जोड़बीड़, एशिया का सबसे बड़ा गिद्ध स्थल, जो राजस्थान में प्रवासी पक्षियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान भी है, गिद्धों की घटती आबादी के लिए प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था का श्रोत है…
जोड़बीड़ गिद्ध आवास को लेकर पुरे दक्षिणी एशिया में अपना एक अलग ही स्थान रखता है । 1990 के दशक मे जहाँ पूरी दुनिया से गिद्ध समाप्त हो रहे थे वहीँ दूसरी ओर राजस्थान वो प्रदेश था जिसने उनके प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था को बनाये रखा। वैज्ञानिक अनुसंधानों ने गिद्धों की गिरती हुई आबादी का प्रमुख कारण मवेशियों में उपयोग होने वाली दर्दनिवारक दवाई डिक्लोफेनाक (Diclofenac) को माना। एक तरफ गिद्धों की संख्या निरंतर गिरती गयी तो वहीँ जोड़बीड़ गिद्ध आवास बीकानेर में उनकी संख्या वर्ष 2006 के बाद निरंतर बढती गयी और इसका प्रमुख कारण था भोजन की प्रचुर मात्रा। जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है।
यह संरक्षण रिजर्व 56.26 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है और गिद्ध दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थल है। घास और रेगिस्तानी पौधे यहाँ की मुख्य वनस्पति है जो यहाँ और वहाँ बहुत दुर्लभ पेड़ों से लाभान्वित है। जोड़बीड़ मृत पशु निस्तारण स्थल के एक तरफ ऊंट अनुसंधान केंद्र, अश्व अनुसंधान केंद्र और दूसरी तरफ बीकानेर शहर है।
जोड़बीड़ में एक साथ लगभग 5000 गिद्ध व शिकारी पक्षियों को देखा जा सकता है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
बीकानेर का इतिहास 1486 ई. का है, जब जोधपुर के संस्थापक राव रावजी ने अपने पुत्र को अपना राज्य स्थापित करने की चुनौती दी। राजकुमार राव बीकाजी के लिए, राव जोधाजी के पांच बेटों में से एक पुत्र जंगलवासी जांगल, ध्यान बिंदु बन गया और उन्होंने इसे एक प्रभावशाली शहर में बदल दिया। उन्होंने 100 अश्वारोही घोड़ों और 500 सैनिकों के साथ अपना काम पूरा किया और शंखलास द्वारा छोड़े गए 84 गाँवों पर अपना राज्य स्थापित किया। अपनी प्रभावशाली सेना के लिए उंट, घोड़े व मवेशी रखने के लिए बीकानेर शहर के पास गाड़वाला के बीड (जोड़बीड़) में स्थान निर्धारित किया जिसे रसाला नाम से भी जाना गया।
आधुनिक बीकानेर के सबसे प्रतिष्ठित शासक, महाराजा गंगा सिंह (1887-1943) की दूरदर्शिता का परिणाम रहा की जोड़बीड़ में भेड़ पालन का कार्य भेड़ अनुसंधान केंद्र, अविकानगर जयपुर की सहायता से शुरु हो पाया। जोड़बीड़ का एक बड़ा भाग ऊंढ़ व अश्व अनुसंधान के पास रहा जो बाद में वन अधिनियम बनने के बाद चारागाह भूमि (जो उंट के लिए होती थी) वन का भाग बन गयी। वर्तमान मे जोड़बीड़ गिद्ध स्थल पिछले 30 वर्षों में 6 बार विस्थापित हुआ परन्तु 2007 में स्थानीय कलेक्टर महोदय के द्वारा जोड़बीड़ संरक्षण स्थान बनने से पहले मृत पशुओं के लिए निर्धारित कर दिया गया। चूंकि जोड़बीड़ में मृत पशुओं के रूप में पर्याप्त भोजन है और जैसा कि यह स्थान गिद्धों के प्रवास मार्ग में स्थित है, यह उनके लिए स्वर्ग से कम नहीं है। बिल्डरों और ग्रामीणों द्वारा किसी भी अतिक्रमण को रोका जा सके इसको सुनिश्चित करने के लिए वन विभाग ने इस क्षेत्र को एक जोड़बीड़ अभयारण्य के रूप में घोषित कर दिया है। जिले के शहरी भाग, गंगाशहर, भीनाशहर, दूध डेरियों से मृत शव पार्क के पश्चिमी भाग (बीकानेर पश्चिम रेल्वे स्टेशन) में डाले जाते हैं। आसपास के गाँवों व शहरों से गर्मियों में लगभग 100-120 शव व सर्दियों में 170-200 शव (छोटे व बड़े पशु ) निस्तारित किये जाते हैं।
जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
