टिड्डी या लोकस्ट: दुनिया का सबसे पुराना प्रवासी कीट

टिड्डी या लोकस्ट: दुनिया का सबसे पुराना प्रवासी कीट

टिड्डी दल का आगमन आम तो बिल्कुल नहीं है, वे एक क्रम का पालन करते हुए आते हैं। पहले, एक काफी छोटा झुंड मानो उन्हें भूमि का सर्वेक्षण करने के लिए भेजा गया हो। और फिर आती है एक ऐसी लहर जिसका सिर्फ एक उद्देश्य – दुनिया से हरियाली खत्म करने का…

कीट दुनिया में मानव जाति की तुलना में काफी पहले से मौजूद रहे हैं। जमीन के नीचे से लेकर पहाड़ी कि चोटी तक सर्वव्यापी कीट मनुष्य के जीवन से बहुत हद जुड़े हुए हैं। कुछ उपयोगी हैं तो कुछ अत्यधिक हानिकारक हैं। इन्हीं हानिकारक कीटों में शामिल हैं रेगीस्तानी टिड्डे (डेजर्ट लोकस्ट) जो मनुष्य के लिए चुनौतियों कि पराकाष्ठा रचते हैं। एफएओ के अनुसार ये दुनिया की दस फीसदी आबादी की ज़िंदगी को प्रभावित करते हैं जिससे इन्हें दुनिया का सबसे खतरनाक कीट भी कहा जाता है। इनसे उत्पन्न चुनौतियाँ नई भी नहीं है, वे आदि काल से मानव जाति के लिए संकट साबित होते रहे हैं।

औसतन हर छह वर्षों में एक बार जरूर आते हैं, और ऐसे आते हैं मानो जैसे मनुष्यों का अंत करके ही जाएंगे। वे घरों पर पूरी तरह छा जाते हैं, खिड़कियों पर झूलते हैं, गुजरती गाड़ियों से टकराते हैं और ऐसे काम करते हैं जैसे कि उन्हें सिर्फ विनाश के ही लिए भेजा गया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये अत्यधिक गतिशील झुंड में मॉरीतानिया (Mauritania) से भारत और तुर्कमेनिस्तान से तंजानिया तक एक विशाल क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जिसके कारण इन देशों में रहने वाले लोग बुरी तरह से फसलों के नुकसान को झेलते हैं। विश्व बैंक सहित कई विकास एजेंसियों ने प्रभावित देशों को इनके नियंत्रण में सहायता की है, पर स्थिति में कुछ बदलाव नहीं आया है, क्योंकि इनके आने का कोई निश्चित समय नहीं है। ये अनियमित अंतराल पर तो कभी-कभी कई वर्षों के अंतराल के बाद दिखाई देते हैं। इस अनियमितता को टिड्डी गतिविधि की आवधिकता (periodicity) कहा जाता है। जिसके 1812 के बाद से भारत में कम से कम 15 चक्र दर्ज किए गए हैं। पिछले साठ वर्षों में रेगिस्तानी टिड्डे कि दो बड़ी लहरें (1968, 1993) देखने को मिली है और ये लगातार आज भी अनियमित अंतराल पर आते हैं और एक महामारी बनकर उभरते हैं।

वर्ष 2020, मानव जाति के लिए अब तक काफी चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है। जहां एक ओर पूरी दुनिया नॉवेल कोरोनोवायरस महामारी से लड़ रही है और इसके प्रसार को रोकने के लिए ज़िंदगियाँ समेट अपने घरों में बंद है, तो वही दूसरी ओर कुछ अफ्रीकी और एशियाई देशों में प्रकृति ने टिड्डियों के झुंड (लोकस्ट स्वॉर्म) के रूप में एक नया खतरा पैदा किया है। ये टिड्डियाँ एक बार फिर अपने विकराल रूप में हमारे सामने हैं और फसलों पर कहर बरपा रहे हैं। इस बार इनके आगमन के अलग-अलग कारण बताए जा रहे हैं, कोई बदलते भूमि स्वरूप को कारण बता रहा, तो कोई रेगिस्तानी क्षेत्रों में बढ़ी हरियाली, वही कुछ ऐसे भी हैं जो पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कारण बता रहे हैं। इनके आगमन के बारे में जानने से पहले लोकस्ट से संक्षिप्त में परिचित हो लेते हैं।

लोकस्ट एक्रीडिडे (Acrididae) परिवार से छोटी सींग वाले टिड्डे (short-horned grasshopper) की कुछ प्रजातियों के झुंड बनाने कि अवस्था (स्वार्मिंग फेज) है। लोकस्ट और ग्रासहॉपर की प्रजातियों के बीच कोई टैक्सोनोमिक अंतर नहीं है, ये ग्रासहॉपर कि तरह ही दिखते हैं लेकिन व्यवहार में उनसे बिल्कुल अलग होते हैं। ग्रासहॉपर कृषि भूमि पर पाए जाते हैं जबकि लोकस्ट रेगिस्तानी और शुष्क परिस्थितियों में पाए जाते हैं। ग्रासहॉपर में कोई रूपात्मक बदलाव देखने को नहीं मिलता जबकि लोकस्ट के नब्बे दिनों के जीवनकाल में कई बदलाव देखने को मिलते हैं।

लोकस्ट दुनिया का सबसे पुराना एवं अत्यधिक विनाश क्षमता के कारण ध्यानाकर्षी प्रवासी कीट है। लोकस्ट मुख्यतः ग्रासहॉपर ही होते हैं जो सूखे घास के मैदान और रेगिस्तानी इलाकों में अत्यधिक पाए जाते हैं। आमतौर पर लोग ग्रासहॉपर (long-horned grasshopper) को भी लोकस्ट समझ बैठते हैं क्यूँकि ग्रासहॉपर भी गर्मियों कि अनुकूल परिस्थितियों में प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और एक सीमित क्षेत्र में फसलें नष्ट करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये टिड्डे आमतौर पर एकान्त वासी होते हैं लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में फेनोटाइपिक बदलाव (phenotypic shift) के कारण संख्या बढ़ने पर व्यवहार में कुछ बदलाव (phase change) के साथ ये झुण्ड में रहना (ग्रीगेरियस) और प्रवासी व्यवहार (migratory behaviour) का प्रदर्शन करने लगते हैं। बस इसी आधार पर इनको परिभाषित किया गया है। इस परिवर्तन को तकनीकी भाषा में “घनत्व-निर्भर फेनोटाइपिक प्लास्टिसिटी” (density-dependent phenotypic plasticity) कहा जाता है।

पहली बार बोरिस उवरोव (Boris Uvarov) ने अपरिपक्व टिड्डे (immature hopper) के झुंड में रहने वाले हॉपर के रूप में विकसित होने को फेज पॉलीमोरफिसम बताते हुए इनके दो चरणों (phases) कि व्याख्या की, पहला सॉलिटेरिया (solitaria) और दूसरा ग्रेगारिया (gregaria)। इन्हें वैधानिक (statary) और प्रवासी रूप (morphs) के रूप में भी जाना जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एकान्तवासी टिड्डे शुष्क मौसम के दौरान सीमित क्षेत्र में बचे पेड़-पौधों के कारण एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं। पीछे के पैरो की बढ़ती स्पर्श उत्तेजना से सेरोटोनिन के स्तर में वृद्धि होती है जो कि टिड्डे का रंग बदलने, अधिक खाने, और आसानी से प्रजनन करने का कारण बनता है। टिड्डियों का प्रजनन रेगीस्तानी इलाकों में होता है और अक्सर वनों, कृषि क्षेत्रों और देहाती आजीविका के साथ मेल खाता है। टिड्डियों के लिए कूल तीन प्रजनन के मौसम होते हैं (i) विन्टर ब्रीडिंग [नवंबर से दिसंबर], (ii) स्प्रिंग ब्रीडिंग [जनवरी से जून] और (iii) समर ब्रीडिंग [जुलाई से अक्टूबर]। भारत में टिड्डी प्रजनन का केवल एक मौसम, समर ब्रीडिंग, देखने को मिलता है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में स्प्रिंग और समर ब्रीडिंग दोनों हैं।

टिड्डियों का जीवन चक्र तीन अलग-अलग चरण होते हैं, अंडा, हॉपर और वयस्क। टिड्डियाँ नम रेतीली मिट्टी में 10 सेन्टमीटर कि गहराई पर अंडे देती हैं। ग्रेगेरीअस मादाएँ आमतौर पर 2-3 बीजकोष (pods) में अंडे देती हैं जिसके एक पॉड में 60-80 अंडे होते हैं। सॉलिटेरियस मादा ज्यादातर 3-4 बीजकोष में औसतन 150-200 अंडे देती है। अंडों के विकास की दर मिट्टी की नमी और तापमान पर निर्भर करता है। 15°C से नीचे कोई विकास नहीं होता है। ऊष्मायन अवधि (incubation period) इष्टतम तापमान (Optimum temperature) 32-35 डिग्री सेल्सियस के बीच 10-12 दिन का होता है।

दुनिया भर में ग्रासहॉपर कि लगभग 28500 प्रजातियाँ हैं जिनमें से मात्र 500 ऐग्रिकल्चरल पेस्ट के रूप में मौजूद है और केवल 20 ही ऐसे हैं जो लोकस्ट बनने कि क्षमता रखते हैं। भारत में मुख्य तौर से चार प्रजातियां, रेगिस्तानी टिड्डा या डेसर्ट लोकस्ट (Schistocerca gregaria), अफ्रीकी प्रव्राजक टिड्डा या अफ्रीकन माइग्रटोरी लोकस्ट (Locusta migratoria), बम्बई टिड्डा या बॉम्बे लोकस्ट (Patanga succincta) और वृक्षीय टिड्डा या ट्री लोकस्ट (Anacridium spp.) सक्रिय रहती हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऊष्मायन पूरा होने के बाद अंडे हैच होते हैं और निम्फ (युवा) बाहर आते हैं जिन्हें “हॉपर” कहा जाता है। ग्रीगेरियस चरण में 5 इंस्टार और सॉलीटेरियस आबादी में 5-6 इंस्टार होते हैं। प्रत्येक इंस्टार में एक अलग वृद्धि और विशेष रंग का परिवर्तन होता है। हॉपर का विकास दर तापमान पर निर्भर करता है। जहां 37°C के औसत तापमान पर 22 दिन लगते हैं तो वही 22°C के औसत तापमान पर 70 दिनों तक कि देरी हो सकती है।

पाँचवी इन्स्टार अवस्था के बाद हॉप्पर वयस्क हो जाते है। इस परिवर्तन को ‘फलेजिन्ग’ कहा जाता है और युवा वयस्क को ‘फलेजलिङ्ग’ या ‘अपरिपक्व वयस्क’ कहा जाता है।  यौन परिपक्वता की अवधि भिन्न होती है। उपयुक्त स्थिति में वयस्क 3 सप्ताह में परिपक्व हो सकता है और ठंढे और / या सूखे कि स्थिति में 8 महीने का समय लग सकता है। इस चरण के दौरान वयस्क अनुकूल प्रजनन स्थिति की खोज के लिए उड़ान भरते हैं और हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इस दौरान अगर किसी भी समय अनुकूल परिस्थितियाँ मिले तो वे ग्रेगेरीअस हो सकते हैं।

युवा अवयस्क टिड्डे हैचिंग के समय एकान्तवासी होते है और अपने परिवेश के साथ फिट होने के लिए हरे और भूरे रंग के होते हैं। जब भोजन बहुतायत में होता है तो डेसर्ट लोकस्ट प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और “ग्रेगेरीअस अवस्था” प्राप्त करते हैं। युवा अपरिपक्व वयस्क रंग में गुलाबी होते हैं जबकि पुराने वयस्क ठंड की स्थिति में गहरे लाल या भूरे रंग के हो जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

जैसे-जैसे वे बड़े और सघन होते जाते हैं वे एक समूह के रूप में कार्य करते हुए व्यावहारिक बदलाव के साथ उड़ने वाला झुंड बनाते हैं जिसे स्वॉर्म कहते हैं। टिड्डे के झुंड के रूप में परिवर्तन चार घंटे की अवधि में प्रति मिनट कई संपर्कों से प्रेरित होता है। हजारों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले एक बड़े झुंड में अरबों टिड्डे हो सकते हैं, जिनकी आबादी लगभग 80 मिलियन प्रति वर्ग किलोमीटर होती है। इस बिंदु पर टिड्डे पूरी तरह से परिपक्व और वयस्क होते हैं। परिपक्वता पर वयस्क चमकीले पीले हो जाते हैं। नर मादा से पहले परिपक्व होते हैं। टिड्डों के व्यवहार और शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन प्रतिवर्ती होते हैं जिससे अंत में अपने मूल रूप में बदल सकते हैं या अपनी संतानों को पारित कर सकते हैं।

लगभग तीन महीने के प्रजनन चक्र के बाद टिड्डे एक अंडे से वयस्क होते हैं और संख्या में 20 गुना वृद्धि ला सकते हैं। यह छह महीने के बाद 400 गुना और नौ महीने के बाद 8,000 तक बढ़ सकता है। ये हजारों लाखों के झुण्ड में आकर पेड़ों, पौधों या फसलों के पत्ते, फूल, फल, बीज, छाल और फुनगियाँ सभी खा जाते हैं। ये इतनी संख्या में पेड़ों पर बैठते हैं कि उनके भार से पेड़ टूट तक सकता है। एक टिड्डा अपने वज़न के बराबर भोजन चट करता है यानी कम से कम दो ग्राम। उड़ते बैंड के टिड्डे भोजन कि कमी के दौरान एक-दूसरों को काटते हुए नरभक्षी क्रिया को भी दर्शाते हैं। रेगिस्तानी टिड्डियों में माइग्रैशन उनकी इस नरभक्षी क्रिया से प्रभावित होता है। सेपीदेह बज़ाज़ी  द्वारा किये शोध से पता चलता है कि टिड्डे के झुंड इसलिए बनते हैं क्योंकि वे अपने नरभक्षी पड़ोसी से खुद को बचाने के लिए एक कदम आगे रहना पसंद करते हैं।

टिड्डियों के स्वॉर्म के रूप में आगमन के लिए पूरी तरह से किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इनके आगमन के पीछे एक प्राकृतिक क्रम है जिसका ये पालन करते हैं। हां, लैंड यूज पैटर्न में बदलाव, बढ़ते तापमान और हरियाली आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसी प्राकृतिक क्रम में एक निश्चित काल पर। जैसे कि अंडे हैच होने के लिए उपयुक्त तापमान और नमी कि जरूरत, निम्फ्स को वयस्क होने के लिए भोजन के तौर पर हरियाली आदि कि जरूरत। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

टिड्डी दल के आगमन का जैविक सिद्धांत डॉ एस प्रधान द्वारा वर्ष 1967 में दिया गया था, जो उस समय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में एंटोमोलॉजी के प्रमुख थे। सिद्धांत के अनुसार टिड्डे अर्ध रेगिस्तानी इलाकों में प्रजनन करते हैं जहाँ 15 सेंटीमीटर की गहराई तक अंडे देने के लिए रेतीली मिट्टी उपयुक्त होती है। टिड्डे इन क्षेत्रों के भीषण वातावरण को सहने में सक्षम होते है, जबकि उनके शिकारी, जैसे कि छिपकली, सांप, पक्षी, छछूंदर, हेजहॉग, मोल्स आदि को रेगिस्तान और अर्ध रेगिस्तान की भीषण स्थितियों का सामना करने में मुश्किल आती है और इसलिए वे धीरे-धीरे भीषण क्षेत्रों कि परिधि पर अधिक सहिष्णु क्षेत्र कि ओर चले जाते हैं।

लेकिन रेगिस्तानी इलाकों में एक या दो दशक में एक बार पर्याप्त वर्षा होती है, जिससे सेज (sedge) घास और अन्य खरपतवारों का विकास होता है और टिड्डों को अपनी पूर्ण जैविक क्षमता के बराबर भोजन मिलता है। शिकारी जीव जो भीषण परिस्थितियों के कारण इनके प्रजनन क्षेत्र से बाहर परिधि कि तरफ चले गए थे, स्थिति सामान्य होने पर टिड्डियों कि आबादी को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त तेजी लौट नहीं पाते। इनकी आबादी शिकारियों की अनुपस्थिति में बहुत तेजी से बढ़ती है। प्राकृतिक दुश्मनों द्वारा अनियंत्रित, टिड्डी एकान्त चरण से प्रवासी चरण की ओर बढ़ती है और बड़े स्वॉर्म में विकसित होती है और अंत में प्रजनन के क्षेत्रों से बाहर निकलती है, जिससे भारी विनाश होता है। लोकस्ट स्वॉर्म के मरुस्थलीय क्षेत्रों से बाहर निकलने के बाद कुछ वयस्क और निम्फ की बिखरी हुई आबादी जो पीछे रह जाती है, सहिष्णु पर्यावरणीय परिस्थितियों के दूसरे चरण के आगमन तक एकान्तवासी चरण के रूप में मॉरिटानिया और भारत के बीच रेगिस्तान में हमेशा मौजूद रहते हैं।

ग्रासहॉपर दुनिया भर के चरागाह पारिस्थितिक तंत्र के प्रमुख घटक हैं और ट्रॉफिक गतिशीलता और पोषक तत्वों के साइक्लिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन जब अच्छी बारिश के कारण हरे-भरे घास के मैदान विकसित होते हैं तो ये रेगिस्तानी टिड्डे एक या दो महीने के भीतर तेजी से संख्या बढ़ा इकट्ठे होते हैं और एक भयानक झुंड का रूप ले लेते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

समय पर नियंत्रित नहीं किये जाने पर पंखहीन हॉपरों के छोटे समूह या बैंड पंखों वाले वयस्क टिड्डे के छोटे समूह या स्वॉर्म का निर्माण कर सकते हैं जिसे एक विस्फोट (OUTBREAK) कहा जाता है और यह आमतौर पर किसी देश के एक हिस्से में लगभग 5,000 वर्ग किमी तक होता है। यदि एक विस्फोट या समसामयिक कई विस्फोटों को नियंत्रित नहीं किया जाता है और आसपास के क्षेत्रों में व्यापक या असामान्य रूप से भारी बारिश होती है, तो प्रजनन के कई सिलसिलेवार मौसम बन सकते हैं जो आगे चलकर हॉपर बैंड और वयस्क झुंड के गठन का कारण बनते हैं। इसे अभ्युत्थान (UPSURGE) कहा जाता है और आम तौर पर पूरे क्षेत्र को प्रभावित करता है।

यदि एक अभ्युत्थान को नियंत्रित नहीं किया जाता है और पारिस्थितिक स्थिति प्रजनन के लिए अनुकूल रहती है तो टिड्डे की आबादी संख्या और आकार में वृद्धि जारी रखती है जो एक महामारी (PLAGUE) के रूप में विकसित हो सकता है। महामारी के समय अधिकांश संक्रमण बैंड और स्वार्म्स के रूप में होते हैं। जब दो या दो से अधिक क्षेत्र एक साथ प्रभावित होते हैं तो एक बड़ी महामारी होती है।

टिड्डी विस्फोट सामान्य है और आमतौर पर होते रहते हैं, इनमें से कुछ ही विस्फोट ऐसे हैं जो अभ्युत्थान का रूप लेते हैं और इसी तरह कुछ अभ्युत्थान महामारी का रूप। आखिरी महामारी को 1987-89 में तथा आखिरी बड़ा अभ्युत्थान 2003-05 में देखा गया था। अभ्युत्थान और महामारी किसी एक रात में नहीं उभरते, इन्हे विकसित होने में कई महीनों से लेकर एक या दो वर्ष का समय भी लग सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैश्विक स्तर पर लोकस्ट कि निगरानी संयुक्त राष्ट्र के फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेसन (FAO) का लोकस्ट वॉच विभाग करता है जिसके मुताबिक वर्तमान टिड्डियों के आतंक की कहानी साल 2018 में अरबी प्रायद्वीप पर आए चक्रवाती तूफानों और भारी बारिश के साथ शुरू हुई थी। मई के तूफान से ही इतना पानी हो गया कि अगले छह महीनों के लिए रेगिस्तान में हरियाली उपजी जिस पर टिड्डियों की दो पीढ़ियां जीवन गुज़ार सकती थीं। इसके बाद अक्टूबर के तूफान के कारण टिड्डियों को प्रजनन और पनपने के लिए और कुछ महीनों का आधार मिल गया जहां इनकी तीन पीढ़ियाँ पली। यहां से ये खतरनाक हुईं और साल 2019 से अफ्रीका को निशाना बनाया। चक्रवातों के चलते ओमान और यमन जैसे दूरदराज के एकदम अविकसित इलाकों में टिड्डियों ने अपनी आबादी बढ़ाई।

एफएओ के लोकस्ट विशेषज्ञ कीथ क्रेसमैन के मुताबिक मानव संसाधन और उपग्रहों के माध्यम से संस्था टिड्डियों के दलों के संकट को लेकर निगरानी रखती है, लेकिन इस मामले में नाकाम साबित हुई। मॉनिटरिंग नेटवर्क ध्वस्त हो गया। क्रेसमैन के मुताबिक किसी को नहीं पता था कि धरती के इस दूरस्थ इलाके में तब क्या हो रहा था। इस इलाके में कुछ नहीं है, सड़कें नहीं हैं, कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है, फेसबुक नहीं, कुछ भी नहीं है। कुछ है तो रेत के बड़े बड़े टीले हैं, जो स्काईस्क्रेपरों से कम नहीं हैं।

जब टिड्डियों के दल झुंड में रहने की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं, तब ये मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट वाले भोजन पर निर्भर करने लगते हैं। जिस मिट्टी से लगातार फसलें ली जा चुकी हैं और जो ज़रूरत से ज़्यादा चराई जा चुकी है, उसमें से नाइट्रोजन गायब हो चुकी है। इसकी वजह से प्रोटीन तो मिट्टी में है नहीं इसलिए कार्बोहाइड्रेट बहुलता वाली घासें पैदा होती हैं। विशेषज्ञों ने दक्षिण अमेरिकी टिड्डियों पर किए अध्ययन में यह पाया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

साल 2018 के आखिर में जब ओमान में लोगों ने टिड्डियों के दलों को देखा तब कहीं जाकर क्रेसमैन की संस्था तक खबर पहुंची और अलर्ट कि स्थिति बनी। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। यहां से टिड्डियों के दल यमन और ईरान तक पहुंच चुके थे और ओमान से लगातार निकलते हुए सामने आ रहे थे। युद्धग्रस्त रहे यमन के पास टिड्डियों के हमले से लड़ने के लिए फोर्स न होने का संकट था। यमन में इन स्थितियों के दौरान भारी बारिश हुई और टिड्डियों के दलों को प्रजनन के साथ ही और पनपने का अनुकूल वातावरण मिल गया। पिछले (2019) के बसंत और गर्मियों के मौसम में टिड्डियों की आपदा यहां से सोमालिया पहुंची और उसके बाद इथोपिया और केन्या में कहर टूटा। बीते मार्च अप्रैल में पूर्वी अफ्रीका में भारी बारिश हुई, जो फिर टिड्डियों के लिए वरदान साबित हुई। पिछले चालीस वर्षों में, रेगिस्तानी टिड्डे का निवारक रणनीति (preventive strategy) से नियंत्रण प्रभावी साबित हुआ है लेकिन टिड्डियों के विनाशकारी आवृत्ति और अवधि में कमी आने से लापरवाही और संगठनात्मक समस्याओं के कारण टिड्डियों का झुंड एक बार फिर गंभीर समस्या बनकर उभरा है।

हमले के समय टिड्डियों का सामना करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये बहुत बड़े इलाके में फैली होती हैं। टिड्डियों से निपटने में प्रारंभिक हस्तक्षेप ही स्वॉर्म को रोकने का एकमात्र सफल उपाय है। दुनिया भर के कई संगठन टिड्डियों से खतरे की निगरानी करते हैं। वे निकट भविष्य में टिड्डियों से पीड़ित होने की संभावना वाले क्षेत्रों का पूर्वानुमान प्रदान करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एफएओ की डेजर्ट लोकस्ट इनफार्मेशन सर्विस (DLIS) रोम, इटली से मौसम, पारिस्थितिक स्थितियों और टिड्डियों की स्थिति की दैनिक निगरानी करती है। DLIS प्रभावित देशों में राष्ट्रीय टीमों द्वारा किए गए सर्वेक्षण और नियंत्रण कार्यों के परिणाम प्राप्त करता है और इस जानकारी को उपग्रह डेटा, जैसे कि MODIS, वर्षा के अनुमान और मौसमी तापमान और वर्षा की भविष्यवाणी आदि के साथ जोड़कर वर्तमान स्थिति का आकलन कर अगले छह सप्ताह में होने वाले प्रजनन और प्रवास कि सूचनाओं का अनुमान लगता है।

भारत में वनस्‍पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय (DPPQ&S) द्वारा गठित टिड्डी चेतावनी संगठन (Locust Warning Organisation) विभाग को अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों (Scheduled Desert Area) विशेष रूप से राजस्थाान और गुजरात राज्यों में रेगिस्तानी टिड्डी पर निगरानी, सर्वेक्षण और नियंत्रण का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। LWO, DLIS द्वारा जारी मासिक टिड्डी बुलेटिन के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा टिड्डी की स्थिति की अद्यतन जानकारी रखता है। कृषि कार्यकर्ताओं द्वारा खेतों से टिड्डियों कि स्थिति के सर्वेक्षण कर आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। फिर उन्हें LWO के मंडल कार्यालयों, क्षेत्रीय मुख्यालय, जोधपुर और केन्द्रींय मुख्यालय, फरीदाबाद भेजा जाता है जहां पर उनका परस्पर मिलान करके संकलित किया जाता है और टिड्डी के प्रकोप और आक्रमण की संभावना के अनुसार पूर्व चेतावनी के लिए विश्लेषण किया जाता है। टिड्डी की स्थिति से राजस्थान और गुजरात की राज्य सरकारों को अवगत कराया जाता है और उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को तैयार रखें। टिड्डी सर्वेक्षण के आंकड़ों को शीघ्रता से भेजने, उनका विश्लेषण करने के लिए e-locust2 / e-locust3 और RAMSES जैसे नवीन साफ्टवेयर का उपयोग किया जाता है।

ऐतिहासिक तौर पर लोग फसलों को टिड्डियों से बचाने अक्षम थे, हालांकि, आज हमारे पास पूर्वजों की तुलना में टिड्डियों से लड़ने के लिए गहन ज्ञान और प्रौद्योगिकी का फायदा है लेकिन फिर भी प्रभावित क्षेत्रों के अधिक फैलाव (16-30 मिलियन किमी), सीमित संसाधन, अविकसित बुनियादी ढाँचा और उन क्षेत्रों की पारगम्यता, आदि के कारण टिड्डियों को नियंत्रित या रोक पाना मुश्किल हो जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्तमान में, रेगिस्तानी टिड्डी के संक्रमण को नियंत्रित करने की प्राथमिक विधि ऑर्गनोफॉस्फेट केमिकल्स (हर्बिसाइड और कीटनाशक में प्रमुख घटक) कि छोटी-छोटी गाढ़ी खुराकें हैं। जिनको वाहन पर लगे या फिर हवाई स्प्रेयरस से अति कम मात्रा में (ULV) छिड़क कर किया जाता है। कीटनाशक को टिड्डे सीधे या परोक्ष रूप से पौधे पर चलने से अथवा उनके अवशेषों को खाने पर अधिग्रहित कर लेते हैं। ये नियंत्रण पूरी तरह सरकारी एजेंसियों द्वारा किया जाता है। भारत के अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्रयोग के लिए DPPQ&S ने 4 कीटनाशक कि मंजूरी दी है। फसलों, बबूल, खैर और अन्य पेड़ों पर रेगिस्तानी टिड्डे के नियंत्रण के लिए 11 कीटनाशकों को मंजूरी दी है।

टिड्डियों के रोकथाम के लिए फन्जाइ, बैक्टीरीया, और नीम के रस से बने जैविक कीटनाशकों का उपयोग भी किया जाता है। कई जैविक कीटनाशकों की प्रभावशीलता पारंपरिक रासायनिक कीटनाशकों के बराबर है लेकिन सामान्य रूप से इनके इस्तेमाल से कीटों को मारने में अधिक समय लगता है। इनके रोकथाम के लिए प्रभावित क्षेत्रों में किसानों ने ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है जिन्हें लोकस्ट स्वॉर्म के मौसम से पहले काटा जा सके। इसके अतिरिक्त, सेरोटोनिन के निषेध से लोकस्ट कि संख्या को प्रयोगशालाओं में नियंत्रित करने में सफलता मिली है, लेकिन इस तकनीक का फील्ड टेस्ट अभी बाकी है।

रेगिस्तानी टिड्डियों के शिकारी ततैया और मक्खियाँ (wasp and flies), परजीवी ततैया (parasitoid wasps), शिकारी बीटल लार्वा, पक्षी और सरीसृप आदि प्राकृतिक दुश्मन होते हैं। हाल ही में डॉ धर्मेन्द्र खांडल ने सवाई माधोपुर में जकोबीन कुक्कू, मोरनी को इनका शिकार करते देखा है। लेकिन इन शिकारियों कि सिमा है कि ये एकान्त आबादी को नियंत्रण में रखने में प्रभावी हो सकते हैं। स्वॉर्म और हॉपर बैंड में टिड्डों की भारी संख्या होने के कारण उनके खिलाफ इनका प्रभाव सीमित है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल) 

हालांकि टिड्डे के हमले को समाप्त करना लगभग असंभव है, लेकिन स्वॉर्मस पर आक्रमण करके, अंडे कि एक बड़ी संख्या को नष्ट कर इनकी गंभीरता को कम किया जा सकता है। वर्तमान ‘प्लेग’ को नियंत्रित करने के लिए प्रभावित देशों में कड़े प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन आखिरकार ये कैसे समाप्त होंगे यह कह पान मुश्किल है। फिलहाल मानसून ही इनके स्वॉर्म को कुछ हद तक नियंत्रित कर पाएगा।

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चौसिंगा – विश्व का एकमात्र चार सींगो वाला ऐन्टीलोप

चौसिंगा – विश्व का एकमात्र चार सींगो वाला ऐन्टीलोप

एशिया के सबसे छोटे बोविड्स में से एक फोर हॉर्नड ऐन्टीलोप अपनी असामान्य चार सींगो के कारण जहाँ एक ओर लोकप्रिय रहे तो वहीं दूसरी ओर ये इनके संकटग्रस्त होने के कारण भी बने।

चौसिंगाया Four-horned Antelope (Tetracerus quadricornis), वर्तमान में, वनों में पाए जाने वाला एकमात्र चार सींगो वाला स्तनपायी जीव है जो मूल रूप से भारतीय प्रायद्वीप का स्थानिक जीव (endemic) के रूप में पाया जाता है। इसको राजस्थान कि स्थानीय भाषा में भेडल या गुटेर भी कहा जाता है। वर्ष 2016 में किए गए चौसिंगा के वैश्विक मूल्यांकन के अनुसार वनों में इसकी आबादी लगातार घटने और संकटग्रस्त होने कि वजह से IUCN ने इसे असुरक्षित (Vulnerable या VU) श्रेणी में वर्गीकृत किया हुआ है। चौसिंगा को अगर राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो येअत्यंत ही दुर्लभ जीव है जो यहाँ विलुप्त होने कि कगार पर है। मुख्यतः यह राजस्थान के पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पाया जाता है। इसकी दुर्लभता कि पुष्टि इस बात से कि जा सकती है कि यहाँ ये अपने मौजूदा पर्यावास में भी वर्षों तक नजर नहीं आता, हाल ही में भैंसरोडगढ़ के वन्यजीव अभयारण्य बनने के 37 साल बाद पहली बार नजर आया।

IUCN ने वर्ष 2001 में मृगों (Antelopes) कि स्थिति और कार्य योजना बनाने के लिए एक वैश्विक सर्वेक्षण करवाया जिसके अंतर्गत भारतीय प्रायद्वीप पर चौसिंगा सर्वेक्षण डॉ असद आर रहमानी कि अगवाई में हुआ। इस सर्वेक्षण के अनुसार राजस्थान के 8 संरक्षित क्षेत्रों (राओली टोडगढ़, रणथंभोर, सरिस्का, दरा, जयसमंद, कुम्भलगढ़, फुलवारी, और सीतामाता) में चौसिंगा कि मौजूदगी दर्ज कि गई है। हालांकि डॉ रहमानी द्वारा सर्वेक्षण से रणथंभोर में चौसिंगा कि उपस्थिति दर्ज करने कि घटना को त्रुटिपूर्ण मानते हुए यहाँ वर्षों से बाघ संरक्षण के लिए काम कर रहे डॉ धर्मेन्द्र खांडल बताते हैं कि वर्तमान समय में चौसिंगा यहाँ कभी नहीं देखा गया है। राजस्थान कि जैव-विविधता के विशेषज्ञ डॉ सतीश शर्माके अनुसार चौसिंगा कि उपस्थिति जालोर, पाली, उदयपुर, अजमेर, धौलपुर, और चित्तौड़गढ़ में भी है। कोटा, झालावाड़ में भी इनकी उपस्थिति के संकेत अक्सर मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों पहले वन्यजीव गणना के दौरान कोलीपूरा से गिरधरपूरा के जंगल में ये देखे गए थे। वर्षों से वन्यजीवों कि फोटोग्राफी कर रहे अब्दुल हानिफ जैदीसाब बताते हैं कि 5-7 वर्ष पूर्व (2013-14) दरा के पास एक मादा चौसिंगा को सड़क दुर्घटना में मृत पाया गया था।

The Book of Antelopes (1894) में प्रकाशित चौसिंगा का चित्रण

चौसिंगा भारतीय प्रायद्वीप पर व्यापक रूप से वितरित है, विश्व कि 95% आबादी भारत और शेष 5% नेपाल में पाई जाती है। भारत में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्कन के पठार तक विस्तृत हैं। इनका वितरण ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में खुले, सूखे, पर्णपाती जंगलों में होता है। ये मृग घास आवरण या झाड़-झंखाड़ वाले जंगलों और निकटवर्ती जलाशयों में निवास करते हैं और मानवीय आबादी वाले क्षेत्रों से दूर रहने की कोशिश करते हैं।

चौसिंगा टेट्रिसस जीनस का एकमात्र सदस्य है। इसका का वर्णन पहली बार 1816 में फ्रांसीसी प्राणी शास्त्री हेनरी मैरी डुक्रोटेडेब्लेनविले ने किया था। चौसिंगा को ट्राइब बोसलाफिनी (Boselaphini) में रखा गया है, जिसमें चौसिंगा के अलावा मात्र नीलगाय (Boselaphus tragocamelus) को रखा गया है। वैसे तो ट्राइब बोसलाफिनी के सदस्यों में सामने की तरफ एक कील के साथ सींग होते हैं और अन्य मृग समूहों में पाए जाने वाले छल्ले की कमी है, लेकिन डॉ सतीश शर्मा के अनुसार चौसिंगा में हल्के छल्ले पाए जाते है। कॉलिन ग्रॉवस (2003) ने चौसिंगा को उनके खाल के रंग और विस्तार के अनुसार 3 उप-प्रजातियों में विभाजित किया है:

  • T. q. iodes (Hodgson, 1847): गंगा के उत्तर से नेपाल तक वितरित।
  • T. q. quadricornis (de Blainville, 1816): मुख्यतः भारतीय प्रायद्वीप पर वितरित।
  • T. q. subquadricornutus (Elliot, 1839) पश्चिमी घाट और दक्षिणी भारत में वितरित।

चौसिंगा, बोविडा परिवार (Bovidae) का एक जुगाली करने वाला (ruminant) एक छोटा और पतला गोकुलीय प्राणी (ungulate) है जिसके शरीर की लंबाई 1 मीटर और पूंछ की लंबाई 10-15 सेमी तक होती है। इसका वजन 15-25 किलो होता है। इनके चार सींग होते हैं जो इन्हें अन्य Bovids, जिनके दो सींग होते हैं, से अलग करते हैं। सींग दो के जोड़ों में केवल नर पर ही पाए जाते हैं, मादा सींग रहित होती हैं। सींगों का एक जोड़ा सीधा और कानों के बीच 2.5-4 सेंटीमीटर तक लंबा होता है। दूसरे थोड़े घुमावदार पीछे माथे पर स्थित होते हैं जिनकी माप 8-10 सेंटीमीटर कि होती है। इनका कोट पीले-भूरे से लाल रंग का होता है। शरीर का निचला हिस्सा और पैरो के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। चेहरे की विशेषताओं में थूथन पर और कान के पीछे काले निशान शामिल हैं। पैरो कि बाहरी सतह पर एक काली धारी होती है।

चौसिंगा नर (फोटो: श्री ऋषिराज देवल)

यह एक शर्मीला और दिनचर जीव है जो दिन के दौरान सक्रिय रहते हैं और स्वयं को मनुष्य से दूर रखकर छुपे रहते है। सामान्यतः स्वभाव से यह एकांत वासी होते हैं लेकिन 3 से 5 जानवरों के ढीले समूह भी बना सकते हैं। इन समूहों में कभी-कभी किशोरियों (calves) के साथ एक या अधिक वयस्क होते हैं। नर (buck) और मादा (doe)  केवल मिलन के मौसम में बातचीत करते हैं। भयभीत होने पर, वे स्तब्ध हो जाते हैं और घबराहट में छलांग लगा कर या पूरे वेग से दौड़कर खतरे से दूर चले जाते हैं। शिकारी जीवों से बचने के लिए वे अक्सर ऊंची घास में छिप जाते हैं। आम तौर पर दूसरों को सचेत करने के लिए अलार्म कॉल का उपयोग नहीं करते हैं क्योंकि वे शिकारियों के ध्यान से बचने की कोशिश करते हैं। हालांकि, चरम मामलों में, इन कॉल का उपयोग शिकारियों को यह चेतावनी देने के लिए उपयोग करते हैं कि इन्होंने शिकारी को देख लिया है और वे इनके पीछे न आयें। वयस्क चौसिंगा द्वारा अपने क्षेत्र चिह्नित करने लिए ग्रंथियों के स्राव के साथ कई जगहों पर मल त्याग करते है।वे कई निश्चित स्थानों पर नियमित रूप से मल त्याग कर ढेर बनते हैं। अक्सर इनके मल का ढेर और पेलेट ड्रॉपिंगबार किंग डीयर से भ्रमित किया जा सकता है, लेकिन चौसिंगा के पेलेट लंबे और बड़े होते हैं। ये जानवर विनम्र प्रदर्शन जैसे कि शरीर सिकुडाना, सर झुकना, कान पीछे खींचना आदि की मदद से भी संवाद करते हैं। यह मुख्य रूप से घास, शाक, छोटी झाड़ियाँ, पत्ते, फूल और फल खाते हैं और बार-बार पानी पीते है।

चौसिंगा बारिश के मौसम, जुलाई से सितंबर के बीच संभोग करते हैं। मादाएँ 8 महीने कि गर्भधारण अवधि के बाद एक या दो बछड़ों को जन्म देती है। बछड़े पूरी तरह से विकसित पैदा होते हैं जिनका वजन 0.7 से 1.1 किलोग्राम तक होता है। बछड़ों को जन्म के पहले कुछ हफ्तों के तक छुपा कर रखा जाता है, ये लगभग एक साल तक अपनी मां के साथ रहते हैं।

बाघ, तेंदुए और जंगली कुत्ते इसके प्रमुख प्राकृतिक शिकारी है। इनकी संख्या काम होने के मुख्य कारण हैं गैर-कानूनी शिकार, फैलते हुए खेत और सिमटते हुए प्राकृतिक आवास। वन क्षेत्र घटने और घास के मैदानों के बदलते स्वरूप के कारण चौसिंगा हिरनों के लिए प्राकृतिक आवास का संकट पैदा हो रहा है। इस कारण चौसिंगा जब जंगल के बाहर निकलते हैं तो शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं। शिकार के कारण इनकी आबादी लगातार घट रहीहै। इसके अलावा, इन मृगों की असामान्य चार सींग वाली खोपड़ी और सींग ट्रॉफी हंटर्स के लोकप्रिय लक्ष्य रहते हैं। वर्ष 2001 में इनकी तादाद दस हजार के आस-पास गिनी गयी थी, जो कालान्तर में ओर गिरी है और वर्तमान में 6000 से भी कम अनुमानित है।

संरक्षण के प्रयास:

राजस्थान सरकार ने चौसिंगा को चित्तौडगढ़ जिले का वन्यजीव पशु घोषित करने के साथ ही इसके प्रजनन संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए सीतामाता सेंचुरी के 225 हैक्टेयर क्षेत्र को इस प्रजाति के लिए रिजर्व कर प्रोजेक्ट शुरू किया। चित्तौडगढ़ जिले की पहचान को चौसिंगा से जोड़ कर सरकारी दस्तावेज में मस्कर यानी शुभंकर या प्रतीक चिन्ह के रूप में चौसिंगा की तस्वीर के उपयोग के निर्देश दिए। जिले कावन्य पशु घोषित होने से लोग इसके बारे में अधिक जानने लगे जिससे इनके संरक्षण में जागरूकता बढ़ने कि उम्मीद है।

वर्ष 2011 में सीतामाता अभयारण्य में चौसिंगा कि संख्या मात्र 100 तक सिमटने के कारण और लगातार संरक्षण प्रयासों के बावजूद इनकी संख्या में वृद्धि नहीं होने से चिंतित राजस्थान वानिकी एवं जैव विविधता परियोजना के अंतर्गत सीतामाता में प्लान बनाया गया जो 2014 से क्रियान्वित किया गया। योजना के तहत अभयारण्य में 125-135 हेक्टेयर के दो क्लोजर रानीगढ़ और आंबारेड़ी में बनाए गए और चारा-पानी कि व्यवस्था कि गई। अभयारण्य के आरामपुरा वन नाके के आसपास 25 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस प्रोजेक्ट में वाटरहोल, ग्रास लैंड बनाए गए। वहीं इन वाटरहोल को भरने के लिए पानी की टंकियां बनाई गई। इन प्रोजेक्ट के पूरे होने से वन्यजीवों के लिए आने वाली गर्मी के दिनों के पैदा होने वाले पानी और शाकाहारी जीवों के लिए घास के संकट से निजात मिली।

इसके अलावा राजस्थान अन्य हिस्सों में भी लुप्त हो रहे चौसिंगा के संरक्षण व संवर्धन के लिए वन विभाग ने साल 2015 में चौसिंगा संरक्षण प्रोजेक्ट के तहत काम किया, जिसमें कुम्भलगढ़ अभयारण्य क्षेत्र में करीब 200 हेक्टेयर भूमि आरक्षित करना शामिल है। यहाँ बचे हुए चौसिंगा को एक साथ रखकर उनके लिए भोजन-पानी सहित उनके बेहतर जीवन के लिए जरूरी सुविधाएँ करवाई गई। 1.30 करोड़ के इस प्रोजेक्ट का मकसद लुप्त हो रही प्रजाति को बचाने का था, लेकिन दुर्भाग्यवश इसके विपरीत नतीजे सामने आने लगे। चौसिंगा क्लोजर के तारबंदी में अक्सर फसकर घायल हो जाते और कई ऐसी भी घटनाएँ सामने आई जिसमें आवारा कुत्ते क्लोजर में प्रवेश कर चौसिंगा का शिकार करते पाए गए।

वनों से इन शाकाहारी जीवों का विलुप्त होना हमारे विविध पारिस्थितिक तंत्रों में एक ‘खाली परिदृश्य’ को बढ़ा रहा है। जिसका समाधान स्थानीय लोगों को संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधनमें शामिल करने और उनको लाभान्वित करने में है। राज्य सरकार द्वारा चौसिंगा संरक्षण के लिए कई प्रयास किए जाने के बावजूद इनकी संख्या और स्थिति जस की तस ही नजर आ रही है। कारण है अनियोजित कार्य प्रणाली और कुछ मूर्खतापूर्ण बेतुके कदम। चौसिंगा जैसे दौड़ने और छलांग लगाने वाले जीव को चैनल वायर फेन्सिंग से क्लोजर बना कर रखना स्वयं में ही इनको क्षति पहुँचाने के सिवा कुछ नहीं है और इन फेन्सेस को जल्द से जल्द हटाने कि जरूरत है। जरूरत है इनके पर्यावास विकसित करने कि, संरक्षित क्षेत्रों में हो रहे वनों कि कमी और घास के मैदानों के बदलते स्वरूप को रोकने कि, स्थानीय समुदाय की संरक्षित क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ाने कि अन्यथा विश्व के एकमात्र चार सिंगोवाले मृगको राजस्थान के परिदृश्य से लुप्त होने से नहीं रोका जा सकेगा।

 

सन्दर्भ:
  1. IUCN SSC Antelope Specialist Group. 2017. Tetracerus quadricornis. The IUCN Red List of Threatened Species 2017: e.T21661A50195368.http://dx.doi.org/10.2305/IUCN.UK.2017-2.RLTS.T21661A50195368.en
  2. Mallon, D.P. and Kingswood, S.C. (compilers). (2001). Part 4: North Africa, the Middle East, and Asia.Global Survey and Regional Action Plans. SSC Antelope Specialist Group.IUCN, Gland, Switzerland andCambridge, UK.viii + 260pp.
  3. Leslie,David M., Jr. and Sharma, Koustubh. (2009). Tetracerus quadricornis (Artiodactyla:Bovidae) Mammalian Species, Issue 843, 25 September 2009, Pages 1-11. https://doi.org/10.1644/843.1
  4. Cover image courtesy: Mr. Rishiraj Deval
स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्वस्थ नदी तंत्र के सूचक ऊदबिलाव जलीय खाद्य श्रृंखला में अहम भूमिका निभाते हैं जिसको पहचानते हुए इनके प्रति जागरूकता और संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए भारतीय डाक सेवा ने अपने नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण में 20 जुलाई 2002 को एक डाक टिकट जारी किया था।

स्मूद कोटेड ओटर, एशिया में पाए जाने वाला सबसे बड़ा ऊदबिलाव है जो इराक में एक सीमित क्षेत्र के साथ भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश हिस्सों में पाए जाते हैं। इन देशों में ये व्यापक रूप से वितरित तो है लेकिन दुर्भाग्यवश किसी भी क्षेत्र में बहुल तादाद में नहीं पाए जाते। ये प्रायः नदी के स्वच्छ जल में निवास करते हैं, झीलें,आर्द्रभूमि और मौसमी दलदल इनके अन्य पर्यावास में शामिल हैं। चंबल नदी भारत की सबसे साफ बारहमासी नदियों में से एक जो मध्य प्रदेश और राजस्थान कि सीमा बनती है, ऊदबिलाव कि एक सीमित आबादी कि शरणस्थली है। राजस्थान में स्मूद कोटेड ओटर कि उपस्थिति रावतभाटा, केशोराय पाटन, धौलपुर और सवाई माधोपुर के पाली घाट क्षेत्र में दर्ज कि गई है। अस्थाई तौर पर रणथंभौर नेशनल पार्क में 2019 में पहली बार ओटर पूरे परिवार के साथ झालरामें छोटी छतरी के पीछे वन विभाग के अधिकारियों द्वारा देखे गए थे जो कि संभवतः चम्बल नदी में बाढ़ कि वजह से नदी के ऊपरी क्षेत्र में आ गए थे। अक्सर ये किसी भी उपयुक्त आवास में रहने में सक्षम हैं, लेकिन अन्य ऊदबिलाव प्रजातियों कि मौजूदगी में ये छोटी नदियों और नहरों कि अपेक्षा बड़ी नदियों के बीच में रहना पसंद करते हैं। ये भूमि पर खुले क्षेत्रों में बहुत कम समय बिताते हैं और अधिकतर समय पानी में ही व्यतीत करना पसंद करते हैं।कुछ वर्ष पहले तक ये केवलादेव नेशनल पार्क, भरतपुर और प्रतापगढ़ में भी पाए जाते थे लेकिन अन्य संरक्षित प्रजातियों कि तरह इनके संरक्षण को प्राथमिकता या उचित महत्तव न मिलने के कारण ये आज कुछ सीमित पर्यावासों में अपने अस्तित्व पर खतरा लिए जूझ रहे हैं।

स्मूद कोटेड ओटर एक मांसाहारी अर्द्ध जलीय स्तनपायी प्राणी है जो नदी के एक लंबे खंड को कवर करते हैं और अक्सर नदी के किनारों के उन हिस्सों में अपनी छोटी सी मांद (den, holt या couch भी कहते हैं) बनाकर रहते हैं जो पूरी तरह से अन्य जीवों कि पहुँच से दूर हो। इनके बड़े सुगठित तरीके से निर्मित छोटे मख़मली फर होने के कारण इन्हें स्मूद कोटेड ओटर कहा जाता है। इनको स्थानीय भाषा में जलमानुष, पानी का कुत्ता, उदबिलाव, आदि नामों से जाना जाता है। चम्बल क्षेत्र मेंअक्सर इन्हें जल मानस्या नाम से संबोधित किया जाता है। इनका वैज्ञानिक नाम एक फ्रांसीसी प्रकृतिवादी ए टि एन जियोफ़रॉय सेंट-हिलैरे द्वारा सन 1826 में सुमात्रा सेएकत्र एक भूरे रंग के ओटर के लिए Lutra perspicillata दिया गया था। 1865 में जॉन एडवर्ड ग्रे ने इन्हें Lutrogale जीनस में रखा। लुटरोगेल जीनस में तीन प्रजातियाँ पहचानी गई थी लेकिन वर्तमान में इस जीनस में सिर्फ स्मूद कोटेड ओटर (Lutrogale perspicillata) ही एकमात्र जीवित प्रजाति है। स्मूद कोटेड ओटर कि तीन उप-प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। पहली भारतीय प्रायद्वीप से दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाने वाले हल्के भूरे फ़र के ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata), दूसरे पाकिस्तान के सिंध और पंजाब क्षेत्र में पाए जाने वाले हल्की पीली खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata sindica), और तीसरे इराक के टिग्रिस नदी के क्षेत्र में पाए जाने वाले गहरे भूरे रंग कि खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata maxwelli)

ऊदबिलाव का आकार तीन से पांच फुट तक होता है और यह लम्बे और पतले शरीर वाले होते हैं। इनके सिर गोल, रोम रहित नाक, पूँछ चपटी होती है। इनकी आँखें छोटी, मूँछें घनी और कान छोटे तथा गोलाकार होते हैं। इनकी टांगे छोटी व मजबूत होती है जिनमें मजबूत पंजे और जालीदार अंगुलियाँ होती है। इनके पैर छोटे होने के कारण ये अधिक ऊंचे नहीं होते है। इनका वजन दस से तीस किलोग्राम तक हो सकता है, फिर भी ये बहुत फुर्तीले होते हैं। अक्सर अपने शिकार के पीछे पानी में बहुत तेजी से तैरते हुए तली तक पहुंच जाते हैं। ये पानी में इस प्रकार तैरते हैं, जैसे कोई रिवर राफ्टिंग कर रहा हो। इनके असामान्य रूप से छोटे और चिकने फर इन्हें ऊष्मा प्रदान कर ठंड से बचाव करते हैं; इनका फर पीछे की ओर गहरे लाल-भूरे रंग का हो सकता है, जबकि नीचे का भाग हल्के भूरे रंग का होता है।

परिवार समूह (romp) मे विचरण करते ऊदबिलाव (फोटो: डॉ. कृष्णेन्द्र सिंह नामा)

स्मूद कोटेड ओटर समूह में रहने वाले जीव हैं जो तीन-चार संतानों के साथ एक जोड़े का छोटा परिवार समूह (romp) बनाकर रहते हैं। इनके एक समूह में 4 से 11 ऊदबिलाव हो सकते हैं। समूह के नर ऊदबिलाव को dogs / boars कहा जाता है, मादा को bitches या sows कहा जाता है, और उनकी संतानों को pups कहा जाता है। ऊदबिलाव का संचय (copulation) पानी में होता है जो एक मिनट से भी कम समय तक रहता है।जिन क्षेत्रों में खाद्य आपूर्ति पर्याप्त है, वे पूरे वर्ष प्रजनन करते हैं; लेकिन जहां ऊदबिलाव पर्याप्त जल के लिए मानसून पर निर्भर हैं वहाँ प्रजनन अक्टूबर और फरवरी के बीच होता है। मादा ऊदबिलाव (bitches) कि गर्भावधि 60-63 दिनों कि होती है जिसके बाद ये एक बार में 4-5 पिल्ले पैदा करते हैं। मादाएँ अपने बच्चे को पानी के पास एक बिल में जन्म देती हैं और उनकी परवरिश करती हैं। जन्म के समय पिल्ले अंधे और असहाय होते हैं और इनकी आँखें 10 दिनों के बाद खुलती हैं। पिल्लों को लगभग तीन से पांच महीने तक भोजन समूह के वयस्कों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता है। वे लगभग एक वर्ष की उम्र में वयस्क आकार तक पहुंचते हैंऔर दो या तीन साल में यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं।

ऊदबिलाव एक मछली के शिकार के साथ (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव, मगरमच्छ और फिशईगल के साथ जलीय खाद्य श्रृंखला में सबसे ऊपर हैं। ऊदबिलाव के लिए नदी में पाई जाने वाली बड़ी मछलियाँ, कैट्फिश, आदि पसंदीदा भोजन है। रावतभाटा के आस-पास के गांवों में मछली पालन के उद्देश्य से लायी गई मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया (Tilapia) संयोगवश चम्बल के नदी तंत्र में शामिल हो गयी और यहाँ की स्थानीय प्रजातियां के लिए संकट बन गई। जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों कि स्थानीय प्रजातियाँ संकट में है वही दूसरी ओर इस क्षेत्र में यह ऊदबिलाव का प्रमुख आहार भी है। मछलियों के अलावा ये चूहे, सांप, उभयचर और कीड़े आदि का शिकार भी करते हैं जो कि इनके आहार का एक छोटा सा हिस्सा बनाते हैं। ये अकेले या समूह में घेरा डालकर मछलियों का शिकार करते हैं।

चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित करते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव रेतीले रिवर बैंक पर आराम करते हैं और पेड़ों की जड़ों के नीचे या बोल्डर के बीच एक छोटी सी मांद बनाकर रहते हैं जिनमें अनेक निकास होते हैं। कोटा से रावतभाटा के बीच चम्बल नदी में ऊदबिलावों की स्वस्थ प्रजनन आबादी सुबह और शाम के घंटों में सक्रिय रूप से देखी जा सकती है। आमतौर पर ये दिन के दौरान, दोपहर में थोड़े आराम के साथ, सक्रिय रहते हैं। समूह में जब ये नदी में बार-बार गोता लगा बाहर निकलते हैं तो अक्सर उनके मुंह में एक मछली होती है इस दौरान उनकी धनुषाकार पीठ एक छोटी डॉल्फ़िन जैसा प्रभाव पैदा करती है जिसे देखना एक अलग रोमांच पैदा करता है। ऊदबिलाव चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित कर घुसपैठियों को दूर रखते हैं। झुण्ड में मस्ती करने वाले जानवर होने के नाते, वे लगातार एक-दूसरे के साथ ऊँची-ऊँची चीखो के माध्यम से संवाद करते रहते हैं। समूह में कई बार इन्हें अन्य जीवों को चंचलता पूर्वक पीछा करते देखा गया है। कोटा के वन्यजीव फोटोग्राफर बनवारी यदुवंशी बताते हैं कि रावतभाटा में ऊदबिलावों द्वारा कुत्तों के समूह का पीछा और इसके प्रतिकूल कुत्तों द्वारा ऊदबिलाव का चंचलता पूर्वक पीछा करना अक्सर देखा जा सकता है। कई बार इन्हें मगरमच्छों को परेशान करते भी देखा गया है।

रावतभाटा मे अक्सर कुत्तों के साथ चंचलतापूर्वक संघर्ष करते देखे जाते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव मानवीय हस्तक्षेप पसंद नहीं करते, अक्सर मनुष्यों से शर्माते हैं और मानवीय गतिविधि होने पर दूर चले जाते हैं। लेकिन ऊदबिलाव द्वारा समझदारी दिखाने के बावजूद मनुष्य उनके जीवन में वर्षों से हस्तक्षेप कर उनके आशियाने उजाड़ रहा है। मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही आज दुनिया भर से ऊदबिलाव के 13 प्रजातियों में से 7 संकटग्रस्त हैं, जिनमें से तीन भारत में पाए जाते हैं। स्मूद कोटेड ओटर के अलावा दो और प्रजातियां, यूरेशियन ओटर, एशियन स्मॉल क्लाव्ड ओटर, हमारे देश में मौजूद है।

भारत में पाए जाने वाले ऊदबिलाव की तीनों प्रजातियाँ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम से सुरक्षित हैं। स्मूथ कोटेड ओटर को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) द्वारा ‘Vulnerable’के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-II के तहत संरक्षित है। लेकिन फिर भी ये अपनी घरेलू सीमा – दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया – में सुरक्षित नहीं हैं, और इनकी संख्या उन मुद्दों के कारण कम हो रही है जिनसे सभी लोग परिचित हैं, शिकार। इनका शिकार भी उन्हीं लोगों द्वारा किया जाता है जो बाघों और तेंदुओं को फँसाते हैं, मारते हैं, और विदेशों में बेचते हैं।

2014 में IOSF (International Otter Survival Fund) द्वारा ऊदबिलाव के गैर-कानूनी व्यापार पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत से जब्त किए गए जंगली जानवरों के खाल में से लगभग 20-30% खाल ऊदबिलाव के होते हैं। ऊदबिलाव के खाल (pelts) कि तस्करी तिब्बत और चीन के अवैध फर बाजारों के लिए कि जाती है। ओटरफर को इसकी शानदार मोटाई (650,000 बाल प्रति वर्ग इंच) की वजह से उच्च गुणवत्ता का माना जाता है और इसका उपयोग कोट, जैकेट, स्कार्फ और हैंडबैग बनाने के लिए किया जाता है। यह अनुमान है दुनिया की 50% ओटर स्किन भारत में उत्पन्न होती हैं, जो पूरी तरह से अवैध है। वास्तव में चीन ने आखिरी बार 1993 वैध तरीके से ऊदबिलावों के खाल का आयात किया था। हालांकि, पाकिस्तान, तुर्की और अफगानिस्तान से प्राप्त खाल भी बहुत मूल्यवान हैं लेकिन यह कहा जाता है कि सबसे अच्छा जल रोधक ओटर खाल भारत और पाकिस्तान से प्राप्त होता है। वर्तमान के व्यापक ऑनलाइन व्यापार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है।

मछली के जाल मे फंसा ऊदबिलाव(फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

खाल के अलावा ऊदबिलाव के शरीर के अंगों के “पारंपरिक” चिकित्सा में इस्तेमाल होने की भी खबरें हैं, ओटर जननांगों, खोपड़ी और अन्य शरीर के अंगों को पीसकर पारंपरिक दवाओं के घटक के रूप में उपयोग किया जाता है। ओटर के वसा से निकाले गए ऑटर ऑयल भी परंपरिक दवाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

ऊदबिलाव के आवास की हानि भी एक गंभीर समस्या है, इनके आवास को मनुष्य अपने तरीके से उपयोग, बस्तियां बसाने, कृषि और जल-विधयुत परियोजनाओं के लिए परिवर्तित कर नुकसान पहुँचा चुका है। भूमि उपयोग परिवर्तन के साथ ही नदी तंत्र को क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन और ऑर्गनो फॉस्फेट जैसे कीटनाशकों द्वारा प्रदूषित किया जा रहा जिससे कि ऊदबिलाव के आधार शिकार कम होते जा रहे हैं। इसके अलावा बंगाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में ऊदबिलाव का उपयोग मछलियों को पकड़ने के लिए भी किया जाता है। मछुवारे ऊदबिलावों को रस्सी से बांध कर नाव के दोनों किनारों से नदी में नीचे तक भेजते है जिसकी वजह से मछलियाँ ऊपर कि तरफ उनके द्वारा बिछाए गए जाल में आकार फंस जाती है।

राजस्थान में चंबल किनारे, सर्दियों में जब ऊदबिलाव बच्चे पालने के दौरान सबसे ज्यादा असहाय होते हैं। इस मौसम के दौरान, वे मनुष्यों द्वारा फसलों की कटाई और नदी के चट्टानी हिस्सों के साथ लकड़ी हटाने से परेशान रहते हैं और विशेष रूप से जलीय कृषि स्थलों पर ऊदबिलाव अंधाधुंध मारे जाते हैं।

नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण मे जारी डाक टिकट

ऊदबिलाव नदी तंत्र के अच्छे पारिस्थितिक स्वास्थ्य के संकेतक हैं जिनके लुप्त होने के पर्यावरण पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है। हाल ही में (2018) कर्नाटक सरकार ने तुंगभद्रा नदी के 34 किमी. क्षेत्र को देश का पहला ओटर रिजर्व घोषित कर देश में ओटर संरक्षण की शुरुआत की है। दुर्भाग्यवश, विडंबना यह है कि ऊदबिलाव के लुप्तप्राय और अत्यधिक संरक्षित होने के वावजूद इनके वास्तविक सुरक्षा के लिए ना ही कोई नीति है और ना ही कोई कार्यक्रम है।

 

References:

  1. Hussain, Syed Ainul. (1993). Aspects of the ecology of smooth coated Indian otter Lutra perspicillata, in National Chambal Sanctuary.Shodhganga: a reservoir of Indian theses @ INFLIBNET.http://hdl.handle.net/10603/58828
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सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य – राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य – राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन

कांठल प्रदेश में सागवान वनों से आच्छादित, तीन विभिन्न भूमि संरचनाओं (अरावली, विंध्यन और मालवा) के संगम पर भव्य हरी-भरी घाटियों, नदियों और विशिष्ट वन्यजीवों को संरक्षित करता सीतामाता शुष्क राजस्थान का एक अन्वेषित अभयारण्य है…

वागड़, मेवाड और मालवा की प्राकृतिक सुंदरता और जीवन शैली से आच्छादित कांठलप्रदेश आज प्रतापगढ़ के नाम से जाना जाता है। अरावली और विंध्यन पर्वतमालाओं के मध्य मालवा के पठार पर सागवान वनों की उत्तर पश्चिमी सीमा बनाता यह जैव विविधताओं से समृद्ध एक विशिष्ट स्थान है। राजस्थान सरकार ने यहाँ 422.95 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र कि जैव विविधता एवं भू संरचना के महत्व को ध्यान में रखते हुए 2 जनवरी 1979 को सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया। इस अभयारण्य में रियासत कालीन “भेनवा शिकारागह” शामिल है, यहाँ प्रतापगढ़ के महाराज शिकार के लिए आया करते थे। इसी तरह अभयारण्य का आरामपुरा-कुंठारिया इलाका धरियावद के जागीरदारों के लिए और रानिगढ़-धार वनक्षेत्र, बांसी के जागीरदारों के लिए शिकारगाह था। यह क्षेत्र उन दिनों वन्यजीवों से समृद्ध था और बाघ, सांभर और चीतल के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन बाद में इनकी संख्या में भारी कमी आई और बाघ विलुप्त हो गए लेकिन आज भी यह अभयारण्य असाधारण विविधता और आवासों के प्रतिच्छेदन के लिए जाना जाता है, जिसमें सागवान के वन, आर्द्र भूमि, बारहमासी जल धाराएं, सौम्य अविरल पहाड़, प्राकृतिक गहरे घाटियां और सागवान के मिश्रित वन शामिल हैं।

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र (फोटो: श्री प्रवीण कुमार)

सीतामाता कहलाने का कारण

लोगों का मानना है कि रामायण काल के दौरान जब राम ने सीता को वनवास दिया तो देवी सीता ने अपने वनवास के दिनों को इस जंगल में स्थित ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में व्यतीत किया। इस वनवास के दौरान माता सीता ने लव और कुश को जन्म दिया। आज भी वाल्मीकि आश्रम के बाहर विशाल बरगद के अवशेष साक्ष्य के रूप में देखे जा सकते हैं, जो कभी 12 बीघा के क्षेत्र फैला हुआ था। राज-पुरोहित बताते हैं कि इसी स्थान पर लव और कुश ने अश्वमेध के घोड़ों को पकड़ा था और राम को युद्ध के लिए ललकारा था। ये अवधारणा है कि वह पेड़ जिस पर हनुमान जी को बांधा गया था, आज भी यहां पर मौजूद हैं। यहां पहाड़ी पर स्थित सीता मंदिर उस प्राचीन मान्यता का द्योतक है जिस समय माता सीता धरती में समाई तब यह पहाड़ दो हिस्सों में फट गया। लोग इस स्थान को युगों से पवित्र मानते आ रहे हैं और यहाँ मंदिर परिसर (सीता बाड़ी) में प्रतिवर्ष ‘ज्येष्ठ माह की अमावस्या’ को मेला आयोजित होता है। यहां पर स्थित वाल्मीकि आश्रम में आज भी लोग लव-कुश पालने को झूला झुलाते हुए देखे जा सकते हैं। सीता बाड़ी दुनिया का एकमात्र मंदिर है जिसमें हिंदू देवी सीता माता की एकल प्रतिमा है। इतने सारे पौराणिक स्थानों के होने के कारण इस इलाके का नाम सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य रखा गया है।

सीतामाता के जंगल में स्थित एक शैल आरेख (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अभयारण्य के वन

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य के वन को पांच प्रमुख वन प्रकारों, सघन शुष्क पर्णपाती वन (dense dry deciduous), छितराए हुए शुष्क पर्णपाती वन (sparse dry deciduous forest), नम पर्णपाती वन (moist deciduous forest), बांस के मिश्रित वन (Bamboo Mixed Forest) और घास के मैदान (grasslands) में वर्गीकृत किया गया है। तटवर्ती वनस्पतियों के साथ बारहमासी नदियों ने अभयारण्य में कई सूक्ष्म और समष्टि पर्यावास बनाए हैं। इस अभयारण्य की मुख्य विशेषता सागवान (Tectona grandis) और बांस (Dendrocalamus strictus) के वनों के बेहतरीन हिस्से हैं। सागवान वनों की नायाब संपदा से धनी इस अभयारण्य में ऐसे स्थान भी है जहां सूरज की किरण आज तक जमीन पर नहीं पड़ी।

सागवान और बांस के अलावा यहाँ आम (Mangifera indica), महुआ (Madhuca indica), सफेद धोंक (Anogeissus latifolia) और चिरौंजी (Buchanania lanzan) के वृक्ष यहाँ घने वन बनाते हैं। इस वन की विशेषता यह है इसको देवता का निवास स्थान माना जाता है और इसकी पवित्रता को गाँव के लोगों द्वारा संरक्षित किया जाता है।

राजस्थान कि जैव विविधता के विशेषज्ञ डॉ सतीश शर्मा बताते है कि,दक्षिण भारत मूल कि कई वनस्पतियाँ सीतामाता अभयारण्य में पाई जाती हैं। राजस्थान में बीज धारी केलों कि दो वन्य प्रजातियों में सेएकजंगली केला (Musa rosacea) यहाँ पाया जाता है। यहाँ मरुआदोना (Carvia callosal) भी अच्छी संख्या में पाया जाता है जो कि मूलतः दक्षिण भारत के नीलगिरी पहाड़ियों पर पाया जाता है, राजस्थान में यह माउंटआबू और फुलवारी कि नाल अभयारण्य में ही अभी तक देखा गया है। यहाँ जंगली काली मिर्च (peperomia pellucida) भी अच्छी संख्या में पाई जाती है जिसकी राजस्थान में अन्यत्र उपस्थिति केवल झुंझुनू जिले के लोहार्गल धाम पर ज्ञात है। डॉ शर्मा के अनुसार लीया (Leea macrophylla) नामक एक कंदीये पौधा, जो उपेक्षाकृत बहुत कम ही देखने को मिलता है, सीतामाता के जंगलों में नमी एवं गहरी मिट्टी वाली घाटियों में वर्ष में आसानी से जगह-जगह देखा जा सकता है। इसको यहाँ सामान्य भाषा में हस्तिकर्ण (हाथी के कानों जैसा) नाम से जाना जाता है। अपने नाम को चरितार्थ करती इसकी बड़ी पत्तियों का फैलाव 45 सेमीx60 सेमी तक पहुच जाता है।

सीतामाता औषधीय पौधों के लिए भी जाना जाता है। मुख्य औषधीय पौधों में चिरौंजी (Buchanania lanzan), अर्जुन (Terminalia arjuna), बहेड़ा (Terminalia bellirica), जामुन (Syzygium cumini), ज्योतिष्मति (Celastrus paniculate), इन्द्रजौ/दूधी (Wrightia tinctorial), मूसली (Chlorophytum tuberosum), कड़ाया (Sterculia urens), और झारवाद (Lagascea mollis) यहाँ पाए जाते हैं। राजस्थान सरकार ने चिरौंजी के पेड़ों को बचाने के लिए अभयारण्य को मेडीसिनल प्लांट्स कान्सर्वैशन एरिया (MPCA) घोषित किया हुआ है।

अभयारण्य के अन्य पेड़ों में (Anogeissus pendulla), खैर (Acacia catechu), सालर (Boswellia serrata), असान (Terminalia tomentosa), तेंदू (Diospyros melanoxylon), गुर्जन (Lanneacoro mandelica), गूलर (Ficus glomerata), बरगद (Ficus benghalensis), कदम (Mitragyna parvifolia), बिल (Aegle marmelos), आंवला (Emblica officinalis), लसोड़ा (Cordia dichotoma), बीजपत्ता (Pterocarpus marsupium), खिरनी (Wrightia tinctoria), इमली (Tamarindus indica), बैर (Zizyphus spp.), आदि शामिल हैं।

अभयारण्य में उपरारोही (epiphytes) भी अच्छी संख्या में पाए जाते हैं जिनमें कई सारे फर्नस और ऑरकिड्स शामिल हैं। यहाँ सिलेजिनेला (Selaginella) कि 3 प्रजातियाँ पाई जाती है,आद्रता के कारण कई ब्रायोफाइट्स भी यहाँ पाए जाते हैं।

अभयारण्य के वन्यजीव

सीतामाता वन्यजीवों के दृष्टिकोण से एक महत्त्वपूर्ण अभयारण्यों में से एक है, यहाँ स्तनधारियों की लगभग 50 प्रजातियाँ, पक्षियों की 325 से अधिक प्रजातियाँ, सरीसृपों (reptiles) की 40 प्रजातियाँ, उभयचरों (amphibians) की 9 प्रजातियाँ, और मछलियों की 30 प्रजातियाँ को सूचीबद्ध किया गया है। यहाँ खाद्य श्रृंखला में तेंदुआ सबसे ऊपर है, अन्य जीवों में यहाँ रैटल, लोमड़ी, पंगोलीन आदि मौजूद हैं।

यह अभयारण्य उड़न गिलहरी (Petaurista philippensis) और चौसिंघा (Tetracerus quadricornis) के लिए जाना जाता है। उड़न गिलहरियों को स्थानीय भाषा में “आशोवा” नाम से जाना जाता है जिसको आरामपुरा के जंगल में सूर्यास्त के आसपास महुआ के एक पेड़ से दूसरे पर जाते हुए देखा जा सकता है। दिन के समय यह पेड़ों के खोखले हिस्सों के अंदर अपने स्थायी घरों में आराम करता है। इनको देखने का सबसे अच्छा समय फरवरी और मार्च के बीच का होता है जब अधिकांश पेड़ों के पत्ते झड़ चुके होते हैं जिससे इनका शाखाओं में छिपना आसान नहीं होता।

पेड़ के कोटर से बाहर झांकती हुई भारतीय विशालकाय उड़न गिलहरी (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
महुआ के पेड़ पर भारतीय विशालकाय उड़न गिलहरी (फोटो: श्री संग्राम सिंह कटियार)

चौसिंघा, जिसे स्थानीय भाषा में “भेडल” भी कहा जाता है, सीतामाता के पंचगुड़ा, अद्यघाटा, अंबारेठी, और पाल वन खंडों में देखने को मिलता है। इन वन खंडों में बांस के घने समूह अच्छी संख्या में हैं जो चौसिंगा के पक्षधर हैं। चौसिंगा खतरे में होने पर बांस की मोटी झाड़ियों के पीछे छिप सकता है।

अभयारण्य में उड़न गिलहरी के अलावा और दो प्रकार कि गिलहरियाँ पाई जाती हैं, इंडियन पाल्म स्क्वरल / तीन-धारीदार पाल्म गिलहरी (Funambulus palmarum) और पाँच-धारीदार गिलहरी। इंडियन पाल्म स्क्वरल अभयारण्य के घने जंगल में पाई जाती है।

सरीसृपों में मगर, वृक्षारोही मेंढक (tree frog), पैनटेड फ्राग (painted frog), बिल खोदने वाले मेंढक (Burrowing frog), वृक्षारोही सर्प (tree snake) और ग्रीन कीलबैक का मिलना उल्लेखनीय है।

गिरी हुई पत्तियों व् नम चट्टानों के नीचे पाए जाने वाला एक मेढक- Sphaerotheca breviceps (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल )

जंगल आउलेट, क्रेस्टेड हॉक ईगल, हरियल, गागरोनी तोता, स्टॉर्क-बिल किंगफिशर, पिट्टा, ब्लैक हेडेड ओरियोल, इंडियन पैराडाइज फ्लाईकैचर, ब्लैक लोरड टिट,पर्पल सनबर्ड, मोनार्क, सारस हंस,अल्ट्रा-मरीन वर्डाइटर फ्लाईकैचर आदि जैसे पक्षी सीतामाता के जंगलों में देखे जा सकते हैं। लेसर फ्लोरिकंस अभयारण्य के पूर्वी इलाके में मानसून के दौरान देखने लायक हैं। यहाँ तीन प्रकार के फेयसेन्ट पाए जाते हैं, ग्रे जंगल फाउल, अरावली रेड स्पर फाउल,पैनटेड स्पर फाउल। जाखम बांध के पास गिद्धा मगरा नाम कि पहाड़ी पर लॉंग बिल्ड वल्चर के घोंसले पाए जाते हैं।

सीतामाता के हरेभरे जंगल में मिलने वाला एक जंगली मुर्गा (Grey  Jungle  Fowl ) (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

सदावाही नदियों और झरनों का अभयारण्य

अभयारण्य कि तीन प्रमुख नदियां हैं कर्ममोई, जाखम और सीतामाता। कर्ममोई (कर्म मोचनी) नदी का उद्गम सीता बाड़ी से होता है जो कि अभयारण्य का कोर क्षेत्र है। कर्ममोई नदी धारियावाद में जाखम नदी से मिलती है। जाखम नदी छोटी सादड़ी के जखामिया गाँव की पहाड़ियों के दक्षिण-पश्चिम में निकलती है। जाखम सीतामाता अभयारण्य कि जीवनरेखा है। अभयारण्य के अंदर जाखम, लव और कुश नाम के नालों में विभाजित होकर अपना पानी वितरित करता है और अभयारण्य से गुजरने के बाद फिर से मिलकर जाखम नदी में परिवर्तित हो जाता है। यह नदी अभयारण्य के अंदर तेरह मोड़ बनाती है। पूरे वर्ष इन नालों के प्रवाह से अभयारण्य के मैदानी क्षेत्रों में जंगल हरे-भरे रहते हैं। इस नदी पर जाखम परियोजना के अंतर्गत बांध निर्माण किया गया जो कि एक बड़े वन क्षेत्र के जलमग्न होने का कारण बना। जलमग्न क्षेत्र में शामिल उधरी माता के आसपास घने जंगल मीणाओं के लिए पवित्र उपवन थे। भेनवाएक अन्य स्थान था, जो अपने वनों के लिए जाना जाता था, हालाँकि जब ये बाँध का निर्माण हुआ तो ये जंगल जाखम बांध के पानी में डूब गए।

जाखम बांध के बाद 12 किलोमीटर आगे नदी पर नांगलिया बांध बनाया गया है जहाँ से नहर प्रणाली की उत्पत्ति होती है। नांगलिया बांध अभयारण्य कि परिधि पर बना हुआ अप्रवासी पक्षियों, धूप सेकते मगर और कछुओ को देखने के लिए उत्तम जगह है। सीतामाता अभयारण्य में टांकिया भूदो, सुखली तथा नालेश्वर नामक नदियां भी बहती है। नदियों के अलावा यहाँ जगह जगह कई झरने देखने को मिलते हैं।

अभयारण्य के अन्य आकर्षण

आरामपुरा अतिथि गृह – बंसी और धरियावद कस्बों के मध्य में स्थित वन विभाग द्वारा संचालित यह स्थान अभयारण्य के प्रवेश द्वारों में से एक है, यह उड़न गिलहरी को देखने के लिए राजस्थान के सबसे अच्छे स्थानों में से एक है। यह विशाल महुआ, सागवान और विभिन्न प्रकार के बड़े वृक्षों से ढाका हुआ क्षेत्र है जहां उड़न गिलहरी का एक सुनिश्चित दृश्य शाम 7 बजे से सुबह 5:30 बजे के दौरान हो सकता है।

कुन्थरिया हिल साइड–यह एक पहाड़ी क्षेत्र का नाम जहां कर्मोचिनी नदी ऊंचाई से गिरते हुए एक झरने का एहसास देती है। अभयारण्य में विभिन्न रैप्टर और पक्षियों को देखने के लिए बहुत अच्छे स्थानों में से एक है।

भौगोलिक स्थिति

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य समुद्र तल से औसतन 280 से 600 मीटर कि ऊँचाई पर स्थित है। इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 756 मिमी होती है। सर्दियों के दौरान तापमान 6 से 14 डिग्री सेल्सियस और गर्मियों में 32 से 45 डिग्री के बीच होती है। सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। यह अभयारण्य उदयपुर-प्रतापगढ़ राज्य राजमार्ग पर उदयपुर और चित्तौड़गढ़ से क्रमशः 100 और 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन चित्तौड़गढ़ है, जबकि निकटतम हवाई अड्डा 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित महाराणा प्रताप (डबोक) हवाई अड्डा उदयपुर है। इन सभी स्थानों से अभयारण्य तक सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है।

मातासीता से जुड़ी आस्था, उड़न गिलहरी और चौसिंघा जैसे विशिष्ट वन्य जीवों के पर्यावास होने के कारण सीतामाता अभयारण्य को राजस्थान के विशिष्ट वन्यजीवों का पवित्र उपवन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी I

संकटापन्न प्रजातियों की शरणस्थली: भैंसरोडगढ़ अभयारण्य

संकटापन्न प्रजातियों की शरणस्थली: भैंसरोडगढ़ अभयारण्य

राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भैंसरोडगढ़ को “राजस्थान के स्वर्ग” की संज्ञा दी और कहा की “अगर मुझे राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी”, तो क्या है ऐसा भैंसरोडगढ़ में?

राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले में चम्बल किनारे एक अभयारण्य है, जिसे भैंसरोड़गढ़ के नाम से जाना जाता है, 193 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ यह एक अत्यंत खूबसूरत अभयारण्य है जिसे राजस्थान सरकार ने 5 फरवरी 1983 को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया किंतु आज भी बहुत कम लोग ही इसके बारे में जानते है Iरावतभाटा के पास स्थित विशाल भैंसरोड़गढ़ दुर्ग महान महाराणा प्रताप के अनुज शक्ति सिंह की सैन्य चौकी हुआ करता था। ब्राह्मिनी एवं चम्बल नदियों के संगम पर भैंसरोड़गढ़ के किले का निर्माण 1741  में रावत लाल सिंह द्वारा किया गया था जो कि एक जल दुर्ग है । यह दुर्ग चारों ओर पानी से घिरा हुआ है जिससे इस तक पहुंचना मुश्किल था । आज भी इस दुर्ग के परकोटे में भैंसरोडगढ़ गाँव बसा हुआ है जिसकी आबादी लगभग 5000 है ।

भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र फोटो: श्री प्रवीण कुमार

भैंसरोडगढ़ बंजारों द्वारा बसाया गया एक गाँव था जो कि “चर्मण्यवती नगरी” के नाम से प्रसिद्ध था जिसके अवशेष आज भी खुदाई में प्राप्त होते रहते है। चर्मण्यवती नगरी का नाम भैंसा और रोड़ा नामक दो भाइयों के नाम पर भैंसरोडगढ़ पड़ा । भैंसा और रोड़ा गाँव में मुसीबत के समय मसीहा माने जाते थे । एक किंवदंती के अनुसार एक बार गाँव में तेल की कमी हो गई तब ये दोनों भाई उदयपुर गए । वहाँ इन्होंने अपनी मूंछ का एक बाल एक लाख रुपये में गिरवी रखकर गाँव के लिए तेल कि व्यवस्था की । बाद में गाँव लौटकर उन्होंने एक व्यक्ति को एक लाख रुपये देकर अपनी मूंछ का बाल वापस मँगवाया । इसीलिए यहाँ के लोग मूंछ को आन-बान का प्रतीक मानते है ।

अभयारण्य के वन

यहाँ के बुजुर्गों का कहना है कि एक ज़माने में भैंसरोडगढ़ के जंगल इतने सघन थे की सूरज की रोशनी ज़मीन तक भी नहीं पहुँच पाती थी। दक्षिण एवं पूर्व दिशा में राणाप्रताप सागर बांध, उत्तर दिशा में ब्राह्मिनी नदी एवं पश्चिमी दिशा में हाड़ौती  का पठार इस अभयारण्य की सीमा निर्धारित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय  जलवायु  वाले इस अभयारण्य में चम्बल के गहरे घुमाव और प्रपात हैं जिनमें मगर एवं अन्य जलीय जीव पाए जाते हैं और इसी कारण से इसे घाटियों एवं प्रपातों का अभयारण्य भी कहा जाता है।धोक यहाँ मिलने वाला मुख्य वृक्ष है साथ ही यहाँ सालार, कदम्ब, गुर्जन, पलाश, तेन्दु, सिरस, आमला, खैर, बेर सेमल आदि के वृक्ष मिलते हैं। नम स्थानों पर अमलतास, इमली, आम, जामुन, चुरेल, अर्जुन, बहेड़ा, कलम और बरगद प्रजाति के पेड़ मिलते हैं।

अभयारण्य के वन्यजीव

अन्य बड़ी बिल्लियों की अनुपस्थिति में तेंदुए  खाद्य शृंखला में शीर्ष पर हैं। मांसाहारियों में धारीदार हायना,सियार,कबर बिज्जू,जंगलीबिल्ली, सिवेट, और लोमड़ियाँ मिलती हैं। शाकाहारियों में चीतल, सांभर, नीलगाय, चिंकारा, लंगूर, खरगोश, जंगली सूअर देखे जा सकते हैं। यह क्षेत्र स्लोथ बियर के रहने के लिए भी अनुकूल है।अभयारण्य में सरीसृपों की भी अच्छी आबादी है जिनमें मगरमच्छ, कछुआ, कोबरा, करैत, रैट स्नेक,इंडियन रॉक पाइथन,और मॉनिटर लिजार्ड शामिल हैं। अभयारण्य के चम्बल नदी क्षेत्र में मछलियों की भी कई प्रजातियां पायीं जाती हैं ।मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया भैंसरोड़गढ़ के आस पास के गॉंवों में पालने के उद्देश्य से लायी गई थी जो संयोगवश स्थानीय नदी तंत्र में शामिल हो गयीं । जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों की स्थानीय प्रजातियां संकट में है वही दूसरी ओर यह अभयारण्य में मिलने वाले ऊदबिलाव का प्रमुख  आहार हैं

संकटापन्न पक्षियों का आशियाना

अभयारण्य में लगभग 250 तरह के स्थानीय एवं प्रवासी पक्षियों की प्रजातियां पायी जाती है; जिनमें क्रैन, स्टोर्क, स्नाइप, वैगटेल, रूडी शेलडक और गीज़ प्रमुख हैं। यहाँ स्थित सेडल डैम और ब्रिजसाइड क्षेत्र में यूकेलिप्टस के पेड़ों पर अलेक्जेंड्राइन पैराकीट(Psittacula eupatria) के घोंसले अच्छी संख्या में देखे जा सकते हैं।अभयारण्य का एक अन्य आकर्षण,काला खेत प्लांटेशन-2 में अर्जुन के पेड़ों  पर रहने वाले संकटग्रस्त व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की कॉलोनियां हैं । चम्बल नदी के किनारे स्थित अर्जुन के पेड़ों पर लगभग तीस की संख्या में ये वल्चर मौजूद हैं। संभवतः हाड़ौती में व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की यह एक मात्र कॉलोनी है।

व्हाइट रम्प्ड वल्चर समूह, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

पुनर्वास केंद्र(RC) – अभयारण्य का सूक्ष्म स्वरूप

नदी किनारे धूप सेकते हुए मगर एवं नदी में अठखेलियां करते हुए ऊदबिलाव अभयारण्य की शान माने जाते हैं । यहाँ स्थित पुनर्वास केंद्र (रिलोकेशन सेंटर) के क्रॉकोडिल पॉइंट में दुर्घटनावश मानव बस्तियों में पहुंचने वाले मगर को सुरक्षित निकालकर लाया जाता है एवं नदी में छोड़ा जाता है। यहाँ कई घंटों तक मगर को बिना हिले डुले घूप सेकते हुए, पानी में तैरते हुए देखना और मछली पर झपटना बहुत ही रोमांचक लगता है। 300  हेक्टेयर में बना पुनर्वास केंद्र देखने लायक है जो की सम्पूर्ण अभयारण्य का एक सूक्ष्म स्वरूप माना जा सकता है। यहाँ स्टील से बने इंदिरा गाँधी वाच टावर से पूरे अभयारण्य के विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है।

इंदिरा गाँधी वाच टावर से अभ्यारण्य का विहंगम दृश्य, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

ऊदबिलाव एवं उनकी कलाबाजियां

ब्रिज साइड एवं इसके आसपास के क्षेत्र में चिकने फर वाले उदबिलावों को देखा जा सकता है। ये सुबह से शाम के समय बहुत सक्रिय रहते हैं। इनके झुण्ड को जिसे रोम्प (romp) कहा जाता है नदी में बार बार कूदते हुए देखना रोचक लगता है। ये कूदते समय शरीर को इस तरह से घुमाते हैं मानो डॉल्फिन नदी में कूद रही हो। कुछ समय बाद वापस ये नदी में से मछली मुंह में पकड़ कर निकल कर आते हैं ।मछली को ये बिलकुल उसी तरह से खाते हैं जैसे छोटा बच्चा बिस्किट खाता है। बहुत ही हिल मिलकर रहने वाला यह जीव एक आवाज निकाल कर एक दूसरे से संवाद करता  है । जब ये किसी मानव को देख लेते हैं तो इनकी आवाज लम्बी होने लगती है। नदी की किनारे रेत पर या चट्टान पर इन्हें अपने परिवार के साथ मस्ती करता हुआ देखा जा सकता है, इनका पानी में जाना, वापस आना, एक दूसरे पर चढ़ना, रेत पर फिसलते हुए देखना बहुत ही अलग अनुभव होता है ।

खोह और जल प्रपातों का अभयारण्य

वैसे तो अभयारण्य की प्राकृतिक छटा स्वयं में अद्वितीय है, लेकिन विशेष रूप से यहाँ की रेवाझर खोह,सांकल खोह, रीछा खोह किसी को भी दक्षिणी भारत जैसा अनुभव कराती है ! यहाँ के अन्य आकर्षण राणाप्रताप सागर बांध, सेडल डेम, पाड़ाझर महादेव, चूलिया जल प्रपात, मंडेसरा जल प्रपात ओर  कलसिया महादेव हैं।ब्राह्मिनी एवं चम्बल के किनारे लगभग 150 फुट की ऊंचाई पर भैंसरोड़गढ़ का दुर्ग बहुत ही भव्य दिखाई देता है। भैंसरोड़गढ़ की अद्भुत वास्तुकारी एवं भव्यता देखकर राजस्थान का इतिहास लिखने वाले ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था की अगर उन्हें राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये  तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी ।दक्षिण राजस्थान का सबसे ऊँचाई से गिरने वाला चूलिया प्रपात कई चूड़ी के आकार की घुमावदार घाटियों से बहने वाली जलधाराओं से बना है इस कारण पहले इसका नाम चूड़ियाँ पड़ा ओर बाद में धीरे-धीरे अपभ्रंश होता हुआ चूलिया के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रपात के निचले हिस्से में कई मगर देखे जा सकते हैं।

पाड़ाझर महादेव में देखने लायक तीन मुख्य जगह हैं, महादेव मंदिर, गुफाएं,एवं प्रपात। लगभग 100 मीटर लम्बी प्राकृतिक गुफा के अंतिम बिंदु पर शिवलिंग स्थित है। इस गुफा में सैकड़ों चमगादडो की विशाल कॉलोनी भी हैं।

रेवाझर, भैंसरोड़गढ़ पठार के निचले हिस्से में है जहाँ दुर्लभ वनस्पतियां विद्यमान हैं। यह घाटी  संकटग्रस्त लम्बी चोंच वाले गिद्धों (Gyps indicus)की प्रजनन स्थली है। हालाँकि इनकी संख्या काफी कम है लेकिन फिर भी इन्हें सुबह व शाम के समय आसमान में उड़ान भरते हुए देखा जा सकता है। प्रपात की पूर्वी दिशा में स्थित सीधी चोटी पर इनके घोंसले हैं।इन जंगलों में धारीदार लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, जंगली बिल्लियां भी हैं लेकिन मवेशियों एवं मानवीय गतिविधियों के कारण इनकी संख्या कम है। भैंसरोड़गढ़ में सड़क के किनारे एवं वनस्पतियों से समृद्ध रीछा खोह प्रमुख चार घाटियों में से एक है। यहाँ किसी ज़माने में रीछ हुआ करते थे ।

कलसिया महादेव जल प्रपात, फोटो: डॉ. एन.कृष्णेन्द्र सिंह

सांकल घाटी/प्रपात भी भैंसरोड़गढ़ की चार घाटियों में से एक है जो रेवाझर के ही जैसी है। कलसिया महादेव सड़क के किनारे भैंसरोड़गढ़ पठार की अंतिम घाटी है।महादेव की गुफा यहाँ से बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है।

ऊदबिलाव एवं व्हाइट रम्प्ड वल्चर की कॉलोनी मिलने के कारण भैंसरोडगढ़ अभयारण्य को संकटापन्न प्रजातियों की शरणस्थली कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी I