गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल
अति संकटापन्न पक्षी प्रजाति गोडावण के पर्यावास में महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं के कारण विद्युत् लाइनों का मानो जाल बिछ गया है। इनके सम्बन्ध में अक्सर कहा जाता है, इन्हे भूमिगत रूप से डाला जाये। पढ़ते है, क्या व्यवाहरिक कारण है इनके भूमिगत होने में ?
अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में से जैसलमेर क्षेत्र में मुख्यतः पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा की विभिन्न इकाइयां स्थापित हैं। ये सौर एवं पवन ऊर्जा के संयंत्र बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन में सक्षम हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पवन एवं सौर ऊर्जा सबसे उन्नत एवं विकसित तकनीकें हैं। पवन चक्कियों को चलाने वाली उच्च गति से बहती, सतत हवा और साफ़ आकाश के साथ खिली धूप जो सौर ऊर्जा के लिए जरूरी विकिरण उपलब्ध करवाती है। जैसलमेर क्षेत्र इन दोनों ही स्त्रोतों की उपलब्धता के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में आता है। ये दोनों संसाधन मिल कर जैसलमेर को देश की प्रमुख सौर-पवन Hybrid site बनाते हैं।
अक्षय ऊर्जा की यह स्थापित परियोजनाएं, राज्य को ही नहीं बल्कि राष्ट्र को ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना रही हैं वहीँ कोयले एवं अन्य पेट्रोलियम जनित ऊर्जा स्रोतों पर हमारी निर्भरता भी कम कर रही है। यह स्वच्छ एवं हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन को कम कर पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। यद्दपि यह आज कल चर्चा का विषय है की इस के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव भी है।
राज्य में स्थापित 4292 मेगा वाट के पवन ऊर्जा परियोजनाओं में से 3464 मेगा वाट जैसलमेर जिले में हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से युक्त होते हैं, परिष्कृत कंप्यूटर गणनाओँ एवं अनुसंधान के पश्चात इन्हे स्थापित करने के स्थान का चयन किया जाता है। हवा के बहाव एवं भौगोलिक क्षेत्र के वर्षो तक किये गये अध्ययन के उपरांत एक परियोजना क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। इसी कारण इन परियोजनाओं के लिए भारी निवेश की भी आवश्यकता होती है।
इन ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने के प्रारंभिक चरण के दौरान, राज्य सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि आवंटित की गई थी, जहां डेवलपर्स ने अपने पूर्व परियोजना अनुसंधान डेटा के आधार पर आवेदन किया था। भूमि आबंटन हर चरणों में जाँच के साथ एक बहुत ही विस्तृत और सख्त प्रक्रिया है। फिर इन आवेदनों का विश्लेषण भूमि प्रतिबंध, रक्षा, आवास, खनन आदि जैसे विभिन्न प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है और उनमें से एक प्रमुख प्रतिबंध डेजर्ट नेशनल पार्क (डीएनपी) से बचने के लिए है, जहां गोडावण यानि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) पाया जाता है। कोई भी डेवलपर डेजर्ट नेशनल पार्क की सीमा में प्रवेश नहीं करता है और यह सभी परियोजनाओं के नियोजन चरण में एक स्पष्ट No-Go क्षेत्र है।
जुलाई 2013 में सलखा, कुचड़ी इलाकों के पास जीआईबी देखे जाने की पहली रिपोर्ट आई थी। ये ऐसे क्षेत्र थे जो DNP सीमा से परे हैं। इस समय तक, इन क्षेत्रों के पास भूमि पार्सल पहले ही आवंटित किए गए थे और परियोजनाएं स्थापना के चरण में थीं। इस क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने के लिए कवायद शुरू हुई और इस क्षेत्र में सभी नई परियोजनाओं को रोकने के निर्देश के लिए लगभग 3 साल लग गए और स्थापना रुक गईं। पिछले वर्षों में 2017 से अब तक जैसलमेर या राजस्थान में कोई नई पवन संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है।
