पैंगोलिन: अत्यंत दुर्लभ जीव की बढ़ती समस्याएं

पैंगोलिन: अत्यंत दुर्लभ जीव की बढ़ती समस्याएं

एक नजर में दिखने पर किसी को अचम्भित कर देने वाला शर्मीले स्वभाव का वन्यजीव पैंगोलिन राजस्थान में बहुत ही कम तथा सीमित स्थानों पर पाया जाता है, इसकी दुर्लभता के कारण कभी किसी ने सोचा भी न होगा कि पैंगोलिन कि तस्करी राजस्थान से भी हो सकती है।

जून 2020 में मध्य प्रदेश वन विभाग कि स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने एक बड़ी सफलता के साथ वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब (YouTube) पर पैंगोलिन शल्क बेचने वाले तस्करों के एक गिरोह का भंडाफोड़ किया है। पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया है जिनकी पहचान शेर सिंह धाकड़ और राजस्थान के निवासी वकिल उर्फ पप्पू के रूप में हुई है। एसटीएफ के अधिकारी रितेश सरोठिया के अनुसार, एसटीएफ विंग ने शिवपुरी जिले के निवासी शेर सिंह धाकड़ के कब्जे से 2.7 किलोग्राम पैंगोलिन शल्क जब्त किया है। वैश्विक ग्राहकों को आमंत्रित करने के लिए उसने यू-ट्यूब पर अपना मोबाइल नंबर दिखाया था, एसटीएफ ने इसको पकड़ने के लिए एक ग्राहक भेजा और मौके पर गिरफ्तार किया। पुलिस के अनुसार, 10वीं कक्षा का टॉपर धाकड़, पप्पू से शल्क खरीदता था।

वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब (YouTube) पर पैंगोलिन शल्क बेचने वाला शेर सिंह “शेरु” जब्त शल्कों के साथ (फ़ोटो: रितेश सरोठिया)

अवैध नेटवर्क के भंडाफोड़ के बाद एसटीएफ की यह 12 राज्यों से 165वीं गिरफ्तारी है। इससे पूर्व रणथंभोर स्थित टाइगर वॉच संस्था द्वारा दी गई एक महत्वपूर्ण सूचना के अंतर्गत कार्यवाही करते हुए एसटीएफ द्वारा 27-28 किलो पैंगोलिन शल्क जब्त किया गया तथा एक तस्कर दम्पत्ति (मुन्नी और हरी सिंह) कि गिरफ़्तारी भी कि गई। कार्यवाही के दौरान पाया गया कि भिंड / मोरेना स्थित मोगया सहित अन्य शिकारी जाति के लोग इनकी तस्करी में मदद करते थे और बाघ, बघेरा और अन्य वन्यजीवों कि भी तस्करी में शामिल थे। विश्व में सबसे ज्यादा पैंगोलिन कि तस्करी की जाती है और हर दिन लगभग तस्कर और शिकारी पैंगोलिन शल्क के साथ पकड़े जाते हैं। इसका अन्धाधुन्ध शिकार, बड़े पैमाने पर तस्करी, तेजी से बढ़ता शहरीकरण व इनके घटते प्राकृतिक आवासों से इनकी संख्या में भारी गिरावट आयी है।

पैंगोलिन एक गैर आक्रामक खूबसूरत लेकिन शर्मीला स्तनधारी जीव है। दूर से देखने पर यह छोटा डायनासोर जैसा प्रतीत होता है। गहर-भूरे, पीले-भूरे अथवा रेतीले रंग के इस शुण्डाकार निशाचर जीव को फोलिडोटा (Pholidota) ऑर्डर में रखा गया है। पैंगोलिन का छोटा शरीर एक चीड़ शंकु (pine cone) के समान होता है जिसकी लम्बाई लगभग दो मीटर तथा वजन लगभग पैंतीस किलो तक का होता है। इसके शरीर पर केराटिन के बने शल्क नुमा (scaly) संरचना होती है जो कि इस मासूम जीव का एकमात्र रक्षा तंत्र है। पैंगोलिन ऐसे शल्कों वाला अकेला ज्ञात स्तनधारी है। हालांकि वर्मी (Armadillo) भी कवच युक्त होते हैं लेकिन उनका कवच चमड़े का बना होता है। खतरा महसूस होने पर ये चेहरे को पूंछ में छुपा कर खुद को लपेटकर अच्छी तरह से संरक्षित एक गेंद का रूप ले लेते हैं। नुकीले शल्क इन्हें शिकारियों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इनकी पूंछ नुकीले काँटों के रूप में विकसित होती है जिन्हें ये हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

