90 वर्ष पूर्व बाघों को फिर से बसाने की दास्तान

90 वर्ष पूर्व बाघों को फिर से बसाने की दास्तान

बोखा बाघ अब इतिहास का एक किस्सा भर लगता है, पर यह वह बाघ था जिसने डूंगरपुर राज्य को संरक्षण की मिशाल का अग्रणी बना दिया। 

डूंगरपुर रियासत के बाघ उस ज़माने के भीषण अकाल के कारण स्थानीय लोगो द्वारा बाघों के भोजन हिरन आदि को समाप्त करने से पैदा हुए संकट से कम होगये एवं बाकि कुछ जो बचे उन्हें रियासत में पदस्थापित अंग्रेज अफसरों ने पूरी तरह ही समाप्त दिए। कहा जाता है कि, रियासत के प्रमुख महारावल बिजय सिंह बाघों की घटती संख्या के चलते चिंतातुर थे, परन्तु जब तक कि वह कुछ ठोस कदम उठा पाते वर्ष 1918 में उनकी मृत्यु हो गयी। उनके पश्च्यात उनके पुत्र लक्ष्मण सिंह गद्दी पर बैठे परन्तु उम्र में काफी छोटे थे और अंग्रेजो के पोलिटिकल एजेंट डोनल्स फील्ड उनके दैनदिन के कार्यभार को सँभालने लगे। डोनाल्ड फील्ड भी शिकार के शौकीन थे। पहले से ही घटती बाघों की संख्या के काल में उन्होंने डूंगरपुर को पूर्णतया बाघ विहीन ही बना दिया था।

बाघ के शिकार का आयोजन उस समय का सबसे बड़ा खेल था और राजनैतिक रिश्ते बनाने का जरिया भी। शिकार के बहाने राजा महाराजा मिलते थे, और एक साथ अच्छा समय गुजारते थे। इस दौरान वह नए राजैनतिक और आर्थिक निर्णय भी लेते थे। यह डूंगरपुर के लिए एक बहुत बड़ा नुकशान था की अब वहां बाघ नहीं थे।

बोखा बाघ: जिसे ग्वालियर से डूंगरपुर लाया गया एवं प्रथम विस्थापित बाघ हो कर नए क्षेत्र में कुनबा बढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

छोटे बालक महारावल लक्ष्मण सिंह जब सक्षम हुए तो वर्ष 1928 में उन्होंने डूंगरपुर में पुनः बाघ लाने का निर्णय लिया। विभन्न उपायों को सोचने के बाद निर्णय हुआ की बाघ ला कर छोड़े जाये। चिड़ीयाघरो को वन्यजीव देने वाले एक व्यापारी से संपर्क किया गया और उसने दो बाघों को ग्वालियर के जंगलो पकड़ा और रेल की मदद से गुजरात के तालोड तक लाया। तत्पश्च्यात दोनों बाघों को को सड़क मार्ग से डूंगरपुर लाकर छोड़ा गया। बाघों को जंगलो से जिन्दा पकड़ना एक मुश्किल काम हुआ करता था, दवा से बेहोश करने का प्रचलन नहीं था। अक्सर बाघ पिंजरों के मजबूत सरियो से अपने दांत तोड़ लिया करते थे। लाये गये नर मादा बाघ के दांत भी शायद इसी कारण टूटे हुए थे, अतः नर को बोखा एवं मादा को बोखी कहा गया। 1928 से 1930 के मध्य कई बाघों को डूंगरपुर के जंगलो में छोड़ा गया।

अब इनकी सुरक्षा के लिए कई तरह के नियम कायदे बनाये गये, शुरुआती दौर में बाघों के शिकार को रोका गया, उनके लिए पानी की समुचित व्यवस्था की गयी। सुरक्षा दल का गठन किया गया एवं ताकीद की गयी की यदि कोई बाघ पालतू पशु आदि का शिकार करता है तो उसके मालिक को समय से मुआवजा भी दिया जायेगा। वर्ष 1935 के आते आते बाघों की संख्या बढ़ कर 20 होगयी थी। यह ६-७ वर्ष में प्राप्त की गयी एक बड़ी उपलब्धि थी। 1930 से 1937 के मध्य इन बाघों ने 45 शावकों को जन्म दिया था और डूंगरपुर को पुनः बाघों से समृद्ध धरती बनादिया था।

बोखा बाघ की समाधी (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इस तरह सरिस्का से पहले डूंगरपुर में  बाघ पुनर्थापन कार्यक्रम स्थापित किया गया था। इस तरह से सरिस्का से पहले डूंगरपुर बाघ पुनर्थापन कार्यक्रम स्थापित किया गया था।
यदपि सरिस्का में बाघ बाघ पुनर्स्थापन करना और भी अधिक मुश्किल काम था, जिसे राजस्थान वन विभाग ने बखूबी अंजाम दिया है। दुखद है की आज डूंगरपुर पुनः बाघविहीन है और इस इंतजार में है की कोई लक्ष्मण सिंह फिर आये जो इस भूमि को बाघों से युक्त कर दे।

सन्दर्भ:

  • Singh, P. &  G.V. Reddy (2016).Lost Tigers, Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present).WWF-India, New Delhi, 131 pp.
लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover Photo Caption & Credit : लंबी घास के किनारे पर बाघ का चित्रण (The Edinburgh journal of natural history and of the physical sciences, with the Animal kingdom of the Baron Cuvier  published in 1835)

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

वर्तमान में संरक्षित क्षेत्रों (अभयारण्य / राष्ट्रीय उद्यान) को बाघ अभ्यारण्य में परिवर्तित करने की लगातार मांग हो रही है। वह क्षेत्र भले ही बाघों के लिए उपयुक्त हो या नहीं , लेकिन गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता और राजनेता अपने आसपास के पार्क को टाइगर रिज़र्व घोषित करवाने को  एक बड़ी उपलब्धि के रूप में लेते हैं। परन्तु सिर्फ कागज़ों में संरक्षण के स्तर को बदलना आसान हैं, लेकिन इतना मात्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि किसी भी क्षेत्र में बाघों को बनाए रखना, उनके लिए अनुकूल हैबिटैट बनाना, वह भी इस भीड़ भरे देश में एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह आसान भी नहीं हैं।

वर्तमान में राजस्थान में रणथंभौर ही एक अकेला स्वस्थ बाघ रिज़र्व है जहाँ अच्छी मात्रा में बाघ रहते हैं। अक्सर राजस्थान के अन्य हिस्सों से  बाघों की मांग रणथंभौर से जुड़े लोगो को चिंतित कर देती हैं। रणथंभौर ‘समर्थकों’ के मध्य यह विचार बन रहा हैं की सरिस्का एवं मुकन्दरा  आदि जैसे अन्य संरक्षित क्षेत्र बाघों के लिए असुरक्षित हैं। यह लोग मानते हैं की रणथंभौर के अलावा, राज्य के अन्य सभी क्षेत्र बाघों के लिए नरक के सामान हैं।

दूसरी ओर, उन क्षेत्रों से जुड़े लोग मानते हैं कि रणथंभौर में पर्यटन लॉबीस्ट, बाघों को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भेजने का विरोध करते हैं, ताकि बाघ पर्यटन पर अपना एकाधिकार बनाए रख सकें।

मुझे लगता है कि दोनों तरफ के लोग कहीं बाघ संरक्षण के मूल आधार से विचलित हो रहे हैं। मेरी राय में, हमें राजस्थान में बाघों के लिए हर संभव और अधिक से अधिक उपयुक्त क्षेत्र विकसित करने चाहिए। यह रणथंभौर के बाघों की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इस महामारी के युग में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है एक अकेली आबादी किसी भी अनजान बीमारी की चपेट में आ सकती है और कुछ ही दिनों में यह पूर्ण तय समाप्त भी हो सकती हैं। आजकल कई सारे बैंक खाते रखना, होने संभावित वाली लूट के खिलाफ एक सुरक्षित रणनीति है, एक कालातीत मुहावरा आपने अवश्य सुना होंगे की अपने सभी अंडे एक टोकरी में नहीं डालने चाहिए, इस संदर्भ में यह पूरी तरह से उपयुक्त है।

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी एक प्राणी की बड़ी आबादी मात्र कुछ ही हफ्तों में ही विलुप्त हो गयी। किसी ने बहुत ही सावधानीपूर्वक इस तरह के विलोपन की जानकारी एकत्रित की है, जिसे आप यहां देख सकते हैं-

यह पूरी तरह गलत नहीं हैं की MHTR – कोटा, सरिस्का, रामगढ़ विषधारी -बूँदी, कुंभलगढ़ आदि आज भी अत्यंत असुरक्षित स्थान हैं एवं बाघों के लिए अत्यंत जोखिम भरे हैं। फिर हम क्यों नहीं कोई सुरक्षित रणनीति बना पा रहे हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं-

  1. एक स्थान से बाघ पकड़ कर नए स्थानों पर छोड़ना शायद सबसे आसान काम हैं परन्तु उन स्थानों को विकसित एवं सुरक्षित आवास में तब्दील करने में बहुत अधिक धन और निवेश की आवश्यकता होती है, और साथ ही हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसके बाद उस निवेश को पुनः कैसे प्राप्त किया जायेगा, इसीलिए अभी तक सरकारें बाघों के संरक्षण को एक बोझ की तरह समझती हैं।
  2. आमतौर पर बाघों का परिचय जल्दबाजी में लिए जाने वाले राजनीतिक फैसले होते हैं और जब सरकार बदलती है तो सब ठंडा हो जाता है।

हम सब जानते हैं की MHTR के मामले में, 4 बाघ छोड़े गये थे, लेकिन असल में मात्र  2 बाघों को ही स्थानांतरित किया गया था। दो बाघ अपने आप पहुंच गए। MT3 (T98) अपने आप उस सटीक जगह पर पहुंचा जहां वाल्मिक थापर और डॉ। जीवी रेड्डी की टीम ने MHTR में बाघों को लाने का फैसला किया था। उसे रणथम्भौर से वहाँ पहुँचने में मात्र एक महीना लगा। इसी तरह, MT1 (T91) ने  पहले ही रणथंभौर को छोड़ दिया और रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर बढ़ गया था और यहां तक कि वह इसे भी पार कर भीलवाड़ा जिले में पहुंच गया था और एक बार तो उसने MHTR तक पहुंचने की कोशिश भी की थी, लेकिन रस्ते के अवरोध के कारण वह MHTR से कुछ ही किलोमीटर दूर रह गया था।

एक लम्बे समय तक T91 का रामगढ विषधारी में  रुके रहना शायद यह भ्रम देता हैं की यह एक सुरक्षित ठिकाना हैं, वास्तव में यह पूरी तरह सही नहीं हैं क्योंकि उसे रोके रखने के लिए कई तरह के प्रयास किये गये थे, जैसे उसे तय समय पर, तय स्थान पर खाना देना, यह असल में उसे पकड़ने की रणनीति का एक हिस्सा था। रामगढ़ विषधारी के समर्थक अक्सर यह कसक दिल में रखते हैं की बाघ को यहाँ से पकड़ कर कोटा क्यों छोड़ा गया? क्योंकि आज भी रामगढ़ विषधारी पूरी तरह सुरक्षित नहीं एवं इतिहास की घटनाओ ने भी सिद्ध किया हैं की सामाजिक स्टार पर बाघों के अनुकूल माहौल बनाना अभी बाकि हैं, मात्र एक दो वन्यप्रेमीयो के अखबारों के बयान रामगढ़ विषधारी को बाघों के लिए मुफीद नहीं बनाता।

रणथंभौर ने निश्चित रूप से T83 और T106 नमक दो मादा बाघों को स्थानांतरित किया था । लाइटनिंग अथवा T83 लगातार बाहर जा रही थी और शेरपुर / खव्वा गांव के निवासी के लिए कई तरह की समस्या पैदा कर रही थी, वे निरंतर यह मांग कर रहे थे, कि उसे एक सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाए और इसी तरह T106 भी उसकी माँ और दो अन्य बहनों के बीच रणथम्भौर के एक कोने में अपर्याप्त स्थान में रह रही थी।  मैं यहां यह साबित करने की कोशिश कर रहा हूं, MHTR में बाघों को छोड़ना, आंशिक रूप से एक प्राकृतिक घटना थी और आंशिक रूप से रणथम्भौर के लिए एक तनाव मुक्त करने का जरिया भी।

