गोडावण संरक्षण के संदर्भ में तीन संरक्षणवादियों के विचार  

गोडावण संरक्षण के संदर्भ में तीन संरक्षणवादियों के विचार  

 

गोडावण कन्जर्वेशन में जब कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम शुरू हुआ तो लगने लगा गोडावण के संरक्षण में अब गति आएगी,  परन्तु यह काम यही तक सिमित रह गया और पिछले दिनों हुई ब्रीडिंग सेंटर पर हुई गोडावण के बच्चों  की मौत ने चिंता और भी बढ़ा दी है । पोकरण में जिस अंदाज से परमाणु परीक्षण चुपचाप किया गया लगभग उसी अंदाज में सरकार ने पोकरण के पास ही इस गोडावण कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम को चलाया, किसी से कोई चर्चा नहीं और किसी को उसकी प्रोग्रेस से अवगत भी नहीं किया गया। इसके बावजूद टाइम्स ऑफ़ इंडिया के तेज तर्रार पत्रकार श्री अजय उग्रा ने एक स्थानीय गोडावण प्रेमी के माध्यम से एक तथ्य पूर्ण चौंकाने वाली खबर प्रकाशित कि जिसके अनुसार ६-७ गोडावण के बच्चे काफी बड़ी उम्र पाकर मारे गए और अभी तक कोई उसके उचित कारण जान नहीं पाया है।   तो लगने लगा सब कुछ ठीक नहीं है।  गोडावण की वर्तमान हालत पर चर्चा करने के लिए तीन महानुभावों से वार्ता करते है ताकि हम गोडावण संरक्षण की दशा और दिशा पर जानकारी प्राप्त कर सके। पहले उनका परिचय

श्री माल सिंह जामडा : आप जैसलमेर के मूल निवासी है और सेना में सेवा देने के पश्चात आर्गेनिक कृषि कार्य में संलग्न है।  स्थानीय सामाजिक मुद्दों और गोडावण के मसलो पर गहरी समझ रखते है।  राष्ट्रीय स्तर पर गोडावण संरक्षण के लिए सम्मानित किया जा चुका है एवं विभिन्न स्तरों पर गोडावण संरक्षण की मुहिम को आगे बढ़ा रहे है।

डॉ सुमित डूकिया- राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र में जन्मे है वर्तमान में दिल्ली में उच्च शिक्षा से जुड़े है एवं गोडावण संरक्षण के लिए कई प्रकार के कार्यक्रमों का संचालन कर चुके है। शिक्षक होने के नाते कन्जर्वेशन के विज्ञान और लोगों तक बात पहुँचाने में महारत रखते है। आपने उनके युवा लोगों को मरुस्थल के संरक्षण की मुहिम से जोड़ा है।

डॉ दाऊ लाल बोहरा – मरुस्थल निवासी है, आप लम्बे समय से गिद्ध संरक्षण से जुड़े है, एवं उच्च शिक्षा से जुड़ाव ने आप को विषय से निरंतर जोड़े रखा है। आप गोडावण संरक्षण पर कार्य करने वाले लोगों से निरंतर जुड़े है और उनकी कार्य प्रणाली को निरंतर देख रहे है।

प्रत्येक से धर्मेंद्र खांडल ने परिचर्चा की

  1. श्री माल सिंह जामडा

१ सरकार ने गोडावण ब्रीडिंग सेंटर शुरू किया।  वन विभाग के अधिकारियों एवं वन्यजीव संस्थान (WII) के वैज्ञानिकों के मध्य क्या कोई तालमेल में कमी नजर आती है ?

उत्तर : हाँ ऐसा लगता है।  शुरुआती दौर की तुलना में भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक आजकल यहाँ कम आते है एवं वन अधिकारियों से किसी सहज सवाल का जवाब उनके द्वारा अक्सर यही कह कर दिया जाता है की यह जानकारी हमें नहीं है WII के लोग ही जाने।  वन रक्षक भी अक्सर इनके द्वारा अंडे आदि उठाने पर पूरी जानकारी नहीं देने की बाते करते है। WII के वरिष्ठ लोगों को यहाँ और अधिक समय देना चाहिए। वन विभाग के लोग भी यह स्वीकारते है की की अब तक मरे हुए गोडावण के बच्चों की मौत का मुख्य कारण का पता करना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा यह सिलसिला चलते ही रहेगा।

२ क्या इस कार्यक्रम में धनाभाव कोई कारण है ?

उत्तर : धनाभाव कारण नहीं लगता है, यद्यपि एक वरिष्ठ संरक्षणकर्ता जो WII के वैज्ञानिकों के नजदीक है, उनके अनुसार सरकार ने बड़े बाड़े बनाने के लिए अभी तक पैसे नहीं दिए है। परन्तु दैनंदिन के लिए खर्च एवं सैलरी आदि के किसी प्रकार से अभाव नहीं है। शायद बड़े बाड़े में बढ़ते बच्चों को रखना उचित होगा।

३ अब तक लग रहा था सब ठीक है अचानक से 6-7 बच्चों के मारे जाने की खबर कितनी चिंता की बात है ? अथवा यह कार्यक्रम शुरुआती दौर में है और यह प्रक्रिया का सामान्य हिस्सा है।

उत्तर : हाँ यह चिंता की बात है।  आप इन्हे बच्चे नहीं समझे यह लगभग वयस्क या अल्पवयस्क अवस्था के पक्षी थे। कुछ नर तो गूलर पाउच भी निकालने लगे थे जो प्रदर्शित करता है की वह कोई चिक अवस्था नहीं थी।

4  वन विभाग अक्सर बाहरी सहयोग नहीं लेती है, परंतु विभाग के सबसे अधिक वैज्ञानिक सोच रखने वाले मरुस्थल विशेषज्ञ डॉ गोबिंद सागर भारद्वाज जैसे लोगों को भी इस कार्यक्रम से दूर रखा गया क्या कारण है ?

उत्तर : शायद कोई ऐसा व्यक्ति विभाग में वर्चस्व रखता जो स्वयं सत्ता के नजदीक है परन्तु विषय से दूर है।  ऐसे व्यक्ति सरकार द्वारा गलत फैसले लेने के कारक  बनते है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारद्वाज जी को इस से दूर रखा गया एवं उनको राज्य से बाहर सेवा देनी  पड़ रही है।

5 आपने गोडावण के बच्चों के मरने का यह मुद्दा उठाया, शायद कई लोग नाराज होंगे, आप उन्हें किस प्रकार का सन्देश देना चाहेंगे ?

उत्तर : उनकी नाराज होने की वजह जायज नहीं है मैंने गोडावण संरक्षण को हरदम सहयोग देने का प्रयास किया है।  मेरा व्यक्तिगत किसी से कोई द्वेष नहीं है।  हमारे सभी कर्मचारी एवं वन अधिकारी कड़ी मेहनत कर रहे है। उन्हें गोडावण पर ध्यान देने की ज़रूरत है एवं खुल कर समस्याओं पर चर्चा कर उचित हल ढूंढने के आवश्यक है।

6 गोडावण संरक्षण के सम्बन्ध में आप का कोई सुझाव ?

हमारा मरु प्रदेश थार मरुस्थल का एक भाग है इसमें थार डेजर्ट की बहुतायत में वन्यजीवो की प्रजातियां एवं वनस्पति विद्यमान है तत्कालीन सरकार द्वारा इस डेजर्ट की वनस्पति एवं वन्य जीवों के संरक्षण संवर्धन के लिए थ 4 अगस्त 1980 को डेजर्ट नेशनल पार्क का प्रथम नोटिफिकेशन 3162 वर्ग किलोमीटर का जारी हुआ लेकिन फाइनल नोटिफिकेशन इस अभ्यारण का आज दिनांक तक जारी नहीं हो रखा है गोडावण डेजर्ट में पक्षी जगत की सबसे महत्वपूर्ण प्रजाति है जो धीरे धीरे विलुप्त की कगार की ओर जा रही हैं गोडावण सक्षण के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है बहुत सारे समाज सेवी संस्थाएं एव वन्यजीव में सरक्षण को समझ रखने वाले लोग लगातार कार्य कर रहे हैं अपने  सुझावों के माध्यम से इस कार्य को प्रगति दे रहे हैं मेरा एक सुझाव था गोडावण प्रजनन क्रेन्द्र से तीसरी जनरेशन तैयार होगी और उसको हम कहां पर छोड़ेंगे उसके लिए हमें चिंता करने की जरूरत है उसके लिए सबसे उपयुक्त अगर कोई जगह है तो वह डेजर्ट नेशनल पार्क का सुदासरी क्षेत्र है पिछले दस वर्षो से लगातार अतिक्रमण की भेंट चढ़ता जा रहा है इसको रोकने के लिए विभाग द्वारा क्लोजर बनाए गए लेकिन यह कार्य कुछ समय के लिए बिमार व्यक्ति को ऑक्सीजन देने बराबर है इसके लिए जरूरी है  200-300 वर्ग किलोमीटर का कोर एरिया बना करके गोडावण को हम स्वच्छंद विचरण करने के लिए जगह दे दे यह कार्य अति आवश्यक है

 

श्री सुमित डूकिया

१ गोडावण विलुप्ति के कगार पर है, इसका मुख्य कारण क्या है ? क्या सोलर और पवन ऊर्जा के तारों का जाल ही इसकी विलुप्ति की और जाने का  का मुख्य कारण है ?  क्या हम 5 कारणों को उनकी प्रभाव के क्रम में रख सकते है,  मुख्य कारण पहले और दूसरे कारण बाद में ?

उत्तर : इस प्रश्न का मैं आपको विस्तृत उत्तर देना चाहता हूँ – कालांतर में गोडावण भारत के ११ राज्यों में मिलता था जो आज मात्र ५ में ही बचा रह गया है। ऐसा माना जाता है कि 5 में से 4 राज्यों में तो मात्र 10 के आस पास ही गोडावण होंगे और राजस्थान में इनकी अनुमानित संख्या लगभग 100 से भी कम होंगी। शायद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र के पक्षी एक ही समूह से सम्बन्ध रखते हो और उनमें 1-2 अल्पवयस्क है और 2-3 प्रौढ़ पक्षी है। गुजरात में माना जाता है सिर्फ 4 मादा गोडावण पक्षी बचे है जो बिना नर की उपस्थिति के धीरे धीरे विलुप्ति की और बढ़ रहे है। गोडावण का विस्तार पूर्व में 11 राज्यों में माना जाता था परन्तु अब इसके अतिरिक्त मान ने लगे है की ओडिशा भी एक राज्य था जहां यह पक्षी मिलता था। खैर इतिहास होते जा रहे इस पक्षी के लिए राजस्थान ही एकमात्र आशा का केंद्र है, क्योंकि यहाँ आज भी ये प्रजनन करता हैं।

राजस्थान में इसके दो समूह है एक जैसलमेर के पश्चिम में सम-सुदासरी है और दूसरा समूह पूर्व में पोकरण-रामदेवरा के पास मिलता है। रामदेवरा के पास मिलने वाला समूह सेना के युद्धाभ्यास किये जाने वाले क्षेत्र में भी मिलता है।

अब में अपने मूल प्रश्न पर आता हूँ – राजस्थान के संदर्भ में इनकी विलुप्ति के अथवा संख्या में गिरावट को यदि देखे तो यह कहना सही होगा की गोडावण के लिए अक्षय ऊर्जा के लिए लगाए गए बिजली के तार एक जाल के रूप में कार्य कर रहे है एवं पक्षी निरंतर मारे जा रहे है। और सरकार इनको कम करने की बजाय और अधिक बढ़ावा ही दे रही है।  जिस ऊंचाई पर पक्षी उड़ान भरता है अक्सर तार भी उसी ऊंचाई पर लगायी जाती है।  आज के सन्दर्भ में यही कारण इनकी संख्या में गिरावट के लिए मुख्य तौर पर उभरा है।

अब में आपको ४ अन्य कारण भी विस्तार से बताता हूँ-

दूसरा सबसे बड़ा कारण: जो मुझे लगता है वह है कृषि में आये बदलाव, देखिये पारम्परिक कृषि किसी भी तौर पर हानिकारक नहीं थी बल्कि लाभकारी थी- क्योंकि गोडावण को कई प्रकार के भोजन उसमें मिलते थे, परन्तु नए तौर तरीकों ने सब उलट कर रख दिया है। जैसे ट्रैक्टर के कारण कृषि आसान हो गयी है जिसके के कारण कृषि क्षेत्र बढ़ गया है।  प्राकृतिक आवास घटा है। ज़माने पहले खेत मालिक अपने खेत का कुछ क्षेत्र बिना उपयोग के भी रखता था, आप जानते हो शेखावाटी में उसे अडावा कहते है, आज यह परंपरा ख़त्म  हो गयी है और अब खेत के हर कोने में बुआई होती है। अडावा किसान स्वयं के पशुओं के लिए चरागाह स्थल के रूप में काम लेता था। गत दशकों में किसानो ने कीटनाशक का उपयोग बढ़ा दिया है। किसान फसल की सुरक्षा के लिए खेतों में अधिक समय देने लगा है जिस से कृषि क्षेत्र में इंसानी उपस्थिति बढ़ गई है।

तीसरा बड़ा कारण  : पर्यावास का प्रबंधन, सरकार ने जिसे डेजर्ट नेशनल पार्क माना है उसकी अधिकांश भूमि 4 दशक बाद भी राजस्व विभाग और व्यक्तिगत लोगों के पास है अथवा कु-प्रबंधन की शिकार है। आज भी वास्तविक  सीमाज्ञान के अभाव में उपयोगी भूमि को संरक्षित नहीं किया जा रहा है।जहाँ गोडावण मिलता है और जहाँ डेजर्ट नेशनल पार्क के सुरक्षित बाड़े (Enclosure) है उनमें बहुत फर्क है। गोडावण के दो समूह रामदेवरा और सुदासरी के मध्य तारों का गहन जाल बन गया है एवं अब यह समूह मिल नहीं पाते है।  इनके दोनों स्थलो के मध्य की अधिकतर जमीन की मालिक सरकार है परन्तु शायद वह इन्हे गोडावण के लिए सुरक्षित करना नहीं चाहते है।

चौथा बड़ा कारण : कचरे आदि के कुप्रबंधन के कारण कुत्तों एवं कौओं की संख्या में बढ़ोतरी भी एक मुख्य वजह है।  देखिये कौओं की और प्रजाति है रैवेन जो पहले माइग्रेट कर यहाँ से चला जाता था परन्तु आज कल यह बारह महीने यह यहीं पर रहने लगे है।  यह अत्यंत घातक है। सुदासरी के आस पास चारो और अनेक होटल आदि है जिनमें मानव गतिविधि बढ़ने से इस तरह के प्राणियों का अनुपात भी बढ़ा है एवं उनके समूह में भी विस्तार हुआ है।रैवेन गोडावण के अण्डों को नुक्सान पहुंचाते हैं।

पांचवा बड़ा कारण : देखिये अधिकांश गोडावण लोगों की जमीन पर है और यही वह अधिकांश समय व्यतीत करते है।  प्रबंधक लगभग संवाद हीनता का माहौल रखते है और बगैर लोगों से संवाद करे हम इनके संरक्षण का कार्य राष्ट्रीय मरू उद्यान के बाहर नहीं कर पाएंगे।

२ गोडावण संरक्षण के लिए कोई ५ कदम जिन पर सरकार को तुरंत कार्य करने की आवश्यकता है।

उत्तर : देखिये मेरे पहले सवाल के उत्तर में इनके उपाय और कदम भी छुपे थे परन्तु हम पुनः चर्चा करते है –

पहला कदम : पक्षी के हिसाब से जमीन का प्रबंधन।  आज हमारे डेजर्ट नेशनल पार्क का बहुत कम हिस्सा गोडावण वास्तविक रूप से इस्तेमाल करता है परन्तु जो इलाका ये अति संकटग्रस्त  पक्षी उपयोग कर रहा है उसके लिए हम चिंतित नहीं है।  वन विभाग डेजर्ट नेशनल पार्क में ही अपनी संपूर्ण ऊर्जा और संसाधन लगा देता है और गोडावण किसी और जमीन को इस्तेमाल करता है। जैसे आज कल हर वर्ष भूटेवाला से  3-4 पक्षी की सूचना आती है परन्तु आज भी उस तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।

दूसरा कदम : अक्षय ऊर्जा के लिए स्थानों को निर्धारित करना चाहिए एवं पक्षी के क्षेत्रों से उन्हें निकालने की सख्त आवश्यकता है। यह शायद आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण कदम अथवा उपाय होगा।

तीसरा कदम : विभाग स्वयं के तीन DFOs – सोशल फॉरेस्ट्री , डेजर्ट नेशनल पार्क और IGNP में सामंजस्य पैदा करे।  ताकि वह एक मिशन पर काम कर सके।  डेजर्ट नेशनल पार्क से अधिक गोडावण अन्य दो DFO के क्षेत्र में रहते है, जबकि उनके ऑब्जेक्टिव में गोडावण संरक्षण प्राथमिकता में नहीं है।

चौथा कदम : चूँकि अनेक सामाजिक संगठन और संरक्षणवादी इस पक्षी को बचाना चाहते है परन्तु वन विभाग उनके साथ तिरस्कार भाव रखता है और यह बदलाव मात्र एक व्यक्ति ला पाया वे थे डॉ गोबिंद सागर भरद्वाज।  आज आवश्यकता है उस तरह से सबके साथ सामंजस्य बैठा कर कार्य करने की।

पांचवा कदम : आस पास के लोगों को वन से जुड़े सस्टेनेबल रोजगार से जोड़ना और उनको इस पक्षी और मरुस्थल बचने के लिए प्रेरित करना।

 

३ क्या पूर्व संरक्षणकर्ता सही रास्ते पर चले और उनके काम से किसी प्रकार का सकारात्मक प्रभाव इन पक्षियों के संरक्षण पर पड़ा ?

उत्तर : अच्छा सवाल हैं, आज हमारे पास गोडावण से सम्बंधित लगभग सभी वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद हैं। इनको जुटाने में सभी पूर्व संरक्षणकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं और वो वैज्ञानिक जानकारी आज हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। अब परिस्थितियाँ और वस्तुस्तिथि बदल चुकी हैं। आज गोडावण साल के अधिकांश समय स्थानीय समाज की व्यक्तिगत या राजस्व भूभाग में विचरण करता हुआ देखा जा रहा हैं। इस स्थिति में हमें अब समाज के साथ ही संरक्षण का काम करना होगा और उनको इस महत्वपूर्ण संरक्षण के कार्य में बराबर का भागीदार बना कर साथ लाना होगा।

4. सुमित जी आप इतना अनुभव रखते है परन्तु फिर भी वन विभाग की गोडावण संरक्षण के नीति निर्धारण से दूर रखा जाता है, आप उन कुछ लोगों के नाम बताएं जिन्होंने इस पक्षी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अथवा आज भी उनकी सलाह हमें सही दिशा दिखाने में सक्षम है ?

उत्तर : आप सही कह रहे है, सरकार हर प्रश्न कर्ता को दूर रखती है। सरकार अपनी असक्षमता और काम करने के तरीके पर प्रश्न करने वाले से बात करना पसंद नहीं करती है। खुद विभाग ने श्री गोबिंद सागर भारद्वाज को दरकिनार कर के रखा है और आज वो चंडीगढ़ में सेवा दे रहे है। अन्य IFS श्री अनूप के. आर. आज राज्य से दूर कार्य कर रहे है। जबकि आज भी इन दोनों अफसरों को स्थानीय जनता एवं कर्मचारी उनके कार्यकाल में किये गये काम और काम करने के तरीके की वजह से दिल से चाहते है। स्थानीय निवासी माल सिंह जी जामडा एक और नाम है जो सुदासरी और उसके आस पास के इलाके में गोडावण संरक्षण के लिए अति महत्वपूर्ण है। उनकी पहुँच समाज के हर तबके में है और सरकार के उच्च स्तर तक जा कर गोडावण  की बात रखने का दम रखते है। इन्हीं नामों में श्री विक्रम सिंह जी नाचना का नाम रखना चाहूँगा जिन्हे इस पक्षी की चिंता है। यदि नव जवान लोगों में देखा जाये तो जैसलमेर निवासी श्री पार्थ जगाणी और धोलिया निवासी श्री राधेश्याम बिश्नोई भी कम नहीं है आने वाला समय इन्हे और अधिक परिमार्जित कर निखारेगा और इसका गोडावण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। यदि महारावल साहब चैतन्य राज जी जैसलमेर से बात की जाए तो उनका प्रभाव आम जनता पर आज भी बहुत है और उन्हें इस पक्षी के संरक्षण की अत्यंत चिंता भी है, उनसे मेरी और पार्थ जगाणी जी की इस विषय पर चर्चा हुई है।

परन्तु यदि आपने मुझे और अधिक स्वतंत्रता दी होती तो और अधिक नाम भी जोड़े जा सकते है। परन्तु इन सबमें अगर आप मुझे एक व्यक्ति चुनने का कहते तो मैं निसंदेह श्री गोबिंद सागर भरद्वाज का नाम लेता उन्होंने सभी समाज वर्ग के साथ और संरक्षण विज्ञान को आधार मानते हुए समसामयिक परिस्थितियों के हिसाब से रास्ते बनाए थे। आज उनकी अनुपस्थिति यहाँ बेहद खलती है।

5 आप जैसे लोगों को संरक्षण की मुहिम में शामिल किया जाता है ?

उत्तर : मैं स्वयं मरुस्थल में जन्मा और पला बढ़ा हूँ और गोडावण के भूभाग से पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से विभिन्न प्रकार के शोध कार्यों में अनवरत लगा हुआ हूँ और मैंने अपने स्थानीय नागरिक होने और स्थानीय समाज में अच्छे से काम करने के अनुभव के कारण खुद को गोडावण संरक्षण के कार्य में उतारा हैं। प्रशासन अपने ढंग से काम करता है और मैं स्थानीय समाज के समन्वय और सामंजस्य के साथ काम कर रहा हूँ। जब भी हमें प्रशासन से सहयोग के लिए कहा जाता है, मैं खुद जाता हूँ या मेरी बात उन तक पहुँचता हूँ। मुझे किसी के निमंत्रण का इंतज़ार नहीं है परन्तु सरकार यदि हमें किसी योग्य पाती है और उन्हें आवश्यकता लगती है तो उनकी संरक्षण की मुहिम में हम भी अवश्य शामिल होंगे।

 

श्री दाऊ लाल बोहरा

१ क्या गोडावण ब्रीडिंग प्रोग्राम के बारे में पर सरकार शिथिल हो गयी है ?

उत्तर : नहीं बिलकुल ऐसा नहीं लगता है, ब्रीडिंग प्रोग्राम को एक अत्यंत संवेदनशील वेटरनरी डॉक्टर श्रवण सिंह राठौड़ ठीक से संचालित कर रहे है।  उनका पूर्ण समर्पण के साथ 24×7 घंटे यही कार्यक्रम रहता है।  और हाँ उन्हें यदि आप मुझे 100 नंबर में से मार्क्स देने को बोलते तो में उनका एक भी नंबर नहीं काटता।

२ क्या सक्षम लोग इसका नेतृत्व कर रहे है और अपना पर्याप्त समय दे रहे है ?

उत्तर: जी आज इस देश के सबसे महान जीव वैज्ञानिक डॉ झाला और डॉ दत्ता इसको देख रहे है, और उनकी क्षमता पर बिरला ही सवाल उठाएगा। कितना समय वह दे पा रहे है यह मुझे नहीं पता परन्तु उतर चढाव सभी के जीवन का हिस्सा है।  इनको मैंने महान इसी लिए बताया है की यह अपने सभी कामों को पूर्ण समर्पण से करते है। मुझे पूर्ण विश्वास है वह इसे भी पर्याप्त समय दे रहे होंगे।

३ अभी हुई गोडावण के बच्चों की मृत्यु चिंताजनक है या यह एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है ? कोई बड़ी चूक आप देख पा रहे है ? क्या कारण रहे होंगे ?

उत्तर : यह बेहद चिंताजनक है।  यह कतई सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। दो वर्ष तक के पले पलाये गोडावण का मरना बेहद दुखद है। देखिये इसका पता लगाना अत्यंत जरुरी है की उनके मरने के क्या कारण रहे है। यह जानकारी निकालना इस देश में संभव नहीं है। यह घटना सांभर झील में मरे पक्षियों के अनुरूप होगी, जिनका सटीक पता आज भी नहीं लगा है।  सटीक जानकारी अत्यंत आवश्यक है। कयास लगाने से काम नहीं होगा।  यदि आज देखा जाए तो समस्या इनके खाने से संबंधित लगती है। परन्तु बिना कारण जाने हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे।  इनके नमूने IVRI की बजाय विदेशी प्रयोगशाला भेजने चाहिए।  यहाँ WII और वन विभाग अक्सर दोनों पूरी तरह विफल होंगे और देखना सटीक जवाब कभी नहीं मिलेगा।

४ किस प्रकार के संरक्षण के उपाय सरकार / स्वयं सेवी संस्था / व्यक्ति/ समाज ने किये है ?

उत्तर :कैप्टिव ब्रीडिंग किसी भी तरह से अकेला उपाय नहीं है इसके विफल होने की पूरी सम्भावना है।  असल उपाय गोडावण के पर्यावास क्षेत्रों में करना होगा।

BNHS को सरकार ने पर्यावास के संरक्षण के लिए कार्य करने के लिए कहा था परंतु यह मात्र प्रतीकात्मक रूप से कार्य कर पा रहे है। अभी तक  असल उपाय नहीं दे पाये शायद आगे अपने काम को बढ़ा सके। उनके नए डायरेक्टर से बड़ी आशा है जबसे उन्होंने चम्बल के पानी पर बोले की किस प्रकार स्किमर के अंडे डूब रहे है। यहाँ सकारात्मक बदलाव के संकेत है।  वर्ना आप जानते हो यह पुराना  जहाज कितना मुश्किल से चलता है।

इसी तरह WCS को स्थानीय समुदायों के लिए कार्य करना था परन्तु वह एक दिशाहीन रूप से आगे बढ़े और अपनी टीम के प्रबंधन में ही विफल होते नजर आते रहे है। उनकी अधिक बाते नहीं करे तो ठीक है क्योंकि वह तो असल में इस ग्रह के लोग भी नहीं लगते है।

सरकार के कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम ने उनके पूरे ध्यान को उसी और केंद्रित कर लिया है एवं अन्य हैबिटैट डेवलपमेंट आदि के कार्य से पिछड़ते जा रहे है। असल रस्ते सरकार को संवाद के माध्यम से निकालने होंगे। डॉ भरद्वाज जैसे लोगों को कमान देनी होगी एवं वर्तमान DFO अत्यंत उत्साही एवं काबिल इंसान है उन्हें और अनुभवी बना कर अच्छा काम लिया जा सकता है। पानी बिजली जैसे समस्या का निपटारा एक कुशल रेंजर मिनटों में कर सकता है अथवा माल सिंह जी जैसे लोगों को साथ लेकर किया जा सकता है।  यह सब वन विभाग के अलग थलग रहने का ठोस उदाहरण है।

५ कोई आशा है की इस स्थिति में गोडावण का संरक्षण किया जा सकता है ? 

उत्तर:  समय बताएगा, वन विभाग को अपने स्तर पर कई नीति बदलनी होगी, लोगों को शामिल करना होगा पहले खुद के घर से फिर बाहर से।

An Extraordinary Conservation Effort for an Unknown Bird

An Extraordinary Conservation Effort for an Unknown Bird

In the year 1980, India’s Environment Minister Sh. Digvijay Sinh wrote in a book that-

“Harshvardhan is singularly responsible for converging global attention of experts on bustards and for having demanded a ban on hunting bustards through falconry in the Indian desert. He set a rare example. ”

Falconry is an antiquated form of hunting using trained hawks and similar raptors. Whilst it is an ancient hunting practice, it is a revered and very much practiced tradition in peninsular and gulf Arab nations. Even today, many in these nations, which includes members of their royal families, are ardent falconers with vast aviaries housing an untold number of raptors.

Great Indian Bustard (Photo: Mr. Nirav Bhatt)

Until about 40 years ago (1979), royalty from various Arab states would come to the desert areas of Rajasthan with their falcons, and hunt the great Indian bustard, putting it at even greater risk of extinction. Harkirat Sangha, an ornithologist from Rajasthan remembers that on those hunts, the sheikhs used very powerful vehicles with no less than 6 cylinders. We have no idea regarding the extent of damage caused by Arab falconers back then, because neither the forest department nor the police could pursue them in the Thar desert. This is because the roads were either rough or non-existent, while the Arab falconers, armed with hunting permits, roamed freely hunting anywhere they pleased in the deserted desert area in Jaisalmer. Foreign policy and foreign exchange were the reasons behind the granting of hunting permits.

All became mute spectators when faced with this gory spectacle, no one had the courage to say anything against the sheikhs and more importantly, anything against this decision by the government of the day. Meanwhile, the  Arab falconers used to come to India every winter and do untold damage.

