जनता जैव विविधता रजिस्टर

जनता जैव विविधता रजिस्टर

जनता जैव विविधता रजिस्टरहमारी जैव विविधता और पारंपरिक ज्ञान को जानने, उपयोग करने और सुरक्षित रखने के लिए एक परिवर्तनात्मक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण है, जो जैव विविधता संसाधनों और पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण स्थानीय विशिष्ट जानकारी को एक साथ लाते हैं

भारत दुनिया का एक ऐसा देश है जो जैव विविधताओं से भरपूर है, यह अपने प्राकृतिक संसाधनो का निर्यात भी करता है जैसा कुछ ही देश करते है।  इसको उच्च किस्म के बासमती चावल, दार्जिलिंग की चाय, औषधीय एवं सुगंधित पौधों के उत्पाद आदि के निर्यात पर उच्च कीमत मिलती है। किन्तु एक लेख “Biodiversity of India” के अनुसार भारत में 1950 से अब तक तीन स्तनपायी जीवों, 15-20 पौधों और 10 प्रतिशत से अधिक फूलों की प्रजातियाँ प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है।

ज़मीनी स्तर पर शोध के अभाव में 15-20 प्रजातियों के विलुप्त होने की जानकारी है लेकिन अगर शोध होता तो क्या यह संख्या अधिक नहीं होती?  इस प्रकार वनस्पतियों की 10 प्रतिशत प्रजातियां संकटापन्न अवस्था में चली गयी है । यहाँ यह भी सोचनीय विषय है कि जिस जैव विविधता के निर्यात से भारत को उच्च कीमत मिलती है,

क्या उसका उचित लाभ उस जैव विविधता का संरक्षणकर्ता तक पहुंच पाता है?

क्या उस संरक्षणकर्ता को उपलब्ध जैव विविधता पर कोई कानूनी अधिकार प्राप्त है?

उत्तर  “जैव विविधता अधिनियम 2002″ में है जिसे भूले हुये अधिनियम के नाम से जाना जाता है, इसी अधिनियम की धारा 63 में दिये गये राज्यों के अधिकारों का प्रयोग करते हुये राजस्थान सरकार द्वारा 02 मार्च 2010 को राजस्थान जैव विविधता नियम, 2010 राजस्थान राज पत्र में अधिसूचित किये गये।

राजस्थान जैव विविधता नियम, 2010 के नियम 23 में यह प्रावधान किया गया है कि स्थानीय निकाय द्वारा अपने क्षेत्राधिकार में एक जैव विविधता प्रबंध समिति का गठन करेगी।  यहां स्थानीय निकाय से अभिप्राय पंचायत और नगर पालिका से है,  पंचायत और नगर पालिका का  यहां उल्लेख करना आवश्यक है ताकि जाना जा सके कि अधिनियम में किस स्तर से जैव विविधता के संरक्षण को प्राथमिकता दी गई है।

“ जैव विविधता के संरक्षण”, इसके अवयवों के सतत उपयोग और जैव संसाधनों, ज्ञान का उपयोग से उद्भूत फायदों से उचित और  साम्यापूर्ण हिस्सा बँटाने और उससें संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम”

उपरोक्त जैव विविधता अधिनियम 2002 की प्रस्तावना है जो कि अधिनियम को अधिनियमित किये जाने के उद्देश्यों की ओर इशारा करता है। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने एवं अधिनियम से लाभ प्राप्त करने के लिए “जनता जैव विविधता रजिस्टर” को जैव विविधता अधिनियम की चाबी कहा गया है। ऐसे “जनता जैव विविधता रजिस्टर” को जैव विविधता संरक्षण, सतत् उपयोग एवं उद्भूत फायदों का उचित एवं साम्यपूर्ण हिस्सा बांटने के उद्देश्य को  प्राप्त करने के लिए जैव विविधता प्रबंध समिति द्वारा स्थापित किया जाएगा।

“जनता जैव विविधता रजिस्टर” एक ऐसा रजिस्टर है जिसमें स्थानीय उपलब्ध जैव विविधता का डाटा एकत्रित करके उसका प्रविष्टिकरण एवं दस्तावेजीकरण किया जाता है, इस कार्य में स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित एवं प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होती है। अधिनियम के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु  “जनता जैव विविधता रजिस्टर”  की रचना इस प्रकार की गई है कि यदि इसमें निरन्तरता बनाई रखी जाती है तो प्राकृतिक संसाधनो का संरक्षण अधिक किया जा सकेगा।

“जनता जैव विविधता रजिस्टर” कानून रूप से एक महत्वपूर्ण साक्ष्य दस्तावेज है जिसे गाॅव के विभिन्न खण्डो एवं समाजों की भागीदारी में तैयार किया जाता है, इसलिए लोगो द्वारा प्रदान की गई जानकारी को एकत्र कर प्रलेखन से पूर्व उसका विश्लेषण एवं प्रति परिक्षण करना आवश्यक होता है जो तकनीकी सहायता समूह के सदस्य/सदस्यों द्वारा किया जा सकता है। तकनीकी सहायता समूह जिसे जिला प्रशासन द्वारा गठित किया जाता है, जिसमें सदस्य के तौर पर जैव विविधता के क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है, जो सरकारी संस्था, गैर सरकारी संगठन, शिक्षा क्षेत्र, समुदाय के सदस्य या कोई अन्य व्यक्ति हो सकते है जो तकनीकी रूप से जैव विविधता प्रबंध समिति (जिसके मार्ग दर्शन में “जनता जैव विविधता रजिस्टर” निर्माण होता है) व स्थानीय समुदाय को अपना मार्गदर्शन प्रदान करते है, ताकि “जनता जैव विविधता रजिस्टर” के प्रलेखन करने एवं समय समय पर उपलब्ध अतिरिक्त और नई जानकारियां “जनता जैव विविधता रजिस्ट”  में दर्ज करने में मदद मिलती है।

“जनता जैव विविधता रजिस्टर” में दर्ज प्रविष्टियों से क्षेत्र की जैव विविधता के संरक्षण के लिए क्षेत्र की जैव विविधता प्रबंध योजना विकसित करने में आसानी होगी।  वर्तमान उपलब्ध जैव विविधता का आधारभूत डेटाबेस  भविष्य में जैव विविधता के विकास एवं संरक्षण को आसान करेगा।

बौद्विक संपदा अधिकारों और पेटेंट जैसे मुद्दों के लिए “जनता जैव विविधता रजिस्टर” एक कानूनी दस्तावेज है, जो स्थानीय समुदाय को जैव विविधता पर अपने कानूनी अधिकारों को ओर सशक्त बनाता है।

जैव विविधता के संरक्षण और उसके घटकों का स्थाई उपयोग व साथ ही उससे उत्पंन होने वाले लाभों को साझा करने से स्थानीय समुदाय सक्षम बनता है साथ ही समुदाय का विकास होता है इसलिए “जनता जैव विविधता रजिस्टर” एक ऐसा दस्तावेज है जो शहरी और ग्रामीण विकास की योजनाओ को तैयार करने में मदद करता है।

माननीय डॉ. सतीश शर्मा जी द्वारा rajasthanbiodiversity.org  पर प्रकाशित अपने लेख राजस्थान की मुख्य दुर्लभ वृक्ष प्रजातियाँ शीर्षक में ताड़, बड़ी गूगल, पीला पलाश, गिरनार/घोबी का कबाड़, सीला/छल्ला, भिलवा, काटक/आमण्ड़ सहित 14 प्रकार के वृक्षों की प्रजाति का उल्लेख करते हुए राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में अति दुर्लभ माना हैं, साथ इन प्रजातियों के बारे में विश्वसनीय जानकारी के अभाव में सटीक मूल्याकंन न होने पर भी चिंता व्यक्त की है, वहीं अपने लेख “राजस्थान की एंडेमिक वनस्पति प्रजातियाँ“ में उनके द्वारा राज्य के स्थानिक प्रतातियों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए अधिक सटीक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता पर बल दिया गया है।  अपने दोनों लेखों में माननीय डॉ. सतीश शर्मा जी द्वारा व्यक्त की गई चिंता एवं आवश्यकता का समाधान के लिए मेरा यहीं कथन है कि हमारी विधान परिषद द्वारा जैव विविधता संरक्षण के लिए एक मजबूत आपराधिक जैव विविधता (संरक्षण) अधिनियम, 2002 दिया गया है, अब कार्यपालिका से उम्मीद है कि अधिनियम के उद्देश्य जैव विविधता संरक्षण, सतत् उपयोग एवं उद्भूत फायदों का उचित एवं साम्यपूर्ण हिस्सा बांटने के उद्देश्यों को  प्राप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठायें ताकि जैव विविधता संरक्षण, उसका सतत् उपयोग एवं उसके उद्भूत फायदों का उचित एवं साम्यपूर्ण हिस्सा बांटने के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकें।

Reference-

  1. https://www.biologydiscussion.com/india/biodiversity-india/biodiversity-in-india/70823

 

राजस्थान के एक शहर में मानव एवं मगरमच्छ के मध्य संघर्ष

राजस्थान के एक शहर में मानव एवं मगरमच्छ के मध्य संघर्ष

मगरमच्छ हमारे पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, परन्तु अब यह हमारे घरों में क्यों आ रहा है ? कही ऐसा तो नहीं हम ही इसके घर में चले गए हैं ? यह सब एक विस्तृत शोध का विषय है। यहाँ बी.बी.सी. न्यूज द्वारा प्रकाशित दिनांक 31.01.2019 की मुख्य पंक्ति मुझे याद आती है जिसमें माना गया है की भारतीय लोग अपने गाँवों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं।

भारत में कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ पर अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष होते रहते है, इनमें महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में होकर बहने वाली कृष्णा एव इसकी सहायक नदी के किनारे बसे गाँवो से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें सुर्खियों में रहती हैं, राजस्थान से जाने वाली माही नदी जिसका विलय गुजरात की साबरमती नदी में होता है, के आसपास से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें दस्तक देती रहती हैं।

कोटा वासी भी अपने शहर के कुछ हिस्सों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं, कोटा बैराज के दायीं और बायीं ओर सिंचाई हेतु नहर है, बायीं नहर कोटा शहर के जिस क्षेत्र से गुजरती है वह क्षेत्र थोड़ी ऊंचाई पर होने के कारण वहां मगरमच्छ के संघर्ष कम होते हैं किन्तु दायीं नहर का क्षेत्र कोटा बैराज से नीचे होने के कारण यहाँ मानव का मगरमच्छ से संघर्ष ज्यादा होता है। पिछले कुछ वर्षो में कृषि भूमि पर जो कॉलोनियां विकसित हुई हैं जैसे थेकडा रोड़ पर बसी कालोनियाँ, नया नोहरा, नम्रता आवास, बजरंग नगर, शिव नगर आदि बोरखेड़ा क्षेत्र में बसी हुई कई कॉलोनियां मानव एवं मगरमच्छ के संघर्ष का केन्द्र बनी हुई हैं।

हम कोटा में मगरमच्छ से संघर्ष की बात करें और “चन्द्रलोई“ नदी का नाम न ले ऐसा नहीं हो सकता, कोटा क्षेत्र की मगरमच्छ की सबसे बड़ी आबादी इसी नदी व इसमें आकर मिलने वाले विभिन्न मलनलों में फलफूल रहीं हैं। यह नदी कोटा से लगभग 21 कि.मी. दूर मवासा से प्रारम्भ होकर मानस गाँव पहुंच कर चम्बल नदी में मिल जाती है इसी नदी में मिलने वाला एक बरसाती नाला है जो अब “मलनल“ हो गया है इसमें अब बरसात का पानी कम और “व्यवसायिक बहिःस्त्राव“ ज्यादा मिलता है जो सीधा चल्द्रलोई नदी में होकर चम्बल नदी में आकर विलय होता है,  इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण वर्णित मलनल में जल का प्रदूषण इस स्तर तक बढ़ गया है की इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण मलनल में  निवास करने वाले मगरमच्छों पर सफेद रंग के केमिकल की परत चढ़ गयी है और सभी मगरमच्छ सफेद हो गये हैं, कभी कभी हम किसी नये व्यक्ति से यह व्यंग्य कर देते हैं कि सफेद रंग के मगरमच्छ पूरे विश्व में सिर्फ यहीं पाये जाते हैं।

आवासीय क्षेत्र से मगर को रेस्क्यू करते हुए गश्ती दल के सदस्य

प्रदुषण के कारण मलनल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होने पर भी मगर के बने रहने से लगता है की कि प्रलय के उपरांत पृथ्वी पर मगरमच्छ आखिरी जीव होगा। 

शोध में यह स्पष्ट हो चुका है कि चन्द्रलोई नदी का जल न तो पीने के लिए उपयुक्त है न ही खेती के लिए। ऐसे प्रदूषित जल में हम यदि मगरमच्छ के भोजन की बात करें तो यह कहना बहुत कठिन होगा के उसके भोजन की पूर्ति जलीय जीवों से हो जाती होगी और यही यहाँ मगरमच्छ का मानव से संघर्ष का कारण बनता है , मुझे अच्छे से ध्यान आता है कि जुलाई 19 में चन्द्रेसल मठ के नजदीक एक एनिकट पर नहाते हुये बालक मनीष भील को तीन मगरमच्छ खींच कर नदी में ले गए थे वहीं जुलाई 2018 में एक मगरमच्छ द्वारा अपने खेत में काम कर रहे नसरत उल्लहा खान (40) पर हमला कर दिया गया था किन्तु उनके साथी ने तत्परता दिखाते हुये मगरमच्छ पर कुल्हाडी से वार किये जिसके कारण मगरमच्छ को अपने शिकार को छोडने पर मजबूर होना पडा, इस हमले में नसरत उल्लाह खान गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। इस इलाके से गाय, बछडे, सुअर आदि पालतू या आवारा जानवर को मगरमच्छ द्वारा उठा ले जाने की घटनाऐं आम हैं, ऐसा प्रतीत होता है की यहाँ जल में भोजन की मात्रा कम होने के कारण, मगरमच्छ का मुख्य भोजन यही हो गया है।

कोटा की एक आवासीय बस्ती में घुसा मगर

उपरोक्त कठिन परिस्थितियों में भी वन मण्डल, कोटा के लाडपुरा रेंज की टीम और वन्यजीव मण्डल, कोटा के गश्तीदल की टीम सराहनीय कार्य कर रही है, उन्हें जहाँ कहीं से भी मगरमच्छ के रिहायशी इलाके में होने व मानव और मगरमच्छ के संघर्ष की सूचना मिलती है तो यह टीम तुरन्त वहाँ पहुँच कर मगरमच्छ को रेस्क्यू कर वापस प्राकृतिक निवास चम्बल नदी में व मुकन्दरा हिल्स टाइगर रिजर्व के सावन भादो डेम में छोड़ देती है।

मेरे द्वारा ऊपर कठिन परिस्थितियों शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि मगरमच्छ को रेस्क्यू करने वाले उपरोक्त दोनो मण्डल के कर्मचारी न तो मगरमच्छ रेस्क्यू के लिए प्रशिक्षित हैं और न ही उनके पास रेस्क्यू के लिए उपकरण उपलब्ध हैं।

मगरमच्छ रेस्क्यू के आंकड़ों  का अध्ययन करने के बाद मैंने पाया कि विपरीत परिस्थिति में भी दोनो टीमों द्वारा वर्ष 2016 में 30, 2017 में 19, 2018 में 21, 2019 में 67 मगरमच्छ  रेस्क्यू कर सुरक्षित स्थान पर छोड़े गए, वहीं 2016 में 1, 2017 में 1, 2018 में 1, 2019 में 6 मगरमच्छ मृत पाये गए।  वर्ष 2019 में मगरमच्छ रेस्क्यू व मृत्यु की संख्या में वृद्वि भविष्य में मानव और “मगर“ बीच संघर्ष का जोखिम तो नहीं बढ़ा देंगी? 

कोटा शहर और चन्द्रलोई नदी में मानव से “मगर“ का संघर्ष खत्म हो जाएगा, यह तो कहना बहुत कठिन है किन्तु हम यह प्रयास तो कर ही सकते हैं कि चन्द्रलोई नदी में जल प्रदूषण शून्य हो जाए जिससे मगरमच्छ को जल में भोजन उपलब्ध हो और भोजन के लिए “मगर“ को मानव के साथ संघर्ष न करना पडे़।