प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश: जीवनी परिचय

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश: जीवनी परिचय

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश थार रेगिस्तान के अत्यंत महत्वपूर्ण जीव वैज्ञानिक रहे है। इनके द्वारा किये गए अनुसन्धान ने रेगिस्तान के जीवों के अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली हैं। उनके जीवन पर डॉ प्रताप ने एक समग्र जानकारी एकत्रित की हैं

प्रारंभिक शिक्षा:

वैसे ईश्वर प्रकाश, जो अपने सहकर्मियों में आई पी (IP) के नाम से मशहूर थे, का जन्म 17 दिसंबर 1931 को मथुरा यू. पी. में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा माउंटआबू में हुई जहां इनका बचपन गुजरा, और शायद इसी लगाव के कारण उन्होंने अपने जीवन का अंतिम शोध प्रोजेक्ट माउंटआबू व अरावली की अन्य पर्वत श्रृंखलाओं पर पूर्ण किया। इस प्रोजेक्ट के अधिकतम भ्रमणों पर वह हमारे साथ चलते थे, व अपने बचपन के कई संस्मरण हम से सांझा करते थे। बचपन में इन्हे छोटे मोटे शिकार का भी शोख रहा था।  इनकी बचपन की इन्हीं वन्यजीव-अंतरक्रियाओं के कारण शायद उन्होंने प्राणीशास्त्र विषय चुना। इनकी बचपन की वन्यजीव संबंधी यादों में सियाह गोश का माउंटआबू में दिखना भी था। जिसे वह अपने हर माउंटआबू भ्रमण पर ढूंढते रहे। इनकी आगे की स्कूली शिक्षा पिलानी में हुई। जहां घर से स्कूल आते-जाते वह दिनभर रेगिस्तानी जरबिल, जोकि एक प्रकार का चूहा है, को घंटों देखते रहते थे व इनकी बाल मन में इनके प्रति आकर्षण विकसित हुआ। इसी जरबिल पर इन्होंने सर्वाधिक शोध कार्य किए व इस पर 100 से अधिक शोध-लेख प्रकाशित किए, जो इसकी वर्गिकी, कार्यिकी, चाराग्राह्यता, गंधग्रंथि से ले कर व्यवहारीकी के विभिन्न पहलुओं पर थे। इनके इन्हीं शोधकार्यों के कारण रेगिस्तानी जरबिल, मेरीओनिस हरीएनी, भारत की सर्वाधिक शोध की गई स्तनधारी प्रजाति है। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के पश्चात उन्होंने जीवविज्ञान विषय में स्नातक व प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्रियां राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से प्राप्त की। प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के पश्चात इन्होंने 1957 में इसी विश्वविद्यालय से विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की डिग्री प्राप्त की। यह कार्य इन्होंने प्रोफेसर दयाशंकर के यूनेस्को प्रायोजित प्रोजेक्ट, रेगिस्तानी स्तनधारी की पारिस्थितिकी अध्ययन में रहते हुए किया। इसी परियोजना में रहते हुए इन्होंने स्तनधारी विशेषज्ञ, खासतौर पर कृंतक विशेषज्ञ, के रूप में खुद को स्थापित किया। 1983 में इनको रेगिस्तानी कृंतको की पारिस्थितिकी व प्रबंधन पर किए कार्यो के लिए डी.एससी. की उपाधि प्रदान की गई। डी.एससी. की उपाधि प्राप्त करने वाले वह राजस्थान के प्रथम शोधार्थी थे।

व्यवसायिक जीवनवृति (प्रोफेशनल करियर):

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि प्रोफेसर प्रकाश ने अपनी आजीविका की शुरुआत राजस्थान विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में की थी। यहां यह महाराजा कॉलेज में प्राणीशास्त्र विषय पढ़ाते थे। इस शिक्षण कार्य के दौरान यह काफी नवपरिवर्तनशील थे। विद्यार्थियों को स्टारफिश की मुख-अपमुखी अक्स को कक्षा में यथार्थ रूप से छाता लाकर रसमझाते थे। इनकी यह प्रयोगात्मक शिक्षणविधि विद्यार्थियों द्वारा काफी सराही जाती थी। वहीं उन के वरिष्ठ सहकर्मी भी इससे प्रभावित थे। जब इन्होंने 1961 में शिक्षणकार्य छोड़कर नवस्थापित केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान केंद्र (सी.ए.जेड.आर.आई.) में प्राणी पारिस्थितिकी विज्ञानशास्त्री के रूप में सेवा ग्रहण करने का निर्णय लिया तो इनके परिवार व सहकर्मियों ने इसका काफी विरोध किया। धुन के पक्के प्रोफेसर प्रकाश ने 31 दिसंबर 1991 तक आई.सी.ए.आर. के इस संस्थान को अपनी कर्म भूमि बना इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 30 साल के लंबे शोधकार्यों के दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर की कृंतक अनुसंधान प्रयोगशाला को स्थापित किया। इन्हींके अथक प्रयासों से अखिल भारतीय समन्वय कृंतक शोध परियोजना (ए.आई.सी.आर.पी.) का विन्यास हुआ व वह इसके 1977 से 1982 तक प्रतिष्ठापक परियोजना समन्वयक रहे। इनके प्रतिभा-संपन्न शोधकार्यों को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1980 में इन्हें प्रोफेसर ऑफ एमिनेंस के पद नवाजा, जिसे इन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति वर्ष 1991 तक सुशोभित किया। सेवानिवृत्ति के पश्चात भी इन्होंने अपने शोधकार्य को अनवरत जारी रखा, जब भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान परिषद, नई दिल्ली ने इन्हें वरिष्ठ वैज्ञानिक का महत्वपूर्ण दर्जा दिया व विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने अरावली श्रृंखला के छोटे स्तनधारियों के अध्ययन हेतु दो शोध परियोजनाएं स्वीकृत की;  जिसे उन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के मरू प्रादेशिक केंद्र, जोधपुर में रहते हुए संपन्न किया। यहां आते ही इन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के इस केंद्र के सभी वैज्ञानिकों को सक्रिय कर दिया। व इसी का परिणाम भारतीय रेगिस्तान के प्राणीजात के सार-संग्रह के रूप में परिलक्षित हुआ। वह हमेशा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करते थे व शायद यही कारण था रेगिस्तान में शोधरत पूरे भारत के वैज्ञानिक इनसे सलाह-मशवरा लेने अवश्य आते थे।

एक सरल व्यक्तित्व:

अपनी अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश एक मृदुशील व समर्पित इंसान भी थे। इनके साथ की गई हर फील्ड भ्रमण में हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। प्राणीविज्ञान व्यवहारीकी के अतिरिक्त वे हमेशा जीवन जीने की कला के बारे में भी ज्ञान देते रहते थे। मानव क्यों प्राणीजगत में सर्वाधिक विकसित है तथा कृंतको की पारिस्थितिकी तंत्र में क्या भूमिका है, जैसे कई प्रश्न जो हमारे नवोदित शोधार्थी मस्तिष्क में आते थे,  वह बहुत सरल भाषा में समझा दिया करते थे। एक और बात जिसके लिए वह हमेशा हमें प्रेरित करते थे कि फील्ड में हर किस्म के प्राणी का अवलोकन करते रहो व अपनी डायरी में इसे रिकॉर्ड करते रहो। इन्हीं की इस प्रेरणा से पक्षियों में मेरा अत्यधिक रुझान उत्पन्न हुआ व इसे मैंने अपना शोधक्षेत्र बना लिया । बाड़मेर के एक भ्रमण के दौरान जब इन्हें एक नई छिपकली प्रजाति मिली तो वह इसे लेकर सी.ए.जेड.आर.आई. आ गए। सरीसृपविद डॉ. आर सी शर्मा को जब इस बात का पता चला तो वह इस बारे में चर्चा करने आए। बातों-बातों में जब इन्होंने हिंट दिया कि स्तनधारियों के भी आप विशेषज्ञ हैं और नया सरीसृप भी आप ही खोजेंगे, उनके इशारों को समझते हुए प्रोफेसर प्रकाश ने वह स्पेसिमेन उठाकर डॉ.शर्मा को दे दिया।