गिद्ध, जिनका उद्देश्य पर्यावरण से मृत शवों को साफ करना है, इस काम के लिए प्रकृति की सबसे अच्छी रचना हैं। यद्यपि ऐसे अन्य जानवर भी हैं जो समान कार्य करते हैं पर गिद्ध इसे अधिक कुशलता से करते हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों में गिद्धों की नौ प्रजातियां पायी जाती हैं। ये प्रजातियां Long-billed Vulture, Egyptian Vulture, Bearded Vulture, White-rumped Vulture, Slender-billed Vulture, Himalayan griffon Vulture, Eurasian griffon Vulture, Cinereous Vulture, Red-headed Vulture हैं। डिक्लोफेनाक, जो मवेशियों में दर्द निवारक के रूप में प्रयोग की जाती है से मृत्यु के कारण इनकी आबादी में 90-99% की कमी देखी गई है। गिद्धों द्वारा खाए जाने पर, इन जानवरों का शव गुर्दे की विफलता के कारण उनकी मृत्यु का कारण बनता है। व्यापक शिक्षा और पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध के कारण, गिद्ध आबादी एक छोटे से विकास को देख रही है, लेकिन कुल मिलाकर स्थिति अभी भी लुप्तप्राय स्तर पर ही है।
Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया से प्रवास कर भारत में आते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
जोड़बीड़ अभ्यारण्य Black kite, steppe eagle, Greater spotted eagle, Indian spotted eagle, Imperial eagle, White tailed eagle आदि जैसे विभिन्न प्रकार के रैप्टर्स (शिकारी पक्षियों) को भी आकर्षित करता है। लगभग 5000 गिद्ध व रेप्टर यहां पाए जा सकते हैं, प्रवासी प्रजातियां Eurasian griffon Vulture स्पेन और टर्की, Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया तथा Himalayan griffon Vulture तिब्बत और मंगोलिया से आते हैं।
Himalayan Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
Eurasian Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है। अगर प्रकृति में ये पक्षी किसी भी प्रकार से प्रभावित होते हैं तो उसके परिणाम स्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में अन्य जानवर भी खतरे में हो जाता हैं। जोड़बीड़ न केवल गिद्धों बल्कि अन्य शिकारी पक्षियों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान है। अभ्यारण्य के आसपास का क्षेत्र जो खेजरी और बेर के पेड़ों के साथ एक खुली भूमि है तथा यहाँ डेजर्ट जर्ड नामक छोटा कृंतक देखा जा सकता है जो बाज का भोजन है तथा बाज को इसका शिकार करते हुए देखा भी जा सकता है।
Egyptian Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
Long-legged buzzard (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
शिकारी पक्षियों के अलावा अभ्यारण्य में Ashy Prinia, Black winged Stilt, Citrine Wagtail, Common Pochard, Common Redshank, Eurasian Coot, European Starling, Ferruginous Pochard, Gadwall, Great Cormorant, Isabelline Shrike, Isabelline Wheatear, Kentish Plover, Little Grebe, Ruff, Shikra, Variable Wheatear आदि भी सर्दियों में आसानी से देखे जाते हैं। यहाँ Yellow eyed Pigeon (Columba eversmanni) कज़ाकिस्तान से अपने प्रवास के दौरान आते हैं तथा यहाँ मरू लोमड़िया, भेड़िया, जंगली बिल्ली, जंगली सूअर इत्यादी भी आसानी से देखे जा सकते है।
गिद्ध हमारे पारिस्थितिक तंत्र का अभिन्न अंग है ये मृत जीवों को खाकर पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
