“बड़ी तादाद और विस्तृत क्षेत्र में पाए जाने वाले मानसून मार्ग प्रवासी पक्षी, रूफस-टेल्ड स्क्रब-रॉबिन अपनी सुंदरता के रंग बिखेरने जल्द ही अगस्त में भारत आने वाला हैं, तो तैयार हो जाइये जल्द ही इसे देखने के लिए”
राजस्थान में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं कुछ सर्दियों में अत्यधिक ठण्ड से बचने के लिए तो कुछ वर्षा ऋतू में प्रजनन के लिए यहाँ आते हैं। परन्तु कुछ पक्षी ऐसे भी हैं जो यहाँ से गुजरने वाले पर्यटक होते हैं जो लम्बी दुरी तय करने के दौरान बीच में किसी एक स्थान पर कुछ दिन के लिए रुक जाते हैं। ऐसा ही एक पर्यटक पक्षी जिसका नाम “रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन” जल्द ही (अगस्त) में राजस्थान में आने वाला है तथा इसे दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान यानि थार-मरुस्थल और रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) व इसके आसपास के इलाकों में देखा जा सकता है। रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, खुले-खुले पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है जो अपनी लंबी, गहरे भूरे रंग की पूंछ द्वारा पहचाना जाता हैं, जिसे वह अक्सर ऊपर-नीचे हिलाता और फैलाता है।
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, पृथक पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वर्गिकी एवं नाम उत्पत्ति (Taxonomy & Etymology):
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन (Cercotrichas galactotes) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Muscicapidae परिवार का सदस्य है। इसे रूफस स्क्रब रॉबिन, रूफस बुशचैट, रूफस बुश रॉबिन और रूफस वॉबलर नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 1820 में Coenraad Jacob Temminck ने रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Cercotrichas galactotes नाम दिया। Temminck एक डच जीव वैज्ञानिक और संग्रहालय निदेशक थे। इसका वैज्ञानिक नाम “Cercotrichas galactotes” एक ग्रीक भाषा का नाम है, जिसमें Cercotrichas ग्रीक भाषा के शब्द kerkos से लिया गया है जिसका अर्थ “पूँछ” होता है, तथा “galactotes” ग्रीक भाषा के शब्द “gala” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है दूध जैसा।
जर्मन वैज्ञानिक Johann Friedrich Naumann जिन्हे यूरोप में वैज्ञानिक पक्षी विज्ञान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है द्वारा बनाया गया चित्र।
निरूपण (Description):
इस रॉबिन में वयस्क नर और मादा एक जैसे ही दिखते हैं और सिर से पूँछ तक यह लगभग 6 इंच (150 मिमी) लंबे होते हैं तथा इनके पैर शरीर की अपेक्षा लम्बे होते हैं। इसके शरीर का ऊपरी भाग (पृष्ठ भाग) ललाई लिए भूरे रंग (चेस्टनट) का होता है। इसकी नाक से होते हुए आँख के पीछे तक एक हल्की घुमावदार क्रीम-सफ़ेद रंग की लकीर और आँख के पास एक गहरे भूरे रंग की लकीर होती है, तथा आँख का निचला हिस्सा सफेद रंग का होता है। आंख और चोंच दोनों ही भूरे रंग के होते हैं लेकिन चोंच का निचला हिस्सा ग्रे रंग का होती है। पूँछ के ठीक ऊपर का शरीर (Rump) और अप्परटेल कोवेर्ट्स बादामी रंग के होते हैं। शरीर का निचला भाग (अधर भाग) भूरे-सफेद रंग का होता है, परन्तु ठोड़ी, पेट और अंडर टेल कोवेर्ट्स अन्य भागों की तुलना में हल्के रंग के होते हैं।
इसके पंख गहरे भूरे रंग के होते हैं, जो सिरों से हल्के बादामी रंग और पीछे के किनारे ब्राउन होते हैं और सेकेंडरिस के सिरे सफ़ेद होते हैं। इसकी पूँछ के बीच वाले पंख (केंद्रीय) पंख चटक चेस्टनट रंग के होते हैं जिनके सिरों पर छोटी-सकड़ी काली पट्टी होती हैं तथा पूँछ के बाकि पंख चेस्टनट रंग के साथ सिरों से सफ़ेद रंग के होते हैं।
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को अक्सर खुले इलाको में जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को ऊपर-निचे हिलाता हैं फैलता है (फोटो: श्री नीरव भट)
इनके किशोर दिखने में लगभग वयस्क जैसे ही होते हैं लेकिन आमतौर पर इनके शरीर का रंग रेतीला-भूरा होता हैं। शरद ऋतु में यह मॉल्टिंग (अपनी पूँछ के पंख गिरा देते हैं) करते हैं तथा इससे कुछ दिन पहले ही इनकी पूंछ के पंखों के सफेद सिरे कम या बिलकुल गायब हो जाते हैं।
इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता है तथा ऐसा कहा जाता है कि, इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है।
इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। (फोटो: श्री नीरव भट)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
इसकी प्रजनन रेंज पुर्तगाल, दक्षिणी स्पेन और बाल्कन प्रायद्वीप से लेकर मध्यपूर्व से इराक, कजाकिस्तान और पाकिस्तान तक फैली हुई है तथा यह एक आंशिक प्रवासी पक्षी है जिसकी दक्षिण की ओर जाने वाली आबादी भारत से होकर गुजरती हैं। यह उत्तरी यूरोप के लिए एक असामान्य पर्यटक है। सर्दियों का समय यह उत्तरी अफ्रीका और पूर्व में भारत में बिताते हैं। यह निचले तलहटी वाले खुले शुष्क इलाकों जिनमे घनी झाड़ियां पायी जाती हैं में पाए जाते हैं तथा कई बार यह पार्को और बागों में भी पाया जा सकता है।
यह पक्षी बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है और भौगोलिक स्थितियों व मौसम के कारण इसके रंग-रूप में हल्के-फुल्के अंतर भी मिलते हैं, तथा इन्हीं अंतरों के आधार पर विभिन्न वैज्ञानिको ने इसकी पांच उप-प्रजातियां बनायीं हैं; Cercotrichas galactotes familiaris, Cercotrichas galactotes galactotes, Cercotrichas galactotes hamertoni, Cercotrichas galactotes minor and Cercotrichas galactotes syriaca. ऐसा माना जाता है कि, भारत में C. g. familiaris उप-प्रजाति पायी जाती है, यह दक्षिणी-पूर्वी प्रवासी है जो की अगस्त और सितंबर के महीने में राजस्थान, गुजरात, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में देखने को मिलती है। राजस्थान में इस प्रजाति को थार-मरुस्थल; जैसलमेर और सवाई माधोपुर में देखा जाता है।
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Grimett et al 2014)
व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन घनी वनस्पति वाले पर्यावास और खुले स्थानों पर भी पाए जाते हैं। खुले इलाको में इन्हे अक्सर जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को फैला कर ऊपर-नीचे हिलाता है। यह मुख्य रूप से बीटल्स, टिड्डों, तितलियों व पतंगों के लार्वा, छोटे कीटों और केंचुओ को खाते हैं, तथा अपने भोजन को खोजने के लिए यह नीचे पड़ी हुई पत्तियों को उलट-पलट करते हैं। अक्सर नर रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन एक असामान्य उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें ये अपने पंखों को ऊपर किये हुए एकदम से नीचे की और जाते हैं और साथ ही आवाज करते हैं।
यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता हैं तथा ऐसा कहा जाता हैं की इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है। (फोटो: श्री नीरव भट)
संरक्षण स्थिति (Conservation status):
रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन की एक व्यापक रूप से वितरित पक्षी है, जिसका अनुमानित विस्तार 4.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर (1.66 मिलियन वर्ग मील) है, और एक बड़ी आबादी (96 से 288 हजार), यूरोप में उपस्थित है। इन सब आकड़ों के साथ इनकी आबादी स्थिर भी है तथा इसीलिए IUCN रेड लिस्ट में इसको लिस्ट कंसर्न श्रेणी में रखा गया है।
तो बस यदि आप भी राजस्थान, गुजरात व दिल्ली में रहते हैं तो आने वाले हफ़्तों में इस बरसाती मेहमान को देखने के प्रयास करें और इसके सुंदरता का आनंद ले।
सन्दर्भ:
Sharma, N. 2017. First record of Rufous-tailed Scrub Robin Cercotrichas galactotes (Aves:Passeriformes: Muscicapidae) from Jammu & Kashmir, India. Journal of Threatened taxa. 9(9):10726-10728.
Naumann. F. Naturgeschichte Der Vogel, Mitteleuropas. Herausgegeben von Dr. Carl R. Hennicke in Gera. II. Band.
(Grasmücken, Timalien, Meisen und Baumläufer.). LITHOGRAPHIE, DRUCK UND VERLAG VON. FR. EUGEN KÖHLER.
“राजस्थान के चित्तौरगढ़ जिले की एक पिता पुत्र की जोड़ी ने अपनी सुबह की सैर के दौरान खोजी एक नयी मेंढक प्रजाति।”
राजस्थान के बेंगु (चित्तौरगढ़ जिले ) कस्बे में 21 जुलाई 2020 को राज्य के लिए एक नए मेंढक को देखा गया। यह मेंढक Uperodon globulosus है इसे सामान्य भाषा में “इंडियन बलून फ्रॉग” भी कहा जाता है क्योंकि यह अपना शरीर एक गुब्बारे की भांति फुला लेता है। राजस्थान में इस मेंढक की खोज एक पिता पुत्र की जोड़ी ने की है- श्री राजू सोनी एवं उनके 12 वर्षीय पुत्र श्री दीपतांशु सोनी जब सुबह की सैर के लिए जा रहे थे तो उन्हें यह मेंढक रास्ते पर मिला, उस स्थान के पास लैंटाना की घनी झाड़ियां है एवं मूंगफली एवं मक्के के खेत है। श्री सोनी ने मोबाइल के सामान्य कैमरे से इसके कुछ चित्र लिए। जिनके माध्यम से प्रसिद्द जीव विषेशज्ञ श्री सतीश शर्मा ने इस मेंढक की पहचान की। राजस्थान में इसी Uperodon जीनस के दो अन्य मेंढक भी मिलते है –Uperodon systoma एवं Uperodon taprobanicus। श्री राजू सोनी सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है। टाइगर वॉच के श्री धर्मेंद्र खांडल मानते है की यह यद्पि Uperodon globulosus प्रतीत होता है परन्तु एक पूर्णतया नवीन प्रजाति भी हो सकती है, अतः इस पर गंभीता से शोध की आवश्यकता है।
Uperodon globulosus “इंडियन बलून फ्रॉग” (फोटो: श्री राजू सोनी)
Uperodon globulosus location map
Uperodon globulosus का पर्यावास जहाँ यह पाया गया (फोटो: श्री राजू सोनी)
इस मेंढक Uperodon globulosus की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक Albert Günther ने 1864 में की थी। यह एक भूरे रंग का गठीले शरीर का मेंढक है जो 3 इंच तक के आकार का होता है। शुष्क राज्य राजस्थान में मेंढ़को में अब तक मिली यह 14 वे नंबर की प्रजाति है I राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में मेंढको पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI
श्री राजू सोनी चित्तौरगढ़ के सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है तथा वन्यजीवों की फोटोग्राफी के साथ-साथ उनके संरक्षण में रूचि रखते है। श्री दीपतांशु सोनी अपने पिता के साथ खोजयात्राओं में जाते हैं तथा वनजीवों में रूचि रखते हैं।
A leopard ran speedily and climbed up a tree, panting she was cautiously looking around, but what was she searching?एकपेड़परबघेराफुर्तीसेभागकरचढ़गया, ऐसाक्याहुआ? हांफताहुआवहइधरउधरझांकरहाथा, ऐसाक्याथाउधर?
Upon careful viewing we realized that there was a tiger too! उधर ध्यान से देखने पर पता लगा एक बाघ भी था।
And there was a leopard cub too which was up on the hill, it was watching the mother’s interaction with the tiger carefully learning an important skill of life. और तो और उधर एक बघेरे का शावक भी था, जो पहाड़ के ऊपर से अपनी माँ और बाघ के बीच क्या चल रहा है को बड़ी बारीकी से देख रहे थे।
The tiger had carefully calculated that the leopard was out of reach and walked away. बाघ भी बड़े ध्यान से मादा बघेरे को देख रहा था पर उसे अहसास होगया था की वह उसकी पहुँच से दूर है, और वहां से दूर चला गया।
The moment the tiger left; the mother leopard too walked in triumph towards its cub बाघ के दूर जाते ही मादा बघेरे भी अपने शावक से मिलने चल पड़ती है।
It was further joyous to see that it was not one but two cubs who got their mother safe that day! परन्तु यह और भी सुखद था की वहां एक शावक नहीं बल्कि दो शावक थे।
“टाइगर वॉच द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में, पार्वती नदी में घड़ियालों की एक आबादी की खोज के साथ ही यह पुष्टि की गयी है की पार्वती नदी घड़ियालों के लिए एक नया उपयुक्त आवास है।”
घड़ियाल, जो कभी गंगा की सभी सहायक नदियों में पाए जाते थे, समय के साथ मानवीय हस्तक्षेपों और लगातार बढ़ते जल प्रदुषण के कारण गंगा से विलुप्त हो गए, तथा आज यह केवल चम्बल तक ही सिमित है। वर्तमान में चम्बल नदी में 600 व्यस्क घड़ियाल ही मौजूद है तथा यह अपने आवास के केवल 2 प्रतिशत भाग में ही सिमित हैं, जबकि सन् 1940 में घड़ियाल कि आबादी 5000-10000 थी। पृथ्वी पर जीवित मगरमच्छों में से सबसे लम्बे मगरमच्छ “घड़ियाल” केवल भारतीय उपमहाद्वीप पर ही पाए जाते है। एक समय था जब घड़ियाल भारतीय उपमहाद्वीप कि लगभग सभी नदियों में पाये जाते थे परंतु आज यह केवल चम्बल नदी में ही मिलते हैं। सन् 1974 में इनकी आबादी में 98 प्रतिशत गिरावट देखते हुए वैज्ञानिकों द्वारा इसे विलुप्तता के करीब माना जाने लगा तथा IUCN कि लाल सूची (red list) में इनको घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered) श्रेणी में शामिल किया गया। स्थिति को देखते हुए सरकार व वैज्ञानिकों ने एक साथ इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाये और घड़ियालों के फलने-फूलने के लिए विशेष स्थान उपलब्ध कराने हेतु नए अभयारण्यों की स्थापना की गई। राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य (NCS) भारत का पहला और एकमात्र संरक्षित क्षेत्र हैं जो तीन राज्यों में फैला हुआ है तथा मुख्यरूप से मगरमच्छ प्रजाति के संरक्षण के लिए बनाया गया है। आज, चंबल अभयारण्य में गंभीर रूप से लुप्तप्राय घड़ियाल (Gavialis gangeticus) की सबसे बड़ी और विकासक्षम प्रजनन आबादी पायी जाती है। चम्बल नदी की तीन मुख्य सहायक नदियाँ हैं; पार्वती, कालीसिंध व बनास नदी, तथा पार्वती-चम्बल संगम से लेकर 60 किमी तक पार्वती नदी संरक्षित क्षेत्र में शामिल है, परन्तु अन्य दो नदियाँ NCS के बाहर हैं। प्रतिवर्ष चम्बल नदी में घड़ियालों की आबादी के लिए सर्वेक्षण किये जाते हैं तथा हर प्रकार की गतिविधि पर नज़र रखी जाती है, परन्तु इसकी सहायक नदियों में इनकी मौजूदगी व स्थिति का कोई दस्तावेजीकरण नहीं है।
घड़ियाल, को कभी-कभी गेवियल भी कहा जाता है, यह एक प्रकार के एशियाई मगरमच्छ होते हैं जो स्वच्छ प्रदुषण रहित नदियों में रहते हैं, तथा अपने लंबे, पतले, सकड़े जबड़े के द्वारा पहचाना जाता हैं। यह भूमि के लिए अच्छी तरह से अनुकूल नहीं हैं, और इसलिए ये आमतौर पर केवल धूप सेकने और घोंसले तक जाने के लिए ही पानी से बहार निकलते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में हुए एक अध्ययन से घड़ियालों की एक बड़ी आबादी की उपस्थिति पार्वती व बनास नदी तथा इनके प्रजनन की पुष्टि पार्वती नदी से की गई है। यह अध्ययन रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था द्वारा रणथम्भौर के भूतपूर्व फील्ड डायरेक्टर श्री वाई.