इस वर्ष, पवन, सौर और पवन-सौर हाइब्रिड परियोजनाओं के लिए नई नीतियों की घोषणा के साथ, राजस्थान सरकार फिर से राज्य में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही है और राजस्थान फिर इस उद्योग के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन रहा है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए, डीएनपी से परे आवासों की रक्षा हेतु अब जैसलमेर में एक “GIB arch” प्रस्तावित है। यह GIB arch अब क्षेत्र में पवन परियोजनाओं की “NO-Go Area List” में शामिल है, और इस GIB arch और DNP के बाहर ही सभी पवन परियोजनाओं की योजना बनाई गई है।
अक्षय ऊर्जा की ये परियोजनाएं, नवीन दिशा निर्देशों एवं नीतियों के अनुसार “Reverse Bid Process” द्वारा आवंटित की जाती है जिस से इनसे जनित बिजली न्यूनतम दरों पर विभिन्न सरकारी उपक्रमों द्वारा क्रय की जाती है। अतः इन परियोजनाओं का बजट प्रतिस्पर्धात्मक रहने हेतु बहुत ही कम और पूर्व निर्धारित रहता है। परियोजनाओं से बिजली ओवर हेड ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से प्रेषित होती है। यह लाइनें, सब स्टेशन और पवन ऊर्जा संयंत्रों के समूह जिन्हें विंड फार्म के रूप में संदर्भित किया जाता है, के बीच की दूरी के कारण, विद्युत् प्रसारण का व्यावहारिक साधन हैं।
विशेषज्ञों की राय में कहा गया है कि गोडावण की दृष्टि सामने की बजाय, पार्श्व दिशाओ में देखने के लिए अनुकूल होती है, जिसके कारण आमतौर पर इनके उड़ते समय ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने का खतरा रहता है और हमने हाल के दिनों में भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को देखा है। यह वजन में भारी पक्षी जब तीव्र गति से उड़ता हुआ तारो से टकराता है, तुरंत इसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है और तत्पश्चात इसे बचाना नामुकिन होता है।
ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत किया जासकता है या नहीं ?
यह मांग अक्सर आती है कि इन ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत केबलों द्वारा बदल दिया जाना चाहिए। यहां, यह समझना चाहिए कि इन उच्च वोल्टेज केबलों और सहायक उपकरण की सामग्री की ही लागत ओवर हेड लाइनों की तुलना में कुछ गुना अधिक है, और इसकी स्थापना के लिए उच्च कौशल वाले कार्यबल की आवश्यकता होती है जो समग्र रूप से एक परियोजना की लागत को अत्यंत महँगा बना देगी। इन परियोजनाओं में प्रयोग में ली जाने वाली एकल सर्किट 33kv लाइन की कुललागत जहाँ २० लाख रुपये प्रति किलोमीटर आती है वहीँ, केबल की लागत 40 लाख रुपये से भी अधिक आती है। चूँकि यह केबल सुरक्षा की दृष्टि से भूमि के अंदर दबायी जाती है, किसी तकनीकी ख़राबी आने पर तुरंत ही फॉल्ट स्थान का पता लगाकर उसे खोदा नहीं जा सकता इसलिए सामान्यतः दोहरी केबल का जोड़ा भी लगाया जाता है जिससे किसी फॉल्ट की स्थिति में दूसरी केबल को तुरंत प्रयोग में लाया जा सके, यह इस केबल प्रणाली को और भी महंगा बना देता है। सामान्यतः यह 33kv ओवरहेड लाइन किसी भूमि से निकलती है तो प्रति खम्भे के बीच 60 – 70m की दुरी होती है और लाइन जमीन से सामान्यतः 10m की ऊंचाई पर होती है, जो और हाई वोल्टेज लाइन के टॉवर में और भी बढ़ जाती है, वहीँ पर केबल के सन्दर्भ में पूरी भूमि को ही खोद कर उसमे यह केबल दबायी जाती है, यह किसी भी भू मालिक को सहज ही अस्वीकार्य होता है, एक हाई वोल्टेज केबल का अपने भूमि में से गुजरना जिस से उच्च शक्ति विद्युत् प्रवाह होता हो, भू मालिकों को सदैव आशंकित रखता है और वो राजी नहीं होते हैं।और इन लाइनों का बीच में किसी भूमि विवाद में पड़ जाना, पूरी परियोजना को ही ख़तरे में डाल सकते हैं। इसी लिए नए प्रतिष्ठानों के लिए, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आयी रिवर्स बिड नीलामियों और कम दरों पर टैरिफ के साथ, बिजली प्रसारण के लिए विकल्प के रूप में भूमिगत केबल के लिए जाना असंभव है। अतः गोडावण प्रवास क्षेत्रों को चिन्हित कर पहले ही सुरक्षित करना चाहिए |
जिन क्षेत्रों में लाइन पहले से ही स्थापित है वहां एक संभव समाधान हो सकता है, अगर वन विभाग, प्रभावी पक्षी डायवर्टर प्रदान कर सके और संबंधित परियोजना एजेंसी को उचित मार्गदर्शन के साथ उन्हें स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जो सभी हित मालिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है और इन ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जीआईबी के ऐसे टकराव को रोकने में मदद कर सकता है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए वन विभाग द्वारा तत्काल बजट जारी किया जाना चाहिए जो उन्होंने ऐसे पक्षी डायवर्टर स्थापित करने के लिए चिन्हित किये हैं। इनके पूर्णतया प्रभावी होने पर कुछ लोग शंका भी रखते है।
यह एक संयोग है कि पवन परियोजनाएं उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त हैं जो मैदानी हैं और इनमें हवा का सुगम प्रवाह हो सकता है और ये क्षेत्र, ऐसे घास के मैदान ही गोडावण के आवास हैं। लेकिन, यह भी सच है कि कोई भी पवन ऊर्जा एजेंसी उस क्षेत्र में काम करने की इच्छा नहीं रखती है जहां पर्यावरण के लिए कोई भी संभावित खतरा हो सकता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र इन परियोजनाओं के निवेशकों को पीछे हटा देती हैं और ऐसी परियोजनाएं हमेशा कानूनी रूप से ठप होने के जोखिम में होती हैं और व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होती हैं । इस प्रकार आवश्यकता है कि अधिकारियों और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय हो और पारिस्थिकी तौर से संवेदनशील क्षेत्रों का अग्रिम सीमांकन किया जाए। राजस्थान ने 2017 से इस अवधि का उपयोग इस जीआईबी आर्क को मैप करने के लिए किया और अपने राज्य पक्षी और पवन उद्योग के सह-अस्तित्व के लिए एक समाधान तैयार किया। हाल ही में जैसलमेर के रामगढ़ कुचड़ी क्षेत्र के पास एक केंद्र सरकार के सबस्टेशन की योजना जैसलमेर के दक्षिण में स्थानांतरित की गई थी, क्योंकि डेवलपर्स ने ट्रांसमिशन लाइनों से GIB arc को बचाने के लिए अनुरोध किया था, यह एक बहुत स्वागत योग्य कदम था। मौजूदा तर्ज पर डायवर्टर जैसे उपकरणों के उपयोग के लिए इसी तरह की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यूरोप में नए शोध आ रहे हैं जो बताते हैं कि एक टरबाइन के रंगीन ब्लेड भी पक्षियों से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना को कम करते हैं। इस तरह के शोध भारत में भी किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे अनमोल वन्यजीवों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय के साथ एक संवाद विकसित करने की आवश्यकता है, यह उद्योग जो पृथ्वी को साफ और हरा-भरा रखने के लिए कृत संकल्प है