स्थानीय रूप से वन विभाग द्वारा आने वाले प्रवासी पक्षियों के लिए अनुकूल व्यवस्था की गयी है परन्तु जल स्त्रोत की कमी, मृत पशुओ के शरीर से निकलने वाली प्लास्टिक, शहरों से आने वाले आवारा पशु व कुत्ते व्यवस्था प्रबंधन मे बाधक सिद्ध हो रहे हैं। इनके अलावा मृत पशु निस्तारण स्थल के पास निकलने वाली रेल्वे लाइन व गावों मे जाने वाली बिजली के तार गिद्धों व शिकारी पक्षियों को मौत के घाट उतार रहे है। आवारा कुत्तों की उपस्थिति पक्षियों और पर्यटकों दोनों के लिए खतरा पैदा करती है। ये कुत्तों इतने क्रूर होते है की वे भोजन करते समय गिद्धों को परेशान करते हैं। इसके अलावा अभ्यारण्य में खेजड़ी, साल्वाडोरा, बेर, केर और नीम के वृक्षों का बहुत सीमित रोपण है।
चमगादड़ द्वारा COVID-19 को फैलाने के डर से, राजस्थान के दो स्थानों पर अज्ञानता के कारण लोगों द्वारा भारतीय चमगादड़ों को मारते हुए देखा गया है। हाल ही में चूरू जिले के सादुलपुर में 45 चमगादड़ को इस वजह से मार दिया गया, झुंझुनू जिले के लोहरगर्ल क्षेत्र में 150 से अधिक चमगादड़ों को मारा गया।
रोजाना स्थानीय टीवी मे प्रसारित समाचारों के द्वारा चमगादड़ों को कोरोना का मुख्य कारण बताये जाने के कारण भारत में लोगो में यह अवधारणा बन रही है की यह एक अत्यंत घातक प्राणी है, और इसी के चलते चमगादड़ो को अपने आसपास से समाप्त किया जा रहा है I यह पूर्णतया आधारहीन, गैर-वैज्ञानिक एवं भ्रामक है बल्कि यह हमारे पर्यावरण के लिए अत्यंत खतरनाक स्थिति है I
वर्तमान में चमगादड़ो का प्रजनन समय चल रहा है, मादा से प्रजनन के पश्चात नर समूह के रूप मे अलग हो जाते है जिससे चमगादड़ो का वितरण और अधिक दिखाई देने लगता है। यह विशाल समहू लोगो द्वारा COVID-19 के चमगादड़ से जुड़े समाचारो के मध्य भयावह स्थिति पैदा करते हैI इस समय कोरोना के डर से इन नर समूह से स्थानीय लोग डर गए, जिस से 45 नर चमगादड़ (Greater Mouse-tailed Bat) मारे गए। इसी के समान झुंझुनू जिले के लोहार्गल क्षेत्र में भी 150 से अधिक चमगादड़ों (Greater Mouse-tailed Bat) को मारा दिया गया।
अज्ञानता के कारण चमगादड़ों को मार दिया गया (फोटो: डॉ दाऊ लाल बोहरा)
भारत में पाए जाने वाले चमगादड़ फल और कीट खाने वाले हैं जो कृषि और पर्यावरण संतुलन के लिए अच्छे हैं। लोगों को अपने अंधविश्वास को छोड़ देना चाहिए और चमगादड़ को मारना बंद कर देना चाहिए क्योंकि वे भारत में मानव जाति के लिए SARS CoV-2 के वेक्टर नहीं हैं। यदि उनके चल रहे प्रजनन के मौसम में गड़बड़ी होती है, तो राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में फलों के चमगादड़ विलुप्त होने का सामना करेंगे, क्योंकि ज्यादातर नर चमगादड़ों को लोगों द्वारा कथित रूप से मारा गया है। चीन में SARS-CoV-2 को जोड़ते हुए राइनोफिडे परिवार के हॉर्सशू चमगादड़ द्वारा ले जाया गया था। यहां तक कि दक्षिण एशियाई चमगादड़ों की दो प्रजातियों में कोरोना वाइरस की खोज पर ICMR की हालिया रिपोर्ट में कोई ज्ञात स्वास्थ्य खतरा नहीं है। अध्ययन में पाए गए वायरस SARS-CoV-2 से अलग हैं और COVID-19 का कारण नहीं बन सकते हैं। लोगों ने चमगादड़ों पर ICMR की अन्य रिपोर्ट का गलत मतलब निकाला है।
रिवर्स ट्रांसमिशन: IUCN व BCI के अनुसार, संक्रमित मानव से घरेलू जानवरों और यहां तक कि चमगादड़ तक रिवर्स ट्रांसमिशन हो सकता है। महाराष्ट्र और गुजरात की तरह COVID-19 की गंभीर सामुदायिक प्रसार स्थितियों में, रिवर्स ट्रांसमिशन की संभावना हो सकती है अमरीका, नीदरलैंड और स्वीडन मे सीवेज जाँच मे कोरोना वायरस पाए गए है न्यूवेजीन, नीदरलैंड के KWR Research Institute के अनुसार सीवेज से संक्रमण फलने की मनुष्य मे कम है परन्तु मवेशियो व चमगादड़ों मे यह संक्रमित जा सकता है। यदि यह घातक वायरस सीवेज, तालाबों, जल निकाय और किसी अन्य अपशिष्ट पदार्थ में मिल जाता है। यह देश के हॉटस्पॉट शहरों में तालाबंदी के बाद ज्यादा विनाशकारी हो सकता है।
