रणथम्भौर दुनिया का सबसे सूखा और गर्म जंगल है ऐसे में गर्मियों के मौसम में यहाँ के कुछ स्थायी जलश्रोतों के अलावा अधिकाँश जलश्रोत सूख जाते हैं। सरल भाषा में कहा जाए तो, पानी यहाँ पर एक Limiting Factor है। Limiting Factor, एक ऐसा कारक होता है जो किसी भी क्षेत्र में आबादी को निर्धारित करता है एवं उसके विकास को धीमा या रोकता है। खाना, पानी और आवास जंगल के कुछ Limiting Factor हैं जो वन्यजीवों की आबादी को निर्धारित करते हैं।
ऐसे में बाघ को हमेशा ऐसा इलाका चाहिए होता है जिसमें भरपूर मात्रा में शिकार और पानी हो तथा कई बार बाघों में जलश्रोत वाले इलाकों के लिए संघर्ष भी देखा जाता है। इस कथा चित्र में ऐसे ही एक संघर्ष को दर्शाया गया है।
रणथम्भौर में दो बाघिनों (घोस्ट (T60) और नूर) के क्षेत्र की सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी और उस क्षेत्र के किनारे पर ही कुछ जलश्रोत थे जिन्हें वो आपस में बांटा करती थी। दोनों बाघिन तीन-तीन शावकों की माँ थी और पानी की आवश्यकता के चलते वो आपस में सामंजस्य बनाये रखती थी। लेकिन जैसे ही गर्मिया तेज होने लगी नूर के इलाके में पानी सूखने लगा जबकि घोस्ट के हिस्से में बहुत पानी था।
गर्मियों की एक दोपहर, जब नूर अपने शावकों के साथ क्षेत्र की सीमा पर आराम कर रही थी, उसने घोस्ट को आते देखा और तुरंत उसे लड़ाई की चुनौती दी। दोनों बाघिन एक-दूसरे की ओर बढ़ी और तेज़ धार वाले पंजों और बहुत तेज आक्रामक आवाज़ के साथ लड़ाई शुरू हो गई।
दोनों बाघिन पूरी ताकत से लड़ रही थी और नूर लड़ाई जीत रही थी परन्तु फिर अचानक वह चट्टान पर गिर गयी।
नूर के गिरते ही घोस्ट ने तुरंत पीछे हटने का मौका देखा और वहां से जाने लगी।
जैसे ही नूर उठी, उसने घोस्ट का पीछा किया लेकिन वो लड़ाई को समाप्त कर नूर को विजयी छोड़ते हुए वहां चली गयी और नूर ने गर्व से तेज़ आवाज में दहाड़ कर अपनी जीत प्रसारित की।
इस घटना के बाद नूर उस क्षेत्र के सभी जलकुंडों की नयी मालिक बन गई और घोस्ट वापस नहीं आयी।
बाघिन के मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…
9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।
रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।
हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।
बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)
बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।
अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।
परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।
अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।
क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक
1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।
विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।
दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।
नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।
बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।
वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।
18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।
बेरदा वन क्षेत्र के शावक
4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।
कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता
अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।
पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।
चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।
नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)
अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।
फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।
जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।
सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार
झीलों की रानी और उसके तीन शावक
बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।
एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।
(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)
Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal
अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/
Indian Peafowl has been a prominent feature of the landscape of Rajasthan through the ages. There are many villages in Rajasthan where people and peafowl have co-existed for hundreds of years and have influenced each other socially, economically, culturally and so on. In some parts of India, peafowls are considered as crop pests or nuisance (negative interactions), in other parts they are seen as tourism attraction or as a sacred bird (positive interactions).