एक श्रेष्ठ शिक्षक, वैज्ञानिक मित्र:

प्रोफेसर प्रकाश एक महान वैज्ञानिक होने के साथ-साथ समर्पित शिक्षक व निष्ठावान मित्र भी थे। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा उनके द्वारा लिखे ढेरों शोधपत्रों, विनिबन्धों व पुस्तकों के रूप में आज भी रेगिस्तान पर शोध करने वालों का मार्गदर्शन करती है। उच्चकोटि का वैज्ञानिक होने के साथ-साथ वे एक प्रेरणादायक शिक्षक भी थे। हालांकि उन्होंने बहुत कम विद्यार्थियों को डॉक्टरेट की उपाधिके लिए मार्गदर्शन दिया परंतु वह अपने सहकर्मियों व वरिष्ठ वैज्ञानिकों के हमेशा रहनुमा रहे। तीन  दशकों से अधिक का उनका शोधकार्य स्तनधारियों के मुख्तलिफ आयाम जैसे वर्गीकरण (कृंतक पहचान की दृष्टि से सर्वाधिक मुश्किल समूह है), पारिस्थितिकी, जैविकी, व्यवहारीकी, कार्यिकी, व कृंतक नियंत्रण आदि पर केंद्रित रहा। प्रोफेसर प्रकाश गंध संप्रेषण संबंधी शोध करने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक थे। उन्होंने विभिन्न प्रजातियों में गंध-ग्रंथि की भूमिका पर भी काफी शोध किया। थार रेगिस्तान का प्रोफेसर प्रकाश के ह्रदय में विशेष स्थान था। भारतीय रेगिस्तान का कोई ही कोना होगा, चाहे वह कितना भी दुर्गम हो, जो उनके अन्वेषण से दूर रहा हो। रेगिस्तानी प्रजातियों के लिए वे हमेशा चिंतित रहते थे। वह अतिसंकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। भारतीय रेगिस्तान से चीता और शेर की विलुप्ति का उन्हें हमेशा रंज रहा। डब्लू.डब्लू.एफ. के साथ मिलकर उन्हों ने चीता को भारत में दोबारा लाने के कई बार प्रयास किए जो फलीभूत नहीं हो सके। वह रेगिस्तान से विलुप्त होते गोडावण, तिल्लोड, बट्टा, काला हिरण, चिंकारा, रेगिस्तानी बिल्ली, रेगिस्तानी लोमड़ी के लिए सदैव संवेदनशील रहे। वह अनेक प्रमुख मंचों से इन्हें बचाने की पुरजोर आवाज उठाते रहे। उनका यह कहना था कि यदि हमें रेगिस्तानी जैवविविधता को बचाना है तो हमें इसके घास के मैदानों को संरक्षित करना होगा व विदेशआगत पौधों से इसे बचाना होगा। डॉ. प्रकाश सरल व्यक्तित्व के साथ-साथ एक सच्चे मित्र भी थे। चाहे वह डॉक्टर पूलक घोष हो, एन.एस. राठौड़ या क्यु. हुसैन बाकरी उनका मित्रवत व्यवहार हमेशा अपने कनिष्ठ व वरिष्ठ साथियों में उन्हें लोकप्रिय बनाए रखता था।

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश द्वारा लिखी गयी कुछ पुस्तकें

एक उर्वर लेखक:

लेखन में डॉक्टर प्रकाश का कोई सानी नहीं था। उन द्वारा लिखे 350 से अधिक शोधपत्र व 20 से अधिक पुस्तकें आज भी रेगिस्तानी पारिस्थितिकी अध्ययन में मील का पत्थर हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व साइंटिफिक पब्लिशर्स के अतिरिक्त उन्होंने कुछ बहुत प्रतिष्ठित प्रकाशको के साथ अपनी पुस्तकें प्रकाशित की। देहरादून की इंग्लिश बुक डिपो द्वारा प्रकाशित थार रेगिस्तान का पर्यावरणीय विश्लेषण व सी.आर.सी. प्रेस द्वारा प्रकाशित रोडेंट पेस्ट मैनेजमेंट पुस्तकें आज भी शोधार्थियों में विशिष्ट स्थान रखती हैं। भारतीय रुक्ष क्षेत्र शोध  संस्थान  (ए.जेड.आर.ए.आई.) के वह संस्थापक सदस्य थे। इस संस्था के वह लगभग दो दशकों तक सचिव रहे व इस संस्था द्वारा आयोजित संगोष्ठी रुक्ष क्षेत्र शोध व विकास में उनकी अतिमहत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संस्था का एक और महत्वपूर्ण योगदान एनल्स ऑफ एरिड जोन नामक पत्रिका की शुरुआत करना था जिसका प्रकाशन आज तक अनवरत जारी है। “पब्लिश ओर पेरिश”  यह पंक्तियां वह हमेशा हमें व अपने सहकर्मियों को याद दिलाते रहते थे। एक सक्रिय सदस्य के रूप में वह कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समितियों में अपना योगदान देते रहे, जैसे कि यू.एन. की खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ऑ.), भारत सरकार की कृंतक नियंत्रण विशेषज्ञ समूह, आई.सी.ए.आर., आई.सी.एम.आर., डी.एस.टी., यू.जी.सी., योजना आयोग, भारतीय वन्यजीव शोध संस्थान व पर्यावरण मंत्रालय। एक विशेषज्ञ वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, थाईलैंड, फिलीपींस, यू.के., फ्रांस, चाइना, कुवैत व इटली आदि देशों का भ्रमण किया। अपने महान वैज्ञानिक जीवन-वृति के दौरान उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। आई.सी.ए.आर. का रफी अहमद किदवई सम्मान, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का हर स्वरूप मेमोरियल सम्मान इनमें सब से प्रमुख हैं। उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद के अनुभागीय अध्यक्ष रहने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक निपुण वैज्ञानिक होने के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश इमानदारी की मिसाल थे। कुशाग्र बुद्धि प्रशासक होने के बावजूद भी उन्होंने आई.सी.ए.आर.के कई संस्थानों के निदेशक व कई विश्वविद्यालयों में उपकुलसचिव के पद को ठुकरा दिया, क्योंकि विज्ञान और रेगिस्तान उनकी ह्रदय में समाए हुए थे। यह प्रसिद्ध वैज्ञानिक पृथ्वी पर अपनी सार्थक यात्रा पूरी करने के बाद 14 मई 2002 को अनंत काल के लिए रवाना हो गए, परंतु उनके लेख व अद्भुत प्रतिभा आज भी रेगिस्तान की फिजा में महक बिखेर रही हैं।

