राजस्थान में मिलने वाले कछुओं की प्रजातियां
राजस्थान के भूभाग पर विशाल प्राकृतिक आवास जैसे थार का रेगिस्तान, अरावली एवं विंध्यन की शुष्क पर्वतमाला, शुष्क और अर्ध-शुष्क पतझड़ी वन, अलवणीय एवं लवणीय झीलें तथा आर्द्र भूमि आदि मौजूद हैं | राजस्थान के इन पारिस्थितिकी तंत्रों में अत्यंत विकसित जैव विविधता भी उपलब्ध है |
क्या शुष्क राजस्थान में जलीय प्राणी वर्ग में भी विविधता होगी ? राजस्थान राज्य में 26 बड़ी नदियाँ बहती हैं एवं यहाँ पर बड़ी संख्या में झीलें एवं तालाब हैं | राजस्थान में जलीय कछुओं की 10 प्रजातियाँ पाई जाती हैं और 01 प्रजाति जमीन पर रहने वाली पाई जाती है | जैव विविधता के एक अनोखे वर्ग – कछुओं के प्रति हम सदैव अनभिज्ञ रहे है। कछुए माँसाहारी और शाकाहारी दोनों ही तरह के होते हैं, ये मरे हुए जानवरों के सड़े-गले अवशेषों को खा जाते हैं, इससे नदी, नालों को साफ रखने में बहुत सहायता मिलती है | कछुए भोज्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते है।
राजस्थान में पाए जाने वाले कछुओं में सबसे ज्यादा जलीय कछुओं की निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं:
- निल्सोनिया गेंजेटिका (इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia gangetica (Indian softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 94 से.मी तक बड़ी होती है | यह प्रजाति सड़े गले मांस एवं पानी में पाए जाने वाले पौधों के साथ में जलीय वनस्पती, मछलियों, अन्य कछुओं की हैचलिंग एवं जल पक्षियों पर शिकार करते है| गंगा स्वछता अभियान के अंतर्गत इस प्रजाति को नदी साफ करने के लिए छोड़ा गया हैं| यह एक बार में 13-35 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास तक देते है जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है | रणथंभोर टाइगर रिजर्व में कुछ साल पहले एक बाघ को इन्डियन सॉफ्टशेल टर्टल का शिकार करते हुए भी देखा गया है | इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |
2. निल्सोनिया हुरम (इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia hurum (Indian peacock softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक और प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 60 से.मी तक बड़ी होती है और मछली एवं घोंघे खाते है | इनके खोल पर 4 से 5 गोल निशान देखे जा सकते हैं | यह एक बार में 20-38 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास में देते हैं| यह प्रजाति राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय वन्य जीव अभ्यारण्य एवं चम्बल नदी के कुछ हिस्सों में पाई जाती हैं| इस प्रजाति का शिकार मांस और अंडो के लिए किया जाता है।
3. लिसेमिस पंक्टाटा (इंडियन फ्लेपशेल टर्टल) Lissemys punctata (Indian flapshell turtle): नदी, झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक छोटी प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 37 से.मी की होती है और टैडपोल, मछली और जल कुम्भी आदि खाते हैं। यह प्रजाति सितंबर से नवंबर मास में अंडे देते हैं और एक बार में 8- 14 अंडे देते हैं जिनमें से बच्चे तकरीबन 9 महीने में निकलते हैं । यह कछुआ पालने और इसके मांस के लिए अधिक मांग में हैं| माना जाता है की इस प्रजाति की राजस्थान में 2 उप-प्रजातियां पायी जाती है ( लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी- Lissemys punctata andersonii और लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा – Lissemys punctata punctata) राजस्थान की लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा उप -प्रजाति इंडिया में पाए जाने वाली वाकी लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा से कुछ अलग बताई जाती है। इसलिए इस उप-प्रजाति पर आनुवंशिक अनुसंधान चल रहा जिससे इसके बारे में कुछ विशेष बातें पता लग सकती है।
4. चित्रा इंडिका (नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल) Chitra indica (Narrow headed softshell turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक नरम खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | वे नदी के तल पर मौजूद रेत में खुद को दफनाते हैं और मछलियां, मोलस्क, आदि का शिकार करते हैं | इस प्रजाति के कछु-ए 150 से.मी तक बढ़ सकते हैं और अगस्त-सितंबर मास में अंडे देते हैं। एक बार में यह प्रजाति 65 से 193 अंडे दे सकते हैं| वे अपने अंडे रेत में देते हैं और उनमें से बच्चे 40-70 दिनों में बाहर आते हैं। इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |
5. जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी (स्पोटेड पोंड टर्टल) Geoclemys hamiltonii (Spotted pond turtle): झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक छोटी प्रजाति है| इसका रंग काला होता है और इसके ऊपर पीले डॉट्स भी होते है। यह प्रजाति लगभग 41 से.मी तक बड़ी होती है और मछली,घोंघे, घास, फल एवं जलकुम्भी खाते है | भारत में यह प्रजाति अप्रैल-मई मास में लगभग 12-36 अंडे देते है और उनमें से बच्चे 50-60 दिनों में बाहर आते हैं। यह कछुआ इसके आकर्षक चित्तीदार पैटर्न के कारण पालने के लिए अधिक मांग में हैं|
6. हार्देला थुरजी (क्राउंड रिवर टर्टल) Hardella thurjii (Crowned river turtle): यह नदी व उनकी छोटी और स्थिर शाखाओं में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक बड़ी प्रजाति है। इसका रंग काला होता है और इसके मुँह पर 4 पीली-नारंगी रंग की धारियां देखी जा सकती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 61 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 18 से.मी के हो सकते है। मुख्य तौर पर शाकाहारी होती है, इसलिए सब्ज़ी, फल, आदि खाते है। यह प्रजाति सितम्बर से जनवरी मास में अंडे देते है और एक बार में 30-100 अंडे दे सकते है। जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है। इसके मांस की खपत और मछली पकड़ने के जाल में फसना उनके लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभर के आया है।
7. बटागुर कछुगा (पेंटेड रूफ टर्टल) Batagur kachuga (Painted roofed turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजाति है। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों में पायी जाती है। राजस्थान में यह प्रजाति चम्बल में देखी जा सकती है। इस प्रजाति में भी नर मादा से छोटे होते है, प्रजनन काल में वयस्क नर का मुँह चटक लाल, नीला और पीला रंग अपना लेता है। यह लगभग 56 से.मी तक बढ़ सकते है और शाखाहारी होते है, मुख्या तौर पर यह प्रजाति जलीय वनस्पती खाते है। यह साल में दो बार अंडे देते है मार्च से अप्रैल और दिसंबर माह में, एक बार में करीब 11-30 अंडे देते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।
8. बटागुर ढोंगोका (थ्री-स्ट्राइपड रूफ टर्टल ) Batagur dhongoka (Three-striped roofed turtle) : यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | इस प्रजाति को इसके कवछ पे मौजूद 3 काली धारियों और आँखों के पार जाती पीली धारी से पहचाना जा सकता हैं। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों एवं चम्बल में पायी जाती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 48 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 25.5 से.मी तक बढ़ सकते है। मुख्या तौर पर यह शाखाहारी होते है मगर इस प्रजाति के नर अवसरवादी मांसाहारी होते है। यह मार्च से अप्रैल माह में अंडे देते है , एक बार में यह 21-35 अंडे तक दे सकते है जिनसे बचे निकलने में 56-89 दिन लगते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा भी इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।
9. पेंग्शुरा टेक्टा( इंडियन रूफड टर्टल) Pangshura tecta (Indian roofed turtle): ये कछुए ठहरे पानी वाली नदियों व नालों में पाए जाती है। इस प्रजाति के कई कछुए एक साथ धूप सेकते देखे जा सकते है। ये एक सख्त खोल की छोटी प्रजाति का कछुआ है। यह कछुआ लगभग 18 से.मी बड़े हो सकते है, यह किशोर अवस्था में मासाहारी होते है लेकिन व्ययस्क होते-होते शाकाहार अपना लेते है। यह सितम्बर से नवंबर मास में एक कछुआ 5 से 10 अंडे दे सकता है। यह उत्तर भारत और मध्य भारत में पाए जानी वाली प्रजाति है। इस प्रजाति का इस्तेमाल चीनी दवाइयों में और इसके आकर्षक रंगो के कारण पालने के लिए किया जाता है।
10. पेंग्शुरा टेंटोरिया (इंडियन टेंट टर्टल) Pangshura tentoria (Indian tent turtle): यह छोटी एवं बड़ी नदियों में पाए जाने वाली सख्त खोल की छोटी प्रजाति है। इसके ऊपर खोल के किनारो पर मौजूद गुलाबी धारी इसे वाकी पेंग्शुरा प्रजाति के कछुओं से अलग करती है। यह कछुआ लगभग 27 से.मी बड़े हो सकते है । इस प्रजाति के किशोर एवं व्ययस्क नर मांसाहारी होते है, लेकिन इस प्रजाति के मादाएं पूरी तरह से शाकाहारी होती है। ये एक बार में 3-6 अंडे देते है जिनमे से बच्चे निकलने में 125-144 दिन लग सकते है। इस प्रजाति के नर और किशोर पालने के लिए पकडे जाते है।
11. जियोचिलोन एलिगेंस (इंडियन स्टार टोरटोइस) Geochelone elegans (Indian star tortoise): स्टार टोरटोइस एक ज़मीनी कछुए की प्रजाति है जो खेतों के आस-पास अथवा वन में पाए जाते है। इनका खोल सख्त होता है और उसके ऊपर स्टार जैसा पैटर्न होता है। यह लगभग 38 से.मी जितना बड़ा हो जाता है | पुरानी स्टडीज से पता चलता है कि स्टार टोरटोइस शाकाहारी है परन्तु इसे मृत जानवरों के अवशेषों को खाते हुए देखा गया है, स्टार टोरटोइस को मृत जीवो को खाते हुए भी देखा गया है | यह मार्च- जून एवं नवंबर माह में 2-10 अंडे देते है, जिनमे से बच्चे निकलने में 100-130 दिन लग सकते है।इन कछुओं की मांग पालने एवं काले जादू के लिए इस्तेमाल में लिए जाने की वजह से बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक वास के नुकसान से भी इनके लिए खतरा बना हुआ है।
भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार ये कहा जाता है कि एक विशाल कछुए ने समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत के मंथन में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था , यही मुख्य कारण है कि इनकी तस्करी की जाती है | आज भी माना जाता है कि एक और मिथ हैं कि कछुए के माँस से ट्यूबरक्लोसिस का उपचार होता है जिसके कारण इसका बहुत अधिक मात्रा में शिकार होता हैं | इनको माँस के लिए भी मारा जाता हैं | स्टार टोरटोइस को पालने के लिए अधिकांशत: अरावली की तलहटी एवं राजस्थान के अन्य वनों में से पकड़कर बेचा जाता है, इनकी मांग दीवाली के त्यौहार के दौरान सर्राफा व्यवसायियों के बीच बढ़ जाती है | संरक्षित क्षेत्रों में से होकर बाँध, उच्च मार्गों का निर्माण, बालू का खनन इनके लिए मुख्य खतरे हैं, टर्टल संरक्षण के लिए राजस्थान में भी जागरूकता पैदा किए जाने की अत्यधिक आवश्यकता है, अन्यथा हम देखेंगे कि राज्य से बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी | 11 में से 07 प्रजातियों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम स्थिति) अनुसूची-I एवं अनुसूची-IV में 1 के अंतर्गत अनुसुचिबद्ध किया गया है |
राजस्थान में कछुओं की बहुरूपता का बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ है, इस बारे में अधिकांश जो अध्ययन हुआ है, वो चंबल एवं केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में हुआ है, इसलिए यह अनुशंसा है कि कछुओं के संरक्षण हेतु विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इनके निवास को संरक्षित एवं कछुओं पर गहन अध्ययन किये जाने चाहिए। |
बैनर चित्र : डॉ धर्मेंद्र खांडल