Peafowls in an agricultural field
Fascinated by such interactions between humans and peafowl, I and my team (Priyanka Dange, Vedanti Mahimkar, Rupesh Gawde and Tiger Watch Volunteers) studied Indian peafowl populations in the villages (Bangadda Kalan, Govindpura, Sanwata and Kuttalpura) in the vicinity of Ranthambhore Tiger Reserve, Rajasthan. They looked at diet, grouping behaviours and the intestinal parasites in Indian peafowl to understand how easy availability of food near humans can influence their behaviour and the diseases they catch.
Indian peafowl move around either individually, in pairs or groups which may consist of males, females, juveniles and chicks. Living in group has some advantages such as relative safety from predators but it also has costs such as competition for food among group members or increased chances of getting infected with some disease from other group members. Therefore, the research team studied whether peafowl change grouping patterns according to challenges faced by them in different seasons.
Team member collecting faecal samples of peafowls
Intestinal parasites which can be transmitted through infected water, soil, or food are a big problem not just for humans but peafowl as well. Our team studied intestinal parasites using the fecal droppings of Indian peafowl in villages around Ranthambhore during three different seasons: pre-monsoon (Jan-June), monsoon (July- Sept) and post-monsoon (Oct- Dec). Parasites were identified and counted using microscope. In pre-monsoon season (dry hot summer), there was less parasite load and less number of peafowl had parasite infections. This is the same season during which researchers saw big groups (sometimes as big as 14-15 individuals in a group) of peafowl moving around in search of food.
One can speculate that because of less parasites/ lower rate of transmission they can group together in large numbers and get the benefit of safety from predators. As soon as monsoon starts food (insects, worms, grass seeds, sprouts of different plants, grains) becomes abundant. During monsoon season more than 80% of peafowl get infected with intestinal parasites which spread easily during wet season. It becomes more risky to stay in groups because the chances of getting infected from other group members increase. Therefore, it is likely that peafowl also follow “social distancing” and the group size becomes small. The males also have to establish and defend a territory for the display as their breeding season starts. Thus, with changing season the big groups spilt and we see peafowl living individually, in pairs or very small groups of 3-4 individuals. The parasite infections are still high in post-monsoon season. In this season we see mostly peahens with their young chicks and sub-adults in a group, while most males live individually or in pairs. Thus, peafowl can weigh the risks and benefits and accordingly change their grouping behaviour or choices.
There is another interesting aspect to parasite transmission:
How food given by humans changes chances of disease transmission? Despite being considered as crop pests, the locals in villages around Ranthambhore offer food grains to Indian Peafowl as a daily ritual in the temples throughout the year. This is called as food provisioning. On an average ~15 kg grains are made available for wildlife every day in and around temple premises year-round. This is a very reliable source of nutritious food for the peafowl. Who would want to miss the opportunity of getting easy nutritious treats?
Food provisioning near temples
As a result, the place where food grains are offered is visited by many groups from surrounding areas. As peafowl from many different groups come together at feeding spot, the chances of transmitting diseases increase at feeding site. We observed that faecal samples collected near feeding site had many more parasites than samples collected at places far away from feeding spots. Thus, the feeding sites can become “hotspots” of disease transmission.
Peafowl from many different groups come together at feeding spot,
What do we learn from these interesting grouping behaviour of peafowl?
Just like humans, peafowl can also make decisions about living in a big group or not based on costs and benefits of the situation. Accordingly, they change their behaviour to get maximum benefits or reduce the costs. When the chances of getting disease are high, they prefer to live on their own or in small groups. But when it comes to getting good food, they are less careful about getting parasites from others. Isn’t that so human-like?
भारतीय मोर सदियों से राजस्थानी परिदृश्य का एक विशेष अंग रहा है, जहाँ एक ओर राजस्थानी लोकगीतों, किस्सों और कहानियों में मोर जिक्र होता है वहीँ दूसरी ओर आज भी यहाँ कई गाँव ऐसे हैं जहाँ सैकड़ों वर्षों से स्थानीय लोग और मोर एक साथ रहते हैं तथा एक-दूसरे को सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करते हैं। परन्तु भारत में अलग-अलग स्थानों पर लोगों की मोर के प्रति भावनाएं भी अलग-अलग है जैसे कि कई हिस्सों में मोर को खेती के लिए सिर्फ एक कीट के नज़रिए से देखा जाता है तो कुछ स्थानों पर इन्हें पर्यटकों के लिए आकर्षण और एक पवित्र पक्षी माना जाता है।
रणथम्भौर के पास एक खेत में विचरण करते हुए भारतीय मोर
मनुष्यों और मोरों के बीच इस व्यवहार को देखते हुए मैंने और मेरी टीम (प्रियंका डांगे, वेदांती महिमकर, रूपेश गावड़े और टाइगर वॉच वॉलंटियर्स) ने रणथम्भौर बाघ अभयारण्य के आसपास स्थित गांवों में भारतीय मोर के बारे में अध्ययन किया। इस अध्ययन में हमने भारतीय मोर की आहार विविधता, आपसी सामूहिक व्यवहार और शरीर में पाए जाने वाले परजीवियों को देखा। साथ ही यह समझने के भी प्रयास किये गए कि कैसे मानवीय आबादी क्षेत्रों के पास आसानी से मिलने वाला भोजन उनके व्यवहार और रोगों को प्रभावित करता है?
भारतीय मोर अक्सर अकेले, जोड़ों में या समूहों में रहते व घूमते हैं, तथा इन समूहों में नर, मादा, किशोर और चूज़े शामिल होते हैं। जहाँ एक ओर समूह में रहने से शिकारियों से सुरक्षा मिल जाती है वहीँ दूसरी ओर समूह में भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा और कई बार अन्य सदस्यों से बीमारी से संक्रमित होने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसीलिए हमारी टीम ने यह भी अध्यन्न किया कि, क्या मोर विभिन्न मौसमों में उनके सामने आने वाली चुनौतियों के अनुसार समूह पैटर्न को बदलते हैं?
मोरों के मलों के नमूने एकत्रित करते हुए मेरे टीम के सदस्य
संक्रमित पानी, मिट्टी और भोजन द्वारा न केवल मनुष्यों बल्कि प्रकृति में मौजूद सभी जीवों को विभिन्न बिमारियों का खतरा होता है। इसी क्रम में हमने मोरों में परजीवियों के संक्रमण का पता लगाने हेतु रणथम्भौर के पास स्थित मानवीय आबादी क्षेत्रों के आसपास पाए जाने वाली मोरों की आबादी के मलों के नमूने इकट्ठे किए। ये सभी नमूने वर्ष के तीन अलग-अलग मौसमों: मानसून से पहले (जनवरी-जून), मानसून (जुलाई- सितंबर) और मानसून के बाद (अक्टूबर- दिसंबर) इकट्ठे किए गए तथा उनकी जांच की गई।
मानसून से पहले (शुष्क गर्मी) के नमूनों में देखा गया कि, बहुत कम मोरों में परजीवी संक्रमण था और जिनमें था भी तो उनमें परजीवियों की संख्या कम थी तथा इस मौसम में मोरों के बड़े समूह (लगभग 14-15 मोर एक साथ) देखे गए थे। इस परिस्थिति में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि, क्योंकि मोरों में परजीवियों का संक्रमण कम था इसीलिए वे बड़े समूहों में रह रहे थे तथा शिकारियों से सुरक्षा का लाभ उठा रहे थे। परन्तु जैसे ही मानसून की शुरुआत होती है विभिन्न प्रकार के भोजन श्रोत जैसे कि, कीट, घास के बीज, विभिन्न पौधों के अंकुरित अनाज की बहुतायत बढ़ जाती है।