 

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली राजस्थान की मुख्य पर्वत शृंखला है जो छोटे और मध्य आकर के वृक्षों से आच्छादित है, इन वृक्षों में विविधता तो है परन्तु कुछ वृक्षों ने मानो पूरी अरावली में बहुतायत में मिलते है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण वृक्षों का विवरण यहाँ दिया गया है।
  1. धोक (Anogeissus pendula) :- यदि रेगिस्तान में खेजड़ी हैं तो, अरावली के क्षेत्र में धोक सबसे अधि० 8क संख्या में मिलने वाला वृक्ष हैं। कहते हैं लगभग 80 प्रतिशत अरावली इन्ही वृक्षों से ढकी हैं।  अरावली का यह वृक्ष नहीं बल्कि उसके वस्त्र हैं जो समय के साथ उसका रंग बदलते रहते हैं।  सर्दियों में इनकी पत्तिया  ताम्बई लाल, गर्मियों में इनकी सुखी शाखाये धूसर और बारिश में पन्ने जैसे हरी दिखने लगती हैं।  अरावली के वन्य जीवो के लिए यदि सबसे अधिक पौष्टिक चारा कोई पेड़ देता हैं तो वह यह हैं। इनके उत्तम चारे की गुणवत्ता के कारण लोग अक्सर इन्हे नुकसान भी पहुंचाते रहते हैं।  इनकी कटाई होने के बाद इनका आकर एक बोन्साई के समान बन जाता हैं, एवं पुनः पेड़ बनना आसान नहीं होता क्योंकि अक्सर इन्हे बारम्बार कोई पालतू पशु चरते रहते हैं, और इनके बोन्साई आकार को बरकरार रखते हैं।  यदि खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष नहीं होता तो शायद धोक को यह दर्जा मिलता।

2. तेन्दु एवं विषतेन्दु (Diospyros Melanoxylon) and (Diospyros cordifolia) :- बीड़ी जलाईल ले … जिगर मा बड़ी आग है
बस हर साल इस जिगर की आग को बुझाने के लिए हम बीड़ी के रूप में 3 से 4 लाख टन तेंदू के पत्ते जला देते हैं। तेन्दु का उपयोग बीड़ी के उत्पादन के लिए किया जाता है। देश में इनका अत्यधिक उत्पादन होना , उम्दा स्वाद होना, पते का लचीलापन, काफी समय तक आसानी से नष्ट नहीं होना और आग को बनाए रखने की क्षमता के कारण तेन्दु की पतियों को बीड़ी बनाने के लिए काम लिया जाता है ।जाने कितने लोग बीड़ी बनाने और पते तोड़ने के व्यापर में शामिल है। स्थानीय समुदायों को यह जीवनयापन के लिए एक छोटी कमाई भी देता है। तेंदू चीकू (सपोटा) परिवार से संबंधित है और वे स्वाद में भी कमोबेश इसी तरह के होते है। तेन्दु या टिमरू के फल को खाने का सौभाग्य केवल भालु, स्थानीय समुदाय और वन रक्षको को ही मिलता है।तेंदू के पेड़ का एक और भाई है- जिसे विषतेन्दु (डायोस्पायरस कॉर्डिफोलिया) कहा जाता है, जिसके फल मनुष्यों के लिए खाने योग्य नहीं बल्कि बहुत ही कड़वे होते हैं, लेकिन कई जानवर जैसे कि सिवेट इन्हें नियमित रूप से खाते हैं।विष्तेन्दु वृक्ष एक छोटी हरी छतरी की तरह होता है और चूंकि यह पतझड़ी वन में एक सदाबहार पेड़ है, बाघों को इनके नीचे आराम करना बहुत पसंद है। आदित्य सिंह हमेशा कहते हैं कि अगर आप गर्मियों में बाघों को खोजना चाहते हैं तो विष्तेन्दु के पेड़ के निचे अवस्य खोज करें। मैंने बाघ के पर्यावास की एक तस्वीर साझा की और आपको आसानी से पता चल जाएगा कि बाघों के लिए सबसे अच्छा पेड़ कौन सा है और यह छोटा हरा छाता क्यों एक अच्छा बाघों का पसंदीदा स्थान होता है? आप तस्वीर में पेड़ अवस्य ढूंढे।

3. कडायाSterculia urens ):-इसे  स्थानीय रूप से कतीरा, कडाया (कतीरा या कडाया गोंद के लिए प्रसिद्ध) कहा जाता है, लेकिन सबसे लोकप्रिय नाम है ‘घोस्ट ट्री’ है क्योंकि जब वे अपने पत्तों को गिराते देते हैं तो इसके सफेद तने एक मानव आकृति का आभास देते हैं।मेरे वनस्पति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने इसे एक प्रहरी वृक्ष के रूप में वर्णित किया है क्योंकि यह आमतौर पर पहाड़ो के किनारे उगने वाला यह पेड़, किलों की बाहरी दीवार पर खड़े प्रहरी (गार्ड) की तरह दिखता है।यह के पर्णपाती पेड़ है और सभी पर्णपाती पेड़ जल संसाधनों का उपयोग बहुत मितव्ययीता से करते है लेकिन इनके पत्तों का आकर विशाल होता है और उनके उत्पादन में कोई कमी नहीं होती। अरावली पहाड़ियों में कतीरा पेड़ के संभवतः सबसे बड़ा पत्ता होते है; उनकी पत्तियाँ बहुत नाज़ुक और पतली होती हैं और वे पूरे वर्ष के लिए कुछ महीनों में पर्याप्त भोजन बनाने में सक्षम भी होती हैं। यह पर्णपाती पेड़ों की एक रणनीति का हिस्सा है कि उनके पास हरे पेड़ों की तुलना में बड़े आकार के पत्ते हैं, जो यह सुनिश्चित करते है कि प्रकाश संश्लेषण की दर और प्रभावशीलता अपेक्षाकृत अधिक रहे ।कतीरा का विशिष्ट सफेद चमकता तना चिलचिलाती धूप को प्रतिबिंबित करदेता हैं और यह भी पानी के नुकसान को कम करने के लिए एक और अनुकूलन है। अधिकांश पर्णपाती पेड़ो पर फूलो की उत्पती उस समय होती है जब वे सरे पत्ते झाड़ा देते है, उस समय के दौरान परागण की संभावना बढ़ जाती है । घनी पत्तियां से होने वाली रुकावटों के कारण परागण में बाधा होती हैं I कुछ मकड़ियों ने पश्चिमी घाट में कीड़ों का शिकार करने के लिए अपने आप को इस पेड़ के साथ अनुकूलित किया है। कतीरा के पेड़ पर कुछ मकड़ियों को आसानी से देखा जा सकता है जैसे कि फूलों पर प्यूसेटिया विरिडान और उनकी तने पर पर हर्नेनिया मल्टीफंक्टा।मानव आवासों के नजदीक, हम तेजी से उन्हें विदेशी सदाबहार पेड़ पौधे लगा रहे है जो जैव विविधता के साथ जल संरक्षण के लिए भी हानिकारक है I

4. गुरजणLannea coromandelica ):-वृक्ष पक्षीयो के बड़े समूहों के लिए पसंदीदा बसेरा है, पत्तों से लदे वृक्ष के बजाय पक्षी इस पर्ण रहित पेड़ की शाखाओं पर बैठना अधिक पसंद करते हैं, जहां से वह अपने शिकारियों पर निगरानी रख सके उत्तर भारत के सूखे मौसम में गुरजण में वर्षा ऋतू के कुछ दिनों बाद ही पते झड़ने लगते हैI यह पुरे वर्ष में आठ माह बिना पत्तियों के गुजरता है। इसकी प्रजाति का नाम कोरोमंडलिका है जो कोरामंडल (चोला मंडल साम्राज्य) से आया हैI यह जंगलो में स्थित प्राचीन भवनो और इमारतों में उगना पसंद करते हैं I

5. कठफडी  ( Ficus mollis ):- एक सदाभारी पेड़ हैं, जो पत्थरो और खड़ी चट्टानों को पसंद करता हैं। इनकी लम्बी जड़े चट्टानों को जकड़े रखती हैंजो अरावली और विंध्य पहाड़ियों की सुंदरता को बढ़ाती हैं।  इसीलिए इस तरह के पेड़ो को लिथोफिटिक कहते हैं।  यह बाज और अन्य शिकारी पक्षियों को ऊंचाई पर घोसले बनाने लायक सुरक्षित स्थान प्रदान करता हैं।  स्थानीय लोग मानते हैं यदि इसके पत्ते भैंस को खिलाया जाये तो उसका दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता हैं।

6. ढाक / छिला / पलाशButea monosperma ) :- दोपहर की राग भीम पलाशी हो या अंग्रेजो के साथ हुआ बंगाल का  प्रसिद्ध पलाशी का युद्ध इन सबका सीधा सम्बन्ध सीधा सम्बन्ध इस पेड़ से रहा हैं- जिसे स्थानीय भाषा में पलाश कहते हैं ।जब इनके पुष्प एक साथ इन पेड़ो पर आते हैं, तो लगता हैं मानो जंगल में आग लग गयी हो अतः इन्हे फ्लेम ऑफ़ थे फारेस्ट भी कहते हैं।  इनके चौड़े पत्ते थोड़े बहुत सागवान से मिलते हैं अतः ब्रिटिश ऑफिसर्स ने नाम दिया ‘बास्टर्ड टीक ‘ जो इस शानदार पेड़ के लिए एक बेहूदा नाम हैं।  वनो के नजदीक रहनेवाले लोग  अपने पशुओ के लिए इनसे अपने झोंपड़े भी बना लेते हैं।

7. झाड़ी ( Ziziphus nummularia ) :-सिक्को के समान गोल-गोल पत्ते होने के कारण झाड़ी को वैज्ञानिक नाम Ziziphus nummularia हैं। यद्पि यह राजस्थान में झड़ी नाम से ही प्रसिद्ध है।एक से दो मीटर ऊंचाई तक की यह कटीली झाडिया बकरी, भेड़ आदि के लिए उपयोगी चारा उपलब्ध कराता हैं।  लोग इनके ऊपरी भाग को काट लेते हैं एवं सूखने पर पत्तो को चारे के लिए अलग एवं कंटीली शाखाओ को अलग करके उन्हें बाड़ बनाने काम लिया जाता हैं।  झाड़ियों में लोमड़िया, सियार, भालू, पक्षी आदि के लिए स्वादिष्ट फल लगते हैं एवं इनकी गहरी जड़ो से स्थिर हुई मिटटी के निचे कई प्राणी अपनी मांद बनाके रहते हैं।  बच्चे भी इनके फल के लिए हमेशा लालायित रहते हैं।

 

राजस्थान में मिलने वाले कछुओं की प्रजातियां

राजस्थान में मिलने वाले कछुओं की प्रजातियां

राजस्थान के भूभाग पर  विशाल प्राकृतिक आवास जैसे थार का रेगिस्तान, अरावली एवं विंध्यन की शुष्क पर्वतमाला, शुष्क और अर्ध-शुष्क पतझड़ी वन, अलवणीय एवं लवणीय झीलें तथा आर्द्र भूमि आदि मौजूद हैं | राजस्थान के इन पारिस्थितिकी तंत्रों में अत्यंत विकसित जैव विविधता भी उपलब्ध है |

क्या शुष्क राजस्थान में जलीय प्राणी वर्ग में भी विविधता होगी ? राजस्थान राज्य में 26 बड़ी नदियाँ बहती हैं एवं यहाँ पर बड़ी संख्या में झीलें एवं तालाब हैं |  राजस्थान में जलीय कछुओं की 10 प्रजातियाँ पाई जाती हैं और 01 प्रजाति जमीन पर रहने वाली पाई जाती है | जैव विविधता के एक अनोखे वर्ग – कछुओं के प्रति हम सदैव अनभिज्ञ रहे है। कछुए माँसाहारी और शाकाहारी दोनों ही तरह के होते हैं, ये मरे हुए जानवरों के सड़े-गले अवशेषों को खा जाते हैं, इससे नदी, नालों को साफ रखने में बहुत सहायता मिलती है | कछुए भोज्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते है।

राजस्थान में पाए जाने वाले कछुओं में सबसे ज्यादा जलीय कछुओं की निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं:

  1. निल्सोनिया गेंजेटिका (इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia gangetica (Indian softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 94 से.मी तक बड़ी होती है | यह प्रजाति सड़े गले मांस एवं पानी में पाए जाने वाले पौधों के साथ में जलीय वनस्पती, मछलियों, अन्य कछुओं की हैचलिंग एवं जल पक्षियों पर शिकार करते है| गंगा स्वछता अभियान के अंतर्गत इस प्रजाति को नदी साफ करने के लिए छोड़ा गया हैं| यह एक बार में 13-35 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास तक देते है जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है | रणथंभोर टाइगर रिजर्व में कुछ साल पहले एक बाघ को इन्डियन सॉफ्टशेल टर्टल का शिकार करते हुए भी देखा गया है | इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |

इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया गेंजेटिका), IUCN status : V, WLPA Sch.- I. (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)

 

2. निल्सोनिया हुरम (इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia hurum (Indian peacock softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक और प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 60 से.मी तक बड़ी होती है और मछली एवं घोंघे खाते है | इनके खोल पर 4 से 5 गोल  निशान देखे जा सकते हैं | यह एक बार में 20-38 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास में देते हैं| यह प्रजाति राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय वन्य जीव अभ्यारण्य एवं चम्बल नदी के कुछ हिस्सों में पाई जाती हैं| इस प्रजाति का शिकार मांस और अंडो के लिए किया जाता है।

इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया हुरम), IUCN status : V, WLPA Sch.- I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

3. लिसेमिस पंक्टाटा (इंडियन फ्लेपशेल टर्टल) Lissemys punctata (Indian flapshell turtle): नदी, झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक छोटी प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 37 से.मी की होती है और टैडपोल, मछली और जल कुम्भी आदि खाते हैं।  यह प्रजाति सितंबर से  नवंबर मास में अंडे देते हैं और एक बार में 8- 14 अंडे देते हैं जिनमें से बच्चे तकरीबन 9 महीने में निकलते हैं । यह कछुआ पालने और इसके मांस के लिए अधिक मांग में हैं|  माना जाता है की इस प्रजाति की राजस्थान में 2 उप-प्रजातियां पायी जाती है ( लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी- Lissemys punctata andersonii और लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा – Lissemys punctata punctata) राजस्थान की लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा उप -प्रजाति इंडिया में पाए जाने वाली वाकी लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा से कुछ अलग बताई जाती है। इसलिए इस उप-प्रजाति पर आनुवंशिक अनुसंधान चल रहा जिससे इसके बारे में कुछ विशेष बातें पता लग सकती है।

 

इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा ), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: मेहुल सिंह तोमर)

 

4. चित्रा इंडिका (नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल) Chitra indica (Narrow headed softshell turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक नरम खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | वे नदी के तल पर मौजूद रेत में खुद को दफनाते हैं और मछलियां, मोलस्क, आदि का शिकार करते हैं | इस प्रजाति के कछु-ए 150 से.मी तक बढ़ सकते हैं और अगस्त-सितंबर मास में अंडे देते हैं। एक बार में यह प्रजाति 65 से 193 अंडे दे सकते हैं| वे अपने अंडे रेत में देते हैं और उनमें से बच्चे 40-70 दिनों में बाहर आते हैं। इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |

नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल (चित्रा इंडिका), IUCN Status: EN, WLPA Sch.- II (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

5. जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी (स्पोटेड पोंड टर्टल) Geoclemys hamiltonii (Spotted pond turtle): झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक छोटी प्रजाति है| इसका रंग काला होता है और इसके ऊपर पीले डॉट्स भी होते है। यह प्रजाति लगभग 41 से.मी तक बड़ी होती है और मछली,घोंघे, घास, फल एवं जलकुम्भी खाते है | भारत में यह प्रजाति अप्रैल-मई मास में लगभग 12-36 अंडे देते है और उनमें से बच्चे 50-60 दिनों में बाहर आते हैं। यह कछुआ इसके आकर्षक चित्तीदार पैटर्न के कारण पालने के लिए अधिक मांग में हैं|

स्पोटेड पोंड टर्टल (जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी), IUCN status: EN, WLPA Sch. – I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

6. हार्देला थुरजी (क्राउंड रिवर टर्टल) Hardella thurjii (Crowned river turtle): यह नदी व उनकी छोटी और स्थिर शाखाओं में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक बड़ी प्रजाति है। इसका रंग काला होता है और इसके मुँह पर 4 पीली-नारंगी रंग की धारियां देखी जा सकती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 61 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 18 से.मी के हो सकते है। मुख्य तौर पर शाकाहारी होती है, इसलिए सब्ज़ी, फल, आदि खाते है। यह प्रजाति सितम्बर से जनवरी मास में अंडे देते है और एक बार में 30-100 अंडे दे सकते है। जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है। इसके मांस की खपत और मछली पकड़ने के जाल में फसना उनके लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभर के आया है।

क्राउंड रिवर टर्टल (हार्देला थुरजी), IUCN status: V, WLPA Sch: not listed (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

7. बटागुर कछुगा (पेंटेड रूफ टर्टल) Batagur kachuga (Painted roofed turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजाति है। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों में पायी जाती है। राजस्थान में यह प्रजाति चम्बल में देखी जा सकती है। इस प्रजाति में भी नर मादा से छोटे होते है, प्रजनन काल में वयस्क नर का मुँह चटक लाल, नीला और पीला रंग अपना लेता है। यह लगभग 56 से.मी तक बढ़ सकते है और शाखाहारी होते है, मुख्या तौर पर यह प्रजाति जलीय वनस्पती खाते है।  यह साल में दो बार अंडे देते है मार्च से अप्रैल और दिसंबर माह में, एक बार में करीब 11-30 अंडे देते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।

पेंटेड रूफ टर्टल (बटागुर कछुगा), IUCN status: CR, WLPA sch: I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

8. बटागुर ढोंगोका (थ्री-स्ट्राइपड रूफ टर्टल ) Batagur dhongoka (Three-striped roofed turtle)  : यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | इस प्रजाति को इसके कवछ पे मौजूद 3 काली धारियों और आँखों के पार जाती पीली धारी से पहचाना जा सकता हैं।   भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों एवं चम्बल में पायी जाती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 48 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 25.5 से.मी तक बढ़ सकते है। मुख्या तौर पर यह शाखाहारी होते है मगर इस प्रजाति के नर अवसरवादी मांसाहारी होते है।  यह मार्च से अप्रैल माह में अंडे देते है , एक बार में यह 21-35 अंडे तक दे सकते है जिनसे बचे निकलने में 56-89 दिन लगते है।  इसके ऊपर मंडराता खतरा भी इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।

थ्री-स्ट्रीप रूफ टर्टल (बटागुर ढोंगोका), IUCN status: CR, WLPA Sch: not listed (फोटो: भास्कर दिक्षित/ TSA- India)

 

9. पेंग्शुरा टेक्टा( इंडियन रूफड टर्टल) Pangshura tecta (Indian roofed turtle): ये कछुए ठहरे पानी वाली नदियों व नालों में पाए जाती है। इस प्रजाति के कई कछुए एक साथ धूप सेकते देखे जा सकते है। ये एक सख्त खोल की छोटी प्रजाति का कछुआ है। यह कछुआ लगभग 18 से.मी बड़े हो सकते है, यह किशोर अवस्था में मासाहारी होते है लेकिन व्ययस्क होते-होते शाकाहार अपना लेते है।  यह सितम्बर से नवंबर मास में एक कछुआ 5 से 10 अंडे  दे सकता है। यह उत्तर भारत और मध्य भारत में पाए जानी वाली प्रजाति है। इस प्रजाति का इस्तेमाल चीनी दवाइयों में और इसके आकर्षक रंगो के कारण पालने के लिए किया जाता है।

इंडियन रूफड टर्टल (पेंग्शुरा टेक्टा), IUCN status: LC, WLPA sch: I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

10. पेंग्शुरा टेंटोरिया (इंडियन टेंट टर्टल) Pangshura tentoria (Indian tent turtle): यह छोटी एवं बड़ी नदियों में पाए जाने वाली सख्त खोल की छोटी प्रजाति है। इसके ऊपर खोल के किनारो पर मौजूद गुलाबी धारी इसे वाकी पेंग्शुरा प्रजाति के कछुओं से अलग करती है। यह कछुआ लगभग 27 से.मी बड़े हो सकते है । इस प्रजाति के  किशोर एवं व्ययस्क नर मांसाहारी होते है, लेकिन इस प्रजाति के मादाएं पूरी तरह से शाकाहारी होती है। ये एक बार में 3-6 अंडे देते है जिनमे से बच्चे निकलने में 125-144 दिन लग सकते है। इस प्रजाति के नर और किशोर पालने के लिए पकडे जाते है।

इंडियन टेंट टर्टल (पेंग्शुरा टेंटोरिया), IUCN status: LC, WLPA sch.: Not listed (फोटो: रिषिका दुबला / TSA- India)

 

11. जियोचिलोन एलिगेंस (इंडियन स्टार टोरटोइस) Geochelone elegans (Indian star tortoise): स्टार टोरटोइस एक ज़मीनी कछुए की प्रजाति है जो खेतों के आस-पास अथवा वन में पाए जाते है। इनका खोल सख्त होता है और उसके ऊपर स्टार जैसा पैटर्न होता है। यह लगभग 38 से.मी जितना बड़ा हो जाता है  | पुरानी स्टडीज से पता चलता है कि स्टार टोरटोइस शाकाहारी है परन्तु इसे मृत जानवरों के अवशेषों को खाते हुए देखा गया है, स्टार टोरटोइस को मृत जीवो को खाते हुए भी देखा गया है | यह मार्च- जून एवं नवंबर माह में 2-10 अंडे देते है, जिनमे से बच्चे निकलने में 100-130 दिन लग सकते है।इन कछुओं की मांग पालने एवं काले जादू के लिए इस्तेमाल में लिए जाने की वजह से बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक वास के नुकसान से भी इनके लिए खतरा बना हुआ है।

इंडियन स्टार टोरटोइस (जियोचिलोन एलिगेंस), IUCN status: V, WLPA sch.: IV (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)

 

भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार ये कहा जाता है कि एक विशाल कछुए ने समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत के मंथन में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था , यही मुख्य कारण है कि इनकी तस्करी की जाती है | आज भी माना  जाता है कि  एक और मिथ  हैं कि कछुए के माँस से ट्यूबरक्लोसिस का उपचार होता है जिसके कारण इसका बहुत अधिक मात्रा में शिकार होता हैं | इनको माँस के लिए भी मारा जाता हैं | स्टार टोरटोइस को पालने के लिए अधिकांशत: अरावली की तलहटी एवं राजस्थान के अन्य वनों में से पकड़कर बेचा जाता है, इनकी मांग दीवाली के त्यौहार के दौरान सर्राफा व्यवसायियों के बीच बढ़ जाती है | संरक्षित क्षेत्रों में से होकर बाँध, उच्च मार्गों का निर्माण, बालू का खनन इनके लिए मुख्य खतरे हैं, टर्टल संरक्षण के लिए राजस्थान में भी जागरूकता पैदा किए जाने की अत्यधिक आवश्यकता है, अन्यथा हम देखेंगे कि राज्य से बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी | 11 में से 07 प्रजातियों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम स्थिति) अनुसूची-I एवं अनुसूची-IV में 1 के अंतर्गत अनुसुचिबद्ध किया गया है |

 

राजस्थान में कछुओं की बहुरूपता का बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ है, इस बारे में अधिकांश जो अध्ययन हुआ है, वो चंबल एवं केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में हुआ है, इसलिए यह अनुशंसा है कि कछुओं के संरक्षण हेतु विभिन्न कार्यक्रमों  के माध्यम से इनके निवास को संरक्षित एवं कछुओं पर गहन अध्ययन  किये जाने चाहिए।  |

 

बैनर चित्र : डॉ धर्मेंद्र खांडल  

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

अति संकटापन्न पक्षी प्रजाति गोडावण के पर्यावास में महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं के कारण विद्युत् लाइनों का मानो जाल बिछ गया है। इनके सम्बन्ध में अक्सर कहा जाता है, इन्हे भूमिगत रूप से डाला जाये।  पढ़ते है, क्या व्यवाहरिक कारण है इनके भूमिगत होने में

अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में से जैसलमेर क्षेत्र में मुख्यतः पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा की विभिन्न इकाइयां स्थापित हैं। ये सौर एवं पवन ऊर्जा के संयंत्र बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन में सक्षम हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पवन एवं सौर ऊर्जा सबसे उन्नत एवं विकसित तकनीकें हैं। पवन चक्कियों को चलाने वाली उच्च गति से बहती, सतत हवा और साफ़ आकाश के साथ खिली धूप जो सौर ऊर्जा के लिए जरूरी विकिरण उपलब्ध करवाती है। जैसलमेर क्षेत्र इन दोनों ही स्त्रोतों की उपलब्धता के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में आता है। ये दोनों संसाधन मिल कर जैसलमेर को देश की प्रमुख सौर-पवन Hybrid site बनाते हैं।

गोडावण पक्षी

अक्षय ऊर्जा की यह स्थापित परियोजनाएं, राज्य को ही नहीं बल्कि राष्ट्र को ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना रही हैं वहीँ कोयले एवं अन्य पेट्रोलियम जनित ऊर्जा स्रोतों पर हमारी निर्भरता भी कम कर रही है। यह स्वच्छ एवं हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन को कम कर पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। यद्दपि यह आज कल चर्चा का विषय है की इस के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव भी है।

राज्य में स्थापित 4292 मेगा वाट के पवन ऊर्जा परियोजनाओं में से 3464 मेगा वाट जैसलमेर जिले में हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से युक्त होते हैं, परिष्कृत कंप्यूटर गणनाओँ एवं अनुसंधान के पश्चात इन्हे स्थापित करने के स्थान का चयन किया जाता है। हवा के बहाव एवं भौगोलिक क्षेत्र के वर्षो तक किये गये अध्ययन के उपरांत एक परियोजना क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। इसी कारण इन परियोजनाओं के लिए भारी निवेश की भी आवश्यकता होती है।

इन ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने के प्रारंभिक चरण के दौरान, राज्य सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि आवंटित की गई थी, जहां डेवलपर्स ने अपने पूर्व परियोजना अनुसंधान डेटा के आधार पर आवेदन किया था। भूमि आबंटन हर चरणों में जाँच के साथ एक बहुत ही विस्तृत और सख्त प्रक्रिया है। फिर इन आवेदनों का विश्लेषण भूमि प्रतिबंध, रक्षा, आवास, खनन आदि जैसे विभिन्न प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है और उनमें से एक प्रमुख प्रतिबंध डेजर्ट नेशनल पार्क (डीएनपी) से बचने के लिए है, जहां गोडावण यानि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) पाया जाता है। कोई भी डेवलपर डेजर्ट नेशनल पार्क की सीमा में प्रवेश नहीं करता है और यह सभी परियोजनाओं के नियोजन चरण में एक स्पष्ट No-Go क्षेत्र है।

जुलाई 2013 में सलखा, कुचड़ी इलाकों के पास जीआईबी देखे जाने की पहली रिपोर्ट आई थी। ये ऐसे क्षेत्र थे जो DNP सीमा से परे हैं। इस समय तक, इन क्षेत्रों के पास भूमि पार्सल पहले ही आवंटित किए गए थे और परियोजनाएं स्थापना के चरण में थीं। इस क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने के लिए कवायद शुरू हुई और इस क्षेत्र में सभी नई परियोजनाओं को रोकने के निर्देश के लिए लगभग 3 साल लग गए और स्थापना रुक गईं। पिछले वर्षों में 2017 से अब तक जैसलमेर या राजस्थान में कोई नई पवन  संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है।

रेगिस्तान में पवन चक्किया

इस वर्ष, पवन, सौर और पवन-सौर हाइब्रिड परियोजनाओं के लिए नई नीतियों की घोषणा के साथ, राजस्थान सरकार फिर से राज्य में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने  का प्रयास कर रही है और राजस्थान फिर इस उद्योग के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन रहा है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए, डीएनपी से परे आवासों की रक्षा हेतु अब जैसलमेर में एक “GIB arch” प्रस्तावित है। यह GIB arch अब क्षेत्र में पवन परियोजनाओं की “NO-Go Area List” में शामिल है, और इस GIB arch और DNP के बाहर ही सभी पवन परियोजनाओं की योजना बनाई गई है।