COVID-19 महामारी के दौरान चमगादड़ को बचाने के लिए, पहले कर्नाटक सरकार और अब राजस्थान सरकार के अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक अरिन्दम तोमर ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं और चेतावनी दी है कि चमगादड़ किसी भी तरह से चोट या मारे नहीं जाने चाहिए क्योंकि चमगादड़ भारतीय वन्यजीव अधिनियम की अनुसूची-वी 1972के तहत आते हैं। आज तक, उन्हें मारने के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं था, लेकिन अब चमगादड़ नुकसान पहुंचाने वाले चमगादड़ राजस्थान में अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे।
दुनिया भर में चमगादड़ों की 1411 से अधिक प्रजातियां पारिस्थितिक भूमिका निभा रही हैं जो प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों और मानव अर्थव्यवस्थाओं के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। चमगादड़ हमारे मूल वन्यजीवों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो भारत में लगभग एक तिहाई स्तनपायी प्रजातियों को नियमित रखते हैं और इस तरह के वेटलैंड्स, वुडलैंड्स, साथ ही शहरी क्षेत्रों में निवास की एक विस्तृत श्रृंखला पर कब्जा करते हैं। वे हमें पर्यावरण की स्थिति के बारे में बहुत कुछ बता सकते हैं, क्योंकि वे सामान्य निशाचर कीटों के शीर्ष शिकारी हैं। चमगादड़ वास्तव में कीट नियंत्रक होते हैं जो हर रात हजारों कीड़े खाते हैं। भारत के चमगादड़ आपको नहीं काटेंगे या आपका खून नहीं चूसेंगे – लेकिन वे मच्छरों के खून को साफ़ करने में मदद करेंगे। चमगादड़ तिलचट्टे, मेढ़क, मक्खियों और मुख्य रूप से मच्छरों को खाते हैं. एक चमगादड़, एक घंटे में 1,200 से 1,400 मछरों को खाता है। इन मच्छरों की वजह से मलेरिया, टायफायड, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां फैलती हैं। चमगादड परागण तथा छोटे कीट-पतंगों का शिकार करते हैं, जिन कीट-पतंगों की वजह से मनुष्य और फसलों को तरह-तरफ़ का रोग होता है। चमगादड उनको खाकर फसलों के लिए जैविक कीटनाशक का काम करते हैं। वर्तमान में कोरोना वायरस महामारी की वजह से चमगादड़ बताई जा रही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यह वायरस चमगादड़ से ही मनुष्य के शरीर में आया है। जिससे चमगादड़ की एक नकारात्मक छवि बनी है। ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि इस महामारी के बाद की चमगादड़ को लेकर नकरात्मकता बढ़ सकती है, जिससे इस जीव के अस्तित्व पर ख़तरा भी उत्पन्न हो सकता है। पर वर्तमान वैज्ञानिक युग में यह सोचना जरूरी होगा जो मनुष्य के उदभव से मानव उपयोगी रहा हो वो केसे इस महामारी फेला सकता है। वैसे 60 प्रकार के वायरस चमगादड़ में पाए जाते हैं परन्तु ये किसी मनुष्य में नहीं फैलते। यदि वर्तमान में प्रकाशित कोरोना संबंधी अनुसंधान पत्रो को देखे तो कहीं पर कोरोना के लिए चमगादड़ ज़िमेदार नहीं है। COVID-19 चमगादड़ से नहीं फैलता।
चमगादड़ों में पाए जाने वाले वायरस मनुष्यों में नहीं फैलते परन्तु आज इन्ही को सबसे बड़ा खतरा समझा जा रहा है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
भारत में वे चमगादड़ जो कीटभक्षी हैं – वे केवल कीड़े खाते हैं। कीड़े-मकोड़े खाने वाले चमगादड़ों को फसलों से दूर रखने के साथ-साथ चमगादड़ के काटने के स्थानों के लिए बहुत अच्छा है। कपास की खेती में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ को एक महत्वपूर्ण “कीट प्रबंधन सेवा” के रूप में मान्यता दी गई है। क्योंकि चमगादड़ कुछ क्षेत्रों में बहुत सारे कीड़े खाते हैं, वे कीटनाशक स्प्रे की आवश्यकता को भी कम कर सकते हैं। पक्षियों की तरह, कुछ चमगादड़ पेड़ों और अन्य पौधों के बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ उष्णकटिबंधीय फल चमगादड़ अपने अंदर बीज ले