लग्गर फाल्कन पक्षियों की दुनिया के माहिर शिकारी है जो बेहद कुशलता से अपने शिकार को पहचानने, पीछा करने और मारने में सक्षम है, राजस्थान में हम यदि इस शिकारी पक्षी को नहीं जानते तो हमारा रैप्टर्स के बारे में ज्ञान अधूरा है
लग्गर फॉल्कन, एक मध्यम आकार का शिकारी पक्षी जो मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Falco jugger है तथा यह पक्षी जगत के Falconidae कुल का एक सदस्य है। यह एक फुर्तीला पक्षी है, जो हवा में तेज गति से उड़कर अपनी तेज दृष्टि से शिकार को पकड़ लेता है। तेज उड़ान की गति के कारण ये अक्सर उड़ते हुए पक्षियों को भी अपना शिकार बना लेता है। लग्गर फॉल्कन दुनिया के चार हाइरोफाल्कन (सबजीनस: हायरोफाल्को) में से एक है, तथा यह इस सबजीनस में बड़े बाज़ों में से एक है। ऐसा भी माना जाता है कि हायरोफाल्कन की संपूर्ण जीवित विविधता की उत्पत्ति 130,000 से 115,000 साल पहले, प्लीस्टोसिन के उत्तरार्ध में एमीयन इंटरग्लेशियल में हुई थी। भले ही लग्गर फॉल्कन व्यापक रूप से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में वितरित हो परन्तु यह एक दुर्लभ प्रजाति है। आज IUCN Red Data list के अनुसार यह एक संकट के निकट अर्थात “Near Threatened” प्रजाति है।
निरूपण/ Description:
लग्गर फॉल्कन एक मध्यम आकार का (कौए से लगभग थोड़ा सा बड़ा), क्षीण बाज़ होता है। रंग-रूप में नर व मादा एक जैसे ही दिखते है परन्तु मादा आकार में नर से थोड़ी बड़ी होती है। वयस्क के शरीर के पृष्ठ भाग गहरे भूरे व स्लेटी भूरे रंग तथा अधर भाग सफ़ेद व हल्के बादामी रंग के होते है। इसका गला व छाती का ऊपरी हिस्सा सादा सफ़ेद तथा छाती के बगल व पेट के पास हल्की लकीरे होती है। इसके सिर का रंग गहरा-भूरा और इसकी आँखों के नीचे की तरफ एक गहरे-भूरे रंग की पट्टी तथा हल्के रंग के भौंहें होते है। पूँछ के बीच वाले पंख प्लेन होते है। इसकी चोंच स्लेटी तथा पंजे पीले रंग के होते हैं। एक वयस्क लग्गर फॉल्कन और साकेर फॉल्कन में आसानी से अंतर किया जा सकता है क्योंकि लग्गर फॉल्कन में शरीर के अधर भाग प्लेन व मूंछो के पास एक स्पष्ट दिखने वाली पट्टी होती है जबकि साकेर फॉल्कन में शरीर के निचले भाग पर गोल धब्बे और मूंछों की पट्टी थोड़ी धुंधली व फैली हुई सी होती है।
जुवेनाइल लग्गर फॉल्कन ऊपर से गहरे भूरे रंग के होते हैं, तथा इन के अंडरपार्ट्स, विशेष रूप से जांघ, फ्लैंक और पेट के निचले सिरे गहरे भूरे (चॉकलेट-ब्राउन) रंग के होते है। सिर के ऊपर हल्का भूरा रंग होता हैं। कई बार जुवेनाइल लग्गर फॉल्कन समान दिखने वाली अन्य प्रजातियों जैसे पेरेग्रीन फॉल्कन और साकेर फॉल्कन के जैसा प्रतीत होता है तथा इनकी पहचान और अलगाव करना थोड़ा सा जटिल कार्य है।
भट्ट एट. अल. (2018) ने पृष्ठ भागों पर पाए जाने वाले निशानों के आधार पर लग्गर फॉल्कन को पांच प्रकारों में बांटा है:
- टाइप 1 -गहरी-भूरे रंग की प्लूमेग: निचले भाग पूरी तरह से गहरे भूरे रंग के होते हैं तथा इनमें किसी भी प्रकार की लकीरे व् अन्य निशान नहीं होते है।
- टाइप 2 – भारी धब्बेदार: इसमें निचले भागो पर गहरे भूरे रंग के साथ कुछ सफ़ेद रंग के धब्बे होते हैं, तथा यह स्थिति अधिकतर जुवेनाइल लग्गर में देखने को मिलती है।
- टाइप 3 – कम धब्बेदार: इसमें धब्बे कम और अधर भाग के सफ़ेद रंग पर दूरी पर फैले होते है। यह स्थिति सबसे अधिक जुवेनाइल या जुवेनाइल से वयस्क हो रहे लग्गर में देखने को मिलती है।
- टाइप 4 – धारीदार (Streaked) वयस्क: इसमें सफ़ेद व हल्के भूरे रंग के अधर भाग पर कुछ लकीरे होती हैं।
- टाइप 5 – वयस्क लग्गर में सबसे अधिक यही प्रकार पाया जाता है, इसमें गले, छाती और ऊपरी पेट पर बहुत कम या फिर कोई भी लकीर नहीं होती है।
इतिहास/ History:
लग्गर फॉल्कन का सबसे पहला चित्र थॉमस हार्डविक (Thomas Hardwicke) ने बनाया था। मेजर-जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था।
जॉन एडवर्ड ग्रे (John Edward Gray) ने सन 1834 में लग्गर फॉल्कन को द्विपद नाम पद्धति के अनुसार “Falco jugger” नाम दिया। ग्रे एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक थे जो लंदन में ब्रिटिश म्यूजियम में जूलॉजी संग्रहण का रख रखाव करते थे। लग्गर फॉल्कन को हमेशा से ही छोटे पक्षियों का शिकार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। पक्षी विशेषज्ञ TC Jerdon सन 1864 में भारतीय पक्षियों पर लिखी पुस्तक में बताते है की कई बार उन्होंने भी लगगर फॉल्कन द्वारा लैसर फ्लोरिकन (Lesser Florican) का शिकार किया है। वह बताते है की यह अपने शिकार का तेजी से पीछा करते है और पलक झपकते ही उसको दबोच लेते है। A O Hume अपनी पुस्तक The Nests and Eggs of Indian Birds में बताते हैं की यह पक्षी अक्सर पुरानी ऊँची इमारतों की दीवारों के खोखले स्थानों पर भी घोंसला बना लेता है। Hume बताते है की उन्होंने तुगलक शाह के भव्य मकबरे की बाहरी दीवारों तथा फत्तेतेपुर सीकरी के उच्च द्वार की पार्श्व दीवारों में इसके घोंसले देखे है।
वितरण/ Distribution:
लगगर फॉल्कन, भारतीय उपमहाद्वीप में भारत सहित, दक्षिणी-पूर्वी ईरान, दक्षिणी-पूर्वी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और उत्तर-पश्चिमी म्यांमार में पाया जाता है। भारत में यह रेगिस्तानी और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में सामान्य तथा दक्षिणी भारत में दुर्लभ माना जाता है। राजस्थान में इसे ताल छापर वन्यजीव अभयारण्य में अच्छी संख्या में देखा जा सकता है, जहां वे प्रजनन के लिए भी जाने जाते हैं। ये पक्षी मुख्यरूप से खुले घास के मैदानों, झाड़ीनुमा जंगलों व खेतीबाड़ी वाले क्षेत्रों में देखे जाते है।
आहार व्यवहार/ Feeding Behaviour:
लगगर फॉल्कन की शिकार करने की कला अपने आप में ही बहुत अद्भुत व् अद्वितीय है क्यूंकि यह मुख्यतः आपसी समन्वय से जोड़े में तेज गति व् दृढ़ संकल्प के साथ अपने शिकार का पीछा कर उसे बीच आसमान में ही दबोच लेते हैं। इसकी चुस्ती-फुर्ती, तेज गति व् तेज नज़र इसे एक माहिर शिकारी बनाती है। लगगर फॉल्कन के भोजन में छोटे पक्षियों के साथ-साथ जेर्बिल, स्पाईनि-टेल्ड लिज़र्ड्स, अन्य छोटी छिपकलियाँ और कृन्तकों का समावेश है। दीक्षित (2018) ने लगगर फाल्कन के जोड़े को ड्रैगन फ्लाइज़ तथा कॉमन क्वेल को खाते हुए भी देखा है। मोरी (2018) ने एक लार्क का सेवन करते हुए भी देखा है।
प्रजनन/ Breeding:
लगगर फॉल्कन के प्रजनन का समय जनवरी से मार्च तक होता है और इस समय में इनको आसानी से जोड़े में देखा जा सकता है। यह आमतौर पर अन्य शिकारी पक्षियों जैसे बाज, चील व कौआ आदि के पुराने घोंसलो को प्रयोग में लेते है। कभी-कभी ये अपने घोंसले पेड़ों के खोल व पुरानी इमारतों में भी बनाते है। घोंसला बनाने के लिए ये अकसर ऐसे स्थान का चुनाव करते है जहाँ बहुत सारे छोटे पक्षी और सरीसृप हो ताकि इन्हे आसानी से भोजन प्राप्त हो सके। इसके घोंसलों की स्थिति भिन्न होती है; जैसे कभी-कभी पीपल जैसे बड़े पेड़ों पर, तो कभी चट्टानों की दरारों में, और कभी-कभी प्राचीन इमारतों की दीवारों में जहाँ एक या दो पत्थर गायब हो जाते हैं। A O Hume अपनी पुस्तक The Nests and Eggs of Indian Birds में बताते हैं की इस पक्षी घोंसला जब पेड़ों पर बनाया जाता है, तो आमतौर पर लगभग 2 फीट व्यास का होता है। यह टहनियों और छोटी छड़ियों से बना होता है परन्तु जब यह किसी अन्य पक्षी के घोंसले पर कब्ज़ा कर लेते है तो यह और भी बड़े आकार का हो सकता है।
खतरे/ Threats:
लगगर फॉल्कन, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाला सबसे आम फॉल्कन हुआ करता था परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इसकी संख्या में तेजी से गिरावट आयी है परिणाम स्वरूप आज यह कोई आम प्रजाति नहीं रही। BirdLife International के सर्वेक्षण के अनुसार आज लगगर फॉल्कन की कुल आबादी केवल 10000-19999 है और यह भी वर्ष प्रतिवर्ष घटती ही जा रही है। IUCN Red Data list के अनुसार यह एक सकंट के निकट अर्थात “Near Threatened” प्रजाति है। यह विभिन्न कारणों से है जैसे कि खेती में कीटनाशकों के उपयोग में तीव्रता से वृद्धि, मानव जनसँख्या का विस्तार, अज्ञानता के माध्यम से उत्पीड़न, अवैध व्यापार तथा बड़े फाल्कन्स को पकड़ने के लिए एक चारे के रूप में प्रयोग होने से संकट झेल रहा है।
इसके अलावा इसके कुछ प्रमुख आहार जीवों की संख्या में गिरावट, जैसे कि स्पाइन टेल्ड लाइज़र्ड्स, लगगर फॉल्कन की प्रजनन सफलता पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते है। लगगर फॉल्कन को हमारी मदद की जरूरत है और इसे अभी इसकी जरूरत है।
सन्दर्भ :
- Rao, A., &Adaki, K., 2018. Notes on the breeding of the Laggar Falcon Falco jugger. Indian BIRDS 14 (5): 139–141.
- Bhatt, N., Dixit, D. & Mori, D. 2018. Notes on distribution and plumages of Laggar Falcon in Gujarat. Flamingo Gujarat-Bulletin of Gujarat Birds 16(3): 1-7.
- BirdLife International (2020) Species factsheet: Falco jugger. Downloaded from http://www.birdlife.org (http://www.birdlife.org) on 24/04/2020.
- Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent. Digital edition.
- Gray, J.E. Illustrations Indian Zoology. Collection of Major general Hardwicke. Vol II
- Hume, A.O. 1890. The Nest and Eggs of Indian Birds. 2nd Vol III.
- Jerdon, T.C. 1864. Birds of India: Being the birds known to inhabit continental India. Vol III. George wyman and co., publishers, La, hare street, Calcutta.pp 623.
- https://www.currentconservation.org/issues/thomas-hardwicke-1756-1835/
A very heart warming Article , very thankful for it. I am a big fan of laggar falcon. I live in Punjab and here there are no laggars . I want to ask that why india, being a big country, lags behind in saving many native species . Whereas UK based falconers are trying to save these falcons with such efforts that in future there will be more laggars in uk than in Indian subcontinent. I feel embarrassed when thinks about being living in such a country which supports one of the world’s most biodiversity, where I cannot help laggars.
At last I want say that India should revive falconry so that falconers help the decreasing number of raptors and their prey items. Just like peregrines in America were brought back from near extinction to a healthy population by captive breeding , in india falconers can bring back laggard and red necked falcons back to a healthy population. Thanks for creating a nice article.
Regards
Gurwinder Rai