पैंगोलिन नाम मलय शब्द पेंगुलिंग से आया है, जिसका अर्थ है “जो लिपटकर गोल हो जाता है” भारत में इसे चींटीखोर, वज्रशल्क या सल्लू साँप भी कहते हैं। इस जिज्ञासु कीटभक्षी की विश्व भर में आठ प्रजातियां हैं जो अफ्रीकी और एशियाई महाद्वीप पर पाए जाते हैं। इन आठों ज्ञात प्रजातियों को मनीडे (Manidae) परिवार में रखा गया है। इस परिवार में इनको तीन जातियों में बांटा गया है, मानिस (Manis), फेटाजीनस (Phataginus) और स्मटसिया (Smutsia)। एशिया में पाई जाने वाली चारों प्रजातियां मनीस में शामिल हैं, जबकि अफ्रीका में रहने वाली चार प्रजातियां फेटाजीनस और स्मट्सिया में शामिल हैं।

 

भारतीय पैंगोलिन एक निशाचर प्राणी है जो दिन के समय अपनी माँद में आराम करते हैं और रात में भोजन कि तलाश में बाहर आते हैं। दिन में नींद व आराम में खलल न हो इस हेतु यह बिल के मुहाने को मिट्टी से हल्का सा बन्द कर देता है। ये लगभग 11 फुट गहरी सुरंग खोदकर अपने रहने के लिए 4 प्रकार के माँद का निर्माण करते हैं। पैंगोलिन मुख्यतः कीटभक्षी होते हैं, उनके आहार में अधिकांश चींटियों और दीमक की विभिन्न प्रजातियां शामिल हैं। इनके अलावा ये अन्य कीड़ों, विशेष रूप से लार्वा का भी उपभोग करते हैं। इन्हे आहार में ज्यादा बदलाव पसंद नहीं है, कीटों कि कई प्रजातियाँ उपलब्ध होने के बावजूद भी केवल एक या दो प्रजातियों का ही उपभोग करते हैं। एक पैंगोलिन प्रति दिन 140 से 200 ग्राम कीटों का उपभोग कर सकता है। (Mahmood et al., 2014)

पैंगोलिन की दृष्टि असामान्य रूप से कमजोर होती है जिसकी कमी अत्यधिक विकसित गंध लेने और सुनने की क्षमता से पूरी करते हैं। पैंगोलिन में दांतों कि भी कमी होती है इसलिए इनमें चींटियों और दीमक को खाने के लिए अन्य भौतिक विशेषताएँ विकसित हुई है। जैसे कि मजबूत कंकाल संरचना, मजबूत नुकीले नाखूनों से लैस पंजे। वे अपने शक्तिशाली पंजों का उपयोग दीमक के टीले खोदने और फाड़ने तथा शिकार को पेड़, जमीन और वनस्पति के बीच खोजने के लिए करते हैं। उनकी जीभ और पेट कि संरचना कीटों को पचाने में सहायता करती है। उनकी चिपचिपी लार चींटियों और दीमकों को जीभ से चिपकाने में सहायक होती है। दांतों कि कमी के कारण वे शिकार खोजते (foraging) समय छोटे पत्थरों को निगलते हैं जो उनके पेट में जमा होकर चींटियों को पीसने में मदद करता है। (Mohapatra et al., 2014)

खतरा महसूस होने पर पैंगोलिन एक स्कंक के स्प्रे के समान गुदा के पास ग्रंथियों से एक विषाक्त-महक वाले रसायन का उत्सर्जन कर सकता है। पैंगोलिन की जीभ विशालकाय चींटीखोर कि तरह बहुत लंबी होती है। बड़े पैंगोलिन 1.5 फुट तक अपनी जीभ का विस्तार कीट सुरंगों के अंदर जांच करने और अपने शिकार को प्राप्त करने के लिए उपयोग करते हैं।

 

