Tarantulas, belonging to the family Theraphosidae, are large, hairy spiders commonly found in warm regions worldwide, with several species also documented in India. For the first time in Rajasthan, a tarantula was recorded by Shri Batti Lal Meena, an experienced guide in Ranthambhore. He photographed the spider in 2018 near Singh Dwar, along the main road leading to the Ranthambhore Fort.
Tarantulas are generally non-aggressive toward humans but carry mild venom, comparable to a bee or scorpion sting, which they use to immobilize prey such as insects, small reptiles, and amphibians. Nocturnal hunters, they rely on their sensitive hairs to detect vibrations in their surroundings.
These spiders play a critical role in ecosystems as predators and prey, contributing significantly to biodiversity. Despite their intimidating appearance, tarantulas are fascinating creatures known for their unique behaviours. This discovery is not only a milestone for Rajasthan but also hints at the possibility of this being a new species, adding to the scientific understanding of arachnids.
Mr. Batti Lal Meena, the naturalist who made the first recorded sighting of a tarantula spider in Rajasthan
टारेंटुला मकड़ियां थेराफोसिडे परिवार से संबंधित बड़े आकार की, घने बालों वाली मकड़ियां हैं। ये दुनिया भर के गर्म क्षेत्रों में पाई जाती हैं और भारत में भी इनकी कई प्रजातियां देखी जाती हैं। राजस्थान में पहली बार टारेंटुला को रणथंभौर के एक अनुभवी गाइड श्री बत्ती लाल मीणा ने रिकॉर्ड किया। उन्होंने इसे 2018 में सिंहद्वार के पास रणथम्भोर किले पर जाने वाली मुख्य सड़क पर फोटोग्राफ किया था। टारेंटुला आमतौर पर मनुष्यों के प्रति आक्रामक नहीं होते हैं, लेकिन इनमें हल्का ज़हर होता है, जो मधुमक्खी या बिच्छू के डंक के समान होता है। ये ज़हर कीड़ों, छोटे सरीसृपों और उभयचरों जैसे शिकार को वश में करने के लिए इस्तेमाल होता है। टारेंटुला रात में शिकार करते हैं और कंपन का पता लगाने के लिए अपने संवेदनशील बालों पर निर्भर रहते हैं। ये पारिस्थितिकी तंत्र में शिकारियों और शिकार दोनों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डरावनी छवि के बावजूद, टारेंटुला अपने अनोखे व्यवहार और जैव विविधता में योगदान के लिए जाने जाते हैं। यह खोज अपने आप में राजस्थान के लिए तो अनूठी है ही बल्कि मेरा मानना है की यह विज्ञान के लिए एक नयी मकड़ी की एक प्रजाति भी हो सकती है।
राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी के खोजकर्ता श्री बत्ती लाल मीणा
प्रकृति और उसके विभिन्न जीव जंतुओं से हम हमेशा से ही आकर्षित होते रहे हैं और इन्हीं के कारण हमारे जीवन में रंगों और सुंदरता का महत्व है फिर चाहे वह रंग-बिरंगे फूलों हो या उड़ती हुई चिड़िया हो या फिर फूलों पर मंडराती तितलियां या अन्य कीट इन्होंने मनुष्य को सदैव लुभाया हैं। कीट वर्ग में सबसे सुंदर तितलियों को माना जाता है क्योंकि उनके पंखों की खुली सतह पर बहुत रंगों का एक साथ प्रयोग होता है। सामान्यतः तितलियों को हम हमारे आसपास बाग बगीचों, वन-उपवन और खेत खलियानों में यहां वहां उड़ती, फूलों का रस पीते हुए आसानी से देख सकते हैं।
दुनिया भर में सर्वाधिक जंतुओं में कीड़े सबसे ज्यादा मिलते हैं इन्हीं कीड़ों के अंतर्गत तितलियों को लेपिडोप्टरा गण में शामिल किया गया है। तितलियों की दुनिया भर में लगभग 18000 प्रजातियां पाई जाती है जिनमें से भारत से लगभग 1432 प्रजातियों को दर्ज किया गया है, जो दुनिया भर में पाई जाने वाली तितलियों का 8% हिस्सा रखती है। वहीं राजस्थान में लगभग 115 प्रजातियों की तितलियां होने का दावा किया जाता है।
पैंसी तितलियों का सामान्य परिचय
यह लेख राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों के देखें जाने के संबंध में हैं। पैंसी तितलियों की भारत में छ: प्रजातियां पाई जाती है इन्हीं छ: प्रजातियों का राजस्थान में भी वितरण मिलता हैं। इन पैंसी तितलियों को कीट वर्ग के लेपिडोप्टरा (Lepidoptera) गण के Nymphalidae कुल के Junonia वंश में रखा गया हैं। इस वंश की तितलियों की संपूर्ण भारत व राजस्थान में छ: प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनका विवरण इसी लेख में आगे उल्लिखित हैं।
यह पैंसी तितलियां सामान्यतः प्रकाश प्रिय होती हैं जो फुर्तीले स्वभाव के साथ मध्यम आकार की, तेजी से उड़ान भरने में माहिर हैं। इन तितलियों को हिंदी में मंडला या बनफशा भी कहा जाता हैं। यह तितलियां बहुत सुन्दर होने और रंग-बिरंगे होने के कारण भी इन्हें पैंसी (Pansy) नाम दिया गया है। इन तितलियों के अंग्रेजी भाषा में सामान्य नाम भी इनके रंगों के आधार पर रखे गए हैं। सामान्यतः पैंसी तितलियों के पंखों की खुली सतह पर दो से अधिक बडी व छोटी रंगीन चमकीली अंडाकार आंखों के समान धब्बेंनुमा संरचनाएं पाई जाती हैं। इन तितलियों के पंखों के रंग पैटर्न की विविधता प्रकृति में पाई जाने वाली सबसे आकर्षक और जटिल विकासवादी घटनाओं में से एक मानी जाती है। सभी तितलियों में नैत्र धब्बें (eye-spot) नहीं पाए जाते ये केवल कुछ ही प्रजातियों में देखने को मिलते है ये नेत्र धब्बें तितलियों को शिकारियों से सुरक्षा प्रदान करने और सूखे आवासों के साथ छद्मावरण में सहयोग करते हैं। सामान्यतः इन तितलियों के दोनों पंखों की निचली सतह गहरे कत्थई रंग की होती हैं जिसमें आई स्पॉट नहीं पाए जाते तथा बंद पंखों वाली अवस्था एक दम सूखे पत्तों जैसी दिखाई देती है।
सभी पैंसी तितलियों के लार्वा (caterpillar) अकारिकी रूप से समान होते हैं। लार्वा गहरे काले-भूरे रंग के होते हैं जिनकी सतह शाखित महीन कांटेदार संरचनाओं से ढकी रहती हैं। सामान्यतः सभी पैंसीस के लार्वा काम दिखाई देते है क्योंकि इन्हें खतरे का आभास होते ही यह पत्तियों के पीछे छुप जाते हैं या फिर अपने आप को जमीन में घिरा देते है और खतरा टल जाने पर वापस मेज़बान पौधे पर आ जाते हैं। इन तितलियों के लार्वा के मेज़बान पौधे ज्यादातर Acanthaceae परिवार के पौधे होते हैं जैसे- आपमार्ग, पिली/नीली/सफेद वज्रदंती, आडूसा, कागजंघा, रुएलिया तथा नीला कुरंजी वंश के पौधे इत्यादि।
पैंसी तितलियों का राजस्थान में वितरण
समान्यत: पैंसी तितलियां राजस्थान के संपूर्ण भू-भाग पर पाई जाती है। एवं इनका वितरण कुछ पैंसी तितलियां सूखे इलाकों में तो कुछ नम क्षेत्रों में पाई जाती हैं। शहरी क्षेत्रों में जहां बगीचे होते है वहा कुछ पैंसी तितलियों की प्रजातियां जैसे पीकॉक पैंसी(Peacock pansy), लेमन पैंसी (Lemon pansy) व ब्लू पैंसी (Blue pansy) अधिक देखने को मिलती है। कुछ पैंसी तितलियां खुले मैदानों, घास के मैदानों और पहाड़ी क्षेत्रों मैं पाई जाती है जैसे यैलो पैंसी (yellow pansy) व ग्रे पैंसी (grey pansy)। इनसे अलग चॉकलेटी पैंसी (Chocolate pansy) सीमित क्षेत्रों में जहां बड़ी पतियों वाली वनस्पतियां हों, प्रयाप्त छाया व नमी वाले क्षेत्रों में ही पाई जाती हैं। चॉकलेटी पैंसी राजस्थान में सामान्यत: उदयपुर संभाग व घना पक्षी अभ्यारण (भरतपुर) में देखी गई है।
राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों की प्रजातियो का समान्य विवरण
The Lemon Pansy: इस तितली हिन्दी में नींबूई मंडला कहा जाता हैं जिसका वैज्ञानिक नाम Junonialemonias हैं। यह एक मध्यम आकार की तितली है जिसके पंखों की ऊपरी सतह जैतूनी हरे रंग की, तथा मट-मैले पीले निशान पाए जाते है पंख भूरे रंग के होते है। तथा दोनों पंखों पर नीली-काली किन्तु नारंगी रंग से आवरित नेत्र धब्बें पाए जाते हैं। पंखों की निचली सतह हल्की कत्थई की जिसपर कोई धब्बें नहीं होते। यह प्रकाश प्रिय तितली है जो धूप अच्छी होने पर फूलों में अटखेलिया करती दिखाई देती है। पंख बंद करके सूखे पत्तों, टहनियों तथा दीवारों के साथ छद्मावरण करके बैठना पसन्द करती है ताकि शिकारी जीव आसानी से पहचान न पाए। ये कम दूरी की तेज उड़ान भरती है तथा जमीन के समीप उड़ती है।
The Blue Pansy: हिन्दी में इसे नीली मंडला या नीली बनफशा कहा जाता है। तथा वैज्ञानिक नाम Junoniaorithya हैं। इस तितली की पहचान इसके खुले पंखों की ऊपरी सतह पर नीले रंग से की जाती है और इसी से इसका नामकरण भी किया गया है। इस तितली के आगे के पंखों की ऊपरी सतह पर अंदर की ओर काला रंग अधिक प्रभावी होता हैं, बाहरी किनारे की ओर सफेद रंग की धारियां तथा हल्के भूरे रंग का जमाव पाया जाता हैं तथा दो काले-भूरे रंग की आंखें पाई जाती है। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर भी आगे वाले पंखों के समान ही अन्दर की ओर काले रंग के धब्बें लेकिन अपेक्षाकृत छोट तथा बाहर की ओर नीला रंग अधिक प्रभावी होता हैं। पिछले पंखों पर पाई जाने वाली आंखें बड़ी व मध्य में नीला निशान तथा इसके बाहर नारंगी रंग का अंडाकार घेरा पाया जाता हैं। यह तितली शहरी क्षेत्रों में बगीचों, खुले स्थानों तथा वनों में पानी के स्रोत के आस पास और सूखे पत्तों व पत्थरीली जमीन में पाई जाती है। इस तितली के पंख फैलाव सभी पैंसी तितलियों में सबसे कम होता है क्योंकि यह आकार में तुलनात्मक रूप से सभी से छोटी होती है।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंJusticia procumbens, Justicia simplex, Barleria prionitis, Dicliptera paniculata…etc. Acanthaceae परिवार के पौधे शामिल हैं।
The Yellow Pansy: इस तितली को पिली मंडला या पीत बनफशा भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junoniahierta हैं। यैलो पैंसी के आगे के ऊपरी पंख चमकीले पीले रंग के होते हैं जिनपर काले रंग के निशान पाए जाते हैं। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के साथ अंदर की ओर दुम के आसपास काले रंग के धब्बे पाए जाते हैं इस काले रंग के धब्बों के बीच में चमकीले नीले रंग का निशान पाया जाता है जो पंख की जड़ तक होता है। यह तितली सभी पैंसी तितलियों में सर्वाधिक जंगली आवासों में देखी जाने वाली है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में काम दिखाई देती हैं। इसे खुले क्षेत्रों व पत्थरीले आवासों में धूप शेकते आसनी से देखा जा सकता हैं।
लार्वा के मेज़बान पौधो मेंBarleriaprionitis, Barleriacristata, Hygrophila auriculata and Mimosa pudica (fabaceae). शामिल है।
The Peacock Pansy: इस तितली को मोरई मंडला या नारंगी रंग की होने के कारण नारंगी मंडला भी कहा जाता है। जिसका वैज्ञानिक नाम Junoniaalmana हैं। इस तितली के आगे के ऊपरी खुले पंख चमकीले नारंगी, जिनपर कत्थई रंग के निशान पाए जाते हैं। आगे के पंखों के नेत्र धब्बें असमान आकार के जिनके मध्य में सफेद-नीले रंग का गोल धब्बा जो दोहरी काली गोलकार रेखा से आवरीत होते हैं। पिछले पंखों पर भी आगे वाले पंखों के समान ही दो आंखें पाई जाती है लेकिन इनमें से एक अपेक्षाकृत अधिक बड़ी वह उबरी हुई होती है तथा दूसरी स्पष्ट वह काम उबारी हुई होती है। बड़ी उभरी हुई आंख के अंदर काले रंग का ढाबा वह साथ ही सफेद रंग के छोटे निशान होते हैं यह भी दोहरे आवरण युक्त काली गोल रेखाओं से घिरा रहता है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में फूलों का रस पीती हुई तथा उन पर मंडराती हुई अधिक देखी जाती हैं। समान्यत: यह तितली अपने पंखों को फैला कर बैठती है लेकिन सुखे आवासों या सुखे पत्तों पर यह अपने पंख बंद करके बैठना पसन्द करती हैं क्योंकि पंख बंद करने के बाद ये सुखे पत्तों के समान ही दिखाई देती है तथा आगे वाले पंख का बाहरी किनारा हुक के समान मुड़ा हुआ दिखाई देता हैं।
लार्वा के भोज्य मेंBarleria prionitis, Hygrophila auriculata, Ruellia tuberosa, Phyla nodiflora इत्यादि शामिल हैं।
The Grey Pansy: यह ध्रुसर/मलाई रंग की बेहद खूबसूरत तितली हैं। इसे ध्रुसर मंडला भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junoniaatlites हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह पर काली पट्टीया पाई जाती हैं। आगे व पीछे वाले दोनों जोड़ी पंखों के बाहरी किनारे पर नारंगी व काले छोट-बड़े नेत्र धब्बों की पंक्ति पाई जाती हैं। पंक्ति में कुछ धब्बें रंगीन तो कुछ हल्के ध्रुसर रंग के होते है तथा रंगीन नेत्र धब्बें लगातार न हो कर कुछ अन्तराल में व्यवस्थित होते हैं। इस तितली के दोनों पंखों की निचली सतह पर, जब ये पंख बंद करके बैठी हो, तब लगभग पंखों के मध्य से एक हल्के काले भूरे रंग की सीधी रेखा गुजरती हुई दिखाई देती हैं। तथा दोनों पंखों की निचली सतह के बाहरी किनारो पर हल्के नेत्र धब्बें उभरे हुए दिखते है। यह तितली धीमी गति से तथा धरती की सतह के नज़दीक उड़ना पसन्द करती हैं। बरसात व हल्की सर्दि के दिनों में बाग बगीचों के फूलों पर मंडराती हुई, रस पीती हुई अधिक देखी जाती हैं। खुले क्षेत्रों में सुखे हुए घास तथा पत्तों पर पंख फैलाकर बैठना या धूप सेंकना इसे अत्यंत प्रिय हैं।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंLepidagathes cuspidata, Justicia procumbens, Dicliptera paniculata, Sida rhombifolia, Corchorus capsularis इत्यादि शामिल हैं।
The chocolate Pansy: यह गहरे भूरे रंग की होने के कारण इसे चॉकलेटी मंडला(Chocolate pansy) कहा जाता हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह गहरे भूरे/कत्थई रंग की जिसपर अन्य पैंसी तितलियों के समान नेत्र धब्बें नहीं पाए जाते, लेकिन कत्थई रंग की धारियां पाई जाती हैं। पीछले पंख भी अग्र पंखों के समान, लेकिन पीछले पंखों की ऊपरी सतह के बाहरी किनारो पर हल्के भूरे रंग के काम उभरे हुए या अस्पष्ट नेत्र धब्बों की पंक्ति दिखाई देती हैं। ये तितली छायादार तथा नम क्षेत्रों में पाई जानें के कारण इसकी राजस्थान में सीमित उपलब्धता हैं जबकि अन्य पैंसी तितलियां धूप वाले खुले क्षेत्रों को अधिक पसन्द करती हैं। चॉकलेट पैंसी सभी पैंसी तितलियों की प्रजातियों में से सबसे बड़ी है तथा इसका पंख फैलाव भी सबसे ज्यादा हैं। ये तितली फूलों तथा पक्के हुए फलों या सड़े हुए फलों का रस पीना पसंद करती हैं। यह सुखे पत्तों या सुखी वनस्पतियो के साथ पूर्ण रूप से छद्मावरण कर लेती हैं जो इन्हें शिकारी जीवों से बचाएं रखने में मददगार साबित होता हैं।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंBarleria cristata, Dipteracanthus prostratus, Ruellia simplex, Ruellia tuberosa, Strobilanthes callosus, Astracantha longifolia, Erathemum roseum शामिल हैं।
References
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जंगल में दीमक की संख्या को नियंत्रित करने वाला पेस्ट कंट्रोल सर्विस देने वाला प्राणी होता है – भालू। असल में अधिकांश लोग मानते है की दीमक नुकसान के अलावा कुछ नहीं करता। भालू ऐसे नहीं सोचता, वह इसे अपने जीवन का आधार मानता है। स्लॉथ भालू जैसे विशाल जीव के आहार का आधा हिस्सा दीमक होता है। उसे वर्ष भर फल आदि मिले ना मिले परन्तु वर्ष के अधिकांश महीने कीट अवश्य मिलते हैं जिनमें दीमक प्रमुख है। स्लॉथ भालू ने तो अपने उद्विकास को भी दीमक के अनुरूप ही विकसित किया है।
इसका लम्बा थूथन एवं प्रथम मैक्सिलरी कृन्तकों की अनुपस्थिति, उभरे हुए तालू, उभरे हुए गतिशील होंठ, और लंबे और घुमावदार अग्र पंजे, लंबे झबरीले कोट और नासिका छिद्रों को बंद करने वाली झिल्ली के कारण यह कीड़ों एवं उसमें भी दीमक को खाने के लिए अत्यधिक विशिष्ट रूप से अनुकूल है। स्लॉथ बेयर अपना जीवन अनेक तरह के भोजन पर आधारित रखता है। फल, जिसमें बेर और तेन्दु मुख्य हैं, वहीँ कीटकों में दीमक और चींटी प्रमुख है। प्रत्येक महीनों में इनकी विष्ठा में अलग-अलग तरह के भोजन के अवशेष देखने को मिलते है। इस तरह के भोजन को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार के जतन करने पड़ते है। फिर इसे स्लॉथ (आलसी) भालू के रूप में क्यों जाना जाता है।
क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी (स्लॉथ) है?
भालू को अंग्रेजी में स्लॉथ बेयर के नाम से जाना जाता है। स्लॉथ शब्द का मतलब होता है – आलसी। तो क्या वाकई भालू की यह प्रजाति आलसी है?
अगर देखे तो पुरे विश्व में भालुओं की आठ प्रजातियां मिलती हैं जिनमें से स्लोथ बेयर ही मात्र एक ऐसी प्रजाति है जो शीत निद्रा (hibernation) में नहीं जाती है। अन्य सभी भालू प्रजातियां लम्बे समय के लिए सोने चले जाते है – भालुओं के लिए हाइबरनेशन का सीधा सा मतलब है कि उन्हें खाने या पीने की ज़रूरत नहीं है, और वे शायद ही कभी पेशाब या शौच करते हैं (या बिल्कुल नहीं)। यदि भोजन बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है, तो सर्दियों के दौरान भालू अपनी मांद में सोते रहते है। शीतनिद्रा के दौरान, जानवर के शरीर का तापमान गिर जाता है, हृदय गति धीमी हो जाती है और साँस लेना कम हो जाता है। जानवर ऐसी स्थिति में प्रवेश करते हैं जहां वे बमुश्किल सचेत होते हैं और बहुत कम हिलते-डुलते हैं। हाइबरनेशन कई महीनों तक रह सकता है, और जानवर जीवित रहने के लिए संग्रहीत वसा भंडार पर निर्भर रहते हैं।
भालुओं की निगरानी के दौरान डॉ धर्मेन्द्र खांडल द्वारा भालू के माँद के अंदर से लिया गया चित्र
तो जब स्लॉथ बेयर 12 महीने सक्रिय रहता है और अन्य भालुओं की भांति शीतनिन्द्रा में नहीं जाता तो फिर स्लॉथ क्यों कहा जाता है ?
असल में इन्हें यह गलत पहचान एक यूरोपीय जीवविज्ञानी जॉर्ज शॉ ने उसके लंबे, मोटे पंजे और असामान्य दांतों के लिए दे दी। उसने सोचा कि इन विशेषताओं के कारण भालू – दक्षिण अमेरिका में मिलने वाले स्लॉथ से संबंधित है। स्लॉथ बेयर भी कभी-कभी पेड़ की शाखाओं पर उल्टा लटक जाते हैं, जैसे स्लॉथ भी करते है। इसी गफलत में इसे गलत वैज्ञानिक नाम भी दे दिया गया और जॉर्ज शॉ द्वारा इसे स्लॉथ के जीनस में स्थापित कर दिया गया था।
स्लॉथ भालू:
स्लॉथ भालू भारत में पाई जाने वाली भालू की चार प्रजातियों में से एक है। यह एक मध्यम आकार का भालू है जिसके पास एक विशिष्ट रूप से बड़ा झबरा काला कोट और चौड़ी यू-आकार की छाती है। बाल विशेष रूप से गर्दन के आसपास और पीछे लंबे होते हैं। वयस्क नर का वजन आम तौर पर 80-145 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन लगभग 60-100 किलोग्राम होता है।
स्लॉथ भालू की उत्पति: स्लॉथ भालू संभवतः मध्य प्लियोसीन के दौरान उत्पन्न हुए और भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुए। प्रारंभिक प्लीस्टोसीन या प्रारम्भिक प्लियोसीन के शिवालिक की पहाड़ियों में पाए जाने वाले मेलर्सस थियोबाल्डी नामक भालू की एक जीवाश्म खोपड़ी को कुछ लेखकों ने स्लॉथ भालू और पूर्वज भूरे भालू के बीच एक मध्य की कड़ी माना है। एम. थियोबाल्डी के दांतों का आकार स्लॉथ भालू और अन्य भालू प्रजातियों के बीच का था।
स्लॉथ भालू, भालू परिवार उर्सिडे में आठ मौजूदा प्रजातियों में से एक है और उपपरिवार उर्सिनाई में छह मौजूदा प्रजातियों में से एक है।
स्लॉथ भालू प्रजनन: स्लॉथ भालू के लिए प्रजनन का मौसम स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है: भारत में, वे अप्रैल, मई और जून में सहवास करते हैं, और दिसंबर और जनवरी की शुरुआत में बच्चे पैदा करते हैं, जबकि श्रीलंका में, यह पूरे वर्ष होता है। मादाएं 210 दिनों तक गर्भधारण करती हैं और आम तौर पर गुफाओं में या पत्थरों के नीचे आश्रयों में बच्चे को जन्म देती हैं।
एक मादा भालू, अपने शावकों के साथ रणथंभोर के जंगल में (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)
एक बार में आमतौर पर एक या दो शावक होते हैं, या शायद ही कभी तीन होते हैं। शावक अंधे पैदा होते हैं, और चार सप्ताह के बाद अपनी आँखें खोलते हैं। अधिकांश अन्य भालू प्रजातियों की तुलना में स्लॉथ भालू के शावक तेजी से विकसित होते हैं: वे जन्म के एक महीने बाद चलना शुरू करते हैं, 24-36 महीने में स्वतंत्र हो जाते हैं, और तीन साल की उम्र में यौन रूप से परिपक्व हो जाते हैं। युवा शावक अपनी माँ की पीठ पर तब तक सवारी करते हैं। बच्चों के बीच का अंतराल दो से तीन साल तक रह सकता है।
वयस्क स्लॉथ भालू दौड़ने वाले इंसानों से भी तेज़ दौड़ने में सक्षम हैं। यद्यपि वे धीमे दिखाई देते हैं, युवा और वयस्क स्लॉथ भालू दोनों ही उत्कृष्ट पर्वतारोही होते हैं।
स्लॉथ बेयर – भालू का राजस्थान में वितरण :
स्लॉथ भालू भारतीय उप महाद्वीप के लिए स्थानिक है और भारत, श्रीलंका, नेपाल और भूटान में पाया जाता है। भारत में, यह पश्चिमी घाट के पहाड़ों के दक्षिणी सिरे से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैली हुई है। राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र पश्चिमी वितरण को सीमित करता है।
रणथंभोर टाइगर रिजर्व के कैलादेवी क्षेत्र से पहली बार देखा गया भूरे रंग का स्लोथ बेयर (फ़ोटो: टाइगर वॉच)
राजस्थान में स्लॉथ भालू का वितरण इस प्रकार है – यह बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौरगढ़, उदयपुर, जालोर, प्रतापगढ़, करौली, अजमेर, पाली, राजसमंद में पाया जाता है। निम्न दो जिलों – बाड़मेर के सिवाना और नागौर के डेगाना, थांवला क्षेत्र में कभी कभार दिख जाता है। अलवर में यद्यपि वर्षों से भालू गायब है परन्तु हाल ही में वन विभाग ने माउंट आबू से भालू को लाकर छोड़ा, परन्तु लगता है यह प्रयास उतना सफल नहीं रहा। कुछ जिले ऐसे है जहाँ भालू होने चाहिए जैसे भरतपुर, जयपुर, सीकर एवं झुंझुनू, यहाँ उपयुक्त आवास होते हुए भी बिलकुल नहीं मिलता। निम्न जिले ऐसे है जहाँ भालू नहीं मिलता जिनमें जोधपुर, चूरू, जैलसमेर, बीकानेर, गंगानगर एवं हनुमानगढ़ शामिल है।
भालुओं के जीवन को खतरा: आवास नष्ट होना सभी के लिए खतरा है, परन्तु भालुओं के लिए भोजन प्राप्त करना आसान नहीं। इसके लिए तेन्दु के फल, बेर के फल, दीमक और मधु के छतों से भरा जंगल होना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही अभी भी इनके शिकार होने की घटनाओं से पीछा नहीं छूटा है। अनेक स्थानों पर मानव गतिविधियों के कारण संघर्ष की घटना बढ़ी है।
राजस्थान का सुंधा माता, माउंट आबू और उसका तलहटी क्षेत्र भालुओं की घनी आबादी के लिए जाना जाता है। कहते हैं माउंट आबू के तलहटी के पास, जसवंतपुरा क्षेत्र में रात में कई बार अटैक हो जाता है। इसी प्रकार सुंधा माता, रेवदर, जीरावला आदि क्षेत्र में भालुओं का अत्यंत प्रभाव रहता है। प्रत्येक वर्ष कई अटैक रिकॉर्ड किए जाते हैं। इसके अलावा, स्लॉथ भालू द्वारा मानव पर हमलों और फसल क्षति के कारण इनके क्षेत्र के कई हिस्सों में जनता के बीच भय और दुश्मनी पैदा कर दी है। जैसे रणथम्भोर के आस पास स्लॉथ भालू अक्सर अमरूद आदि की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।
डांसिंग बेयर: हाल ही के वर्षों तक मदारी लोग भालू को पालते और लोगों को उसका खेल दिखाते थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में एक लोकप्रिय मनोरंजन था, जो 13वीं शताब्दी और मुगल-पूर्व काल से चले आ रहे हैं। कलंदर, जो मनोरंजन प्रयोजनों के लिए सुस्त भालू को पकड़ने की परंपरा का पालन करते थे, अक्सर मुगल सम्राटों के दरबार में प्रशिक्षित भालुओं के साथ तमाशा करने के लिए नियुक्त किए जाते थे। 1972 में लागू इस प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद, 20वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान भारत की सड़कों पर लगभग 800 नाचते भालू थे, खासकर दिल्ली, आगरा और जयपुर के बीच राजमार्ग पर। सुस्त भालू के शावक, जिन्हें आम तौर पर छह महीने की उम्र में व्यापारियों और शिकारियों से खरीदा जाता था, उन्हें जबरदस्ती उत्तेजना और भुखमरी के माध्यम से नृत्य करने और आदेशों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। नरों को कम उम्र में ही बधिया कर दिया जाता था और एक साल की उम्र में उनके दांत तोड़ दिए जाते थे ताकि वे अपने संचालकों को गंभीर रूप से घायल न कर सकें। भालुओं को आम तौर पर चार फुट के पट्टे से जुड़ी नाक की नकेल डाली जाती थी।
मोग्या शिकारियों द्वारा स्लॉथ भालू को उनके पंजों के लिए निशाना बनाया जाता और अंधविश्वासी लोगों को आकर्षण के रूप में बेचा जाता था, कभी कभी अनुभवहीन खरीदारों को बाघ के पंजे के रूप में बेच दिया जाता था (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)
Wildlife SOS नामक संस्था के अथक प्रयास से इस परंपरा को कानून के दम और मदारियों की भलाई के जरिये ख़त्म कर दिया गया है। Wildlife SOS और उत्तर प्रदेश वन विभाग के साझा प्रयासों से मदारियों के पास से रेस्क्यू कर लाये गए अनेक भालुओं को रेस्क्यू सेंटर्स में अपने जीवन यापन के लिए रखा जाता है। इनके सेंटर्स में सेंकडों की संख्या में भालुओं को रखा गया है। आने वाले समय में यह प्रथा से जुड़े सभी भालू अपना जीवन यहाँ पूर्ण कर हम इंसानों के जीवन के बड़े कलंक को समाप्त कर देंगे।
आगरा स्थित Wildlife SOS के रेस्क्यू सेंटर में भालू (फ़ोटो: कार्तिक, Wildlife SOS)
संरक्षण स्थिति: स्लॉथ बियर को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 की अनुसूची I, CITES के परिशिष्ट I और IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची (2012) में “वल्नरेबल” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या
सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।
गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)
राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।
1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |
2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |
3. नाचना :- यह तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |
4. जैसलमेरी :-यह नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |
5. कच्छी :- यह नस्ल मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |
6. जालोरी :- यह नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |
7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |
8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |
9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |
10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |
11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |
भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह
इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।
राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।