने नहीं देखा’’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो ।
राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में कई ऑर्किड प्रजातियां पायी जाती हैं . राजस्थान कांटेदार और छोटी पत्तीदार पौधों से भरपूर हैं परन्तु २० से कुछ अधिक ऑर्किड प्रजातियां भी अरावली और विन्ध्यांचल के शुष्क वातावरण में अपने लायक उपयुक्त स्थान बना पाए हैं . यह संख्या कोई अधिक नहीं हैं परन्तु फिर भी शुष्क प्रदेश में इनको देखना एक अनोखा अनुभव हैं . विश्व में ऑर्किड के 25000 से अधिक प्रजातियां देखे गए हैं . भारत में 1250 से अधिक प्रजातियां अब तक दर्ज की गयी हैं, इनमें से 388 प्रजातियां विश्व में मात्र भारत में ही मिलती हैं . राजस्थान में ऑर्किड को प्रकृति में स्वतंत्र रूप से लगे हुए देखना हैं तो – फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य, एवं सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य आदि राज्य में सबसे अधिक मुफीद स्थान हैं .
राजस्थान के ऑर्किड पर डॉ. सतीश शर्मा ने एक पुस्तक का लेखन भी किया हैं और कई ऑर्किड प्रजातियों को पहली बार राज्य में पहली बार दर्ज भी किया हैं .
इस वर्षा काल में डॉ. सतीश शर्मा के सानिध्य में कई ऑर्किड देखने का मौका मिला. यह पौधे अत्यंत खूबसूरत और नाजुक थे . एक छोटे समय काल में यह अपने जीवन के सबसे सुन्दर क्षण जब पुष्पित हो को जीवंतता के साथ पूरा करते हैं . यह समय काल मानसून के समय होता हैं अतः थोड़ा कठिन भी होता हैं, इस अवधारणा के विपरीत की राजस्थान एक शुष्क प्रदेश हैं परन्तु वर्षा काल में यह किसी अन्य प्रदेश से इतर नहीं लगता हैं . यह समय अवधि असल में इतनी छोटी होती हैं की इनको देख पाना आसान नहीं होता हैं. मेरे लिए यह सम्भव बनाया डॉ. सतीश शर्मा ने और उनके सानिध्य में राज्य के २ दर्जन ऑर्किड मे से १ दर्जन ऑर्किड में देख पाया .
राजस्थान में तीन प्रकार के ऑर्किड पाए जाते हैं, एपिफैटिक जो पेड़ की शाखा पर उगते हैं, लिथोफाइट जो चट्टानी सतह पर उगते हैं, टेरेस्ट्रियल पौधे जमीन पर उगते हैं
.
1. यूलोफिया हर्बेशिया (Eulophia herbacea) यह राजस्थान में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल-फुलवारी अभयारण्य में मिलता हैं .
2. यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata) घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि में मिलता हैं .
3. एपीपैक्टिस वेराट्रीफोलिए (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र- चित्तौडग़ढ़ में मिलता है .
4. हैबेनेरिया फर्सीफेरा (Habenaria furcifera)फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि
5. हैबेनेरिया लॉन्गीकार्नीकुलेटा (Habenaria longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य आदि .
6. हैबेनेरिया गिब्सनई (Habenaria gibsonii) माउन्ट आबू अभयारण्य एवं उदयपुर के आस पास के क्षेत्र में मिलता हैं .
7. पैरीस्टाइलिस गुडयेरोइड्स (Peristylus goodyeroides) मात्र फुलवारी की नाल अभयारण्य क्षेत्र में मिला है .
8. पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य आदि में मिलता है .
9. पैरीस्टाइलिस लवी (Peristylus lawiI): फुलवारी की नाल अभयारण्य में मिलता है .
10. वैन्डा टैसीलाटा (Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि .
11. एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि