भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

भालू (स्लॉथ बेयर) की जीवन यात्रा

जंगल में दीमक की संख्या को नियंत्रित करने वाला पेस्ट कंट्रोल सर्विस देने वाला प्राणी होता है – भालू। असल में अधिकांश लोग मानते है की दीमक नुकसान के अलावा कुछ नहीं करता। भालू ऐसे नहीं सोचता, वह इसे अपने जीवन का आधार मानता है। स्लॉथ भालू जैसे विशाल जीव के आहार का आधा हिस्सा दीमक होता है। उसे वर्ष भर फल आदि मिले ना मिले परन्तु वर्ष के अधिकांश महीने कीट अवश्य मिलते हैं जिनमें दीमक प्रमुख है। स्लॉथ भालू ने तो अपने उद्विकास को भी दीमक के अनुरूप ही विकसित किया है।

इसका लम्बा थूथन एवं प्रथम मैक्सिलरी कृन्तकों की अनुपस्थिति, उभरे हुए तालू, उभरे हुए गतिशील होंठ, और लंबे और घुमावदार अग्र पंजे, लंबे झबरीले कोट और नासिका छिद्रों को बंद करने वाली झिल्ली के कारण यह कीड़ों एवं उसमें भी दीमक को खाने के लिए अत्यधिक विशिष्ट रूप से अनुकूल है। स्लॉथ बेयर अपना जीवन अनेक तरह के भोजन पर आधारित रखता है। फल, जिसमें बेर और तेन्दु मुख्य हैं, वहीँ कीटकों में दीमक और चींटी प्रमुख है। प्रत्येक महीनों में इनकी विष्ठा में अलग-अलग तरह के भोजन के अवशेष देखने को मिलते है। इस तरह के भोजन को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार के जतन करने पड़ते है। फिर इसे स्लॉथ (आलसी) भालू के रूप में क्यों जाना जाता है।

क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी (स्लॉथ) है?

भालू को अंग्रेजी में स्लॉथ बेयर के नाम से जाना जाता है। स्लॉथ शब्द का मतलब होता है – आलसी। तो क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी है?

अगर देखे तो पुरे विश्व में भालुओं की आठ प्रजातियां मिलती हैं जिनमें से स्लोथ बेयर ही मात्र एक ऐसी प्रजाति है जो शीत निद्रा (hibernation) में नहीं जाती है। अन्य सभी भालू प्रजातियां लम्बे समय के लिए सोने चले जाते है – भालुओं के लिए हाइबरनेशन का सीधा सा मतलब है कि उन्हें खाने या पीने की ज़रूरत नहीं है, और वे शायद ही कभी पेशाब या शौच करते हैं (या बिल्कुल नहीं)। यदि भोजन बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है, तो सर्दियों के दौरान भालू अपनी मांद में सोते रहते है। शीतनिद्रा के दौरान, जानवर के शरीर का तापमान गिर जाता है, हृदय गति धीमी हो जाती है और साँस लेना कम हो जाता है। जानवर ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं जहां वे बमुश्किल सचेत होते हैं और बहुत कम हिलते-डुलते हैं। हाइबरनेशन कई महीनों तक रह सकता है, और जानवर जीवित रहने के लिए संग्रहीत वसा भंडार पर निर्भर रहते हैं।

भालुओं की निगरानी के दौरान डॉ धर्मेन्द्र खांडल द्वारा भालू के माँद के अंदर से लिया गया चित्र

तो जब स्लॉथ बेयर 12 महीने सक्रिय रहता है और अन्य भालुओं की भांति शीतनिन्द्रा में नहीं जाता तो फिर स्लॉथ क्यों कहा जाता है ?

असल में इन्हें यह गलत पहचान एक यूरोपीय जीवविज्ञानी जॉर्ज शॉ ने उसके लंबे, मोटे पंजे और असामान्य दांतों के लिए दे दी। उसने सोचा कि इन विशेषताओं के कारण भालू – दक्षिण अमेरिका में मिलने वाले स्लॉथ से संबंधित है। स्लॉथ बेयर भी कभी-कभी पेड़ की शाखाओं पर उल्टा लटक जाते हैं, जैसे स्लॉथ भी करते है। इसी गफलत में इसे गलत वैज्ञानिक नाम भी दे दिया गया और जॉर्ज शॉ द्वारा इसे स्लॉथ के जीनस में स्थापित कर दिया गया था।

स्लॉथ भालू:

स्लॉथ भालू भारत में पाई जाने वाली भालू की चार प्रजातियों में से एक है। यह एक मध्यम आकार का भालू है जिसके पास एक विशिष्ट रूप से बड़ा झबरा काला कोट और चौड़ी यू-आकार की छाती है। बाल विशेष रूप से गर्दन के आसपास और पीछे लंबे होते हैं। वयस्क नर का वजन आम तौर पर 80-145 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन लगभग 60-100 किलोग्राम होता है।

स्लॉथ भालू की उत्पति: स्लॉथ भालू संभवतः मध्य प्लियोसीन के दौरान उत्पन्न हुए और भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुए। प्रारंभिक प्लीस्टोसीन या प्रारम्भिक प्लियोसीन के शिवालिक की पहाड़ियों में पाए जाने वाले मेलर्सस थियोबाल्डी नामक भालू की एक जीवाश्म खोपड़ी को कुछ लेखकों ने स्लॉथ भालू और पूर्वज भूरे भालू के बीच एक मध्य की कड़ी माना है। एम. थियोबाल्डी के दांतों का आकार स्लॉथ भालू और अन्य भालू प्रजातियों के बीच का था।

स्लॉथ भालू, भालू परिवार उर्सिडे में आठ मौजूदा प्रजातियों में से एक है और उपपरिवार उर्सिनाई में छह मौजूदा प्रजातियों में से एक है।

स्लॉथ भालू प्रजनन: स्लॉथ भालू के लिए प्रजनन का मौसम स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है: भारत में, वे अप्रैल, मई और जून में सहवास करते हैं, और दिसंबर और जनवरी की शुरुआत में बच्चे पैदा करते हैं, जबकि श्रीलंका में, यह पूरे वर्ष होता है। मादाएं 210 दिनों तक गर्भधारण करती हैं और आम तौर पर गुफाओं में या पत्थरों के नीचे आश्रयों में बच्चे को जन्म देती हैं।

एक मादा भालू, अपने शावकों के साथ रणथंभोर के जंगल में (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

एक बार में आमतौर पर एक या दो शावक होते हैं, या शायद ही कभी तीन होते हैं। शावक अंधे पैदा होते हैं, और चार सप्ताह के बाद अपनी आँखें खोलते हैं। अधिकांश अन्य भालू प्रजातियों की तुलना में स्लॉथ भालू के शावक तेजी से विकसित होते हैं: वे जन्म के एक महीने बाद चलना शुरू करते हैं, 24-36 महीने में स्वतंत्र हो जाते हैं, और तीन साल की उम्र में यौन रूप से परिपक्व हो जाते हैं। युवा शावक अपनी माँ की पीठ पर तब तक सवारी करते हैं। बच्चों के बीच का अंतराल दो से तीन साल तक रह सकता है।

वयस्क स्लॉथ भालू दौड़ने वाले इंसानों से भी तेज़ दौड़ने में सक्षम हैं। यद्यपि वे धीमे दिखाई देते हैं, युवा और वयस्क स्लॉथ भालू दोनों ही उत्कृष्ट पर्वतारोही होते हैं।

स्लॉथ बेयर – भालू का राजस्थान में वितरण :

स्लॉथ भालू भारतीय उप महाद्वीप के लिए स्थानिक है और भारत, श्रीलंका, नेपाल और भूटान में पाया जाता है। भारत में, यह पश्चिमी घाट के पहाड़ों के दक्षिणी सिरे से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैली हुई है। राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र पश्चिमी वितरण को सीमित करता है।

रणथंभोर टाइगर रिजर्व के कैलादेवी क्षेत्र से पहली बार देखा गया भूरे रंग का स्लोथ बेयर (फ़ोटो: टाइगर वॉच)

राजस्थान में स्लॉथ भालू का वितरण इस प्रकार है – यह बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौरगढ़, उदयपुर, जालोर, प्रतापगढ़, करौली, अजमेर, पाली, राजसमंद में पाया जाता है। निम्न दो जिलों – बाड़मेर के सिवाना और नागौर के डेगाना, थांवला क्षेत्र में कभी कभार दिख जाता है। अलवर में यद्यपि वर्षों से भालू गायब है परन्तु हाल ही में वन विभाग ने माउंट आबू से भालू को लाकर छोड़ा, परन्तु लगता है यह प्रयास उतना सफल नहीं रहा। कुछ जिले ऐसे है जहाँ भालू होने चाहिए जैसे भरतपुर, जयपुर, सीकर एवं झुंझुनू, यहाँ उपयुक्त आवास होते हुए भी बिलकुल नहीं मिलता। निम्न जिले ऐसे है जहाँ भालू नहीं मिलता जिनमें जोधपुर, चूरू, जैलसमेर, बीकानेर, गंगानगर एवं हनुमानगढ़ शामिल है।

भालुओं के जीवन को खतरा: आवास नष्ट होना सभी के लिए खतरा है, परन्तु भालुओं के लिए भोजन प्राप्त करना आसान नहीं। इसके लिए तेन्दु के फल, बेर के फल, दीमक और मधु के छतों से भरा जंगल होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही अभी भी इनके शिकार होने की घटनाओं से पीछा नहीं छूटा है। अनेक स्थानों पर मानव गतिविधियों के कारण संघर्ष की घटना बढ़ी है।

राजस्थान का सुंधा माता, माउंट आबू और उसका तलहटी क्षेत्र भालुओं की घनी आबादी के लिए जाना जाता है। कहते हैं माउंट आबू के तलहटी के पास, जसवंतपुरा क्षेत्र में रात में कई बार अटैक हो जाता है। इसी प्रकार सुंधा माता, रेवदर, जीरावला आदि क्षेत्र में भालुओं का अत्यंत प्रभाव रहता है। प्रत्येक वर्ष कई अटैक रिकॉर्ड किए जाते हैं। इसके अलावा, स्लॉथ भालू द्वारा मानव पर हमलों और फसल क्षति के कारण इनके क्षेत्र के कई हिस्सों में जनता के बीच भय और दुश्मनी पैदा कर दी है। जैसे रणथम्भोर के आस पास स्लॉथ भालू अक्सर अमरूद आदि की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।

डांसिंग बेयर: हाल ही के वर्षों तक मदारी लोग भालू को पालते और लोगों को उसका खेल दिखाते थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में एक लोकप्रिय मनोरंजन था, जो 13वीं शताब्दी और मुगल-पूर्व काल से चले आ रहे हैं। कलंदर, जो मनोरंजन प्रयोजनों के लिए सुस्त भालू को पकड़ने की परंपरा का पालन करते थे, अक्सर मुगल सम्राटों के दरबार में प्रशिक्षित भालुओं के साथ तमाशा करने के लिए नियुक्त किए जाते थे। 1972 में लागू इस प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद, 20वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान भारत की सड़कों पर लगभग 800 नाचते भालू थे, खासकर दिल्ली, आगरा और जयपुर के बीच राजमार्ग पर। सुस्त भालू के शावक, जिन्हें आम तौर पर छह महीने की उम्र में व्यापारियों और शिकारियों से खरीदा जाता था, उन्हें जबरदस्ती उत्तेजना और भुखमरी के माध्यम से नृत्य करने और आदेशों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। नरों को कम उम्र में ही बधिया कर दिया जाता था और एक साल की उम्र में उनके दांत तोड़ दिए जाते थे ताकि वे अपने संचालकों को गंभीर रूप से घायल न कर सकें। भालुओं को आम तौर पर चार फुट के पट्टे से जुड़ी नाक की नकेल डाली जाती थी।

मोग्या शिकारियों द्वारा स्लॉथ भालू को उनके पंजों के लिए निशाना बनाया जाता और अंधविश्वासी लोगों को आकर्षण के रूप में बेचा जाता था, कभी कभी अनुभवहीन खरीदारों को बाघ के पंजे के रूप में बेच दिया जाता था (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

Wildlife SOS नामक संस्था के अथक प्रयास से इस परंपरा को कानून के दम और मदारियों की भलाई के जरिये ख़त्म कर दिया गया है। Wildlife SOS और उत्तर प्रदेश वन विभाग के साझा प्रयासों से मदारियों के पास से रेस्क्यू कर लाये गए अनेक भालुओं को रेस्क्यू सेंटर्स में अपने जीवन यापन के लिए रखा जाता है। इनके सेंटर्स में सेंकडों की संख्या में भालुओं को रखा गया है। आने वाले समय में यह प्रथा से जुड़े सभी भालू अपना जीवन यहाँ पूर्ण कर हम इंसानों के जीवन के बड़े कलंक को समाप्त कर देंगे।

आगरा स्थित Wildlife SOS के रेस्क्यू सेंटर में भालू (फ़ोटो: कार्तिक, Wildlife SOS)

संरक्षण स्थिति: स्लॉथ बियर को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 की अनुसूची I, CITES के परिशिष्ट I और IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची (2012) में “वल्नरेबल” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

 

 

 

 

 

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।

गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)

राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।

1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |

2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |

3. नाचना :- यह   तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |

4. जैसलमेरी :-यह  नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |

5. कच्छी :- यह  नस्ल  मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |

6. जालोरी :- यह  नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |

7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |

8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |

9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |

10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |

11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |

भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह

इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।

राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।

 

 

Portia Jumping Spiders

Portia Jumping Spiders

हिंदी में पढ़िए

Portia spiders are small jumping spiders that belong to the Salticidae family. They are among the most intelligent arthropods because they hunt other hunters. This is possible because Portia spiders are skilled at creating and executing complex hunting strategies. While some spiders wait for prey in their silk webs, Portia spiders are active hunters. They stalk their prey and then pounce on them.

It has been observed that when this spider needs to kill another spider that builds webs, it tricks it by creating vibrations that mimic the struggles of trapped prey. The web-building spider thinks that something is caught in its web and comes out to investigate, giving Portia the opportunity to attack. Moreover, Portia spiders are known to exhibit social behaviors, which is not common among Salticidae spider species. I encountered this spider at Sawai Madhopur (Rajasthan).

Portia Jumping Spider

Portia spiders are active hunters. They stalk their prey and then pounce on them.

 

Portia

The most intelligent arthropods

 

Portia Jumping Spiders

सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में शामिल एक मकड़ी की बात

पोर्टिया मकड़ियाँ एक छोटी जंपिंग स्पाइडर है। जो साल्टिसिडे परिवार से संबंधित हैं। ये मकड़ी सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक हैं। क्योंकि पोर्टिया मकड़ियाँ शिकारी का शिकारी करती हैं। वह तभी संभव है जब आप जटिल शिकार रणनीतियों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने माहिर हो।  कुछ मकड़ियां अपने रेशम का जाला बनाकर इंतज़ार करती है, परंतु यह पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं। देखा गया है की जब इस मकड़ी को एक जाला बनाने वाली मकड़ी मारनी होती है, तो वह उसे झांसा देकर अपने पास बुलाती है।  यह उसके जाले में अपनी पतली टांगों से एक कंपन पैदा करती है, यह जाले वाली मकड़ी को लगता है कोई कीट उसके जाले में फंसा है।जाले वाली मकड़ी छिपे स्थान से बाहर आती है और फिर यह उस पर हमला कर देती है। इसके अलावा पोर्टिया प्रजातियाँ सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए जानी जाती हैं जो आमतौर पर इन साल्टिसिडे मकड़ियों में नहीं देखी जाती हैं। यह मकड़ी मुझे सवाई माधोपुर (राजस्थान) में  देखने को मिली।

Portia

सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक मकड़ी (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

 

Portia Jumping Spider

पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं (फोटो: प्रवीण)

 

राजस्थान के अंतिम जंगली चीता की कहानी

राजस्थान के अंतिम जंगली चीता की कहानी

कई विवादों और शंकाओं के बीच भारत देश में अब चीता को पुनः स्थापित किया जाने वाला हैं। राजस्थान राज्य के कुछ क्षेत्र भी इसके लिए उपयुक्त माने गए हैं। परन्तु क्या आप जानते हैं की राजस्थान में अंतिम चीता कहाँ और कब पाया जाता था ?

इसे जानने के लिए हमें भारत के एक महान प्रकृतिवादी इतिहासकार श्री दिव्यभानु सिंह के एक लंबे शोध पत्र को सूक्ष्मता से देखना होगा जो उन्होंने एक युवा शोधार्थी रजा काज़मी के साथ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के जर्नल -JBNHS 2019 में प्रकाशित किया हैं।

A fresco painting in Bundi .

इस शोध पत्र में ईस्वी सं 1772 से भारत और पाकिस्तान से चीता के 199 रिकॉर्ड समाहित किये हैं।  यानी पिछले लगभग 250 वर्षो में  चीता से संबंधित अधिकांश उद्धरण इस शोध पत्र में शामिल हैं। इन माहिर शोधकर्ताओं के अन्वेषण से शायद ही कोई चीता के रिकॉर्ड अछूते रहे होंगे।

यदि राजस्थान की बात करें तो इस शोध पत्र के अनुसार चीता के मात्र 12 रिकॉर्ड (टेबल 1) ही प्राप्त हुए है।  इन रिकॉर्ड की समीक्षा करे तो देखेंगे की  इन में 6 रिकॉर्ड गैर विशिष्ट प्रकार के हैं, यानी ऐसे रिकॉर्ड जो दर्शाते हैं कि भारत के कई राज्यों में चीता की उपस्थिति दर्ज की गयी हैं, जिनमें राजस्थान भी शामिल हैं, परन्तु ऐसे रिकॉर्ड  एक  स्थान विशेष को इंगित नहीं करते हैं जहाँ चीता देखा गया । यह रिकॉर्ड मात्र साहित्यिक विवेचना के क्रम में समाहित हुए है। जैसे की उदाहरण के लिए हम एक रिकॉर्ड लेते हैं –  स्टेरनदेल, (Sterndale,1884) ने लिखा की चीता ” Central or Southern India, and in the North-West from Kandeish, through Scinde and Rajpootana to the Punjab,…… In India the places where it most common are Jeypur in Upper India, and Hyderabad in Southern India ”  में पाया जाता है। इस रिकॉर्ड से यह सत्यापित नहीं होता की स्टेरनदेल ने किस तारीख को अथवा किस स्थान पर चीता देखा हैं।

बाकी बचे 6 रिकॉर्ड इन मे से 4 रिकॉर्ड पालतू चीता के दर्शाये गए हैं, जो भरतपुर, अलवर और जयपुर से प्राप्त हुए हैं। इन पालतू चीता के सन्दर्भ में प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं कि वह कहाँ से लाये गए है। राजस्थान के दो पूर्व वन्य जीव प्रतिपलाकों श्री विष्णु दत्त शर्मा एवं श्री कैलाश सांखला (1984) के अनुसार जयपुर में उपलब्ध सारे पालतू चीता अफ्रीका या काबुल, अफगानिस्तान से आते रहे हैं एवं श्री दिव्यभानुसिंह के अनुसार यह ग्वालियर (उन्हें अफ्रीका से आते थे, ऐसा प्रमाण नहीं मिला) से आते थे। अतः इन्हें किसी भी तरह राजस्थान का नहीं माना जा सकता हैं।

खैर अब बचे मात्र 2 प्रमाण जो राजस्थान के जंगली चीता होने के करीब हैं –

एक हैं प्रसाद गांव से जो दक्षिण उदयपुर में स्थित हैं। रिकॉर्ड धारक के अनुसार एक चीता रात में कैंप के करीब कुत्ते ढूंढ़ते हुए घूम रहा था। इस प्रमाण में दो संदेह पैदा होते हैं की क्या दक्षिण राजस्थान के घने जंगल चीता के लिए मुनासिब थे ? दूसरा की क्या चीता वाकई कुत्तों का शिकार करता रहा होगा? कहीं वह एक बघेरा/ तेंदुआ तो नहीं था जिसे चीता नाम से दर्ज  कर लिया गया होगा ? क्योंकि दक्षिण राजस्थान में आज भी तेंदुआ को चितरा नाम से जाना जाता हैं।

दूसरा प्रमाण कुआं खेड़ा गांव से हैं जो कोटा जिले के रावतभाटा क्षेत्र का एक गांव हैं जो मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित हैं।  यह निःसंदेह एक चीता के बारे में ही हैं, जिसे दुर्भाग्य से एक बाघ ने मौत के घाट उतार दिया था।  इस रिकॉर्ड के संकलनकर्ता विलियम राइस एक अत्यंत माहिर शिकारी थे।

विलियम राइस 25 वी बॉम्बे रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट पद पर थे और उन्होंने अपने शिकार के संस्मरण में लिखा है कि, किस प्रकार से उन्होंने पांच वर्षो के समय में 156 बड़े शिकार किये जिनमें 68 बाघ मारे एवं 30 को घायल करते हुए कुल 98 बाघों का शिकार किया, मात्र 4 बघेरे मारे एवं 3 घायल करते हुए कुल 7 बघेरे एवं 25 भालू मारे एवं 26 घायल किये और इस तरह कुल 51 भालुओं का शिकार किया। उन्हें लगता था कि, लोग उनके इस साहसिक कारनामे पर कोई विश्वास नहीं करेगा, इसलिए उन्होंने सात चश्मदीद अफसरों के नाम इस तथ्य के साथ में उल्लेखित किये हैं। यह अधिकांश वन्य प्राणी उन्होंने कोटा के वर्तमान में गांधी सागर, जवाहर सागर, राणा प्रताप सागर, बिजोलिया, मांडलगढ़, भेसरोडगढ़ आदि क्षेत्र से मारे थे।

A tamed cheetah in Alwar c. 1890

इस चीता के प्रमाण को संदेह से नहीं देखा जा सकता कि उन्हें इस प्राणी के बारे में पता नहीं था। यद्यपि, उन्हें स्वयं को भी संदेह हुआ की इस घने वन एवं पहाड़ी प्रदेश में यह प्राणी किस प्रकार आ गया जबकि यह मैदानी हिस्सों  का प्राणी हैं।

हालांकि इस अंतिम प्रमाण पर भी संदेह किया जाता हैं की यह कोई पालतू चीता था जो भटक कर पहाड़ी क्षेत्र में आ गया हो ? क्योंकि कोटा एवं बूंदी राज्य के भित्ति चित्रों में पालतू चीता रखने के प्रमाण मिलते हैं। कई बार शिकार के दौरान चीता भटक कर खो जाते थे, एवं कभी मिल जाते थे कभी नहीं मिलते थे।  शायद यह चीता भी इसी प्रकार का रहा हो।

इस तरह पूरे 250 वर्षो में यही प्रमाण जंगली चीता के सन्दर्भ में प्राप्त हुए हैं जो ईस्वी सन् 1852 में मिला था, यानी लगभग 170 वर्षों पहले हमारे राज्य में कोई चीता ऐसे जंगल में मिला था, जहाँ इस रिकॉर्ड धारक विलियम राइस के अनुसार वह नहीं हो सकता हैं।

 

S.no. year Place Remarks Reference
1 C. 1840 Bharatpur, Rajasthan Coursing with Cheetah Orlich, 1842
2 C.1852 Kooakhera (Kuvakhera), Rajasthan One dead cheetah killed by a tiger Rice, 1857
3 c. 1860 Jaipur, Rajasthan Photograph of two cheetah with keepers Fabb, 1986
4 28 December 1865 Pursad village, Rajasthan Author sees a cheetah prowling near the camp in search of dogs Rousselet and Buckie 1882
5 c. 1880 Sind, Rajputana, Punjab, Central, southern, and N.W. India. Cheetah Reported Murray, 1884
6 c. 1884 Central, Southern India, north-west from Khandesh through Sind and Rajputana to the Punjab, commonest in Jaipur and Hyderabad (in the Deccan) Cheetahs reported Sterndale, 1884
7 1889 Jaipur, Rajasthan Coursing with Cheetahs O’shea, 1890
8 1892-93 Alwar, Rajasthan Tame Cheetahs seen Gardner, 1895
9 1892 Punjab, Rajputana Central India up to Bengal Cheetahs reported Sanyal, 1892
10 c.1907 Central India, Rajputana, Punjab Cheetahs reported Lydekker, 1907
11 c.1920 Northern India, Punjab, Rajputana, Central India, Central Provinces, almost upto Bengal Cheetahs reported Burke, 1920
12 c.1932 Rajputana, Central India, Central Provinces, Punjab Cheetahs reported Alexander & Martin-Leake, 1932

References :-

Divyabhanusinh & R. Kazmi, ‘Asiatic Cheetah Acinonyx jubatus venaticus in India: A Chronology of Extinction and Related Report’, J. Bombay Nat. Hist. Soc 116, 2019. doi: 10.17087/jbnhs/2019/v116/141806

V. Sharma & K. Sankhala, ‘Vanishing Cats of Rajasthan’, in P. Jackson (ed.), The Plight of the Cats. Proceedings from the Cat Specialist Group meeting in Kanha National Park. IUCN Cat Specialist Group, Bougy-Villars, Switzerland, 1984, pp. 117-135.

W. Rice, Tiger-Shooting in India: Being an Account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana During the Hot Season, from 1850 to 1854. Smith, Elder & Co., London, 1857.

Divyabhanusinh, The End of a Trail: The Cheetah in India (2nd edn.) Oxford University Press, New Delhi, 2002.

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption & credit: Human-wildlife conflict is as old as mankind itself. A revealing cave painting from Bundi. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)