और मानसून के मौसम में 80% से अधिक मोर आंतों के परजीवियों से संक्रमित हो जाते हैं जो गीले मौसम में और आसानी से फैलते हैं। ऐसे में समूहों में रहना अधिक जोखिम भरा हो जाता है क्योंकि समूह के अन्य सदस्यों से संक्रमित होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए, इस परिस्थिति में मोर भी “सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing)” का पालन करते हैं और अपने समूहों के आकार छोटा कर लेते हैं।
मोरों के मलों में पाए गए परजीवी
मानसून में जब इनका प्रजनन काल शुरू होता है तब प्रत्येक नर को अपना क्षेत्र (territory) स्थापित कर उसकी रक्षा करनी पड़ती है और इसीलिए बदलते मौसम के साथ बड़े समूह टूट जाते हैं और हमें मोर अकेले, जोड़े में या फिर 3-4 के छोटे समूह में ही देखने को मिलते हैं। मानसून के बाद भी इनमें परजीवियों का संक्रमण अधिक ही रहता है। तथा इस मौसम में हमें ज्यादातर मादाएं और किशोर एक समूह में देखने को मिलते हैं, जबकि अधिकांश नर अभी भी अकेले ही रहते हैं।
इस प्रकार, मोर जोखिम और लाभों को मापते हुए अपने समूह और व्यवहार को बदलते हैं।
परजीवी के फैलने का एक और दिलचस्प पहलू है:
क्या आपने कभी सोचा है कि, मनुष्यों द्वारा दिया गया भोजन कैसे पक्षियों में बीमारियों की संभावनाओं को बदलता है।
फसल के लिए नुक्सान माने जाने के बावजूद, रणथंभौर के आसपास के गांवों में स्थानीय लोग साल भर मंदिरों में एक दैनिक अनुष्ठान के रूप में भारतीय मोर को अनाज देते हैं। इसे “चुग्गा डालने का रिवाज (food provisioning)” कहा जाता है। इस चलन के तहत गाँव वालों द्वारा मंदिर परिसर में और आसपास रोज़ाना औसतन 15 किलों अनाज वन्यजीवों के लिए उपलब्ध कराया जाता है। यह अनाज मोरों के लिए पौष्टिक भोजन का एक विश्वसनीय स्रोत है। अब ऐसे में आसानी से मिलने वाले पौष्टिक भोजन को पाने का मौका कौन गवाना चाहेगा? नतीजतन, जिस स्थान पर अनाज डाला जाता है, आसपास के क्षेत्रों के कई समूह वहां इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे ही कई अलग-अलग समूहों के मोर भोजन स्थल पर एक साथ आते हैं, उन जगहों पर आसानी से संक्रमण फैलने की संभावना बढ़ जाती है। और ऐसा ही कुछ हमने अध्यन में भी देखा।
स्थानीय लोग साल भर मंदिरों में एक दैनिक अनुष्ठान के रूप में भारतीय मोर को अनाज देते हैं
भोजन स्थलों से इकट्ठे किए गए मल के नमूनों में किसी अन्य स्थानों के अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में परजीवी पाए गए। और इसीलिए ये भोजन स्थल बिमारी का “केंद्र (Hotspot)” बन सकते हैं। इसीलिए मोर तो क्या किसी भी पक्षियों को भोजन डालना पक्षियों के लिए लाभदायक नहीं बल्कि हानिकारक होता है।
आसानी से भोजन मिलने पर आसपास के क्षेत्रों के कई मोर एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं
मोर के इन दिलचस्प समूह व्यवहारों से हम क्या सीखते हैं?
मनुष्यों की तरह ही, मोर भी बड़े समूहों में रह सकते हैं। परन्तु, ये बदलती परिस्थितियों के अनुसार लाभ को अधिकतम और नुकसान को कम करने के लिए अपने व्यवहार को बदलते हैं। जब बीमारी होने की संभावना अधिक होती है, तो ये आत्मनिर्भर या छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब अच्छा भोजन प्राप्त करने की बात आती है, तो ये दूसरों से होने वाले संक्रमण के प्रति सारी सावधानियों को भूल जाते हैं।