अक्षय ऊर्जा की ये परियोजनाएं, नवीन दिशा निर्देशों एवं नीतियों के अनुसार “Reverse Bid Process” द्वारा आवंटित की जाती है जिस से इनसे जनित बिजली न्यूनतम दरों पर विभिन्न सरकारी उपक्रमों द्वारा क्रय की जाती है। अतः इन परियोजनाओं का बजट प्रतिस्पर्धात्मक रहने हेतु बहुत ही कम और पूर्व निर्धारित रहता है। परियोजनाओं से बिजली ओवर हेड ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से प्रेषित होती है। यह लाइनें, सब स्टेशन और पवन ऊर्जा संयंत्रों के समूह जिन्हें विंड फार्म के रूप में संदर्भित किया जाता है, के बीच की दूरी के कारण, विद्युत् प्रसारण का व्यावहारिक साधन हैं।

गोडावण पक्षी

विशेषज्ञों की राय में कहा गया है कि गोडावण की दृष्टि सामने की बजाय, पार्श्व दिशाओ में देखने के लिए अनुकूल होती है, जिसके कारण आमतौर पर इनके उड़ते समय ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने का खतरा रहता है और हमने हाल के दिनों में भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को देखा है। यह वजन में भारी पक्षी जब तीव्र गति से उड़ता हुआ तारो से टकराता है, तुरंत इसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है और तत्पश्चात इसे बचाना नामुकिन होता है।

ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत किया जासकता है या नहीं ?

यह मांग अक्सर आती है कि इन ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत केबलों द्वारा बदल दिया जाना चाहिए। यहां, यह समझना चाहिए कि इन उच्च वोल्टेज केबलों और सहायक उपकरण की सामग्री की ही लागत ओवर हेड लाइनों की तुलना में कुछ गुना अधिक है, और इसकी स्थापना के लिए उच्च कौशल वाले कार्यबल की आवश्यकता होती है जो समग्र रूप से एक परियोजना की लागत को अत्यंत महँगा बना देगी।  इन परियोजनाओं में प्रयोग में ली जाने वाली एकल सर्किट 33kv लाइन की कुललागत जहाँ २० लाख रुपये प्रति किलोमीटर आती है वहीँ, केबल की लागत 40 लाख रुपये से भी अधिक आती है।  चूँकि यह केबल सुरक्षा की दृष्टि से भूमि के अंदर दबायी जाती है, किसी तकनीकी ख़राबी आने पर तुरंत ही फॉल्ट स्थान का पता लगाकर उसे खोदा नहीं जा सकता इसलिए सामान्यतः दोहरी केबल का जोड़ा भी लगाया जाता है जिससे किसी फॉल्ट की स्थिति में दूसरी केबल को तुरंत प्रयोग में लाया जा सके, यह इस केबल प्रणाली को और भी महंगा बना देता है। सामान्यतः यह 33kv ओवरहेड लाइन किसी भूमि से निकलती है तो प्रति खम्भे के बीच 60 – 70m की दुरी होती है और लाइन जमीन से सामान्यतः 10m की ऊंचाई पर होती है, जो और हाई वोल्टेज लाइन के टॉवर में और भी बढ़ जाती है, वहीँ पर केबल के सन्दर्भ में पूरी भूमि को ही खोद कर उसमे यह केबल दबायी जाती है, यह किसी भी भू मालिक को सहज ही अस्वीकार्य होता है, एक हाई वोल्टेज केबल का अपने भूमि में से गुजरना जिस से उच्च शक्ति विद्युत् प्रवाह होता हो, भू मालिकों को सदैव आशंकित रखता है और वो राजी नहीं होते हैं।और इन लाइनों का बीच में किसी भूमि विवाद में पड़ जाना, पूरी परियोजना को ही ख़तरे में डाल सकते हैं। इसी लिए नए प्रतिष्ठानों के लिए, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आयी रिवर्स बिड नीलामियों और कम दरों पर टैरिफ के साथ, बिजली प्रसारण के लिए विकल्प के रूप में भूमिगत केबल के लिए जाना असंभव है। अतः गोडावण प्रवास क्षेत्रों को चिन्हित कर पहले ही सुरक्षित करना चाहिए |

जिन क्षेत्रों में लाइन पहले से ही स्थापित है वहां एक संभव समाधान हो सकता है, अगर वन विभाग, प्रभावी पक्षी डायवर्टर प्रदान कर सके और संबंधित परियोजना एजेंसी को उचित मार्गदर्शन के साथ उन्हें स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जो सभी हित मालिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है और इन ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जीआईबी के ऐसे टकराव को रोकने में मदद कर सकता है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए वन विभाग द्वारा तत्काल बजट जारी किया जाना चाहिए जो उन्होंने ऐसे पक्षी डायवर्टर स्थापित करने के लिए चिन्हित किये हैं। इनके पूर्णतया प्रभावी होने पर कुछ लोग शंका भी रखते है।

यह एक संयोग है कि पवन परियोजनाएं उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त हैं जो मैदानी हैं और इनमें हवा का सुगम प्रवाह हो सकता है और ये क्षेत्र, ऐसे घास के मैदान ही गोडावण के आवास हैं। लेकिन, यह भी सच है कि कोई भी पवन ऊर्जा एजेंसी उस क्षेत्र में काम करने की इच्छा नहीं रखती है जहां पर्यावरण के लिए कोई भी संभावित खतरा हो सकता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र इन परियोजनाओं के निवेशकों को पीछे हटा देती हैं और ऐसी परियोजनाएं हमेशा कानूनी रूप से ठप होने के जोखिम में होती हैं और व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होती हैं । इस प्रकार आवश्यकता है कि अधिकारियों और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय हो और पारिस्थिकी तौर से संवेदनशील क्षेत्रों का अग्रिम सीमांकन किया जाए। राजस्थान ने 2017 से इस अवधि का उपयोग इस जीआईबी आर्क को मैप करने के लिए किया और अपने राज्य पक्षी और पवन उद्योग के सह-अस्तित्व के लिए एक समाधान तैयार किया। हाल ही में जैसलमेर के रामगढ़ कुचड़ी क्षेत्र के पास एक केंद्र सरकार के सबस्टेशन की योजना जैसलमेर के दक्षिण में स्थानांतरित की गई थी, क्योंकि डेवलपर्स ने ट्रांसमिशन लाइनों से GIB arc को बचाने के लिए अनुरोध किया था, यह एक बहुत स्वागत योग्य कदम था। मौजूदा तर्ज पर डायवर्टर जैसे उपकरणों के उपयोग के लिए इसी तरह की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यूरोप में नए शोध आ रहे हैं जो बताते हैं कि एक टरबाइन के रंगीन ब्लेड भी पक्षियों से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना को कम करते हैं। इस तरह के शोध भारत में भी किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे अनमोल वन्यजीवों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय के साथ एक संवाद  विकसित करने की आवश्यकता है, यह उद्योग जो पृथ्वी को साफ और हरा-भरा रखने के लिए कृत संकल्प है

 

इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

राजस्थान को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता हैं – मरुस्थलीय हिस्सा एवं अरावली अथवा विंध्य पहाड़ियों से घिरा भूभाग। मरुस्थल में पौधों के जीवन में अत्यंत विविधता हैं परन्तु यदि सामान्य तौर पर देखे तो कुछ पेड़ और झाड़ियां हर प्रकार के जीवन को प्रभावित करता रहा हैं। यहाँ आपके लिए इनके बारे में  एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैं…

