राजस्थान की बदलती ख़ुशबू

राजस्थान की बदलती ख़ुशबू

गंध सिर्फ़ गंध नहीं, स्मृति, पहचान और भविष्य की चेतावनी भी होती है। अगर हम इन सूक्ष्म संकेतों को जान लें, तो सिर्फ़ हवा नहीं, हमारी ज़िंदगी भी फिर से महक सकती है।

तड़के चार बजे — जब गर्मी से झुलसते राजस्थान में भी हवा हल्की ठंडी लगती है — कच्ची गली में पारिजात (Nyctanthes arbor-tristis) के फूल ज़मीन पर गिरे हुए आमतौर पर दिख ही जाते थे। दूधिया पंखुड़ियों के बीच नारंगी नली वाले फूल ऐसे बिछ जाते थे मानो ज़मीन ने खुद चंदन तिलक लगा लिया हो। दादी का धीमी आवाज़ में कहना, “जब तक यह खुशबू बचेगी, हमारी सुबहें बचेगी।” आज ये शब्द कहाँ सुनने को मिलते है। आज वही गली पक्के टाइलों से ढंक चुकी है, ड्रेनेज पाइप्स की गंध ने पारिजात के माधुर्य को दबा दिया है। जाने‐पहचाने फूलों का यह ‘सुबह का पहला नमस्कार’ कब फीका पड़ गया, किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। ठीक यही कहानी, राजस्थान के कई खुशबू वाले जंगली पौधों के साथ चल रही है — सुगंध पहले ग़ायब होती है, संकट का नोटिस बाद में आता है।

रेगिस्तान की खुशबुओं का भूगोल

मरु-प्रदेश की भट्टी-सी गर्मी, तेज़ धूप और कम आद्र्रता ने यहाँ के क़ुदरती वृक्षों एवं झाड़ियों में एक अनोखी विशेषता भर दी है— ये पौधे अपने पत्तों और लकड़ियों में सुगंधित तेल (टर्पीन / Terpene जैसा खुशबूदार रस) जमा कर लेते हैं। दोपहर की तेज़ गरमी में यही तेल धीरे-धीरे उड़कर ऐसा “सूखा इत्र” बनाते हैं, जो कभी चरवाहों, गृहिणियों, साधुओं और किले-कस्बों की हवा में घुला रहता था।

#क्षेत्रसुगंध के स्रोतखुशबू का प्रकार
1अरावली की पहाड़ियाँ (अलवर से डूंगरपुर तक)गुग्गल और सलाई के झुरमुटमंदिर की धूप जैसी मीठी-मसालेदार खुशबू
2थार के चलते-फिरते टीले (जैसलमेर, बाड़मेर)खावी घास और गांधेलनींबू-अदरक की तरोताज़ी, फिर सूखे भूसे के हल्के धुएं की गंध
3चंबल-और लूणी के कन्दरा क्षेत्रझाऊ और केर की झाड़ियाँतीखी कपूर-नीम जैसी गंध जो काफी दूर तक आती है; बरसात के बाद हवा में ताजगी का अहसास
4केवलादेव, भरतपुर, से धौलपुर, तक का क्षेत्रखस-खस की गहरी जड़ेंठंडी मिट्टी-सी भीनी खुशबू, रात की हवा में घुली सुगंध
5सवाई माधोपुर (रणथंभौर के आसपास)नदी-किनारे उगती खस-खस व पहाड़ी ढलानों की खावी घासभीनी भीनी ठंडक एवं नींबू-अदरक की ताज़गी; जंगल सफ़ारी के वक्त अक्सर महसूस होती है
6माउंट आबू का पहाड़ी ठंडा ऊपरी क्षेत्रफुलेड़ घास और जंगली पहाड़ी जड़ी-बूटियाँपुदीने जैसी ठंडी-मीठी सुगंध जो की शाम की नमी में और उभरती है
7अरावली की दक्षिणी पहाड़ियाँ (उदयपुर, डूंगरपुर)पामा रोसा घास (गंधबेल या जिन्जर ग्रास)गुलाब-सी मीठी गंध; परफ्यूम कंपनियों का छिपा ख़ज़ाना

खुशबूओं की यह भू-रसायनशाला अब तापमान वृद्धि, भूमिगत जल दोहन, खनन तथा चारागाह के दबावों के तले सिकुड़ रही है। अगर ध्यान न दिया गया तो आने वाली हवा सिर्फ़ गरम और सूखी रहेगी, उसमें खुशबू का कोई झोंका नहीं बचेगा।

प्राकृतिक गंध के स्रोत

  1. गुग्गल (Commiphora wightii) – अरावली क्षेत्र में

नीले आसमान तले भीषण गर्मी झेलता यह झाड़-नुमा पौधा, हल्के चाकलेटी तने पर जब हल्की कट लगती है, तो आँसू-सा पीला राल रिसता है। यही “गुग्गल धूप” मंदिरों-घरों में धार्मिक कार्यों, पूजन के समय जलाया जाता है। अनियंत्रित दोहन ने 1950 से आज तक इसके प्राकृतिक भंडार को 80 % तक घटा दिया है। इसके बीज अंकुरण की क्षमता काफी कम, लगभग 10 प्रतिशत ही है। गुजरात-राजस्थान सीमा के कुछ क्षेत्रों में सामुदायिक “हल्की खरोंच-पद्धति” ने इसको होने वाले नुकसान को आधा कर दिया है पर फिर भी यह IUCN की ‘क्रिटिकली एंडेंजर्ड’ सूची में अब भी शामिल है।

क्या आप पहचानते हैं इस गुग्गल को? इसकी मीठी सुगंध कभी रेगिस्तान की हवा में घुली रहती थी। (चित्र: सोनू)

  1. खावी (Cymbopogon jwarancusa) पश्चिम राजस्थान के थार क्षेत्र में

चलते-चलते बारीक रेत पर पाँव पटकें तो हवा में एक तीखी मीठी, नींबू‐अदरक की ताजगी वाली गंध महसूस होती है; इसका कारण खावी घास है। एक समय था जब चरवाहे इस घास से बुखार के इलाज के लिए पारंपरिक देसी लेप बनाते थे, तो महिलाएँ इसे कूट कर अनाज भंडार में कीटों की रोकथाम के लिए रखती थीं। इन दिनों चराई के दबाव और इत्र उद्योग हेतु अति संग्रहण ने इस घास को खात्मे की ओर धकेल दिया है। फलस्वरूप बीज-बैकों की रिकव्हरी घट कर एक-तिहाई रह गई।

  1. गांधेल (Iseilema anthephoroides)

मॉनसून की पहली फुहार पड़ते ही सूखी धरती पर जो ‘भीगी-मिट्टी और कच्ची घास’ की एक विशिष्ट मिलीजुली खुशबू आती है, उसका जनक यही वार्षिक घास है। गाँव के किसान इस खुशबू से ही समझ जाते हैं कि अब बोआई (बुआई) का समय आ गया है। पहले, रबी और खरीफ की फसलों के बीच जो ज़मीन कुछ समय खाली रहती थी, अब वह लगातार काम में ली जाने लगी है। आजकल मॉनसून से पहले ही ट्रैक्टर से जुताई हो जाने की वजह से गांधेल को पनपने का समय ही नहीं मिलता।

मॉनसून की पहली फुहार पड़ते ही सूखी धरती पर ‘भीगी-मिट्टी और कच्ची घास’ की विशिष्ट खुशबू आती है, उसका जनक यही वार्षिक घास गांधेल है। (चित्र: सोनू)

  1. झाहू (Artemisia scoparia)

इस घास के गेहुँआ-हरे पत्तों को हाथ से मसलते ही कपूर या नीम जैसी तेज़, झंझनाती खुशबू निकलती है। गाँव के पुराने वैद्य इसे सुखाकर धुआँ करने के लिए रखते थे — जिससे साँप-बिच्छू भागते थे, बुखार कम होता था, और कभी-कभी इसे मसालेदार चाय में भी डाला जाता था। लेकिन पिछले 20 सालों में विलायती बबूल (Prosopis juliflora) ने झाहू की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है। अब झाहू के उगने और बढ़ने हेतु जरूरी धूप और पानी की जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है जिसमें यह घास धीरे-धीरे पिछड़ता जा रहा है।

तेज कपूर-नीम जैसी खुशबू वाली झाहू (Artemisia scoparia) घास आज विलायती बबूल से संघर्ष कर रही है। (चित्र: सोनू)

  1. खस-खस (Chrysopogon zizanoides)

नदी किनारे उगने वाली खस की घास अपनी गहरी जड़ों से मिट्टी को बाँधे रखती है, और इन्हीं जड़ों से मिलने वाला तेल महँगे इत्र में इस्तेमाल होता है। पहले गर्मियों में जब खस की चटाई पर पानी छिड़का जाता था, तो कमरा ठंडा हो जाता था — जैसे कोई प्राकृतिक एयर-कूलर हो। लेकिन अब रेत की खुदाई और खस की जड़ों की लूट से इसके घने झुरमुट खत्म होते जा रहे हैं।

नदी किनारे उगने वाली खस-खस (Chrysopogon zizanioides) की घास अपनी गहरी जड़ों से मिट्टी को बाँधे रखती है। इन्हीं जड़ों से मिलने वाला तेल महँगे इत्र में इस्तेमाल होता है। (चित्र: सोनू)

  1. मिर्च-गंध (पल्मारोसा) (Cymbopogon martinii)

उदयपुर की पहाड़ी ढलानों पर उगने वाली पल्मारोसा घास से गुलाब जैसी मीठी और हल्की मिर्च जैसी खुशबू आती है। इसका तेल विदेशी परफ्यूम का अहम हिस्सा है। लेकिन अब जंगल कटने और नई हाईब्रिड घासों के फैलने से असली जंगली पल्मारोसा कम होती जा रही है। हम चाहें तो इसे बचा सकते हैं—स्थानीय नर्सरी से इसके जंगली बीज लेकर खेतों की मेड़ों या खाली ज़मीन पर इसे फिर से उगा सकते हैं।

यह है पल्मारोसा घास, जिसकी गुलाब जैसी मीठी और हल्की मिर्च जैसी खुशबू अब जंगलों के कटने से धीरे-धीरे कम होती जा रही है। (चित्र: सोनू)

  1. गुंदेल (Themeda quadrivalvis)

रात को आग में डाला गया गुंदेल सूखे भूसे जैसी लेकिन हल्की मीठी खुशबू छोड़ता है। पहले यह घास टीलों पर बड़े-बड़े झुरमुटों में उगती थी, लेकिन अब बिना रोकटोक की चराई और बार-बार लगाई गई घास की आग से यह बिखरती जा रही है। हम चाहें तो इसे वापस ला सकते हैं — चरवाहों और ग्रामीणों के साथ मिलकर खेतों में आग लगाने की प्रक्रिया को रोकने की एक आसान सी योजना बनाएं, जिससे गुंदेल फिर से घना उग सके।

गुंदेल: सूखे भूसे-सी दिखने वाली यह घास अक्सर टीलों पर घने झुरमुटों में उगती है। (चित्र: सोनू)

  1. फुलेड़ (Apluda mutica)

राजस्थान के इकलौते पहाड़ी ठिकाने माउंट आबू की नम चट्टानों पर उगने वाला फुलेड़ एक खास घास है, जिसकी पत्तियाँ रगड़ने पर हल्की पुदीना जैसी ठंडी खुशबू आती है। लेकिन अब चट्टानों की खुदाई और नमी के घटने से यह घास धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। फुलेड़ के खास इलाकों को पहचान कर और उन्हे “हॉट-स्पॉट” के रूप में चिन्हित कर इन जगहों को खनन से बचाकर हम इसे बचा सकते हैं।

पहाड़ों की ठंडी खुशबू, फुलेड़ घास (Apluda mutica), की पुदीना-सी महक शाम की नमी में और उभरती है। (चित्र: सोनू)

  1. जंगली तुलसी / नगद भाबरी (Ocimum canum)

नगद भाँवरी, जिसे कई जगह जंगली तुलसी भी कहा जाता है, एक झाड़ीदार पौधा है जिसकी पत्तियों को छूते ही तेज़, नींबू-कपूर जैसी तीखी खुशबू हवा में फैल जाती है। इसकी पत्तियाँ कीटों को दूर रखने, त्वचा के संक्रमण में लेप बनाने और देसी इत्र में बेस की तरह उपयोग होती रही हैं। रणथंभौर में जंगल सफ़ारी के दौरान जब जीपों के पहिए इस झाड़ी को कुचलते हैं, तो अचानक एक ताज़ा, तीखी गंध हवा में भर जाती है — यह उस जंगल की पहचान बन गई है। इस गंध को एक बार महसूस कर लेने के बाद, वह सफ़ारी हमेशा के लिए स्मृति में बस जाती है।

  1. ग्वारपाठा (Aloe vera)

ग्वारपाठा भले ही हमारे लिए महकता न लगे, लेकिन इसकी कटने पर निकलने वाली मिट्टी-जैसी हल्की गंध और ठंडा गूदा कई औषधीय कामों में आता है। हो सकता है हमें इसकी खुशबू महसूस न हो, पर मक्खियाँ इसे अच्छी तरह पहचानती हैं — और इससे दूर भागती हैं। शायद यही वजह है कि कई आदिवासी समुदाय इसे सूखने के बाद अपने घर की छतों से उल्टा लटका देते थे, ताकि घर में मक्खियाँ न आएँ और हवा शुद्ध बनी रहे। औषधीय गुणों से भरपूर यह पौधा, गंध की अदृश्य दुनिया में अपना एक अलग ही स्थान रखता है।

क्या आप जानते हैं कि ग्वारपाठा की भी अपनी एक अनोखी गंध होती है? (चित्र: सोनू)

ये सुगंधित घासें सिर्फ़ हमारी यादों से नहीं जुड़ी हैं, बल्कि मिट्टी को थामने, कीड़ों को भगाने और गाँवों की कमाई बढ़ाने का भी काम करती हैं। तो अगली बार जब राजस्थान की गर्म हवा चेहरे से टकराए, एक पल ठहरकर सूँघिए—क्या उसमें गुग्गल का धुआँ है, खावी की हरी ताज़गी है या खस की मिट्टी जैसी ठंडक बाकी है?

अगर जवाब ‘नहीं’ है, तो घबराने की ज़रूरत नहीं—अब भी वक्त है। एक बीज बोइए, एक झाड़ी वाला कोना बचाइए, और उस मिट्टी की खोती खुशबू को फिर से लौटाइए।

और भी सुगंधें, और भी कहानियाँ

राजस्थान की खुशबू सिर्फ़ जंगली घासों तक सीमित नहीं है। हमारे गाँव-आँगन और खेतों की मेड़ों पर भी कई पारंपरिक खुशबू वाले पौधे सदियों से पले हैं — जो दवा, पूजन और घरेलू उपयोग में गहराई से जुड़े हैं। तुलसी की अलग-अलग किस्में (राम तुलसी, कृष्णा तुलसी, वन तुलसी) न सिर्फ़ हवा को शुद्ध करती हैं, बल्कि इसकी तेज़ गंध और चाय में मिलाई जाने वाली पत्तियाँ रोग प्रतिरोधक ताकत देती हैं। मरुआ (Origanum majorana), जिसे ‘सदाबहार तुलसी’ भी कहते हैं की सूखी गंध वाली पत्तियाँ पुराने घरों में सिरहाने रखी जाती थीं।

पुदीना की तेज़, ठंडी सुगंध रसोई और देसी इलाज दोनों में बसी हुई है। रात को खिलने वाली रात की रानी (Cestrum nocturnum) और दिन में महकने वाला दिन का राजा (Cestrum diurnum) — दोनों मिलकर गंध की प्राकृतिक घड़ी जैसे काम करते हैं। खेतों की मेड़ों या मंदिरों के पास खिले गेंदे के फूलों की मिट्टी से मिलती तीखी महक, त्योहारों और व्रतों की याद दिलाती है।

अन्य उल्लेखनीय खुशबूदार पौधे:

राजस्थान की सुगंध-परंपरा में और भी कई वनस्पतियाँ हैं — जैसे केवड़ा की तीखी इत्र-जैसी गंध, नीम और धतूरे की विशिष्ट तीव्र महक, तथा सेवण जैसी घासें जो ज़मीन को थामे रखने के साथ-साथ हवा को अपनी विशेष पहचान देती हैं। ये सब मिलकर उस अदृश्य विरासत का हिस्सा हैं, जो हमारी नाक से ज़्यादा स्मृति और संस्कृति में महकती है।

खुशबुओं का मंद पड़ना — प्रमुख कारण

#कारणप्रभावउदाहरण
1अनियंत्रित दोहनराल या घास काटने की रफ़्तार पुनर्जनन से तेज़ हो गईगुग्गल की गहरी कटाई, खावी की जड़ों समेत उखाड़ना
2चराई व आगजनीफूल-आने से पहले चराई, गर्मियों में आग से बीज नष्टगांधेल के बीज उपलब्ध न होना, झाहू की झाड़ियों पर आग पुनरुद्भवन हेतु
3खनन व सौर-पार्कझाड़ियों और घासों का प्राकृतिक आवास नष्ट होता जा रहा हैअरावली में बॉक्साइट खनन एवं जैसलमेर में सौर ऊर्जा क्लस्टर का दुष्प्रभाव जारी है
4जलवायु परिवर्तनतापमान बढ़ने से तेल की सुगंध और गुणों में बदलावखस और खावी की खुशबू में कमी के शुरुआती संकेत प्रतीत हो रहे हैं
5सांस्कृतिक विस्मरणपारंपरिक उपयोग घटा; नई चीज़ों ने पुराने तरीकों को हटायाखस की मट की जगह प्लास्टिक कूलर, इत्र फैक्ट्रियों का असर

क्या किया जा रहा है?

  1. सामुदायिक राल-संग्रह समिति, जालोर: गाँवों में बनी समितियाँ अब यह नियम मान रही हैं: ऊँची चार कट नहीं, सतही दो खरोंच”। इससे गुग्गल के पौधे को ज़्यादा नुकसान नहीं होता। निगरानी भी अब साझेदारी से होती है — सभी हिस्सेदार मिलकर तय करते हैं कि दोहन कितना और कैसे हो।
  2. CIMAP-जोधपुर का खस नर्सरी कार्यक्रम: खस की खेती में अब सूक्ष्म सिंचाई और फसलों के बीच संतुलन (अंतरफसल) अपनाया जा रहा है। इससे खुशबू वाला तेल (EO) अच्छा बना रहता है, और किसानों की आमदनी में करीब 30% तक बढ़ोतरी हुई है।
  3. खावी चारागाह विश्राम-चक्र, बाड़मेर: बाड़मेर में 500 हेक्टेयर ज़मीन पर तीन महीने का नो-ग्रेज़िंग रोटेशन लागू किया गया है। यानी बारी-बारी से चराई रोककर घास को उगने का समय मिलता है। तीसरे साल जब बीज डाले गए, तो 65% से ज़्यादा हिस्सा फिर से हरा हुआ।
  4. स्कूल सुगंध उद्यान: अब गाँव के स्कूलों में 25 × 25 मीटर का एक खास प्लॉट बनाया जा रहा है — जहाँ खाने और महकने वाली जड़ी-बूटियाँ और घासें लगाई जाती हैं। बच्चे हर पौधे पर टैग लगाते हैं, और गंध का छोटा हर्बेरियम (संग्रह) बनाते हैं — एक खेल के साथ सिखाई जाने वाली विज्ञान की सीख।

सुगंध जो हवा ले गई

अगर आपने कभी पारिजात की वह हल्की, मीठी खुशबू महसूस की है — जो बस छूने भर से उड़ जाती है — तो याद कीजिए, वह एहसास किसी इत्र की शीशी में नहीं, आपके अपने आँगन में पला था। राजस्थान की हवा से ऐसे ही कई जंगली इत्र-घर धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। जब खुशबू जाती है, तो साथ में हमारी स्मृतियाँ भी फीकी पड़ जाती हैं — हमारी लोक-कथाएँ, मौसम की पहचान, मंदिर की आरती की महक, और पशुपालकों की जड़ी-बूटियाँ, सब कमजोर हो जाती हैं।

अगली बार जब थार की गर्म हवा आपके गाल से टकराए, तो एक पल ठहरकर सूँघिए — क्या उसमें खावी की नींबू जैसी ताजगी है? झाहू की कपूर जैसी छुअन है? अगर नहीं, तो शायद यही सही समय है किसी स्कूल-उद्यान में एक बीज बोने का, किसी गुग्गल झाड़ी को नाखून-भर खरोंच कर छोड़ देने का, या किसी बच्चे को यह बताने का कि पहली बारिश की असली खबर ‘गांधेल’ की खुशबू देती है, कोई मौसम ऐप नहीं।

गंध सिर्फ़ नाक से नहीं, स्मृति, पहचान और भविष्य की चेतावनी भी होती है। अगर हम इन सूक्ष्म संकेतों को सुन लें, तो सिर्फ़ हवा नहीं, हमारी ज़िंदगी भी फिर से महक सकती है।

जब तक हवा में महक बचेगी, रेगिस्तान की मीठी यादें भी महकती रहेंगी

राजस्थान और जलवायु परिवर्तन: संकट, संकेत और समाधान

राजस्थान और जलवायु परिवर्तन: संकट, संकेत और समाधान

देश का सबसे बड़ा राज्य आज सबसे बड़ी जलवायु चुनौती झेल रहा है

राजस्थान, जो भारत का सबसे बड़ा राज्य है (देश के भौगोलिक क्षेत्र का 10.4%), तेज़ धूप, रेतीले टीले और ऐतिहासिक किलों के लिए तो मशहूर है, लेकिन यही धरती आज बदलते मौसम की सबसे मुश्किल चुनौतियाँ झेल रही है। यहाँ की 6.85 करोड़ आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी का 5.66%) अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान के बीच जूझ रही है: खेतों में बूँद-बूँद पानी बचाने की होड़, गर्मी की लहरों में बिजली कटौती से बचने का संघर्ष, और बढ़ती महंगाई में दिन-प्रतिदिन जीवनयापन का तनाव।

यदि हमें “जलवायु परिवर्तन” शब्द सुनते ही सिर्फ ग्लेशियर पिघलने या समुद्रस्तर बढ़ने का खयाल आता है, तो राजस्थान के अनुभव उसे कहीं दूर तक ले जाते हैं। जब बारिश अपने सही समय और मात्रा से हटकर हो, तो यह आराम नहीं देती, बल्कि किसान के खेत सूख जाने का कारण बन जाती है; बिजली कटौती शहरों को “हीट आइलैंड” बना देती है, जहाँ हर दीवार तपती और हर कदम झुलसता है।

2022 में राजस्थान के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन निदेशालय और आईआईटी मुंबई ने मिलकर जो स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (RSAPCC) जारी किया, वह सिर्फ एक कागजी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि राज्य के सामने खड़ी उन आठ अहम चुनौतियों का नक्शा है जिनमें हम आज उतर रहे हैं—कृषि में सूखा-प्रतिरोधी फ़सलों से लेकर जल संचयन तक, वनों की रक्षा से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य तक, ऊर्जा दक्षता से लेकर आपदा प्रबंधन तक।

यह योजना तय करती है कि किन-किन इलाकों को सबसे पहले प्राथमिकता देनी होगी और कैसे सामाजिक-आर्थिक संकेतक—जैसे जनसंख्या घनत्व, महिला साक्षरता, घरों का आकार, तथा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी—हमें यह बताते हैं कि कहाँ सबसे अधिक तैयारी, सबसे सख्त कदम और सबसे सच्ची भागीदारी की दरकार है। जयपुर, सीकर और कोटा जैसे जिले जहाँ चक्रवात और गर्मी की लहरें आम बात हो गई हैं, उनकी कहानी अलग है; प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़ और बांसवाड़ा जैसे ग्रीन इलाके दूसरी दास्ताँ सुनाते हैं, जहाँ सूखे ने संस्कृति और आम जीवन को मुश्किलों में डाला है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति राजस्थान राज्य में जिला-वार सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलता (सौजन्य: RSAPCC)

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रभाव

जब बरसात राहत नहीं, सिरदर्द बन जाए

राजस्थान में ग्रीष्म और शीत ऋतुओं की तीव्रता में स्पष्ट वृद्धि है—गर्मी पहले की तुलना में अधिक प्रचंड हो गई है और सर्दी अधिक कड़ाके की होने लगी है। मॉनसून की अनिश्चितता, वर्षा का देर से आगमन या अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा जैसी स्थितियाँ सामान्य होती जा रही हैं। इसके परिणामस्वरूप कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित हो रही है।

यहाँ औसत वार्षिक वर्षा लगभग 572 मिमी है, पर यह बहुत असमान रूप से वितरित है: राज्य का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा मात्र 200–400 मिमी बारिश प्राप्त करता है, जबकि दक्षिण-पूर्व में यह 900–1000 मिमी तक पहुँच जाती है।

अरावली पर्वत श्रृंखला राज्य को दो भिन्न जलवायु क्षेत्रों में विभाजित करती है; अरावली के पश्चिम का क्षेत्र शुष्क से अर्ध-शुष्क है, जबकि पूर्व का क्षेत्र अर्ध-शुष्क से उप-आर्द्र है और अत्यधिक तापमान, लंबे सूखे, तेज हवाओं और उच्च संभावित वाष्पीकरण की विशेषता है। इस असमानता और मॉनसून की कमी या अत्यधिक तीव्रता की वजह से अचानक सूखा और बाढ़ जैसी चरम घटनाएं आम हो गई हैं, जिससे कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि राजस्थान में सूखे के महीनों में वृद्धि हुई है।

सूखी और फटती ज़मीन के बीच जीवन की आखिरी उम्मीद — घटती जलधाराएँ सिर्फ प्यास नहीं बढ़ा रहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल रही हैं।

गर्मी, सूखा और बाढ़: एक साथ तीन मोर्चों की मार

“राजस्थान की दो जलवायु अवधियाँ और बदलती वर्षा की तस्वीर”

रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में वर्षा की स्थिति का मूल्यांकन दो प्रमुख समयावधियों—1901 से 1950 तक और 1951 से 2015 तक निम्न बिन्दुओ के आधार पर किया गया है:

  • वार्षिक वर्षा के रुझान: 1950 तक प्रतापगढ़, बांसवाड़ा और दक्षिणी राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में अच्छी वर्षा हुआ करती थी, जबकि जैसलमेर और उत्तरी राजस्थान के कई हिस्सों में लगभग सूखे जैसे हालात थे। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह तस्वीर बदल गई — अब जोधपुर, बीकानेर जैसे पश्चिमी-उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, पारंपरिक रूप से शुष्क माने जाने के बावजूद, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान से अधिक वर्षा प्राप्त करने लगे हैं। वहीं, पहले अधिक वर्षा वाले दक्षिणी क्षेत्र अब लगातार सूखाग्रस्त होते जा रहे हैं। ढोलपुर, जयपुर और मध्य राजस्थान के अन्य इलाके, जो पहले सामान्य वर्षा क्षेत्र थे, अब सूखे की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
  • अगर मानसून की बारिश की बात करें, तो 1901 से 1951 की अवधि के दौरान पूर्वी-दक्षिणी राजस्थान—जैसे प्रतापगढ़, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और हाड़ौती क्षेत्र—में सर्वाधिक वर्षा होती थी। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह प्रवृत्ति बदल गई और जोधपुर, चूरू, झुंझुनूं जैसे शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में वार्षिक मानसूनी वर्षा में गिरावट दर्ज की गई है।
  • गैर-मानसून वर्षा के बदलाव: 1950 से पहले कोटा, झालावाड़ जैसे हाड़ौती क्षेत्र में गैर-मानसून (ग्रीष्म एवं शीत ऋतु) वर्षा सामान्य रूप से होती थी, जबकि अरावली की तलहटी में बसे जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पाली, नागौर आदि क्षेत्रों में इसकी मात्रा नगण्य थी। लेकिन 1950 से 2015 के बीच यह प्रवृत्ति उलट गई — अब जैसलमेर व उसके आसपास के क्षेत्रों में गैर-मानसून वर्षा अपेक्षाकृत अधिक देखी जा रही है, जबकि हाड़ौती क्षेत्र में यह लगभग समाप्त हो गई है।

बरसात के रंग: लाल से नीला होता रेगिस्तान

“मानचित्रों में जलवायु का इतिहास”

नीचे दिए गए मानचित्रों में राजस्थान में वर्षा के दशकों के बदलावों को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है। लाल रंग उन क्षेत्रों को दिखाता है जहाँ वर्षा में गिरावट या कम वर्षा हुई है, जबकि नीला रंग उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जहाँ वर्षा की मात्रा में वृद्धि देखी गई है।

1901-1951 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)

1951-2020 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)

पानी की प्यास और घटती ज़मीन के नीचे की नमी

“राज्य के पूर्वोत्तर हिस्से सबसे तेज़ी से सूख रहे हैं”

राजस्थान पहले से ही भारत के सबसे जल-अभावग्रस्त राज्यों में है। RSAPCC रिपोर्ट बताती है कि राज्य के उत्तर-पूर्वी जिलों (सीकर, जयपुर, अलवर, दौसा, धौलपुर, करौली, नागौर, राजसमंद) में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है, जो तेजी से भूजल की कमी का संकेत है। भूजल पर अधिक दोहन और अनियमित वर्षा के कारण खेतों में पानी नहीं रुकता, ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल और सिंचाई दोनों के लिए संघर्ष बढ़ता जा रहा है। क्षेत्रीय जल संकट राजस्थान में एक गंभीर समस्या हो सकती है, जहां कम वर्षा और भूजल के अत्यधिक दोहन के प्रभाव भविष्य में और बढ़ने की संभावना है। भविष्य में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, चित्तोडगढ़, एवं कोटा के कुछ हिस्से) में जल उपलब्धता में वृद्धि दिखाई देती है, लेकिन शेष राजस्थान में कोई परिवर्तन या कमी नहीं दिखती है।

मानचित्र: भूजल की उपलब्धता के रुझान 1996-2014 की अवधि में (सौजन्य: RSAPCC)

जल की माँग बनाम उपलब्धता: एक असंतुलन की तस्वीर

“हनुमानगढ़ से भरतपुर तक अधिक जल उपयोग, लेकिन संकट हर ओर”

राजस्थान में जल की वार्षिक मांग को विभिन्न उपयोग श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिनमें घरेलू उपयोग, पशुधन, संस्थागत जरूरतें, अग्निशमन, सिंचाई तथा विद्युत संयंत्रों की शीतलन आवश्यकताएं शामिल हैं। इन सभी श्रेणियों की कुल मांग को मिलाकर राज्य का वार्षिक जल उपयोग तय किया गया है। संलग्न मानचित्र में राजस्थान के विभिन्न जिलों में जल उपयोग की मात्रा (मिमी में) को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है, जिसमें अधिक जल उपयोग वाले क्षेत्र लाल और कम जल उपयोग वाले क्षेत्र नीले व बैंगनी रंग में दिखाए गए हैं। यह विश्लेषण दर्शाता है कि राज्य के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्सों (हनुमानगढ़, गंगानगर, अलवर, जयपुर,  भरतपुर, बूंदी, सीकर, और दौसा) में जल उपयोग अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी भागों में यह कम पाया गया है। यह वितरण मुख्यतः सिंचाई, पशुपालन और जनसंख्या घनत्व जैसे कारकों पर निर्भर करता है।

वार्षिक जल उपयोग (सौजन्य: RSAPCC)

कृषि की लड़ाई: जलवायु के सामने किसान बेबस

“65% आबादी की रोज़ी पर मंडराता संकट”

राजस्थान जैसे सूखा-प्रभावित राज्य में, जहां लगभग 65% आबादी की आजीविका सीधे खेती और मौसम पर निर्भर है, जलवायु परिवर्तन की मार सबसे तीव्र रूप से महसूस की जा रही है। बार-बार सूखा पड़ना, भूजल स्तर में गिरावट, जल संसाधनों की कमी, अकुशल जल प्रबंधन, बिगड़ती मिट्टी की गुणवत्ता और घटती उत्पादकता जैसे संकट कृषि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इसके साथ ही, बेमौसमी तूफान, लंबा सूखा, ओलावृष्टि और अचानक बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब आम हो गई हैं, जिनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। जिन जिलों में मौसम की अनिश्चितता अधिक है, वहां कृषि सबसे अधिक संकटग्रस्त है, जिससे फसलें बर्बाद हो रही हैं और किसान आर्थिक असुरक्षा की स्थिति में फंसते जा रहे हैं।

“बारमेर से सिरोही तक अलग-अलग संकट, अलग-अलग कारण”

राज्य-स्तरीय आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि कृषि संवेदनशीलता और जलवायु संकट के बीच एक सकारात्मक संबंध है। बाड़मेर, जैसलमेर, चूरू और जालोर जैसे ज़िले सर्वाधिक संवेदनशील पाए गए हैं, जबकि बूंदी, चित्तौड़गढ़, दौसा, करौली, राजसमंद, अलवर, बारां और धौलपुर जैसे ज़िलों में यह संवेदनशीलता सबसे कम है। हालांकि कुछ ज़िले इस सामान्य प्रवृत्ति से अलग भी हैं—जैसे गंगानगर और हनुमानगढ़, जहां जलवायु संकट तो अधिक है, लेकिन सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण कृषि अपेक्षाकृत सुरक्षित है। इसके विपरीत सिरोही ज़िले में जलवायु संकट अपेक्षाकृत कम होते हुए भी कृषि की संवेदनशीलता अधिक है, क्योंकि वहां सिंचाई सुविधा और उत्पादकता दोनों बहुत कम हैं।

इन हालातों का सामाजिक प्रभाव भी गहरा है—स्थानीय बाजारों में अंशकालिक मजदूरी, ऋणग्रस्तता और प्रवासन की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिससे ग्रामीण सामाजिक संरचना अस्थिर हो रही है।

तपिश और बीमारी: जनस्वास्थ्य पर दोहरी मार

“हीट स्ट्रोक से लेकर डेंगू तक, जलवायु बदल रही है बीमारियों का नक्शा”

तापमान में वृद्धि, जल संकट और भोजन की असुरक्षा का सीधा असर जनस्वास्थ्य पर पड़ रहा है, विशेषकर कमजोर और वंचित समुदायों में। अत्यधिक गर्मी ‘हीट स्ट्रोक’ और ‘हीट एक्सहॉस्टन’ जैसी बीमारियाँ ला रही है, जबकि बाढ़ और जलजमाव के कारण डेंगू, मलेरिया जैसे पानीजनित रोग तेजी से फैल रहे हैं। राजस्थान में पहले से ही डेंगू और मलेरिया का प्रकोप अधिक है। जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अप्रत्यक्ष स्वास्थ्य प्रभावों में व्यावसायिक रोग, खराब पोषण और मानसिक स्थिति भी शामिल हैं।

बढ़ती आर्द्रता और सर्दी से अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसे श्वसन संबंधी रोगों में भी वृद्धि हो रही है। इन सभी कारणों से अस्पतालों में भीड़ बढ़ रही है, स्वास्थ्य बजट पर दबाव पड़ रहा है और लोगों की जीवन गुणवत्ता में गिरावट आ रही है—यहाँ तक कि छुट्टियाँ भी अब स्वास्थ्य संबंधी चिंता से घिर गई हैं।

शहरों की गर्मी और जलभराव: हीट आइलैंड बनते शहर 

“जब हर सड़क तपती है और हर गली में पानी भरता है”

शहरों में ग्रीन स्पेस कम होने से “अर्बन हीट आइलैंड” इफ़ेक्ट बढ़ता है। बारिश का पानी सही ढंग से निकासी न मिलने से जलभराव होता है, ट्रैफिक जाम और प्रदूषण दोगुना होता है। रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान के शहरी क्षेत्रों, विशेषकर सीकर जिले में, वार्षिक न्यूनतम दैनिक तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। वहीं, दक्षिण और पूर्वी राजस्थान के शहरों (बांसवाड़ा, बारां, बूंदी, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, पाली, सिरोही, चूरू और जयपुर) के साथ-साथ पश्चिम में जैसलमेर में दैनिक अधिकतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। ऐसे हालात में पानी सोखने वाले फर्श और वर्षा जल संचयन जैसे स्थानीय उपाय ही कारगर समाधान हैं।

वनों की आग और जैव विविधता की पुकार

“2035 तक वन आवरण का 61% बदल सकता है”

वन और जैव विविधता पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। अरावली की पहाड़ियों से लेकर अन्य जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ी हैं, जिससे कई प्रजातियों के आवास प्रभावित हुए हैं और पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण वनों की आग, पौधों और जानवरों की प्रजातियों के निवास स्थान में बदलाव और वनस्पति संरचना में गिरावट देखी जा रही है। इससे पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता को खतरा है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण राजस्थान में वनस्पति आवरण में परिवर्तन 2035 तक 61.22% और 2085 तक 78.18% हो सकता है।

जलते जंगलों की लपटें सिर्फ पेड़ों को नहीं, भविष्य की उम्मीदों को भी राख कर रही हैं।
राजस्थान की सूखी धरती पर हर चिंगारी एक चेतावनी है।

त्योहार, संस्कृति और परंपरा: जलवायु से बदलता जन-जीवन

“मानसून आधारित त्योहारों का समय अब यादों में खोता जा रहा है”

जलवायु परिवर्तन ने परम्परागत त्योहारों, लोककथाओं और रीति-रिवाजों को भी प्रभावित किया है। मानसून पर आधारित उत्सवों का समय खिसक रहा है, नदी-तीर्थ यात्रा जोखिमभरे हो गए हैं, और पारंपरिक कृषि-आधारित त्यौहारों में हिस्सा लेने वाले युवा शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।

कभी हरियाली तीज की झूला गीतों से गूंजते आँगन, आज सूखी धरती और धुंधली यादों में बदल गए हैं। मानसून-आधारित त्योहार अब सिर्फ दीवारों की फीकी पेंटिंग में बचे हैं।

कभी हरियाली तीज की झूला गीतों से गूंजते आँगन, आज सूखी धरती और धुंधली यादों में बदल गए हैं।
मानसून-आधारित त्योहार अब सिर्फ दीवारों की फीकी पेंटिंग में बचे हैं।

2030 की चेतावनी: उत्सर्जन और अवसर दोनों साथ

“यदि आज नहीं चेते, तो 1.7 गुना बढ़ जाएगा उत्सर्जन”

रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान विकास की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया तो राजस्थान में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वर्तमान मूल्य का लगभग 1.7 गुना तक बढ़ सकता है। राजस्थान का कुल अनुमानित योगदान 137 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष है, जिसमें लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति है।

प्रमुख उत्सर्जक क्षेत्र और अनुमान:

  • बिजली उत्पादन: यह क्षेत्र लगभग 2 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है और सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक है।
  • कृषि क्षेत्र: यह भी लगभग 8 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का योगदान देता है, जिसमें फसल अवशेषों को जलाना, पशुधन से मीथेन उत्सर्जन और उर्वरकों का उपयोग शामिल है।
  • उद्योग: औद्योगिक उत्पादन लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है ।
    • सीमेंट उद्योग: यह औद्योगिक उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा है ।
    • वस्त्र और चमड़ा, एवं रसायन और उर्वरक उद्योग भी महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं ।
  • परिवहन: यह क्षेत्र लगभग 34 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है और 2030 तक इसके उत्सर्जन में 2.7 गुना वृद्धि का अनुमान है ।
  • आवासीय क्षेत्र: लगभग 10 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन, मुख्य रूप से खाना पकाने और प्रकाश व्यवस्था के लिए पारंपरिक ईंधन के उपयोग से होता है । 2030 तक इसमें 20% वृद्धि की संभावना है ।
  • ईंट उत्पादन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है । यदि वर्तमान तकनीक (मुख्य रूप से फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न – FCBTKs) में बदलाव नहीं किया गया तो 2030 तक ईंट निर्माण से होने वाला उत्सर्जन दोगुना से अधिक हो सकता है ।
  • अपशिष्ट प्रबंधन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है ।

नीतियाँ नहीं, समाधान चाहिए: अवसरों की सूची

“जल, ऊर्जा, कृषि, वन और स्वास्थ्य—हर क्षेत्र में सुधार की राह है”

हालांकि, यह संकट एक अवसर भी प्रदान करता है। राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (RSAPCC) में कई समाधान सुझाए गए हैं, जैसे:

  • जल प्रबंधन: पुनः उपयोग और रिचार्ज को बढ़ावा देना। जल संरक्षण के पारंपरिक और वैज्ञानिक तरीकों को एकीकृत करना। इसमें वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना और भूजल पुनर्भरण के लिए नवोन्मेषी तकनीकों का उपयोग करना शामिल है।
  • हरित ऊर्जा में निवेश: सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं का विस्तार। राजस्थान में सौर ऊर्जा की अनुमानित क्षमता 142 GW और पवन ऊर्जा की 7 GW है।
  • स्मार्ट कृषि: जल-कुशल तकनीकों और फसल विविधीकरण को अपनाना। इसमें ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना शामिल है।
  • शहरी नियोजन: हरित भवन, सार्वजनिक परिवहन और टिकाऊ बुनियादी ढांचे की ओर अग्रसर होना। शहरों में ग्रीन स्पेस बढ़ाना और वर्षा जल निकासी प्रणालियों में सुधार करना।
  • स्वास्थ्य प्रणाली को जलवायु के अनुकूल बनाना: स्वास्थ्य सेवाओं, पोषण, स्वच्छता और निगरानी तंत्र को सुदृढ़ करना। इसमें गर्मी और सर्दी से संबंधित बीमारियों के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करना और वेक्टर जनित रोगों के लिए निगरानी बढ़ाना शामिल है।
  • वन और जैव विविधता का संरक्षण: वनीकरण को बढ़ावा देना, मौजूदा वनों की सुरक्षा करना और आग की घटनाओं को रोकने के उपाय करना।
  • उत्सर्जन में कमी: औद्योगिक प्रक्रियाओं में सुधार, ईंट भट्टों में स्वच्छ तकनीक का उपयोग और परिवहन क्षेत्र में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष: आज की तैयारी, कल का भविष्य

“अगर आज ठोस कदम उठाए, तो राजस्थान बन सकता है मॉडल राज्य”

जलवायु परिवर्तन कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक जीवंत, वर्तमान संकट है — और राजस्थान इसके सबसे सामने खड़े राज्यों में है। यदि आज हम समुचित नीति, समुदायिक भागीदारी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ ठोस कदम उठाते हैं, तो न केवल हम इस संकट से बच सकते हैं, बल्कि राजस्थान को जलवायु-संवेदनशीलता से मुक्त एक टिकाऊ राज्य के रूप में स्थापित भी कर सकते हैं। इस कार्य योजना का प्रभावी कार्यान्वयन राजस्थान को भारत में जलवायु कार्रवाई के लिए एक बेंचमार्क बना सकता है।

गर्मी की मार झेलता एक ग्रामीण – तपती ज़मीन, दीवारों में समाई लू, और पेड़ की छांव ही है राहत का एकमात्र सहारा। राजस्थान के गाँवों में अब यही दृश्य आम हो चला है। (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

नोट: यह लेख राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (Rajasthan State Action Plan on Climate Change – RSAPCC) पर आधारित है, जिसे 2022 में राजस्थान सरकार के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) मुंबई के सहयोग से तैयार किया गया था। इस योजना के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वालों में राजस्थान सरकार के तत्कालीन प्रमुख सचिव (वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन) श्री शिखर अग्रवाल (IAS) और IIT मुंबई के प्रोफेसर के. नारायणन (मुख्य परियोजना प्रभारी) शामिल थे। IIT मुंबई की टीम में प्रोफेसर रंगन बनर्जी, प्रोफेसर सुभीमल घोष, प्रोफेसर अर्नब जना, प्रोफेसर त्रुप्ति मिश्रा, प्रोफेसर डी. पार्थसारथी, प्रोफेसर आनंद बी. राव और प्रोफेसर चंद्रा वेंकटरमन जैसे विशेषज्ञों ने योगदान दिया। इस योजना का उद्देश्य राजस्थान को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीला और अनुकूल बनाने के लिए रणनीतियाँ विकसित करना है।

Pioneer Butterflies in Ranthambhore

Pioneer Butterflies in Ranthambhore

Authors: Praveen Singh, Dharm Singh Gurjar, & Dr Dharmendra Khandal

We often feel a sense of joy when a colorful butterfly flutters around our garden or home. Now imagine — what if hundreds or even thousands of such butterflies appeared all at once? What a spectacular sight that would be!

Such a phenomenon is observed every year in the fringe areas of Ranthambhore, particularly in the pasture lands of Sherpur and Khilchipur. Here, amidst open grounds dotted with Capparis decidua (ker) and Capparis sepiaria (heens) shrubs and tiny wildflowers, waves of white-yellow butterflies suddenly begin to appear. They have black-tipped wings and veins which are distinctly visible. The males are generally paler, with clean black lines, while the females show more prominent black patterns on their forewings and are slightly larger in size — naturally, as they must nurture eggs in their abdomens (Smetacek, 2012).

This spectacle lasts for about one to one and a half months.

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Oligochaeta ramose

The Pioneer butterfly was most frequently observed on the flowers of Brahma Dandi (Oligochaeta ramose). (Photo: Praveen)

These are Pioneer Butterflies (Belenois aurota), also known as Caper Whites. Their numbers suddenly swell to such an extent that nearly every shrub seems occupied solely by this one species. In a 10×10 square meter plot, we counted between 500 and 1000 individuals — a remarkable and recurring annual sight.

Where Do They Come From?

A question arises — where do these butterflies suddenly emerge from in such large numbers? Are they long-distance migrants, as suggested by entomologists Moore (1890s) and Bingham (1905) during the British era? Or are they reappearing locally as part of a life cycle?

We believe that these butterflies are not migrants, but residents that emerge from dormancy with the first showers of April, transforming into their adult form as they emerge from pupae.

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Convolvulus prostratus

At first glance, the white-flowered Santari (Convolvulus prostratus) appears to be the most abundant plant in this area. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

From the Pages of History

Frederic Moore, working in British India, was the first to describe this butterfly in detail in his series Lepidoptera Indica. He observed that they appear suddenly after the monsoon and swarm around caper plants. Later, Charles Bingham described their massive swarms moving in a south-west to north-east direction — seemingly in parallel with the advancing monsoon.

What We Observed

Contrary to the descriptions given by Moore and Bingham, we did not observe these butterflies during the monsoon. Instead, we saw them in large numbers around the shrubs of Capparis decidua (Ker) and Capparis sepiaria (Heens), and among tiny ground flowers, soon after the rainfall in April. On a single Heens shrub, as many as 100–150 butterflies could be seen.

This rainfall, which occurs during April–May, is locally called “Dongde”. It is distinct from the monsoon that follows the summer and the “Mawath” that occurs during the winter. Dongde is sudden and unpredictable, often consisting of just one or two brief showers. Though short-lived, this life-giving rain transforms the dry landscape by providing abundant food and favorable conditions for many species — especially the Pioneer butterfly, for whom it appears to be a key ecological trigger.

The life cycle of the Pioneer butterfly is closely linked to plants of the family Capparaceae. Its main larval host plants are Capparis sepiaria (Heens) and Capparis decidua (Ker) (Arora & Mondal, 1981). In this region, the butterflies were mostly found on these shrubs, which are also the plants they prefer for laying eggs.

Physically, Pioneer butterflies are delicate and poorly adapted to extreme heat. Their activity begins at dawn and generally ceases by 9 a.m., after which they seek refuge under shrubs to escape the intense sunlight. While they are swift fliers, their flight is limited in range — fast, fluttering, and close to the ground. They mostly hover around host plants and nectar sources, suggesting they do not travel long distances. Moreover, since Dongde rain is localized and brief, it does not render the entire landscape suitable for long-range dispersal or migration.

Based on these observations, we inferred that the Pioneers are likely resident butterflies, completing their life cycle locally and reappearing seasonally with the first Dongde showers.

Different stages of the Pioneer butterfly’s life cycle. (Photo: Praveen)

Detailed Behavior and Ecology

Scientists suggest that Pioneers prefer wide, open flowers for nectar. They are commonly seen on Tridax procumbens, Lantana camara, Calotropis, and Ziziphus (Kunte, 2000; Kunte et al., 2021). However, in our systematic early-morning field studies in Ranthambhore, we observed them feeding on a different set of local plant species — starting with the very first rays of the sun.

At a glance, the white-flowered Convolvulus prostratus (Santari) appeared most abundant, sprawling across open fields. But when we conducted a 10×10 sq. m plot survey, we found that the highest number of flowers — around 500 — belonged to Oligochaeta ramose (Brahma Dandi), making it the butterfly’s preferred nectar plant. This was followed by Lepidagathis trinervis (Trinadi) with approximately 300 flowers, while Santari had just around 100.

In addition to these three major plants, Pioneers were also seen feeding on:

  • Echinops echinatus (globe thistle)
  • Argemone mexicana (prickly poppy)
  • Evolvulus alsinoides (Vishnukrant)
  • Solanum xanthocarpum (yellow-berried nightshade)
  • Launaea procumbens (wild lettuce)

Pioneer butterflies nectaring on a variety of flowers — Brahma Dandi, Santari, Khoon-Rokni, and Oont-Kanteli. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal, Praveen)

These butterflies begin their day quite early, around 6:00 a.m. Initially, they feed on O. ramose flowers, then shift to the newly bloomed Santari (still tinged with purple), and later to other available flowers.

Between 8:30 and 9:30 a.m., most butterflies can be seen basking in the sun near shrubs of Capparis, Ziziphus, and Heens, especially on Santari flowers. This basking helps regulate their body temperature — a critical behavior for ectothermic insects.

Mating activity also begins in the cool morning hours, typically between 6:00 and 8:00 a.m., lasting up to two hours. By around 10:00 a.m., most activity ceases. In the afternoon, they seek shade under shrubs like Capparis and Ziziphus. While some butterflies stay active throughout the day, a noticeable rise in activity is observed again around 4:00 p.m. At night, they rest on the eastern side of shrubs — likely to avoid the last rays of the hot western sun and to warm up quickly at sunrise.

In the evenings, most butterflies are in flight, while some females are seen sitting still on host plants, wings open, seemingly waiting for a male. When disturbed by nearby movement, females raise their abdomen — a behavior we interpreted as a sexual signal or mate-choice display.

Later, we confirmed this “abdomen lifting” is a post-mating signal, indicating that the female is no longer receptive and thereby avoids further mating attempts.

belenois aurota abdomen lifting

After mating, the female Pioneer butterfly raises her abdomen — a clear signal that she is no longer receptive to further copulation. (Photo: Praveen)

Egg Laying and Mate Guarding

To ensure the next generation, females lay eggs singly or in small clusters on the underside of host plant leaves. These eggs are oval, upright, pale cream to yellowish in color, and show fine ridges (Sharma & Khan, 2022). They are typically placed in shaded areas on a single leaf to ensure protection and moisture.

Interestingly, in our observations, all eggs were laid on the upper surface of leaves — especially on those with a slight upward curl along both edges. This deviation from earlier descriptions suggests adaptive variability.

During this period, males often engage in mate guarding — staying close to the female after mating to prevent other males from attempting to copulate again. We frequently observed males actively chasing away other intruding males.

 

belenois aurota eggs

The Pioneer butterfly typically lays its eggs on the upper surface of leaves, often selecting those that are gently curved along both edges. (Photo: Praveen)

Ecological Role and Interactions

Ecologically, the Pioneer butterfly plays a dual role — while it completes its life cycle by heavily feeding on the leaves of host plants like Capparis, it also exerts pressure on these plants, making it locally significant as a herbivore and potential pest.

At the same time, it becomes a critical resource for other species. One notable ecological interaction we observed involved social spiders, which appear to specialize in preying on Pioneer butterflies. These spiders build dense webs near or on Capparis and Heens shrubs — an intelligent strategy given these are the very plants where Pioneers congregate. In a single web, we documented dozens to hundreds of trapped butterflies, highlighting the butterfly’s central place in the local food web.

This relationship illustrates the complexity of predator-prey dynamics in the ecosystem and shows how the abundance of one species can significantly influence others.

belenois aurota social spider interaction

We found that social spiders build their webs on Ker or Heens shrubs — where they are able to trap hundreds of Pioneer butterflies in a single web. (Photo: Praveen)

Based on our observations and the ecology of the region, it seems highly likely that the Pioneer butterfly is a resident species, reappearing each year in response to regional climate cues — particularly the early Dongde rains of April-May.

This butterfly is more than just a seasonal visitor. It is a sensitive indicator of climatic patterns, a pollinator, a herbivore, and a prey species — a small but significant player in the intricate web of life. In the context of climate change and shifting land-use patterns, documenting species like the Pioneer, understanding their population dynamics and ecological relationships, is more important than ever. It may well hold clues to the future of ecological resilience.

Cover Image: Dr Dharmendra Khandal

Pioneer Butterflies in Ranthambhore

दोंगड़े के बाद उड़ान: रणथम्भौर में पायोनीर तितलियाँ

लेखक: प्रवीण सिंह, धर्म सिंह गुर्जर, एवं डॉ धर्मेंद्र खांडल 

‘दोंगड़े’ — राजस्थान में अप्रैल-मई की शुरुआत में अचानक और अल्पकालिक रूप से होने वाली यह वर्षा — स्थानीय पारिस्थितिकी के लिए एक महत्वपूर्ण संकेत होती है, जो कई जीवों के जीवनचक्र को सक्रिय कर देती है।

हमें अक्सर अपने बगीचे या घर के आसपास जब कोई रंग-बिरंगी तितली उड़ती दिखती है, तो मन अपने आप आनंदित हो उठता है। अब ज़रा कल्पना कीजिए — जब ऐसी ही एक प्रजाति की तितली सैकड़ों-हजारों की संख्या में, एक साथ दिखाई दे — तो वह दृश्य कैसा अद्भुत होगा!

कुछ ऐसा ही दृश्य हर साल रणथंभौर के सीमावर्ती क्षेत्रों के आस पास देखने को मिलता है। जिसे हमने शेरपुर और खिलचीपुर के गोचर भूमि में देखा। यहाँ खुली ज़मीन पर, कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे जंगली फूलों के बीच सफेद-पीली तितलियों की लहरें एकाएक दिखाई देने लगती हैं। इनके पंखों के सिरों पर काले धब्बे और काली धारियां साफ दिखाई देती हैं। नर तितलियाँ सामान्यतः फीकी रंगत वाली (हल्की पीली) और साफ-सुथरी धारियों वाली होती हैं। मादा तितलियों के अगले पंखों पर काले पैटर्न अधिक स्पष्ट होते हैं और वे आकार में थोड़ी बड़ी भी होती हैं। हाँ, मादा बड़ी होती है – क्योंकि उन्हें अपने पेट में अंडे जो पालने होते है। (Smetacek, 2012) यह नज़ारा यहाँ लगभग एक-डेढ़ महीने तक देखने को मिलता है।

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Oligochaeta ramose

पायनियर तितली सबसे अधिक ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पुष्प पर गई (फ़ोटो: प्रवीण)

ये हैं पायनियर तितलियाँ (Belenois aurota), जिन्हें ‘कैपर व्हाइट’ भी कहा जाता है। एकाएक इनकी संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि लगभग हर झाड़ी पर सिर्फ एक ही प्रजाति की तितलियाँ दिखाई देती है। हमारे द्वारा एक 10×10 वर्ग मीटर के क्षेत्र में की गई इनकी गिनती में हमें 500 से 1000 तितलियाँ मौजूद मिली थी। यह असाधारण दृश्य यहाँ हर साल देखने को मिलता है।

कहाँ से आती हैं ये तितलियाँ?

प्रश्न उठता है — ये तितलियाँ इतनी बड़ी संख्या में अचानक आती कहाँ से हैं? क्या ये दूरदराज़ से प्रवास करके आती हैं, जैसा कि ब्रिटिश काल के कीटविज्ञानी मूर (1890s) और बिंघम (1905) ने उल्लेख किया? या यह उनके जीवन चक्र की स्थानीय पुनरावृत्ति है?

हमारा मानना है की शायद ये तितलियाँ प्रवासी नहीं, बल्कि यहीं की निवासी हैं, जो अप्रैल  माह की पहली बारिश के साथ ही अपने छिपे हुए जीवन से बाहर आती हैं, और अचानक प्रकट हो जाती हैं। यानी इस समय अपने प्यूपा से बाहर निकल कर यह जीवन के एक नए रूप को धारण करती है। 

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Convolvulus prostratus

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है। फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल 

इतिहास के पन्नों से

ब्रिटिश भारत में कार्यरत फ्रेडरिक मूर ने अपनी श्रृंखला “Lepidoptera Indica में पहली बार इस तितली का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने यह ध्यान दिया कि ये मानसून के बाद एकाएक प्रकट होती हैं और कैपेरिस के पौधों के पास मंडराती हैं। बाद में चार्ल्स बिंघम ने इनके विशाल झुंडों की दिशा — दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व — का वर्णन किया, जो की उनके अनुसार मानसून के समानांतर चलती प्रतीत होती थी।

जो हमने देखा

आजकल, मूर और बिंघम के वर्णन के विपरीत, हमने इन तितलियों को मानसून में नहीं देखकर इन्हें अप्रैल माह में होने वाली बारिश के बाद कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे फूलों के आस-पास बहुतायत में देखा है। हींश की झाड़ी पर तो 100-150 तितलियाँ दिखाई दे जाती है। अप्रैल- मई के समय होने वाली बारिश को स्थानीय भाषा में दोंगड़े कहा जाता है, हम सब जानते है की गर्मी के बाद में आने वाली बारिश को मानसून कहते है, वहीं ठंड में आने वाली बारिश को मावठ कहते है। दोंगड़े जो अचानक और अनिश्चित रूप से आ जाती है। यद्यपि इसका समय काल अत्यंत लघु होता है, एक या दो बारिश में यह सिमट जाता है। यह संक्षिप्त लेकिन गर्मी के मौसम में प्राणियों के लिए एक अचानक से भोजन की बहुतायत और सुखद मौसम लाने वाली जीवनदायी वर्षा अनेक प्राणियों के लिए यह वरदान और पायनियर तितली के जीवन की कुंजी है।

पायनियर तितलियों का जीवन चक्र खासतौर पर कैपरेसी कुल (Capparaceae) के पौधों से जुड़ा हुआ है। इनके मुख्य लारवल होस्ट प्लांट हींश (Capparis sepiaria) और कैर (Capparis decidua) हैं (Arora & Mondal, 1981) इस क्षेत्र में इनकी उपस्थिति विशेष रूप से इन दोनों झाड़ियों पर अधिकतम पाई गई और यही वे पौधे हैं जिन्हें ये तितलियाँ अंडे देने के लिए चुनती हैं।

पायनियर तितली शारीरिक रूप से नाजुक और गर्मी सहने में असक्षम होती है। दिन में प्रातः काल से सुबह लगभग 9 बजे तक ही यह सक्रिय रह पाती है इसके बाद होने वाली तेज धूप में यह झाड़ियों के नीचे छुप कर रहने लगती है। हालाँकि इनकी उड़ान तेज होती है परन्तु थोड़ी दूरी की होती है — साथ ही नीचे-नीचे, फुर्तीली लहरों में यह विचरण करती है। ये अधिकतर अपने होस्ट प्लांट या फूलों के इर्द-गिर्द मंडराती हैं, जिससे इनके लंबी दूरी की उड़ान की संभावना न के बराबर ही है। साथ ही रेगिस्तान में अप्रैल में स्थान विशेष पर होने वाले दोंगड़े वर्षा पूरे क्षेत्र को तितली के लिए अनुकूल नहीं बनाते है, ताकि यह प्रवर्जन के लिए दूर तक जा सके।

इन्ही बातों के आधार पर हमने यह अनुमान लगाया गया कि ये तितलियाँ यहाँ की स्थानीय हैं जो यहीं पैदा होती हैं और यहीं अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हुए अगली पीढ़ी को जन्म देती हैं।

पायनियर तितली के जीवन चक्र के विभिन्न चरण (फ़ोटो: प्रवीण)

विस्तार में व्यवहार

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये विशेष रूप से चौड़े और खुले आकार वाले फूलों से रस लेना पसंद करती है। सामान्यतः इसे त्रिडैक्स डेज़ी (Tridax procumbens), लैंटाना (Lantana camara), आक (Calotropis) और बेर (Ziziphus) के फूलों पर देखा गया है (Kunte, 2000; Kunte et al., 2021)

लेकिन रणथंभौर क्षेत्र में प्रातःकालीन समय के हमारे व्यवस्थित अध्ययन में यह तितली कुछ अन्य स्थानीय वनस्पतियों से रस लेती देखी गई – और वह भी सूरज की पहली किरणों के साथ!

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है — खुले मैदानों में बिखरा हुआ तथा  व्यापक रूप से फैला हुआ पुष्पों मानो इसका मुख्य नेक्टरिंग पौधा है। लेकिन जब हमने 10×10 वर्ग मीटर के प्लॉट में पुष्पों की संख्या गिनी, तो सबसे अधिक पुष्प ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पाए गए — लगभग 500 फूल, जो कि इस तितली की पहली पसंद साबित हुए। इसके बाद त्रिनाड़ी (Lepidagathis trinervis) के लगभग 300 पुष्प और संतरी के केवल 100 पुष्प दर्ज किए गए।

इन तीन प्रमुख पुष्पों के अतिरिक्त, पायनियर तितलियाँ कुछ और स्थानीय वनस्पतियों से भी रस लेती देखी गईं:

  • Echinops echinatus (गोल कांटेदार फूल)
  • Argemone mexicana (सत्यानाशी)
  • Evolvulus alsinoides (विष्णुकांत)
  • Solanum xanthocarpum (कांटे वाला बैंगन) और
  • Launaea procumbens (पाथरी)

पायोनीर तितली अलग-अलग फूलों से रसपान करते हुए (ब्रह्म डंडी, संतरी, खून-रोकनी, और ऊंट-कंटेली) (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल, प्रवीण)

ये तितलियाँ दिन की शुरुआत बहुत जल्दी कर देती हैं। भोर में लगभग 6:00 बजे से ही इनकी गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। शुरुआत में ये तितलियाँ ब्रह्म डंडी के फूलों पर जाती हैं, फिर 7:00 बजे के बाद संतरी के नए खिले फूलों पर जिनका रंग अभी भी थोड़ा बैंगनी था और पूर्ण सफेद नहीं हुआ था, और इसके बाद अन्य उपलब्ध पुष्पों की ओर आकर्षित होती हैं।

सुबह 8:30 से 9:30 के बीच, अधिकांश तितलियाँ कैर, हींस और बेर की झाड़ियों के पास खुले स्थानों में तथा संतरी के फूलों पर पंख फैलाकर धूप सेंकती देखी जाती हैं। यह धूप सेंकना तापमान संतुलन बनाए रखने के लिए एक सामान्य और महत्वपूर्ण व्यवहार है।

इनका प्रजनन व्यवहार भी सुबह के समय, कम तापमान के दौरान ही शुरू होता है, और सामान्यतः दो घंटे तक सक्रिय रहता है। यह अवधि प्रायः 6:00 से 8:00 बजे के बीच होती है। इसके बाद, लगभग 10:00 बजे तक इनकी गतिविधियाँ लगभग समाप्त हो जाती हैं।

दोपहर के समय, अधिकांश तितलियाँ कैर और बेर जैसी झाड़ियों की छाया में विश्राम करती हुई दिखाई देती हैं। हालांकि कुछ तितलियाँ दिनभर उड़ती भी रहती हैं, परंतु गतिविधि में स्पष्ट वृद्धि शाम 4:00 बजे के आसपास पुनः देखी जाती है। रात्रि में यह तितली झाड़ी के पूर्वी हिस्से में आराम करती है ताकि पश्चिम में छिपते सूरज की गर्मी इन्हें झेलनी नहीं पड़े और सुबह का उगता सूरज इन शीतरक्त कीटो को शीघ्र इतना गर्म करदे की यह सुबह सुबह अपना कार्य प्रारंभ कर सके।

शाम के समय ज्यादातर तितलियाँ प्रायः उड़ान में व्यस्त रहती हैं, जबकि कुछ मादाएँ होस्ट प्लांट पर स्थिर बैठी हुई, पंख फैलाकर नर के संपर्क का इंतजार करती देखी जाती हैं। इस दौरान, जब भी मादा अपने आसपास किसी अन्य तितली की हलचल महसूस करती है, तो वह अपना उदर (abdomen) ऊपर की ओर उठा लेती है—एक नजर में हमने इस व्यवहार को यौन संकेत या जोड़े के चयन से जुड़ा माना।

बाद में हमने पाया कि यह “उदर उठाने” का व्यवहार प्रजनन संकेत होता है। संभोग के बाद मादा तितली ऐसा करके यह संकेत देती है कि वह पुनः संकरण के लिए तैयार नहीं है, जिससे वह अनचाहे प्रयासों से बच पाती है।

belenois aurota abdomen lifting

संभोग के बाद मादा पायनियर तितली अपना उदर ऊपर उठा लेती है — यह एक स्पष्ट संकेत होता है कि वह अब दोबारा संकरण के लिए तैयार नहीं है। (फ़ोटो: प्रवीण)

वैज्ञानिकों का यह भी मानना है की मादा तितली अपने जीवन चक्र की अगली पीढ़ी को सुनिश्चित करने के लिए, होस्ट प्लांट की पत्तियों की निचली सतह पर एकल या छोटे समूहों में अंडे देती है। ये अंडे अंडाकार, सीध में खड़े, हल्के क्रीम या पीले रंग के होते हैं जिन पर महीन रेखाएँ या खांचे स्पष्ट दिखते हैं (Sharma & Khan, 2022) आमतौर पर ये अंडे एक ही पत्ती की छाया में दिए जाते हैं ताकि अधिकतम सुरक्षा मिल सके और आद्र्रता बनी रहे।

लेकिन हमने पाया की सभी अंडे पत्तों की ऊपरी सतह पर ही दिए गए हैं, यहाँ हमने यह भी पाया की ज्यादातर अंडे दोनों किनारो से हल्की सी घुमाव वाली पत्तियों पर ही दिए गए हैं।

इस प्रक्रिया के दौरान नर तितलियाँ ‘मेट गार्डिंग’ करते देखी गई हैं — यानी संभोग के बाद वे मादा के पास रहकर उसकी रक्षा करते हैं ताकि अन्य नर तितलियाँ दोबारा संकरण का प्रयास न कर सकें। अक्सर आने वाले नर तितली को दूर भागते रहते है।

पायनियर तितली पारिस्थितिक रूप से एक दोहरी भूमिका निभाती है — एक ओर यह मौसमी वनस्पतियों, केर और हींश की पत्तियों पर अंडे देकर अपने जीवन चक्र को पूरा करती है, तो दूसरी ओर इसकी बड़ी संख्या में उपस्थिति इन पौधों के लिए एक दबाव उत्पन्न करती है। यह कैपरेसी कुल की झाड़ियों की बड़ी मात्रा में पत्तियाँ खा जाती है।

belenois aurota eggs

पायनियर तितली सामान्यतः अंडे पत्तियों की ऊपरी सतह पर देती है, और विशेष रूप से ऐसी पत्तियाँ चुनती है जो दोनों किनारों से हल्के रूप से मुड़ी हुई होती हैं। (फ़ोटो: प्रवीण)

हालाँकि, इसी संदर्भ में यह तितली अन्य जीवों के लिए भी संसाधन बन जाती है। रणथम्भौर क्षेत्र में हमारे अवलोकनों में एक विशेष जैविक अंतर्क्रिया सामने आई — यहाँ की कुछ सामाजिक मकड़ियाँ (social spiders) विशेष रूप से पायनियर तितलियों को शिकार के रूप में चुनती हैं। ये मकड़ियाँ अपने जाले या घोंसले अक्सर केर या हींश की झाड़ियों के पास या ऊपर बनाती हैं — यह एक अत्यंत चतुर रणनीति प्रतीत होती है, क्योंकि ये झाड़ियाँ पायनियर तितलियों की प्रमुख होस्ट प्लांट हैं। इन जालों में हमने एक समय में दर्जनों से लेकर सैकड़ों तक पायनियर तितलियों को फंसा हुआ पाया — जो इस बात का प्रमाण है कि यह तितली न केवल परागण जैसी पारिस्थितिक सेवाओं में भागीदार है, बल्कि खाद्य शृंखला में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी है। यह अंतर्क्रिया जैव विविधता के स्तर पर शिकारी-शिकार संबंधों की जटिलता को दर्शाती है, और तितलियों की अत्यधिक उपस्थिति अन्य जीवों के जीवन चक्र को भी प्रभावित कर सकती है।

belenois aurota social spider interaction

हमने पाया की सोशल स्पाइडर यहाँ केर या हींश की झाड़ियों पर अपने जाले बनाती हैं — जहाँ वे एक ही जाल में सैकड़ों पायोनीर तितलियों को फंसा लेती हैं ।  (फ़ोटो: प्रवीण)

 हमारे अवलोकनों और इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को देखते हुए, यह संभावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है कि पायनियर तितली एक स्थानीय निवासी प्रजाति है, जो क्षेत्रीय जलवायु संकेतों के अनुसार प्रतिवर्ष पुनः प्रकट होती है — विशेष रूप से अप्रैल-मई की पहली वर्षा दोंगड़ेके बाद।

यह तितली न केवल हमारे मौसमीय चक्रों की संवेदनशील दूत है, बल्कि पारिस्थितिकी में विविध और कभी-कभी उलझी हुई भूमिकाओं में भी सक्रिय है — एक परागक, एक कीट, और कई शिकारी प्रजातियों के लिए पोषण का स्रोत। जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न के संदर्भ में, पायनियर जैसी तितलियों का दस्तावेज़ीकरण, उनकी जनसंख्या गतिशीलता और अंतर्संबंधों को समझना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। शायद इसी में भविष्य की पारिस्थितिक स्थिरता की कुंजी छुपी हो।

Cover Image: Dr Dharmendra Khandal

First Record of Tarantula Spider in Rajasthan: A Remarkable Discovery

First Record of Tarantula Spider in Rajasthan: A Remarkable Discovery

Tarantulas, belonging to the family Theraphosidae, are large, hairy spiders commonly found in warm regions worldwide, with several species also documented in India. For the first time in Rajasthan, a tarantula was recorded by Shri Batti Lal Meena, an experienced guide in Ranthambhore. He photographed the spider in 2018 near Singh Dwar, along the main road leading to the Ranthambhore Fort.

Tarantulas are generally non-aggressive toward humans but carry mild venom, comparable to a bee or scorpion sting, which they use to immobilize prey such as insects, small reptiles, and amphibians. Nocturnal hunters, they rely on their sensitive hairs to detect vibrations in their surroundings.

These spiders play a critical role in ecosystems as predators and prey, contributing significantly to biodiversity. Despite their intimidating appearance, tarantulas are fascinating creatures known for their unique behaviours. This discovery is not only a milestone for Rajasthan but also hints at the possibility of this being a new species, adding to the scientific understanding of arachnids.

Mr. Batti Lal Meena, the naturalist who made the first recorded sighting of a tarantula spider in Rajasthan