एंडेमिक प्राणी वे प्राणी हैं जो एक स्थान विशेष में पाए जाते हैं । राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है। यह राज्य न केवल वनस्पतिक विविधता से समृद्ध है बल्कि विविध प्रकार के प्राणियों से भी समृद्ध है। इस राज्य में विभिन्न प्रकार के आवास, प्रकृति में हैं जो कि जीव-जंतुओं की विविधता एवं स्थानिकता (Endemism) के अस्तित्व को सुनिश्चित करते हैं। साथ ही कई प्रकार के एंडेमिक प्राणी यहाँ मिलते हैं। अपृष्ठवंशी जीवों से लेकर स्तनधारी जीवों तक कई स्थानिक प्रजातियां एवं उप-प्रजातियां राजस्थान की भौगोलिक सीमा के भीतर पायी जाती हैं। जीव-जंतुओं की स्थानिकता की एक अच्छी झलक अली और रिप्ले (1983), घोष एवं साथी (1996), गुप्ता और प्रकाश (1975), प्रकाश (1973) एवं शर्मा (2014,2015) के शोध द्वारा मिलती है।
कई प्रजातियाँ राजस्थान के थार रेगिस्तान, गुजरात और पाकिस्तान के लिए स्थानिक हैं तो वहीं कई प्रजातियां राजस्थान के अन्य हिस्सों और आसपास के राज्यों के कुछ हिस्सों में स्थानिक हैं। जो प्रजातियां, उप-प्रजातियां एवं किस्में मुख्य रूप से राजस्थान राज्य की भौगोलिक सीमाओं के लिए विशेष रूप से स्थानिक हैं उनको नीचे सारणी में प्रस्तुत किया गया है:
S.No.
Species/sub-species
Taxonomic group
1.
Rogerus rajasthanensis
Porifera (Sponge)
2.
Orentodiscus udaipurensis
Platyhelminthes (Trematode)
3.
Thapariella udaipurensis
Platyhelminthes (Trematode)
4.
Neocotylotretus udaipurensis
Platyhelminthes (Trematode)
5.
Indopseudochinostomus rajasthani
Platyhelminthes (Trematode)
6.
Triops (Apus) mavliensis
Platyhelminthes (Trematode)
7.
Artemia salina
Arthropoda (Crustacea)
8.
Branchinella biswasi
Arthropoda (Crustacea)
9.
Leptestheria jaisalmerensis
Arthropoda (Crustacea)
10.
L. longimanus
Arthropoda (Crustacea)
11.
L. biswasi
Arthropoda (Crustacea)
12.
Sevellestheria sambharensis
Arthropoda (Crustacea)
13.
Incistermes dedwanensis
Arthropoda (Termite)
14.
Microcerotermes laxmi
Arthropoda (Termite)
15.
Micorcerotermes raja
Arthropoda (Termite)
16.
Angulitermes jodhpurensis
Arthropoda (Termite)
17.
Microtermes bharatpurensis
Arthropoda (Termite)
18.
Eurytermes mohana
Arthropoda (Termite)
19.
Tentyria rajasthanicus
Arthropoda (Beetle)
20.
Mylabris rajasthanicus
Arthropoda (Beetle)
21.
Buthacus agarwali
Arthropoda (Scorpion)
22.
Octhochius krishnai
Arthropoda (Scorpion)
23.
Androctonus finitimus
Arthropoda (Scorpion)
24.
Baloorthochirus becvari
Arthropoda (Scorpion)
25.
Compsobuthus rogosulus
Arthropoda (Scorpion)
26.
Odontobuthus odonturus
Arthropoda (Scorpion)
27.
Orthochirus fuscipes
Arthropoda (Scorpion)
28.
O. pallidus
Arthropoda (Scorpion)
29.
Vachonus rajasthanicus
Arthropoda (Scorpion)
30.
Apoclea rajasthansis
Arthropoda (Dipetra)
31.
Oxyrhachis geniculata
Arthropoda (Hemipetra)
32.
Diphorina bikanerensis
Arthropoda (Hemipetra)
33.
Ceroplastes ajmeransis
Arthropoda (Coccid)
34.
Kerria chamberlinii
Arthropoda (Coccid)
35.
Labeo rajasthanicus
Chordata (Fish)
36.
Labeo udaipurensis
Chordata (Fish)
37.
Nemacheilus rajasthanicus
Chordata (Fish)
38.
Aphanius dispar
Chordata (Fish)
39.
Bufoniceps laungwalansis
Chordata (Agama)
40.
Saxicola macrorhyncha
Chordata (Bird)
41
Salpornis spilonotus rajputanae
Chordata (Bird)
विभिन्न स्थानिक वर्गों की एक झलक
S.No.
Taxa /group
Number of species
1.
Sponge
1
2.
Trematoda
4
3.
Crustacea
7
4.
Termite
6
5.
Beetle
2
6.
Scorpion
9
7.
Diptera
1
8.
Hemiptera
2
9.
Coccids
2
10.
Fish
4
11.
Agama
1
12.
Birds
2
Total
41
राजस्थान में किसी भी प्रकार की प्रभावी बाधाएं नहीं हैं, इसलिए राज्य में अधिक स्थानिकवाद विकसित नहीं हुआ है। कोई भी प्राणी वंश यहाँ स्थानिक नहीं पाया गया है।पहले कई प्रजातियों को राजस्थान की एंडेमिक प्रजाति माना जाता है लेकिन समान जलवायु एवं आवासीय परिस्थितियों के कारण उनकी उपस्थिति अन्य भारतीय राज्यों एवं पाकिस्तान के कुछ सुदूर हिस्सों में होने की सम्भावना है। हमें राज्य की एंडेमिक प्रजातियों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए अधिक सटीक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है।
References
Ali, S. & S.D. Ripley
(1983): Handbook of the birds of India and Pakistan (Compact edition)
Ghosh, A.K., Q.H. Baqri
& I. Prakash (1996): Faunal diversity in the Thar Desert: Gaps in research.
Gupta, R. & I. Prakash
(1975): Environmental Analysis of the Thar Desert
Prakash, I (1963):
Zoogeography and evolution of the mammalian fauna of Rajasthan desert, India.
Mammalia, 27: 342-351
Sharma, S.K. (2014): Faunal
and Floral endemism in Rajasthan.
Sharma, S.K. (2015): Faunal
and floral in Rajasthan. Souvenir, 18th Birding fair, 30-31 January
2015, Man Sagar, Jaipur
साकेर फाल्कन, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाला सबसे बड़ा फाल्कन है। एक शिकारी के रूप में यह अपनी ताकत, शिकार करने के तरीके एवं तेज गति के कारण, सदियों से जाना जाता रहा है ।
नवीनतम विश्लेषण के आधार पर इसे IUCN की रेड सूची में लुप्तप्राय प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है जो इसकी संख्या में तेजी से गिरावट का संकेत देता है। आईयूसीएन के अनुसार यह मानवीय गतिविधियों जैसे बिजली लाइनों से करंट लगने, व्यापार के लिए पकड़ने, लगातार घटते पर्यावास और रासायनिक कीटनाशकों के कारण कम हो रहे हैं, यह गिरावट विशेष रूप से मध्य एशियाई प्रजनन मैदानों में अधिक देखी गयी है।
साकेर फाल्कन, बड़े आकार व भूरे रंग का फाल्कन होता हैं। हालांकि भारत में साकेर फाल्कन की कई उप-प्रजातियां हैं, परन्तु हमें 2 ही प्रकार देखने को मिलती हैं। लद्दाख में पायी जाने वाली आबादी को अक्सर अल्ताई साकेर के नाम से जाना जाता है, जिसका रंग गहरा भूरा व ऊपरी पंखो पर दामी रंग की पट्टियां होती हैं। वहीं थार रेगिस्तान में पाए जाने वाला साकेर, नाममात्र प्रवासी उप-प्रजातियां हैं और जो अल्ताई साकेर की तुलना में अधिक भूरे रंग की होती हैं।इस फाल्कन को गहरे रंग के ऊपरी भाग और हल्के रंग के अंदरूनी भाग से आसानी से पहचाना जा सकता है। वहीं बच्चो में अंदरूनी भाग पर भूरे रंग की धारिया तथा वयस्कों में भूरे रंग की बूंदों के निशान होते है। कई बार यह समान दिखने वाली अन्य प्रजातियों जैसे लगर फाल्कन और पेरेग्रीन फाल्कन के बच्चे जैसा प्रतीत होता है। परन्तु निम्नलिखित बातों का ध्यान रख कर इसकी पहचान की जा सकती है।
इसमें लगर और जुवेनाइल पेरेग्रीन फाल्कन की तुलना में कम moustachial stripe होती है।
लगर और जुवेनाइल पेरेग्रीन फाल्कन की तुलना में इसका शरीर अधिक भारी और पंख चौड़े होते हैं
जुवेनाइल पेरेग्रीन में सिर गहरे रंग, अंदरूनी भाग पर समान रूप से खड़ी धारियाँ, मलेर पट्टी और नुकीले व गहरे रंग के पंख होते हैं जबकि साकेर फाल्कन के सिर हल्का पीला व पेरेग्राइन की तुलना में थोड़ा भारी होता है तथा सिर पर गोल व मटमैले रंग के पंख होते हैं।
लगर फाल्कन समान रूप से गहरे भूरे रंग के होते हैं जिसमें पूंछ और ऊपरी पंखो में किसी भी प्रकार की धारियां नहीं होती है जबकि साकेर फाल्कन में पूंछ और ऊपरी पंखो पर धारियां होती हैं ।
भारत में, यह एक दुर्लभ पक्षी माना जाता है, जिसमें एक छोटी सी आबादी लद्दाख क्षेत्र तक सीमित है और कुछ प्रवासी पक्षी कभी-कभी हिमालय के आसपास भी देखने को मिलते हैं तथा गुजरात और राजस्थान के थार रेगिस्तान व इसके आसपास के क्षेत्रों में नियमित रूप से देखे जाते हैं।पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान में दिखे जाने की सूचनाएं
जोड़बीड़ – वयस्क मादा – श्री नीरव भट्ट (श्री हीरा पंजाबी द्वारा लगातार 3 सीजन 2014-15 तक देखा गया, 15-16 में श्री नीरव भट्ट द्वारा, 16-17 में श्री नीरव भट्ट द्वारा )
डेजर्ट नेशनल पार्क – वयस्क पक्षी – श्री हेमंत दांडेकर (नवंबर 2014 में केवल एक बार देखा गया)
जोड़बीड़ – जुवेनाइल पक्षी – श्री जे शाह को केवल एक बार जनवरी 2016 में दिखा।
सांभर झील – वयस्क नर को पीले पैर वाले हरे कबूतर के शिकार के साथ – श्री नीरव भट्ट (2019-20 में देखा गया)
साकेर फाल्कन शारीरिक रूप से खुले इलाके में जमीन के करीब शिकार करने के लिए अनुकूलित होते हैं, यह तेज गति व फूर्ति के साथ डेजर्ट जर्ड और बैंडिकूट जैसे मध्य-आकार के स्थलीय चूहों का शिकार करते हैं । हालाँकि वे लार्क से लेकर कबूतर जैसे छोटे से मध्यम आकार के पक्षियों का भी शिकार करते हैं।
साकेर फाल्कन शुष्क आवासों में जीवित रहने के लिए अनुकूलित है और किसी क्षेत्र में साकेर फाल्कन का मौजूद होना एक स्वस्थ रेगिस्तान पारिस्थितिकी तंत्र का संकेत होता है। जहां तक पक्षीविज्ञान का संबंध है, राज्य में ऐसी दुर्लभ प्रजाति के फाल्कन का बहुत महत्व है। थार रेगिस्तान के व्यापक अध्ययन से साकेर फाल्कन के दिखने की और सूचनाएं भी मिल सकती हैं।
Saker falcon is the largest falcon seen in the Indian Subcontinent. Due to its prowess as a hunter, it has been prized by humans for centuries, particularly by falconers.
Status
It has been uplisted in the IUCN Red List as Endangered because of the latest analysis which indicates rapid decline in the population. IUCN states “This negative trend is a result of a range of anthropogenic factors including electrocution on power lines, unsustainable capture for the falconry trade, as well as habitat degradation and the impacts of agrochemicals, and the rate of decline appears to be particularly severe in the species’s central Asian breeding grounds”
Identification
Saker Falcons are large brown coloured falcons. There are many subspecies of the Saker falcons however in India, we get to see 2 type of birds. The Ladakh population is often referred to as Altai Saker while which are dark brown coloured bird with rufous barring on the upperwings and the ones which we get to see in the Thar Desert are usually the nominate migratory subspecies which are relatively paler brown than the Altai Saker.
Saker falcon can be identified Dark upperparts and pale underparts with brown streaking in juvenile and tear drop markings in adults. It can be confused with similar looking species like Laggar Falcon and Juvenile Peregrine falcon. However by keen observation, following pointers can help in confirmation of the identification of saker.
It has relatively less prominent moustachial stripe in comparison to Laggar& juvenile Peregrine
It is more bulky and has broader body and wings in comparison to laggar and juvenile Peregrine
Juvenile Peregrine has dark head, uniform vertical streaking on the underparts, prominent malar strip and longer more pointed dark wings while the Saker has pale head, more heavier and slightly rounded paler wings in comparison to the Peregrine.
Laggar falcons are uniform dark brown usually with uniform unbarred tail and primaries while saker falcons have barred primaries and tail.
Distribution
In India, it is considered to be a rare bird with a small number of resident breeding population limited to Ladakh region and migratory birds seen ocassionally near the Himalayas and regularly in and around the Thar desert of Gujarat and Rajasthan.
Sightings in Rajasthan in last few years
Jodbeed – Adult female – Mr.Nirav Bhatt ( Seen for 3 consecutive seasons 2014-15 by Mr.Hira Punjabi, 15-16 by Mr.Nirav Bhatt, 16-17 by Nirav Bhatt
Desert National park – Adult bird – Mr.Hemant Dandekar (seen only once in Nov 2014)
Jodbeed – Juvenile bird – Mr.Jay Shah seen only once Jan 2016
Sambar Lake – Adult male with yellow footed green pigeon kill – Mr.Nirav Bhatt (Seen in 2019-20)
Prey
Sakers are physically adapted to hunting close to the ground in open terrain, combining rapid acceleration with high maneuverability, thus specializing on mid-sized diurnal terrestrial rodents like Desert Jird and Bandicoot. However they also predate on small to medium sized birds ranging from Larks to pigeons.
Importance
Saker falcons are adapted to survive in arid habitats and the sightings of Saker falcons in the area is an indicator of healthy desert ecosystem. Occurrence of such rare species of falcons in the state is of a great importance as far as ornithology is concerned. Extensive study of the thar desert can reveal more information of occurrence of more Saker falcons.
मगरमच्छ हमारे पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, परन्तु अब यह हमारे घरों में क्यों आ रहा है ? कही ऐसा तो नहीं हम ही इसके घर में चले गए हैं ? यह सब एक विस्तृत शोध का विषय है। यहाँ बी.बी.सी. न्यूज द्वारा प्रकाशित दिनांक 31.01.2019 की मुख्य पंक्ति मुझे याद आती है जिसमें माना गया है कीभारतीय लोग अपने गाँवों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं।
भारत में कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ पर अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष होते रहते है, इनमें महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में होकर बहने वाली कृष्णा एव इसकी सहायक नदी के किनारे बसे गाँवो से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें सुर्खियों में रहती हैं, राजस्थान से जाने वाली माही नदी जिसका विलय गुजरात की साबरमती नदी में होता है, के आसपास से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें दस्तक देती रहती हैं।
कोटा वासी भी अपने शहर के कुछ हिस्सों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं, कोटा बैराज के दायीं और बायीं ओर सिंचाई हेतु नहर है, बायीं नहर कोटा शहर के जिस क्षेत्र से गुजरती है वह क्षेत्र थोड़ी ऊंचाई पर होने के कारण वहां मगरमच्छ के संघर्ष कम होते हैं किन्तु दायीं नहर का क्षेत्र कोटा बैराज से नीचे होने के कारण यहाँ मानव का मगरमच्छ से संघर्ष ज्यादा होता है। पिछले कुछ वर्षो में कृषि भूमि पर जो कॉलोनियां विकसित हुई हैं जैसे थेकडा रोड़ पर बसी कालोनियाँ, नया नोहरा, नम्रता आवास, बजरंग नगर, शिव नगर आदि बोरखेड़ा क्षेत्र में बसी हुई कई कॉलोनियां मानव एवं मगरमच्छ के संघर्ष का केन्द्र बनी हुई हैं।
हम कोटा में मगरमच्छ से संघर्ष की बात करें और “चन्द्रलोई“ नदी का नाम न ले ऐसा नहीं हो सकता, कोटा क्षेत्र की मगरमच्छ की सबसे बड़ी आबादी इसी नदी व इसमें आकर मिलने वाले विभिन्न मलनलों में फलफूल रहीं हैं। यह नदी कोटा से लगभग 21 कि.मी. दूर मवासा से प्रारम्भ होकर मानस गाँव पहुंच कर चम्बल नदी में मिल जाती है इसी नदी में मिलने वाला एक बरसाती नाला है जो अब “मलनल“ हो गया है इसमें अब बरसात का पानी कम और “व्यवसायिक बहिःस्त्राव“ ज्यादा मिलता है जो सीधा चल्द्रलोई नदी में होकर चम्बल नदी में आकर विलय होता है, इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण वर्णित मलनल में जल का प्रदूषण इस स्तर तक बढ़ गया है की इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण मलनल में निवास करने वाले मगरमच्छों पर सफेद रंग के केमिकल की परत चढ़ गयी है और सभी मगरमच्छ सफेद हो गये हैं, कभी कभी हम किसी नये व्यक्ति से यह व्यंग्य कर देते हैं कि सफेद रंग के मगरमच्छ पूरे विश्व में सिर्फ यहीं पाये जाते हैं।
प्रदुषण के कारण मलनल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होने पर भी मगर के बने रहने से लगता है की कि प्रलय के उपरांत पृथ्वी पर मगरमच्छ आखिरी जीव होगा।
शोध में यह स्पष्ट हो चुका है कि चन्द्रलोई नदी का जल न तो पीने के लिए उपयुक्त है न ही खेती के लिए। ऐसे प्रदूषित जल में हम यदि मगरमच्छ के भोजन की बात करें तो यह कहना बहुत कठिन होगा के उसके भोजन की पूर्ति जलीय जीवों से हो जाती होगी और यही यहाँ मगरमच्छ का मानव से संघर्ष का कारण बनता है , मुझे अच्छे से ध्यान आता है कि जुलाई 19 में चन्द्रेसल मठ के नजदीक एक एनिकट पर नहाते हुये बालक मनीष भील को तीन मगरमच्छ खींच कर नदी में ले गए थे वहीं जुलाई 2018 में एक मगरमच्छ द्वारा अपने खेत में काम कर रहे नसरत उल्लहा खान (40) पर हमला कर दिया गया था किन्तु उनके साथी ने तत्परता दिखाते हुये मगरमच्छ पर कुल्हाडी से वार किये जिसके कारण मगरमच्छ को अपने शिकार को छोडने पर मजबूर होना पडा, इस हमले में नसरत उल्लाह खान गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। इस इलाके से गाय, बछडे, सुअर आदि पालतू या आवारा जानवर को मगरमच्छ द्वारा उठा ले जाने की घटनाऐं आम हैं, ऐसा प्रतीत होता है की यहाँ जल में भोजन की मात्रा कम होने के कारण, मगरमच्छ का मुख्य भोजन यही हो गया है।
उपरोक्त कठिन परिस्थितियों में भी वन मण्डल, कोटा के लाडपुरा रेंज की टीम और वन्यजीव मण्डल, कोटा के गश्तीदल की टीम सराहनीय कार्य कर रही है, उन्हें जहाँ कहीं से भी मगरमच्छ के रिहायशी इलाके में होने व मानव और मगरमच्छ के संघर्ष की सूचना मिलती है तो यह टीम तुरन्त वहाँ पहुँच कर मगरमच्छ को रेस्क्यू कर वापस प्राकृतिक निवास चम्बल नदी में व मुकन्दरा हिल्स टाइगर रिजर्व के सावन भादो डेम में छोड़ देती है।
मेरे द्वारा ऊपर कठिन परिस्थितियों शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि मगरमच्छ को रेस्क्यू करने वाले उपरोक्त दोनो मण्डल के कर्मचारी न तो मगरमच्छ रेस्क्यू के लिए प्रशिक्षित हैं और न ही उनके पास रेस्क्यू के लिए उपकरण उपलब्ध हैं।
मगरमच्छ रेस्क्यू के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद मैंने पाया कि विपरीत परिस्थिति में भी दोनो टीमों द्वारा वर्ष 2016 में 30, 2017 में 19, 2018 में 21, 2019 में 67 मगरमच्छ रेस्क्यू कर सुरक्षित स्थान पर छोड़े गए, वहीं 2016 में 1, 2017 में 1, 2018 में 1, 2019 में 6 मगरमच्छ मृत पाये गए। वर्ष 2019 में मगरमच्छ रेस्क्यू व मृत्यु की संख्या में वृद्वि भविष्य में मानव और “मगर“ बीच संघर्ष का जोखिम तो नहीं बढ़ा देंगी?
कोटा शहर और चन्द्रलोई नदी में मानव से “मगर“ का संघर्ष खत्म हो जाएगा, यह तो कहना बहुत कठिन है किन्तु हम यह प्रयास तो कर ही सकते हैं कि चन्द्रलोई नदी में जल प्रदूषण शून्य हो जाए जिससे मगरमच्छ को जल में भोजन उपलब्ध हो और भोजन के लिए “मगर“ को मानव के साथ संघर्ष न करना पडे़।
बरगद का राजस्थान में बहुत सम्मान होता है। बरगद को राजस्थान में बड़, बड़ला, वड़ला आदि स्थानीय नामों से जाना जाता है। आमतौर पर बरगद को राज्य में संरक्षित वृक्ष का दर्जा प्राप्त है। विशाल व गहरी छाया प्रदान करने से राज्य में सभी जगह इसे उगाने-बचाने के प्रयास होते रहते हैं। बरगद फाईकस वंश का वृक्ष है। बरगद एवं इसके वंश ‘‘फाईकस’’ की राजस्थान से जुड़ी अच्छी जानकारी एलमिडा(1), मेहता(2), सुधाकर एवं साथी (3), शेट्टी एवं पाण्डे (4), शेट्टी एवं सिंह(5), शर्मा एवं त्यागी (6) एवं शर्मा (7) से मिलती है। लेकिन उक्त संदर्भों में मादड़ी गांव में विद्यमान राजस्थान के सबसे विशाल बरगद वृक्ष के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले की झाड़ोल तहसील के मादड़ी गाँव में राजस्थान राज्य का सबसे विशाल आकार-प्रकार का एवं सम्भवतः सबसे अधिक आयु वाला भी बरगद वृक्ष विद्यमान है। इस बरगद को देखने हेतु उदयपुर-झाड़ोल सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए झाड़ोल से 10 किमी. पहले एवं उदयपुर से 40 किमी. दूर पालियाखेड़ा गाँव से आगे लगभग 25 किमी. दूर स्थित मादड़ी गाँव पहुँचना पड़ता है। मादड़ी से खाटी-कमदी गाँव जाने वाली सड़क के किनारे (गाँव के पूर्व-दक्षिण छोर पर) यह बरगद विद्यमान है। इस बरगद के नीचे एक हनुमान मंदिर स्थित होने से इसे स्थानीय लोग ‘‘हनुमान वड़ला’’ कहते है। स्थानीय जनमानस का कहना है कि इस वृक्ष की आयु लगभग 600 वर्ष है।
दक्षिणी राजस्थान में बरगद, पीपल, खजूर, महुआ, आम, जोगन बेल आदि सामाजिक रूप से संरक्षित या अर्द्ध-संरक्षित प्रजातियाँ हैं। संरक्षण के कारण इन प्रजातियों के वृक्ष/लतायें दशकों एवं शताब्दियों तक सुरक्षा पाने से विशाल आकार के हो जाते हैं एवं कई बार एक प्रसिद्ध भूमि चिन्ह बन जाते हैं। जाड़ा पीपला (बड़ा पीपल), आड़ा हल्दू (तिरछा गिरा हुआ हल्दू), जाड़ी रोहण (बड़े आकार की रोहण,) खाटी कमदी (खट्टे फल वाला जंगली करौंदा) आदि हाँलाकि संभाग में गांवों के नाम हैं लेकिन ये नाम वनस्पतियों एवं उनके कुछ विशेष आकार-प्रकार व गुणों पर आधारित हैं। मादड़ी गाँव का ‘‘हनुमान वड़ला’’ भी एक सुस्थापित भूमि चिन्ह है तथा स्थानीय लोग विभिन्न गाँवों व जगहों तक पहुँचने का उनका रास्ता ढूँढ़ने व बताने में इस भूमि चिन्ह का उपयोग करते हैं।
मादड़ी गाँव के बरगद में कई विशेषतायें देखी गई हैं। इस बरगद में शाखाओं से निकलकर लटकने वाली प्रोप मूल के बराबर हैं। पूरे वृक्ष की केवल एक शाखा से एक प्रोप मूल सीधी नीचे आकर भूमि से सम्पर्क कर खम्बे जैसी बनी है। इस जड़ का 2015 में व्यास 15.0 से.मी. तथा ऊँचाई लगभग 3.0 मी. की थी। यह जड़ भूमि पर गिरी शाखा क्रमांक 4/2 से निकली हैं (चित्र-1) । इस जड़ के अलावा कुछ शाखाओं में बहुत पतली-पतली हवाई जड़ें निकली है जो हवा में ही लटकी हुई हैं तथा वर्ष 2016 तक भी भूमि के सम्पर्क में नहीं आई हैं।
चूँकि मादड़ी गाँव के बरगद में हवाई जड़ों का अभाव है अतः क्षैतिज दिशा में लम्बी बढ़ती शाखाओं को सहारा नहीं मिला । फलतः शाखाओं की लकड़ी, पत्तियों एवं फलों के वजन ने उन पर भारी दबाव डाला । इस दबाव एवं सम्भवतः किसी तूफान के मिले-जुले कारण से चारों तरफ बढ़ रही विशाल शाखाएँ टूट कर भूमि पर गिर गई होंगी। यह भी हो सकता है कि मुख्य तने में सड़न होने से ऐसा हुआ होगा । लेकिन यह तय है कि जब शाखायें टूट कर गिरी होंगी वह वर्षा ऋतु या उसके आसपास का समय रहा होगा । क्योंकि यदि गर्मी या सर्दी के मौसम में ये शाखायें टूटती तो ये सब पानी के अभाव में सूख जाती । वर्षा ऋतु में टूट कर भूमि पर गिरने से, गीली भूमि में जहाँ-जहाँ ये छूई, वहाँ-वहाँ जड़ें निकलकर भूमि के सम्पर्क में आ गई । चूंकि वर्षा में हवा की उच्च आद्रता होती है अतः आद्रता ने भी टूटी शाखाओं को निर्जलीकृत होने से बचाने में मदद की । पुख्ता सूचनायें हैं कि ये शाखायें सन 1900 से पूर्व टूटी हैं। 80 वर्ष के बुजुर्ग बताते हैं कि वे बचपन से इन्हें ऐसे ही देख रहे हैं। यह घटना सम्भवतः बहुत पहले हुई होगी क्योंकि मुख्य तने से नीचे गिरी शाखाओं के वर्तमान आधार (निचला छोर) की दूरी 24.0 मी. या इससे भी अधिक है। यानी तने व नीचे गिरी शाखा के आधार के बीच 24.0 मी. तक का बड़ा अन्तराल है। यह अन्तराल टूटे छोर की तरफ से धीरे-धीरे सड़न प्रक्रिया जारी रहने से प्रकट हुआ है। टूटी गिरी शाखाओं के आधार सूखने से कुछ सिकुड़े हुए, खुरदरे, छाल विहीन होकर धीमी गति से सड़ रहे हैं। वर्षा में इनमें सड़ान प्रक्रिया तेज हो जाती है। यानी शाखाएं निचले छोर पर सड़ती जा रही है एवं उपरी छोर पर वृद्धि कर आगे बढ़ती जा रही हैं। नीचे गिरी शाखायें अपनी पूरी लम्बाई में जीवित नहीं है। उनके आधार का टूटे छोर की तरफ कुछ भाग मृत है तथा कुछ आगे जाकर जीवित भाग प्रारम्भ होता है।
वर्ष 1992 में इस बरगद की भूमि पर विभिन्न आकार की गिरी हुई कुल शाखाओं की संख्या 12 थी । इन शाखाओं में कुछ-कुछ द्विविभाजन जैसा नजर आता है जो अब भी विद्यमान है। ये शाखायें अरीय विन्यास में मुख्य तने से अलग होकर चारों तरफ त्रिज्याओं पर भूमि पर पड़ी हैं। क्षैतिज पड़ी शाखायें भूमि को छूने के उपरान्ह प्रकाश की चाह में उपर उठी हैं लेकिन वजन से फिर नीचे की तरफ झुककर भूमि को छू गई हैं। छूने के उपरान्त फिर प्रकाश की तरफ ऊँची उठी हैं। कई शाखायें तो दो बार तक भूमि को छू चुकी हैं। यानी शाखाएं ‘‘उपर उठने, फिर भूमि को छू जाने, फिर उठने, फिर भूमि को छू जाने’’ का व्यवहार कर रेंगती सी बाहर की तरफ वृद्धि कर रही हैं। भूमि को छू कर ऊपर उठने से दो छूने के बिन्दुओं के बीच तना ‘‘कोन ’’ जैसा नजर आता है। जब शाखायें भूमि पर गिरी थी, वह लम्बाई अपेक्षाकृत अधिक सीधी थी लेकिन भूमि पर गिरने के बाद की लम्बाई ‘‘जिग-जैग‘‘ है जो शाखाओं के झुकने व पुनः उठने से प्रकट हुआ है। भूमि पर शाखाओं का फैलाव उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 117 मी. एवं पूर्व-पश्चिम दिशा में लगभग 111 मी. है । इस तरह औसत व्यास 114 मी. होने से छत्र फैलाव लगभग 1.02 हैक्टर है।
बरगद की नीचे पड़ी टहनियों के बीच से एक पगडंडी मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ नामक जगह जा रही है । इस पगडंडी के पास से उत्तरी छोर की पहली टहनी को क्रम संख्या 1 देते हुए आगे बढ़ते हैं तो भूमि पर कुल 12 शाखायें पड़ी हैं (चित्र-1)। क्रमांक 4 व 7 की शाखायें जोड़े में हैं। जिनको चित्र 1 में क्रमशः 4/1, 4/2, 7/1 व 7/2 क्रमांक दिया गया है। इनके नीचे के हिस्से को सड़ते हुए दुफंक बिन्दु को छू जाने से ऐसा हुआ है। शाखा क्रमांक 5 व 6 सम्भवतः शाखा क्रमांक 4 की उपशाखा 4/2 से अलग होकर बनी हैं। शाखा 4/2 में एक दुफंके से जुड़ा एक सड़ता हुआ ठूँठ ठ1 है जिसका घेरा 54 सेमी. है। इससे कुछ मीटर दूर शाखा क्रमांक 6 भूमि पर पड़ी है जिसके प्रथम छोर से जड़ें निकलकर भूमि में घुसी हुई हैं। प्रकृति में यह देखने को मिलता है कि शाखाओं का व्यास नीचे से ऊपर की तरफ क्रमशः घटता जाता है। अतः उसकी परिधि भी घटती है लेकिन इस सिद्धान्त का इस बरगद में उल्लंघन हुआ है। इसी तरह क्रमांक 5 शाखा भी शाखा 4/2 की पुत्री शाखा है। भविष्य में सड़ाने के कारण अनेक पुत्री शाखायें अपनी मातृ शाखाओं से अलग हो जायेंगी। मुख्य तने पर एकदम सटकर चारों तरफ से लटकती प्रोप जड़ें आपस में व तने से चिपक गई है एवं वास्तविक तना अब दिखाई नहीं देता है। चिपकी मूलों सहित तने का घेरा 21.0 मी. है जिसे 12 व्यक्ति बांह फैलाकर घेर पाते हैं। तने पर अभी 5 शाखायें और विद्यमान हैं जो हवा में फैलकर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। यह भी यहां दर्शनीय है कि तने से एकदम सटकर तो प्रोप मूल पैदा हुई हैं लेकिन वे आगे शाखाओं पर पैदा नहीं हुई हैं ।
इस बरगद को सुरक्षा देने हेतु ग्राम पंचायत ने परिधि पर वृत्ताकार घेरा बनाते हुए लगभग 1.5 मी. ऊँची पक्की दिवार बना दी है। मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ को जाने वाला सीमेन्ट – कंक्रीट रोड़ बरगद के नीचे से निकला है तथा प्रवेश व निकास पर लोहे का फाटक लगाया है। एक फाटक पश्चिम दिशा में भी लगाया है। बरगद हल्के ढाल वाले क्षेत्र में स्थित है। आसपास की भूमि का ढाल पश्चिम से पूर्व दिशा में होने से पानी भराव को बाहर निकालने हेतु पूर्व दिशा में दिवार में एक ‘‘मोरा’’ भी छोड़ा गया है। पंचायत ने यहाँ कई अन्य भवन भी बना दिये है ।
पंचायत ने जो पक्की दिवार बनाई है उस घेरे के अन्दर 10 शाखायें है तथा 2 शाखायें जो पश्चिम दिशा में है, पक्की दिवार के बाहर हैं । एक शाखा क्रमांक 10 पूरी तरह बाहर है तथा क्रं.11 का अशाखित हिस्सा अन्दर है तथा शाखित हिस्सा दिवार के बाहर है। यहां तने को दिवार में रखते हुए चिनाई की गई है (चित्र 1) ।
दिन व रात
फाटक खुले होने
से बच्चे दिनभर
नीचे गिरी शाखाओं
पर खेलते रहते
हैं एवं पत्तियों
व टहनियों को
तोड़ते रहते हैं।
शाखाओं के अन्तिम
छोरों को आगे बढ़ने से
रोकने हेतु चारों
तरफ के खेत मालिकों ने जगह-जगह उनको
काट दिया है।
इससे आगे बढ़ते
छोर रूक गये है एवं
सड़न का शिकार
होने लगे हैं।
यदि इस बरगद को पूर्व
से सुरक्षा मिली
होती तो यह और विशाल
हो गया होता
।
भूमि पर पड़ी शाखाओं में वृद्धि प्रकार
आमतौर पर प्रकृति में शाखाओं का व्यास धीरे-धीरे घटता जाता है लेकिन भूमि पर पड़ी शाखाओं में द्वितीयक वृद्धि अलग तरह से हुई है। यदि एक शाखा भूमि को दो जगह छुई है, तो छूने के बिन्दु पर या तुरन्त बाद जो शाखायें उर्ध्व दिशा में बढ़ी हैं उन शाखाओं में अत्यधिक मोटाई है। लेकिन छूने के दोनों बिन्दुओं के बीच अगले छूने के बिन्दु से पहले शाखा की मोटाई काफी कम है।
सड़न प्रक्रिया
भूमि पर पड़ी शाखायें अपने निचले छोर पर सड़न से ग्रसित हैं । यह सड़न वहाँ पहुँच कर रूकती है जहाँ पर तने ने जड़ें निकालकर भूमि से सम्पर्क कर लिया है। यह भी देखा गया है कि वे क्षैतिज शाखायें जिनकी कोई उपशाखा भूमि क्षरण से आ रही मिट्टी के नीचे आंशिक या पूरी तरह दूर तक दब गई हैं, वे सड़न का शिकार हो गई लेकिन जिन्होंने हवा में रहते हुये भूमि को छुआ है वे सड़ने से बच गई हैं । वैसे तो शाखाओं में सड़न आमतौर पर नीचे से उपर की तरफ बढ़ रही है । जैसे ही किसी शाखा में सड़न दुफंक बिन्दु पर पहुंचती है, वह दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। यह क्रम आगे से आगे चलता रहता है । अधिकांश शाखाओं में सड़न नीचे से ऊपर तो चल रही है, लेकिन कुछ में अचानक आगे कहीं बीच में भी सड़न प्रारम्भ हो रही है। जिससे सड़न बिन्दु के दोनों तरफ जीवित भाग विद्वमान है। सड़न की प्रक्रिया आगे बढ़ने से शाखा का बीच का हिस्सा गायब दिख रहा है। यहां सड़न नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे दोनों दिशाओं में जा रही है । सड़ने की प्रक्रिया से अनुमान है कि प्रथम बार जब शाखाएं भूमि पर गिरी थी, उनकी संख्या और भी कम रही होगी तथा आने वाले दशकों में सड़न प्रक्रिया के जारी रहने से शाखाओं की संख्या बढ़ती रहेगी ।
मादड़ी गांव के बरगद का महत्त्व
चूँकि यह राज्य का सबसे विशाल बरगद है अतः परिस्थितिकीय पर्यटन की यहाँ बड़ी संभावना है। इस बरगद से मात्र 3 किमी. दूर जोगन बेल दर्रा नामक जगह में राज्य की सबसे बड़े आकार की जोगन बेल भी स्थित है । अतः फुलवारी की नाल अभयारण्य जाने वाले पर्यटकों को यहाँ भी आकर्षित किया जा सकता है। इससे न केवल ग्राम पंचायत को आय अर्जित होगी अपितु स्थानीय लोगो को रोजगार भी मिलेगा साथ ही प्रकृति संरक्षण मुहिम को भी बल मिलेगा ।
मादड़ी गांव के बरगद को संरक्षित करने हेतुु सुझाव
पक्की दीवार को हटाकर मूल स्वरूप लगाया जावे एवं चेन लिंक फेंसिंग की जावे।जो शाखा चिनाई में आ गई है उसको स्वतंत्र किया जाना जरूरी है।
कोई भी शाखा फेंसिंग से बाहर नहीं छोड़ी जावें।
बरगद में चढ़ने, झूला डालने, पत्ते तोड़ने, शाखा काटने, नीचे व आसपास मिट्टी खुदाई करने आदि की मनाही की जानी चाहिये।
बरगद की नीचे सड़क पर आवागमन रोका जावे।लोगों को आने-जाने हेतु वैकल्पिक मार्ग दे दिया जावे।
चारों तरफ के खेतों की भूमि का अधिग्रहण किया जावे एवं बरगद शाखाओं को आगे बढ़ने दिया जावें या लोगों का सहयोग लिया जावे कि उनके खेत की तरफ बढ़ने पर बरगद को नुकसान न पहुँचावें। खेती को हुए नुकसान की भरपाई किसानों को मुआवजा देकर किया जा सकता है।
जिन छोरों पर सड़न जारी है उनका कवकनाशी से उपचार कर कोलतार पोता जावे। इसे कुछ अन्तराल पर दोहराते रहना जरूरी है।
इस बरगद के पास विद्युत लाईन, टावर, बहुमंजिला इमारत आदि नहीं होनी चाहियें। आसपास कोई अग्नि दुर्घटना भी नहीं होने देने की व्यवस्था की जावे।
इसके आसपास भूमि उपयोग पैटर्न को बदला नहीं जावे।
उचित प्रचार‘-प्रसार, जन जागरण निरन्तर होना चाहिये।वृक्ष की जैवमिती की जानकारी देते हुये बोर्ड प्रदर्शित किया जावे।
प्रबन्धन राज्य वन विभाग व पर्यटन विभाग को सौंप दिया जाना चाहिये। लेकिन पंचायत के हितों की सुरक्षा की जानी चाहिये।