1.Khejri (Prosopis cineraria)

खेजड़ी को राजस्थान के राज्य वृक्ष का दर्जा हासिल हैं। ईस्वी 1730 में, खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए 363 आम लोगो ने एक साधारण महिला अमृता देवी के नेतृत्व में जोधपुर के पास एक छोटे से गांव खेजड़ली में प्राणोत्सर्ग किये थे। यह त्याग पेड़ों को बचाने की अनूठी मुहीम का आधार बना , जिसे नाम दिया गया चिपको आंदोलन। तपते रेगिस्तान में उगने वाला यह वृक्ष सही मानो में स्थानीय लोगो के लिए एक कल्पवृक्ष है, जो उनकी, उनके पशुओ एवं वन्य जीवो की अनेको जरूरतों को पूरा करता है। स्थानीय लोग मानते है, की इस वृक्ष की छाया में  निचे खेतों में अनाज भी अच्छा पैदा होता है अतः रेगिस्तान में लोग इनके बड़े पेड़ों को भी खेतों में रहने देते है, शायद भारत में कोई दूसरा वृक्ष नहीं है, जिनके निचे कोई फसल अधिक अच्छी होती हो। इसकी कई इंच मोती छाल में अनेको प्रकार के कीट अदि  रहते है, जिन्हे एक पक्षी – Indian Spotted Creeper बड़े चाव से खाती है। गिलहरी की तरह फुदकती यह चिड़िया अक्सर इन्ही खेजड़ी के पेड़ो पर ही मिलती है। यदि राजस्थान के रेगिस्तान वाले इलाके में देखे तो यह सबसे अधिक मिलने वाला वृक्ष है।

2. Rohida (Tecomella undulata)-

मारवाड़ में रोहिड़ा की लकड़ी को सागवान का दर्जा दिया जाता हैं। इन पर आसानी से न तो कीड़ा लगता हैं, और साथ ही इन पर खुदाई का अच्छा काम भी हो सकता हैं। रोहेड़ा के फूलों की रंगत से तो सूखा राजस्थान जैसे रंगो की होली खेलने लगता हैं। रोहिड़ा को तीन अलग अलग रंग में फूल आते हैं – गहरा लाल, केसरिया और मन को मोहित करने वाला पीला। अनेक पक्षियों की प्रजातिया इनसे मकरंद प्राप्त करती हैं और साथ ही इनके परगकण को अन्य पेड़ों तक ले जाती हैं। राजस्थान में इनके फूलों को राज्य पुष्प का दर्जा दिया गया। आम लोग खेजड़ी के बाद इस पेड़ को बड़े सम्मान के साथ देखते हैं एवं अपने खेतों में लगाते हैं।

Rohida (Tecomella undulata)

roheda

 

3. Jaal/ Pilu (Salvadora sp.)

भारत में दो सल्वाडोरा प्रजातियाँ हैं – ओलियोइड्स ( मीठी जाल ) और पर्सिका (खारी जाल)। ये दोनों पेड़ रेगिस्तान के मुश्किल वातावरण में रहने के लिए अनोखी अनुकूलनता लिए हुए है, क्योंकि उच्च लवणता सहिष्णुता क्षमता रखते है। ये सबसे अच्छे आश्रय प्रदान करने वाले पेड़ हैं, जो कई रेगिस्तानी जंगली प्राणियों को आश्रय तो देता ही है, पर साथ ही यह भोजन भी प्रदान करते हैं। क्योंकि ये हमेशा सूखे और गर्म मौसम में भी हरे-भरे रहते हैंI लगभग एक सदी पहले एक ब्रिटिश अधिकारी माइकल मैकऑलिफेन (जिन्होंने बाद में सिख धर्म को अपना लिया) ने कई सिख धर्म ग्रंथो को अंग्रेजी में अनुवाद किया, उन्होंने उल्लेख किया कि गुरु नानकजी ने अपने जीवन के उत्तरार्ध को सल्वाडोरा ओलियोइड्स पेड़ के नीचे बिताया। खारे एवं गर्म क्षेत्र में वर्ष भर हरा रहना बहुत कठिन है, इसके पीछे है इस पेड़ के खारापन की उच्च सांद्रता है। इसी कारण यह आसानी से नमकीन मिट्टी से पानी को प्राप्त कर सकते हैं। पानी लवणता की कमी वाली मिटटी से अधिक लवणता की और परासरण की प्रक्रिया से बढ़ता हैी सामान्य पेड़ की जड़ो में भी थोड़ी लवणता होती है एवं पानी को लेती रहती है परन्तु खारी मिटटी से पानी निकलने के लिए, उस से भी अधिक लवणता होनी चाहिए I साथ ही इनकी मोटी पत्तियों भी पानी को जमा करने के लिए अनुकूलित है। इनके पानी से भरे नरम फल सभी प्रकार के पक्षियों को लुभाते है।

4. कुमठा (Senegalia senegal / Acacia senegal) –

एक छोटे आकर का पेड़ हैं जो स्थिर धोरो या छोटी पथरीली पहड़ियों पर मिलता हैं।इनके बीजो को रेगिस्तानी क्षेत्र के चूहे पसंद करते हैं एवं आस पास मिलने वाले कीट अनेक विशेष पक्षियों को अपनी और आकर्षित करते हैं – जिनमे मार्शल आयोरा, व्हाईट नेप्पेडटिट, व्हाईट बेलिड मिनिविट आदि शामिल हैं। कुमठा के बीज को राजस्थान की एक खास सब्जी जिसे ‘पंचमेल सब्जी’ कहते हैं ‘पंचमेल सब्जी’ का एक मुख्य घटक भी हैं।

5. Kair (Capparis decidua)-

रेगिस्तान के घरो में छाछ के पानी में डाले हुए कच्चे कैर के फल एक आम बात होती हैं, जो उसके आचार बनाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है।  कैर रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली एक झड़ी हैं जिसके अतयंत खूबसूरत फूल आते हैं, डालिया पूरी तरह फूलो से लड़ी रहती हैं और इनपर अनेक प्रकार के कीट और पक्षी अपना आहार पाते हैं।  इन झाड़ियों के अंदर कई तरह के बड़े पेड़ अपने जीवन के सबसे आरम्भिक समय में छुपे रहते हैं और शाकाहारी जीवो से बच पाते हैं।  यह पेड़ यदि खुले में होते तो शायद अपने आप को बचा नहीं पाते।  कई प्रकार के जीव इन भरी झाड़ियों के निचे अपने बिल अथवा मांद बनाके रहते हैं, ताकि वह तेज धूप एवं अन्य शिकारियों से बच सके।

 

6. Phog (Calligonum polygonoides)-

एक झाड़ी जो राजस्थान के थार से तेजी से विलुपत होरही हैं उसका नाम हैं-  फोग।  गहरी जड़ो पर आधारित इस झाड़ी को नव युग के कृषि संसाधन- ट्रेक्टरो ने मानो जड़ो से उखाड कर फेंक दिया। जो ट्रैक्टरों से बच गए उन्हें भट्टियों में डाल कर अत्यंत ऊर्जा देने वाले ईंधन के रूप में उपयोग लेलिया गया। बीकानेर, जैसलमेर आदि शहरो में आज भी इनको बाजारों में बेचते हुए देखा जासकता है। सूखे फूलो को दही के साथ मिला कर गुलाबी रंग का रायता बनाया जाता हैं।