आजकल हर आदमी को जल्दी से जल्दी, सघन, सदाबहार व आकर्षक हरियाली चाहिए। आम आदमी से लेकर स्वंयसेवी संस्थाऐं, नगरपालिका, नगर परिषद्, वनविभाग व अन्य सभी विभागों की यही चाह है। यह चाह तब और प्रबल और आवश्यक हो जाती है जब सोशियल मीड़िया, प्रिन्ट मीड़िया, पर्यावरण प्रेमी व कई अन्य ऐजेन्सिया यह कहने लग जाती हैं कि धन बहुत खर्च हुआ है लेकिन हरियाली कहा है? एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं। अनावश्यक खर्च व बेईमानी करने के आरोप भी लगते हैं। सफाईया पेश होती हैं लेकिन शक बने रहते हैं। जांच के सिलसिले भी चलते हैं।
हाल यह है कि लोग रेगिस्तान, शहर, गाँव, पहाड़ आदि हर जगह को वैसा ही हरा-भरा देखना चाहते है जैसा केरल है! जैसा उत्तर-पूर्व भारत है!
क्या राजस्थान में ऐसा संभव है?
जहाँ वर्षा कम है, वर्षाकाल छोटा है, वर्षा के दिन कम है, पौधों का वृद्विकाल छोटा है, मौसम की बेरूखी को सहन करने हेतु वनस्पतियों में सुसुप्त अवस्था में जाने की अन्तर्निहीत अनुवांशिकी है, सर्दी तो सर्दी गर्मी की हवा भी जहा शुष्क हो, वास्पोत्सर्जन दर अधिक हो, जहाँ ट्यूबवेल सिंचित कृषि ने भूमि की ऊपरी पर्तो में नमी की उपलब्धता को घटाया हो, वहा क्या सदाबहार वनस्पतियों की हर जगह हरियाली संभव है?
हमारी चाह कुछ भी हो लेकिन प्रकृति हर जगह उस वनस्पति विविधता को ही रोपती है जो वहाँ जैसी मिट्टी, वर्षा, भूमि की नमी, ताप एवं अन्य परिस्थितियाँ हैं उनमें जीवित बच सके। चाहे वह फिर कांटेदार वनस्पति हो या पतझड़ी या सदाबहार। प्रकृति मनुष्य की चाह की बजाय स्थानीय जलवायु एवं वहाँ कि पारिस्थितिकी को घ्यान में रखकर ही घास व वन उगाती है। यही कारण है कि केरल के वन राजस्थान में नहीं उग सकते और राजस्थान के केरल में नहीं। यदि राजस्थान में केरल जैसी हरियाली की सोच में बाहर से लाकर विदेशी मूल की प्रजातियों को लगायेगें तो भले ही कुछ दिनों के लिये अच्छी हरियाली व सुन्दरता नजर आये लेकिन इन्हें इस स्थिति में रखने की लागत सिंचाई व दूसरे कार्यो के रूप में अधिक आयेगी। जिस दिन उनको सिंचाई व अन्य देखभाल से वंचित किया जायेगा, उनमें से अधिकांश प्रजातियाँ मरने लगेगी।
आज आकर्षक हरियाली लाने के दबाव के नीचे दबी शहरी व कस्बों की संस्थाऐं, उद्यानों, पार्को, रोड़ किनारे, डिवाइड़र, कार्यालयों आदि जगह विदेशी मूल की वनस्पतियों को बेहिचक लगाने लगी है। शहर स्थित जलाश्यों के किनारें एवं अन्दर स्थित टापूओं पर भी यही सिलसिला जारी है। लोग अपने आलीशान घरों व होटलों में भी विदेशी प्रजातियों को चाव से लगाते हैं। पिछले 20 साल में यह प्रवृति काफी बढ़ी है।
क्या ऐसा कर हम स्थानीय इकोलाॅजी से छेड़छाड़ करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?
क्या कम लागत में स्थानीय जलवायु में पनपने वाली देशी प्रजातिया बेकार हैं?
विदेशी प्रजातियों पर घ्यान केन्द्रित होने से देशी प्रजातियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा तो हमारी स्थानीय जैव विविधता क्या नहीं घटेगी?