के साहू के दिशा निर्देशों में वर्ष 2015 से 2017 तक किया गया तथा इसकी रिपोर्ट 17 जनवरी को आईयूसीएन पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन के लिए प्रेरणा तब मिली जब वर्ष 2014 में एक घड़ियाल को रणथम्भौर वन विभाग द्वारा बनास नदी से बचाया गया था। इस अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 2015 से 2017 तक प्रतिवर्ष सभी तीन सहायक नदियों पर सर्वेक्षण किये गए, ताकि घड़ियाल व मगरमच्छों की उपस्थिति के लिए प्रत्येक सहायक नदी की क्षमता का आकलन किया जा सके। वर्ष 2015 व 2016 में फरवरी माह में सर्वेक्षण किए गए तथा वर्ष 2017 में प्रजनन आबादी की मौजूदगी जानने के लिए जून माह में भी सर्वेक्षण किए गए। प्रत्येक सहायक नदी के बहाव क्षेत्र (पार्वती 67 किमी, काली सिंध 24 किमी, बनास 53 किमी) का सर्वेक्षण किया गया, तथा नदी के किनारे पर सभी प्रकार की मानवीय गतिविधियों को भी दर्ज किया गया।
इस अध्ययन द्वारा यह पता चला की पार्वती नदी में घड़ियालों की एक अच्छी आबादी और बनास नदी में कुछ पृथक घड़ियाल उपस्थिति है, जबकि कालीसिंध नदी में केवल मगर ही पाए जाते हैं।
घड़ियाल अन्य मगरमच्छों की तरह शिकार नहीं करते हैं- इनके थूथन (snout) में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं जो पानी में होने वाले कंपन को पता लगाने में मदद करती हैं। यह पानी के अंदर अपने मुँह को खोल कर धीरे-धीरे मछली के पास जाते हैं और दुरी शून्य होने पर फुर्ती से मछली को जबड़े में पकड़ लेते हैं, जिसमे सौ से अधिक दांतों के साथ पंक्तिबद्ध होते हैं। जहाँ वयस्क मछली खाते हैं, तो वहीँ इनके छोटे बच्चे कीड़े, क्रस्टेशियन और मेंढक खाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
पार्वती नदी का सर्वेक्षण:
पार्वती नदी में वर्ष 2015 में 14 और 2016 में 29 वयस्क घड़ियाल दर्ज किये गए, तथा सर्वेक्षण के दौरान एक नर घड़ियाल भी पाया गया, जिसके कारण वर्ष 2017 में सर्वेक्षण प्रजनन के समय यानी जून माह में किया और इस वर्ष कुल 48 वयस्क और 203 घड़ियाल के छोटे बच्चे पाए गए। पार्वती नदी (~ लंबाई में 159 किमी) मध्य प्रदेश में विंध्य पहाड़ियों की उत्तरी ढलानों से निकलती है और यह बारां जिले के चतरपुरा गाँव के पास से राजस्थान में प्रवेश करती है, जहाँ यह मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच 18 किलोमीटर की सीमा बनाती है। फिर बहती हुए यह नदी कोटा जिले के पाली गांव के पास चम्बल नदी में मिल जाती है। यह एक सतत बहने वाली नदी है जिसके किनारे रेत, चट्टानों और शिलाखंडों से युक्त होने के कारण अपने आप में ही एक अद्वितीय पारिस्थितिक तंत्र है।
पार्वती नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र
बनास नदी का सर्वेक्षण:
अध्ययन के दौरान बनास नदी में वर्ष 2015 में 1 और 2016 में केवल 5 घड़ियाल ही पाए गए। यह घड़ियाल के कोई स्थायी आबादी नहीं थे, बल्कि वर्षा ऋतु में नदी में पानी बढ़ जाने की वजह से चम्बल नदी से बह कर इधर आ जाते हैं और नदी में पानी कम हो जाने के समय ये कुछ छोटे इलाके जहाँ पानी हो वही मुख्य आबादी से दूर पृथक रह जाते है। बनास नदी (~ 512 किमी) की उत्पत्ति राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ से लगभग 5 किलोमीटर दूर अरावली की खमनोर पहाड़ियों से होती है। यह राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र से उत्तर-पूर्व की ओर बहती है, और सवाई माधोपुर जिले के रामेश्वर गाँव के पास चम्बल में मिल जाती है। इस नदी पर वर्ष 1999 में बीसलपुर बांध के निर्माण के बाद यह सूख गई तथा यह केवल तब ही बहती है जब वर्षा ऋतु में बाँध से अधिशेष पानी निकाला जाता है, और अन्य समय इसके कुछ गहरे कुंडों में ही पानी बचता है, तथा इन कुंडों का आपस में बहुत कम या कोई प्रवाह नहीं होता है।