Harsh Vardhan could not bear to watch the devastation inflicted upon the great Indian bustard, but at the time, people were not very aware of conservation issues beyond the tiger. It was far easier to make people aware of tiger centric issues. While it was indeed difficult for Harsh Vardhan, he still managed to drum up awareness by staging many public protests, and launching several memorandums. Many newspapers followed suit and made the public aware of the plight of the great Indian bustard. It was such a well organized campaign by one motivated individual, that in no time, the public was talking about a once unknown bird, and heaping abuse on the visiting sheikhs, all the while citing India’s long history and tradition of wildlife conservation. However, the government remained silent. Harsh Vardhan finally secured an order from the High Court of Rajasthan, which imposed a complete ban on the hunting of the great Indian bustard by Arab falconers.

Soon after, Harsh Vardhan convened an international symposium on bustards, in which many people participated and for the first time the issues related to bustards were compiled in one place and a report titled  ‘Bustards in Decline’ was published.

This was the first concentrated effort not only in India, but in the world for the conservation of any one particular bird species, and is still regarded as a key milestone by wildlife conservationists.

Finally, influenced by the campaign started by Harsh Vardhan, an individual secured a decision from the Rajasthan High Court which completely stopped the hunting of the great Indian bustard by Arab falconers.

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

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वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

कमलेश, बिश्नोई समाज का वह बालक जिसने अपने दादाजी के साथ ऊंट चराते हुए वन्यजीवों के बारे में सीखा और आज वन-रक्षक बन गोडावण सहित अन्य वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है

“आई लव माई खेतोलाई”, खेतोलाई राजस्थान पोखरण में स्थित वह जगह है जहाँ प्रधानमंत्री स्व.श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी सूझबूझ साहस और दूरदर्शिता दिखाते हुए 11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण किया था। उस परमाणु परीक्षण के इंचार्ज मिसाइल मैन स्व. श्री ए. पी.जे.अब्दुल कलाम थे। श्री कलाम साहब ने 2002 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद एक अंग्रेजी अखबार के इंटरव्यू में कहा था “आई लव माई खेतोलाई ।

इसी पोखरण की धरती में जन्म लेने वाले प्रकृति प्रेमी, कोमल ह्रदय कमलेश विश्नोई आज वनरक्षक में भर्ती होकर वन सम्पदा, जीव-जंतुओं एवं वन्य प्राणियों के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।

कमलेश बिश्नोई का जन्म 1 जुलाई 1990 को जैसलमेर जिले की पोखरण तहसील के खेतोलाई गांव में एक पशुपालक परिवार में हुआ। बचपन में ही जब इनकी उम्र मात्र 6 वर्ष थी इनके सिर से पिता का साया उठ चुका था। माता गृहणी थी और इनके दादाजी ऊंट चराते थे और घर चलाते। बचपन में कमलेश भी अपने दादाजी के साथ ऊंट चराने जाया करते थे, क्योंकि इनको ऊँटो की सवारी करना बहुत पसंद था। जब ये अपने दादाजी के साथ जाया करते थे तो आसपास की वनस्पतियां और जीव-जंतु इनको बड़ा आकर्षित करते थे और ये उनके बारे में अपने दादाजी से पूछते रहते थे और दादाजी इनको उन सभी जंतुओं के ग्रामीण नाम व उनकी विशेताएं बताया करते थे।

एक बार ये अपने दादाजी के साथ एक तालाब के पास बैठे हुए थे और तब इन्होने पहली बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) को देखा तभी से इनके मन वन्यप्राणियों के प्रति लगाव और उनको बचाने का जज़्बा आ गया और उस समय इनको लगा कि “मैं वन विभाग में ही कार्य करू जिससे मैं प्रकृति का प्रेमी बन सकू” साथ ही इनके दादाजी भी चाहते थे कि ये वनकर्मी बने और वे इन्हें प्रेरित भी करते रहते थे। कठिन घरेलू परिस्थितियों के चलते हुए भी इन्होंने हिम्मत नही हारी और बुलन्द हौसलों व जज्बातों के साथ एक उज्ज्वल व सफल भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई व कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई इन्होंने सागरमल गोपा स्कूल जैसलमेर से की थी 11वीं व 12वीं की पढ़ाई इन्होंने जयपुर से की थी इसी दौरान ये अंडर 16 व अंडर 18 में 800 मीटर तक की दौड़ में चार बार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने भी गए थे। वर्ष 2013 में इनका वनरक्षक के पद पर चयन हुआ और ये सफलता इनके परिवार के लिए एक संजीवनी व इनके दादाजी के सपनो को साकार करने वाली थी।

विश्नोई समाज से आने वाले कमलेश बताते हैं कि हिरन को हम अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है। यहां तक की इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरन का बच्चा या हिरन दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसे पालते हैं। यहां तक बिश्नोई समाज की महिलाएं भी हिरनों को एक मां का पूरा प्यार देती हैं। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान जैसे कभी कोई हिरन का बच्चा बीमार या दुर्घटना से घायल इनको मिल जाता था तो ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके इलाज की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराते थे।

घायल चिंकारा का इलाज करते हुए कमलेश

कमलेश की पहली पोस्टिंग कुम्भलगढ़ नाका (राजसमंद) में हुई और वर्तमान में ये वन्य जीव चौकी चाचा डेजर्ट नेशनल पार्क में तैनात हैं। वर्ष 2016 में जब इन्होने डेजर्ट नेशनल पार्क को ज्वाइन किया तो उस समय श्री अनूप के आर उप वन संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। वन संरक्षक हमेशा गोडावण के संरक्षण के प्रति सोचते व कार्य करते रहते थे, तब कमलेश को भी बचपन में देखे हुए गोडावण की याद आ गई जिसके बारे में इनको बाद में पता चला था कि ये राज्य पक्षी है। तो साहब की प्रेरणा से कमलेश की भी “गोडावण बचाओ” के प्रति रुचि बढ़ती चली गई और इन्होने वन संरक्षक के निर्देशानुसार स्थानीय सरपंच व गांव वालों के सहयोग से डेढ़ सौ हेक्टेयर में एक व्यवस्थित ढंग से क्लोजर भी बनवाया था जिसे आसपास के लोग देखने भी आते हैं।

अपना कार्यभार संभालने के बाद जब कमलेश रोज़ पार्क में गश्त के लिए जाया करते थे तो इन्हे अनेक छोटे-छोटे गड्ढे देखने को मिलते थे जिनके बारे में इन्होने वहां घूमने वाले चरवाहों से जानकारी जुटाना शुरू किया। तब इनको मालूम कि भील समुदाय से आने वाले कुछ लोग जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं स्पाईनि टेल्ड लिजार्ड जिसको स्थानीय भाषा मे “सांडा” छिपकली कहा जाता है का शिकार करते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सांडा के ऊपरी हिस्से में से तेल निकलता है जो औषधि बनाने के काम में आता है। धीरे-धीरे कमलेश ने चरवाहों व पशुपालकों को विश्वास में लेने एवं उनका मनोबल बढ़ाने के लिए, वन संपदा और जीव-जंतुओं का प्रकृति में महत्व को समझाना शुरू किया। इस पहल से 8-10 चरवाहे कमलेश के लिए विश्वासपात्र मुखबिर बन गए और अपराधियों के नाम, पते और गतिविधियां बताने लगे। वर्तमान में 40 चरवाहे ऐसे हैं जो कमलेश को सहयोग करते हैं। कमलेश भी उन्हें जरुरत पड़ने पर सहायता करते हैं और ग्रामीण क्षेत्र में ये एक पहल हैं जो इनके बीच में सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सामंजस्य स्थापित करती हैं।