स्मरण रहे, विदेशी प्रजातियों के मुकाबले देशज प्रजातिया कम देखभाल व कम खर्चे में ही पनप जाती हैं। विपरीत परिस्थितियों में उनके बचे रहने की प्रबल संभावना रहती है। उनसे स्थानीय इकोलाॅजी में कोई बदलाव की संभावना भी नहीं रहती है। खतरा यह भी है कि किसी विदेशी प्रजाति को यदि स्थानीय परिस्थितियां रास आ गई एवं दुर्धटनावश या असावधानी में प्राकृतिक वनों व दूसरें पारिस्थितिकी तंत्रों में वह पहुंच गई या जानबूझ कर पहुंचा दी गई एवं यदि वह आक्रमणकारी (invasive) सिद्व हो गई तो स्थानीय जैव विविधता, वन एवं चारागाहों को भारी नुकसान होगा।
हम लेन्टाना कमारा, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, कोनोकारपस इरेक्टस, हिप्टिस सुवियोलेन्स, केशिया टोरा, केशिया यूनिफ्लोरा आदि से हो रहे नुकसान को सालों से देख रहे हैं। आज जिन विदेशी प्रजातियों को लापरवाही से लगाया जा रहा है, भविष्य में उनका व्यवहार देशज प्रजातियों के साथ क्या रहेगा कोई नहीं जानता।
हमारी स्थानीय परिस्थितयों में पनपने वाले नीम, बरगद, विषतेन्दु, तेन्दु, रायण, सहजना, सेमल, मोजाल, उम्बिया, खजूर, मोलश्री (बकूल), लिसोड़ा, गोंदी, मीठाजाल, खाराजाल, फराश, शहतूत, खेजड़ी, अरणी, लम्पाण, रोहण, जंगली करौंदा, जीवापूता, इमली, इन्द्रधौक, वाहीवरणा, महुआ, पाखड़, पिम्परी, जामुन, कठ जामुन, आल, लेण्ड़िया, रोहिड़ा, पलाश, पीला पलाश, देशी आम, दहमन, जमरासी, मावाबेर, फालसा, कचनार, जंगली गधा पलाश, कुसुम, कैथ, बिन्नास, कढीनीम, मीढ़ोल, तल्ला आदि ऐसी प्रजातियाँ है जिनमें अधिकांश शुष्क जलवायु में भी सदाबहार एवं अद्र्वसदाबहार बने रहने की प्रवृत्ति है। कुछ प्रजातियाँ बहुत सुन्दर फूल भी देती है। देशज होने के कारण वे पर्यावरण के लिये भी सुरक्षित है अतः दीर्धकालीन सोच को घ्यान में रखते हुए देशज प्रजातियों को लगाना, बचाना ज्यादा उचित होगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कभी तेज गर्मी तो कभी सर्दी और इसके द्वारा न जाने कितनी अन्य मुसीबतों से आज पूरा विश्व गुजर रहा है। ऐसे में राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश लगातार जलसंकट का सामना कर रहे है कई खरपतवार वनस्पतियाँ इस संकट की घडी में पर्यावरण की मुश्किलों को और बढ़ा रही है जैसे की “पार्थीनियम “।
पार्थीनियम, राजस्थान की दूसरी सबसे खराब खरपतवार है जो की राज्य के अधिकांश इलाकों में आक्रामक तरीके से फैल चुकी है। यह राजस्थान के पारिस्थितिक तंत्र की मूल निवासी नहीं हैं तथा राजस्थान तो क्या पूरे भारत में इसके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे एवं प्राणी नहीं है क्योंकि यह एक आक्रामक प्रजाति (Invasive species) है। आक्रामक प्रजाति वे पौधे, प्राणी एवं सूक्ष्मजीव होते है जो जाने-अनजाने में मानव गतिविधियों द्वारा अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र से बाहर के क्षेत्र में पहुंच जाते है और फिर बहुत ही आक्रामक तरीके से फैलते है क्योंकि उनको नियंत्रित रखने वाली प्रजातियां वहां नहीं होती है।
Parthenium hysterophorus (Photo: Dr. Ravikiran Kulloli)
आज सिर्फ राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का लगभग 65 प्रतिशत भू-भाग पार्थीनियम की चपेट में है। परन्तु प्रश्न ये उठता है कि, अगर ये यहाँ की मूल निवासी नहीं हैं तो यहाँ आयी कैसे?
तो बात है सन 1945 की जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इस हमले के बाद दुनिया के तमाम देशों ने अमेरिका की आलोचना की तथा दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने के लिए सन 1956 में अमेरिका ने पब्लिक लॉ 480 (PL-480) स्कीम की शुरुआत की। इस स्कीम के अंतर्गत अमेरिका ने विश्व के आर्थिक रूप से गरीब व जरूरतमंद देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने का वादा किया तथा भारत भी उन देशों में से एक था। परन्तु इस स्कीम के तहत जो गेंहू आयात हुआ उसके साथ कई प्रकार की अनचाही वनस्पतिक प्रजातियां भी भारत में आ गयी और उनमें से एक थी “पार्थीनियम “। आज देखते ही देखते यह खरपतवार पूरे भारत सहित 40 अन्य देशों में फ़ैल चुकी है तथा इसके प्रकोप और प्रभावों को देखते हुए IUCN द्वारा इसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक माना गया है।
पार्थीनियम को “गाजर घास” एवं “कांग्रेस घास” भी कहा जाता है तथा इसका वैज्ञानिक नाम “Parthenium hysterophorus” है। उत्तरी अमेरिका मूल का यह पौधा Asteraceae परिवार का सदस्य है। एक से डेढ़ मीटर लम्बे इस पौधे पर गाजर जैसी पत्तियां और सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे फूल आते है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पार्थीनियम एक ऐसी खरपतवार है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र ख़ासतौर से राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है। राजस्थान में लगभग सभी इलाके 236 ब्लॉक में से 190 ब्लॉक डार्क ज़ोन में है तथा जलसंकट से ग्रसित है। यहाँ के ज्यादातर क्षेत्र शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, बीहड़, पर्णपाती वन और रेगिस्तान हैं तथा इन सभी आवासों की एक खास बात यह है कि, ये कभी भी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते हैं क्योंकि हरीयाली यहाँ वर्षा जल पर निर्भर करती है ऐसे में पार्थीनियम का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है।
इस खरपतवार से निम्न नुकसान होते हैं
स्थानीय वनस्पतियों के हैबिटैट में प्रसार : राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले प्रदेश में स्थानीय वनस्पतिक अपेक्षाकृत कम घनत्व वाली वनस्पति आवरण पायी जाती है ऐसे में पार्थीनियम विभिन्न तरीकों से स्थानीय वनस्पतियों को आच्छादित कर लेता है एवं उसके स्थान पर स्वयं फैलने लगता है जैसे कि, यह एक शाकीय पौधा है और पास-पास उग कर यह सघन झाड़ियों (Thickets) के रूप में वृद्धि करता है जिसके द्वारा इससे छोटे पौधों को पूरी तरह से प्रकाश नहीं मिल पाता, उनकी वृद्धि नहीं हो पाती और न ही उनके बीज बनने की क्रिया पूरी हो पाती है। फिर धीरे-धीरे वो खत्म हो जाते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में छोटे पौधे और विभिन्न घास प्रजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। साथ ही इसमें पाए जाने वाले रसायन भी फसलों तथा अन्य वनस्पतियों पर एलेलोपैथिक प्रभाव डाल बीज अंकुरण व वृद्धि को रोकते है।
कृषि क्षेत्र में पार्थीनियम (फोटो: मीनू धाकड़)
संरक्षित वन क्षेत्रों में नुकसान: राजस्थान में पाए जाने वाले सभी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र शुष्क पहाड़ी क्षेत्र है जो न सिर्फ वन्यजीव संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि इस शुष्क प्रदेश के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में इनसे कई छोटी-छोटी जलधाराएं निकलती है जो आगे जाकर नदियों, तालाबों और बांधों का जल स्तर भी बढ़ाती है। परन्तु अब पार्थीनियम इन संरक्षित क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है तथा बाकि वनस्पतियों को हटा कर दुर्लभ वन्यजीवों के आवास व भोजन को नुकसान पंहुचा रहा है।
मवेशियों व वन्यजीवों पर प्रभाव: राजस्थान में पानी की कमी के कारण चरागाह भूमि और घास के मैदान भी बहुत सिमित है जिनपर बहुत से मवेशियों के साथ-साथ शाकाहारी वन्यजीव जैसे सांभर, चीतल, चिंकारा, काला हिरन आदि भी निर्भर है और इन भूमियों के अधिकतर हिस्सों में अब पार्थीनियम फैल गया है जिससे न सिर्फ चरागाह भूमियों की उत्पादकता में कमी आ रही बल्कि यह आवास धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव उन जीवों पर पड़ रहा है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं। साथ ही मवेशियों और अन्य जानवरों के लिए विषैला होता है और यदि कोई प्राणी इसकी हरियाली के प्रति आकर्षित होकर इसे खा ले तो वह बीमार हो जाता है या मर सकता है।
नमभूमियों को नुकसान: सिर्फ यही नहीं पार्थीनियम अपने पैर हर मुमकिन जगहों पर फैला रहा है जैसे की नमभूमियों के किनारे। राजस्थान में भीषण गर्मी के दिनों में छोटे जल स्रोत सूख जाया करते है और ऐसे में वर्षभर पानी उपलब्ध कराने वाले जल स्रोतों की महत्वता बहुत ही बढ़ जाती है। क्योंकि ये जल स्रोत न सिर्फ जानवरों को पानी उपलब्ध कराते है बल्कि वर्ष के सबसे भीषण गर्मी वाले दिनों में जब कहीं भी कोई घास व हरा चारा नहीं बचता है उस समय इनके किनारे उगने वाले हरे चारे पर कई जीव निर्भर करते है। परन्तु आज पार्थीनियम इन जल स्रोतों के किनारों पर भी उग गया है तथा जानवरों के लिए गर्मी के दिनों में मुश्किल का सबब बन रहा है। राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश जहाँ पहले से ही पानी की कमी के कारण मनुष्य, मवेशी और वन्यजीव मुश्किल में है वहां पार्थीनियम जैसी खरपतवार मुश्किलों को और भी ज्यादा बढ़ा रही है।
छोटी जैव विविधता को नुकसान: प्रकृति में घास और अन्य पौधों की झाड़ियों में चिड़ियाँ, मकड़ी, शलभ (moth) और कई प्रकार के छोटी जीव रहते हैं परन्तु पार्थेनियम के विस्तार के साथ एक ही प्रकार का आवास बनता जा रहा है जिसके कारण यह कम जैव विविधता को समर्थन करता है।
आग की घटनाओ को बढ़ाना: क्योंकि यह एक साथ लगातार बड़े-बड़े हिस्सों में फैलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में नमी की कमी से यह सूख जाता है और सूखने पर यह एक आसानी से जलनेवाला पदार्थ (Combustible) है तथा जंगल में आग की घटनाओं को बढ़ाता है।
फसलों और आय पर प्रभाव: आज अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी यह फ़ैल चुका है और जिसके करण खेतों की उत्पादकता और फसलों की पैदावार कम हो रही है क्योंकि यह जरुरी पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।
मनुष्यों पर प्रभाव: न सिर्फ वनस्पत्तियों और जीवों के लिए यह हानिकारक है बल्कि यह मनुष्यों के लिए भी बहुत नुकसान दायक है क्योंकि इस पौधे के संपर्क में आने से मनुष्यों में खाज, खुजली, चर्म रोग, दमा, हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं।
फैलने के कारण व तरीके:
इसके तेजी से फैलने के पीछे कई कारण है जिसमें सबसे मुख्य है कि, इसका जीवनचक्र 3-4 माह का ही होता है और इसका एक पौधा एक बार में लगभग 10,000 से 25,000 बीज पैदा करता है। यह बीज हल्के होते हैं जो आसानी से हवा और पानी से आसपास के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं तथा यह वर्षभर प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उगने व फलने फूलने की क्षमता रखता है।
पार्थीनियम, एक बारी में ही बड़ी तादाद में बीज पैदा करता है। (फोटो: मीनू धाकड़)
वन क्षेत्रों को जब भी सड़क, रेल लाइन और नहरों के निर्माण के लिए खंडित किया जाता है अर्थात जंगल को काटा जाता है तो जंगल का कैनोपी कवर हटने से भूमि खाली होती है और जिसपर प्रकाश भी भरपूर होता है। बस प्रकाश और खाली स्थान मिलते ही ऐसे खरपतवार वहां उग जाते है। साथ ही निर्माण कार्य के दौरान आसपास बने गड्ढों में पानी भर जाने पर भी ये उग जाता है।
अगर ये नदी या पानी के किनारे पर मौजूद होता है तो बहते हुए पानी के साथ आते-आते इसके बीज पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाते है और धीरे-धीरे यह खेतों में भी पहुंच जाता है।
स्वास्थ्य के ऊपर कई नुकसान होने के कारण कोई भी प्राणी इसे नहीं खाता है जिसके कारण यह बचा हुआ है और तेजी से फ़ैल रहा है।
हालांकि प्राणी इसे नहीं खाते हैं परन्तु ऐसा देखा गया है कि, गधा इसे बड़े चाव से खाता है और फिर उसके गोबर के साथ इसके बीजों का बिखराव आसपास के सभी क्षेत्र में हो जाता है।
वनस्पति विशेषज्ञ डॉ सतीश कुमार शर्मा के अनुसार इसे निम्न तरीकों से हटाया जा सकता है:
पार्थीनियम अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी फ़ैल चूका है और इसे उन्मूलन, पुनः रोपण और जांच इन तीन चरणों से ही हटाया जा सकता है। (फोटो: मीनू धाकड़)
इस खरपतवार को हटाने का सबसे पहला और बड़ा तरीका यह है कि, इसे छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने से सफलता नहीं मिलेगी। यानी अगर हम इसे छोटे क्षेत्र से ही हटाते हैं जैसे किसी किसान ने सिर्फ अपने खेत से हटाया या फिर वन विभाग ने सिर्फ एक रेंज से हटाया और आसपास यह मौजूद है तो आसपास के क्षेत्रों से यह वापिस आ जाएगा। इसीलिए इसे छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बल्कि “लैंडस्केप स्तर” पर हटाना होगा। यानी की इसे विस्तृत रूप से हटाना होगा जैसे वन विभाग वाले वनों से हटाए, चरागाह वाले चरागाह से हटाए और नगरपालिका वाले शहरों से हटाए। यानी एक साथ सब जगह से हटाने से ही इसका नियंत्रण होगा।
इसे हमेशा फूल और फल बनने से पहले हटाना चाहिए नहीं तो बीज सब तरफ फ़ैल जाएगें। इसे हटाते समय काटो या जलाओ मत, नहीं तो यह फिर से उग जाएगा। इसको पूरी जड़ सहित उखाड़ा जाना चाहिए और यह करने का सबसे सही समय होता है बारिश का मौसम।
इसे पूर्णरूप से हटाने के तीन चरण है; उन्मूलन (Eradication), पुनः रोपण (Regeneration) और जांच (Followup) अर्थात जैसे ही एक क्षेत्र से इसे हटाया जाए साथ के साथ स्थानीय वनस्पति का पुनः रोपण (Regeneration) भी किया जाए ताकि खाली ज़मीन से मिट्टी का कटाव न हो। साथ ही हटाए गए क्षेत्र का समय-समय पर सर्वेक्षण कर जांचना चाहिए कि, कहीं कोई नए पौधे तो नहीं उग गए क्योंकि जो बीज मिट्टी में पड़े रह गए होंगे बारिश में नया पौधा बन सकते हैं। ऐसे में उन नए पौधों को भी हटा देना चाहिए। इन तीन चरण को लगभग चार से पांच वर्ष तक किये जाने पर इसे हटाया जा सकता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ऊपर से नीचे की तरफ और समतल क्षेत्रों में बीच से बाहरी सीमा की तरफ हटाया जाना चाइये।
विभिन्न विकास कार्यों के दौरान जंगलों के कटाव के कारण भी यह वन क्षेत्रों में आ जाता है। इसीलिए हमें सबसे पहली कोशिश यही रखनी चाहिए की वनों का खंडन न करें और अन्य विकल्प खोजने की पूरी कोशिश करें। और यदि काटे भी तो स्थानीय पौधों का रोपण कर खाली स्थानों को भर दिया जाए।
राजस्थान में पानी की बढ़ती कमी के इस दौर में पार्थीनियम जैसी खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए सभी विभागों को मिलकर कार्य करना होगा। विशेषरूप से संरक्षित क्षेत्रों से इसे हटाने के लिए विभाग को एक मुहीम चलानी चाहिए तथा राज्य सरकार को भी नरेगा जैसी स्कीम के तहत जल स्रोतों और चारागाह भूमियो से इसे हटाने के प्रयास करने चाइये।
साथ ही वन विभाग के सभी कर्मियों को उनके क्षेत्र में पायी जाने वाली खरपतवार की पहचान, उनकी वानिकी और नियंत्रण के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे ऐसी खरपतवार को सफलतापूर्वक तरीके से हटा सके।
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I
भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।
शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।
प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।
औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)
स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।
विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)
विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी में असमानता के कारण इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।
दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है। परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।
प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है । खड़-मौर एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।
विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।
सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।
बदलते जलवायु के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।