पैंगोलिन अपने जीवन का अधिकांश भाग एकांत में व्यतीत करते हैं और वर्ष में केवल एक बार प्रजनन करने के लिए गर्मियों या सर्दियों में मिलते हैं। नर अपने क्षेत्र को मूत्र या मल से चिह्नित करते हैं जिससे कि मादाएँ उनको खोज सके। मादाओं के लिए प्रतिस्पर्धा होने पर नर अपने पूंछ का उपयोग आपसी युद्ध के लिए करते हैं। गर्भधारण की अवधि 65 से 70 दिनों कि होती है। इस दौरान नर व मादा पैंगोलिन जोड़े में रहते हैं। मादा साल में एक ही शिशु (पैंगोपप्स) को जन्म देती है। जन्म के समय वजन 80 से 450 ग्राम और औसत लंबाई 150 मिमी (6 इंच) होता है। जन्म के समय शल्क नरम और सफेद होते हैं जो कि कई दिनों के बाद एक वयस्क पैंगोलिन के समान कठोर और काले हो जाते हैं। थोड़े बड़े होने पर पैंगोपप्स को मादाएँ अपनी पूँछ पर बिठाकर जंगल में विहार कराने के दौरान सुरक्षा तथा भोजन खोजने व खाने का हुनर भी सिखाती है। कुछ महीनों बाद शिशु अपनी माँ से अलग हो जाता है। पैंगोलिन पेड़ों पर चढ़ने व पानी में तैरने में दक्ष होते हैं।

भारतीय पैंगोलिन कि उपस्थिति को विभिन्न प्रकार के वनों से दर्ज किया गया है, जिसमें श्रीलंकाई वर्षावन और मैदानी क्षेत्र से लेकर मध्य पहाड़ी स्तर शामिल हैं। यह घास के मैदानों और माध्यमिक जंगलों में भी पाया जा सकता है, तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित है लेकिन बंजर और पहाड़ी क्षेत्र इसके पसंदीदा आवासों में शामिल है। कभी – कभी यह पैंगोलिन उच्चतम ऊंचाई वाले स्थान जैसे कि श्रीलंका के 1100 मीटर कि ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों और भारत में 2300 मीटर कि ऊंचाई वाले नीलगिरि पहाड़ों पर भी देखा गया है। यह नरम और अर्ध-रेतीली मिट्टी पसंद करता है, जो कि इनके बिल खोदने के लिए उपयुक्त होते है। (Mohapatra et al., 2015)

वैसे तो पैंगोलिन अपने पर्यावास में व्यापक रूप से वितरित हैं लेकिन कहीं भी आसानी से नहीं दिखते। वर्ष 2019 में राजस्थान के कुम्भलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में 25 सालों बाद पहली बार नजर आया। कुम्भलगढ़ के अलावा जयपुर, सवाई माधोपुर, बारां, और कोटा में भी इसकी उपस्थिति दर्ज कि गई है।(मानचित्र: समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों पर आधारित)

पैंगोलिन अपने प्राकृतिक आवासों में दीमक और चींटियों की आबादी को नियंत्रित कर प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। लेकिन ग्रामीण व आदिवासी लोग अपनी बेवकूफी व नासमझी के कारण निहायती भोले इन जीवों का बर्बरता पूर्वक शिकार करते हैं। साथ ही हाल के कुछ वर्षों में, लोगों द्वारा पेड़ों कि कटाई से वन क्षेत्र में व्यापक कमी आई है जिसने कई प्रकार के पर्यायवासों को नष्ट कर दिया है। नए और सुगम यातायात सुविधाओं और अच्छे पैसे मिलने के कारण शिकारियों ने स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय खपत के लिए कई दुर्लभ वन्यजीव प्रजातियों की तलाश और तस्करी तेजी से बढ़ा दी है। (Dr Jeff Salz, 2020)

चींटियों की बांबी के पास रहने वाले इस जानवर की तलाश में शिकारियों को मुश्किल नहीं होती। इसके अलावा इसे मारने के लिए उन्हें खास हथियार भी नहीं ले जाने पड़ते हैं। छूने या खतरे का आभास होने पर पेंगोलिन खुद को शल्कों (खोल) में समेटकर फुटबाल की तरह गोल हो जाता है। इसके बाद वह देख ही नहीं पाता कि उस पर हमला किया जा रहा है। शिकारी आसानी से उसे पीट-पीटकर मार डालते हैं।