बनास नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र
कालीसिंध नदी का सर्वेक्षण:
अध्ययन के दौरान इस नदी में कोई घड़ियाल नहीं मिला परन्तु इस नदी में मगरों की उपस्थिति पायी गयी। काली सिंध नदी (~ 145 किमी) मध्य प्रदेश के बागली (जिला देवास) से निकलती है और अहु, निवाज और परवन इसकी सहायक छोटी नदियां हैं। यह नदी राजस्थान में प्रवेश कर बारां और झालावाड़ जिलों से होकर उत्तर की ओर बहती है तथा कोटा जिले के निचले हिस्से में चम्बल में मिल जाती है। इस नदी के किनारे मुख्यरूप से सूखे, मोटी रेत, कंकड़-पत्थर और चट्टानों से भरे हुए हैं, परिणाम स्वरूप इसके किनारे कठोर, चट्टानी और बंजर हैं।
पार्वती नदी का 60 किमी का हिस्सा राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के अंतर्गत संरक्षित है। पहले, इस हिस्से का घड़ियालों द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कोई रेकॉर्ड नहीं थे, परन्तु इस अध्ययन ने दृढ़ता से यह स्थापित किया है की पार्वती नदी का यह संरक्षित खंड चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के भीतर घड़ियाल आवास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि घड़ियालों की एक आबादी इस हिस्से का घोंसले बनाने, प्रजनन, छोटे घड़ियालों के लिए उत्तम पर्यावास है। इसके विपरीत, सर्वेक्षण की गई अन्य दो नदियाँ बनास और कालीसिंध घड़ियाल के आवास के लिए बिलकुल भी उपयुक्त नहीं हैं। जहाँ एक तरफ बनास नदी पर बने बीसलपुर बाँध के कारण नदी कुछ छोटे गहरे खंडित कुंडों में बदल दिया है, और नदी केवल मानसून के दौरान बहती है जब बांध के द्वार खुले होते हैं। इस दौरान कभी-कभी, कुछ घड़ियाल चम्बल से बहकर इधर आ जाते है और पानी का स्तर कम होने पर इन्हींखंडों में फँसकर रह जाते हैं। वही दूसरी ओर कालीसिंध नदी मुख्यतः चट्टानी हैं, जिसमें रेतीले क्षेत्र बहुत ही कम हैं। चम्बल अभयारण्य की सीमा के बहार होने और किसी भी प्रकार का संरक्षण नहीं होने के कारण इस नदी के आसपास मानवीय हस्तक्षेप व् दबाव बहुत अधिक है।
घड़ियाल, ग्रीष्म ऋतू के शुष्क मौसम के दौरान अपने घोंसले बनाते व् प्रजनन करते हैं, और मादाएं धीमे बहाव वाले किनारे पर रेत में अंडे देती हैं। लगभग 70 दिनों के बाद बच्चे अण्डों से बाहर आते हैं, और यह अपनी मां के साथ कई हफ्तों या महीनों तक रहते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
मौसमी रूप से कम पानी की अवधि के दौरान, पार्वती और काली सिंध नदियाँ चंबल के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत हैं। तीन बड़े बाँध (गांधी सागर, जवाहर सागर, और राणा प्रताप सागर) और कोटा बैराज ने चम्बल की मुख्यधारा में पानी के बहाव को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है, जिसके कारण शुष्क मौसम के दौरान जल निर्वहन लगभग शून्य होता है। इस प्रकार पार्वती नदी न सिर्फ चम्बल के लिए प्रमुख जल स्रोत के रूप में अपनी भूमिका निभाती है बल्कि पार्वती नदी के निचले हिस्से घड़ियाल के लिए उपयुक्त अन्य आवास भी प्रदान करती हैं।
घड़ियाल पर्याप्त रेत के साथ स्वच्छ व् तेजी से बहने वाली नदियों को पसंद करते हैं, और उसमें भी विशेष रूप से गहरे पानी वाले स्थान इन्हें ज्यादा पसंद होता है। हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि घड़ियाल मौसमी लम्बी दूरी की यात्रा भी करते हैं, जहाँ यह मानसून में अच्छा भोजन उपलब्ध करवाने वाले प्रमुख संगमों के आसपास रहते हैं तो वहीं मानसून के बाद, सर्दियों, और मानसून के पहले यह अपने प्रजनन व् घोंसला बनाने वाले स्थानों पर चले जाते हैं। मादा घड़ियाल विशेष रूप से रेतीले हिस्सों पर स्थित उपनिवेशों में घोंसला बनाना पसंद करते हैं जो गहरे पानी से सटे हुए हो तथा वहां रेत की मात्रा भी ज्यादा हो। यह भी देखा गया है की घड़ियालों का पसंदीदा क्षेत्र दशकों तक एक ही रहता है परन्तु नदी की स्थानीय स्थलाकृतियों में आने वाले बदलाव के आधार पर यह थोड़ा बहुत बदलते भी रहते हैं। लोगों द्वारा पारंपरिक नदी गतिविधियां घड़ियाल को नदी के आस-पास के आवासों का उपयोग करने से नहीं रोकती हैं, लेकिन घड़ियाल आमतौर पर उन क्षेत्रों में रहने से अक्सर बचते है जहाँ रेत खनन और मछली पकड़ने का कार्य किया जाता है। नदियों में जुड़ाव होना भी बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यह घड़ियाल को प्रजनन और घोंसले बनाने के लिए अपनी जगह बदलने के लिए सक्षम बनाता है।
यह अध्ययन न केवल चम्बल अभयारण्य के अपस्ट्रीम खंडों के उपयुक्त घड़ियाल आवास और महत्वपूर्ण जल स्रोत के रूप में महत्व पर प्रकाश डालता है, बल्कि पार्वती सर्वेक्षणों से प्रजनन, वयस्कों और घड़ियालों के घोंसलों की पुष्टि भी करता हैं। परन्तु अध्ययन में इन नदियों के आसपास कई मानवीय गतिविधियां जैसे जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि दर्ज की गई जो इन घड़ियालों और मगरों के अस्तित्व को खतरे में डालती हैं। नदियों में पानी कम होने, मछलियों के कम होने के कारण और कई बार मछलियों के जाल में फंस जाने के कारण भी इनकी संख्या कम हो गई है। इन गतिविधियों के साथ-साथ कई बार मानव-घड़ियाल संघर्ष भी इनके लिए बड़ा खतरा बनजाता है, ऐसा वर्ष 2016 में बनास नदी के पास हुआ था जब कुछ लोगों ने एक नर घड़ियाल की दोनों आँखें फोड़ दी और उसके मुंह के ऊपर वाला जबड़ा भी तोड़ दिया।
आज हम देखे तो सभी मानवीय गतिविधियां (जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि) अभ्यारण्य के पुरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर घड़ियालों तथा अन्य जीवों के अस्तित्व को एक बड़े खतरे में डालती हैं और इसीलिए वर्तमान में आवश्यकता है स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए तथा अभ्यारण्य के आसपास अवैध मानवीय गतिविधियों को नियंत्रित किया जाये।
सन्दर्भ:
Khandal, D., Sahu, Y.K., Dhakad, M., Shukla, A., Katdare, S. and Lang, J.W. 2017. Gharial and mugger in upstream tributaries of the Chambal river, North India. Crocodile Specialist Group Newsletter 36(4): 11.16
“राजस्थान के बीकानेर जिले में पायी गई एक नई वनस्पति प्रजाति… “
केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर और बोटैनिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के कुछ शोधकर्ताओं द्वारा राजस्थान के बीकानेर जिले से एलो ट्राईनर्विस (Aloe trinervis) नामक एक नई वनस्पति की प्रजाति की खोज की गई है। इस प्रजाति में फूलों के ब्रैट्स में तीन तंत्रिकाएं (nerve) मौजूद होने के कारण इस प्रजाति का नाम ट्राईनर्विस रखा गया हैं क्योंकि यह लक्षण इस प्रजाति के लिए विशेष और अद्वितीय हैं तथा इस प्रजाति में जून-अगस्त माह में फूल तथा सितम्बर-अक्टूबर माह में फल आते हैं।
Aloe trinervis के फूल (फोटो: Kulloli et. al.)