MHTR में छोड़े गये बाघों का चयन तकनीकी रूप से बहुत सही था और यह किसी भी तरह से रणथम्भौर के लिए भार नहीं था, जैसे सरिस्का के समय  WII के जीवविज्ञानी और अधिक दबाव वाले वन अधिकारियों ने  गलत बाघों का चयन किया था – जिसमें कोई भाई-बहन था, कोई बाघ ऐसे थे जिन्होंने अपनी टेरिटरी स्थापित करली थी अथवा पर्यटन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले बाघ।

सरिस्का के समय अत्यंत गलत बाघों का चयन किया गया, जिससे बाघो के परिवारों को भी नुकसान पहुंचा। T12 का चयन यह भलीभांति  साबित करता है। सरिस्का के लिए हर समय रणथम्भौर में आसानी से मिलने, दिखने वाले बाघों का चयन किया गया और इससे निश्चित रूप से रणथम्भौर में पर्यटन से जुड़े लोगों में आक्रोश भी रहा। यह प्रयास पुनः भी किया गया, जब T65  का चयन सरिस्का के लिए किया गया, जो T73  मादा के साथ उसके 4 शावको का पिता हैं। खैर इस बार श्री अयान साधु – WII के वैज्ञानिक ने इसे समर्थन नहीं किया वरना पूर्व फील्ड डायरेक्टर उसे सरिस्का भेजने पर तुले हुए थे।

राजनीतिक रूप से प्रेरित या तर्कहीन अवैज्ञानिक रूप से बाघों की अनुचित हैं। जैसे रामगढ़ विषधारी-बूँदी से पहले कुंभलगढ़ में बाघों को लाने का कोई औचित्य नहीं है।

बूँदी के जंगल रणथम्भौर की बाघों की एक बड़ी आबादी के करीब हैं और उनके बीच टुटा फूटा एक गलियारा भी मौजूद है। यदपि कुम्भलगढ़ भी एक अच्छा निवास स्थान है, लेकिन यह रणथम्भौर के बाघों की मुख्य आबादी से तुलनात्मक रूप से दूर है, लेकिन रामगढ़ और MHTR  के विकास को प्राथमिकता देने के बाद, कुंभलगढ़ को बाघों के लिए भी विकसित किया जाना चाहिए ।

अतः अन्य क्षेत्रों में बाघों को छोड़ा जाना अत्यंत आवश्यक है ताकि हम अपने बाघों को आजकल फैलने वाली महामारियों से बचा सके । दूसरा हम रणथम्भौर को बाघों की बढ़ती आबादी के दबाव से मुक्त रख सकें। परन्तु सही बाघ का चयन आवश्यक है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है  कि नये क्षेत्रों को सुरक्षित बनाना और उनके लिए एक दीर्घकालिक संरक्षण रणनीति बनाना हैं । अप्राकृतिक कारणों से बाघों को मरते देखना बहुत दर्दनाक होता है।

 

 

 

विश्व का प्रथम बाघ पुनःस्थापन : डूंगरपुर राज्य के बाघ संरक्षण की कहानी

विश्व का प्रथम बाघ पुनःस्थापन : डूंगरपुर राज्य के बाघ संरक्षण की कहानी

बोखा बाघ अब इतिहास का एक किस्सा भर लगता है, पर यह वह बाघ था जिसने डूंगरपुर राज्य में किये गए हजारो शिकारों को भुला दिया और राज्य को संरक्षण की मिशाल का अग्रणी बना दिया। 

हम में से अधिकांश लोग भलीभांति परिचित है, की किस प्रकार सरिस्का में 2001 -04 तक शिकारियों द्वारा तेजी से सारे बाघों का सफाया कर दिया गया था, परन्तु तत्कालीन सरकार द्वारा सरिस्का में पुनः बाघ स्थापन किये गए, यहाँ रणथम्भौर से लेकर बाघों को छोड़ा गया I यद्पि सरिस्का के पर्यावास में अधिक सुधार नहीं हो पाया एवं यहाँ बाघों की स्थिति में अभी भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आ पाया ।

यद्पि इसे बाघों के पुनः स्थापित करने की प्रक्रिया को विश्व की पहली बाघ स्थानांतरण  प्रक्रिया के रूप में देखा गया परन्तु इतिहास के पन्नो को देखे तो पता लगेगा की यह कार्य वर्षो पूर्व डूंगरपुर स्वतंत्र राज्य ने 1928 में ही कर दिखाया था ।

डूंगरपुर राज्य शिकार के साथ वन्यजीव संरक्षण में सदैव अग्रणी भी रहा है, पर जब वर्ष 1918  में राज प्रमुख महारावल बिजय सिंह की अचानक मृत्यु हो गयी तो, वहां ब्रिटिश राज्य द्वारा स्थापित अंग्रेज अधिकारी डोनाल्ड फील्ड ने अपनी मर्जी से 2-3 वर्षो में सारे बाघों का शिकार कर दिया। नव स्थापित महारवाल लक्ष्मण सिंह अपनी बाल्यावस्था में थे। जब महारवाल लक्ष्मण सिंह जब बड़े हुए तो, उन्होंने तय किया की राज्य में पुनः बाघों को स्थापित किया जाये ।

डूंगरपुर के जूना महल की दीवारों पर बने बाघ शिकार के भित्तिचित्र (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्ष 1928, में दो बाघों को ग्वालियर से पकड़ कर रेल मार्ग से गुजरात लाया गया एवं तदुपरांत उन्हें सड़क मार्ग से डूंगरपुर लाया गया। इन दो बाघों में एक नर बाघ था जिसे ‘बोखा’ कहा गया एवं मादा को ‘बोखी’।

बोखा बाघ: जिसे ग्वालियर से डूंगरपुर लाया गया एवं प्रथम विस्थापित बाघ हो कर नए क्षेत्र में कुनबा बढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शायद इन बाघों को दूर तक पिंजरे में लाने के दौरान उन्होंने अपनी मुख्य कैनाइन दांत पिंजरे को तोड़ने में गिरा दिए होंगे, तथा बाद में यह बाघ बोखा एवं बोखी कहलाये यद्पि इसका विवरण नहीं मिलता है। इन दोनों को सफलतापूर्वक डूंगरपुर के समृद्ध वनों में छोड़ा गया साथ ही बाद में इसी क्रम में और बाघों को भी राज्य में लाया  गया ।

प्रमाण मिलते है की, केवल बाघ ही नहीं लाये गए बल्कि डूंगरपुर राज्य ने उनके संरक्षण के लिए समुचित प्रयास भी किये, जिनमें उनकी निरंतर मॉनिटरिंग, उनके जल आपूर्ति के लिए जल कुंड (वाटर होल) का निर्माण एवं बाघों द्वारा पालतू पशु मरने पर मुआवजा देने का प्रावधान भी किया गया ।

इन सभी प्रयासों का परिणाम भी सुखद निकला एवं राज्य में 7 वर्ष में यह बाघो की संख्या 20  तक पहुँच गए। कहते है बोखी बाघिन ने 3 बार बच्चे दिए जिनमें कुल मिलाकर 10 शावकों पैदा हुए। सन्दर्भ बताते है की यह प्रयोग अत्यंत सफल हुआ एवं 1930 से 1937 के मध्य वहां लगभग 3 दर्जन बाघ शवको का जन्म हुआ। इसी प्रकार राज्य ने 1948 तक 25 बाघों की संख्या को बनाये रखा ।

बोखा बाघ की समाधी (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यद्पि आज डूंगरपुर में कोई बाघ नहीं है परन्तु सिखने ले लिए वहां बहुत कुछ है। प्रयास करे हम हमारे इतिहास से सीखे एवं उसका सम्मान करे ।

सन्दर्भ:

  • Singh, P, Reddy, G.V. (2016) Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present). WWF-India, New Delhi.
  • Divyabhanusinh, 2018  pers comm.
  • Mahesh Purohit 2019 pers  Comm.