Rudyard Kipling and Human-Tiger Conflict in Bundi

Rudyard Kipling and Human-Tiger Conflict in Bundi

According to most experts, it is becoming increasingly evident that human-wildlife conflict is on the rise. Almost every other day,  shocking videos and photographs of tiger attacks proliferate all over the media. There seems to be an overall consensus over the fact that conflict between humans and wildlife is increasing rapidly. However, no one ever bothers to ask that while the numbers of tigers and leopards have come down from the lakhs to the thousands, and with current populations only a meagre 5-10% of their erstwhile numbers, why is there an elevation in human-wildlife conflict? Some answer that given the exponential rise in the population of humans, perhaps the tiger’s prey base has also reduced, hence an increase in attacks. Well, let’s see what historical records have to tell us.

Rudyard Kipling, by John Collier, ca.1891. Despite changing times and outlooks, Kipling is still synonymous with the Indian jungle as a result of the popularity of The Jungle Book, adaptations of which continue to be immortalized in film.

One of the more unique historical records of human-wildlife conflict, was found in the town of Bundi in Rajasthan, and it  was written by none other than the celebrated Victorian era British author and poet, Rudyard Kipling. Kipling was in fact, born in India. He also received the Nobel Prize for Literature at the relatively young age of 41, and is still the youngest individual to have ever won the prize. Most are familiar with his collection of fictional stories titled “The Jungle Book” , centered around a protagonist named Mowgli, and his interactions with different kinds of anthropomorphic wildlife in the central Indian jungle.

Kipling described his observations of the number of victims of tiger attacks recorded in a Bundi dispensary, all the while sparing the reader none of his trademark wit. He wrote that between 1887 -1889, he travelled through many parts of India, including Rajasthan, and whilst walking down a street in Bundi one afternoon, someone suddenly called out to him in “rusty” English, “Come, and see my dispensary”.

Bundi in the present. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

This came as a bit of a shock to Kipling, for at the time, the only people said to be conversant in English in the whole town were two teachers at a local school. The unprecedented third, was a local doctor who had studied 20 years previously at the Lahore Medical College, and ran a charitable dispensary. However, the good doctor’s proficiency in English was not that of a first language speaker. The doctor proceeded to describe the different kinds of patients that visited him, and how his 16 bed dispensary functioned. According to Kipling, there was a crowd of some 25 -30 people, and he approved of the dispensary. The dispensary’s patient records were also written in English, where none of the ailments were spelled correctly (“Asthama, Numonia, Skindiseas, Dabalaty”), but also contained figures under a rather curious heading, “Loin-bite”. When Kipling asked the doctor what he meant by this, the latter responded in Hindi, “Sher se mara” (Kipling was fluent in Hindi, it was believed to be his first language). Following which Kipling humorously commented, ” it was ‘lion bite’ or tiger, if you insist upon zoological accuracy”. Both tigers, and leopards could have been behind the attacks, the chances of a lion being very slim for obvious reasons. According to Kipling, tigers used to injure approximately 3-4 people in Bundi every week. Today, this figure dwarfs the current figure for the entire state of Rajasthan, and bear in mind, this was just a small town.

It appears that as a consequence of the easy availability of cameras, and smartphones, an increasing number of videos and photographs of cases of human-wildlife conflict are rapidly proliferating in the media. Where there are humans and wildlife, conflict is inevitable,  to learn the art of living with it is necessary. Indians, it must be said, know this art relatively well.

Today the jungles of Bundi have become tigerless, but the government is now paying attention to the area, and seeks to prepare it for the tiger’s return. With the unprecedented success of the adjacent Ranthambore Tiger Reserve, the residents of Bundi have also become aware of the benefits of tourism revenue, and eagerly await new tigers.

References:

  • Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption & credit: Human-wildlife conflict is as old as mankind itself. A revealing cave painting from Bundi. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

हिंदी में पढ़िए

 

रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

हमेशा से बाघों के अनुकूल रहा, राजस्थान का एक ऐसा क्षेत्र जो बाघ पर्यावास बनने को तैयार है लेकिन सरकारी अटकलों और तैयारियों  कि कमी के कारण आधिकारिक तौर पर बाघों से वंचित है।

रामगढ़ विषधारी अभयारण्य राज्य के बूंदी जिले में 304 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत एक जलपूर्ण वन क्षेत्र है। राज्य ने इसे 20 मई 1982 को राजस्थान वन्य प्राणी और पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1951 की धारा 5 के अंतर्गत अभयारण्य घोषित किया। रामगढ़, रणथंभोर टाइगर रिजर्व के दक्षिण कि ओर एक पहाड़ों से घिरा वन क्षेत्र है जो कि मेज नदी द्वारा दो असमान भागों में विभाजित होता है। मेज नदी इस वन क्षेत्र के कई जलश्रोत को जलपूर्ण कर इस वन क्षेत्र कि जीवन रेखा के रूप में काम करती है। रणथंभोर से जुड़ा होने के कारण यह बफर ज़ोन का भी काम करता है जिसकी वजह से रणथंभोर से निकले हुए बाघ अक्सर यहाँ पहुँच जाते है।

रामगढ़ का इतिहास:

रामगढ़ का इतिहास, वन्यजीवों से लेकर इंसानों के खूनी गाथाओं से भरा हुआ है।अधिकांश राजपूत शासक एक दूसरे के राज्यों में मेहमान के तौर पर शिकार, विशेष रूप से स्वयं के राज्यों में अनुपलब्ध जीवों के शिकार के लिए आमंत्रित करते रहते थे। अक्सर ये शिकार यात्राएँ उनके बीच घनिष्ठ संबंधों, विवाह, दोस्ती और साझा हित से जुड़ी रियासतों, के अस्तित्व को प्रतिबिंबित और प्रबलित करते थे।

बाघों की बड़ी आबादी कि वजह से, बूंदी बाघों के शिकार के लिए एक लोकप्रिय स्थान था। जबकि आम तौर पर बाघों का  शिकार राज्यों द्वारा अपने आपसी संबंधों को मजबूत करने में मददगार साबित होता था, बूंदी के मामले में यह उसके विपरीत साबित हुआ है। ब्रिटिश एजेंट जेम्स टोड के ऐनल्ज़ एण्ड एंटीकुईटीस के अनुसार यहाँ अहेरिया (वसंत के समय का शिकार) का त्यौहार मेवाड़ के महारनाओं के लिए तीन बार घातक साबित हुआ (Hughes, 2013)। 1531 में एक शिकार के दौरान बूंदी के राव सूरजमल और मेवाड़ के महाराणा रतन सिंह के बीच एक झगड़े का उल्लेख है जिसमें दोनों महाराज एक दूसरे को मार डालते हैं। टोड के अनुसार महाराणा रतन सिंह द्वारा चोरी से हाड़ा महाराज सुरजमल कि बहन से विवाह करने के कारण बदले कि भावना में शिकार के दौरान झगड़े में एक दूसरे को मार डालते हैं। ऐसी ही एक घटना 1773 में दोहराई गई जब बूंदी के राव राजा अजीत सिंह ने मेवाड़ के महाराणा अरसी सिंह को शिकार के दौरान ही मार डाला। टोड के अनुसार महाराणा कि मौत मेवाड़ के रईसों द्वारा प्रभावित था जिन्हें महाराज अरसी स्वीकार नहीं थे (Crooke, 2018)।

Ramgarh Hunting Lodge: बूंदी के महाराज रामसिंह द्वारा मेज नदी के किनारे शिकार के महल का निर्माण करवाया गया था।ब्रिटिश एजेंट जेम्सटोड के अनुसार राजा राम को शिकार का जुनून उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला, और यहां तक कि इस ग्यारह वर्ष कि उम्र में उन्हें अपने पहले शिकार करने पर बूंदी के रईसों से नजर और बधाई मिली। (फोटो: प्रवीण कुमार)

महारजाओं के शिकार के साथ ही यहाँ बेहिसाब वन्यजीवों का भी शिकार हुआ है। जेम्स टॉड ने अपने ऐनल्ज़ में ही बताया है कि बूंदी के शासक राव राजा बिशन सिंह (मृत्यु 1821) ने 100 से अधिक शेर और कई बाघ मारे थे। बेशक शिकार के लिए ऐसा जुनून उस एक शेर के जितना ही खतरनाक साबित हो सकता है जिसका शिकार किया जाता था, और ऐसा हुआ भी जब अपने किसी शिकार अभियानों में से एक के दौरानएक शेर द्वारा राजा पर हमला किया गया जिसके परिणामस्वरूप महाराज ने एक अंग को खो दिया और जीवन भर के लिए अपंग होकर रह गए (Crooke, 2018)। इन बेहिसाब शिकारों के कारण 1830 तक यहाँ से शेर विलुप्त हो चुके थे (Singh & Reddy, 2016)I

रुडयार्ड किपलिंग अपने 1890 के दशक के बूंदी दौरे के बारे में बताते हैं कि जब अंग्रेज बूंदी आए तो उन्हे सुख महल में ठहराया गया जहां उन्होंने अपनी पुस्तक “किम” के कुछ अंश पूरा किया। उसी दौरान उन्होंने बूंदी के डिस्पेंसरी का दौरा किया, तो उन्होंने एक रजिस्टर पाया (ऑपरेशन बुक) जिसमें अस्पताल में आने वाले लोगों की बीमारियों को अंग्रेजी में सूचीबद्ध किया गया था। उनमें से एक सप्ताह में अक्सर तीन-चार मामले, शेर के काटने के होते थे, जिसे सूची में “लायन बाइट” के तौर पर सूचित किया गया था। जुलोजिकल सटीकता देखने पर उन्होंने इसमें बाघ के काटने की संभावना पाई (Kipling,1899)।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। लेकिन, 1920 से बूंदी ने बाघों के शिकार के आगंतुकों का स्वागत करना शुरू किया जिससे राज्य ने शिकार का उच्च स्तर अनुभव किया। इस समय तक तत्कालीन शासक, महराओ राजा रघुबीर सिंह, पहले ही लगभग 100 बाघों को मार चुके थे। इस छोटे से राज्य में हर साल औसतन सात बाघ मारे जाते थे। हालांकि पूर्व नियमों के अनुसार बाघिनों के शिकार को हतोत्साहित किया गया था, लेकिन कुछ निजी रिकॉर्डों को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि या तो नियम 1930 के दशक से बदल गए थे या उनका पालन नहीं हो रहा था। हालांकि, शिकार और पर्यावास में परिवर्तन के बावजूद यहाँ 1941 में 75 बाघ थे (Playne, et al.,1922)I

1945 में बाघ शिकार के नियमों में ढील दी गई और कई लोग शिकार के शाही खेल में भाग लेने के लिए शामिल होने लगे। 1950 के दशक में, एक बाघिन ने फूल सागर के आसपास के जंगल में दो शावकों को जन्म दिया। उसी अवधि के आसपास फूल सागर पैलेस में आमंत्रित लोगों के साथ क्रिसमस की शिकार पार्टियां लोकप्रिय हो गईं और 1950 के दशक के अंत से बाघों का अवैध शिकार भी शुरू हुआ। 1952 में, लॉर्ड माउंटबेटन ने बूंदी में दो बाघों का शिकार किया; एक फूल सागर में और दूसरा रामगढ़ में। 1955 और 1965 के बीच, महाराव राजा बहादुर सिंह ने अकेले बूंदी के जंगलों में 27 बाघों का शिकार किया। यहाँ के जंगलों में 1957 से 1967 के बीच नौ बाघों का शिकार अवैध शिकारियों द्वारा किया गया। 1960 के दशक तक बाघ काफी सीमित क्षेत्रों तक ही पाए जाते थे। हालांकि, ये बाघ और बाघ-शिकारियों के लिए बदलते समय थे क्यूँकि वन विभाग ने बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था (Singh & Reddy, 2016)I

1982 में अभयारण्य घोषित होने के साथ इस क्षेत्र कि सुरक्षा और बढ़ी। इस क्षेत्र के बाघों में विशेष रुचि रखने वाले वन रक्षक लड्डू राम के अनुसार, 1983 में रामगढ़ और शिकार्बुरज ब्लॉक के बीच तीन बाघ थे, और 1986 में छह। 1990 में, उनका मानना है कि पूरे इलाके में 11 बाघ थे, जो बिजोलिया, बांद्रा पोल, मांडू और झारपीर में फैले थे- ये सभी रामगढ़ रेंज में हैं (Singh & Reddy, 2016)I

1985 में, लोहारपुरा घाटी में एक बाघ को अवैध रूप से मार दिया गया था। इसके बाद 1991 को एक और ऐसी घटना हुई जब पिपलिया मणिकचौथ में गोरधन की पहाड़ी पर एक और बाघ की मौत हो गई। तत्कालीन उप वन संरक्षक के एल सैनी और रेंज ऑफिसर पूरण मल जाट द्वारा, 23 – 24 जनवरी को शिकारी रंगलाल मीणा को बाघ के शिकार के संदेह में गिरफ्तार किया गया। हालांकि रंगलाल मीणा मोतीपुरा गाँव का एक माना हुआ शिकारी था, लेकिन उक्त शिकार में वह शामिल ना था। उस रेंज के तत्कालीन गार्ड भूरा मीणा कि रंगलाल से आपसी मतभेद के कारण अत्यधिक प्रतारणा के कारण मौत हो गई। हिरासत में मौत होने के कारण इस क्षेत्र में एक उग्र आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व किया वहाँ के विधायक राम नारायण मीणा ने। आंदोलन में लोगों ने रेंज ऑफिस जला दिया, गार्ड्स को बाहर निकाल दिया, और लगभग डेढ़ साल तक फॉरेस्ट गार्ड्स को अभयारण्य में प्रवेश न करने दिया। अभयारण्य अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण और सक्रिय प्रबंधन के अभाव में वन्यजीवों की सुरक्षा बुरी तरह से विफल रही।

अभयारण्य कि सुरक्षा में वर्ष 2000 में सहायक वन संरक्षक मुकेश सैनी के नेतृत्व में बढ़ी। प्रारम्भिक अड़चनों के बाद उन्होंने अपनी सूज-बूझ से विधायक राम नारायण मीणा का समर्थन हासिल किया और अभयारण्य में  कोयला बनाने पर रोक लगवाई। इनके बाद उप वन संरक्षक श्रुति शर्मा ने अभयारण्य में कैम्प करके स्वयं कि निगरानी में कई विकास कार्य करवाए।

रामगढ़ के वन:

यहाँ के जंगलों को चैंपियन और सेठ वन वर्गीकरण 1968 के अनुसार उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। जलवायु स्थिति से परे, एडैफिक और बायोटिक कारक मुख्य रूप से इन वनों की संरचना, वितरण और गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। यहाँ के वन खंडों को पूर्णतया धोक (Anogeissus pendula) के वन, धोक के मिश्रित वन, धोक कि झाड़ियाँ, खैर (Acacia catechu) के वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क मिश्रित वन, उष्णकटिबंधीय नम मिश्रित वन,घास के मैदान, आदि के रूप में पहचाना जा सकता है (Nawar, 2015)I

धोक के वन में लगभग 80%, Anogeissus pendula पाया जाता है जो कि यहाँ के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक है, Grewia flavescens यहाँ धोक का एक सामान्य सहयोगी है। धोक के मिश्रित वनों में धोक, अन्य पर्णपाती प्रजातियों, जैसे कडाया (Sterculia urens), सालर (Boswellia serrata), पलाश (Butea monosperma), खैर (Acacia catechu), आदि के साथ पाया जाता है। धोक इन वनों कि भी प्रमुख प्रजाति है, सालर और कडाया ढलानों पर मौजूद हैं, जबकि पलाश घाटी क्षेत्रों में आता है। इन जंगलों में Grewia flavescens, Capparis decidua, Cassia tora, Calotropis procera आदि जैसी झाड़ी प्रजातियां भी शामिल है।

यहाँ शुष्क मिश्रित वनों के कुछ पैच भी मौजूद है जिसमें चुरेल (Holoptelea integrifolia), गुर्जन (Lannea coromandelica), पलाश, कड़ाया, धोक के साथ शामिल हैं। बबूल (Acacia nilotica) अवस्था परिवर्तन कालिक क्षेत्रों में और असमान सतहों पर पाया जाता है। नम मिश्रित वनों में Syzygium cumini, Ficus racemosa, Diospyros melanoxylon, Phoenix sylvestris,Flacourtia indica, Mallotus philippensis, Terminalia bellirica and Mangifera indica आदि पाए जाते हैं।  इस तरह के जंगल पानी की धाराओं, झीलों और जलाशयों के आसपास के घाटी क्षेत्रों में आम हैं। जलीय वनस्पतियों में नेलुम्बो न्यूसीफेरा, निमफेया नौचली, अजोला पिनाटा, ट्रापा नटंस, इपोमिया एक्वाटिक, यूट्रीकुलरिया औरिया आदि शामिल हैं।

