This book is majorly based on Abhikram’s photography expeditions to Ranthambhore Tiger Reserve and Jhalana Leopard Reserve, and the time that he spent with individual tigers and leopards. This book was written by Abhikram during the lockdown, and after 5 months of restless efforts, it is available in the market. This book aims to give detailed explanations of different flora and fauna of Ranthambhore and Jhalana through its exquisite pictures.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
This book also includes details about the different behavioural aspects of tigers and leopards. This book will be an excellent document to have for all the wildlife enthusiasts, especially for the ones who want to know about Ranthambhore’s tigers and Jhalana’s urban leopards.
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Abhikram Shekhawat is a 17-year-old wildlife photographer and a student studying in 12th grade in Jayshree Periwal International School. He has been fond of wildlife since the tender age of 4, and has been particularly enthusiastic about tigers of Ranthambhore. With time his passion for wildlife increased and he got involved in wildlife photography, and started taking part in various photo contests.
Mr. Abhikram Shekhawat
He won ‘Junior Photographer of the Year’ at Nature’s Best Photography Asia 2020 and ‘Second Runner-up’ in Young Photographer category at Nature InFocus Photography competition. It all started when he was 3 years and went to Ranthambhore for the first time. It was a jaw dropping view for him when he had a close encounter with tiger for the first time. It was a tigress “machhli” from the woods of Ranthambhore national park that sparked his interest in wildlife.
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The first safari in Jhalana was a gift to Abhikram from a closed one, when he was 13. Since then he started going there every year to quench his thirst for wildlife behaviour. He saw 4 leopards there and enjoyed wildlife photography and started collecting some good photographs for his wildlife photography exhibition.
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Abhikram very well realised that his curiosity about wildlife is a never ending thirst. He started spending more time in Jhalana and Ranthambhore. Wildlife photography demand a lot of time and patience and sometimes he had to wait for hours just to take a single good shot. Abhikram also got to learn about the behaviour of tigers, leopards and other wild animals among which tigers of Ranthambhore excites him more. He finds himself lucky to have the opportunity to know about tigers, their family and their behaviour.
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The Untamed book by Abhikram Shekhawat beautifully depicts the wildlife of Jhalana and Ranthambhore, especially the tigers and leopards and their behaviour.
यह पुस्तक अभिक्रम शेखावत के 4 सालों के रणथम्भौर नेशनल पार्क व झालाना लेपर्ड पार्क के वन्यजीव फोटोग्राफी के अनुभव को साझा करती है | यह किताब इनके द्वारा लॉकडाउन समय के दौरान लिखी गयी व् 5 माह के अथक प्रयास के बाद बाजार में उपलब्ध है| इस किताब में रणथम्भौर के सभी वन्यजीवों का विस्तृत विवरण फोटोग्राफी के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है व झालाना के सभी लेपर्ड का विस्तृत विवरण किया गया है |
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इस पुस्तक में टाइगर व लेपर्ड के व्यवहार व प्रततरूप को भी समायोजित किया गया है यह किताब झालाना व रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा|
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अभिक्रम शेखावत, 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र हैं जिनकी शिक्षा जेपीआईएस(जयश्री पेरीवाल इंटरनेशनल स्कूल) जयपुर, में पढ़ने वाले छात्र हैं व 17 वर्षीय वन्यजीव फोटोग्राफर भी है |
वह 4 वर्ष की उम्र से ही वन्यजीवों के लिए उत्साहहत रहे हैं उन्हें प्रकृतत से ववशेर्षत रणथम्भौर नेशनल पाकक के वन्यजीवों से बहुत लगाव हो गया | समय के साथ-साथ फोटोग्राफी के प्रति उनका जूनून व्प्र उत्सुकता बढ़ती गयी और उन्होंने फोटोग्राफी प्रतियोगिताओ में भाग लेना शुरू कर दियाI
Mr. Abhikram Shekhawat
उन्होंने “Junior Photographer of the year’ Nature’s Best Photography Asia 2020 से व Second Runner up Young Photographer श्रेणी में Nature In Focus Photography Awards 2020 से जीता है| इन्हें वन्य जीवों के साथ लगाव शुरू से ही रहा। इसकी शुरुआत रणथम्भौर की पहली यात्रा से हुई जब यह 3 वर्ष के थे| जब उन्होंने पहली बार एक टाइगर को बहुत ही कम दूरी से देखा तो यह नजारा देखकर आश्चर्यचकित रह गए| यह रणथम्भौर अभ्यारण्य की मछली (बाघिन) थी उस पल ने इन पर वन्यजीवों के प्रति उत्साह को और जागृत कर दिया| वह हर वर्ष वन्यजीवों व प्रकृति के प्रति अपनी जानने की जिज्ञासा को शांत करने के लिए झालाना व रणथम्भौर जाने लगे।
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जब अभिक्रम 13 वर्ष के थे तो उनके रिश्तेदार ने उन्हें झालाना की सफारी करवाई। जो की इनके लिए एक उपहार थी। वहा पर इन्होंने चार लेपर्ड को देखा व वन्यजीव फोटोग्राफी का आनंद लिया वह कुछ चुनिंदा तस्वीरों को अपने फोटो संग्रहालय के लिए संगृहीत किया। अभिक्रम ने और अधिक समय रणथम्भौर व झालाना अभ्यारण्य में बिताना शुरू किया। वन्यजीवों की फोटोग्राफी करते समय कई बार कई जगहों पर बहुत ही धैर्य पूर्वक समय व्यतीत करना पड़ता था फोटोग्राफी के दौरान टाइगर्स व लेपर्ड्स की प्रजातियों का उनके व्यवहार के बारे में उन्होंने अध्ययन किया है रणथम्भौर के टाइगर्स ने इन्हें हमेशा रोमांचित किया। इन्हें टाइगर्स की पौराणणक वंशावली और उनके व्यवहार के तरीकों के बारे में नजदीक से देखने में अपने कैमरे में कैद करने का अविस्मरणीय मौका मिला। इन्होंने झालाना के लेपर्ड्स के बारे में भी विस्तृत अध्ययन किया।
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
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“The Untamed” नामक बुक में इन्होंने वन्यजीवों विशेषकर टाइगर व लेपर्ड्स को फोटोग्राफी व लिखित वर्णन के माध्यम से उनके व्यवहार को दिखाने का प्रयास किया है।
राजस्थान की मुरड़िया मिटटी वाली जमीन पर हर चार- पांच कदम बाद अपने बिल से झांकता यह उदासीन सी दिखने वाली गोल सिर की छिपकली स्थानीय भाषा में सांडा कहलाती हैं, अंग्रेजी में इसे स्पाइनी टेल्ड लिज़र्ड (Spiny – tailed lizard) कहते हैं ।
Spiny tailed lizard is a very common lizard in some areas of the Thar desert, particularly where the land is hard in Rajasthan. Locally this species is known as Sanda.
यह मूलतः शाकाहारी हैं जो घास पात खा कर अपना जीवन यापन करती हैं, परन्तु कभी कभार यह टिड्डे आदि कीट भी खा लेता हैं।
These lizards are mainly herbivores, but sometime they can feed on grasshoppers and other insects.
यह सरीसर्प अनेक प्रकार के प्राणियों का जीवन आधार हैं, इन्हे लग्गर फाल्कन बड़े चाव से खाता है।
This reptile is a base of many lives, one such good example is Laggar Falcon, who fondly feast on them.
अन्य रैप्टर्स जैसे बूटेड ईगल भी इन्हे खाते हुए देखे जा सकते है I
Others raptors like the Booted eagle also feed on them
मरुस्थलीय लोमड़ी भी इसे अक्सर अपना शिकार बनाते हुए देखी जा सकती हैं।
Even desert fox or White footed fox have been seen feeding on them.
डेजर्ट मॉनिटर लिज़र्ड भी इन्हे आसानी से अपना शिकार बना लेती हैं।
Desert monitor lizard also hunts them often.
अपने घास के मैदानों के लिए हर समय यह अन्य सांडो से यह संघर्ष रत रहते हैं।
Since they are feeding on grass so they have been securing their grass patches from other Spiny tailed lizards, here you can see them fighting for the grass patch.
इनका आपसी संघर्ष अपने बिलो, क्षेत्र एवं साथी पर अधिकार स्थापित करने के लिए भी होता हैं। संघर्ष के दौरान एक दूसरे के पीछे भाग कर, अपने प्रतिद्वंदी को एक सधे पहलवान की भांति पटखनी देते हुए भी देखा जा सकता हैं।
the fight is not only for the grass patch but to control the burrow, territory and mate. They fight like trained wrestlers.
ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।
ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।
निरूपण (Description):
ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।
ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)
ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।
उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।
व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):
राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।
यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।
प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।
ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
संरक्षण स्थिति (Conservation status):
ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।
तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।
सन्दर्भ:
Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I
भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।
शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।
प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।
औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)
स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।
विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)
विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी में असमानता के कारण इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।
दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है। परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।
प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है । खड़-मौर एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।
विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।
सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।
बदलते जलवायु के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।