इन चरवाहों के माध्यम से कमलेश ने चार बार सांडा के शिकारियों को पकड़ा। एक बार ये पोखरण थे तब इन्हे सुचना मिली कि, “रामदेवरा के पास तीन आदमी अभी-अभी साइकिल से आए हैं और वो ज़मीन खोद रहे हैं”। सुचना मिलते ही कमलेश ने अपनी पूरी टीम के साथ उनके ऊपर धावा बोलकर उनको पकड़ लिया जिनके पास से 6 सांडे बरामद हुए थे। बाद में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई की गई। इसी प्रकार ऐसा ही केस और आया ये घटना लोहारकी गांव के पास की हैं जब रात के समय गांव के स्थानीय लोग कहीं बाहर से आ रहे थे तो उनकी गाड़ी की लाइट में उन्होंने कुछ अवैध व्यक्तियों को सांडा के बिलों को खोदते हुए देखा तो उन लोगों ने तुरंत कमलेश को सूचित किया। सुचना मिलते है वन कर्मी टीम के साथ वहां पहुंचे और उनको पकड़कर उनपर कानूनी कार्रवाई की।

ऐसे ही एक बार कमलेश जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे थे तो उन्हें आदमी दिखा जिसका केवल सिर ही नज़र आ पा रहा था। वो एक पहाड़ी से नीचे की तरफ जा रहा था तो जैसे ही कमलेश पास गए तो पाया कि वहां दो आदमी थे और उन्होंने 16 सांडे खोदकर रखे हुए थे। कमलेश उस समय अकेले थे तो उन्होंने बुद्धिमता से काम लेते हुए रेंजर व अपने साथियों को फोन से मैसेज कर दिया और दूसरी ओर शिकारियों बातों में उलझाते रहे। इस से पहले कि शिकारी कमलेश को पहचान पाते वन-विभाग के अन्य लोग वहां पर पहुंच गए और अपराधियों को पकड़ लिया। एक बार और शिकारियों कि सुचना मिली थी परन्तु पहुंचने से पहले ही वे भाग गए थे तथा वहां से कुछ हथियार व 10 सांडे बरामद हुए थे।

शिकारियों से बरामद किये हुए सांडा

कमलेश बताते हैं कि “अवैध कार्यों में शिकारियों को गिरफ्तार करवाने पर मुझे जनप्रतिनिधि व असामाजिक तत्वों की धमकी भी सुनने को मिलती है लेकिन हम बिश्नोई समुदाय से आते हैं इसलिए जीव जंतुओं को हम हमेशा दया की भावना से ही देखते हैं तथा हमको कितनी भी धमकियां मिले लेकिन हम घबराते नहीं हैं”। साथ ही कमलेश मानते हैं कि आपराधिक तत्वों पर लगाम लगाने में कहीं न कहीं सुचना देने वाले ग्रामीण व चरवाहों का भी महत्वपूर्ण योगदान हैं।

कमलेश बताते हैं कि, आसपास के इलाके में चिंकारा का शिकार भी किया जाता है। एक घटना ऐसी हुई जब गांव के एक व्यक्ति ने सूचना दी कि “मावा गाँव के पास दो गाड़ियों पर चार व्यक्ति हैं और हिरन को मारने कि कोशिश कर रहे हैं, मई यहीं पर छिप कर बैठा हूँ आप जल्दी आजाओ “। चिंकारा का शिकार करने का यह सामान्य तरीका है, जब चिंकारा पानी पीता है तो तुरंत भाग नहीं पाता है ऐसे में शिकारी चिकारा कि तरफ गाड़ी चालते हैं। चिंकारा भागता है लेकिन जल्दी थक जाता है और मारा जाता है। उन शिकारियों ने भी चिंकारा के पीछे दौड़ा कर उसे मार दिया था तथा उसे जाल में डालकर शरीर को चीर रहे हैं। सुचना मिलते ही कमलेश ने स्टाफ के अन्य साथियों को सूचना दी और वहां पहुंचे थे। विभाग कि टीम के वहां पहुंचने से पहले वे शिकारी तीन और चिंकारा मार चुके थे। घटना स्थल पर पहुंचते ही उन शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया गया व कानूनी कार्यवाही की तथा उनको तीन महीने की जेल भी हुई। जेल से बाहर आने के बाद वे लोग कमलेश को धमकियाँ देने लगे। परन्तु ऐसी धमकियाँ कमलेश के जुनून व हौसले को कमजोर नहीं कर पाई।

समय के साथ-साथ कमलेश को विभिन प्रकार कि नई चीज़ें भी सीखने को मिली हैं, वरिष्ठ साथियों का अनुभव व अधिकारियों के मार्गदर्शन ने इनके इरादों को इतना मजबूत कर दिया कि प्रतिदिन इन्हे वन्य क्षेत्र में नया कार्य करने के लिए उत्सुकता रहती हैं। वर्ष 2019 में उपवनरक्षक महोदय ने कमलेश को बताया कि, “एक गोडावण ने अंडे दिए हैं और आपको विशेष तौर से उसकी निगरानी करनी होगी”। यह बात सुनते ही कमलेश इस कार्य के लिए तैयार हो गए और उस गोडावण व उसके अण्डों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली। कमलेश ने जरूरत का सारा सामान व एक टेंट पैक किया और उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ गोडावण ने अंडे दिए थे। गोडावण को उनकी उपस्थिति से कोई परेशानी न  हो इस बात को समझते हुए उन्होंने 100 मीटर की दुरी रखते हुए एक अस्थायी तम्बू तैयार किया। मादा गोडावण सुबह 9 बजे पानी पीने के लिए ताल पर जाती थी और सुबह-शाम भोजन के लिए इधर उधर टहलती थी और उस समय कमलेश उसके घोंसले की पूरी मुस्तैदी निगरानी करते थे ताकि कोई बाज़ या लोमड़ी अण्डों पर हमला न करदे।

गोडावण एक शर्मीला पक्षी होता है और इस बात को समझते हुए कमलेश टेंट में ऐसे रहते थे की जैसे वहां कोई है ही नहीं। ये पूरे 28 दिन तक उस तम्बू में रहे। गोडावण गर्मियों में अंडे देता है और उस समय पोखरण में रेत के धोरों पर दैनिक तापमान 45-46 डिग्री तक पहुँच जाता है और ऐसे तेज़ गर्मी वाले वातावरण में रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसे कमलेश ने भलभाँति निभाया।

आज अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास मानव बस्तियां हैं और इन बस्तियों में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी वन्यजीवों के लिए मुश्किल बनती जा रही है। ये आवारा कुत्ते संरक्षित क्षेत्रों की सीमा के अंदर भी जाने लगे हैं तथा कई बार बाहर आने वाले जानवर जैसे की हिरन, चिंकारा और नीलगाय को घायल कर देते हैं। ऐसी की मुश्किल कमलेश के कार्य क्षेत्र में भी है। कमलेश बताते हैं की “जब से मैंने यहाँ कार्यभार संभाला है रोज कुत्तों द्वारा एक न एक दिन हिरण को घायल करना, मार देना ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। वन क्षेत्र के आसपास गाँव हैं जिधर अधिकतर लोगो ने अपने खेतों की तार बाढ़ कर रखी है। ऐसे में भोजन की तलाश में कई चिंकारे इधर-उधर भटक जाते हैं तो रास्ता तलाश कर खेतों में प्रवेश कर जाते हैं और पीछे से कुत्ते भी खेतों में घुस जाते हैं और चिंकारा का पीछा करते हैं। रास्ता न मिल पाने के कारण वो इधर उधर टकराकर घायल हो जाता है और कुत्ते उसको आसानी से मार देते है। इस परेशान को देखते हुए कमलेश ने अपने उच्च अधिकारियों से सम्पर्क किया और इस समस्या का समाधान ढूंढना शुरु किया। इन्होने विभाग से एक पिंजरा लाकर ग्रामीणों के सहयोग से उनको पकड़ना शुरू किया। इनकी सोच कुत्तो के खिलाफ नही थी बल्कि ऐसी घटनाओं की रोज पुनरावृत्ति न हो इसीलिए इन्होने कुत्तों को पकड़ कर अन्यत्र स्थान पर ले जाकर छोड़ा जहाँ उन्हें भोजन भी मिल जाए और कोई वन्यजीव को खतरा भी न हो। इसी प्रकार से कमलेश अभी तक और अब तक 250 कुत्तो को ग्रामीणों के सहयोग से अन्यत्र स्थान पर छोड़ चुके हैं।

वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कमलेश

कमलेश बताते हैं कि वर्ष 2019 में, कमलेश के इन सभी कार्यों को देखते हुए टाइगर वॉच संस्था और वाइल्ड लाइफ क्राइम कण्ट्रोल ब्यूरो (WCCB) द्वारा पुरुस्कृत भी किया गया है। साथ ही श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वनसंरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क कमलेश के बारे में बताते हैं कि “कमलेश एक बहुत ही आश्वस्त और समर्पित वन रक्षक है। वह न केवल अपने कर्तव्य की भावना कार्य करते हैं, बल्कि वन्यजीवों के प्रति गहरी लगन और प्रेम से भी प्रेरित हैं। इनका स्थानीय लोगों के साथ एक अच्छा संपर्क है और संरक्षण के लिए समुदाय के समर्थन का होना बहुत जरुरी होता है”।

कमलेश बताते हैं कि उनकी शादी 2011 में हो गई थी और उनके दो बच्चे हैं। इनकी पत्नी भी चिंकारों के संरक्षण में रुचि रखती हैं उन्होने ने भी चिंकारे के बच्चे पाल-पालकर बड़े किए हैं फिर उनको जंगल मे छोड़ा हैं। आज जब इनके घर कोई अतिथि आता है और बच्चों से पूंछते हैं कि बेटा तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो इनके बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि “पापा गोडावण बचाते हैं”। और इसके चलते परिवार व सगे सम्बंदियो के लिए तो यह स्लोगन बन चुका हैं कि “कमलेश एक गोडावण प्रेमी” हैं।

कमलेश बताते हैं कि गोडावण संरक्षण को लेकर विभाग स्तर पर सराहनीय प्रयास किए गए हैं। गोडावण प्रजनन व रहवासी स्थलों पर खुफिया कैमरों की नजर, अंडों के सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधन, क्लोजरों में पानी की समुचित व्यवस्था, गोडावण रहवासी क्लोजरों में अन्य हिंसक वन्यजीवों के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सुविधाओं का विस्तार कर गोडावण संरक्षण को लेकर विशेष कार्य किए गए हैं। और आगे बहुते से अन्य जरुरी कदम भी उठाये जाएगी जिनसे हमारे राज्य पक्षी गोडावण को बचाया जा सके।

हम कमलेश को उनके अच्छे कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वन संरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क 
लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

अति संकटापन्न पक्षी प्रजाति गोडावण के पर्यावास में महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं के कारण विद्युत् लाइनों का मानो जाल बिछ गया है। इनके सम्बन्ध में अक्सर कहा जाता है, इन्हे भूमिगत रूप से डाला जाये।  पढ़ते है, क्या व्यवाहरिक कारण है इनके भूमिगत होने में

अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में से जैसलमेर क्षेत्र में मुख्यतः पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा की विभिन्न इकाइयां स्थापित हैं। ये सौर एवं पवन ऊर्जा के संयंत्र बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन में सक्षम हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पवन एवं सौर ऊर्जा सबसे उन्नत एवं विकसित तकनीकें हैं। पवन चक्कियों को चलाने वाली उच्च गति से बहती, सतत हवा और साफ़ आकाश के साथ खिली धूप जो सौर ऊर्जा के लिए जरूरी विकिरण उपलब्ध करवाती है। जैसलमेर क्षेत्र इन दोनों ही स्त्रोतों की उपलब्धता के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में आता है। ये दोनों संसाधन मिल कर जैसलमेर को देश की प्रमुख सौर-पवन Hybrid site बनाते हैं।

गोडावण पक्षी

अक्षय ऊर्जा की यह स्थापित परियोजनाएं, राज्य को ही नहीं बल्कि राष्ट्र को ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना रही हैं वहीँ कोयले एवं अन्य पेट्रोलियम जनित ऊर्जा स्रोतों पर हमारी निर्भरता भी कम कर रही है। यह स्वच्छ एवं हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन को कम कर पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। यद्दपि यह आज कल चर्चा का विषय है की इस के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव भी है।

राज्य में स्थापित 4292 मेगा वाट के पवन ऊर्जा परियोजनाओं में से 3464 मेगा वाट जैसलमेर जिले में हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से युक्त होते हैं, परिष्कृत कंप्यूटर गणनाओँ एवं अनुसंधान के पश्चात इन्हे स्थापित करने के स्थान का चयन किया जाता है। हवा के बहाव एवं भौगोलिक क्षेत्र के वर्षो तक किये गये अध्ययन के उपरांत एक परियोजना क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। इसी कारण इन परियोजनाओं के लिए भारी निवेश की भी आवश्यकता होती है।

इन ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने के प्रारंभिक चरण के दौरान, राज्य सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि आवंटित की गई थी, जहां डेवलपर्स ने अपने पूर्व परियोजना अनुसंधान डेटा के आधार पर आवेदन किया था। भूमि आबंटन हर चरणों में जाँच के साथ एक बहुत ही विस्तृत और सख्त प्रक्रिया है। फिर इन आवेदनों का विश्लेषण भूमि प्रतिबंध, रक्षा, आवास, खनन आदि जैसे विभिन्न प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है और उनमें से एक प्रमुख प्रतिबंध डेजर्ट नेशनल पार्क (डीएनपी) से बचने के लिए है, जहां गोडावण यानि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) पाया जाता है। कोई भी डेवलपर डेजर्ट नेशनल पार्क की सीमा में प्रवेश नहीं करता है और यह सभी परियोजनाओं के नियोजन चरण में एक स्पष्ट No-Go क्षेत्र है।

जुलाई 2013 में सलखा, कुचड़ी इलाकों के पास जीआईबी देखे जाने की पहली रिपोर्ट आई थी। ये ऐसे क्षेत्र थे जो DNP सीमा से परे हैं। इस समय तक, इन क्षेत्रों के पास भूमि पार्सल पहले ही आवंटित किए गए थे और परियोजनाएं स्थापना के चरण में थीं। इस क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने के लिए कवायद शुरू हुई और इस क्षेत्र में सभी नई परियोजनाओं को रोकने के निर्देश के लिए लगभग 3 साल लग गए और स्थापना रुक गईं। पिछले वर्षों में 2017 से अब तक जैसलमेर या राजस्थान में कोई नई पवन  संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है।

रेगिस्तान में पवन चक्किया

इस वर्ष, पवन, सौर और पवन-सौर हाइब्रिड परियोजनाओं के लिए नई नीतियों की घोषणा के साथ, राजस्थान सरकार फिर से राज्य में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने  का प्रयास कर रही है और राजस्थान फिर इस उद्योग के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन रहा है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए, डीएनपी से परे आवासों की रक्षा हेतु अब जैसलमेर में एक “GIB arch” प्रस्तावित है। यह GIB arch अब क्षेत्र में पवन परियोजनाओं की “NO-Go Area List” में शामिल है, और इस GIB arch और DNP के बाहर ही सभी पवन परियोजनाओं की योजना बनाई गई है।

अक्षय ऊर्जा की ये परियोजनाएं, नवीन दिशा निर्देशों एवं नीतियों के अनुसार “Reverse Bid Process” द्वारा आवंटित की जाती है जिस से इनसे जनित बिजली न्यूनतम दरों पर विभिन्न सरकारी उपक्रमों द्वारा क्रय की जाती है। अतः इन परियोजनाओं का बजट प्रतिस्पर्धात्मक रहने हेतु बहुत ही कम और पूर्व निर्धारित रहता है। परियोजनाओं से बिजली ओवर हेड ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से प्रेषित होती है। यह लाइनें, सब स्टेशन और पवन ऊर्जा संयंत्रों के समूह जिन्हें विंड फार्म के रूप में संदर्भित किया जाता है, के बीच की दूरी के कारण, विद्युत् प्रसारण का व्यावहारिक साधन हैं।

गोडावण पक्षी

विशेषज्ञों की राय में कहा गया है कि गोडावण की दृष्टि सामने की बजाय, पार्श्व दिशाओ में देखने के लिए अनुकूल होती है, जिसके कारण आमतौर पर इनके उड़ते समय ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने का खतरा रहता है और हमने हाल के दिनों में भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को देखा है। यह वजन में भारी पक्षी जब तीव्र गति से उड़ता हुआ तारो से टकराता है, तुरंत इसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है और तत्पश्चात इसे बचाना नामुकिन होता है।

ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत किया जासकता है या नहीं ?

यह मांग अक्सर आती है कि इन ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत केबलों द्वारा बदल दिया जाना चाहिए। यहां, यह समझना चाहिए कि इन उच्च वोल्टेज केबलों और सहायक उपकरण की सामग्री की ही लागत ओवर हेड लाइनों की तुलना में कुछ गुना अधिक है, और इसकी स्थापना के लिए उच्च कौशल वाले कार्यबल की आवश्यकता होती है जो समग्र रूप से एक परियोजना की लागत को अत्यंत महँगा बना देगी।  इन परियोजनाओं में प्रयोग में ली जाने वाली एकल सर्किट 33kv लाइन की कुललागत जहाँ २० लाख रुपये प्रति किलोमीटर आती है वहीँ, केबल की लागत 40 लाख रुपये से भी अधिक आती है।  चूँकि यह केबल सुरक्षा की दृष्टि से भूमि के अंदर दबायी जाती है, किसी तकनीकी ख़राबी आने पर तुरंत ही फॉल्ट स्थान का पता लगाकर उसे खोदा नहीं जा सकता इसलिए सामान्यतः दोहरी केबल का जोड़ा भी लगाया जाता है जिससे किसी फॉल्ट की स्थिति में दूसरी केबल को तुरंत प्रयोग में लाया जा सके, यह इस केबल प्रणाली को और भी महंगा बना देता है। सामान्यतः यह 33kv ओवरहेड लाइन किसी भूमि से निकलती है तो प्रति खम्भे के बीच 60 – 70m की दुरी होती है और लाइन जमीन से सामान्यतः 10m की ऊंचाई पर होती है, जो और हाई वोल्टेज लाइन के टॉवर में और भी बढ़ जाती है, वहीँ पर केबल के सन्दर्भ में पूरी भूमि को ही खोद कर उसमे यह केबल दबायी जाती है, यह किसी भी भू मालिक को सहज ही अस्वीकार्य होता है, एक हाई वोल्टेज केबल का अपने भूमि में से गुजरना जिस से उच्च शक्ति विद्युत् प्रवाह होता हो, भू मालिकों को सदैव आशंकित रखता है और वो राजी नहीं होते हैं।और इन लाइनों का बीच में किसी भूमि विवाद में पड़ जाना, पूरी परियोजना को ही ख़तरे में डाल सकते हैं। इसी लिए नए प्रतिष्ठानों के लिए, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आयी रिवर्स बिड नीलामियों और कम दरों पर टैरिफ के साथ, बिजली प्रसारण के लिए विकल्प के रूप में भूमिगत केबल के लिए जाना असंभव है। अतः गोडावण प्रवास क्षेत्रों को चिन्हित कर पहले ही सुरक्षित करना चाहिए |

जिन क्षेत्रों में लाइन पहले से ही स्थापित है वहां एक संभव समाधान हो सकता है, अगर वन विभाग, प्रभावी पक्षी डायवर्टर प्रदान कर सके और संबंधित परियोजना एजेंसी को उचित मार्गदर्शन के साथ उन्हें स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जो सभी हित मालिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है और इन ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जीआईबी के ऐसे टकराव को रोकने में मदद कर सकता है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए वन विभाग द्वारा तत्काल बजट जारी किया जाना चाहिए जो उन्होंने ऐसे पक्षी डायवर्टर स्थापित करने के लिए चिन्हित किये हैं। इनके पूर्णतया प्रभावी होने पर कुछ लोग शंका भी रखते है।

यह एक संयोग है कि पवन परियोजनाएं उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त हैं जो मैदानी हैं और इनमें हवा का सुगम प्रवाह हो सकता है और ये क्षेत्र, ऐसे घास के मैदान ही गोडावण के आवास हैं। लेकिन, यह भी सच है कि कोई भी पवन ऊर्जा एजेंसी उस क्षेत्र में काम करने की इच्छा नहीं रखती है जहां पर्यावरण के लिए कोई भी संभावित खतरा हो सकता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र इन परियोजनाओं के निवेशकों को पीछे हटा देती हैं और ऐसी परियोजनाएं हमेशा कानूनी रूप से ठप होने के जोखिम में होती हैं और व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होती हैं । इस प्रकार आवश्यकता है कि अधिकारियों और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय हो और पारिस्थिकी तौर से संवेदनशील क्षेत्रों का अग्रिम सीमांकन किया जाए। राजस्थान ने 2017 से इस अवधि का उपयोग इस जीआईबी आर्क को मैप करने के लिए किया और अपने राज्य पक्षी और पवन उद्योग के सह-अस्तित्व के लिए एक समाधान तैयार किया। हाल ही में जैसलमेर के रामगढ़ कुचड़ी क्षेत्र के पास एक केंद्र सरकार के सबस्टेशन की योजना जैसलमेर के दक्षिण में स्थानांतरित की गई थी, क्योंकि डेवलपर्स ने ट्रांसमिशन लाइनों से GIB arc को बचाने के लिए अनुरोध किया था, यह एक बहुत स्वागत योग्य कदम था। मौजूदा तर्ज पर डायवर्टर जैसे उपकरणों के उपयोग के लिए इसी तरह की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यूरोप में नए शोध आ रहे हैं जो बताते हैं कि एक टरबाइन के रंगीन ब्लेड भी पक्षियों से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना को कम करते हैं। इस तरह के शोध भारत में भी किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे अनमोल वन्यजीवों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय के साथ एक संवाद  विकसित करने की आवश्यकता है, यह उद्योग जो पृथ्वी को साफ और हरा-भरा रखने के लिए कृत संकल्प है