रामगढ़ के वन्यजीव:

रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व के लिए सॅटॅलाइट क्षेत्र के रूप में विस्तारित होने की क्षमता रखता है। यह अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व से निकले हुए बाघों का पसंदीदा क्षेत्र है। बाघ के अलावा यहाँ मांसाहारी जीवों में बघेरा, भेड़िया, लकड़बग्धा, सियार, लोमड़ी, सियागोश, रस्टी स्पॉटेड कैट, और जंगल कैट आदि पाए जाते हैं।

मानसून के दौरान, अभ्यारण्य में पानी व्यापक होता है जिसके कारण वन्यजीव असुविधाजनक आर्द्रभूमि से बचने हेतु ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पलायन करते हैं। अक्टूबर और नवंबर के बाद वे नीचे घाटियों की ओर बढ़ना शुरू करते हैं और बाद में नदियों और नालों वाले क्षेत्रों में। मई और जून के शुष्क और गर्म महीनों के दौरान लगभग सभी जानवर सीमित वाटर हॉलस के पास ही पाए जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शाकाहारी जीवों में हनुमान लंगूर, चीतल, सांभर, चिंकारा, नीलगाय, और खरगोश अच्छी संख्या में हैं और सभी मौसमों में आसानी से देखे जा सकते हैं। सर्वाहारी स्थानपाई जीवों में यहाँ भालू, जंगली सूअर, और इंडियन सॅमाल सिविट पाए जाते हैं। यहाँ नेवले की दो प्रजातियाँ इंडियन ग्रे मोंगूस एवं रडी मोंगूस, चींटीखोर, और साही भी पाए जाते हैं।

वन्यजीव गणना के दौरान रामगढ़ महल के पास जलश्रोतों पर भालू, बघेरा हनुमान लंगूर इत्यादि आसानी से एवं अच्छी संख्या में देखने को मील जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अभयारण्य में स्थितः रामगढ़ गाँव कई प्रजातियों के सांपों के लिए जाना जाता है, संभवतः इसी कारण इसको विषधारी अभयारण्य कहा जाता है। है। यहाँ पक्षियों किभी काफी विविधता मौजूद हैं जिनमें कई प्रकार के शिकारी पक्षी जैसे भारतीय गिद्ध, बोनेलीज़ ईगल,आदि, विभिन्न प्रजातियों के पैराकीट, ओरिएण्टल व्हाइट आई, गोल्डन ओरिओल, पर्पल सनबर्ड, हरियल, पपीहा, नवरंग, कोयल, येलो थ्रोटेड स्पैरो, सरकीर मालकोहा, बुलबुल, फ्लाई कैचर्स इत्यादि शामिल हैं।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

रामगढ़, रणथंभोर और बाघ:

रामगढ़-विषधारी और रणथंभौर के बीच मौजूदा वन कनेक्टिविटी, हालांकि कमजोर है, लेकिन फिर भी बाघों को इस पारंपरिक मार्ग से पलायन करने में काफी हद तक सहायक है। यह मार्ग बूंदी के उत्तरी हिस्सों में तलवास और अंतर्दा के जंगलों से गुजरता है। 2007 के आसपास, एक युवा क्षणस्थायी बाघ, युवराज, द्वारा रणथंभौर से बूंदी की दिशा में जाने का प्रयास किया गया लेकिन अपने गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही सखावडा के पास बच्चू, मूल्या और सक्रमा नाम के तीन शिकारी भाइयों द्वारा उसका शिकार कर दिया गया। अगस्त 2013 में, एक और युवा क्षणस्थायी बाघ, T-62 कि मौजूदगी को तलवास के पास कैमरा ट्रैप द्वारा स्थापित किया गया था। अटकलें यह है कि बाघ रामगढ़-विषधारी वन्यजीव अभयारण्य में पशुधन शिकार पर 2015 की शुरुआत तक रहा और फिर रणथंभौर की दिशा में वापस यात्रा किया।

2017 में भी  एक बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकल कर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। इसके बाद भी यहाँ 2 बाघों की उपस्थिति दर्ज हुई जिनमें से एक युवा नर T-115 चम्बल के किनारे व दूसरा बाघ T-110 जो कि पहले भी यहाँ अपना इलाका बना चुका है।

बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकलकर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

बाघों द्वारा इस पारंपरिक मार्ग के उपयोग को देखते हुए, जब रणथंभोर में बाघों कि आबादी बड़ी तो बाघ विशेषज्ञ वाल्मीक थापर और वर्तमान प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन सेना प्रमुख) डॉ जी.वी रेड्डी ने रामगढ़ विषधारी अभयारण्य को रणथंभोर के तीसरे डिवीजन के रूप में विकसित करने कि परियोजना पर विचार किया। जिसका प्रस्ताव वाई के साहू के निर्देशन में धर्मेन्द्र खांडल ने तैयार किया।

रणथंभोर के बफर एरिया को, जो कि इन्दरगढ़ के वनों से लेकर रामगढ़ अभ्यारण्य तक को पहले टाइगर रिजर्व के खंड के रूप विकसित करने पर बल दिया गया। प्रस्तावित किया गया कि पूर्ण रूप से विकसित होने के पश्चात रामगढ़ को स्वतंत्र टाइगर रिजर्व घोषित किया जाए। इस प्रस्ताव के पीछे का तर्क था कि रणथंभोर के हिस्सा होने पर विभाग द्वारा संचालित रणथंभौर बाघ संरक्षण फाउंडेशन (RTCF) कि धनराशि को रामगढ़ के विकास के लिए उपयोग किया जा सकेगा।

रामगढ़ का रणथंभोर के तीसरे खंड के रूप में विकसित होने से, डॉ धर्मेन्द्र खांडल के अनुसार, सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बाघों के स्थानांतरण में आने वाली वैधानिक अड़चनें समाप्त हो जाएंगी। आमतौर पर बाघों को एक रिजर्व से दूसरे तक पहुंचाने में कई वैधानिक समस्याएं आती हैं जैसे कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा स्वीकृति लेना आदि। रणथंभोर का हिस्सा होने से बाघों को आसानी से बिना किसी विलंब के बाघों कि बढ़ती आबादी को रामगढ़ स्थानांतरित किया जा सकेगा।

आज रामगढ़ पुन: अपने गौरवशाली अतीत की ओर अग्रसर हो रहा है। NTCA द्वारा यहाँ रणथम्भौर से 2 बाघों को पुनर्वासित करने की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। शिफ्टिंग के प्रथम चरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए यहाँ सुरक्षा की दृष्टी से वन्यजीव विभाग ने अतिरिक्त वनकर्मियों को तैनात करने के साथ ही जिन विचरण मार्गो से पूर्व में ‘युवराज’ नाम का बाघ, T-62, T-91 रणथम्भौर से निकलकर रामगढ़ तक पहुंचे थे, को भी दुरुस्त करने का कार्य किया गया है।वन्यजीव संरक्षण में वर्षों से प्रयासरत बूंदी जिले के विट्ठल सनाढ्य,  पृथ्वी सिंह राजावत, ओम प्रकाश “कुकी” आदि जैसे वरिष्ठ संरक्षणवादी, एन.टी.सी.ए. की मन्जूरी के बाद आशा में हैं कि फिर से रामगढ़ में बाघों की दहाड़ गुंजायमान होगी।

 

सन्दर्भ:
  1. Hughes, J. (2013). Animal Kingdoms: Hunting, the Environment, and Power in the Indian Princely States. Permanent Black, Ranikhet.
  2. Crooke, William. (Ed.). (2018). Annals and Antiquities of Rajasthan, v. 3 of 3 by James Tod. eBook, Public domain in the USA. http://www.gutenberg.org/ebooks/57376
  3. Singh, P., Reddy, G.V. (2016). Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present), WWF-India, New Delhi.
  4. Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
  5. Playne, S., Solomon, R.V., Bond, J.V. and Wright, A. (1922). Indian States: A Biographical, Historical and Administrative Survey. Asian Educational Services, New Delhi.
  6. Nawar, K. (2015). Floristic and Ethnobotanical Studies ofRamgarh Vishdhari Wild Life Sanctuary ofBundi (Rajasthan). A THESISSubmitted for The Award of Ph.D. Degreein The Faculty of Science ofUNIVERSITY OF KOTA, KOTA., pg. 64.