इसका मांस लजीज होने से चीन व वियतनाम जैसे कई देशों के होटल व रेस्टोरेंट में खाने की लिए बेधड़क परोसा जाता है। वैश्विक स्तर पर इनके मांस, चमड़ी, शल्क, हड्डियां व अन्य शारीरिक अंगों की अधिक मांग होने से इनका बड़े पैमाने पर शिकार करवाया जाता है तथा राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इनकी भारी मात्रा में तस्करी की जाती है। दूसरी ओर चीन व थाईलैंड जैसे कई देशों में इसके शल्कों का उपयोग यौनवर्धक औषधि व नपुसंकता दूर करने के लिये भी किया जाता है। जबकि आज तक इसका कोई वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध नहीं है। पैंगोलिन से बने काढ़े और संक्रमित तरल पदार्थ से इलाज करवाने हेतु पिछले वर्ष तक चीनी सरकार द्वारा नागरिकों को स्वास्थ्य बीमा के रूप में मदद भी दी जाती थी।

यूएस पार्टी सर्किट में शल्क का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। हाल ही में इंटरपोल की एक रिपोर्ट के अनुसार, पैंगोलिन के 26 प्रतिशत शल्कों को अमेरिका में भेजा जाता है। शल्क का उपयोग क्रिस्टल, मेथामफेटामाइन (methamphetamine ) के निर्माण के लिए किया जाता है, जो पार्टी ड्रग क्रिस्टल मेथ या क्रैंक (crystal meth or crank) का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। जानकारी के मुताबिक शल्कों को निकालने की लिये निर्दयतापूर्वक इन्हें जिन्दा ही खौलते गर्म पानी में डाल दिया जाता है। शल्कों का व्यापार गैर कानूनी होने के बावजूद भारत में आज भी इनकी बिक्री बेखौफ होकर धड़ल्ले से होती है।

हालांकि पर्यावरण एवं वन विभाग इन वन्य जीवों की ताजा स्थिति बताने में गुरेज करते हैं। लेकिन फिर भी कुछ राज्यों के विभाग इनके संरक्षण के लिए उतक्रिस्ट कार्य कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के अलावा उत्तराखंड वन विभाग ने भी विशेष कार्य बल संगठित किया है जो पंगोलीन को रेडियो टैग करने का कार्य कर रहा है। रेडियो टैग का कार्य अभी शुरुवाती दौर में है और फिलहाल मध्य प्रदेश वन विभाग ने अभी तक दो और उत्तराखंड वन विभाग ने एक पैंगोलिन को टैग किया है। (TOI, 2020)

अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) के नवीनतम अपडेट (2019) के अनुसार पैंगोलिन का भविष्य, आबादी में तेजी से कमी आने के कारण निराशाजनक दिखाई देता है। IUCN के अनुसार विश्व कि आठ प्रजातियों में से तीन प्रजातियाँ (चीनी, सुंडा, और फिलीपीन पैंगोलिन) गंभीर रूप से विलुप्तप्राय हैं, तीन विलुप्तप्राय (भारतीय, सफेद पेट वाले और विशाल पैंगोलिन) और बाकी के दो असुरक्षित है।

पहले से ही दुर्लभ और संकटग्रस्त इस जीव कि समस्याएं और बधाई है चीनी शोधकर्ताओं के नए शोध ने। साउथ चाइना एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का दावा है कि पैंगोलिन, चमगादड़ों और मनुष्यों के बीच कोरोना वायरस का एक मध्यवर्ती मेजबान हो सकता है। इसका अंदाजा पैंगोलिन में पहचाने गए वायरस से लगाया गया जो कि 99% कोरोना वायरस के समान था। हालांकि पैंगोलिन को कोरोना वायरस के कई स्ट्रैनस की मेजबानी के लिए जाना जाता है लेकिन इस प्रेस विज्ञप्ति के पीछे का शोध अभी तक वैज्ञानिक साहित्य में प्रकाशित नहीं हुआ है जिससे इन दावों का मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है।

वैज्ञानिकों द्वारा वायरस को स्थानांतरित करने का संदेह मात्र पैंगोलिन पर ही नहीं रहा। कोविड-19 के शुरुआती दिनों में चीनी शोधकर्ताओं ने बताया कि मूल रूप से सांप संभावित कैरियर थे लेकिन अब उन्होंने इस विचार का खंडन कर दिया है। 22 मार्च को प्रकाशित एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि वायरस की प्रोटीन संरचना और जीनोम प्रभावी रूप से सांपों से अलग है।