वनस्पतिक जगत के परिवार Asphodelaceae के जीनस “Aloe” में लगभग 600 प्रजातियां शामिल हैं जो ओल्ड वर्ल्ड (अफ्रीका, एशिया और यूरोप) सहित, दक्षिणी अफ्रीका, इथियोपिया और इरिट्रिया में वितरित हैं। इस जीनस की प्रजातियां शुष्क परिस्थितियों में फलने-फूलने के लिए अनुकूलित होती हैं तथा इनकी मोटी गुद्देदार पत्तियों में पानी संचित करने के टिश्यू होने के साथ-साथ एक मोटी छल्ली (cuticle) होती है। हालांकि भारत में इन सभी प्रजातियों में से केवल एक ही प्रजाति “अलो वेरा (Aloe vera)” सबसे अधिक व्यापकरूप से वितरित है। शोधकर्ताओं; सी.एस. पुरोहित, आर.एन. कुल्लोली और सुरेश कुमार की कड़ी मेहनत द्वारा इस नई प्रजाति की रिपोर्ट के साथ ही अब भारत में इस जीनस की दो प्रजातियां हो गई हैं। डॉ चंदन सिंह पुरोहित बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। यह घासों के विशेषज्ञ हैं जिन्होंने 100 से अधिक शोध पत्र, 2 पुस्तकें प्रकाशित की हैं। डॉ रविकिरन निंगप्पा कुल्लोली, पिछले 12 वर्षों से रेगिस्तान की जैव विविधता पर शोध कर रहे है। इन्होने प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 30 शोध पत्र प्रकाशित किए हैं तथा वर्तमान में यह राजस्थान और गुजरात राज्यों के वन क्षेत्रों के आनुवंशिक संसाधनों के दस्तावेजीकरण और मानचित्रण पर कार्य कर रहे है। डॉ सुरेश कुमार, सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक (आर्थिक वनस्पति विज्ञान) और केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI) जोधपुर के विभागाध्यक्ष थे। इन्होने डेजर्ट इकोलॉजी पर विशेषज्ञता हासिल की है और अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं 250 से अधिक शोधपत्र और 10 पुस्तके प्रकाशित की हैं। साथ ही इन्होने चट्टानी, चूना पत्थर और जिप्सम वाले परियावासो को पुनः स्थापित करने तकनीक विकसित की है।
आखिर एलो ट्राईनर्विस और एलो वेरा में अंतर क्या है: एलो ट्राईनर्विस में पत्तियों के सिरों पर हल्के घुमावदार छोटे कांटे होते हैं, 3-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, शाखित पुष्पक्रम (inflorescence), हल्के पीले-हरे रंग के फूल मध्य से भूरे व् 31-34 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 29–33 मिमी तक होती हैं। जबकि एलो वेरा में पत्तियों के सिरों पर त्रिकोणाकार छोटे कांटे होते हैं, 5-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, अशाखित पुष्पक्रम (inflorescence), संतरी-पीले रंग के फूल 29-30 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 24–26 मिमी तक होती हैं। वर्तमान में इस नई प्रजाति एलो ट्राईनर्विस को शिवबाड़ी-जोरबीर संरक्षित क्षेत्र, बीकानेर, राजस्थान से एकत्रित किया गया हैं।
Aloe trinervis: A, inflorescence; B, leaf upper surface and margin; C, leaf lower surface and margin; D, white spots in young leaves; E, teeth; F, bract; G, bud; H, flower; I, perianth outer side; J, perianth inner side; K, stamens; L, pistil (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).
Comparative plant parts of Aloe trinervis and Aloe vera (A & B) with respect to (1) inflorescence, (2) corolla ventral view, (3) corolla dorsal view, (4) teeth arrangement, (5) bud, (6) floral bract, (7) teeth shape (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).
दोनों प्रजातियों एलो वेरा और एलो ट्राईनर्विस को CAZRI, जोधपुर में डेजर्ट बॉटनिकल गार्डन में लगाया गया है, तथा इसके नमूने BSI, AZRC, जोधपुर में संगृहीत हैं। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों को सब्जी और अचार बनाने के लिए इकट्ठा करते हैं। इसकी पत्तियों का उपयोग त्वचा उपचार के लिए औषधीय रूप के रूप में भी किया जाता है। और जानकारी के लिए सन्दर्भ में दिए शोधपत्र को देखें।
संदर्भ:
Cover picture Kulloli et. al.
Kumar S., Purohit C.S., and Kulloli R. N. 2020. Aloe trinervis sp. nov.: A new succulent species of family Asphodelaceae from Indian Desert. Journal of Asia-Pacific Biodiversity. 13:325-330.
शोधकर्ता:
Dr. Chandan Singh Purohit (1)(L&R): Dr. C.S. Purohit is working as Scientist at Botanical Survey of India. He is grass expert and published more than 100 research papers, 2 books on taxonomy, conservation biology, new taxa. He has also worked on vegetation of Shingba Rhododendron Sanctuary, Sikkim.
Dr. Kulloli Ravikiran Ningappa (2): He is working on desert biodiversity since last 12 years. He has published 30 research papers in reputed international and national journals. He has hands on GIS mapping, Species Distribution Modelling. Currently he is working on documentation and mapping of Forest Genetic Resources of Rajasthan and Gujarat states.
Dr. Suresh Kumar (3): He is retired Principal Scientist (Economic Botany) & Head of Division of Central Arid Zone Research Institute (CAZRI) Jodhpur. He has expertise on Desert Ecology and published more than 250 research papers in international and national journals and 10 books. He has developed technology to rehabilitate rocky habitats, limestone, gypsum and lignite mine spoils.