जाते हैं क्योंकि वे फल को पचा लेते हैं, फिर मूल पेड़ से दूर बीज को निकालते हैं। ये बीज अपने स्वयं के तैयार उर्वरक में जमीन पर गिरते हैं, जो उन्हें अंकुरित होने और बढ़ने में मदद करते हैं। क्योंकि चमगादड़ परागण और बीज को फैलाने में मदद करते हैं, वे वन निकासी के बाद पुनर्वृष्टि में मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 1411 से अधिक चमगादड़ प्रजातियों में से कई कीटों की विशाल मात्रा का उपभोग करते हैं, जिनमें से कुछ सबसे हानिकारक कृषि कीट हैं। बैट ड्रॉपिंग (जिसे गानो कहा जाता है) एक समृद्ध प्राकृतिक उर्वरक के रूप में मूल्यवान हैं। गुआनो दुनिया भर में एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है, और, जब चमगादड़ को ध्यान में रखते हुए जिम्मेदारी से उपयोग किया जाता है, तो यह भूस्वामियों और स्थानीय समुदायों के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ प्रदान कर सकता है। चमगादड़ों को अक्सर “कीस्टोन प्रजाति” माना जाता है जो रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र के लिए आवश्यक हैं। चमगादड़ के परागण और बीज-प्रसार सेवाओं के बिना, स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र धीरे-धीरे ढह सकते हैं क्योंकि खाद्य श्रृंखला के आधार के पास पौधे वन्यजीव प्रजातियों के लिए भोजन और आवरण प्रदान करने में विफल होते हैं। चमगादड़ जंगल में बीजों को फैलाने में चमगादड़ इतने प्रभावी होते हैं कि उन्हें “उष्णकटिबंधीय के किसान” कहा जाता है। जंगलों को पुनर्जीवित करना एक जटिल प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें पक्षियों, प्राइमेट्स और अन्य जानवरों के साथ-साथ चमगादड़ों द्वारा बीज-प्रकीर्णन की आवश्यकता होती है। लेकिन पक्षी बड़े, खुले स्थानों को पार करने से सावधान रहते हैं, जहां उड़ने वाले शिकारी हमला कर सकते हैं, इसलिए वे आम तौर पर सीधे अपने पर्चों के नीचे बीज गिराते हैं। दूसरी ओर, रात-रात के खाने वाले फलों के चमगादड़, अक्सर हर रात बड़ी दूरी तय करते हैं, और वे काफी हद तक पार करने के लिए तैयार होते हैं और आमतौर पर उड़ान में शौच करते हैं, साफ किए गए क्षेत्रों में पक्षियों की तुलना में कहीं अधिक बीज बिखेरते हैं। रात्रिचर स्वभाव होने के कारण ये रात में फलने और फूलने वाले लगभग सवा पांच सौ प्रजातियों के पेड़ों के परागकण और बीज़ को अलग-अलग प्राकृतिक वास में फैलाते हैं, जिससे जंगल को प्राकृतिक रूप से स्थापित होने में मदद मिलती है। इसलिए इनको ‘प्राकृतिक जंगल को स्थापित’ करने वाले के साथ-साथ, ‘जंगल का रक्षक’ भी कहा जाता है। चमगादड परागण के साथ ही विभिन्न प्रकार के कीट-पतंगों का शिकार करते हैं, जिन कीट-पतंगों की वजह से मनुष्य और फसलों को तरह-तरफ़ का रोग होता है। चमगादड उनको खाकर फसलों के लिए जैविक कीटनाशक का काम करते हैं। एक अध्ययन से यह भी पता चला है कि एक मादा चमगादड़, गर्भावस्था के दौरान अपने शरीर के तीन गुना ज़्यादा वजन तक कीटों का भक्षण कर सकती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक चमगादड़, अपने जीवन काल (लगभग 30 वर्ष) में कितने कीट खाता होगा? इन सबके अलावा चमगादड़ की सुनने की क्षमता बहुत ज़्यादा होती है, जिसकी वजह से ये प्राकृतिक आपदा जैसे तूफान, भूकंप आदि के आने पर अपने व्यवहार में परिवर्तन करते हैं, जिससे मनुष्य को भी इन ख़तरों की कई बार समय से पहले जानकारी हो जाती है।
Greater Mouse-tailed Bat (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
राजस्थान चमगादड़ की विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र 1980 के दशक तक चमगादड़ों की दो प्रजातियों का घर था, और इंदिरा गांधी नहर के निर्माण के साथ, श्री गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, चूरू और कुछ हिस्सों चमगादड़ों की प्रजाति तेजी फेलती गयी। राजस्थान में 25 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती है। जिसमें 3 फल चमगादड़ व 22 कीट खाने वाली प्रजाति पाई जाती है। तीन प्रकार की फल चमगादड़, जिसमें टैरोपस ग्रागेटस, रुस्टस प्रजाति, सिनोपटेरस प्रजाति पाई जाती है। यह सामन्यत बड़े पेड़ो पर लटकी हुई अवस्था में पाई जाती है। यह प्रजाति पीपल बरगद पर लटकी हुई देखी जा सकती है। जो पानी के स्त्रोत के पास रहना पसंद करती है। पुरे राजस्थान मे Lesser Mouse-tailed Bat सर्वाधिक संख्या मे पाई जाती है जो समाज के साथ मनुष्यों के घरो मे, पुरानी हवलियो, मंदिरों मे रहना पसंद करती है। रेगिस्तानी क्षेत्र से 15 प्रजातियों, गैर-रेगिस्तानी क्षेत्र से 17 प्रजातियों और अरावली पहाड़ियों से 16 प्रजातियों पाई जाती है। 7 प्रजातिया Indian Flying Fox, Naked-rumped Tomb Bat, Greater Mouse-tailed Bat, Greater False Vampire Bat, Egyptian Free-tailed bat, Greater Asiatic Yellow House Bat and Least Pipistrelle, राजस्थान के सभी भोगोलिक क्षेत्र मे पाई जाती है सात प्रजातिया Greater Short-nosed Fruit Bat, Egyptian Tomb Bat, Lesser Mouse-tailed Bat, Blyth’s Horseshoe Bat, Fulvous Leaf-nosed Bat, Lesser Asiatic Yellow House Bat and Dormer’s Pipistrelle राजस्थान के रेगिस्तानी व पर्वती दोनों क्षेत्र मे पाई जाती है दो प्रजातिया Leschenault’s Rousette व Long-winged Tomb Bat केवल असुष्क और अरावली पर्वत माला मे ही पाई जाती है I अतःआवश्यकता है इन्हे बचाने की न की इन्हे समाप्त करने की।
रेतीले धोरो, सुखी पहाड़ियों एवं कंटीली झाड़ियों से घिरी सांभर झील कई मौसमी नदियों और नालों से आये खारे जल से समृद्ध आर्द्र भूमि होने के साथ सर्दियों में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों का आशियाना भी है, जो भारत का एक अनूठा पारिस्थितिक तंत्र है…
राजस्थान में स्थित सांभर झील भारत की सबसे बड़ी “लवण जल” अर्थात “खारेपानी” की झील है। इस का प्राचीन नाम, हर्ष शिलालेख 961 ई. में वर्णित, शंकरनक (शंकराणक) था। इसी नाम की देवी के बाद इस का प्राचीन नाम शाकंभरी (शाकंभरी) भी था। सांभर को साल्ट लेक, देवयानी और शाकंभरी मंदिर के तीर्थ के लिए भी जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष उत्तरी एशिया एवं यूरोप से सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। इस झील के अंतरराष्ट्रीय महत्व को समझते हुए इसे वर्ष 1990 में एक रामसर स्थल के रूप में नामांकित किया गया। इस झील का किनारा अद्वितीय है i क्योंकि इस में पोटेशियम की मात्रा कम व सोडियम की मात्रा अधिक है, जिसके चलते इस झील से एक बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन भी किया जाता है परन्तु धीरे-धीरे ये नमक उद्योग, झील तथा यहाँ आने वाले पक्षियों के लिए मुश्किलों का सबब बनता जा रहा है।
सांभर झील मुख्यरूप से नागौर और जयपुर जिले में स्थित है तथा इसकी सीमा का कुछ भाग अजमेर जिले को भी छूता है। यह एक अण्डाकार झील है जिसकी लंबाई 3.5 किमी तथा चौड़ाई 3 से11 किमी है। इसकी परिधि 96 किमी है जो चारों तरफ से अरावली पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस झील का कुल जल ग्रहण क्षेत्र 5700 वर्ग किमी का है। मानसून के बाद शुष्क मौसम के दौरान इस झील के पानी का स्तर 3 मीटर से घटकर 60 सेमी तक रह जाता है, वहीं दूसरी ओर इस जल क्षेत्र का क्षेत्रफल190 से 230 वर्ग किलोमीटर तक बदलता है। चार मुख्य नदियां (मेंढा, रूपनगढ़, खारी, खंडेला), कई नाले और सतह से अपवाहित जल इस झील के मुख्य जलस्रोत हैं।
सांभर झील कि जैव विविधता
इस आर्द्रभूमि का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्व है क्योंकि प्रत्येक वर्ष सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। सर्दियों में यह झील, कच्छ के रण के बाद फुलेरा और डीडवाना के साथ, भारत में फ्लेमिंगो (Phoenicopterus roseus & Phoniconaias minor) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस झील में पेलिकन, कॉमन शेल्डक, रेड शैंक, ब्लैक विंगड स्टिल्ट, केंटिश प्लोवर, रिंग्ड प्लोवर, रफ और रिवर लैपिंग भी पाए जाते हैं। शर्मा एवं चौमाल 2018, के अनुसार अब तक इस झील से एल्गी की 40 से अधिक प्रजातियां दर्ज की गयी हैं। झील में उगने वाले विशेष प्रकार के एल्गी एवं बैक्टीरिया इसके पारिस्थितिक तंत्र का आधार है, जो जल पक्षियों का भोजन बन उनका समर्थन करते है।
सांभर झील में विचरण करते फ्लेमिंगो (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
सांभर झील के पास Peregrine falcon (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
नमक उत्पादन – इतिहास कि नजर से
जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ सांभर झील पुरातत्व दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं मुगलकालिक नमक उदपादक क्षेत्र भी है। जोधा बाई (जयपुर राज्य के भारमल की बेटी) या मरियम-उज़-ज़मानी की शादी अकबर से 20 जनवरी, 1562 को सांभर लेक टाउन में हुई थी। झील से नमक आपूर्ति मुगल वंश (1526-1857) द्वारा आरम्भ किया गया, जो बाद में जयपुर और जोधपुर रियासतों के संयुक्त रूप से स्वामित्व में था। 1884 में, सांभर झील में किए गए छोटे पैमाने पर उत्खनन कार्य के हिस्से के रूप में क्षेत्र में प्राचीन मूर्तिकला की खोज की गई थी। पुरातत्व विभाग ने नलसर नामक स्थान पर सांभर में खुदाई की थी जिसने इसकी प्राचीनता का संकेत दिया था। उस खुदाई के दौरान, मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया था जिस में बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियाँ, पत्थर के पात्र और सजे हुए डिस्क पाए गए थे। सांभर की कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।
वर्तमान में नमक-वाष्पीकरण पैन और शोधन कार्य झील के पूर्वी किनारे पर स्थित हैं। सांभर झील के किनारे तीन गाँव बसे हुए हैं, पूर्वी तट पर सांभर, उत्तर-पश्चिमी तट पर नवा और इनके बीच में गुढ़ा। इन गाँवों के लोग नमक उद्योग पर निर्भर हैं। प्रतिवर्ष इस झील से लगभग 2,10,000 टन नमक का उत्पादन किया जाता है। परन्तु कुछ स्थानीय लोग बोरवेल द्वारा पानी की निकासी कर सालाना 15-20 लाख मैट्रिक टन से भी अधिक नमक का उत्पादन करते है जिसके फलस्वरूप आज राजस्थान भारत के शीर्ष तीन नमक उत्पादक राज्यों में से एक है। लगभग 30 -35 वर्ष पूर्व यहाँ मत्स्य व्यापार भी किया जाता था क्योंकि वर्ष 1985 में, सांभर में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी तथा यह स्थिति एक वर्ष तक बनी रहने के कारण यहाँ मत्स्य संसाधनों में वृद्धि कर व्यापार शुरू किया गया। वर्ष 1992 में, फिर से झील में भारी वर्षा के कारण मत्स्य संसाधनों में दुबारा वृद्धि हुई परन्तु पहले चरण में जीवित रहने के बाद जब पानी की लवणता 1से1.20 हो गई तो मत्स्य पालन के लिए खतरा पैदा हो गया, अंततः उनकी मृत्यु हो गई और इसका कोई व्यावसायिक मूल्य नहीं रहा।
सांभर झील के किनारों पर बने नमक वाष्पीकरण की इकाइयां दर्शाता मानचित्र
नमक उत्पादन–वर्तमान स्थिति
वर्तमान में सांभर झील पर 5.1 किमी लंबा बलुआ पत्थर का बांध भी बना हुआ है जो इस झील को दो भागों में विभाजित करता है। खारे पानी की सांद्रता एक निश्चित सीमा तक पहुंचने के बाद, बांध के फाटकों को खोल पानी को पश्चिम से पूर्व की ओर छोड़ दिया जाता हैं। इस बांध के पूर्व में ही नमक के वाष्पीकरण वाले तालाब हैं जहाँ पिछले हजार से भी अधिक सालों से नमक की खेती की जाती है। नमक उत्पादन का नियंत्रण स्थानीय समुदायों से राजपूतों, मुगलों, अंग्रेजों और अंत में आज यह सांभर साल्ट्स लिमिटेड, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड (भारत सरकार) जयपुर विभाग और अजमेर व् नागौर खनन विभाग (राजस्थान सरकार) के बीच एक संयुक्त उद्योग है। इनके अलावा कुछ निजी ठेकेदार जिनकी भूमि झील के पास स्थित है नमक का उत्पादन करते है।
वहीँ दूसरी ओर देखे तो आज नमक निष्कर्षण की पारंपरिक प्रक्रिया जो मानसून पर निर्भर हुआ करती थी लगभग समाप्त हो गई है। अब ठेकेदार छोटी अवधि में अधिक से अधिक नमक निकालने की कोशिश करते हैं। सांभर झील में नदियों और नालों पानी झील के तलछट के साथ प्रतिक्रिया कर नमक बनाता है, जिसे क्रिस्टलीकृत नमक को पीछे छोड़ते हुए वाष्पित होने में लगभग 50 – 60 दिन लगते हैं। परन्तु आज अधिकांश ठेकेदार इस प्रक्रिया अवधि को 15 – 20 दिनों की करने के लिए भूजल का उपयोग करते हैं तथा इसके लिए गहरे अवैध बोरवेल लगाए गए हैं। भूजल के अत्यधिक इस्तेमाल ने क्षेत्र में भूजल का स्तर लगभग 40 फीट तक कम कर दिया है तथा इस से आस-पास के गांवों में पानी की कमी होने लगी है।
आज ठेकेदारों द्वारा झील से ज्यादा से ज्यादा नमक निकला जाता है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
मानवीय हस्तक्षेप
सांभर झील के पारिस्थितिक तंत्र पर खतरे के लिए विभिन्न कारक जिम्मेदार है जैसे की झील के जल ग्रहण क्षेत्र के लैंडयूज पैटर्न में भी बदलाव हो रहा है। नमक उत्पादक इकाइयाँ झील के किनारों के ऊपर आ गई हैं और मेंढा व् रूपनगढ़ से आने वाले पानी को रोक रहीं हैं। हालांकि झील का जल ग्रहण क्षेत्र बहुत विशाल है, परन्तु फिर भी इसे मानवीय हस्तक्षेप के कारण बहुत कम अपवाह प्राप्त हो रहा है। जल ग्रहण क्षेत्र में अनियोजित निर्माण ने वर्षा जल के प्रवाह को भी रोक दिया है। सूखे की वजह से, सरकार ने कृषि के लिए चेक डैम और एनीकट बनाकर पानी की कटाई व् भूजल के स्तर को सुधारने की एक पहल की। परन्तु इस से, झील का जल प्रवाह पूरी तरह से जल ग्रहण क्षेत्र से बंद हो गया है। पानी में लवणता बढ़ने के परिणाम स्वरूप कुछ प्रमुख नमक निर्माता संसाधनों का दोहन कर रहे हैं तो कुछ कम और सीमांत नमक निर्माता झील की परिधि में उप-मिट्टी से नमक निर्माण कर रहे हैं।
मानवीय हस्तक्षेपों के चलते झील में लवणता बढ़ गयी है जिसके परिणाम स्वरूप आज जीवों की विविधता कम हो रही है जैसे की ग्रीन एल्गी जो शुरू में ताजे पानी में ज्यादा पायी जाती थी, आज पूरी तरह से गायब हो गई है। कभी वर्ष 1982-83 में, 5 लाख से अधिक फ्लमिंगोस को इस झील में गिना गया, तो बड़ी संख्या में पेलिकन भी सर्दियों के दौरान इस झील में एकत्रित हुआ करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में फ्लमिंगोस की संख्या घटकर 20,000 हो गई।
विडम्बना
स्थिति की विडम्बना यह है कि विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों के लिए इसके महत्त्व को समझते हुए भी सांभर को आज एक नमक के स्रोत के रूप में ही जाना जाता है। ऐसा नहीं है की भारत सरकार ने इसके संवर्धन के लिए कोई योजना नहीं बनायीं हैं क्योंकि, यदि वर्ष 2015 की लोकसभा की एक पत्रावली को देखे तो 7.19 करोड़ रुपये राशि सांभर झील के विकास के लिए दिए गये थे; परन्तु जिम्मेदारी पूर्ण नीति के अभाव में सांभर कि आर्द्रभूमि आज संकटग्रस्त है, सरकार को सर्वप्रथम इस स्थान को संरक्षित करना चाहिए तथा इसकी जैव-विविधता को संरक्षित करने के लिए निति बनानी चाहिए।