अभी सर्वसम्मति यह है कि कोरोना वायरस के मूल स्रोत चमगादड़ हैं। चमगादड़ SARS-CoV-2 वायरस के साथ अन्य कई वायरस के एक प्राकृतिक संग्रह केन्द्र के रूप में कार्य करते हैं। 2000 के दशक की शुरुआत में भी चमगादड़ ही SARS वायरस के लिए जिम्मेदार थे। लेकिन एक विचार ये भी है कि किसी अन्य जानवर ने वायरस को चमगादड़ से मनुष्यों में पहुँचाया होगा जो पैंगोलिन हो सकता है। अवैध चीनी व्यापार द्वारा पैंगोलिन का पारंपरिक चीनी चिकित्सा में उपयोग मनुष्यों में संचरण के लिए एक वेक्टर के रूप में सुझाया गया था। पैंगोलिन कोरोवायरस के कई वंशों की खोज और SARS-CoV-2 से उनकी समानता से संकेत मिलता है कि पैंगोलिन SARS-CoV-2 जैसे कोरोनवायरस के होस्ट हो सकते हैं। हालांकि, पूरे जीनोम की तुलना में पाया गया कि पैंगोलिन और मानव कोरोनवायरस अपने RNA का 92% ही साझा करते हैं। (Cyranoski et al., 2020)

अभी तक कोई निर्णायक शोध नहीं होने के बावजूद चीनी वैज्ञानिकों द्वारा पैंगोलिन को वायरस के संभावित ट्रांसमीटर के रूप में सूचीबद्ध करने पर पर्यावरणविदों ने चिंता जताई है। इन शुरुआती अटकलों के कारण पहले से ही संकटग्रस्त इस स्तनपायी के लिए और संकट उत्पन्न हुए हैं। आज बड़े पैमाने पर इनकी हत्या करने का प्रोत्साहन उसी प्रकार मिल है जैसा कि SARS के प्रकोप के दौरान एशियाई पाम सिवेट के साथ हुआ था। (CBS News, 2004) बहरहाल, पंगोलिन के अवैध व्यापार को समाप्त करना वन्यजीवों के उपभोग से जुड़े संभावित स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने में योगदान दे सकता है। कोरोना वायरस महामारी के पीछे वन्यजीव व्यापार कि अहम भूमिका को देखते हुए चीन के अधिकारी इसे वन्यजीव बाजारों को खत्म करने वाले एक संकेत के रूप में ले रहे हैं। जो कि आने वाले समय में वन्यजीवों के लिए एक अच्छी खबर हो सकती है।

पंगोलीन संरक्षण के लिए 2016 में, कई देशों ने पैंगोलिन की सभी आठ प्रजातियों को CITES Appendix I श्रेणी में सूचीबद्ध करने के लिए मतदान कर इनके व्यापार पर प्रतिबंध लगाया था। IUCN SSC पैंगोलिन स्पेशलिस्ट ग्रुप ने भी इनके संरक्षण के लिए वर्ष 2014 में “Scaling up Pangolin conservation” नाम से वैश्विक कार्य योजना प्रारंभ कि। (IUCN SSC)

भारत में पाए जाने वाले दोनों प्रजातियों (भारतीय और चीनी पैंगोलिन) को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 भाग 1 के तहत सूचीबद्ध किया गया है। इसका शिकार करना, इसको सताना, मारना या पीटना, विष देना, तस्करी करना यह सब गैर कानूनी एवं अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह प्रजाति विलुप्त न हो इस हेतु लोगों में जागरूकता लाने व इसके संरक्षण के लिये विश्व भर में प्रतिवर्ष फरवरी माह के तीसरे शनिवार को ‘वर्ल्ड पैंगोलिन डे’ (विश्व चींटीखोर दिवस) मनाया जाता है। लेकिन भारत में इसके प्रति लोगों में उत्साह नजर नहीं आता है।

References:

  1. Cyranoski, David. (2020-02-07). Did pangolins spread the China coronavirus to people? Nature. DOI: 1038/d41586-020-00364-2
  2. Mohapatra, R.K., Panda, S. (2014). Behavioural Descriptions of Indian Pangolins (Manis crassicaudata) in Captivity. International Journal of Zoology. Hindawi Publishing Corporation. Vol. 2014, Article ID 795062. http://dx.doi.org/10.1155/2014/795062
  3. IUCN SSC Pangolin specialist group, Red List Update: https://www.pangolinsg.org/2019/12/23/iucn-red-list-update-highlights-need-for-concerted-conservation-action-for-pangolins/
  4. Zhang, Y. (2020). Protein Structure and Sequence Reanalysis of 2019-nCoV. Proteome Res. 2020, 19, 4, 1351–1360 Publication Date: March 22, 2020 https://doi.org/10.1021/acs.jproteome.0c00129
  5. Mohapatra, R.K., Et al. (2015). A note on the illegal trade and use of pangolin body parts in India. TRAFFIC Bulletin Vol. 27 No. 1. https://www.pangolinsg.org/wp-content/uploads/sites/4/2018/06/Mohapatra-et-al_2015_A-note-on-the-illegal-trade-and-use-of-pangolin-body-parts-in-India.pdf
  1. Mahmood; Irshad; Hussain (2014). “Habitat preference and population estimates of Indian pangolin”. Russian Journal of Ecology. 45 (1): 70–75. DOI:10.1134/s1067413614010081
  2. In a first, MP shows way, radio-tags two pangolins: https://timesofindia.indiatimes.com/city/nagpur/in-a-first-mp-shows-way-radio-tags-two-pangolins/articleshow/cms
  3. Scientists radio-tag Indian pangolin (2020): https://www.thehindu.com/sci-tech/energy-and-environment/scientists-radio-tag-indian-pangolin/articleece
  4. MP: Wildlife STF arrests two for selling pangolin scales on YouTube (2020): https://timesofindia.indiatimes.com/city/bhopal/mp-stf-wildlife-arrests-two-for-selling-pangolin-scales-on-youtube/articleshow/76717230.cms
  5. Civet Cat Slaughter To Fight SARS (2004): https://www.cbsnews.com/news/civet-cat-slaughter-to-fight-sars/

 

 

 

साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पायी जाने वाली छिपकली, जो मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है परन्तु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते इसकी आबादी घोर संकट का सामना कर रही हैं।

साँड़े का तेल, भारत के विभन्न हिस्सो मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि हैं परन्तु इस तेल का तथाकथित बिमारियों मे कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र हैं एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाये गये हैं। आज इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बहुतायत में अवैध शिकार किया जाता हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सांडो की आबादी तेजी से घटती जा रही हैं।

साँड़े के नाम से जाने जाने वाला ये सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाए जाने वाली एक छिपकली हैं। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मजबूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती हैं। साँड़ा का अँग्रेजी नाम, Spiny-tailed lizard होता है जो इसे इसकी पूंछ पर पाये जाने वाले काँटेदार स्केल्स के अनेकों छल्लो (Rings) की शृंखला के कारण मिला हैं।

विश्वभर में साँड़े की 20 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो की उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम “Saara hardiwickii” हैं, जो की मुख्यतः अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा, एवं गुजरात के कच्छ जिले के शुष्क घास के मैदानों में पायी जाती है। कुछ शोधपत्रों के अनुसार साँड़े की कुछ छोटी आबादियाँ उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, उत्तरी कर्नाटक, तथा पूर्वी राजस्थान के अलवर एवं सवाई माधोपुर जिलों में भी पायी जाती हैं, जो की इनके शुष्क आवास के अलावा अन्य आवासों में वितरण को दर्शाती हैं। वहीँ दूसरी ओर वन्यजीव विशेषज्ञो के अनुसार साँड़े का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों, मुख्यत: अवैध शिकार का परिणाम हो सकता हैं क्योंकि वन्यजीव व्यापार में अनेकों जीवो को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता हैं।

साँड़े की भारतीय प्रजाती में नर (40 से 49 सेमी) सामन्यत: आकार में मादा (34 से 40 सेमी) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हें। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर से नुकीली होती हें जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे से भोंटी होती हैं।

भारतीय साँड़ा छिपकली (Indian Spiny tailed lizard “Saara hardiwickii”)

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पायी जाने वाली साँड़े की आबादी में, त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के स्केल्स में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परन्तु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में इस तरह का कोई भी रंग नहीं पाया जाता है। दोनों राज्यों में पायी जाने वाली आबादी में रंग के इस अंतर का कारण जानने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता हैं। परन्तु रंगों में यह अंतर आहार में भिन्नता तथा दोनों आवास में पायी जाने वाली वनस्पतियों में अंतर होने के कारण भी हो सकता है।

भारतीय साँड़े को भारत मे पाये जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनो की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता हैं लेकिन शिशु साँड़ा प्रायतः वनस्पति के साथ विभ्न्न कीटो मुख्यत: भृंग, चींटिया, दीमक, एवं टिड्डे का सेवन करते भी जाने जाते हैं।बारिश मे एकत्रित किए गए कुछ वयस्क साँड़ो के मल में भी कीटो की बहुतायत मिलना इनकी आहार के प्रति अवसरवादिता को दर्शाता हैं।

साँड़ा, मुख्यरूप से शाकाहारी भोजन पर ही निर्भर रहती है

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए साँड़े भी अन्य मरुस्थलीय जीवो के समान भूमिगत माँद में रहते हैं। साँड़े की माँद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा इसी कारण से यह अन्य सस्थलीय जीवों की माँद से अलग दिखाई पड़ती हैं। ये मांदे अक्सर टेड़ी-मेढी, सर्पाकर तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती हैं। माँद का आंतरिक तापमान बाह्य तापमान की तुलना में बहुत ही प्रभावी रूप से कम होता हैं, जिससे साँड़े को रेगिस्तान की भीषण गर्मी में सुरक्षा मिलती हैं। ये छिपकली दिनचर होती हैं तथा माँद में आराम करते समय अपनी काँटेदार पूंछ से प्रवेशद्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों विशेषकर परभक्षी जीवो को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को अपनी पूंछ द्वारा मिट्टी से सील भी कर देती हैं।

माँद बनाना, रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है तथा इसी कारण पैदा होने के कुछ ही समय बाद ही साँड़े के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ माँद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान साँड़े भी अत्यात्धिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिंद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की रस प्रक्रिया (metabolism) दर को धीमी कर शरीर में संचित वसा (stored fats) पर ही जीवित रहते हैं। हालांकि कच्छ के घास के मैदानों में शिशु साँड़ों को अक्सर दिसम्बर एवं जनवरी माह में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका मुख्य कारण कच्छ में सर्दियों के समय तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता हैं।

साँड़ों का प्रजनन काल फरवरी माह से शुरू होता है और उनके छोटे शिशुओं को जून व् जुलाई के महीने तक घास के मैदानों में इधर-उधर दौड़ते हुए देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय के दौरान भी ये छिपकलियां प्रकृति में सख्ती से दिनचर बनी रहती हैं तथा इनकी गतिविधियां सूर्योदय के साथ शुरू होती हैं एवं सूर्य क्षितिज से नीचे पहुंचते ही समाप्त हो जाती हैं। गर्मी के दिनों में तेज धूप खिलने पर यह भरी दोपहर तक सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहे तो इनकी शाम तक भी रहती है।

साँड़ा मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरमिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लाइकोजन और वसा की अधिक मात्रा, इसे रेगिस्तान में अनेकों परभक्षी जीवो के लिए प्रमुख भोजन बनाते हैं। साँड़े को दोनों, भूमि तथा हवा से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल मे पाये जाने वाले परभक्षी जीवो की विविधता एवं बहुतायता जिनमे स्तनधारी, सरीसृप, स्थानीय एवं प्रवासी शिकारी पक्षी शामिल हैं, सांडो की बड़ी आबादी का ही परिणाम हैं। हैरियर और फाल्कन जैसे कई अन्य शिकारी पक्षियो को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते हुए देखा जा सकता है। केवल बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं परंतु किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात साँड़ों का शिकार करने का अवसर नहीं गवाते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इन उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत साँड़ों को प्राप्त करने का एक अवसर भी नही गवातें। थार रेगिस्तान में विषहीन सांप की एक आम प्रजाति जिसे आम बोली में दो मूहीया धुंभी (Red sand-boa) कहते हैं, अक्सर साँड़े को माँद से बाहर खदेड़कर कहते हुए देखी जा सकती हैं। दो मूही द्वारा माँद में हमला करने पर साँड़े के पास अपने पंजो से जमीन पर मजबूत पकड़ बनाने एवं माँद की संकीर्न्ता के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता हैं। हालांकि दोमूही के लिए भी ये कार्य अत्यधिक ऊर्जा व समय की खपत करने वाला होता है क्योंकि साँड़े को माँद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन ये प्रयास व्यर्थ नहीं हैं क्योंकि एक सफल शिकार की कीमत ऊर्जा युक्त भोजन होती है। प्रायतः संध्या काल में सक्रिय होने वाली भारतीय मरु-लोमड़ी भी अपनी वितरण सीमा में अक्सर साँड़े को माँद से खोदकर शिकार करती देखी जा सकती हैं।

खाद्य पिरामिड के विभिन्न ऊर्जा स्तरो से परभक्षी जीवो की ऐसी विविधता के कारण साँड़े ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किये है। हालांकि इस छिपकली के पास किसी भी प्रकार की आक्रामक सुरक्षा प्रणाली से नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसका प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सुखी घास के समान होता हैं, जो इसके आसपास के पर्यावास में अच्छी से घुलकर एक छलावरण का कार्य करता हैं एवं इसे शिकारियों की नजर से बचाता हैं।

यदि छलावरण शिकारियों के खिलाफ काम नहीं करता, तो यह शिकारियों से बचने के लिए अपनी गति पर निर्भर रहती हैं। साँड़ा छिपकली के पीछे के टांगे मजबूत तथा उंगलिया लम्बी होती हैं जो इसे किसी भी शिकारी  से बचने के लिए उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। गति के साथ-साथ, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है। विशेष रूप से, जब शिशुओं के साथ हो, वयस्क छिपकली आगे के पैरो पर सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पे नजर रखती हैं। साँड़ा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढ़ती हैं और आसपास में एक मामूली हलचल मात्र से ही खतरा भांप कर निकट की माँद मे भाग जाती हैं। साँड़े अक्सर समूहो में रहते है तथा अपनी माँद एक दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरो को मादाओ से मिलन के लिए मुक़ाबला करते देखा जा सकता हैं। नर अपने इलाके को लेकर सक्त क्षेत्रीयत्ता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

आज मनुष्यों से, साँड़ा छिपकली को बचाने के लिए न तो छलावरण, न ही गति और न ही सतर्कता पर्याप्त प्रतीत होती हैं। साँड़े की वितरण सीमाओं में इनके अंधाधुन शिकार की घटनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं। माँद में रहने वाली इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारीयो को भी अनेकों तरीके इस्तेमाल करते देखा गया हैं।सबसे सामन्या तरीके में साँड़े की माँद को गरम पानी से भर के या माँद खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता हैं। एक अन्य तरीके में शिकारी, साँड़े की माँद ढूंढने के बाद उसके प्रवेश द्वार पर एक छोटी रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे जमीन में गाड़ देते हैं। जब साँड़ा अपनी माँद से बाहर निकलता है तो उस समय ये फंदा उसके सर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही साँड़ा वापस माँद में जाने की कोशिश करता हैं वैसे ही फंदा उसके शरीर पे कस जाता हैं, परिणाम स्वरूप साँड़ा वापस माँद में पूरी तरह नहीं जा पता हैं। तभी फिर साँड़े को पकड़ के उंसकी रीड की हड्डी तोड़ दी जाती हैं ताकि वो भाग न सके। तत्पश्चात उसके शरीर से मांस एवं पूंछ के वसा से तेल निकाला जाता हैं।

साँड़े को भारतीय संविधान के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची 2 में रखा गया हैं, जो इसके शिकार पर पूर्णत: प्रतिबंद लगता हैं। हालांकि, भारतीय साँड़े का आईयूसीएन (IUCN) की रेड डाटा लिस्ट के लिए मूल्यांकन नहीं किया गया है, लेकिन यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल हैं। TRAFFIC की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का हिस्सा 1997 से 2001 के बीच सांडो की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार का केवल दो प्रतिशत ही पाया गया, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय पैमाने पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का पर्यायवाची नहीं हैं, अपितु इसकी अधिक मात्र में स्थानीय खपत एवं व्यापार स्थानीय बाजार की स्थिति को दर्शाता हैं।

हाल ही में बेंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार साँड़े के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग हैं। पकड़े गए गिरोह का सम्बन्ध राजस्थान के जैसलमर जिले से पाया गया, जहां पर साँड़े अभी भी बुहतायत में पाये जाते हैं। समय समय पर चर्चा में आने वाले इस तरह के गिरोह का नेटवर्क कितना गहरा पसरा हुआ हैं कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडो को अक्सर कई स्थानीय बाजार में खुले बिकते भी देखा जाता हैं। प्रशासन की सख्ती के साथ साथ आम जनता में जागरूकता सांडो एक सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। अन्यथा भारतीय चीते के समान ये अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डोक्य्मेंटेरी में समा के रहा जाएगा।

सवाल यह है कि क्या भारतीय साँड़ा अपनी गति और सतर्कता के साथ आज की दुनिया में विलुप्ति की कगार से वापस आ सकता है जहां प्राकृतिक आवास शहरी विकास की कीमत चुका रहे हैं और जैवविविधता संरक्षण के नियमों की अनदेखी की जा रही है।